Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-३९
इंगिनी और प्रायोपगमन (प्रायोग्यविधि) का लक्षण -
अप्पोवयारवेक्खं परावयारूणामगिणोमरणं।
सपरोवयारहीणं मरणं पाओवगमणमिदि ॥१॥ अर्थ - संन्यासमरण के समय अपने शरीर का उपचार (सेवा) स्वयं करे, अन्य से नहीं करावे । इस प्रकार की विधिपूर्वक जो मरण करता है वह इंगिनीमरण है। तथा अपने शरीर की सेवा दूसरों से न करावे और स्वयं भी न करे, इस प्रकार की विधिपूर्वक शरीर को जो छोड़ना वह प्रायोपगमनमरण कहलाता है। आगे नोआगमद्रव्य का दूसरा जो भावी भेद है, उसको कहते हैं -
भवियंति भवियकाले कम्मागमजाणगो स जो जीवो।
जाणुगसरीर भवियं एवं होदित्ति णिढ़ि॥३२॥ अर्थ - जो जीव कर्मस्वरूपआगम का ज्ञाता भविष्य में होगा, वह जीव ज्ञायकभावीशरीरी है। इस प्रकार भावीज्ञायकशरीरी का लक्षण सर्वज्ञ ने कहा है। आगे नोआगमद्रव्यकर्म के तीसरे 'तद्व्यतिरिक्त' भेद को कहते हैं -
तव्वदिरित्तं दुविहं कम्मं णोकम्ममिदि तहिं कम्मं ।
कम्मसरूवेणागय कम्मं दव्वं हवे णियमा ॥६३॥ अर्थ - तद्व्यतिरिक्त के दो भेद है - कर्मतव्यतिरिक्त और नोकर्मतव्यतिरिक्त । ज्ञानावरणादि मूल तथा मतिज्ञानावरणादि उत्तरप्रकृतिरूप परिणत हुए पुद्गलद्रव्य को कर्मतद्व्यतिरिक्त-नोआगमद्रव्यकर्म कहते हैं।
अथानन्तर नोकर्मतव्यतिरिक्त का लक्षण एवं भावनिक्षेपरूपकर्मके भेदोंका कथन करते हैं -
कम्मदव्वादण्णं दव्वं णोकम्मदव्वमिदि होदि।
भावे कम्मं दुविहं आगमणोआगमंति हवे ॥६४।। १. 'जाणुगसरीरि' इति प्रातिभाति । २. जीव तो शरीर नहीं हो सकता, शरीरी हो सकता है। अत: यहाँ शरीरी शब्द लिखा है। गाथा में 'जाणुग-सरीरि भवियं'
के स्थान पर 'जाणुगसरीर भवियं लिपिकार से लिखा गया है और वही परम्परा चली आई। एक मात्रा के छूट जाने से ही अर्थ विपर्यास की परम्परा चली आ रही है ऐसा प्रतिभासित होता है, क्योंकि भावीशरीर का वर्णन तो स्वयं आचार्य गाथा ५५ में कर चुके हैं यहाँ तो भाविजीव शरीरी) का कथन प्रकरण प्राप्त है।