Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-३८
विशेषार्थ - गाथा में कथित कारणों के अतिरिक्त अन्य भी ऐसे अनेककारण हैं जिनके निमित्त से अकालमरण होता है। जैसे - "हिम, अग्नि, पानी, बहुत ऊँचे पर्वत अथवा वृक्षों पर चढ़ने और गिरने के समय होनेवाले अङ्गभङ्ग से तथा रसविधा के लिए योगधारण और अनीति के नानाप्रसंगों से आयुक्षय होती है अर्थात् कदलीघातमरण होता है।' अब च्यावित-त्यक्त तथा भूतज्ञायकशरीर का लक्षण कहते हैं -
कदलीघादसमेदं चागविहीणं तु चइदमिदि होदि।
घादेण व अघादेण व पडिदं चागेण चत्तमिदि ।।५८॥ अर्थ - जिस ज्ञायक का भूतशरीर अकालमरण से नष्ट हो गया है, किन्तु संन्यास से रहित हो। उसे च्यावित कहते हैं। जो कदलीघात सहित या उसके बिना लेकिन संन्यासपूर्वक छूटा है उसे त्यक्त कहते हैं। अब त्यक्तशरीर के भेद कहते हैं -
भत्तपइण्णाइंगिणिपाउग्गविधीहिं चत्तमिदि तिविहं ।
भत्तपइण्णा तिविहा जहण्णमज्झिमवरा य तहा ।।५९ ॥ अर्थ - त्यक्तशरीर के तीन भेद हैं - भक्तप्रतिज्ञा, इंगिनी और प्रायोग्य विधि । इनमें भक्तप्रतिज्ञा के भी तीन भेद हैं - उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य। अथानन्तर जघन्यादि भेदों का काल कहते हैं -
भत्तपइण्णाइविहि जहण्णमंतोमुहुत्तयं होदि ।
वारसवरिसा जेट्ठा तम्मझे होदि मज्झिमया ॥६०॥ अर्थ – भक्तप्रतिज्ञा अर्धात् भोजनत्याग की प्रतिज्ञा करके जो संन्यासमरण होता है उसके काल | का प्रमाण जधन्य से अन्तर्मुहूर्त एवं उत्कृष्ट १२ वर्ष प्रमाण है तथा अन्तर्मुहूर्त से एक-एक समय बढ़ते हुए बारहवर्षपर्यन्त जितने भेद हैं वे सब मध्यमकाल के भेद जानना।
१. हिमजलणसलिलगुरुयर पब्बयतरुरुहणपडणभंगेहि ।
रसविज्ज जोय धारण अणयपसंगेहि विविहेहिं॥२६।। भावप्राभृत ।।