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विजयोदया टीका
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अहवेति । एकद्वयादिसंख्येयासंख्येयानंतरूपेण हि जैनी निरूपणा ॥ चरन्ति यान्ति तेन हितप्राप्ति अहितनिवारणं चेति चारित्रं, चर्यते सेव्यते सज्जनैरिति वा चारित्रं सामायिकादिक, तस्याराधनायां तत्परिणतो सत्यां आराधितं निष्पादितं । 'हवई' भवति । 'सव्वं' सर्व ज्ञानं दर्शनं तपश्च. प्रकारका प्रवृत्तः । यथा सर्वमोदनं भुंक्ते इति व्रीहिशाल्योदनप्रकारकात्स्न्यं भुजिक्रियायाः कर्मत्वेन प्रतीयते । एवमिहापि मुक्त्युपायप्रकाराणां ज्ञानादीनां सामस्त्यमाख्यायते । चारित्राराधनकैवेत्यनेन गाथार्द्धन कथितम् । अत्रेयमाशंका-कस्मादेकत्वनिरूपणाराधनायाश्चारित्रमखेनैव क्रियते नान्यमुखेनेत्यत आह-'आराधणाए' आराधनायां । 'सेसस्स' शेषस्य । ज्ञानदर्शनतपसां अन्यतमस्य । चारिताराधणा । 'भज्जा' भाज्या विकल्प्या । कथं ? असंयतसम्यग्दष्टिर्भवति ज्ञानदर्शनयोराराधको नेतरयोः । मिथ्याष्टिस्त्वनशनदावुद्यतोऽपि न चारित्रमाराधयति । कश्चित्पुनः ज्ञानादीनि च चारित्रमपि संपादयतीति नाविनाभाविता इतराराधनायां चारित्राराधनाया इति न तन्मुखेनैकत्वनिरूपणेति भावः ॥ ननु क्षायिकवीतरागसम्यक्त्वाराधनायां, क्षायिकज्ञानाराधनायां च इतरेषामप्याराधना नियोगतः संभवति तत्किमुच्यते शेषाराधनायां चारित्राराधना भाज्येति ? क्षायोपशमिक
गा०-अथवा चारित्रकी आराधनामें ज्ञान, दर्शन, तप सब आराधित होता है । ज्ञान दर्शन और तपमेंसे किसीकी भी आराधनामें चारित्रको आराधना भाज्य होती है ।। ८॥
टो०-जैनधर्ममें वस्तुके कथन करनेके एक, दो, संख्यात, असंख्यात और अनन्तरूप है। जिसके द्वारा जीव हितकी प्राप्ति और अहितका निवारण करते हैं उसे चारित्र कहते हैं। अथवा सज्जनोंके द्वारा जो 'चर्यते' सेवन किया जाता है वह सामायिक आदिरूप चारित्र है। उसकी आराधना करनेपर अर्थात् उस रूप परिणतिके होनेपर सब-ज्ञान दर्शन और तप आराधितनिष्पादित होता है । यहाँ 'सर्व' शब्द समस्त प्रकारोंमें प्रयुक्त हुआ है। जैसे 'सब ओदनको खाता है', यहाँ ओदन अर्थात् भात या चावलके व्रीहि, शालि आदि जितने प्रकार हैं वे सब खानेरूप क्रियाके कर्मरूपसे प्रतीत होते हैं । अर्थात् सब प्रकारके चावलोंका भात खाता है यह 'सब ओदन' से अभिप्राय है। इसी प्रकार यहाँ भी 'सर्व' शब्दसे मुक्तिके उपायोंके जो प्रकार ज्ञानादि है उन सबका ग्रहण इष्ट है। इस तरह 'एक चारित्राराधना ही है' यह इस आधी गाथासे कहा है। यहाँ यह शंका होती है कि चारित्रकी मुख्यतासे ही आराधनाका एक प्रकार क्यों कहा है अर्थात् आराधनाके एक प्रकारमें चारित्रको ही क्यों लिया है ?
इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं-शेष अर्थात् ज्ञान दर्शन और तपमेंसे किसी एककी आराधना करनेपर चारित्रकी आराधना भाज्य है; क्योंकि असंयत सम्यग्दृष्टि ज्ञान और दर्शनका ही आराधक होता है, चारित्र और तपका नहीं। और मिथ्यादृष्टि तो अनशन आदिमें तत्पर रहते हए भी चारित्रकी की आराधना नहीं करता। कोई ज्ञानादिको आराधना करता है और कोई चारित्रकी भी आराधना करता है । इस प्रकार अन्य आराधनाओंके साथ चारित्रकी आराधनाका अविनाभाव नहीं है अर्थात् चारित्राराधनाके विना भी अन्य आराधना होती है। इसलिए उनकी मुख्यतासे आराधनाका एक प्रकार नहीं कहा है । यह उक्त कथनका भाव है।
शङ्का-क्षायिक वीतराग सम्यक्त्वकी आराधनामें और क्षायिकज्ञानकी आराधनामें अन्य चारित्रादिकी भी आराधना नियमसे होती है तब कैसे कहते हैं कि शेष आराधनाओंमें चारित्राराधना भाज्य है ?
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