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विजयोदया टीका
गामिनां शास्त्रकाराणां न्यायादपेतेच्छा अयुका ।
कथं चारित्राराधनायां कथितायां इतरासां प्रतिपत्ति रविनाभावात् तावज्ज्ञानदर्शनाराधनयोरन्तर्भावइत्युत्तरगाथायाः पूर्वार्द्धन कथयति
कायव्वमिणमकायव्वयत्ति णाऊण होइ परिहारो।
तं चेव हवइ गाणं तं चेव य होइ सम्मत्तं ।। ९॥ 'कायन्वं' कर्तव्यं । 'इणं' इदं । 'अकायन्वयत्ति' अकर्तव्यमिति । 'णादण' ज्ञात्वा । 'हवदि' भवति । 'परिहारो' परिवर्जनं चारित्रमिति शेषः । कर्तव्याकर्तव्यपरिज्ञानं पूर्व तदुत्तरकालं अकर्तृपरिहरणं यत्तच्च चारित्रमिति सूत्रार्थः । ननु परिहार इत्यत्र परिहारो वर्जनार्थः । तथा हि-परिहरति सर्पमित्यत्र सपं वर्जयतीति गम्यते। ततश्च यद्वर्जनीयं तत्परिज्ञानमेव वर्जनमुपयुज्यते । तत एवं वक्तव्यं-अकादववत्ति' णादण हवदि परिहारो इति, कादव्वमित्येतत्किमर्थमपन्यस्तं ? कर्तव्यपरिज्ञानं करणे एवोपयुज्यते इति । अत्र प्रतिविधीयते-कादव मिणति पादूण हव दि परिहारो इति पदघटनका, अकादम्वमिणत्ति णादूण हवदि परिहारो इत्यपरा ॥ तत्राद्यायां पदघटनायां परिशव्दः समंताद्भाववृत्तिः । यथा परिधावतीत्यत्र हि समंताद्धावतीति गम्यते। हरति तूपादानवचनः । तथाहि प्रयोगः-कपिलिका हरति-कपिलिकामुपादत्त इति यावत् । मनसा, वचसा, कायेन कर्तव्यस्य संवरहेतोरुपादानं गुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीपहजयानां उपादानं चारित्रमिति कहोगे कि यह उनकी इच्छा है तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि न्यायका अनुसरण करनेवाले शास्त्रकारोंकी इच्छा न्यायसे रहित नहीं होती ।। ८॥
चारित्राराधनाके कहनेपर अन्य आराधनाओंका ज्ञान कैसे सम्भव है ? इस प्रश्नका समाधान है कि चारित्राराधनाके साथ ज्ञान और दर्शनका अविनाभाव है अतः उसमें उनका अन्तर्भाव होता है। यही वार्ता आगेकी गाथाके पूर्वार्द्धसे कहते हैं
गा०-यह कर्तव्य है और यह अकर्तव्य है इस प्रकार जानकर त्याग होता है। वही चैतन्यज्ञान है और वही सम्यक्त्व है ।। ९ ॥
टी०-पहले कर्तव्य और अकर्तव्यका परिज्ञान होता है। उसके पश्चात् अकर्तव्यका त्याग किया जाता है । यही चारित्र है । यह गाथासूत्रका अर्थ है ।
शंका–'परिहारो' में परिहार शब्दका अर्थ त्याग है। इसका खुलासा इस प्रकार है-- 'सर्पका परिहार करता है ऐसा कहनेपर 'सर्पको त्यागता है' यही अर्थ ज्ञात होत । अतः जो त्यागने योग्य है उसीका जानना योग्य है। ऐसी स्थितिमें ऐसा कहना चाहिए कि 'अकर्तव्यको जानकर उसका परिहार होता है।' तब कर्तव्यको जाननेको क्यों कहा ? कर्तव्यका परिज्ञान तो करनेके लिए होता है छोड़नेके लिए नहीं होता ?
उत्तर-गाथामें 'कादव्वमिणत्ति णादूण वदि परिहारो' यह एक पद सम्बन्ध है। और 'अकादम्वमिणत्ति णादण हवदि परिहारो' यह दूसरा पद सम्बन्ध है । उनमेंसे प्रथम पद सम्बन्धमें 'परि' शब्दका अर्थ अच्छी तरह या पूर्णरूपसे होता है। जैसे 'परिधावति' का अर्थ अच्छी तरहसे, या पूर्णरूपसे दौड़ता है। 'हरति' का अर्थ ग्रहण करना है । जैसे 'कपिलिकां हरति' का अर्थ कपिलिकाको ग्रहण करता है। अतः इस वाक्यका अर्थ होता है-मनसे, वचनसे, कायसे, संवरके
१. व्वं पित्ति-ज०। २. कपलिका-न० ।
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