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न्यायकन्दलीसंवलिप्रशस्तपादभाष्यम्
[ उद्देशप्रशस्तपादभाष्यम् अथ के द्रव्यादयः पदार्थाः, किञ्च तेषां साधन्यं वैधमञ्चेति ।
तत्र द्रव्याणि पृथव्यप्तेजोवाय्वाकाशकालदिगात्ममनांसि सामान्यविशेषसंज्ञयोक्तानि नवैवेति । तद्व्यतिरेकेणान्यस्य संज्ञानभिधानात् ।
द्रव्यादि कौन-कौन पदार्थ हैं ? एवं उनके साधर्म और वैधर्म्य क्या हैं ?
उन पदार्थो में ( १) पृथिवी, (२) जल, (३) तेज, (४) वायु, (५) आकाश (६) काल, (७) दिक्, (८) आत्मा और (E) मन ये नौ ही द्रव्य सूत्रकार के द्वारा सामान्य (द्रव्यसंज्ञा) और विशेष (पृथिव्यादिसंज्ञा ) संज्ञाओं से कहे गये हैं। क्योंकि पदार्थो के उपदेश के लिये सर्वज्ञ महर्षि ने इन नवों को छोड़ कर और किसी द्रव्य का नाम नहीं लिया है।
न्यायकन्दली __ एवं षट्पदार्थज्ञानस्य पुरुषार्थोपायत्वं प्रतीत्य तेषां प्रत्येकं भेदजिज्ञासाथ परिपृच्छति-अथ के द्रव्यादय इति। कानि द्रव्याणि ? के गुणाः ? कानि कर्माणीत्यादि योजनीयम् । नावश्यं धम्मिणि ज्ञाते धर्मा ज्ञायन्त इति, तेन धर्मेषु पृथक् प्रश्नः-किञ्च तेषामित्यादि। अत्रापि चः समुच्यये।
उत्तरमाह-तत्रेत्यादि । तेषु द्रव्यादिषु मध्ये, द्रव्याणि पृथिव्यादीनि, सामान्यविशेषसंज्ञया सामान्यसंज्ञया द्रव्यसंज्ञया, विशेषसंज्ञया प्रत्येकमसा
इस प्रकार द्रब्यादि छः पदार्थों में मुक्ति की कारणता को समझाकर, उन पदार्थों में से प्रत्येक की जिज्ञासा के लिये प्रशस्तदेव "अथ के द्रव्यादयः” इत्यादि प्रश्नभाष्य लिखते हैं
'अथ के द्रव्यादयः' इत्यादि प्रश्नभाष्य की व्याख्या' '-द्रव्य कितने हैं ?' 'गुण कितने हैं ?' इत्यादि रीति से करनी चाहिए। धर्मी के ज्ञात हो जाने पर यह आवश्यक नहीं है कि धर्म भी ज्ञात ही हो जाएँ। अतः “किञ्च तेषाम्” इत्यादि से धर्म के विषय में अलग प्रश्न करते हैं । यहाँ भी 'च' शब्द समुच्चय का ही बोधक है।
( कथित दोनों प्रश्नों का समाधान क्रमशः करते हैं ) 'तत्र' अर्थात् उन छः पदार्थों में, 'द्रव्याणि' अर्थात् पृथिव्यादि नौ द्रव्य, “सामान्यविशेषसंज्ञया" सामान्यसंज्ञा से अर्थात् द्रव्य नाम से, विशेषसंज्ञा से अर्थात् पृथिव्यादि विशेष नामों से-पृथिवीत्व, जलत्व,
१. अभिप्राय यह है कि न्यादिभाग वाक्य के पहिले का 'तत्र के द्रव्यादयः' ? इत्यादि प्रश्नवाक्य केवल यहाँ के लिये ही नहीं है, किन्तु गुणादि के विभाग वाया
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