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न्यायकन्दलीसंवलितप्रशस्तपादभाष्यम् [मङ्गलाचरण
न्यायकन्दली न सिद्धार्थप्रतिपादकत्वमनुवादकत्वम्, प्रत्यक्षस्याप्यनुवादकत्वप्रसङ्गात्। किन्त्वधिगताधिगन्तृत्वम्, ईदृशश्च वेदान्तानामर्थो यदयं भूतोऽपि प्रत्यक्षादेः प्रमाणान्तरस्य न विषयः, कुतस्तेषामनुवादकता कुतश्च सापेक्षत्वम्, स्मृतेरिव तेभ्यः पूर्वाधिगमसंस्पर्शनार्थप्रतीतेरभावात् । अत एव पुरुषवाक्यमपि प्रमाणम् । नहि तदपि वक्तृप्रमाण्योत्थापनेनार्थं प्रतिपादयति, किन्त्वनपेक्षिततद्वयापारं स्वयमेव, उत्पत्तिमात्र एव तदपेक्षणात्। स्वाभाविकी हि पदानां पदार्थपरता, स्वाभाविकी च पदार्थानामाकाङ्क्षासन्निधियोग्यतावतामितरेतरान्वययोग्यता। तेन यथा वेदे प्रमाणान्तरानपेक्षः शब्दः, शब्दसामर्थ्यादेवार्थप्रत्ययः, एवं लोकेऽपि ये लौकिका वैदिकास्त एव चार्था इति न्यायेनोभयत्रापि शब्दशक्तेबोध का साधकतम'का अर्थात् कारण नहीं है । । (उ०) किन्तु यह कथन भी असङ्गत ही है क्योंकि भूतार्थ का प्रतिपादक होना ही अनुवादक होना नहीं है । (ऐसा मान लेने पर) प्रत्यक्ष प्रमाण भी अनुवादक होगा । किन्तु ज्ञात विषय का ज्ञापक ही अनुवादक होता है। वेदान्तों से प्रतिपादित होनेवाले अर्थ निष्पन्न होने पर भी प्रत्यक्षादि अन्य प्रमाणों के विषय नहीं है । तब वेदान्तों में प्रमाणान्तरसापेक्षत्व कैसा ? और अनुवादकता कैसी ? क्योंकि वेदान्त वाक्यों से स्मरण की तरह अर्थों की प्रतीति पूर्वानुभव से नहीं होती । इसी लिए पुरुष के वाक्य भी प्रमाण हैं। वे भी अपने अर्थविषय बोध के उत्पादन में वक्ता के प्रामाण्य-ज्ञान की अपेक्षा नहीं रखते। अपनी उत्पत्ति में ही वक्ता की अपेक्षा रखते हैं। किन्तु सुनने के बाद ही वक्ता के प्रामाण्य-ज्ञानरूप व्यापार की अपेक्षा नहीं रखते हुए ही केवल अपने सामर्थ्य से अपने अर्थ का बोध करा देते हैं। पदों में अपने अर्थों के बोध के उत्पादन की स्वाभाविक 'शक्ति' है। अतः जैसे वेदों में दूसरे प्रमाणों की सहायता के विना ही केवल उन शब्दों के सामर्थ्य से ही अर्थ का बोध होता है, वैसे ही लोक में भी-- "जो पद लोक में जिस अर्थ में प्रयुक्त है, सन्भव होने पर उस पद से वेद में भी उसी अर्थ का बोध होता है" (शाबरभाष्य), इस न्याय से लौकिक और वैदिक
१. अनवादक वाक्य का प्रसिद्ध उदाहरण है-'नधास्तीरे फलानि सन्ति" । इस वाक्य में प्रामाण्य तभी होता है, जब कि नदी किनारे के फलों को प्रत्यक्षादि प्रमाण के द्वारा जाननेवाले पुरुष से वह प्रयुक्त हुआ हो । अतः उस बोध का 'साधकतम' अर्थात् 'करण' वहीं प्रमाण होगा, जिससे प्रयोक्ता को उक्त प्रमा का ज्ञान हुआ हो। अतः उक्त वाक्य अपने अर्थविषयक बोध का कारण होने पर भी साधकतम 'करण' रूप प्रमाण नहीं है । तस्मात् अनुवादक वाक्य दूसरे प्रमाण से सापेक्ष रहने के कारण प्रमाण नहीं है ।
२. स्मृति (स्मरण) के प्रति पूर्वानुभव कारण है । स्मृति का प्रमात्व उसके कारणीभूत पूर्वानुभव के प्रमात्व के अधीन है। अतः संस्कार स्मृति का कारण होते हुए भी
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