Book Title: Padmapuran Bhasha
Author(s): Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
Publisher: Digambar Jain Granth Pracharak Pustakalay
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बहुत सीधे हैं उनमें वक्रता नहीं, अति विस्तीर्ण हैं मानों रत्नों के सागर ही हैं सागर जल रूप हैं यह स्थल रूप हैं और मंदिरों के ऊपर लोगोंने कबूतरों के निवास निमित्त नील मणियों के स्थान कर रखे हैं सो कैसे शोभे हैं मानों रत्नोंके तेजसे अन्धकारको नगरसे काढ़ दिया है सो शरण भाय कर समीप पड़ा है इत्यादि नगर का वर्णन कहां तक करिए इंद्र के नगर समान वह नगर जिस में राजा श्रीकंठ पद्माभा राणी सहित जैसे स्वर्ग विषे शची सहित सुरेश रमे हैं तैसे बहुत काल रमते भए । जे बस्तु भद्रशाल बनमें तथा सौमनस बनमें तथा नन्दनमें न पाइये वह राजाके बनमें पाई जावें एक दिन राजा महल ऊपर विराज रहेथे श्रष्टानिका के दिनों में इन्द्र चतुरनिकाय के देवताओं सहित नन्दीश्वर द्वीपको जाते देखे और देवोंके मुकटोंकी प्रभाके समूहसे आकाश को अनेक रंग रूप ज्योति सहित देखा और बाजा बजाने वालों के समूह से दशों दिशा शब्द रूप देखी। किसी को किसीका शब्द सुनाई न देवे, कैयक देवमाया मई हंसोंपर तथा तुरंगों पर तथा हथियारों पर और अनेक प्रकार बाहनो पर चढ़े जाते देख देवों के शरीर की सुगंधता से दशो दिशा व्याप्त होय गईं तब राजा यह अद्भुत चरित्र देख मनमें बिचारा कि नन्दीश्वर द्वीपको देवता जाय हैं। यह राजा विद्याधरों सहित नन्दीश्वर द्वीपको जानेकी इच्छा करते भये बिना विवेक बिमानपर चढ़ कर राणी सहित प्रकाशके पन्थ से चले परन्तु मानुषोत्तर के आगे इनका बिमान न चल सका देवता चले गए । यह अटक रहे तब राजा ने बहुत विलाप किया मनका उत्साह भंग हो गया कांति रही हो गई मन में विचारे हैं कि हाय बड़ा कष्टहै हम हीन शक्तिके धनी विद्याधर मनुष्य
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