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विजयोदय टीका
२९
विनाभाविता कथनेन श्रद्धानस्यापि कथितैव भवति । चारित्रमेव ज्ञानदर्शने इति कल्पनायां 'नाटूण हवइ परिहारो' इति पूर्व ज्ञानं पश्चात्परिहार इति अत्र भेदोपन्यास: ' सूत्रकारस्य अघटमानः स्यात् । तं चेवेति नपुंसकलिंगनिर्देशश्च न स्यात् । 'सो चेव हवइ णाणं' इति वक्तव्यं भवति परिहारशब्दस्य पुल्लिंगत्वात् । अथवा कर्तव्याकर्तव्यपरिज्ञाने सत्यकर्तव्यानां मिथ्यादर्शनं ज्ञानं, असंयमः कषाया, योग इत्यमीषां परिहारश्चारित्रमित्येतस्मिन्नर्थे परिगृहीते 'तं चेव परिहरणसामान्यं चारित्रं, ज्ञानं दर्शनं इत्येकमेवेति । चारित्राराधनायामेव भेदवादिनोऽभिमतस्याराधनाप्रकारस्यान्तलींनतया चारित्राराधन केवेति सूत्रार्थः ॥
चारित्राराधनायामंतर्भावो ज्ञानदर्शनाराधनयोरेव निगदितो न तपस आराधनाया इत्यत आहचरणम्मि तम्मि जो उज्जमो आउंजणा य जो होई ।
सो चेव जिणेहिं तवो भणिदो असढं चरंतस्स || १० |
'चरणम्मि' चारित्रे । 'तम्मि' एतस्मिन् अकर्तव्यपरिहरणे | 'जो य उज्जमो' उद्योगः । 'आउंजणा य' उपयोगश्च । 'जिर्णोहि तत्रो होदित्ति भणिदो' इति पदघटना । चरणोद्योगोपयोगावेव तपो भवतीति जिनैः कृतकर्मारिपराजयैरुक्तमिति यावत् । कृतसुखपरिहारो हि चारित्रे प्रयतते न सुखासक्तचित्तस्ततश्च बाह्यानि चारित्रकी ज्ञानके साथ अविनाभाविता बतलानेसे श्रद्धानकी भी अविनाभाविता कही गई समझना । यदि चारित्रको ही ज्ञान और दर्शनरूप माना जाता है तो ' जानकर परिहार होता है' इस कथनमें जो पहले ज्ञानका और पश्चात् परिहारका भेदरूपसे उपन्यास ग्रन्थकारने किया है। वह नहीं बन सकेगा । तथा 'तं चेव' इस पदमें जो नपुंसक लिंगका निर्देश किया है वह भी नहीं बनेगा, किन्तु 'सो चेव हवइ णाणं' ऐसा प्रयोग करना होगा क्योंकि 'परिहार' शब्द पुंल्लिंग है और वही चारित्र है |
अथवा कर्तव्य और अकर्तव्यका परिज्ञान होने पर अकर्तव्य जो मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयम, कषाय और योग हैं उनका परिहार चारित्र है, ऐसा अर्थ लेने पर 'तं चेव' अर्थात् परिहारसामान्य ही चारित्र, ज्ञान और दर्शन है इस प्रकार एक ही है । इस प्रकार चारित्राराधनामें ही भेदवादियोंको इष्ट आराधनाके प्रकारोंका अन्तर्भाव होनेसे चारित्राराधना एक ही है यह इस गाथासूत्रका-अर्थं है |
भावार्थ - चारित्रके दो प्रकार है— कर्तव्यको स्वीकार करना और अकर्तव्यको त्यागना । ज्ञान और दर्शन पूर्वक हितकी प्राप्ति तथा अहितके परिहाररूपसे परिणत चैतन्य ही ज्ञान और दर्शनरूप है | अतः चारित्रका ज्ञान और दर्शनके साथ अविनाभाव होनेसे चारित्रमें दोनोंका अन्तर्भाव होता है ॥ ९ ॥
चारित्राराधनामें ज्ञानाराधना और दर्शनाराधनाका ही अन्तर्भाव कहा है, तप आराधनाका नहीं कहा । अतः कहते हैं
गा० - उस अकर्तव्यके त्यागरूप चारित्रमें जो उद्योग है और उपयोग होता है, उन उद्योग और उपयोगको ही छल कपट त्यागकर करने वालेका जिनेन्द्रदेवने तप कहा हैं ॥ १० ॥
कहा
टी० - उस अकर्तव्य के परिहाररूप चारित्रमें जो उद्योग और उपयोग है जिनदेवने उसे तप । अर्थात् चारित्र में उद्योग और उपयोग ही तप है, ऐसा कर्मरूपी शत्रुओं को पराजित करने १. भेदोप नासने-आ० । २. अघटमानं-आ० ज० ।
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