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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [मङ्गलाचरन
न्यायकन्दली वृद्धव्यवहारात् कार्यान्वितेऽर्थे व्युत्पत्तिरभूत् ? किमुत प्रसिद्धपदसामानाधिकरण्येनोपदेशाद्वा स्वरूपेऽर्थ इति निश्चयो नास्ति, इदम्प्रथमताया अभावात् । किञ्च प्रयोक्तुरन्विते व्युत्पत्तिः श्रोतुश्चानन्विते, अन्यव्युत्पत्त्याऽन्यो न शब्दार्थ प्रत्येति, ततश्च मधुकरशब्दस्यानन्वितार्थत्वमन्वितार्थत्वञ्च पुरुषभेदेनेत्यर्द्धवैशसमापतितम् । क्रियाकाङ्क्षानिबन्धनः पदार्थानामन्योन्यसम्बन्धो नाख्यातपदरहितेषु वेदान्तवाक्येषु भवितुमर्हतीति चेत् ? न तावत्सर्वत्र क्रियाया अभावः, यत्र तु नास्ति तत्रोपसंसर्गपरतया पदैरभिहितानां पदार्थानामेव योग्यतासन्निधिमतामन्योन्याकाङ्क्षानिबन्धनः सम्बन्धः । तथा च 'काञ्च्यामिदानी त्रिभुवनतिलको राजा' इत्यत्रापि क्योंकि वाक्य के प्रयोक्ता को वृद्ध-व्यवहार से कार्यत्वविशिष्ट अर्थ में शक्ति गृहीत हुई थी, या प्रसिद्धपद के सामानाधिकरण्य के उपदेश से 'स्वरूप' अर्थात् कार्यत्व से असम्बद्ध अर्थ में हो शक्ति गृहीत हुई थी, इसका कोई निश्चय नहीं है। यह नियम भी नहीं है कि वृद्ध-व्यवहार से ही उस परम्परा में शक्ति गृहीत हुई है और उसके पश्चात् प्रसिद्धपद के सामानाधिकरण्य से या उपदेश से । अगर यह मान भी लें कि वहाँ वक्ता को वृद्ध-व्यवहार से कार्य्यत्वविशिष्ट अर्थ में ही शक्ति गृहीत हुई है, तब भी यह मानना ही पड़ेगा कि उक्त स्थल में बोद्धा को कार्यत्व से अनन्वित केवल स्वरूप में ही शक्ति गृहीत होती है। अतः इस वाक्य के 'मधुकर' शब्द का इस प्रकार कार्य्यत्व विशिष्ट अर्थ में एवं कार्यत्व से असम्बद्ध केवल स्वरूपार्थ में, दोनों जगह शक्ति की कल्पना करनी पड़ेगी। क्योंकि एक व्यक्ति के शक्ति-ज्ञान से दूसरे व्यक्ति को शाब्दबोध नहीं होता है । तस्मात् इस पक्ष में अर्द्धजरतीय न्याय हो जायगा । (प्र०) पदार्थों का परस्पर सम्बन्ध क्रिया की आकाङ्क्षा से होता है । वेदान्तवाक्यों में क्रियापद नहीं रहते, अतः वे परस्पर असम्बद्ध होने के कारण निराकाङ्क्ष हैं, फलतः अर्थ के बोधक न होने के कारण प्रमाण भी नहीं हैं । ( उ०) यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि पहिले तो यही असत्य है कि वेदान्तों में क्रियापद नहीं रहते। क्योंकि "अशरीरम्" इत्यादि क्रियापद से युक्त वेदान्त का उल्लेख कर चुके हैं। दूसरी बात है कि यह नियम ही ठीक नहीं है कि वाक्यों का परस्पर सम्बन्ध क्रिया की आकाङक्षा से ही उत्पन्न होता है । अतः जहाँ क्रियापद नहीं है, वहाँ भी पदों में परस्पर सम्बद्ध रूप से कथित आकाङ्क्षा, योग्यता और संनिधि से युक्त पदार्थों में ही आकाङ्क्षामूलक परस्पर सम्बन्ध है। क्योंकि “काञ्च्यामिदानी त्रिभुवनतिलको राजा"
वस्तुओं में जीव प्रवृत्त होता है, अथवा अनिष्टसाधनत्व के अनुसन्धान से उत्पन्न द्वेष से निवृत्त होता है। फलतः यथार्थ ज्ञान से उत्पन्न इच्छा और द्वेष इन दोनों से ही क्रमशः प्रवृत्ति और निवृत्ति होती है। अगर ज्ञान के बाद किसी प्रतिबन्ध के कारण इष्टसाधनत्व या अनिष्टसाधनत्व का अनुसन्धान न हुमा तो फिर प्रवृत्ति और निवृत्ति को भी उत्पत्ति नहीं होती । किन्तु इससे ऐसा नहीं कह सकते कि उस शब्द से ज्ञान उत्पन्न ही नहीं हुआ।
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