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भगवती आराधना
ज्ञानदर्शनोपक्षयैतदुक्तं इति ज्ञेयम् ।
अत्रान्येषां व्याख्या "चारित्ताराधणाए इत्यत्र चारित्रशब्देन सच्चारित्रमुपात्तम् । तच्च सद्दर्शनात्मकज्ञाननिरूपितक्रमाप्रच्यवनेन प्रयत्नवृत्तिरूपं तस्मिन्नाराध्यमाने शेषसिद्धिर्भवत्येव । कथं ? सज्ज्ञानकार्य चारित्रं सज्ज्ञानं च दर्शनाद्धितं (?) कार्ये हि कारणाविनाभावित्वं प्रयुक्तं इति ।" सानुपपन्ना। प्रतिज्ञामात्रेण हि सूत्रमिदमवस्थितं, एतत्साधनाय सूत्रद्वय मुत्तरं यत्र हि सूत्रकारो न निबंधनं वदति । आत्मनः प्रतिज्ञातस्य तत्र व्याख्यातुरवसरो निबंधनाख्याने । यत्र तु स एव वदति तत्र तदेव व्याख्यातुमवगन्तव्यमिति व्याख्याक्रमः शास्त्रेषु । न चेदमनेन प्रतिविधानमसूत्रितम स्वयमेवोत्प्रेक्षते । 'कादम्वमिणमकादम्वयत्ति णादण होदि परिहारो' इत्यत्र निरूपयिष्यति यतः सूत्रकारः । किं च उत्तरसूत्रानुष्ठानमस्यां व्याख्यायां चारित्राराधनामुखेनैकवाराधनेति प्रतिपिपादयिषितम् । तच्च सप्रतिविधानं प्रतिपादयितु कोऽवसर उत्तरगाथायाः । इतराराधनान्तर्भावकारिण्याश्चारित्राराधनाया निरूपणायां चारित्रस्वरूपाख्यानाय उत्तरगाथायातेति कथमनवसर इति चेत् यद्येवं दर्शनाराधनायां ज्ञानाराधनामन्तर्भाव्य प्रवर्तमानायां दर्शनस्वरूपं किं नोच्यते सूत्रकारेण ? स्वेच्छेति चेन्न न्यायानु
उत्तर-उक्त कथन क्षायोपशमिकज्ञान और क्षायोपशमिक सम्यक्त्वकी अपेक्षा किया है ऐसा जानना। __इस गाथापर अन्य टीकाकारोंकी व्याख्या इस प्रकार है-'चारित्ताराधणाए' यहाँ चारित्र शब्दसे सम्यक्चारित्र लिया है। वह सम्यक्चारित्र शास्त्रमें कहे गये सम्यग्दर्शनसे विशिष्ट सम्यग्ज्ञानके क्रमसे च्युत न होते हुए अर्थात् सम्यग्दर्शनपूर्वक सम्यग्ज्ञानके साथ सावधानतापूर्वक प्रवृत्तिरूप होता है। उसको आराधना करनेपर शेष आराधनाओंकी सिद्धि होती ही है क्योंकि सम्यग्ज्ञानका कार्य चारित्र है और सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शनपूर्वक होता है। कार्य कारणका अविनाभावी होता है-कारणके विना कार्य नहीं होता।
- किन्तु यह व्याख्या ठीक नहीं है। इस गाथामें तो गाथाकारने केवल प्रतिज्ञामात्र की है कि चारित्राराधनामें सब आराधना आती है। इसकी सिद्धिके लिए आगे दो गाथाएँ हैं जिनमें ग्रन्थकारने उसका कारण कहा है कि क्यों चारित्राराधनामें अन्य आराधना समाविष्ट होती है। वहाँ व्याख्याताको उसका कारण बतलानेका अवसर है। शास्त्रोंमें व्याख्याका यही क्रम है कि ग्रन्थकारने स्वयं जहाँ जो कहा है वहाँ वही व्याख्याकारको कहना चाहिये । इस गाथामें तो उसने ऐसा नहीं कहा । व्याख्याकार स्वयं ही कल्पना करता है। गाथासूत्रकार तो आगे 'कादव्वमिणमकादव्व' इत्यादि द्वारा कहेंगे।
तथा 'चारित्राराधनाकी मुख्यतासे एक ही आराधना है' इस व्याख्या में आगेके गाथासूत्रका कथन करना इष्ट है। यदि वह कथन यहीं कर दिया जाता है तो आगेकी गाथाके कथनका अवसर नहीं रहता।
शङ्का-अन्य आराधनाओंका अपनेमें अन्तर्भाव करनेवाली चारित्राराधनाका निरूपण करनेपर चारित्रका स्वरूप बतलानेके लिये आगेकी गाथा आई है ? तब आप कैसे कहते हैं कि आगेकी गाथाके कथनका अवसर नहीं रहता ? |
उत्तर—यदि ऐसा है तो दर्शनाराधना अपने में ज्ञानाराधनाको अन्तर्भूत करके प्रवृत्त हुई है अतः गाथाकारने सम्यग्दर्शनका भी स्वरूप क्यों नहीं कहा ? वह भी कहना चाहिए था। यदि
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