Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान कीअवधारणा __आचार्यदेव श्रीगदविलयलयतसेवायूरीश्वरजी म.सा. आशीर्वाद आचार्यदेव श्रीमद्विजय जयंतसेनसूरीश्वरजी म.सा. शोधार्थी • साध्वी डॉ.दर्शनकलाश्री Jain Education international Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यत्किंचित पतन से उत्थान, चरमसेपरम, उदय से विकास एवं बीन से वटवृक्ष बनने की प्रारम्भिकता क्रमशः उत्तरोत्तर गुणस्थान की ओर ले जाती है। जिसका अध्ययन, मनन एवं चिन्तन के बाद में आलेखित किया गया है मेरी कलम से। तो प्रस्तुत है पाठकों के सन्मुख! प्रेषित है अध्ययनार्थी शोध प्रबन्धकों के लिए... यह तो एक है सागर में से गागर, सिंधु में से बिन्दु के रूप में प्रयास है मेरा.. साध्वी डॉ. दर्शनकलाश्री CURE rainelibraindic Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ || ॐ अहँ नमः।। श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः।। प्रातः स्मणीय प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीगुरुभ्यो नमः।। प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा जैन विश्व भारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय) लाडनूं पीएच. डी. उपाधि प्राप्त दिव्यातिदिव्य आशीर्वाद विश्वपूज्य प्रातः स्मरणीय श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. आशीर्वाद राष्ट्रसन्त जैनाचार्य श्रीमद्विजय जयंतसेनसूरीश्वरजी म.सा. प्रेरणा साध्वीजीश्री शशिकला श्रीजी म.सा. निर्मात्री साध्वी डॉ. दर्शनकलाश्री प्रकाशक श्री राजराजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्ट जयंतसेन म्यूजियम, मोहनखेड़ा (राजगढ़) धार, म.प्र. www.jairialibrary.org Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ : प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा निर्मात्री साध्वी डॉ. दर्शनकलाश्री शोध निर्देशक : डॉ. सागरमल जैन प्रकाशक : श्री राजराजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्ट जयंतसेन म्यूजियम, मोहनखेड़ा (राजगढ़) धार, म.प्र. वीर सं. 2533 वि. सं. 2036 ई.सं. 2007 राजेन्द्र सं. 100 मूल्य : पठन एवं पाठन अक्षरांकन एवं मुद्रण : जयन्त कम्प्यूटर्स वर्धमान चौक, निम्बाहेड़ा (राज.) फोन : 01477-220185 मो. : 9829178078, 9414420287 प्राप्ति स्थान : श्री राजराजेन्द्र जैन तीर्थ दर्शन जयन्तसेन म्यूजियम मोहनखेड़ा तीर्थ, पो. राजगढ़ (धार) म.प्र. फोन : 07296-232320, 235320 श्री भेरूलाल निरजकुमार सुराणा 144, विन्ध्याचल नगर, महावीर बाग के सामने, एरोड्रम रोड़, इन्दौर (म.प्र.) मो. 09826032902 Jain Education Interational Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पण पुष्पांजली मेरी असीम आस्था की हर किरण जिस सूरज से प्रगटित हुई, मेरी श्रद्धा की सौरभ जिस सुमन में सुरभित हुई मेरी चिन्तनधारा जिस महासागर से प्रवाहमान हुई मेरी जीवन यात्रा जिससे सन्मार्ग की ओर गतिशील हुई ऐसे मेरे परम उपकारी श्रद्धाकेन्द्र परम पूज्य राष्ट्रसन्त, सुविशाल गच्छाधिपति श्रीमद्विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी म.सा. के पावन पाद पद्मों में सादर सस्नेह समर्पित......... चौबीसवें आचार्य-पाटोत्सव की सुन्दर सुमधुर स्मृति में..... जीवेत् शरदः शतम्। की मंगलभावना के साथ "त्वदीयं तुभ्यं समर्पयामि" गुरु चरणरजसा. डॉ. दर्शनकलाश्री Jan Education International Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जुगराजजी गुटराजजी जैन, मिलियन ग्रुप, दिल्ली श्री मिठालालजी उगमचन्दजी हिराणी, चैन्नई श्री राजराजेन्द्रजी वसन्तदेवी किशोरमल कुमावत चैरि. ट्रस्ट, राणी (मुम्बई) श्री प्रिन्सकुमार महेशचन्द्र, भरतपुर श्री गुरुभक्त Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री शजय तीर्थाधिपति श्री आदिनाथ दादा For Frivate & Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1233 श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Internati ७!!! ५ ।। विश्वपूज्य प्रातः स्मरणीय प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AK आचार्यदेव श्रीमद्विजय जयंतसेनसूरीश्वरजी म.सा. For Private & Pional Use Only www.jainelig Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाभिनन्दनम्..... -आचार्य नयन्तसेन सूरि अनादि से संसार में अज्ञान दशा में भ्रमण करती आत्मा को निर्बन्ध स्थिति की प्राप्ति एक गहन एवं कठीन समस्या है | जहाँ समस्या वहाँ समाधान भी है। जब तक यह समस्या है यह ज्ञान नहीं होता तब तक अज्ञात स्वरूव में ही ईतस्तःअनादि जगत की दुःखार्त यात्रा करनी पड़ती है आत्मा को। इस समस्या का समाधान उपलब्ध है जैनागमों में, जिनवाणी में | जिस वाणी ने अनन्त जीवों की भ्रमणा का अन्त किया है, शाश्वत सुखद स्थिति को प्राप्त करवाया है । यावत् उसका समुचित ज्ञान नहीं होता एवं तदनुसार समाचरण नहीं होता तावत् सारा श्रम निरर्थक होता है। ज्ञान को सम्यग् ज्ञान में परिणत करने के लिये परम आवश्यक है सम्यग् दृष्टा बनें । सम्यग् दृष्टा अर्थात् यथार्थ को यथार्थ एवं अयथार्थ को अयथार्थ समझना । जीव है, शाश्वत है, कर्मबद्ध होता है, कर्म मुक्त हो सकता है, मुक्ति है, मुक्त होने का मार्ग है इत्यादि दृष्टियों का सम्यग् बोध ही सम्यग्दर्शन या सम्यग्दृष्टा स्वरूप की परिप्राप्ति है। सम्यग् दृष्टा की समस्त प्रवृत्तियां सार्थक एवं सफल होती हैं । इसीलिये यह दर्शन, ज्ञान, चारित्र समीचीन रुपेण, त्रिवेणी संगम रूप बनते हैं तब भवनिस्तारक बनते हैं। यह स्थिति स्वस्थिति में उपस्थित करती है।। यहीं से आत्मा की उत्क्रान्ति का शुभारम्भ होता है । सम्यग् दर्शन की प्राप्ति अर्थात् स्वयं को स्वाभिमुखी करना है। यहीं से अपने उत्थान क्रम की और गतिशील की ओर अग्रसर होती है आत्मा। जैनागमों में इसे गुणस्थान क्रमारोह के रूप में वर्णित किया गया है। चौदह गुणस्थान नाम को निर्देशित किया है परम ज्ञानियों ने, और प्रत्येक आत्मा को गुणस्थान क्रमारोह के अभाव में अनादि के अन्धकार से निर्मल शाश्वत प्रकाश की प्राप्ति असंभव है। मिथ्यात्व को भी प्रथम गुणस्थान का दर्जा दिया इसलिये कि लोगगत लौकिक स्थितियो को यथातथ्य के रूप में प्ररूपित करने का उस स्थान जीव का व्यवहार रहता है। इसी तरह क्रमशःदर्शन प्राप्ति अर्थात विभाव से स्वभाव स्थिति को पाना एवं प्रमादवश उस स्थिति से पुनः भटकजाना मात्र प्राप्ति का आस्वादन ही रह जाना । इसी प्रकार से मिश्र स्थिति में रहकर अनेक जन्मों को खो देना उत्क्रान्ति क्रम से भटक जाना । ज्ञानीजनों ने जो भी प्रतिबोध दिया वह अवश्य ही चिन्तनशील बनकर गहराई में जाने के लिये तद्भिमुख होने को प्रेरित करता है। स्वयं Jain Ediger e nelibrary org Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को गुणस्थानवर्ती बनाने के लिये इस क्रम को समझना नितान्त आवश्यक है। चतुर्थ गुणस्थान से आरम्भ होता है उत्क्रान्ति का क्रम । जब तक चतुर्थ गुणस्थानवर्ती स्थिति प्राप्त नहीं होती हैं तब तक विकास का कदम नहीं माना जाता। जड़ भावी शब्दों में गुणस्थानवर्ती वर्णन कर सकता है। किन्तु अनुभूति जन्य गुणस्थान का सन्स्पर्श भी नहीं होता। जड़शक्त जीव गुणाशक्त कभी नहीं बन सकता । चतुर्थ गुणस्थान प्राप्त जीव हेय को हेय मानता है, जानता है और तद्नरूप आचरण भी करता है। उसी प्रकार ज्ञेय को ज्ञेय समझता है, मानता एवं आदरणीय स्वीकार करता है। जड़ासक्त जीव कषाय गस्त एवं ममत्वी बनता है दुराग्रही, कदाग्रही, मताग्रही बनकर गुणस्थान निरूपण, प्ररूपण करने में प्रबुद्ध प्रतित होता है किन्तु उस सब्जीगत चम्मच की भांति व्यंजन रस से मुक्त रहता है। शब्दांकन बुद्धि का खेल है किन्तु श्रुतावगाहन के साथ समाचरण की स्थति आत्मावगाहन की ओर प्रेरित कर उसमें अस्थि मज्जावत् उपस्थित करती है। क्रमशः गुणस्थान समारोहण आत्मा की परिणति को विशुद्धतम बनाते चतुर्थ गुणस्थान में चतुर्दश गुणस्थान को प्राप्त करने में सतत सहयोगी रूप बनती है। देशविरति, सर्वविरति स्थिति में चढते परिणाम जीव को आठवें गुणस्थान से श्रेणि में आरूढ़ करते हैं और दसवें से बारहवें गुणस्थानक में यदि मिथ्यात्वोदय प्रमत्त दशा प्रकट हो जाती है तो वह लौटकर यावत् प्रथम गुणस्थान को भी पहुंच जाती है यदि सम्हलता है तो अप्रमत्त स्थिति में रहने पर बारहवें तेरहवें एवं परिणाम निर्मलता से अन्तिम चौदहवें गुणस्थान का अधिकारी बनाकर अनन्त संसार का अंत करवा देते हैं। जीव को अनादि के बन्ध से निर्बन्ध एवं परिभ्रमण से मुक्त होकर शाश्वत शान्ति प्राप्त करता है। गहन गंभीर इस ज्ञान को प्राप्ति तद्भिमुख बने बिना सहज नहीं होती । तद्धेतु ज्ञानार्जन परम आवश्यक है। प्रस्तुत आलेखन तदर्थी जीवों के लिये निश्चित रूप से सहायक बन सकता है। इसकी आलेखिका है पीएच.डी. सम्मानित उपाधि से विभुषित विदुषी साध्वी श्री दर्शनकलाश्रीजी । ममाज्ञानुवर्तिनी श्रमणीवर्या की आलेखन शैली एवं विश्वभारती से स्वीकृत एक शोध ग्रन्थ का प्रकाशन अवश्य ही अभिनन्दनीय कार्य है। आत्मानु क्रान्ति के अभिलाषी जीव अध्ययन, मनन, चिन्तन करके स्वाभिमुखी बनने का प्रयास करेंगे तो इससे बहुत सारी उपलब्धी हो सकेगी। इस शोध ग्रन्थ को जिनवाणी की प्रमुखता आलेखित कर निश्चित ही साध्वीजी ने अपने गहन मंथन का परिचय दिया है। इतना श्रम एवं मंथन करने से अपने समय को सार्थक किया यह अभिनन्दनीय है ! धन्यवाद है ! भविष्य में भी अपनी लेखनी को विराम न देते हुये विभिन्न विषयों पर आलेखन करती रहें यही कामना । शुभम ! बैंगलोर मगसर वदि 13, 2062 - आचार्य जयन्तसेन सूरि Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपस्वीरत्ना साध्वीजी श्री शशिकलाश्रीजी म.सा. जन्म : वि.सं. 1888 जन्म नाम : शांताबहन पिता : बलु रामचन्दभाई जीतमलभाई माता : पार्वतीबहन दीक्षा फागण सुद-10, वि.सं. 2032 दीक्षा स्थल : थराद दीक्षादाता : आचार्य श्रीमद्विजय विद्याचन्द्रसूरिजी म.सा. दीक्षागुरु : साध्वी श्री मुक्तिश्रीजी म.सा. दीक्षीत नाम : सा.श्री शशीकलाश्रीजी म.सा. आशिष मेरी सुशिष्या साध्वी श्री दर्शनकलाश्री ने अपनी ये पीएच.डी. की उपाधि हेतु गुणस्थान जैसे गंभीर विषय पर अपना शोध प्रबन्ध लिखा था। उस पर उन्हें जैन विश्वभारती माननीय विश्वविद्यालय लाडनूं के द्वारा पीएच.डी. की उपाधि राष्ट्रपति अब्दुलकलामजी आजाद द्वारा 20 अक्टूबरं 05 को दिल्ली में डॉ.उपाधि प्रदान की गई। मुझे यह जानकर प्रसन्नता हुई है कि उनका शोध प्रबन्ध प्रकाशित हो रहा है। वस्तुतः जैन साधना लक्ष्य व्यक्ति का अपना आध्यात्मिक विकास करना है। व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास को मापने के लिये जैन आचार्यों ने गुणस्थान सिद्धांत की अवधारणा को प्रस्तुत किया है। जैन धर्म की श्वेताम्बर-दिगम्बर सभी शाखाओं के ग्रन्थों में इस सिद्धांत का विस्तार पूर्व प्रतिपादन किया हैं। साध्वीजी ने कुल सभी प्राकृत एवं संस्कृत के मूल ग्रन्थों का अवलोकन करके उनमें उपस्थित गुणस्थान की अवधारणा को प्रस्तुत किया है। इस अध्ययन से न केवल उनका बौद्धिक विकास हुआ है, अपितु उनकी आध्यात्मिक रूचि भी विकसित हुई है। उनके इस ग्रन्थ के प्रकाशन की वेला में मैं यह आशीर्वाद देती हूँ कि वे अपना आध्यात्मिक विकास करते हुये जैन साहित्य के भण्डार को समृद्ध करती रहे और जैनशासन की प्रभावना में सहयोगी बनें एवं गुरुगच्छ की गरिमा को गौरवान्वित बनाये। इसी मंगलकामना के साथ..............। दिनांक 12-06-06 साध्वी श्री शशिकलाश्रीजी म.सा. JainEducation international For Private Personal Only ( Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ YHTARIT सूरज अपने प्रकाश की रश्मियाँ अवनी पर बिखेरकर अन्धकार का हनन करता है । बादल अपनी शीलत फुहारों से वसुधा की तपन हरता है । उसी प्रकार सत्पुरुष भी अपने शुभ कार्यों की सुरभि से दशों दिशाओं को सुवासित करते हैं। मानव जीवन पाना तभी सार्थक है जब मनुष्य कुछ ऐसे कार्य करे जो मानवता के लिये प्रेरणादायक हो। मेरी गुरुणीजी साध्वीजी श्री दर्शनकलाश्रीजी म. सा. ने गुणस्थान जैसा विषय पुस्तिका का नवसृजन कर अल्पायु में कलम की पूजारी बन समाज की साहित्य उपासना में नाम अंकित करवाया है। इस ग्रन्थ में चौदह गुणस्थानों का सारभूत वर्णन किया है जो एक अमूल्य निधि है। अट्ठाई, तेला, बेला, आयम्बिल, उपवास, एकासना आदि होते हुए भी आपने इस ग्रन्थ के लेखन का कार्य निरन्तर रखा अपने अध्ययन को निरन्तर अध्ययनरत रखा। विश्वास है यह पुस्तिका प्रकाशस्तम्भ बन कर भौतिक युग में अध्यात्म के सूत्रधार के रूप में सम्मानित होगी। और आपके जीवन में साधना एवं संयम से प्राप्त शक्तियाँ, गुरुजनों का आशीर्वचन तथा स्वजनों की मंगलकामना पाकर उसी प्रकार दीप्त हों जिस प्रकार फूलों की कलियों पर बिखरी स्वच्छ ओस बूंदें सूर्य की प्रथम किरण का स्पर्श पाकर चमचमाने लगती हैं। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ... सदेव आपकी -साध्वी जीवनकलाश्री Jain m anwarningsirary.org va a temational Personal Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन गुणस्थान सिद्धान्त जैनदर्शन का एक अति महत्वपूर्ण सिद्धान्त है । यद्यपि जैन दर्शन में इस सिद्धान्त का कालक्रम में विकास हुआ है, फिर भी इसके महत्व और मूल्यवत्ता से इन्कार नहीं किया जा सकता है । न केवल जैन कर्म सिद्धान्त, अपितु जैन धर्म दर्शन की विभिन्न तात्त्विक एवं साधनात्मक अवधारणाओं को गुण स्थान के सन्दर्भ में ही विवेचित किया जाता है । यह सुस्पष्ट है कि गुणस्थान सिद्धान्त को समझे बिना जैन दर्शन की विविध अवधारणाओं को सम्यक् प्रकार से नहीं समझा जा सकता है । यहीं कारण है कि प्राचीनकाल से लेकर आज तक जैन आचार्य गुणस्थान की अवधारणा को स्पष्ट करने का प्रयत्न करते रहे हैं । इस गुणस्थान सिद्धान्त को स्पष्ट करने की दृष्टि से वर्तमान युग में भी अनेक प्रयत्न हुए हैं । उनमें अमोलकऋषिजी कृत गुणस्थानरोहण एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है, इस ग्रन्थ में गुणस्थान सिद्धान्त को 252 द्वारों ( विभागों) में तथा लगभग 500 पृष्ठों में स्पष्ट करने का प्रयत्न किया गया, फिर भी यह ग्रन्थ परम्परागत दृष्टि पर ही आधारित है । इस सिद्धान्त पर शोधपरक दृष्टि से जो कार्य हुए हैं, उनमें कर्मग्रन्थ की भूमिका के रूप में पण्डित सुखलालजी का नाम सर्वोपरि है किन्तु यह प्रयत्न कुछ सीमित पृष्ठों में ही हुआ है और तुलनात्मक दृष्टि से लिखा गया है । उन्होंने इसके क्रमिक विकास की कोई चर्चा नहीं की है । इसके पश्चात् शोधपरक दृष्टि से गुणस्थान सिद्धान्त के क्रमिक विकास का विवेचन मैंने अपने ग्रन्थ " गुणस्थान सिद्धान्त एक विश्लेषण" में किया है । यद्यपि प्राचीन जैन साहित्य के आलोक में गुणस्थान सिद्धान्त के क्रमिक विकास को स्पष्ट करने का यह प्रथम प्रयास था। लगभग 150 पृष्ठों में रचित इस ग्रन्थ में गुणस्थान से सम्बन्धित प्राचीन जैन साहित्य का आलोडन तो हुआ, फिर भी गुणस्थान सिद्धान्त के सभी पक्षों का तथा तत्सम्बन्धी सम्पूर्ण साहित्य का आलोडन तो सम्भव नहीं हो सका था। मेरी यह हार्दिक अभिलाषा रही थी, कि इस सिद्धान्त पर पर्याप्त विस्तृत रूप से शोधात्मक दृष्टि के साथ कोई कार्य अवश्य होना चाहिये। जब पूज्या साध्वी दर्शनकला श्रीजी ने मेरे मार्गदर्शन में पी. एच. डी. हेतु शोधकार्य करने का निश्चय किया, तो मैंने उन्हें "प्राकृत एवं संस्कृत जैन साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा " यह विषय सुझाया । मेरी हार्दिक इच्छा यही थी कि आगम-साहित्य से लेकर प्राकृत संस्कृत और हिन्दी भाषा में इस सिद्धान्त के विषय में जो कुछ भी लिखा गया है, उसका ऐतिहासिक विकासक्रम में तुलनात्मक और समीक्षात्मक दृष्टि से अध्ययन हो । साध्वीजी ने इस कठिन एवं श्रमसाध्य कार्य हेतु अपनी सहमति व्यक्त की और निष्ठापूर्वक इस कार्य में जुट गई । आज उसीका यह सुपरिणाम है कि प्रस्तुत कृति का प्रकाशन हो रहा है । मुझे यह स्वीकार करने में भी कोई संकोच डॉ. सागरमल जैन Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं है कि उन्होंने पूरी प्रमाणिकता के साथ गुणस्थान सम्बन्धी विभिन्न ग्रन्थों का आलोडन-विलोडन करके इस कृति । को तैयार किया है । सम्भवतः ऐतिहासिक एवं शोधपरक दृष्टि से गुणस्थान सिद्धान्त पर अब तक लिखे गये ग्रन्थों में यह कृति अपना सर्वोपरि स्थान सिद्ध करेगी। यद्यपि इस कति की रचना में मेरा मार्गदर्शन और सहयोग रहा है किन्तु साध्वीजी का श्रम भी कम मूल्यवान नहीं है । उपलब्ध सन्दर्भो को खोज निकालने में उन्होंने जैन साहित्य का गंभीरता से आलोडन-विलोडन किया । यही नहीं उनके इस आलोडन और विलोडन के परिणाम स्वरूप जो तथ्य सामने आये, उनके आधार पर मुझे भी अपनी पूर्वस्थापनाओं को किंचित् रूप में परिमार्जित करना पड़ा। - मेरी अपनी अवधारणा यही थी कि गुणस्थान सिद्धान्त की प्रतिस्थापना लगभग 5वीं शताब्दि में हुई । यद्यपि एक सुव्यवस्थित गुणस्थान सिद्धान्त के विकास के रूप में मेरी यह स्थापना आज भी अडिग है । किन्तु मेरी दृष्टि में गुणस्थान सिद्धान्त के विकास का मूल आधार आचारांग-नियुक्ति में तत्वार्थ सूत्र के नौवें अध्याय में एवं षट्खण्डागम के कृति अनुयोगद्वार के परिशिष्ट में वर्णित कर्मनिर्जरा की उत्तरोत्तर वर्धमान दस अवस्थाएँ रही हैं । पूर्व में मेरी यही मान्यता थी, कि इन दस अवस्थाओं से ही चौदह गुणस्थानों का सिद्धान्त विकसित हुआ है । किन्तु प्रस्तुत शोधकार्य के सन्दर्भ में जब हमने श्वेताम्बर मान्य अर्धमागधी आगम साहित्य का गम्भीरता से आलोडन-विलोडन किया, तो हमे उसमें भगवतीसूत्र एवं प्रज्ञापनासूत्र में विविध सन्दर्भो में मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अविरत, विरताविरत और विरत; निवृत्ति-बादर, अनिवृत्ति-बादर और सूक्ष्मसम्पराय, मोह-उपशमक एवं मोह क्षपक तथा सयोगी केवली और अयोगी केवली ऐसी तेरह अवस्थाओं के उल्लेख मिल गये। यद्यपि ये सब उल्लेख अलग-अलग सन्दर्भो में ही हुए हैं और किसी एक सुव्यवस्थित सिद्धान्त को प्रस्तुत नहीं करते हैं । इस आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि प्रथमतः गणस्थान सिद्धान्त के मल बीज श्वेताम्बर आगम साहित्य में ही रहे हुए हैं और उन्हीं के आधार पर आचारांगनियुक्ति, तत्त्वार्थसूत्र, षट्खण्डागम आदि में उत्तरोत्तर कर्म निर्जरा की दस अवस्थाओं का विकास हुआ है । जहाँ तक गुणस्थान सिद्धान्त के सुव्यस्थित उल्लेख का प्रश्न है, श्वेताम्बर परम्परा में वह सर्वप्रथम जीवसमास, आवश्यकचूर्णि तथा तत्वार्थसूत्र की सिद्धसेनगणि की टीका में ही मिलता है । इनमें से जीवसमास लगभग पाँचवीं शती का है, शेष दोनों ही ग्रन्थ लगभग सातवीं शताब्दी के हैं । दिगम्बर परम्परा में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी सर्वप्रथम उल्लेख षटखण्डागम और पूज्यपाद देवनन्दी की तत्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि नामक टीका में मिलता है, ये दोनों ग्रन्थ पाँचवीं शती के उत्तरार्ध या छठवीं शती के प्रारम्भ के है । इससे स्पष्ट रूप से यह भी फलित होता है कि गुणस्थान सिद्धान्त व्यवस्थित रूप में पाँचवीं शती के बाद ही अस्तित्व में आया है अन्यथा श्वेताम्बर आगम-साहित्य और तत्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य में एवं नियुक्ति और भाष्य-साहित्य में कहीं तो कुछ संकेत अवश्य मिलते । साथ ही यह भी स्पष्ट है कि गुणस्थान सिद्धान्त का प्रारम्भिक व्यवस्थित स्वरूप श्वेताम्बर साहित्य की अपेक्षा दिगम्बर साहित्य में पहले पाया जाता है और श्वेताम्बर आचार्यों की अपेक्षा दिगम्बर आचार्यों का अवदान इस सिद्धान्त के विकास में अधिक महत्वपूर्ण है। मेरी दृष्टि में यह एक सुस्पष्ट तथ्य है कि उमास्वाति के तत्वार्थसूत्र तथा उसके स्वोपज्ञभाष्य में, वल्लभी-वाचना (5वीं शती) में अर्धमागधी आगमों का जो पाठ निर्धारण हुआ था, उसमें तथा अर्धमागधी आगमों की नियुक्तियों Jain Education Intemational Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं भाष्यों में गुणस्थान सिद्धान्त की कहीं भी कोई व्यवस्थित चर्चा उपलब्ध नहीं है, मात्र कुछ अवस्थाओं के यत्र-तत्र कुछ संकेत हैं । यदि ये आचार्य उससे परिचित होते तो कहीं न कहीं उसका उल्लेख अवश्य करते।समवायांगसूत्र के 14वें समवाय की जिस गाथा में जीवस्थान के नाम से तथा आवश्यक नियुक्ति जो 14 गुणस्थानों के नाम आये हैं, वे गाथाएँ परवर्ती प्रक्षेप हैं और संग्रहणी सूत्र से उद्धृत है। क्योंकि आठवीं शती में हरिभद्र ने आवश्यक नियुक्ति की टीका में उसे संग्रहणी गाथा कहा है । दिगम्बर ग्रन्थ षट्खण्डागम में भी इन 14 अवस्थाओं को पहले जीवसमास के नाम से ही उल्लेखित किया गया है, बाद में उन्हें गुणस्थान नाम दिया गया है । अतः गुणस्थान की स्पष्ट अवधारणा 5वीं शती के अन्त में ही कभी अस्तित्व में आयी है । साथ ही यह भी स्पष्ट है कि कर्म निर्जरा कि दस अवस्थाओं से या आगमों में प्रकीर्ण रूप से उल्लेखित विभिन्न अवस्थाओं के त्रिको या द्विको से ही इसका विकास हुआ है । यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि जहाँ अर्धमागधी आगम साहित्य मात्र समवायांग की उस प्रक्षिप्त गाथा को छोड़कर गुणस्थान की अवधारणा का कहीं भी कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं करता है । वहीं दिगम्बर परम्परा में मान्य शौरसेनी प्राकृत में रचित आगमतुल्य साहित्य में कषायपाहुड को छोड़कर षट्खण्डागम, मूलाचार, भगवती आराधना आदि प्राचीन माने जाने वाले ग्रन्थों में इस सिद्धान्त का व्यवस्थित एवं विकसित विवरण उपलब्ध होता है । मात्र यही नहीं आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में भी चाहे इस सिद्धान्त का विस्तृत उल्लेख न भी हो किन्तु उनके काल तक न केवल गुणस्थान सिद्धान्त का विकास हो चुका था, अपितु गुणस्थान, जीवस्थान और मार्गणास्थान के सहसम्बन्धों का भी निर्धारण हो चुका था । यही कारण है कि कुन्दकुन्द आत्मतत्त्व के अनिर्वचनीय स्वरूप का उल्लेख करते हुए स्पष्ट रूप से लिखते हैं कि आत्मा न जीव स्थान है, न गुण स्थान है, एवं न मार्गणास्थान है । शौरसेनी आगम तुल्य साहित्य में मात्र कषायपाहुड़ ही एक ऐसा अपवाद है, जिसमें गुणस्थान सिद्धान्त का स्पष्ट उल्लेख नहीं है । इससे यह भी स्पष्ट होता है कि कषायपाहुड़ को छोड़कर शेष शौरसेनी आगमतुल्य साहित्य 5वीं शती के बाद का ही है । गुणस्थानों का जीवस्थानों, मार्गणास्थानों तथा आठ कर्मों की विभिन्न प्रकृतियों के उदय, उदीरणा, सत्ता, बंध और निर्जरा से क्या सह सम्बन्ध है, इसका उल्लेख जहाँ श्वेताम्बर परम्परा में कर्मग्रन्थों और पंचसंग्रह में उपलब्ध होता है, वही दिगम्बर परम्परा में यह विवेचन मुख्यतः षट्खण्डागम, गोम्मटसार (10वीं शती) और दिगम्बर प्राकृत एवं संस्कृत पंचसंग्रहों में उपलब्ध है, लेकिन ये ग्रन्थ अपेक्षाकृत परवर्ती ही है। मात्र यही नहीं कर्मसिद्धान्त की इस चर्चा में श्वेताम्बर परम्परा में कर्मग्रन्थों की मान्यता में और आगमिक मान्यता में मतभेद भी नजर आते हैं, साथ ही श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में भी कुछ मतभेद पाये जाते हैं। जिसका उल्लेख पण्डित सुखलालजी ने एवं पूज्या साध्वी दर्शनकलाजी ने भी किया है, इसके अतिरिक्त यह उल्लेख कषायपाहुड़ और षट्खण्डागम की भूमिका में दिगम्बर विद्वानों ने भी किया है । श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा को स्पष्टतः प्रस्तुत करने वाला प्रथम ग्रन्थ जीवसमास है । तुलनात्मक आधार पर मैंने और कुछ दिगम्बर विद्वानों ने भी यह माना है कि जीवसमास ही षखण्डागम का आधारभूत ग्रन्थ रहा है । जीवसमास की शैली कर्मग्रन्थों से भिन्न षट्खण्डागम के समान है, क्योंकि दोनों ग्रन्थ आठ अनुयोग द्वारों के आधार पर ही गुणस्थानों की चर्चा करते हैं, जबकि कर्मग्रन्थ कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय, Jain Education Intemational Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि के आधार पर गुणस्थानों की चर्चा करते हैं । हमें यह मानने में भी कोई आपत्ति नहीं है कि श्वेताम्बर परम्परा में जीवसमास और दिगम्बर परम्परा में षट्खण्डागम गुणस्थान सिद्धान्त के प्रथम आधारभूत ग्रन्थ है, उसके पश्चात् । श्वेताम्बर परम्परा में सिद्धसेनगणि की तत्त्वार्थसूत्र की टीका में और आवश्यकचूर्णि ही ऐसे ग्रन्थ है, जो गुणस्थानों की स्पष्ट चर्चा करते हैं, फिर भी इनमें गुणस्थानों की यह चर्चा अपेक्षाकृत संक्षिप्त ही है। जबकि दिगम्बर परम्परा में षट्खण्डागमकार ने एवं आचार्य पूज्यपाद देवनंदी से लेकर तत्वार्थसूत्र के सभी टीकाकारों ने इसकी अपेक्षाकृत विस्तृत चर्चा की है । इस आधार पर यह सुस्पष्ट है कि गुणस्थान सिद्धान्त का विकास एक कालक्रम में ही हुआ । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि गुणस्थान सिद्धान्त की यह विकास यात्रा भी श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में भिन्न-भिन्न रूप में हुई है । जहाँ श्वेताम्बर कर्मग्रन्थ में विभिन्न गुणस्थानों में विभिन्न कर्म प्रकृतियों के बन्ध, बन्धविच्छेद, सत्ता, सत्ताविच्छेद, उदय, उदयविच्छेद, उदीरणा, उदीरणाविच्छेद आदि को लेकर उनके सत्तास्थानों और बन्ध विकल्पों की चर्चा की गई है, वहीं दिगम्बर परम्परा में षट्खण्डागम और पूज्यपाद देवनंदी की सर्वार्थसिद्धटीका में गुणस्थानों में मार्गणास्थानों का तथा जीवस्थानों का आठ अनुयोगद्वारों के आधार पर अवतरण किया गया है । यद्यपि षट्खण्डागम एवं गोम्मटसार में प्रकारान्तर से गुणस्थानों में कर्म प्रकृतियों के बन्ध उदय उदीरणा सत्ता आदि की चर्चा मिलती है, फिर भी दोनों की शैली में भिन्नता है इसका निर्देश पूर्व में भी किया जा चुका है। इस प्रकार श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में गुणस्थान सिद्धान्त की जो चर्चा है, उसमें शैली वैविध्य है । जहाँ तक गुणस्थान की अवधारणा के विकास का मूल प्रश्न है, उसका सम्बन्ध व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास से है । यह स्पष्ट है कि व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास के विभिन्न स्तरों की चर्चा प्राचीनकाल से ही भारत में प्रचलित रही है । सर्वप्रथम उपनिषदों में अन्तःप्रज्ञ और बहिर्पज्ञ के रूप में तथा अन्नमयकोश, प्राणमयकोश, मनोमयकोश, प्रज्ञानमयकोश और आनंदमयकोश के रूप में आध्यात्मिक विकास की चर्चा मिलती है । बौद्ध और जैन परम्परा में बहिर्पज्ञ और अन्तःप्रज्ञ को क्रमशः मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि के रूप में अथवा पृथग्जन और आर्य के रूप में भी उल्लेखित किया गया है । उसके पश्चात् बौद्ध धर्म की हीनयान परम्परा में श्रोतापन्नभूमि, सत्कृतागामीभूमि, अनागामीभूमि और अर्हद्भूमि ऐसी चार भूमियों की भी चर्चा है । बौद्धधर्म की ही महायान परम्परा में इन चार भूमियों के स्थान पर निम्न दस भूमियों की चर्चा हुई । 1 प्रमुदिता, 2 विमला, 3 प्रभाकरी, 4 अर्चिष्मती, 5 सुदुर्जया, 6 अभिमुक्ति, 7 दुरंगमा, 8 अचला, 9 साधुमती और 10 धर्ममेघा। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि हीनयान परम्परा से महायान परम्परा की ओर संक्रमण काल में लिखे गये महावस्तु नामक ग्रन्थ में भी दस भूमियों का उल्लेख हुआ है । यद्यपि ये दस भूमियाँ पूर्वोक्त दस भूमियों से भिन्न है, ये निम्न है-1 दूरारोहा, 2 वर्द्धमान, 3 पुष्पमण्डिता, 4 रूचिरा, 5 चित्तविस्तार, 6 रूपमती, 7 दुर्जया, 8 जन्मनिदेश, 9 यौवराज और 10 अभिषेक । इसी प्रकार आजीवक श्रमण परम्परा में भी आध्यात्मिक विकास की अवधारणा को लेकर आठ अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है । ये आठ अवस्थाएँ है- 1 मन्द, 2 क्रीड़ा, 3 पदमीमांसा, 4 ऋतुव्रत, 5 शैक्ष्य, 6 समण, 7 जिन और 8 प्राज्ञ । हिन्दू परम्परा के प्रसिद्ध ग्रन्थ योगवाशिष्ट में सात अज्ञान की और सात व ज्ञान की ऐसी 14 भूमिकाओं की चर्चा है । अज्ञानदशा की सात भूमिका निम्न है-1 बीज जाग्रत, 2 जाग्रत, 30 Jain Education Intemational Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | महाजाग्रत, 4 जाग्रतस्वप्न, 5 स्वप्न, 6 स्वप्नजाग्रत और 7 सुषुप्ति । ज्ञान दशा की सात भूमिकाएँ निम्न मानी गई है1 शुभेच्छा, 2 विचारणा, 3 तनुमांसा, 4 सत्वापत्ति, 5 असंसक्ति, 6 पदार्थाभावनी और 7 तुर्यग । योग दर्शन में आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से चित्त की 5 दशाओं का उल्लेख किया गया है । 1 मूढ़, 2 क्षिप्त, 3 विक्षिप्त, 4 एकाग्र और 5 निरूद्ध। इस प्रकार विभिन्न धर्मदर्शनों में प्रतिपादित ये सभी अवस्थाएँ व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की ही चर्चा करती है और यह बताती है कि व्यक्ति की चैतसिक एवं चारित्रिक विशुद्धि की स्थिति क्या है ? जहाँ तक जैन धर्म दर्शन का प्रश्न है, उसमें भी आध्यात्मिक विशुद्धि की अवस्थाओं को अनेक प्रकार से व्याख्यायित किया गया है । सर्वप्रथम एक स्थूलवर्गीकरण मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि के आधार पर किया जाता है, किन्तु इसके अतिरिक्त एक अन्य वर्गीकरण बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के रूप में भी हमें उपलब्ध होता है। साथ ही तीन अशुभ और तीन शुभ लेश्याओं के आधार पर भी व्यक्ति के आध्यात्मिक एवं नैतिक क्रमिक विकास का चित्रण किया गया है । उसके पश्चात् चार ध्यानों के आधार पर भी व्यक्ति की आध्यात्मिक विशुद्धि की स्थिति का अंकन किया गया है । ये ध्यान व्यक्ति की चित्तवृत्ति के सूचक हैं । आचार्य हरिभद्र ने आठ योग दृष्टियों की भी चर्चा की है, वे भी व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की सूचक है । इसके अतिरिक्त कर्म निर्जरा की अवस्थाओं के आधार पर एक दशविध वर्गीकरण भी हमें उपलब्ध होता है । वस्तुतः इसी दशविध वर्गीकरण का विकसित रूप हमें गुण स्थान सिद्धान्त के रूप में मिलता है। जैन दर्शन में व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास तथा चैतसिक एवं चारित्रिक विशुद्धि को आधार बनाकर अनेक वर्गीकरण उपलब्ध होते हैं । इस प्रकार जैन दर्शन में द्विविध, त्रिविध, चतुर्विध, षट्विध, अष्टविध, दशविध और चतुर्दशविध, वर्गीकरण हमें उपलब्ध होते हैं । जहाँ तक द्विविध वर्गीकरण का प्रश्न है यह वर्गीकरण जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों ही परम्पराओं में पाया जाता है । वैदिक परम्परा में मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि को कृष्णपक्षी और शुक्लपक्षी भी कहा गया है । इसी प्रकार उत्तरोत्तर कर्मनिर्जरा के आधार पर जो दशविध वर्गीकरण किया गया है, वह वर्गीकरण बौद्ध परम्परा की दशभूमियों से आंशिक समानता और आंशिक भिन्नता लिये हुए है । इसी प्रकार योगवशिष्ठ में अज्ञान दशा के सात और ज्ञान दशा के सात ऐसे जो चौदह वर्ग निर्धारित किये गये हैं, वे जैन परम्परा के चौदह गुणस्थानों की अवधारणा से आंशिक समानता रखते हैं । जैसा कि हमनें पूर्व में कहा आज गुणस्थान सिद्धान्त जैन कर्मसिद्धान्त के अन्तर्गत कर्मों की निर्जरा और आध्यात्मिक विकास के विभिन्न स्तरों के मूल्यांकन करने का जैनदर्शन में एकमात्र आधार है। इस प्रकार त्रिविध आत्मा की अवधारणा, षट्लेश्याओं की अवधारणा, आठ योगदृष्टियों की अवधारणा, कर्म विशुद्धि की दस अवस्थाओं की अवधारणा और चौदह गुणस्थानों की अवधारणा-ये सभी व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास के चर्चा करने के प्रमुख आधार रहे हैं । साध्वी दर्शनकलाजी ने अपने इस शोधप्रबन्ध में इन सभी अवस्थाओं का न केवल चित्रण किया है अपितु उनका तुलनात्मक विवेचन भी प्रस्तुत किया है । साथ ही कर्म प्रकृतियों के बन्ध-बन्धविच्छेद, सत्ता-सत्ताविच्छेद, उदय-उदयविच्छेद, उदीरणा-उदीरणाविच्छेद की विभिन्न गुणस्थानों में क्या 9 स्थिति होती है, इसे तथा चौदह जीवस्थानों, चौदह मार्गणास्थानों में आठों अनुयोग द्वारों के आधार पर गुणस्थानों ? Jain Education Intemational Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का सह सम्बन्ध भी स्पष्ट किया गया है । इस प्रकार प्रस्तुत कृति में गुणस्थानों का एक समग्र चिन्तन प्रस्तुत है, जो जैन दर्शन के गम्भीर अध्येताओं के लिए अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकता है । साथ में मैं यह भी कहना चाहूँगा कि जैनदर्शन के गुणस्थान सिद्धान्त को लकर जो चर्चाएँ विविध ग्रन्थों में उपलब्ध रही है उन सबको एक स्थान पर और एक ही ग्रन्थ में समाहित करने का यह एक सुन्दर प्रयास है । आज यह जानकर अतिप्रसन्नता हो रही है कि साध्वीजी का यह महाकाय शोधप्रबन्ध अब प्रकाशित होकर जन-जन के अध्ययन के लिये सुलभ बनने जा रहा है। इससे साध्वीजी के श्रम का यथार्थ मूल्यांकन तो होगा ही, साथ ही जैन दार्शनिकों की सूक्ष्म प्रतिभा का परिचय भी विद्वानों को होगा। हमें विश्वास है कि पाठक वृन्द इस महत्वपूर्ण ग्रन्थ का न केवल वाचन करेगा, अपितु इसे पढ़कर आत्मसात भी करेगा और मोक्षमार्ग की अपनी यात्रा में विकास के अग्रिम चरणों पर अग्रसर होगा । हम यह आशा करते हैं कि साध्वी दर्शनकलाश्रीजी भविष्य में भी ऐसी कृतियाँ को प्रणयन कर जैन साहित्य के क्षेत्र में अपना अवदान प्रदान करती रहेगी। श्रावणी पूर्णिमा विक्रम संवत् २०६३ डॉ. सागरमल जैन संस्थापक निदेशक प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "आत्मा का उन्नयन ही सच्चा सुख" - डॉ. सुरेश मेहता जीव विज्ञान विभाग शासकीय महाविद्यालय, जावरा आज सम्पूर्ण विश्व का मानव समाज व्यक्तिगत स्वार्थ, हिंसा एवं दुराग्रह के दौर से गुजर रहा है । कहने को सारा विश्व सिमट कर एक मुट्ठी में आ गया है, वैश्वीकरण का युग है, पर सच तो यह है कि पड़ौसी तक एक दूसरे से अनभिज्ञ है; उन्हें अपने सिवाय किसी के भी सुख-दुख से सरोकार नहीं है । जहाँ स्वार्थ सिद्धि संहार एवं आपसी अविश्वास और भय का साया हो वहाँ शान्ति सुकून एवं सुख असंभव है। भौतिक सुखों को ही अंतिम सुख मानकर हम सभी महावीर के अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त जैसे महत्वपूर्ण सिद्धान्तों से दूर हट गये हैं। अपने स्वयं की आत्मा के उत्थान के प्रयास लगभग क्षीण हो चुके हैं, हमारी सहृदयता केवल अपना हित साधने तक सीमित रहती है । भवों के भंवरजाल में उलझकर हम शांति, सत्य और मुक्ति के मार्ग से भटक गये हैं। जीव जगत में प्रत्येक प्राणी, चाहे वह सूक्ष्म से सूक्ष्म हो या स्थूल हो, सुख ओर सुविधाजनक स्थिति में रहना चाहता है । सब के लिये सुख की परिभाषा भिन्न-भिन्न है पर क्या जीव असली सुख के स्वरूप को आज तक समझ पाया है ? जीवन विज्ञान में जीव के शारीरिक एवं बौद्धिक विकास को सिद्धान्त स्वरूप मान्य किया है । जिसे हम मनुष्य भव कहते हैं वह जीव विज्ञान के दृष्टिकोण से शरीर एवं बुद्धि की सर्वोच्च विकास अवस्था है । जैन दर्शन आत्मा के आल्हाद स्वरूप अनुजीवी गुन को ही परम सुख की संज्ञा देता है, और यही सच भी है तथा जीवात्मा का स्वभाव भी, परन्तु भ्रमवश साता वेदनीय कर्मोदय के परिणाम स्वरूप हमारे आस-पास बिखरे छोटे मोटे सुखों को ही हम सच्चा एवं अंतिम सुख मानने की भूल कर बैठे हैं। _क्या संसारी जीव उस चरम सुख को प्राप्त कर सकते हैं ? शास्त्रकारों का कहना है कि मानव जन्म पाकर सत्यनिष्ठा से पुरुषार्थ करने का भाव यदि मन में हो तो हम आत्मा के उस चरम स्थिति तक ले जा सकते हैं । आत्मा से समस्त कर्मों का पूर्ण वियोग हो जाये तो समझो मोक्ष है। ____ आत्मा की क्रमोन्नति क्रमशः संवर और निर्जरा भाव से हो सकती है अर्थात् नवीन का आगमन न हो एवं पूर्वकृत का परिमार्जन हो तो हम शनैः शनैः उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं। उपरोक्त दोनों बातों के लिये उपाय स्वरूप यदि हम सच्चे मन से रत्नत्रयी आराधक बनने का प्रयास करें और सम्यगदर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यक्चारित्र में एकाकार हों तो श्रेष्ठतम गुणस्थानों पर पहुँचने का मार्ग प्रशस्त हो सकता आत्मा के विविध गुणों की तादात्म्य अवस्था विशेष को ही गुणस्थान कहा गया है । जैन वांङ्मय में इन गुणस्थानों के चौदह प्रमुख भेद बताये गये हैं । ये क्रमशः मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्त मोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली, अयोगकेवली इत्यादि । प्रत्येक गुणस्थान Jain Education Intemational Education International Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. ACCO की अनेकों प्रकृतियों का विवरण भी जैन शास्त्रों में मिलता है । सभी गुणस्थानों के निमित्त को गहन रूप से समझकर हम अपनी आत्मा को उत्तरोत्तर निर्मलता की ओर ले जा सकते हैं। प्रथम चार गुणस्थान दर्शन मोहनीय कर्म के निमित्त से होते हैं । शेष पाँचवे गुणस्थान से बारहवें तक चारित्र मोहनीय कर्म के निमित्त से हैं, तथा तेरहवाँ एवं चौदहवाँ गुणस्थान योग के निमित्त से होते हैं। मिथ्यात्व का त्याग कर सच्चे धर्म पर श्रद्धा रखते हुए आत्मा पर रहे हुए समस्त आवरणों को एक-एक करके हटाते हुए सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, और सम्यक्चारित्र की पूर्णता को प्राप्त कर हम मोक्षगामी हो सकते हैं। आज भले ही हमारा मूल धर्म से सम्बन्ध कम हो चुका है, भौतिक युग की चकाचौंध में हमारी आध्यात्मिक साधना गुम हो चुकी है । परन्तु परमात्म-पुरुषों की वाणी हमारे जीवन के अन्धकार को दूर कर सकती है । प्रकाश की एक किरण गहन से गहन अन्धेरे को हटा सकती है । आवश्यकता है ईश्वर के आलम्बन की, उनके सद्गुणों को अपने में उतारने की। जिस प्रकार एक छोटा सा कंकर तालाब को तरंगित कर सकता है, एक छोटी सी चिनगारी दावानल का रूप ले सकती है ठीक उसी प्रकार सद्गुणों का थोड़ा सा सानिध्य भी हमारे जीवन की दशा एवं दिशा दोनों बदल सकता है। हमारी सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि हम अपनी अंतरस्थिति को नहीं बदल पा रहे हैं । हमारी सामायिक, तपस्या, प्रतिक्रमण धर्म आराधना एक बाहरी दिखावा बनकर रह गयी है । हमारे अंतरमन का शुद्धिकरण नहीं हो पाया है । महावीर बनना है तो अपनी अंतरदशा को अप्रमत्त करना होगा। हम हर पल यह सोचें कि हम भी अरिहंत बन सकते हैं, इस विचार को मन में प्रतिष्ठित होने दें तथा उसके अनुरूप हर कर्म करें । जन्म से कोई भी महान नहीं होता सभी अपने पुरुषार्थ एवं कर्म से महान बनते हैं । आदर्श पुरुषों की जीवन गाथा को हम अपने में आत्मसात् करें, तथा अपने आपमें यह विश्वास जगायें कि हम भी महावीर हो सकते हैं । जिस मोक्ष की कामना हम मृत्युपरांत करते हैं, उसका अनुभव हमें जीते जी हो तब तो कुछ बात बने । जीते जी मुक्ति प्राप्त करें इसका आनन्द कुछ ओर ही है । हमें वह मुक्ति चाहिये जिसका आनन्द और अहोभाव हम इस जीवन में प्राप्त कर सकें, अनुभव कर सकें । हम अपने आप से प्रश्न करें, मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, मेरा स्वरूप क्या है, दुःख क्या है, उसके कारण क्या हैं, मेरा स्वभाव क्या है और मैं अनन्त सुख को कैसे प्राप्त कर सकता हूँ? जैन दर्शन एवं महावीर के सिद्धान्त हमें सहिष्णुता एवं विश्व मैत्री का पाठ पढ़ाते हैं । अपने और दूसरों के कल्याण की भाषा सिखाते हैं। हठ धर्मिता के बजाय हमें अनेकांतवादी बनाते हैं सत्यानुरागी बनाकर नय-मत-पक्षों से रहित सम्यक दृष्टि प्रदान करते हैं। इन सबको अंगीकार करके हम भवभवांतर के अनेकों आवरण जो हमारी चेतना शक्ति को क्षीण कर रहे हैं, उन आवरणों को हटा सकते हैं। . हमारी आत्मा उत्तरोत्तर ऊर्ध्वगामी बने अधोगति में उसका बार-बार का अभिगमन बंद हो तथा एक ऐसा चिरस्थायी स्थान प्राप्त हो जहाँ अनन्त आत्म सुख के अतिरिक्त कुछ भी न हो । 'जो आत्मा का सर्वोत्तम गुण स्थान हो ।' परम पूज्य साध्वीजी डॉ. दर्शनकलाश्रीजी ने अपने अथक प्रयासों से जैन साहित्य के अथाह सागर में गौते लगाकर, गुणस्थानों की व्याख्या बौधगम्य भाषा में करते हुए इसे जन सामान्य के समझने योग्य बनाया है । स्वाध्याय समूहों के लिये आपका यह शोध प्रबन्ध निश्चय ही उपयोगी सिद्ध होगा। जैन दर्शन के ज्ञाता डॉ. सागरमलजी साहब जैन के दिशा दर्शन एवं मार्ग दर्शन में आपका यह अध्ययन सब के लिये हितकर है। डॉ. एस. सी. मेहता CG Jain Education Intemational Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( गुणस्थान : आत्मा का विकास क्रम) -डॉ. तेजसिंह गौड़ जैन सिद्धान्त में आत्मा के चारित्रिक गुणों के विकास की स्थिति को बताने के लिए 'गुणस्थान' शब्द का व्यवहार हुआ है । यह एक प्रकार का मापदण्ड है, थर्मामीटर है जिसके द्वारा आत्मा के विकास की स्थिति को जाना जा सकता है। वास्तविक रूप में देखा जाय तो प्राचीन श्वेताम्बर आगम साहित्य में कहीं भी गुणस्थान शब्द का जीवस्थान शब्द मिलता है । गुणस्थान शब्द का सबसे पहले प्रयोग आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार में तथा प्राकृत पंचसंग्रह एवं कर्मग्रन्थ में मिलता है । आचार्य नेमिचन्द ने अपने गोम्मटसार में जीवों को गुण कहा है। उनके अनुसार चौदह जीवस्थान कर्मों के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि की भावाभावजनित अवस्थाओं से निष्पन्न होते हैं । परिणाम और परिणामी का अभेदोपचार करने से जीव स्थान को गुणस्थान कहा गया है । गुणस्थान की संख्या चौदह बताई गई है। प्रत्येक पर विस्तार से विचार किया गया है । ये उत्तरोत्तर विकास के प्रतीक है । यही आत्मा का विकासक्रम है । अंतिम गुणस्थान पहुंचकर आत्मा मुक्त हो जाता है । गुण स्थानों के सम्बन्ध में जैन साहित्य में भले ही विस्तार से विवरण मिलता हो किन्तु सामान्य रूप से इसका प्रचार-प्रसार कम ही देखने को मिलता है । यह बात अलग हो सकती है कि व्यावहारिक रूप में इसका पालन (क्रिया के रूप में) होता हो । हार्दिक प्रसन्नता की बात है कि परम पूज्य राष्ट्रसन्त, संयम दानेश्वरी, साहित्य मनीषी, आचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी म. सा. की आज्ञानुवर्तिनी साध्वी डॉ. दर्शनकलाश्रीजी म. सा. ने कठोर अध्यवसाय एवं गहन अध्ययन कर गुण स्थान जैसे गूढ़ विषय पर शोध प्रबन्ध तैयार किया है । इसमें अपने गुण स्थान विषय पर गहराई है। चिंतन-मनन कर विस्तार से लेखन किया है । निश्चय ही आपका यह लेखन विद्वानों के साथ साथ सामान्यजनों के लिये भी उपयोगी होगा । वर्तमान समय में कुछ इसी प्रकार के विषयों पर अनुसंधान कर विषय वस्तु को प्रकट करने की आवश्यकता है। पूज्य साध्वीजीश्री ने गुणस्थान पर अपना शोध प्रबन्ध प्रकाशित करवाकर स्तुत्य प्रयास किया है। विश्वास है, आपके इस ग्रन्थ से अधिसंख्य लोग लाभान्वित होंगे। एक बार पुनः आपके द्वारा प्रस्तुत ग्रन्थ की अनुशंसा करते हुए आग्रह करता हूँ कि पूज्य साध्वीजी म.भविष्य में भी कुछ ऐसे ही विषयों पर अपनी लेखनी चलाकर जन-सामान्य के लिए ग्रन्थ उपलब्ध करवायेंगी। इसी आशा और विश्वास के साथ.... डॉ. तेजसिंह गौड़ 4/45, कालिदास नगर, पटेल कॉलोनी उज्जैन (म. प्र.) Jain Education Intemational Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभकामना सन्देश.. पूज्य श्री डॉ. दर्शनकलाश्रीजी म. सा. सादर वंदना! यह जानकर प्रसन्नता हुई कि आपको प्रदत्त पीएचडी शोध कार्य पर आधारित "प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा" विषय पर एक पुस्तक का प्रकाशन किया जा रहा है। "गुणस्थान" का अध्ययन करना अति दुर्लभ कार्य है, जिसको कि आपने संभव कर दिखाया है । यह पुस्तक निश्चित रूप से विशुद्ध जैन आत्माओं के लिये उपयोगी होगी, इसी आशा के साथ बधाई के साथ बधाई एवं शभकामना प्रेषित है। झाबुआ, दिनांक 21/07/2006 डॉ. प्रदीपकुमार संघवी एम.एस.सी.एम.फिल.पी.एच.डी. सहायक, प्राध्यापक, प्राणीशास्त्र शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, झाबुआ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुभकामना. चरम तीर्थंकर प्रभु महावीर ने उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है "अप्पा कत्ता विकताय, दुहाव य सुहाण य । अप्पा मित्तं ममित्तम्य, दुप्पट्ठियं सुप्पट्ठियं ।" अर्थात् आत्मा ही सुख दुःख का कर्ता है-उसके फल का भोक्ता है तथा उसका मुक्ता भी वही है । जब तक आत्मा पर शुभाशुभ कर्मावरण है तब तक निरन्तर वह कभी देवगति में, तो कभी नरकगति में, तो कभी मनुष्य गति में, तो कभी पशुगति में - अर्थात् चारों गतियों में भ्रमण करता रहता है। आत्मा अपने मूल स्वरूप में शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, जिन, तीर्ण, बोधक एवं मोचक है। आत्मा की प्रकृति है-मुक्ति, अनासक्ति-विरति जबकि आत्मा की विकृति है-पौद्गलिक आसक्ति । जब तक इस परासक्ति के पाश में आत्मा जकड़ा रहता है । तब तक वह भव-भ्रमण बढ़ाता रहता है, कर्मों के नए-नए बन्धों के द्वारा आत्म-घात करता रहता है। वस्तुतः जब वह आत्म चिन्तन के द्वारा मनन और मन्थन के द्वारा, तप-जप और संयम-स्वाध्याय के द्वारा स्वयं की प्रकृति को-स्वस्वभाव को जानने लगता है, देखते लगता है तथा आत्मा की प्रकृतिनुसार आचरण करने लगता है तभी कर्मों की निर्जरा होने लगती है, और जब सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाता है-तभी आत्मा मुक्तात्मा बनती है परमात्मा बनता है। यही रत्नश्रयी-'सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यकचारित्र' का मार्ग है-यही मुक्ति का मार्ग है-यही मोक्ष प्राप्ति का मार्ग है। कहा गया है-"स्वयं कर्म करोति आत्मा-स्वयं तत्फलमश्नुते, स्वयं श्रमति संसारे, स्वयं तस्माद विमच्यते ।' "आत्मा स्वयं ही कर्म करता है एवं स्वयं ही उसका फल भोगता है, कर्म बन्धनों के कारण भव भ्रमण करता है तथा पुरुषार्थ के द्वारा मोक्ष प्राप्त करता है । अपने पुरुषार्थ के द्वारा निर्वाण पाना, परम सुख पाना, मुक्ति पाना यही मानव जीवन का परम लक्ष्य है । यह तभी संभव है जब आत्मा के स्वयं के गुणों का विकास हो । ज्यों-ज्यों आत्म गुण प्रकट होने लगता है त्यों-त्यों कर्मावरण हटता जाता है । आत्मा के गुणों के विकास की भूमिकाओं को क्रमिक अवस्थाओं को जैन दर्शन में 'गणस्थान' कहा गया है । आत्मिक शक्ति के अव्यतम अविर्भाव वाली अवस्था प्रथम गुणस्थान है-धीरे धीरे क्रमिक विकास के साथ-साथ आत्मालोक प्रकट होने लगता है और बढ़ते-बढ़ते यह चौदहवें गुणस्थान तक सम्पूर्ण रूप से मन-वचन और काया की अयोगी स्थिति को साध लेता है । तब आत्मा का असली रूप प्रकट होता है, और तभी जीव अपने अन्तिम लक्ष्य तक अपने साध्य तक पहुँचता है । पूर्णता का अन्तिम चरण ही मोक्षावस्था है, सिद्धावस्था है, स्वरूपावस्था है । इस अवस्था में जन्म-जरा और मरण नहीं होता, जहाँ से फिर लौटना नहीं होता-सदैव सर्वथा आनन्द ही आनन्द होता है। क्रमिक आत्मिक विकास की इन्हीं अवधारणाओं को प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में कहाँ तक, कब से उघाड़ा गया है, ये अवधारणाएँ क्या है ? आत्मा को कितना प्रभावित करती है, कर्मों की प्रकृतियों को कैसे काटती है, सम्बन्धित Jain Education Intemational Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधक तत्त्व क्या है ? आदि अनेक समाधानों का सागर है - शोधग्रन्थ "प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा" । यह सत्साहित्य परम श्रद्धेय, सृजन के सूत्रधार, अध्यात्मयोगी, लोकमंगल के क्षीरसागर, प्रशमरस महोदधि, ज्ञान के महासागर, वात्सल्य और करूणा के आगार, साहित्य मनीषी-राष्ट्रसन्त श्रीमदविजय जयन म०सा० की आज्ञानुवर्ती एवं तपस्वीरत्ना पू० साध्वी श्री शशिकलाश्रीजी म० सा०की सुशिष्या श्री दर्शनकलाश्रीजी म० के अथक परिश्रम और लगन का सुफल है। विदुषी साध्वी श्री दर्शनकलाश्रीजी उत्तर गुजरात के थराद जिले में बनासकांठा ग्राम के पुण्यशाली श्री चन्दुलाल मफतलाल दोशी के परिवार की पुत्रीरत्ना है । माताश्री सविता बहिन के धार्मिक संस्कारों का सार्थक-प्रतिबिम्ब था पू० दर्शनकलाश्रीजी का बचपन जब उनकी व्यवहारिक शिक्षा की ओर कम तथा धार्मिक प्रशिक्षण पर अधिक जोर दिया गया। प०पू० राष्ट्रसन्त की अध्यात्ममय ओजस्वी वाणी ने वैराग्य के मंगल भावों का प्रस्फुटन किया तथा अल्पायु में ही- मात्र १०वीं तक का व्यवहारिक शिक्षण हांसिल कर वैराग्य पथ पर संयम पथ पर कदम बढ़ा दिए । प्रचूरप्रज्ञा-प्रसूता साध्वीश्री ने अपनी समस्त शिक्षा १२वीं बीए एमए, पीएच. डी. आदि दीक्षित होने के पश्चात् हांसिल की तथा जैन शासन की गुरुगच्छ की प्रभावना करते हुए निरन्तर अध्ययनरत रही । एम.ए. की उपाधि के समय तो आपश्री को 'विशेष योग्यता के कारण स्वर्णपदक भी हांसिल हुआ। आपश्री ने अपना शोध अध्ययन शाजापुर में जैन दर्शन के प्रकाण्ड पण्डित डॉ० सागरमलजी जैन के निर्देशन में तैयार किया तथा जैन विश्व भारती विश्वविद्यालय ने दिल्ली में आपश्री को राष्ट्रपति अब्दुल कलाम आजाद के हाथों २० अक्टोबर २००५ को डाक्टरेट (पीएच.डी.) की उपाधि प्रदान की । (मूलतः गुजराती भाषी होने के बावजूद हिन्दी भाषा में रूचि रखकर जो सफलता आपने प्राप्त की है वह वास्तव में प्रशंसनीय है, अभिनन्दनीय है, अनुकरणीय है । इसी तरह कर्मठतापूर्वक आपश्री अपनी पावन प्रज्ञा परक प्रसाति से गुरु गच्छ की प्रभावना करें तथा आपश्री का अत्यन्त चिन्तन परक, उद्बोधक परक सामग्री से आपूर्ण यह ग्रन्थ उपासकों, साधकों, जिज्ञासुओं, अध्ययनार्थियों एवं शोधार्थियों के लिए अपने दृष्टिकोणानुसार अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो-इसी मंगलकामना के साथ... डॉ. श्रीमती कोकिला भारतीय खाचरौद (म.प्र.) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल कामना......... "प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा" जैसे उत्कृष्ट विषय पर लेखिका साध्वीजी का शोध प्रबन्ध वास्तव में कठोर एवं विस्तार से जैन आगम के विस्तृत अध्ययन का सूचक है । इसमें चौदह गुणस्थानों का गहनता से अध्ययन कर संजोया है । निश्चित ही यह , साहित्य लोकप्रियता प्राप्त करेगा। राष्ट्रसन्त वर्तमानाचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेनसूरीश्वरजी म० सा० द्वारा दीक्षित एवं । सुशिक्षित, मिलनसार तथा मधुर स्वभावी साध्वी डॉ० दर्शनकलाश्रीजी की लेखिनी वास्तव में अनुमोदनीय है। मैं आशा करता हूँ कि आगे भी अपने गंभीर विषयों पर चिन्तन, मनन करते हुए जिनशासन व गुरुगच्छ की शोभा में निरन्तर अभिवृद्धि के कार्य करती रहेगी। पारा से सिद्धाचल तीर्थ छःरिपालक यात्रा संघ के शुभ प्रसंग पर इन्हीं मंगलकामनाओं के साथ... 11-01-2007 शुभेच्छु मनोहरलाल छाजेड़ पारा, जिला-धार (म.प्र.) Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ता स्वकथ्यम प्रत्येक धार्मिक एवं दार्शनिक परम्परा में व्यक्ति की आध्यात्मिक विकास यात्रा से सम्बन्धित विवेचन उपलब्ध होता है । व्यक्ति अपने पाशविक जीवन से उठकर परमात्म तत्त्व की ओर किस प्रकार अपनी यात्रा करता है और उस यात्रा के कितने पड़ाव होते हैं, यह विवेचन किसी न किसी रूप में सभी धर्म-दर्शनों में पाया जाता है । जैन दर्शन भी इसका अपवाद नहीं है । जैन धर्म-दर्शन में व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की इस यात्रा का उल्लेख विभिन्न रूपों में पाया जाता है। उनमें गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा अति महत्वपूर्ण है । जैन धर्म की श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं के साहित्य में इस सिद्धान्त का गहन और विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। यह सिद्धान्त मुख्यतः यह प्रतिपादित करता है कि व्यक्ति मिथ्यात्वमोह और चारित्रमोह का क्षय करते हुए किस प्रकार आगे बढ़ता है ? जैन धर्म-दर्शन में व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास में मुख्य रूप से बाधक तत्त्व मिथ्यात्व और कषाय माने गए हैं । व्यक्ति जैसे-जैसे इनसे ऊपर उठता है, वैसे-वैसे आध्यात्मिक विकास की ऊँचाईयों की ओर अग्रसर होता जाता है। आध्यात्मिक विकास की पूर्णता को प्राप्त करने के लिए व्यक्ति क्रमिक रूप से ही अपने चरण आगे बढ़ाता है, जिन्हें हम आध्यात्मिक विकास के सोपान कह सकते हैं । आध्यात्मिक विकास के इन सोपानों को ही जैन धर्म-दर्शन में गुणस्थान की संज्ञा दी गई है तथा उनकी संख्या चौदह मानी गई है । ये चौदह गुणस्थान निम्न हैं - (१) मिथ्यात्व गुणस्थान, (२) सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, (३) सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, (४) अवरितसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, (५) देशविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान (६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान (७) अप्रमत्तसंयत गुणस्थान (८) अपूर्वकरण गुणस्थान (६) अनिवृत्तिकरण गुणस्थान (१०) सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान (११) उपशान्तमोह गुणस्थान (१२) क्षीणमोह गुणस्थान (१३) सयोगीकेवली गुणस्थान (१४) अयोगीकेवली गुणस्थान । इन चौदह गुणस्थानों के स्वरूप और उनमें होने वाले कर्मप्रकृतियों के बन्ध, बन्धविच्छेद, उदय, उदयविच्छेद, उदीरणा, उदीरणाविच्छेद, सत्ता, सत्ताविच्छेद आदि की अपेक्षा से जैनधर्म-दर्शन में विपुल साहित्य की रचना हुई है। ___ जहाँ परम्परा की दृष्टि से यह गुणस्थान की अवधारणा अति प्राचीन मानी जाती है, वहाँ विद्वानों ने गुणस्थान सिद्धान्त के क्रमिक विकास की चर्चा की है । जैनधर्म-दर्शन का विपुल साहित्य कालक्रम में विनष्ट हो गया है, अतः जो उपलब्ध साहित्य है, उसे ही आधार मानकर विद्वानों ने यह स्थापित करने का प्रयत्न किया है कि गुणस्थान सिद्धान्त का विकास श्वेताम्बर मान्य अर्द्धमागधी आगम साहित्य और तत्त्वार्थसूत्र तथा उसके स्वोपज्ञभाष्य के पश्चात् ही हुआ है, जबकि परम्परा इस सिद्धान्त का आधार विच्छिन्न पूर्व साहित्य को मानती है । उपलब्ध साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर जहाँ विद्वानों की मान्यता तर्कसंगत प्रतीत होती है, वहीं यदि हम विच्छिन्न पूर्व साहित्य और विशेष रूप से कर्म ( साहित्य की दृष्टि से विचार करें तो परम्परागत मान्यता को भी एकदम नकारा नहीं जा सकता है। 60A Jain Education Intemational Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक ओर व्यक्ति की आध्यात्मिक विकास यात्रा के विभिन्न चरणों को जानने में अभिरुचि और दूसरी ओर गुणस्थान सिद्धान्त के विकास को लेकर परस्पर विरोधी अवधारणाओं को देखकर ही इस विषय के गम्भीर अध्ययन की अभिप्रेरणा जागृत हुई और इस शोधकार्य के माध्यम से डॉ. सागरमल जैन के सान्निध्य में सम्पूर्ण उपलब्ध श्वेताम्बर और दिगम्बर साहित्य के आलोडन-विलोडन का निश्चय किया । यद्यपि यह एक अत्यन्त दुरूह कार्य था, किन्तु गुरुजनों के आशीर्वाद तथा मार्गदर्शक डॉ. सागरमल जैन के सहयोग से हमने इस दिशा में यथाशक्ति प्रयत्न किया है। गुणस्थान सिद्धान्त को लेकर पूर्व में भी पर्याप्त विचार विमर्श हुआ है। प्राचीन काल से लेकर आधुनिक युग तक आचार्यों और विद्वानों ने इस विषय पर लिखा भी है । फिर भी डॉ. सागरमल जैन की कृति को छोड़कर तुलनात्मक गवेषणा के प्रयास कम ही हुए हैं। प्रस्तुत गवेषणा में जहाँ एक ओर हमें यह ज्ञात हुआ है कि अर्धमागधी आगम साहित्य में समवायांगसूत्र के चौदहवें समवाय को छोड़कर गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन का प्रायः अभाव ही है। भगवतीसूत्र और प्रज्ञापनासूत्र जैसे विशाल आगमों में भी न तो गुणस्थान सिद्धान्त का उल्लेख मिलता है और न उनमें चौदह गुणस्थानों का समग्र रूप से कोई उल्लेख मिलता है, फिर भी गुणस्थान सिद्धान्त में जिन चौदह सोपानों का उल्लेख हुआ है, उनमें सास्वादन को छोड़कर शेष अवस्थाओं के नामों के उल्लेख उपलब्ध होते हैं, किन्तु ये उल्लेख द्विक या त्रिक के रूप में ही हमें मिलते हैं, जैसे-मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र) और सम्यक्त्व; अविरत, विरताविरत, (देशविरत) और विरत; प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत; बादरकषाय और सूक्ष्मकषाय; उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली। इसके अतिरिक्त ग्रन्थिभेद की प्रक्रिया के रूप में वर्णित तीन करणों में अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के उल्लेख भी मिल जाते हैं। फिर भी परवर्ती ग्रन्थों में गुणस्थान सम्बन्धी जो विवेचन उपलब्ध होता है, उसका अर्द्धमागधी आगम साहित्य में प्रायः अभाव ही है। अर्द्धमागधी आगम साहित्य के व्याख्या ग्रन्थों में भी सर्वप्रथम आवश्यकचूर्णि में और उसके पश्चात् आगमों के संस्कृत वृत्ति एवं टीकाओं में ही गुणस्थान सम्बन्धी उल्लेख हमें मिले हैं । इसके विपरीत दिगम्बर परम्परा में जो आगम और आगम तुल्य ग्रन्थ माने गए हैं, उनमें कषायपाहुड को छोड़कर सभी ग्रन्थों में कहीं न कहीं गुणस्थान सम्बन्धी निर्देश उपलब्ध हैं । विशेषता यह है कि षट्खण्डागम न केवल गुणस्थानों की विशेष विवेचन करता है; अपितु गुणस्थानों, जीवस्थानों और मार्गणास्थानों के पारस्परिक सम्बन्धों को लेकर उनका अवतरण भी करता है । इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में हमें एक बात बहुत स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है कि गुणस्थान सम्बन्धी जो गम्भीर विवेचन दिगम्बर साहित्य में उपलब्ध है उसकी अपेक्षा श्वेताम्बर साहित्य में और विशेष रूप से अर्द्धमागधी आगम साहित्य में कुछ नाम निर्देशों को छोड़कर प्रायः उसका अभाव ही है । श्वेताम्बर परम्परा में हमें सर्वप्रथम जीवसमास और उसके पश्चात् कर्मसाहित्य में विशेष रूप से श्वेताम्बर पंचसंग्रह तथा कर्मग्रन्थों में यह विवेचन उपलब्ध होता है । दिगम्बर परम्परा में भी षट्खण्डागम के अतिरिक्त प्राकृत और संस्कृत पंचसंग्रहों में तथा गोम्मटसार आदि कर्मसाहित्य में यह चर्चा पाई जाती है। इस प्रकार जहाँ तत्त्वार्थसूत्र और स्वोपज्ञ भाष्य में गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा का प्रायः अभाव ही है, वहीं दिगम्बर Jain Education Intemational Education international Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यों द्वारा रचित तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं में इसका विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है । दिगम्बर परम्परा की र तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में गुणस्थान सम्बन्धी जो विस्तृत विवेचन उपलब्ध है, वैसा विवेचन हमें तत्त्वार्थसूत्र ६ की श्वेताम्बर टीकाओं में विशेष रूप से सिद्धसेनगणि और आचार्य हरिभद्र की टीकाओं में उपलब्ध नहीं होता है । अपने इस अध्ययन के क्रम में हमने यह भी पाया है कि मध्यकाल में गुणस्थान के सम्बन्ध में अनेक स्वतन्त्र रचनाएं भी लिखी गई, किन्तु इनमें रत्नशेखरसूरि के गुणस्थान क्रमारोह को छोड़कर अन्य रचनाएं आज तक हस्तप्रतों के रूप में संरक्षित है, किन्तु उनका प्रकाशन नहीं हो पाया है । जैसे विमलसूरि का गुणस्थान-क्रमारोह, जयशेखरसूरि का गुणस्थान-क्रमारोह, जिनभद्रसूरि का गुणस्थान-क्रमारोह, अज्ञातकृत गुणस्थानद्वाराणि, आचार्य नेमिचन्द्र का गुणस्थान और मार्गणास्थान आदि अभी भी प्रकाशन की प्रतीक्षा कर रहें हैं । अपनी इस गवैषणा के परिप्रेक्ष्य में हमने आधुनिक युग में गुणस्थान सिद्धान्त पर लिखे गए ग्रन्थों का भी आलोडन किया है। उसमें आचार्य अमोलकऋषिजी द्वारा रचित गुणस्थान रोहण अढीशतद्वारी नामक ग्रन्थ अत्यन्त महत्वपूर्ण लगा । इसमें २५२ द्वारों में गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा उपलब्ध होती है, फिर भी भाषा आदि की दृष्टि से यह ग्रन्थ पर्याप्त संशोधन और परिमार्जन की अपेक्षा रखता है । पं. सुखलालजी ने कर्मग्रन्थों के प्रस्तावना में भी गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन किया है, किन्तु वह चर्चा अत्यन्त संक्षिप्त ही है। यद्यपि अन्य परम्पराओं के साथ तुलनात्मक विवेचन की दृष्टि से वह इस युग का प्रथम प्रयास किया जा सकता है । गुणस्थान पर स्वतन्त्र रूप से ग्रन्थ की रचना करने वाले विद्वानों ने डॉ. सागरमल जैन का 'गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण' अति महत्वपूर्ण कहा जा सकता है । यद्यपि इस ग्रन्थ में गुणस्थान सिद्धान्त के विकास क्रम को लेकर गम्भीर और शोधपरक दृष्टि से चिंतन उपलब्ध होता है, फिर भी उसमें गुणस्थान सम्बन्धी जो विस्तृत विवेचन षट्खण्डागम, सर्वार्थसिद्धि टीका, पंचसंग्रह आदि में मिलता है उसका अभाव ही है । गुणस्थान सम्बन्धी सैद्धान्तिक विस्तत चर्चा की अपेक्षा आचार्य नानालालजी कत "गणस्थान स्वरूप और विश्लेषण"को महत्वपूर्ण कहा जा सकता है । उन्होंने यह विवेचन पंचसंग्रह और कर्मग्रन्थों को आधार बनाकर विस्तृत रूप से प्रस्तुत किया है, किन्तु यह ग्रन्थ परम्परागत चर्चा के अतिरिक्त कोई नई बात नहीं कहता है । पुनः मात्र सैद्धान्तिक चर्चा करने के कारण यह ग्रन्थ सामान्य पाठकों के लिए दुरूह भी बन गया है । सामान्य पाठकों को दृष्टि में रखकर गुणस्थान सिद्धान्त की विवेचना आचार्य जयंतसेनसूरिजी ने अपने ग्रन्थ "आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएं एवं पूर्णता" में की है । यह ग्रन्थ गुणस्थान सिद्धान्त का संक्षिप्त और सरल विवेचन प्रस्तुत करता है, तुलनात्मक विवेचन में यह पूर्व लेखकों पं. सुखलालजी, डॉ. सागरमल जैन और आचार्य देवेन्द्रमुनि के प्रतिपादनों के समरूप ही है। यद्यपि यह तीनों ग्रन्थ स्पष्ट रूप से आधुनिक युग में गुणस्थान सिद्धान्त की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं, फिर भी यह सब अपने विषय विवेचन की दृष्टि से संक्षिप्त ही है । इसी सन्दर्भ में हमें डॉ. प्रमिला जैन का “षटखण्डागम में गुणस्थान विवेचन" नाम का शोध प्रबन्ध भी प्राप्त हुआ है, किन्तु हमें यह देखकर अत्यन्त आश्चर्य हुआ है कि इस ग्रन्थ में षट्खण्डागम में वर्णित गुणस्थान सिद्धान्त की गम्भीर चर्चा नहीं है । विषय से हटकर अन्यान्य बातों का अन्य-अन्य ग्रन्थों के सन्दर्भ में गुणस्थानों का सतही स्तर का प्रतिपादन ही है । इसके अतिरिक्त डॉ. मुकुलराज मेहता का एक लघु शोध प्रबन्ध जैनधर्म में आध्यात्मिक विकास की अवस्थाएं के रूप में प्राप्त होता है, किन्तु यह ग्रन्थ भी अत्यन्त संक्षिप्त और प्राथमिक स्तर का है । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___इस प्रकार हमने अपनी शोधयात्रा में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विवेचन को जैनदर्शन के उपलब्ध प्राकृत, संस्कृत, गुजराती एवं हिन्दी ग्रन्थों में देखने का प्रयत्न किया है । हमने यथाशक्ति मूलग्रन्थ और उसकी टीकाओं को भी देखा है । हम विषय को स्पष्ट करने में कहाँ तक सफल हो पाए उसका निर्णय तो विद्वानों को ही करना है, किन्तु हम इतना तो अवश्य कह सकते हैं कि गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन के सन्दर्भ में व्यापक दृष्टि से यथासम्भव उपलब्ध सभी ग्रन्थों का आलोडन-विलोडन करके लिखने का यह प्रथम प्रयास है । सैद्धान्तिक विवेचना के साथ-साथ मुख्य रूप से हमने गुणस्थान सिद्धान्त का विवेचन कहां और किस रूप में प्राप्त होता है इस बात पर अधिक जोर दिया है । यह विवेचना यह भी स्पष्ट करती है कि कालक्रम में गुणस्थान सम्बन्धी चिन्तन में कैसे-कैसे गम्भीरता आती गई और उसमें किस प्रकार गणितीय अवधारणाओं का प्रयोग होता गया । वस्तुतः यह शोधप्रबन्ध गुणस्थान सिद्धान्त के कालक्रम में हुए विकास का एक इतिहास भी प्रस्तुत करता है । हमारा प्रयत्न यही रहा है कि गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विवेचनाओं को एक कालक्रम में प्राकृत, संस्कृत और आधुनिक भाषाओं के ग्रन्थों के आधार पर प्रस्तुत किया जाए । सीमित कालावधि एवं ग्रन्थों की उपलब्धता की कठिनाईयों के बावजूद भी हमने गुणस्थान सम्बन्धी विशाल ज्ञानराशि को इस शोधप्रबन्ध में समेटने का प्रयास किया है। इस सम्पूर्ण कार्य में गुरुजनों का आशीर्वाद एवं डॉ. सागरमल जैन का मार्गदर्शन एवं सहयोग हमारा सम्बल रहा प्रस्तुत ग्रन्थ नौ अध्यायों में विभक्त है । प्रथम अध्याय में गुणस्थान शब्द का अर्थ, उसके पर्यायवाची नाम, उसका अर्थविकास तथा गुणस्थान की अवधारणा और आध्यात्मिक विकास यात्रा के चरणों के रूप में विभिन्न गुणस्थानों का उल्लेख किया है । द्वितीय अध्याय में अर्द्धमागधी आगम साहित्य और उनके नियुक्ति साहित्य, भाष्य साहित्य, चूर्णि साहित्य और टीका साहित्य में उपलब्ध गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन को समाहित किया गया है । ततीय अध्याय में दिगम्बर परम्परा तथा यापनीय परम्परा में मान्य आगम तुल्य ग्रन्थों यथा कषायपाहुड, षट्खण्डागम, मूलाचार, भगवती आराधना एवं आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में उपलब्ध गुणस्थान सम्बन्धी विवरण को सहयोजित किया गया है। चतुर्थ अध्याय में तत्त्वार्थसूत्र, उसके स्वोपज्ञभाष्य और श्वेताम्बर तथा दिगम्बर तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं में उपलब्ध गुणस्थान सम्बन्धी विवरण का प्रतिपादन किया है। ___ पंचम अध्याय में श्वेताम्बर और दिगम्बर कर्म साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित विवरणों का उल्लेख षष्ठ अध्याय में श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के कुछ प्रमुख-प्रमुख ग्रन्थों में गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा का विवेचन किस रूप में उल्लेखित है, इसकी चर्चा है । सप्तम अध्याय में गुणस्थान सिद्धान्त पर स्वतन्त्र रूप से विभिन्न भाषाओं में लिखे गए ग्रन्थों की विषय-वस्तु का । समीक्षात्मक विवेचन प्रस्तुत किया गया है । अष्टम अध्याय तुलनात्मक अध्ययन से सम्बन्धित है । इसमें विभिन्न धर्म-दर्शनों में आध्यात्मिक विकास की है Jain Education Intemational nternational Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | चर्चा किस रूप में है और उसका गुणस्थान सिद्धान्त से क्या सम्बन्ध है, इसकी चर्चा है। नवम अध्याय, उपसंहार के रूप में है। इसमें शोधकार्य का संक्षिप्त निष्कर्ष दिया गया है। संयमी जीवन में उपाधियों का कोई महत्व नहीं होता है, फिर भी इस दिशा में जो प्रयत्न किया जाता है इसका प्रमुख उद्देश्य यही है कि परीक्षा के निमित्त से अध्ययन हो जाता है । ज्ञान-प्राप्ति के लिए ऐसा करना उचित प्रतीत होता है, अन्यथा साधक के संयमी जीवन में इतनी व्यस्तता बनी रहती है कि अध्ययन के लिए अलग से समय निकाल पाना कठिन होता है। जिस समय मैंने दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की थी, उस समय यह सोचा भी नहीं था कि मैं अपना अध्ययन इस स्तर तक कर सकूँगी । समय के साथ-साथ अध्ययन चलता रहा और परीक्षा भी उत्तीर्ण करती रही । मेरी इस अध्ययन यात्रा में प्रातः स्मरणीय विश्वपूज्य दादा गुरुदेव जैनाचार्य श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरीश्वरजी म. सा. का दिव्य आशीर्वाद एवं मंगल कृपा सदैव रही है । जब कभी मैंने अपने आपको असमंजस की स्थिति में पाया अथवा कहीं कोई बाधा उत्पन्न हुई तभी मैंने परम श्रद्धेय दादागुरुदेव श्री के नाम का श्रद्धापूर्वक स्मरण किया है और मेरा मार्ग प्रशस्त हो गया। उनका मंगलमय आशीर्वाद एवं कृपा ही मेरे आत्म विश्वास का आधार है। मेरी अध्ययन यात्रा में परम पूज्य राष्ट्रसंत आचार्य देवेश श्रीमद् विजय जयंतसेन सूरीश्वरजी म.सा. का भी असीम आशीर्वाद रहा है। समय-समय पर मुझे उनका मार्गदर्शन भी मिलता रहा । उच्च अध्ययन के लिए परम पूज्य गुरुदेव भी सदैव मेरा उत्साहवर्धन करते रहे, उनके इस कृपाभाव के लिए मैं उनकी आजीवन ऋणी रहूँगी। परम पूजनीया मातृहृदया, सरलस्वभावी गुरुणीजी साध्वी श्री शशिकलाश्रीजी की भी मैं कृतज्ञ हूँ कि जिनके आशीर्वाद व स्नेह से मैं अपने अध्ययन को जारी रख सकी। ज्ञानपिपासु साध्वीजी दर्शितकलाश्रीजी (सांसारिक बहन) का इस शोधकार्य की पूर्णाहुति के प्रसंग में स्मरण करना भी मेरा परम कर्तव्य है, जिनका अध्ययन के क्षेत्र में मुझे सदैव सहयोग मिलता रहा है। अपनी अध्ययन यात्रा में मुझे जिसका अधिक सहयोग मिला है, वह मेरी सहपथगामिनी सदाप्रसन्ना एवं कर्मठ साध्वी जीवनकलाश्रीजी है । उन्होंने अपने शरीर से अस्वस्थ होते हुए भी मुझे सदैव सहयोग दिया है । उन्होंने समय-समय पर सारा उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेकर मुझे अध्ययन के लिए समय एवं सुविधाएं उपलब्ध करवाई । उनका अविस्मरणीय सहयोग मेरी श्रुतसाधना का प्राण है । साध्वीश्री अपूर्वकलाश्रीजी, साध्वीश्री सुमनकलाश्रीजी तथा अध्ययनरता साध्वीजी सौरभकलाश्रीजी ने भी यथासमय मुझे सहयोग किया है । मैं उन सभी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कर उनकी सेवाभावना का अवमूल्यन नहीं करूंगी। इन सभी के स्नेह-सहयोग से मेरी ज्ञान यात्रा और साधना यात्रा सुचारू रूप से चलती रहे । यही शुभेच्छा है ! साथ ही यह भावना भी अभिव्यक्त करती हूँ कि उनका यह सेवाभाव सदा बना रहे। ___मेरी अध्ययन यात्रा में प्रेरणास्रोत रहे हैं दैनिकध्वज, मन्दसौर के सम्पादक, अखिल भारतीय श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद् के राष्ट्रीय महामंत्री सुरेन्द्र जी लोढा । लोढा जी जब भी आते मुझे अध्ययन के लिए प्रेरित करते रहते। उनकी प्रेरणा से मुझे काफी उत्साह मिला है । कई बार मैंने उनके सामने समयाभाव की समस्या की बात भी कही, । तब भी उनका यही कहना रहा कि जहाँ शुभ भावना होती है, वहाँ राह निकल ही आती है । आप अपने प्रयास जारी Jain Education Intemational Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रखें । वास्तव में उनका कथन सत्य प्रमाणित हुआ और मैं अध्ययन के इस मुकाम पर पहुँची । लोढाजी के प्रति आभार P प्रकट करना अपना कर्तव्य समझती हूँ। जहाँ तक इस शोधकार्य का प्रश्न है, मुझे सुरेन्द्रजी लोढा के अतिरिक्त जावरा निवासी सुरेशजी महेता की भी प्रेरणा निरन्तर मिलती रही है । अतः डॉ. सुरेशजी महेता भी मेरे धन्यवाद के पात्र हैं । इसी प्रकार शोधकार्य के लिए डॉ. मिथिलाप्रसाद जी त्रिपाठी अध्यक्ष संस्कृत विभाग, देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय, इन्दौर की ओर से भी मुझे प्रेरणा प्राप्त हुई। डॉ. त्रिपाठीजी ने तो न केवल मुझे प्रेरणा ही प्रदान की वरन एक समय तो उन्होंने शोधकार्य के लिए विषय का निर्धारण कर रूपरेखा भी बनवा दी थी और मैं भी आशान्वित हो गई थी कि अब अपना शोधकार्य प्रारम्भ हो जाएगा, किन्तु नियमों के चक्रव्यूह में यह शोधकार्य प्रारम्भ होने के पहले समाप्त हो गया, परन्तु डॉ. त्रिपाठीजी की प्रेरणा और सहयोग का भाव बराबर बना रहा । इसके लिए डॉ. त्रिपाठीजी के प्रति आभार व्यक्त करती हूँ। शोधकार्य करने के लिए मैं मानसिक रूप से तैयार हो चुकी थी, किन्तु नियमों की आपाधापी में विलम्ब होता जा रहा था। इसी बीच जैन विद्या के प्रख्यात विद्वान डॉ. सागरमलजी जैन से सम्पर्क हुआ और उनके मार्गदर्शन में इस विषय पर कार्य प्रारम्भ हो गया। कार्य प्रारम्भ तो हो गया, किन्तु साधक जीवन की अपनी सीमाएं होती हैं, समस्याएं होती हैं, सन्दर्भ ग्रन्थों की प्राप्ति की समस्या भी बड़ी थी, किन्तु डॉ. जैन सा. के मार्गदर्शन एवं सहयोग से कार्य को गति मिलती रही । इसी तारतम्य में उनके निर्देश पर मैंने शाजापुर प्रस्थान किया, वहाँ कुछ समय ही रुक सकी, पुनः पालीताना की ओर पदयात्रा करनी पड़ी, गुरुदेव की आज्ञा से हमारा सन् २००१ का चातुर्मास उज्जैन हुआ । यहाँ शोधकार्य को कुछ गति मिली । चातुर्मास की समाप्ति के पश्चात् हम पुनः विहार कर शाजापुर पहुंचे और वहाँ प्राच्य विद्यापीठ में हमारे शोधकार्य को तीव्र गति मिली । इसी अनुक्रम में सन् २००२ का हमारा चातुर्मास भी शाजापुर ही रहा और ये शोधकार्य डॉ. जैन सा. के मार्गदर्शन एवं सहयोग से निरन्तर प्रगति करता रहा । वस्तुतः इस शोधकार्य का सम्पूर्ण श्रेय जैनधर्म-दर्शन के मर्मज्ञ डॉ. सागरमलजी जैन को है । इस कृति के प्रणयन के मूल आधार होने से इस कृति के साथ उनका नाम सदा-सदा के लिए स्वतः जुड़ गया है । वे शोधप्रबन्ध के दिशा निर्देशक ही नहीं है, वरन् मेरी मानसिक दृढ़ता के प्रतिष्ठाता भी हैं । अन्तर्हृदय से मैं भावाभिनत हूँ उनके प्रति ! अपने शोधप्रबन्ध को पूरा करने में मुझे चन्द्रसागरसूरि ज्ञान मन्दिर, खाराकुआँ, उज्जैन, महोदयसागर ज्ञान भण्डार, पीपलीबाजार, इन्दौर, राजेन्द्रसूरि जैन ज्ञान भण्डार, रतनपोल, अहमदाबाद, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी एवं प्राच्य विद्यापीठ, शाजापुर से समय-समय पर सन्दर्भ ग्रन्थ उपलब्ध होते रहे । इसके लिए मैं इन सभी संस्थाओं के व्यस्थापकों तथा कार्यकर्ताओं के प्रति आभार प्रकट करती हूँ। इस शोधकार्य में डॉ. तेजसिंह गौड़, उज्जैन ने भी समय-समय पर सहयोग प्रदान किया और अध्ययन के बीच आए अवरोध को दूर कर इसे गति प्रदान की । मैं उनके प्रति भी आभार प्रकट करती हूँ। ___ मेरे इस शोधकार्य में नीरज कुमारजी सुराना, इन्दौर, मनोज कुमारजी नारेलिया, शाजापुर, मनोहरलालजी छाजेड़, पारा तथा रमणीकजी महेता, जावरा का आत्मीय सहयोग रहा है । इन सभी की गुरु भक्ति एवं ज्ञान-भक्ति अनुमोदनीय है। प्रस्तुत शोधप्रबन्ध में जिन-जिन विद्वान लेखकों एवं सम्पादकों के ग्रन्थों का उपयोग हुआ है, उन सभी के प्रति Jain Education Intemational Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकट करती हूँ । कृति की भाषा की शुद्धता को सुरक्षित रखने में प्रूफ संशोधन का कार्य अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है । इस अध्ययन यात्रा में शाजापुर जैन संघ के सदस्यों का भी महत्वपूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ है । इस दृष्टि से ‘शाजापुर श्रीसंघ' के सदस्यों की आत्मीय स्मृतियाँ इस शोधकार्य का अविभाज्य अंग है, जहाँ मुझे अध्ययन के अनुकूल शांतिमय वातावरण मिला, समुचित व्यवस्था मिली और मिली सभी के अन्तर्हृदय की असीम श्रद्धा । इन सभी के अतिरिक्त भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में इस शोधप्रबन्ध के प्रणयन में जो भी सहयोगी बने, उन सबके प्रति मैं अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करती हूँ । मैंने अपने मार्गदर्शक डॉ. जैन सा. के सान्निध्य में सम्बन्धित विषय को प्रामाणिकतापूर्वक प्रस्तुत करने का पूरा-पूरा प्रयास किया है, फिर भी इसकी पूर्णता का दावा नहीं कर सकती, सम्भव है प्रमादवश कहीं कुछ कमी रह गई हो अथवा प्रूफ संशोधन में कोई त्रुटि रह गई हो, तो उसके लिए क्षमाप्रार्थी हूँ तथा योग्य निर्देश मिलने पर उसके परिमार्जन की भावना रखती हूँ । इस प्रकाशन में ज्ञान भक्ति का अनुपम लाभ लिया है उन भाग्यशालियों की ज्ञान भक्ति अत्यधिक अनुमोदनीय है। साथ ही इस के अक्षरांकन एवं प्रिन्टिंग में जयन्त कम्प्यूटर्स, निम्बाहेड़ा के योगदान को विस्मृत नहीं कर सकती हूँ जिन्होंने पूरा ध्यान रखकर सभक्ति कार्य किया है । साध्वी डॉ. दर्शनकलाश्री Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अनुक्रमणिका (K विषय पेज क्र. r300 (१) गुणस्थान शब्द का पारिभाषिक अर्थ और उसके पर्यायवाची शब्द १. गुणस्थानों की उत्पत्ति २. गुणस्थान का अर्थ व विकास ३. चौदह गुणस्थानों की अवधारणा और उनका स्वरूप ४. आध्यात्मिक विकास के सोपान गुणस्थान (२) | अर्द्धमागधी आगम साहित्य और आगमिक व्याख्याओं में गुणस्थान की अवधारणा १. अर्द्धमागधी आगम साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा के बीज २. नियुक्ति साहित्य और गुणस्थान सिद्धान्त ३. भाष्य साहित्य और गुणस्थान सिद्धान्त ४. चूर्णि साहित्य और गुणस्थान सिद्धान्त ५. आगमिक टीकाएं और गुणस्थान सिद्धान्त | शौरसेनी आगम साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा १. कषायपाहुड और गुणस्थान की अवधारणा २. षट्खण्डागम में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विवेचन ३. भगवती आराधना में गुणस्थान सिद्धान्त ४. मूलाचार में गुणस्थान सम्बन्धी विचारणा ५. आचार्य कुन्द-कुन्द के ग्रन्थों में गुणस्थान की अवधारणा तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाओं में गुणस्थान की अवधारणा १. तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य में गुणस्थान सिद्धान्त के बीजरूप गुणश्रेणी की अवधारणा २. तत्त्वार्थसूत्र की सवार्थसिद्धि टीका में गुणस्थान ३. तत्त्वार्थसूत्र की राजवार्तिक टीका में गुणस्थान ४. तत्त्वार्थसूत्र की श्लोकवार्तिक टीका और गुणस्थान ५. सिद्धसेनगणि की तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति और गुणस्थान ६. आचार्य हरिभद्र की तत्त्वार्थभाष्यटीका और गुणस्थान १७३ १७८ १८६ १६७ १६७ १६८ २३७ २५१ २५३ २५६ Jain Education Intemational Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय पेज क्र. २६५ २६५ २६७ ३१८ | श्वेताम्बर एवं दिगम्बर कर्मसाहित्य में गुणस्थान १. कर्मप्रकृति और गुणस्थान सिद्धान्त २. चन्द्रर्षिकृत पंचसंग्रह और गुणस्थान ३. प्राचीन कर्मग्रन्थ और गुणस्थान ४. नवीन पंचमकर्मग्रन्थ और गुणस्थान सिद्धान्त ५. दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह और गुणस्थान सिद्धान्त ६. दिगम्बर संस्कृत पंचसंग्रह और गुणस्थान ७. गोम्मटसार और गुणस्थान सिद्धान्त ३२० ३८२ ३८७ ४०१ ४०१ ४०७ ४०८ ४०८ ४०६ ४०६ ४१० (६) | प्राकृत और संस्कृत के अन्य प्रमुख ग्रन्थों में गुणस्थान १. पूर्वधरकृत जीवसमास में गुणस्थान २. उमास्वाति के प्रशमरति प्रकरण में गुणस्थान चर्चा का अभाव ३. सिद्धसेन दिवाकर की कृतियों में गुणस्थान चर्चा का अभाव ४. समन्तभद्र के आप्तमीमांसा आदि ग्रन्थों में गुणस्थान चर्चा का प्रायः अभाव ५. स्वामी कार्तिकेय की कार्तिकेयानुप्रेक्षा में गुणश्रेणी की अवधारणा ६. योगिन्दुदेव के योगसार में गुणस्थान ७. आचार्य हरिभद्र के प्रमुख ग्रन्थों में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन ८. आचार्य शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव में गुणस्थान ६. गुणभद्र का आत्मानुशासन और गुणस्थान १०. आचार्य हेमचन्द्र के ग्रन्थों में गुणस्थान चर्चा का प्रायः अनुल्लेख ११. नेमिचन्द्र सूरि के प्रवचनसारोद्धार में गुणस्थान विवेचन १२. नरेन्द्रसेन का सिद्धान्तसार और गुणस्थान १३. विनयविजय कृत लोकप्रकाश में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन १४. राजेन्द्रसूरिजी कृत अभिधानराजेन्द्रकोष और गुणस्थान सिद्धान्त १५. जिनेन्द्रवर्णीकृत जैनेन्द्र सिद्धान्तकोष और गुणस्थान १६. आचार्य देवेन्द्रमुनिजीकृत कर्मविज्ञान में गुणस्थान सिद्धान्त ४१३ ४१४ ४१५ ४१५ ४१६ ४१७ ४१८ ४२२ ४२३ ४२५ | गुणस्थान सम्बन्धी प्राचीन और समकालीन स्वतन्त्र ग्रन्थ १. रत्नशेखरसूरि विरचित गुणस्थानक्रमारोह २. गुणस्थानक्रमारोह नामक अन्य स्वतन्त्र रचनाएं ४२५ ४२८ Jain Education Intemational Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्र. विषय पेज क्र. ४३० ४३५ ४३५ ३. देवचन्द्रकृत विचारसार प्रकरण अपरनाम गुणस्थानशतक ४. चौदह गुणस्थानवचनिका ५. श्रीमुक्तिसोपान अपरनाम ‘गुणस्थानरोहणअदीशतद्वारी' ६. आचार्य नानेशकृत गुणस्थान स्वरूप एवं विश्लेषण ७. आचार्य जयन्तसेनसूरिजी कृत आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएं एवं पूर्णता ८. डॉ. प्रमिला जैनकृत षट्खण्डागम में गुणस्थान विवेचन ६. डॉ. सागरमल जैनकृत गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण ४३७ ४३८ ४४० ४४१ ४४५ ४४५ ४४८ ४४८ गुणस्थान की अवधारणा:एक तुलनात्मक विवेचन १. योगवासिष्ठ की चौदह भूमिकाएं और गुणस्थान २. योगदर्शन की मन की पांच अवस्थाएं और गुणस्थान ३. शैवदर्शन की दस भूमिकाएं और गुणस्थान ४. गीता का त्रिगुण सिद्धान्त और गुणस्थान ५. बौद्धदर्शन और गुणस्थान की अवधारणा ६. आजीवक सम्प्रदाय की आध्यात्मिक विकास की भूमियाँ और गुणस्थान ७. युंग का व्यक्तित्व मनोविज्ञान और गुणस्थान ४४६ ४५० ४५३ ४५४ उपसंहार ४५७ ४७४ (१०)| परिशिष्ठ परिशिष्ट - १ (श्री मुक्तिसोपान श्री गुणस्थान रोहण अढीशतद्वारीका संक्षेपित यंत्र) परिशिष्ट - २ अवलोकित ग्रंथसूची ४७५ ४६३ Jain Education Intemational Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 1 गुणस्थान शब्द का पारिभाषिक अर्थ और उसके पर्यायवाची शब्द * गुणस्थानों की उत्पत्ति * गुणस्थान का अर्थ व विकास * चौदह गुणस्थानों की अवधारणा और उनका स्परूप * आध्यात्मिक विकास के सोपान गुणस्थान Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ||ॐ अहं नमः ।। ।।श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथाय नमः।। ।। प्रातः स्मरणीय प्रभुश्रीमद्विजय राजेन्द्रगुरुभ्यो नमः।। ههههههههههههههههههههه | अध्याय 1 गुणस्थान शब्द का पारिभाषिक अर्थ और उसके पर्यायवाची शब्द गुणस्थान शब्द की प्राचीनतम परिभाषा दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह में उपलब्ध होती है । उसमें कहा गया है कि मोहनीय आदि कर्मों के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि से जीव जिन विभिन्न अवस्थाओं को प्राप्त होता है, उन अवस्थाओं को सर्वज्ञ, सर्वदर्शियों ने गुणस्थान संज्ञा से निर्दिष्ट किया है।' इस प्रकार पंचसंग्रह के अनुसार गुणस्थान शब्द कर्मों के उदय आदि के कारण जीवों की विभिन्न अवस्थाओं को सूचित करता है। अभिधान राजेन्द्र कोष में प्राचीन आचार्यों के ग्रन्थों के आधार पर आचार्य राजेन्द्रसूरिजी गुणस्थान शब्द को परिभाषित करते हुए लिखते हैं कि जीवों के ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप विभिन्न भाव गुण कहे जाते हैं। ये गुण जिन-जिन अवस्थाओं में, जिस-जिस रूप में रहते हैं, उन्हें गुणस्थान कहते हैं। प्रवचनसारोद्धार की टीका के अनुसार गुणों के प्रकर्ष या अपकर्ष रूप आत्मा की जो शुद्धि या अशुद्धि की अवस्था होती है, वह गुणस्थान कही जाती है। चतुर्थ कर्मग्रन्थ की टीका में गुणस्थान को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि परमपद रूप प्रसाद के शिखर पर आरोहण करने के जो सोपान हैं, वे गुणस्थान हैं। ___अन्यत्र यह भी कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि आदि से प्रारम्भ करके अयोगीकेवली अवस्था तक जीवों के जो विभिन्न भेद हैं, उन्हें गुणस्थान कहा जाता है। समवायांगसूत्र में कर्मविशुद्धि की अवस्थाओं को ही जीवस्थान (गुणस्थान) कहा गया है। अमितगतिकृत दिगम्बर संस्कृत पंचसंग्रह में गुणस्थानों को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि औदयिक आदि भावों के आधार पर गुण, अवगुण रूप से जीवों की जिन विभिन्न अवस्थाओं का बोध होता है, वे गुणस्थान कही जाती हैं। गोम्मटसार में कहा १ जेहि दु लक्खिजंते उदयादिसु सम्भवेहिं भावेहिं। जीवा ते गुणसण्णा णिदिट्ठा सव्वदरिसीहिं ।। - दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह, प्रथम अधिकार, गा. क्र. -३, लेखक आ. अमितगति, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी। २ अभिधान राजेन्द्र कोष भाग-३, लेखक राजेन्द्रसूरिजी, अभिधान राजेन्द्र कोष प्रकाशन संस्था, अहमदाबाद । ३ प्रवचन सारोद्धार, सटीकं २२४ वाँ द्वार, गाथा क्रमांक -१३०२ की टीका, पृ. ४६४ प्रका. भारतीय प्राच्यतत्व प्रकाशन समिति, पिंडवाडा ४ सटीकाश्चत्वारः - प्राचीन कर्मग्रन्थाः । ५ अभिधान राजेन्द्र कोष, भाग-३, पृ. ६१३ ६ समवायांगसूत्र, समवाय -१४ सूत्र : कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउदस जीवट्ठाणा- वाचनाप्रमुखः आ. तुलसी प्रकाशन : जैन विश्व भारती लाडनूं (राज.) ७ दिगम्बर संस्कृत पंचसंग्रह, गाथा क्रमांक -१२, लेखक अमितगतिसूरि, श्री माणिकचन्द दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति, हीराबाग, पो. गिरगाँव-मुंबई Jain Education Intemational Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... प्रथम अध्याय........{2} गया है कि मोहनीय कर्म अर्थात् दर्शनमोह और चारित्रमोह के उदय से मन, वचन और काया की जो योगरूप प्रवृत्ति होती है, उसी से गुणस्थानों की उत्पत्ति होती है। प्राचीन आचार्यों ने ओघ, समास आदि को भी गुणस्थान की संज्ञा से निर्दिष्ट किया है। षट्खण्डागम और जीवसमास में गुणस्थान के लिए जीवसमास शब्द का भी प्रयोग हुआ है। षट्खण्डागम में गुणस्थानों को जीवसमास क्यों कहा गया है, इसे स्पष्ट करते हुए लिखा है कि जीव इनमें 'समस्यन्ते' अर्थात् संक्षेप रूप किए जाते हैं अथवा जीव इनमें 'सम्यक् आसते' अच्छी रीति से रहते हैं, इसीलिए गुणस्थानों को जीवसमास कहते हैं। समवायांग में गुणस्थानों के लिए जीवस्थान शब्द का प्रयोग हुआ है। वैसे गुणस्थानों के लिए 'गुणस्थान' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग दिगम्बर परम्परा में षट्खण्डागम में ही मिलता है। सर्वप्रथम श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थानों का विवेचन करने वाले 'जीवसमास' में गुणस्थान शब्द का प्रयोग न होकर जीवसमास या जीवस्थान शब्द का प्रयोग ही मिलता है। मात्र प्रारम्भ की गाथा में 'जिन' को चौदह गुण का ज्ञाता कहा गया है, किन्तु प्रतिज्ञा तो जीवस्थानों के विवेचन की ही की गई है। संस्कृत भाषा में 'गुण' शब्द का एक अर्थ रज्जु (रस्सी) है।" इस आधार पर जीव को संसार में बांधकर रखनेवाला तत्व गुण है। प्राचीन जैन आगमों में गुण शब्द का प्रयोग बन्धन में डालने वाले तत्व के रूप में हुआ है। आचारांगसूत्र में कहा गया है कि 'जे गुणे से आवटे, जे आवटे से गुणे',२ अर्थात् जो गुण है वही आवर्त (संसार) है, जो आवर्त (संसार) है वही गुण है। यहाँ पर गुण शब्द संसार परिभ्रमण का वाचक माना गया है। टीकाकारों ने यहाँ गुण शब्द का अर्थ इन्द्रियों के विषय में किया है। उनके अनुसार इन्द्रियों के विषय में अनुरक्तता ही संसार के परिभ्रमण का कारण है, किन्तु यदि गुण शब्द को सीधे संसार परिभ्रमण के कारण के रूप में ग्रहण करें, तो वह संसार दशा की विभिन्न स्थितियों का सूचक है। परवर्ती काल में संसारदशा की विभिन्न अवस्थाओं को ही जीवस्थान कहा गया है और कालांतर में जीवस्थान को गुणस्थान का पर्यायवाची भी मान लिया गया है। अतः गुणस्थान शब्द का एक अर्थ जीव की संसार में अवस्थिति की विभिन्न अवस्थाएं भी होता है, जो उसके कर्मों के उदय आदि के आधार पर अथवा आध्यात्मिक शुद्धि-अशुद्धि के आधार पर बनती है। इसप्रकार हम देखते हैं कि जैन परम्परा में गुणस्थान शब्द के पारिभाषिक अर्थ को लेकर भी एक विकास हुआ है। सांख्यदर्शन में जगत् और उसके कारणभूत प्रकृति को त्रिगुणात्मक माना गया है।'३ यही अर्थ हमें आचारांग की उपर्युक्त कथन अर्थात् 'जो गुण है वह संसार है और जो संसार है वह गुण है' में प्रतिध्वनित होता है। सांख्यदर्शन में प्रकृति को त्रिगुणात्मक माना गया है और उसके सत्व, रजस् और तमस् गुणों के आधार पर ही पुरुष के बन्धन की व्याख्या की गई है। सांख्यदर्शन में वस्तुतः इन त्रिगुणों की विविध अवस्थाएं ही बन्धन की विविध स्थितियों की सूचक है। आचारांग का यह कथन कि 'जे गुणे से मूलठाणे, जे मूल ठाणे से गुणे'१४ अर्थात् जो बन्धन के मूल स्थान है, वे गुण (इन्द्रियों के विषय) है और जो गुण हैं, वही बन्धन के मूल कारण हैं' - इसी तथ्य को सूचित करता है। इस प्रकार प्रारम्भ में गुण शब्द बन्धन का सूचक रहा है। कालान्तर में वह सद्गुण या आत्म विशुद्धि का सूचक बना है। गुणस्थान की अवधारणा एक ओर बन्धन की सघन अवस्था से उनकी अल्पतम अवस्था की सूचक है, तो दूसरी और वह बन्धन से अल्पतम विमुक्ति से ८ (क) गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा क्रमांक-८ (ख) मूलाचार - गाथा क्रमांक -२६. ६ (क) षट्खण्डागम, धवलावृत्ति, प्रथम खण्ड प्र. १६०-१६१ (ख) जीवसमास गाथा क्रमांक-६, सम्पादन- डॉ. सागरमल जैन, प्रकाशन - पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी-५ १० षट्खण्डागम - धवलावृत्ति प्रथम खण्ड पृ. लेखक-पुष्पदन्त भूतबली, प्रकाशन- आ. शांतिसागर दि. जैन जिनवाणी संस्था, श्री श्रुत भण्डार ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण। ११ जालिकस्तु वागुरिको, वागुरा मृगजालिका । शुम्ब वटारको रज्जुः शुल्वं तन्त्री वटी गुणः ।। - अभिधान चिंतामणी, मर्त्यकाण्ड, श्लोक नं.५६२, प्रकाशक-चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-१। १२ आचारांगसूत्र, प्रथम अध्ययन, पंचम उद्देशक, वाचना प्रमुख - आ. तुलसी, प्रकाशन जैन विश्वभारती संस्था, लाडनूं (राज.) आयारो- १/१/५/६३ १३ (अ) सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः सांख्यसूत्र १/१६१, (ब) प्रकृतिरेव त्रिगुणयुक्ता - सुवर्णसप्ततिशास्६१ १४ आचारांग सूत्र आयारो -२/१/१, प्रकाशन - जैन विश्वभारती संस्था, लाडनूं (राज.) Jain Education Intemational ute & Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ क्रमिक विकास करते हुए पूर्ण विमुक्ति की सूचक है । जैनदर्शन की दृष्टि से विचार करें तो एक ओर गुणस्थान आत्मा की बन्धन से विमुक्ति की ओर की गई यात्रा की विभिन्न अवस्थाओं के सूचक हैं, तो दूसरी ओर वे आत्मा में कर्मों की उदयादि विभिन्न अवस्थाओं के भी सूचक हैं। गुणस्थान सम्बन्धी ग्रन्थों में किस गुणस्थान में किन कर्मों का उदय रहता है, किनकी सत्ता होती है और किन कर्मों का क्षय या उपशम होता है, इसकी विस्तृत चर्चा है। अतः एक दृष्टि से गुणस्थान आत्मा में कर्मों की सत्ता और कर्मों के उदय के सूचक है, तो दूसरी ओर वे कर्मों के क्षय, क्षयोपशम, बन्धविच्छेद आदि के भी सूचक है। वस्तुतः जैन दर्शन में गुणस्थान की अवधारणा आत्मा के कर्मों के निमित्त से होने वाले बन्धन से उनकी विमुक्ति की ओर होने वाली यात्रा को अभिहित करती है। वस्तुतः गुणस्थान आत्मा की कर्मों के निमित्त से जो विभिन्न अवस्थाएं होती हैं, उसकी व्याख्या करते हैं । गुणस्थानों की उत्पत्ति गोम्मटसार में कहा गया है कि गुणस्थानों की उत्पत्ति मोह और योग के निमित्त से होती है। " दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय कर्मों के निमित्त से या उनके उदय के कारण मन, वचन और काया रूप योगों की जो प्रवृत्ति होती है, वे ही गुणस्थानों की उत्पत्ति के कारण हैं। दूसरे शब्दों में विभिन्न गुणस्थानों का जन्म कर्मों के उदय के निमित्त से मन, वचन और काया की जो योग प्रवृत्ति होती है, उसके द्वारा होता है। वस्तुतः गुणस्थान कर्मों के निमित्त से आत्मा के भावों का जो परिणमन होता है उसके सूचक हैं। गुणस्थानों की संख्या का प्रश्न : प्रथम अध्याय .......{3} कषाय और योग के निमित्त से आत्मा के परिणाम तो अनेक होते हैं, अतः जितने परिणाम होते हैं उतने ही गुणस्थान होने चाहिए। सामान्यतया तो यह प्रश्न समुचित है। गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा में भी पंचसंग्रह आदि ग्रन्थों में एक-एक गुणस्थान में कितने विकल्प सम्भव होते हैं इसकी विस्तार से चर्चा की गई है, किन्तु ऐसा मानने पर गुणस्थानों की भी संख्या अनेक हो जाएगी, जबकि जैनधर्म में और उसकी समग्र परम्पराओं में गुणस्थानों की संख्या तो चौदह ही मानी गई है। इस सम्बन्ध में धवला टीका का स्पष्टीकरण महत्त्वपूर्ण है। जिनेन्द्रवर्णीजी ने जैनेन्द्रसिद्धान्तकोष में धवला टीका के आधार पर इसका स्पष्टीकरण निम्न रूपों में किया है। वे लिखते हैं कि (आत्मा के ) जितने ही परिणाम होते हैं उतने गुणस्थान क्यों नहीं ? क्योंकि जितने परिणाम हैं, उतने गुणस्थान कहे जाएँ तो समझने और समझाने के व्यवहार में गड़बड़ी हो जाए और व्यवहार चल नहीं सके, उस कारण से द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा नियत संख्यावाले चौदह गुणस्थान कहे गए हैं।" फिर भी यह प्रश्न बना ही रहता है कि गुणस्थान चौदह ही क्यों माने जाते हैं? यह संख्या चौदह से कम-अधिक भी सम्भव हो सकती थी । इस सम्बन्ध में विद्वानों की मान्यता यह है कि योगवाशिष्ठ में आध्यात्मिक अविकास की सात और आध्यात्मिक विकास की सात-ऐसी चौदह अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है। पंडित सुखलालजी का कहना है कि इसी चौदह संख्या के आधार पर चौदह गुणस्थानों की संख्या निर्धारित हुई है। " यद्यपि यह निश्चय करना कठिन है कि योगवाशिष्ठ के आधार पर जैनों ने चौदह गुणस्थानों का निर्धारण किया है या जैनों के चौदह गुणस्थानों के आधार पर योगवाशिष्ठ में चौदह आध्यात्मिक पतन और विकास की अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है । किसने किससे ग्रहण किया है, इस प्रश्न का उत्तर सरल नहीं है, क्योंकि इसमें ग्रन्थ रचना काल अथवा अवधारणा के विकास के काल का निर्धारण आदि अनेक पक्ष जुड़े होंगे। योगवाशिष्ठ में जो आध्यात्मिक १५ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा क्रमांक-३, लेखक -आ. नेमिचन्द्र, प्रकाशन - भारतीय ज्ञानपीठ, १८ इंस्ट्रीट यूशनल एरिया, लोदी रोड़, नयी दिल्ली - ११०००३ १६ षट्खण्डागम की धवला, १/१, १, १७/१८४/८. १७ योगवाशिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग, ११७/२-२४ उद्धृत दर्शन और चिन्तन भाग-२, पृ. २८२-२८३ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... प्रथम अध्याय........{4} अविकास की अपेक्षा से सात भूमिकाएँ दी गई और आध्यात्मिक विकास की अपेक्षा से जो सात भूमिकाएँ दी गई, उनकी तुलना तो हम तुलनात्मक अध्ययन से सम्बन्धित अग्रिम अध्याय में करेंगे। यहाँ केवल इतना ही जान लेना पर्याप्त है कि योगवाशिष्ठ में जो चौदह भूमिकाएँ उपलब्ध हैं, उनमें सात अज्ञान की तरतमता को सूचित करती हैं और सात ज्ञान की तरतमता को सूचित करती हैं। गुणस्थान सिद्धान्त में भी प्रथम सात अवस्थाओं तक कर्म की प्रधानता होती है और अन्तिम सात में आत्मा की प्रधानता होती है। गुणस्थानों की संख्या चौदह ही क्यों है? इस प्रश्न का यह उत्तर व्यवहार की अपेक्षा से दिया गया है। निश्चय में तो आत्मविशद्धि की अपेक्षा से जितने प्रकार के आत्म परिणाम हो सकते हैं उतने ही गुणस्थान हो सकते हैं। संक्षेप में गुण शब्द चेतन शक्तियों के विकास का सूचक है। इन चेतन शक्तियों के विकास के जितने स्तर है, वे ही गुणस्थान के नाम से अभिव्यक्त किए गए हैं। वस्तुतः आत्मविकास की अवस्थाओं, भूमिकाओं और सोपानों को ही गुणस्थान कहते हैं। गुणस्थान शब्द का अर्थ व विकास वस्तुतः गुणस्थान शब्द जैनों का पारिभाषिक शब्द है। समयसार में गुणस्थान को जीवरस या जीव के परिणाम (मनोदशाएँ) कहा गया है। गोम्मटसार में गुण शब्द को जीव का पर्यायवाची मानकर जीव की अवस्थाओं को ही गुणस्थान कहा गया है।१६ यहाँ हमें एक बात स्पष्ट होती है कि आत्मा की आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से जिन विभिन्न अवस्थाओं की चर्चा की जाती है, उनके लिए गुणस्थान शब्द परवर्ती काल में ही रूढ़ हुआ है।२० समवायांगसूत्र में गुणस्थान शब्द का उल्लेख नहीं है। वहाँ इन अवस्थाओं के लिए कर्मविशुद्धि के मार्ग और जीवस्थान शब्द का ही प्रयोग हुआ है। कहीं-कहीं जीवस्थान के लिए भूतग्राम शब्द का भी प्रयोग देखा जाता है। दिगम्बर परम्परा में षट्खण्डागम और श्वेताम्बर परम्परा में जीवसमास में इन्हें जीवसमास भी कहा गया है। यद्यपि इन दोनों ग्रन्थों में अग्रिम विवेचन में इनके लिए गुणस्थान शब्द का भी प्रयोग हुआ है। इसप्रकार प्राचीन ग्रन्थों में जीवस्थान, जीवसमास, कर्मविशुद्धि की मार्गणा आदि पर्यायवाची रूप में ही प्रयुक्त देखे जाते हैं, किन्तु परवर्ती काल में जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान न केवल भिन्न-भिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुए हैं, अपितु उनके पारस्परिक सम्बन्धों की भी मलती है। इससे विद्वज्जन इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि जीवस्थान, मार्गणास्थान, गुणस्थान आदि शब्दों का अर्थविकास हुआ है। गुणस्थान शब्द का अर्थविकास वस्तुतः गुण शब्द के अर्थविकास पर ही निर्भर है। उपर्युक्त समग्र चर्चा में - हम देखते हैं कि जैनग्रन्थों में गुण शब्द का प्रयोग संसार, इन्द्रियों के विषय, बन्धन के कारण कर्मों की उदयजन्य अवस्थाएं, कर्मविशुद्धि के स्थान, आत्मा की विशुद्धि की अवस्थाएं और आध्यात्मिक विकास की अवस्थाएं आदि विभिन्न अर्थों में हुआ है। विद्वानों के अनुसार गुण शब्द के ये विभिन्न अर्थ समकालिक न होकर एक कालक्रम में विकसित हुए हैं। आचारांग और सूत्रकृतांग में जहाँ गुण शब्द का प्रयोग संसार और इन्द्रियों के विषय के अर्थ में हुआ है, वहीं प्राचीनस्तर के कर्मसाहित्य में गुण शब्द का अर्थ जीव और जीव की कर्मो की उदयजन्य विभिन्न अवस्थाएं हैं। इसी कारण प्राचीन ग्रन्थों जैसे समवायांग, षट्खण्डागम, पंचसंग्रह आदि में जीवस्थान, जीवसमास आदि शब्दों का प्रयोग भी गुणस्थान के लिए हुआ। समवायांग में सर्वप्रथम कर्मविशुद्धि की मार्गणा के रूप में गुणस्थानों को परिभाषित किया गया है। इसप्रकार प्रारम्भ में जहाँ जीवस्थान, जीवसमास, मार्गणास्थान आदि शब्द पर्यायवाची अर्थ में रहे, वहीं अग्रिम क्रम में जीवस्थान, मार्गणास्थान और गणस्थान की स्वतन्त्र अवधारणाओं का विकास हुआ। जीवस्थान के अन्तर्गत संसारदशा में जीवों की विभिन्न अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है। जीवस्थान में निम्न चौदह अवस्थाएं मानी गई हैं - (१) सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त (२) सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त (३) बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त (४) बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त (५) द्वीन्द्रिय अपर्याप्त (६) द्वीन्द्रिय पर्याप्त (७) त्रीन्द्रिय अपर्याप्त (८) त्रीन्द्रिय पर्याप्त (E) चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त (१०) चतुरिन्द्रिय पर्याप्त (११) असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त (१२) असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त (१३) संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और (१४) संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त।" इसी प्रकार मार्गणास्थान में भी संसारदशा में जीव की विभिन्न १८ समयसार गाथा क्र. ५५, लेखक-कुन्दकुन्दाचार्य, प्रकाशक - श्रीमद् रामचन्द्र आश्रम, पो. बोरीया, वाया आणंद (गुजरात) १६ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा क्र.८ २० समवायांगसूत्र, समवाय -१४, सूत्र - कम्मविसोहिमग्गणं पहुच्चचउदस जीवट्ठाणा - वाचनाप्रमुख - आ. तुलसी, प्रकाशन - जैन विश्वभारती लाडनूं (राज.) २१ चतुर्थ कर्मग्रन्थ षडशीति गाथा क्रमांक-२, लेखक -देवेन्द्रसूरिजी, विवेचक - धीरजलाल डायालाल मेहता, प्रकाशन- जैन धर्म प्रसारण ट्रस्ट-सूरत। Jain Education Intemational Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... प्रथम अध्याय........{5} अवस्थाओं को समाहित करते हुए निम्न चौदह मार्गणाएं मानी गई है- (१) गति (२) इन्द्रिय (३) काय (४) योग (५) वेद (६) कषाय (७) ज्ञान (८) संयम (६) दर्शन (१०) लेश्या (११) भव्य (१२) सम्यक्त्व (१३) संज्ञी और (१४) आहार। इसी क्रम में आगे गुणस्थानों के रूप में कर्मों के बन्ध, उदय, सत्ता तथा बन्धविच्छेद, उदयविच्छेद और सत्ताविच्छेद को लेकर निम्न चौदह गुणस्थानों की अवधारणा विकसित हुई-(१) मिथ्यादृष्टि (२) सास्वादन (३) मिश्र (४) अविरतसम्यग्दृष्टि (५) देशविरति (६) प्रमत्तसंयत (७) अप्रमत्तसंयत (८) अपूर्वकरण (E) अनिवृत्तिकरण (१०) सूक्ष्मसम्पराय (११) उपशान्तमोह (१२) क्षीणमोह (१३) सयोगी केवली और (१४) अयोगी केवली।५ मात्र इतना ही नहीं, उसके पश्चात् इन चौदह गुणस्थानों का चौदह जीवस्थानों और चौदह मार्गणास्थानों के साथ किस प्रकार का पारस्परिक सम्बन्ध रहा हुआ है, इसकी विस्तार से चर्चा हुई है। इसी क्रम में आध्यात्मिक विशुद्धि या कर्मनिर्जरा के आधार पर दस गुणश्रेणियों की चर्चा भी आचारांगनियुक्ति, तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य में उल्लेखित है। इसके आधार पर विद्वानों ने यह माना कि गुणस्थान की अवधारणा का विकास ऐतिहासिक कालक्रम में हुआ है। इस सम्बन्ध में डॉ. सागरमल जैन लिखते है कि गुणस्थान की अवधारणा के ऐतिहासिक विकास क्रम को समझने की दृष्टि से यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि न केवल प्राचीनस्तर के श्वेताम्बर आगमों में अपितु दिगम्बर आगम रूप में मान्य कषायपाहुडसुत्त में, तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य में गुणस्थान की अवधारणा का कहीं भी सुव्यवस्थित निर्देश उपलब्ध नहीं होता है। यद्यपि इन तीनों ग्रन्थों में गुणस्थान की अवधारणा से सम्बन्धित कुछ पारिभाषिक शब्दों जैसे दर्शनमोह उपशमक, दर्शनमोहक्षपक चारित्र मोह उपशमक, चारित्र मोह क्षपक, उपशान्तमोह, क्षीणमोह आदि के प्रयोग उपलब्ध हैं। मात्र यही नहीं, ये तीनों ही ग्रन्थ कर्मविशुद्धि के आधार पर आध्यात्मिक विकास की स्थितियों का चित्रण भी करते हैं। इससे ऐसा लगता है कि इन ग्रन्थों के रचनाकाल तक जैन परम्परा में गुणस्थान की अवधारणा का विकास नहीं हो पाया था। ऐतिहासिक दृष्टि से यह बात भी महत्वपूर्ण है कि समवायांग और षट्खण्डागम में चौदह गुणस्थानों के नाम का स्पष्ट निर्देश होकर भी उन्हें गुणस्थान नाम से अभिहित नहीं किया गया है। जहाँ समवायांगसूत्र उन्हें जीवस्थान कहता है, वहीं षट्खण्डागम में उन्हें जीवसमास कहा गया है। इससे यह प्रतिफलित होता है कि जैन परम्परा में लगभग चौथी शताब्दी तक गुणस्थान की अवधारणा अनुपस्थित थी। चौथी शताब्दी के अन्त से लेकर पाँचवीं शताब्दी के बीच यह सिद्धान्त अस्तित्व में आया, किन्तु इसे गुणस्थान न कहकर जीवस्थान या जीवसमास कहा गया है।२४ यद्यपि उपलब्ध साहित्यिक साक्ष्यों के आधार पर डॉ. सागरमल जैन के उपर्युक्त कथन में कुछ सत्यार्थ है, फिर भी गुणस्थान सिद्धान्त के विकासक्रम के सम्बन्ध में अन्य कुछ तथ्यों पर गहराई से विचार कर लेना आवश्यक है। हमारी दृष्टि में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज श्वेताम्बर आगम साहित्य में भी उपस्थित है। चाहे सम्पूर्ण श्वेताम्बर आगम साहित्य में गुणस्थान शब्द का प्रयोग न हुआ हो, किन्तु गुण शब्द का प्रयोग तो उपलब्ध होता है। आचारांग में गुण शब्द को संसारदशा का वाचक माना गया है। इससे यह तो सिद्ध हो ही जाता है कि जीवों की संसारदशा में जो विभिन्न अवस्थाएं हैं, वे ही गुणस्थान, जीवस्थान की सूचक हैं। भगवती जैसे श्वेताम्बर आगम में और कसायपाहुड जैसे प्राचीनस्तर के दिगम्बर आगम तुल्य ग्रन्थ में सास्वादन को छोड़कर गुणस्थानों के रूप में वर्णित शेष तेरह अवस्थाओं के उल्लेख मिल जाते है। भगवतीसूत्र में अनेक त्रिकों और द्विकों का उल्लेख मिलता है, जैसे- मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि; अविरत, विरताविरत और विरत; प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत; बादरसम्पराय और सूक्ष्मसम्पराय; उपशान्तमोह और क्षीणमोह, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली; इसके अतिरिक्त करण की चर्चा में यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के उल्लेख भी उसमें उपलब्ध है। इसप्रकार भगवतीसूत्र में चौदह गुणस्थानों में से केवल सास्वादन को छोड़कर सभी नाम उपलब्ध हो जाते हैं। यही स्थिति कसायपाहुडसुत्त की भी है। उसमें भी सास्वादन को छोड़कर शेष अवस्थाओं के नाम उपलब्ध हो जाते हैं। इस सम्बन्ध में डॉ. सागरमल जैन स्वयं ही लिखते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र के समान ही कसायपाहुडसुत्त में न तो गुणस्थान शब्द ही है और न ही गुणस्थान सम्बन्धी चौदह अवस्थाओं का सुव्यवस्थित विवरण है, किन्तु गुणस्थान की अवधारणा से सम्बन्धित कुछ पारिभाषिक शब्द पाए जाते हैं। कसायपाहुडसुत्त में गुणस्थान से सम्बन्धित पारिभाषिक शब्द है। मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, विरताविरत (संयमासंयम), विरत (संयत), उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली।२५ इससे यह फलित होता २२ चतुर्थ कर्मग्रन्थ षडशीति गाथा क्रमांक -६, वही. २३ द्वितीय कर्मग्रन्थ, कर्मस्तव गाथा क्रमांक-२, वही. २४ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण - डॉ. सागरमल जैन, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, पृ ३-४. २५ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण - डॉ. सागरमल जैन, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, पृ. ३-४. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ प्रथम अध्याय........{6} है कि चाहे आगमों में गुणस्थान शब्द का स्पष्ट उल्लेख न हो, किन्तु सास्वादन के अतिरिक्त गुणस्थानों से सम्बन्धित सभी अवस्थाओं का उल्लेख उनमें उपलब्ध है। परम्परा के अनुसार तो यह भी माना जाता है कि दृष्टिवाद, पूर्व साहित्य और आगमों कभी कुछ अंश लुप्त हो चुका है, इसीलिए यह कहना कि गुणस्थान सिद्धान्त का आगमों में सर्वथा अभाव रहा है, विचारणीय अवश्य है । यद्यपि उपलब्ध साहित्य में किस कालक्रम में गुणस्थानों की अवधारणा किस रूप में उपलब्ध होती है, इस पर विचार किया जा सकता है। यदि इस दृष्टि से हम गुणस्थान की अवधारणा को कालक्रम में रखें, तो हम कह सकते है कि आगमयुग अर्थात् ईसा की पांचवीं शताब्दी के पूर्व तक के जो ग्रन्थ हैं, उनमें हमें गुणस्थान शब्द नहीं मिलता है, किन्तु गुणस्थानों से सम्बन्धित जो चौदह अवस्थाएं हैं, उनमें से सास्वादन को छोड़कर सभी के उल्लेख अवश्य उपलब्ध हो जाते हैं। साथ ही समवायांग में जीवस्थानों के रूप में चौदह गुणस्थानों के नाम भी मिलते हैं। यद्यपि डॉ. सागरमल जैन आदि कुछ विद्वान इसे प्रक्षिप्त अंश मानते हैं। चाहे यह अंश संग्रहणीसूत्र से यहाँ प्रक्षिप्त हुआ हो, किन्तु आज तो यह आगम का अंग है। आगमों के पश्चात् हमें आचारांग निर्युक्ति, ६ तत्त्वार्थसूत्र" और षट्खण्डागम के कृति अनुयोग द्वार की चूलिका में दस गुणश्रेणियों का उल्लेख मिलता है। इ श्रेणियों के अधिकांश नाम वही हैं, जो गुणस्थानों के हैं। इन गुणश्रेणियों को विद्वानों ने भी गुणस्थानों के बीज के रूप में स्वीकार किया है। इसके पश्चात् श्वेताम्बर परम्परा में जीवसमास और दिगम्बर परम्परा में षट्खण्डागम ऐसे ग्रन्थ हैं, जो स्पष्ट • रूप से चौदह गुणस्थानों का उल्लेख करते हैं। यद्यपि जीवसमास और षट्खण्डागम जहाँ इन चौदह अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है, वहाँ इन्हें प्रथम तो जीवसमास ही कहा गया है, किन्तु अग्रिम विवरण में इनके लिए गुणस्थान शब्द का भी प्रयोग हुआ है। इस प्रकार उपलब्ध जैन साहित्य में गुणस्थान शब्द का सर्वप्रथम स्पष्ट उल्लेख षट्खण्डागम और जीवसमास में मिलता है। गुणस्थान सिद्धान्त की विस्तृत चर्चा भी दिगम्बर परम्परा में सर्वप्रथम पुष्पदंत और भूतबलीकृत षट्खण्डागम और पूज्यपाद देवनन्दी की तत्त्वार्थसूत्र टीका में उपलब्ध होती है। इनके समकालीन भगवती आराधना और मूलाचार में यद्यपि गुणस्थान सिद्धान्त का विस्तृत वर्णन उपलब्ध नहीं है, किन्तु इन दोनों ग्रन्थों में भी गुणस्थान सम्बन्धी निर्देश तो उपलब्ध होते ही हैं। श्वेताम्बर परम्परा में सर्वप्रथम समवायांग के चौदहवें समवाय में जीवस्थान के रूप में तथा जीवसमास में जीवसमास के नाम से इन चौदह अवस्थाओं का उल्लेख उपलब्ध है, २६ किन्तु षट्खण्डागम के समान ही जीवसमास मे भी अग्रिम गाथाओं में उन्हें गुणस्थान के नाम से सम्बोधित किया गया है। इसके पश्चात् गुणस्थान सम्बन्धी विशिष्ट विवरण श्वेताम्बर परम्परा में आवश्यकचूर्णि और सिद्धसेन गणि की तत्वार्थ की टीका में उपलब्ध होता है। इनका काल लगभग सातवीं शताब्दी है। यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि पूज्यपाद देवनन्दी ने सर्वार्थसिद्धि में तथा पुष्पदंत और भूतबली ने षट्खण्डागम में चौदह मार्गणाओं और आठ अनुयोग द्वारों के आधार पर जितने विस्तार से गुणस्थानों का उल्लेख किया है, वैसा इन दोनों ग्रन्थों में नहीं है । गुणस्थानों के जीवस्थानों और मार्गणास्थानों से पारस्परिक सहसम्बन्ध को लेकर जो विस्तृत चर्चा हमें षट्खण्डागम और सर्वार्थसिद्धि टीका में मिलती है, उतनी विस्तृत चर्चा हमें आवश्यकचूर्णि तथा सिद्धसेन गणि की टीका में मिलती है। श्वेताम्बर परम्परा में मार्गणास्थानों और जीवस्थानों गुणस्थानों के अवतरण का प्रथम प्रयास हमें श्वेताम्बर प्राकृत पंचसंग्रह में ही उपलब्ध होता है । श्वेताम्बर परम्परा में पंचसंग्रह एक ऐसा ग्रन्थ है, जो गुणस्थान सिद्धान्त की गम्भीर विस्तृत चर्चा प्रस्तुत करता है। वैसे दिगम्बर परम्परा में भी जो दिगम्बर २६ आचारांग निर्युक्ति (चतुर्थ अध्ययन के प्रथम उद्देशक की नियुक्ति. गाथा क्रमांक २२२-२२३ (निर्युक्ति संग्रह - हर्ष पुष्पामृत ग्रन्थमाला पृ. ४४१ ) २७ तत्त्वार्थसूत्र, अध्याय ६ सूत्र ४७, लेखक- उमास्वाति महाराज प्रकाशन-यशोविजय जैन संस्कृत पाठशाला, जैन श्रेयस्कर मंडल महेसाणा २८ षट्खण्डागम, चतुर्थ वेदना खण्ड, कृति अनुयोग द्वार, पृ. नं. ६२७. लेखक : पुष्पदंत भूतबली, प्रकाशन : श्री आ. शांतिसागर दि. जैन जिनवाणी संस्था - फलटण, संपादक पं. सुमतिभाई राहा. २६ (अ) कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउदस जीवट्ठाण पण्णत्ता, तं जहा-मिच्छादिट्ठि, सासायणसम्मादिट्ठि, सम्मामिच्छादिट्ठि, अविरयसम्मादिट्टि, विरयसविरए, पमत्तसंजए, अप्पमत्तसंजए, निअट्टिबायरे, अनि अट्टिबायरे, सुहुमसंपराए, उवसामए वा खवए वा, उवसंतमोहे, खीणमोहे, सजोगी केवली, अयोगी केवली। समवायांग (सम्पादक- मधुकर मुनि, आगम प्रकाशन समिति ब्यावर ) १४ / १५ (ब) मिच्छा 9 SS सायणा २ मिस्सा ३ अविरयसम्मा ४ य देसविरयाऽय । विरयापमत्त ६ इयरे ७ अपुव्व ८ अणियट्टि ६ सुहुमा १० य ॥ ८ ॥ उवसंत ११ खीणमोहा १२ सजोगि केवलिजिणो १३ अजोगी १४ य चोद्दस जीवसमासा कमेण एएऽणुगंतव्वा ||६|| - जीवसमास (पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी) गाथा - ८,६ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ प्रथम अध्याय.....{7} प्राकृत पंचसंग्रह है, वह भी गुणस्थान सिद्धान्त की तथा विशेष रूप से गुणस्थानों के मार्गणास्थानों और जीवस्थानों की चर्चा प्रस्तुत करता है। इन्हीं के समकालीन श्वेताम्बर प्राचीन षट् कर्मग्रन्थों में भी गुणस्थानों की विस्तृत चर्चा हमें मिलती है। फिर भी श्वेताम्बर पंचसंग्रह और श्वेताम्बर प्राचीन कर्मग्रन्थों को छोड़कर गुणस्थानों की जितनी गम्भीर विस्तृत चर्चा दिगम्बर परम्परा में होती रही, उतनी विस्तृत चर्चा श्वेताम्बर परम्परा में नहीं मिलती है। श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थान सिद्धान्त की विस्तृत चर्चा को लेकर मुख्यतया हमें श्वेताम्बर पंचसंग्रह तथा प्राचीन षट् कर्मग्रन्थ और परवर्ती देवेन्द्रसूरिकृत पांच कर्मग्रन्थों पर ही निर्भर रहना पड़ता है, जबकि दिगम्बर परम्परा में षट्खण्डागम, पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका, दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह, क्षपणसार, गोम्मटसार, संस्कृत पंचसंग्रह आदि अनेक ग्रन्थ हैं। यहाँ हमें यह अवश्य स्वीकार करना होगा कि श्वेताम्बर परम्परा की अपेक्षा दिगम्बर परम्परा में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विवेचन अधिक व्यापक रहा है। इन सभी ग्रन्थों में गुणस्थान सिद्धान्त किस रूप में उपस्थित है, इसकी विस्तृत चर्चा तो हम इन ग्रन्थों से सम्बन्धित अग्रिम अध्यायों में करेंगे। अभी तो इतना जान लेना पर्याप्त होगा कि ये चौदह गुणस्थान आध्यात्मिक विकास की किन स्थितियों को सूचित करते हैं। आगे हम चौदह गुणस्थानों के सामान्य स्वरूप की चर्चा करेंगे । चौदह गुणस्थानों की अवधारणा और उनका स्वरूप जैन परम्परा में आध्यात्मिक विकास क्रम की चौदह अवस्थाएँ मानी गई है. - (१) मिथ्यात्व (२) सास्वादन (३) मिश्र (४) अविरतसम्यग्दृष्टि (५) देशविरतसम्यग्दृष्टि (६) प्रमत्तसंयत (७) अप्रमत्तसंयत (८) अपूर्वकरण (६) अनिवृत्तिकरण (१०) सूक्ष्मसंपराय ( ११ ) उपशान्तमोह (१२) क्षीणमोह (१३) सयोगीकेवली और (१४) अयोगीकेवली। प्रथम से चतुर्थ गुणस्थान तक का विकासक्रम सम्यग्दर्शन की विभिन्न अवस्थाओं को प्रकट करता है, जबकि पांचवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक का विकासक्रम सम्यग्चारित्र से सम्बन्धित है । तेरहवाँ और चौदहवाँ गुणस्थान आध्यात्मिक पूर्णता का द्योतक है। इनमें भी दूसरे और तीसरे गुणस्थानों का सम्बन्ध विकास की अवस्थाओं से न होकर, मात्र चतुर्थ गुणस्थान प्रथम गुणस्थान की ओर होने वाली पतन की अवस्थाओं से है । ३० (१) मिथ्यात्व गुणस्थान- इस गुणस्थान को प्राप्त आत्मा की दृष्टि मिथ्या अर्थात् विपरीत होती है। उन्हें जिनवचनों पर श्रद्धा नहीं होती है । इस अवस्था में रही हुई आत्मा दर्शनमोहनीय और चरित्रमोहनीय की कर्मप्रकृतियों से बद्ध होती है । मिथ्यात्व मोहनीय के प्रबलतम उदय के कारण जीव मिथ्यादृष्टि कहलाता है। जिस प्रकार धतूरे के बीज को खाने वाला मनुष्य 'सफेद वस्तु को भी पीली देखता है, उसी तरह मिथ्यादृष्टि जीव की दृष्टि भी विपरीत होती है। विपरीत दृष्टि के कारण जीव असत्य को सत्य, अधर्म को धर्म मानता है। दिग्भ्रमित व्यक्ति की तरह लक्ष्य विमुख होकर भटकता रहता है और अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। मिथ्यादृष्टि जीव कुदेव को देव, कुगुरु को गुरु और कुधर्म को धर्म मानता है। यद्यपि वह मनुष्य को मनुष्य, पशु को पशु तथा पक्षी को पक्षी के रूप में जानता और मानता है, किन्तु धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य आदि के सम्बन्ध में उसकी समझ सम्यक् नहीं होती है। इसी मिथ्यादृष्टिकोण के कारण जीव की इस अवस्था को मिथ्यात्व गुणस्थान कहा जाता | मिथ्यादृष्टि जीव अज्ञान से युक्त होता है। वह सत्य मार्ग को न जानता है और न उस पर गमन करता है । मिथ्यात्व को गुणस्थान क्यों कहा जाता है ? इसका समाधान करते हुए अनुयोगद्वारसूत्र में कहा गया है कि मिथ्यादर्शन लब्धि, मति - अज्ञानलब्धि, श्रुत- अज्ञानलब्धि आदि भी कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न होती है। मिथ्यादृष्टि जीव का मिथ्यादर्शन एवं मिथ्याज्ञान क्षायोपशमिक भाव होने से मिथ्यात्व को भी गुणस्थान कहा गया है। दूसरा कारण यह है कि जिसप्रकार सघन बादलों का आवरण हो जाने “खओवसमिआ मइ अण्णाणली, खओवसमिआ सुय अण्णाणलद्धी, खओवसमिआ विभंगणाणलद्धी, खओवसमिआ, चक्खुदंसणलद्धी, खओवसमिआ अचक्खु - दंसणलद्धी, ओहिदंसणलद्धी एवं सम्मदंसणलद्धी, मिच्छादंसणलद्धीख, सम्ममिच्छादंसणलद्धी एवं पण्डियवीरियलन्दी, बालवीरियलद्धी, बाल-पण्डिय वीरियलद्धी, खओवसमिआ, सोइन्दियलद्धी जाव खओवसमिआ, पासेन्दीयली- अनुयोगद्वाराणि (टीकाकार-मलधारी हेमचन्द्रसूरि ) प्रकाशन आगमोदय समिति, सुरत, सन् १६२४, पत्रांक ११६ सूत्र १२६ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... प्रथम अध्याय........{8) पर भी सूर्य की प्रभा सर्वथा आच्छादित नहीं होती है, किन्तु कुछ अंश खुली रहती है, जिससे समय का अर्थात् दिन-रात का पता चलता है, उसी प्रकार मिथ्यात्व मोहनीय का उदय होने पर जीव का दृष्टिगुण सर्वथा आवरित नहीं हो जाता है, कुछ अंश खुला रहता है। यदि ऐसा न माने तो निगोदिया जीव, अजीव कहलाएगा।" इसी कारण से मिथ्यात्व को गुणस्थान कहा गया है। पुनः सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के पूर्व अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क तथा दर्शनमोह का क्षयोपशम और यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण भी इसी अवस्था में होते हैं, अतः इस अपेक्षा से इसे गुणस्थान कहा जाता है। ___ काल की अपेक्षा से मिथ्यात्व के तीन भेद हैं - (१) अनादि-अनन्त (२) अनादि-सान्त और (३) सादि-सान्त ।२ प्रथम भेद के अधिकारी अभव्य जीव अथवा जातिभव्य (जो जीव भव्य होकर भी कभी मुक्त नहीं होता) जीव हैं। दूसरा भेद उन जीवों की अपेक्षा है, जो जीव अनादिकालीन मिथ्यादर्शन रूप ग्रंथि का भेदन करके सम्यग्दृष्टि बन जाते हैं। ये जीव भव्य कहलाते हैं। तीसरा भेद उन जीवों की अपेक्षा से है, जो एक बार सम्यक्त्व प्राप्त करने के बाद पुनः मिथ्यात्वी हो जाते हैं। इन जीवों की अपेक्षा से प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान की आदि तब होती है, जब वे सम्यक्त्व से पतित होकर प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में आते हैं अथवा उपरिम गुणस्थानों से पतित होकर गिरते हुए मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होते है। ऐसे जीवों की अपेक्षा से सादि-सान्त विकल्प है, क्योंकि जिसको एक बार सम्यक्त्व की प्राप्ति हो गई है, वह निश्चित मोक्षगामी होता है। जिस जीव के मिथ्यात्व की आदि है, उसके मिथ्यात्व का अन्त अवश्यम्भावी है। तीसरे भेद की अपेक्षा से मिथ्यात्व गुणस्थान की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति क्रमशः अन्तर्मुहूर्त और देशोन अर्धपुद्गल परावर्त है। स्थानांगसूत्र में मिथ्यात्व के दस भेद भी बतलाए गए हैं-(9) अधर्म में धर्मबुद्धि (२) धर्म में अधर्मबुद्धि (३) उन्मार्ग में मार्गबुद्धि (४) मार्ग में उन्मार्गबुद्धि (५) अजीव में जीव बुद्धि (६) जीव में अजीवबुद्धि (७) असाधु में साधु की बुद्धि (८) साधु में असाधु की बुद्धि (E) अमूर्त में मूर्त की बुद्धि और (१०) मूर्त में अमूर्त की बुद्धि । आगमों में वर्णित इन दस भेदों के अतिरिक्त मिथ्यात्व के आभिग्राहिकादि पांच तथा लौकिकादि दस-ऐसे पन्द्रह भेद आदि भी मिलते है, कुल पच्चीस भेद होते हैं, किन्तु ये स्वतन्त्र भेद न होकर आगम में वर्णित दस प्रकार के मिथ्यात्व का वर्णन करने वाले हैं। इन पच्चीस भेदों को संक्षेप में कहें तो नैसर्गिक (स्वभावजन्य) और अधिगमज (परोपदशजन्य) मिथ्यात्व- ये दो भेद होंगे। मिथ्यात्व मोहनीय के उदय से तत्वार्थ के विपरीत श्रद्धानुरूप मिथ्यात्व के पांच भेद हैं- एकान्त, विपरीत, विनय, संशयित और अज्ञान।३ अनेक धर्मात्मक पदार्थ को एक धर्मात्मक मानना एकान्त मिथ्यात्व है, जैसे वस्तु सर्वथा क्षणिक है अथवा सर्वथा नित्य है। धर्मादिक के स्वरूप को विपर्ययरूप मानना विपरीत मिथ्यात्व है, जैसे हिंसादि से स्वर्गादि की प्राप्ति होती है। सम्यग्दृष्टि देव, गुरु और उनके कहे हुए शास्त्रों में और मिथ्यादृष्टि देव, गुरु और उनके शास्त्रों में समान बुद्धि रखना, उन्हें समान रूप में सम्मान देना, दोनों में श्रद्धा रखना, विनय मिथ्यात्व है। समीचीन और असमीचीन-दोनों प्रकार के पदार्थों में से किसी भी एक का निश्चय नहीं होना संशय मिथ्यात्व है। इसी प्रकार जीवादि पदार्थों का स्वरूप यही है, इस तरह विशेषरूप से न समझने को अज्ञान मिथ्यात्व कहते हैं। जब तक जीव इन मिथ्या मान्यताओं से ग्रसित रहता है, उसे मिथ्यात्व गुणस्थान में स्थित माना जाता है। योगशास्त्र के प्रथम प्रकाश में जीव की प्रथम अविकसित अवस्था को गुणस्थान क्रम में लिया गया है। इसको स्पष्ट करते हुए कहा है कि मिथ्यादृष्टि को जो गुणस्थान कहा गया है, वह भद्रता आदि गुणों के आधार पर कहा है। गुण के लिए उत्थान यहीं से होता है।३४ ३१ सव्व जीवाणं वि य, अक्खरस्स अणंतमो भागो निच्च उग्धाडिओ चिट्ठइ। जइ पुण सो वि आवरिज्जा, तेण जीवो अजीवत्तणं पाउणिज्जा।। - नंदीसूत्र-७५ ३२ स्थानांग-१०/७३४. ३३ गोम्मटसार, जीवकाण्ड -१५. ३४ योगशास्त्र, प्रथम प्रकाश- श्री हेमचन्द्राचार्य प्रणीतम्, प्रकाशन श्री निर्ग्रन्थ साहित्य प्रकाशन संघ, दिल्ली ६, सन् १९७५. Jain Education Intemational Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.. प्रथम अध्याय.......{9} __ योगदृष्टि समुच्चय में मित्रा, तारा आदि योग दृष्टियों का विवेचन आया है। उनमें प्रथम मित्रदृष्टि जिसमें चित्त की मृदुता, अद्वेषवृत्ति, अनुकम्पा और कल्याण साधन की स्पृहा जैसे प्राथमिक सद्गुणों का प्रकटीकरण होता है। अतः प्रथम गुणस्थान मिथ्यात्व रूप होते हुए भी सम्यग्दर्शन की ओर ले जाने वाले गुणों की भूमि का होने से, इसे गुणस्थान अर्थात् गुणों की भूमि कहा गया है। यहाँ सम्यग्दर्शन के आविर्भाव की तैयारी हो सकती है, किन्तु यथार्थ सम्यग्दर्शन प्रकट नहीं होता। मन्द रूप मिथ्यात्व के अस्तित्व से प्रथम गुणस्थान को मिथ्यात्व गुणस्थान कहा गया है।३५ (२) सास्वादन गुणस्थान- प्राकृत भाषा में सासायण कहते हैं तथा संस्कृत में यह सास्वादन और सासादन दो रूपों में मिलता है। यद्यपि सास्वादन गुणस्थान क्रम की अपेक्षा से विकासशील कहा जा सकता है, लेकिन वस्तुतः यह गुणस्थान आत्मा की पतनोन्मुख अवस्था का द्योतक है। कोई भी आत्मा इस गुणस्थान में प्रथम गुणस्थान से विकास करके नहीं आती वरन् जब उत्क्रान्ति करने वाली आत्मा ऊपर के गुणस्थानों से पतित होकर प्रथम गुणस्थान की ओर जाती है, तब इस गुणस्थान से गुजरती है। जो जीव औपशमिक सम्यक्त्व से च्युत हो गया है, परन्तु जिसने अभी मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं किया है, ऐसे मिथ्यात्व की ओर अभिमुख जीव को सम्यक्त्व का जो आंशिक आस्वादन शेष रहता है, सम्यक्त्व के इस आस्वादन के कारण ही प्रस्तुत गुणस्थान को सास्वादन सम्यग्दृष्टि कहते हैं ।३६ इस गुणस्थानवी जीव की स्थिति जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से छः आवलिका मात्र होती है। जबकि एक मुहूर्त (४८ मिनिट) में १, ६७, ७७, २१६ आवलिकाएँ होती है। ज्ञानियों ने उसे विशेष स्पष्ट करते हुए समझाया है कि मोहरूपी वायु के चलने से परिणामरूपी डाली पर रहा हुआ सम्यक्त्वरूपी फल टूटकर तत्काल मिथ्यात्वरूपी धरती पर नहीं पहुँचता है, अपितु कुछ काल बीच में रहता है। इसी प्रकार सम्यक्त्व के परिणामों से छूटने से और मिथ्यात्व के परिणामों को प्राप्त नहीं होने तक, बीच के परिणामों को सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहते हैं। इसका काल जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः छः आवलिका जितना है। इस गुणस्थानवर्ती जीव निश्चय से मिथ्यात्व को प्राप्त करने वाला होता है, किन्तु जैसे खीर के भोजन के बाद वमन करनेवाले को खीर का आंशिक स्वाद आता रहता है, वैसे ही सम्यक्त्व के परिणामों को त्याग करने के । पश्चात् मिथ्यात्व की ओर अभिमुख जीव को कुछ समय पर्यन्त सम्यक्त्व का आस्वाद अनुभव में रहता है, इसीलिए इसे सास्वादन गुणस्थान के नाम से अभिहित किया जाता है।३८ जिस प्रकार पर्वत से गिरने और भूमि पर पहुँचने से पहले मध्य का जो काल है, वह न तो पर्वत पर ठहरने का काल है और न ही भूमि पर ठहरने का, वह तो मध्य स्थिति के अनुभव का काल है, इसीप्रकार अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क में से किसी एक का उदय होने पर सम्यक्त्व को छोड़कर और मिथ्यात्व का उदय न होने पर मध्य के अनुभव काल में जो परिणाम होते हैं, उन्हें सास्वादन गुणस्थान कहते हैं।३६ (३) मिश्र गुणस्थान- दर्शन मोहनीय के तीन पुंजों सम्यक्त्व (शुद्ध), मिथ्यात्व (अशुद्ध) और सम्यक्-मिथ्यात्व (अर्द्धशुद्ध) में से जब अर्द्धशुद्ध पुंज का उदय होता है, तब मिश्र गुणस्थान होता है। जिस प्रकार शक्कर से मिश्रित दही का स्वाद कुछ खट्टा और कुछ मीठा अर्थात् मिश्र होता है, इसीप्रकार जीव की दृष्टि कुछ सम्यक् और कुछ मिथ्या अर्थात् मिश्र हो जाती है। यह अवस्था ३५ योगदृष्टि समुच्चय - श्री हरिभद्रसूरि जैन ग्रन्थ प्रकाशक संस्था, अहमदाबाद, सन् १६४०. ३६ (क) सहेव तत्वश्रद्धानं रसास्वादनेन वर्तते इति सास्वादनः। -समवायांग वृत्तिपत्र -२६. (ख) गुणस्थान क्रमारोह -१२. काल के सब से सूक्ष्म अंश को समय कहते है और असंख्यात समय की एक आवलि होती है। यह एक आवलि प्रमाण काल भी एक मिनिट से बहुत छोटा होता है। ३८ "सासादनं तत्र आयमौपशमिक सम्यक्त्व लक्षणं सादयति अपनयति आसादनम् अनन्तानुबन्धी कषायवेदनम्.. ततः सहासादनेन वर्तते इति सासादनम्। तथाऽत्रापि गुणस्थाने मिथ्यात्वभिमुखतया सम्यक्त्वस्योपरि व्यलीकचित्तस्य पुरुषस्य सम्यक्त्वमुद्वमतस्तद्रसास्वादो भवतीति इदं सास्वादनमुच्यते।" - षडशीतिप्रकाश (आचार्य देवेन्द्रसूरि विरचित वृत्ति सहित) प्रणेता -मुनि नन्दनविजय, प्रकाशन- जैन ग्रन्थ प्रकाशक सभा, राजनगर (अहमदाबाद) पत्रांक ४३-४४. ३६ सम्मत्तरयण पन्वयसिहरादो मिच्छभूमि समभिमुहो। जासिय सम्मत्तो सो सासणजामो मुणेयम्वो।। - गोम्मटसार, जीवकाण्ड -२०. Jain Education Intemational Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... प्रथम अध्याय........{10} सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्र) गुणस्थान कहलाती है। जात्यन्तर सर्वघाती सम्यक्-मिथ्यात्व प्रकृति का स्वरूप सम्यक् और मिथ्यात्व इन दोनों प्रकृतियों के मिले-जुले रूप (मिश्र रूप) होता है। जैसे गुड़ और दही का योग होने पर उसमें न केवल दही का और न केवल गुड़ का स्वाद आता है, परन्तु दोनों का मिश्र स्वाद आता है, उसी प्रकार विवेक विकलता के कारण जिसको न तो जिनप्रणीत तत्वों पर श्रद्धा होती है और न अन्य मतों पर श्रद्धा होती है, अपितु दोनों पर समान बुद्धि होती है, वह मिश्रदृष्टि कहलाता है।" नारिकेलद्वीप के निवासी भात आदि अन्न के प्रति न तो रुचि रखते हैं, न ही अरुचि रखते हैं, क्योंकि वहाँ तो कभी अन्न पैदा ही नहीं हुआ। इसीलिए बिना देखे बिना सुने विवेक विकलता के कारण न तो रुचि रखते हैं और न ही अरुचि रखते हैं, अतः उनकी यह अवस्था मिश्र कही जाती है। उत्क्रान्ति एवं अपक्रान्ति करनेवाली दोनों आत्माओं का आश्रयभूत यह गुणस्थान है। सम्यक् और मिथ्या दोनों के संदिग्ध प्रवाह में प्रवाहित आत्मा इस तृतीय भूमिका की स्वामी होती है। प्रथम गुणस्थान की अपेक्षा यहाँ मिथ्यात्व का प्रभाव कमजोर होता है। प्रथम गुणस्थानवर्ती नित्य एकान्त मिथ्यादृष्टि होता है। पूर्व में सम्यग्दर्शन से च्युत होकर इस प्रथम गुणस्थान में प्रविष्ट जीवात्मा, प्रथम गुणस्थान से निकलकर सीधी तृतीय गुणस्थान में आती है या फिर चतुर्थ गुणस्थान से च्युत होकर भी इस तीसरे गुणस्थान में आती है। द्वितीय गुणस्थान केवल अपक्रान्ति है, किन्तु तृतीय गुणस्थान में अपक्रान्ति एवं उत्क्रान्ति दोनों होती है। इस गुणस्थान की विशेषता यह है कि इसमें रहते हुए जीवात्मा न तो आयु का बन्ध करता है४२ और न ही मृत्यु को प्राप्त होता है, क्योंकि संदिग्ध अवस्था में ये दोनों सम्भव नहीं होते हैं। आध्यात्मिक अपकर्षण के इन प्रथम तीन गुणस्थानों में प्रथम गुणस्थान दीर्घकालीन है, शेष दोनों गुणस्थान अल्पकालीन हैं। यह तृतीय मिश्र गुणस्थान अल्पकालीन होते हुए भी प्रथम और द्वितीय भूमिकाओं से महत्वपूर्ण है, क्योंकि सम्यग्दर्शन की उत्क्रान्ति का सिंहद्वार है। प्रस्तुत भूमिका अन्तर्मुहूर्त समय की होती है। इस भूमिका को पाशविक और आध्यात्मिक वृत्तियों के संघर्ष का क्षण कह सकते हैं। यदि इस गुण में पाशविकता की जीत हो जाए, तो जीव मिथ्यात्वी बन जाता है और आध्यात्मिकता की जीत हो जाए, तो जीव सम्यक्त्व में स्थित हो जाता है। प्रस्तुत गुणस्थान अनिवार्य अथवा अनिश्चय की अवस्था है। (४) अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान- उत्क्रान्ति का प्रथम बिन्दु होने से प्रस्तुत गुणस्थान को आध्यात्मिक विकास की प्रथम भूमिका कह सकते हैं। प्रस्तुत गुणस्थानवी जीव की जीवनदृष्टि सम्यक् होती है, सत्य में आस्था होती है, फिर भी सम्यक् आचरण की स्थिति नहीं होती है, इसीलिए इसे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहा जाता है। ____ आध्यात्मिक विकास के आधार बिन्दु तीन हैं-दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान की भूमिका में दर्शन एवं ज्ञान तो सम्यक् हो जाता है, किन्तु चारित्र या आचरण में पर्याप्त विकास नहीं होता है।५३ हिंसादि सावध व्यापारों के त्याग को ही विरति कहते हैं।४४ भव्य संज्ञी पंचेन्द्रिय प्राणियों की सर्वज्ञ प्रणीत जीवादि तत्वों पर पूर्वभव के अभ्यास विशेष से अत्यन्त ४१ ४० सम्मामिच्छुदयेणय, जत्तंतर सव्वघादि कज्जेण। न य सम्म मिच्छं पि य, सम्मिस्सो होदि परिणामो।। - गोम्मटसार, जीवकाण्ड गाथा -२१ जात्यन्तर समुद्भतिर्वऽवाखरयोर्यथा। गुडदध्नोः सगायोगे, रस भेदान्तरं यथा।। तथा धर्मद्वये श्रद्धा, जायते समबुद्धितः। मिश्रोऽसौ भण्यते, तस्माद्भावो जात्यन्तरात्मकः।। -गुणस्थानक्रमारोह, श्लोक नं. १४, १५, पृष्ठ -६ दहिगुडमिव वामिस्सं, पुहभावं णोव करिंदु सक्कं। एवं मिस्सयभावो, सम्मामिच्छो त्ति णादवो।। -गोम्मटसार, जीवकाण्ड गाथा २२. सम्यग् मिथ्यारुचिर्मिश्रः सम्यग् मिथ्यात्व पाकतः। सुदुष्कर पृथाभावो, दधिमिश्रः गुडोपमः।। -संस्कृत पंचसंग्रह श्लोक १/२२. ४२ आयु बध्नामि न जीवो मिश्रस्थो न वा. - गुणस्थान क्रमारोह, श्लोक -१६. ४३ गोम्मटसार, गाथा -२६. ४४ हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम्। -तत्त्वार्थसूत्र ७/१. Jain Education Intemational Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ प्रथम अध्याय....{11} निर्मल गुणात्मक स्वभाव से अथवा सद्गुरु आदि के उपदेश श्रवण से जो श्रद्धा, रुचि उत्पन्न होती है, उसे सम्यक् श्रद्धान कहा जाता है । ४५ इन्द्रियों के विषयों से तथा त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा से विरत न होने पर भी जिनाज्ञा में आस्थावान् होने से दृष्टिकोण सम्यक् अर्थात् समीचीन होता है। इस गुणस्थानवर्ती जीव को अविरतसम्यग्दृष्टि कहने का और सम्यग्दर्शन के साथ संयम न होने का कारण यह है कि यहाँ संयम का घातक अप्रत्याख्यानावरणीय कषाय का उदय रहता है। इसी कारण वह अशुभ को अशुभ मानता है, लेकिन अशुभ आचरण से बच नहीं पाता। दूसरे शब्दों में बुराई को बुराई मानता है, परन्तु पूर्व के संस्कारों के कारण उन्हें छोड़ नहीं सकता। वह सत्य और न्याय के पक्ष को समझते हुए भी असत्य और अन्याय को छोड़ नहीं पाता है। महाभारत में ऐसा चरित्र भीष्म पितामह का है कि जो कौरवों के पक्ष को अन्याययुक्त, अनुचित और पाण्डवों के पक्ष को न्यायपूर्ण और उचित मानते हुए भी कौरवों के पक्ष में ही रहने को विवश है। जैन विचार इस अवस्था को अविरतसम्यग्दृष्टित्व कहता है। इसका तात्पर्य यह है कि दर्शनमोहनीय कर्म शक्ति के उपशमित हो जाने या उसके आवरण के क्षीण हो जाने के कारण व्यक्ति को यथार्थ - बोध हो जाता है, लेकिन चारित्रमोहनीय कर्म की सत्ता रहने के कारण व्यक्ति सम्यक् आचरण नहीं कर पाता। वह एक अपंग व्यक्ति की भांति है, जो देखते हुए भी चल नहीं पाता । सम्यक् श्रद्धान दर्शनमोहनीय के क्षय, उपशम अथवा क्षयोपशम से होता है। इसके लिए यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण-ये तीन करण करने पड़ते हैं। यथाप्रवृत्तिकरण जैन साधना का लक्ष्य स्व-स्वरूप में स्थित होना या आत्म-साक्षात्कार करना है । स्व-स्वरूप में स्थित होने के लिए मोहनीय कर्म पर विजय पाना आवश्यक है, क्योंकि आत्मा का शुद्ध स्वरूप मोहनीय कर्म से आवृत्त है। पंडित सुखलालजी के शब्दों में अज्ञानपूर्वक दुःख - संवेदनाजनित अत्यल्प आत्मविशुद्धि को जैनशास्त्र में यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं । ४६ आत्मशक्ति के प्रकटन को रोकनेवाला सर्वाधिक ७० कोडाकोडी सागरोपम की स्थितिवाला मोहनीय कर्म है। आयुष्य कर्म के अलावा शेष सातों कर्मों की दीर्घस्थिति वह गिरि-नदी-पाषाण न्याय जब घटकर मात्र एक कोडाकोडी सागरोपम जितनी रह जाती है, तब यथाप्रवृत्तिकरण होता है। यथा अर्थात् सहजतया, प्रवृत्ति अर्थात् कार्य तथा करण अर्थात् जीव का परिणाम । जैसे पहाड़ी नदी के प्रवाह में गिरा हुआ पाषाणखण्ड प्रवाह के कारण अचेतन रूप में ही आकृति रूप को धारण कर लेता है, वैसे ही शारीरिक एवं मानसिक दुःखों की संवेदना को झेलते - झेलते इस संसार में परिभ्रमण करते हुए जब कर्मावरण बहुतांश शिथिल हो जाता है, तो आत्मा यथाप्रवृत्तिकरण की शक्ति को प्राप्त करता है । यथाप्रवृत्तिकरण एक स्वाभाविक घटना के परिणामस्वरूप होता है, लेकिन इस अवस्था को प्राप्त करने पर आत्मा में आत्म-नियंत्रण की क्षमता प्राप्त हो जाती है । यथाप्रवृत्तिकरण भव्य और अभव्य दोनों प्रकार के जीव करते हैं, किन्तु अभव्य जीव यथाप्रवृत्तिकरण करके जहाँ होते है, वहीं रह जाते हैं और पुनः दीर्घस्थिति के कर्मों को बांधकर पतित हो जाते हैं । भव्य जीवों में भी अनेक जीव तो पतित हो जाते हैं, किन्तु कुछ जीव अधिक वीर्योल्लास अर्थात् आत्मपुरुषार्थ से अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण करके आगे बढ़ जाते हैं । यथाप्रवृत्तिकरण से चेतना की जड़ (कर्म) पर विजययात्रा एवं संघर्ष की कहानी प्रारम्भ होती है । इस अवस्था में चेतन आत्मा और जड़कर्म संघर्ष के लिए एक दूसरे के सामने डट जाते हैं। आत्मा ग्रन्थि के सम्मुख हो जाती है। अपूर्वकरण-यथाप्रवृत्तिकरण के द्वारा आत्मा में आत्मसजगता का उदय होता है; विवेक बुद्धि और संयमभावना का प्रस्फुटन होता है । यथाप्रवृत्तिकरण के पश्चात् जब आत्मविशुद्धि के साथ वीर्योल्लास की आभा बढ़ती है, आत्मशक्ति का प्रकटन होता है, तब राग-द्वेष की उस दुर्भेद्य ग्रन्थि के भेदन का पुरुषार्थ किया जाता है। इस ग्रन्थिभेदरूपी पुरुषार्थ को ही अपूर्वकरण कहते हैं, क्योंकि ऐसा करण- परिणाम विकासगामिनी आत्मा के लिए अपूर्व होता है । यह उसे प्रथम बार प्राप्त होता है। यथाप्रवृत्तिकरण में इतना वीर्योल्लास उत्पन्न होता है कि वह राग-द्वेषरूपी शत्रुओं से युद्ध करने के लिए तत्पर हो जाता है, लेकिन ४५ (क) यथोक्तेषु च तत्वेषु रुचिर्जीवस्य जायते । निसर्गादुपदेशाद्वा सम्यक्त्वं हि तदुच्यते । । - गुणस्थानक्रमारोह, श्लोक १८. (ब) तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । तन्निसर्गादधिगमाद्वा । - तत्त्वार्थसूत्र १/२ -३. ४६ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा - १७. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... प्रथम अध्याय........{12} वास्तविक युद्ध नहीं होता है। अनेक बार तो ऐसा प्रसंग आता है कि वासनारूपी शत्रुओं के प्रति मिथ्यात्वमोह के जागृत हो जाने से अचेतन भय के वश अर्जुन के समान यह आत्मा पलायन या दैन्यवृत्ति को ग्रहणकर भाग जाती है, लेकिन जिन आत्माओं में वीर्योल्लास बढ़ जाता है, वे कृतसंकल्प होकर संघर्षरत हो जाती है और वासनारूपी शत्रुओं के राग और द्वेषरूपी सेनापतियों के व्यूह का भेदन कर देती है। भेदन की इस प्रक्रिया को अपूर्वकरण कहते हैं। राग और द्वेषरूपी शत्रुओं का भेदन करने से आत्मा . को जो आनन्द प्राप्त होता है, वह पूर्ण अनुभूतियों से विशिष्ट प्रकार का अथवा अपूर्व होता है। इस अपूर्वकरण में जीव का मानसिक तनाव और संशय समाप्त हो जाता है और सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। अतः आत्मा को अनुपम शान्ति का अनुभव होता है। अपूर्वकरण में आत्मा कर्मशत्रुओं पर विजय पाते हुए निम्नलिखित पांच प्रक्रियाएँ करती हैं(3) स्थितिघात - कर्मविपाक की अवधि में परिवर्तन करना। (२) रसघात - कर्मविपाक एवं बन्धन की तीव्रता में कमी करना। (३) गुणश्रेणी - कर्मों को ऐसे क्रम में रख देना ताकि विपाक काल के पूर्व ही उनका फलभोग किया जा सके। (४) गुणसंक्रमण - कर्मो का उनकी अवान्तर प्रकृतियों में रूपान्तर करना। जैसे दुःखद वेदना को सुखद वेदना में रूपान्तरित कर देना। (५) अपूर्वबन्ध - क्रियमाण क्रियाओं के परिणामस्वरूप होने वाले बन्ध का अत्यन्त अल्पकालिक एवं अल्पतर मात्रा में होना। यह अपूर्वकरण की प्रक्रिया अभव्य जीव कभी भी नहीं कर सकता है, भव्य जीव ही कर सकता है, किन्तु वह भी बार-बार नहीं कर सकता। ____ अनिवृत्तिकरण-आत्मा अपूर्वकरण की प्रक्रिया के द्वारा राग और द्वेष की ग्रन्थियों का भेदन कर विकास की दिशा में अपना अगला चरण रखती है, यह प्रक्रिया अनिवृत्तिकरण कहलाती हैं। यहाँ आत्मा मोह के आवरण को अनावृत्त कर अपने यथार्थ रूप में साधक के सामने अभिव्यक्त हो जाती है। अनिवृत्ति अर्थात् जिस करण के करने पर वापस निवृत्ति-अर्थात् लौटना न हो, ऐसा करण यानी आत्मा को शुद्ध प्रबल परिणाम । आत्मा को ऐसा विशुद्ध अध्यवसाय विशेष रूप करण, जिससे सम्यक्त्व प्राप्त किए बिना जीव निवृत्त नहीं होता है, उसे अनिवृत्तिकरण कहते है। इस करण के समय जीव का वीर्य-समुल्लास अर्थात् सामर्थ्य पूर्व की - अपेक्षा बढ़ जाता है, जो कर्मक्षय के लिए वज्र के समान माना जा सकता है, क्योंकि ये तीनों करण विशिष्ट निर्जरा के साधनभूत विशुद्ध परिणाम हैं। इन तीनों करणों की स्थिति अन्तर्मुहूर्त परिमाण है। ___अनिवृत्तिकरण में पुनः स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी, गुणसंक्रमण और अपूर्वबन्ध नामक प्रक्रिया सम्पन्न होती है, जिसे अन्तरकरण कहा जाता है। अन्तरकरण की इस प्रक्रिया में आत्मा दर्शन मोहनीय कर्म को प्रथमतः दो भागों में विभाजित करती है। साथ ही अनिवृत्तिकरण के अन्तिम चरण में दूसरे-दूसरे भागों को तीन भागों में विभाजित करती है, जिन्हें क्रमशः सम्यक्त्वमोह, मिथ्यात्वमोह और मिश्रमोह कहते हैं। सम्यक्त्वमोह सत्य के ऊपर श्वेत कांच का आवरण है, जबकि मिश्रमोह हल्के रंगीन काँच का और मिथ्यात्वमोह गहरे रंगीन काँच का आवरण है। पहले में सत्य के स्वरूप का दर्शन वास्तविक रूप में होता है, दूसरे में विकृत रूप में होता है, लेकिन तीसरे में सत्य पूरी तरह आवरित रहता है। सम्यग्दर्शन के काल में भी आत्मा गुणसंक्रमण क्रिया करती है और मिथ्यात्वमोह की कर्मप्रकृतियों को मिश्रमोह तथा सम्यक्त्वमोह में रूपान्तरित करती रहती है। एक अन्तर्मुहूर्त की समय सीमा समाप्त होने पर पुनः दर्शनमोह के पूर्व में विभाजित तीन वर्गों में से किसी भी वर्ग की कर्मप्रकृति का गुणश्रेणी के अनुसार उदय हो सकता है। यदि सम्यक्त्वमोह का उदय होता है, तो आत्मा विशुद्धाचरण करती हुई विकासोन्मुख हो जाती है, लेकिन यदि मिश्रमोह अथवा मिथ्यात्वमोह का विपाक होता है तो आत्मा पुनः पततोन्मुख हो जाती है और अपने अग्रिम विकास के लिए उसे पुनः ग्रन्थिभेद की प्रक्रिया करनी होती है। फिर भी इतना तो निश्चित है कि वह एक सीमित समयावधि में अपने आदर्श को उपलब्ध कर लेती है। अनिवृत्तिकरण का काल बीत जाने पर औपशमिक सम्यक्त्व होता है। Jain Education Interational Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... प्रथम अध्याय........{13} यहाँ यथाप्रवृत्तिकरणादि तीन करणों की प्रक्रिया का विचार किया गया है, इसमें तीसरे अनिवृत्तिकरण के अनन्तर आत्मास्वरूप बोध की स्थिति को प्राप्त कर लेती है । इस आत्मा ने यथाप्रवृत्तिकरण तो अनेक बार किया किन्तु ग्रन्थि का भेदन नहीं हुआ। ग्रन्थि भेदन करने वाली बिरली आत्मा ही अपूर्वकरण करती है और अन्त में अनिवृत्तिकरण के द्वारा सम्यक्त्व को उपलब्ध होती है। चतुर्थ गुणस्थान जीवन के आध्यात्मिक विकास की नींव है। इस गुणस्थान में स्वस्वरूप में स्थित होने सम्बन्धी विवेक जागृत होता है। इस गुणस्थानवर्ती आत्मा प्रत्येक प्राणी को स्वात्मतुल्य समझने लगती है और आत्मा अनन्त शक्तियों को जागृत करने की भावना रखती है। वह व्यक्ति सम्यक्त्व को कैसे प्राप्त करता है और कैसे आत्मशक्तियों को जागृत करता है, इसे एक दृष्टान्त के द्वारा समझा जाता है- जैसे सूर्य के सम्मुख पहाड़,धूंवर, आंधी आदि का आवरण आने से सूर्य का प्रकाश पूर्ण रूप से परिलक्षित नहीं होता है, किन्तु आवरण हट जाने से सूर्य का प्रकाश पूर्ण रूप से प्रस्फुटित हो जाता है, उसी प्रकार चैतन्य आत्मा पर मिथ्यात्वमोह या मिश्रमोह का आवरण रहने पर उसमें सम्यक्त्व की अभिव्यक्ति नहीं होती है, किन्तु इन आवरणों के हट जाने से सम्यक्त्वरूपी प्रकाश की प्राप्ति होती है। बाहरी सूर्य तो उदय-अस्त की परिधि में चलता है और इस पर समय-समय पर आवरण आ जाते हैं, किन्तु सम्यक्त्वरूपी सूर्य उदित होने पर आत्मा सम्यक्त्व को स्थायी रूप से प्राप्त कर ले तो वह सदा-सदा के लिए प्रकाशमान बन जाती है। आत्मिक प्रकाश के सामने भौतिक तत्वों के प्रकाश का कोई मूल्य नहीं होता है। क्षायिक दर्शन सम्पन्न अथवा क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन सम्पन्न आत्मा क्षायिक भावयुक्त आत्मिक भावों को प्राप्त करने का लक्ष्य बनाती है। एतदर्थ आत्मा हेय का परित्याग कर, ज्ञेय को जानकर, उपादेय को ग्रहण कर लेती है। तब यह अपनी शक्ति को सम्पूर्ण उर्ध्वगामी बनाने के लिए क्षायिक भावों को प्राप्त त्रयोदशी गुणस्थानवर्ती सयोगीकेवली अर्हन्तों को तथा क्षायिक भावों को प्राप्त अष्टकर्म से विमुक्त संसार में आवागमन रहित सिद्ध भगवन्तों को देवरूप में मानती है। अरिहंतस्वरूप को प्राप्त करने के लिए जिन्होंने निर्ग्रन्थ अवस्था प्राप्त की है, उन्हें अपना गुरु मानती है, ताकि उनके मार्गदर्शनानुसार आत्मस्वरूप को जानने में समर्थ बन सके। अतः वह सभी प्राणियों के प्रति अनुकम्पा का भाव रखती है, सभी प्राणियों को आत्मवत् देखती है। इसप्रकार वह 'सव्वभूयप्पभूअस्स' की भावना के साथ जीवन जीती है। वह विधि-निषेधरूप अहिंसादि धर्म को अपना धर्म मानती है" तथा सुदेव, सुगुरु और सुधर्म पर दृढ़ आस्था रखती है, फलस्वरूप सम्यग्दर्शन के प्रति उसकी इतनी प्रगाढ़ श्रद्धा हो जाती है कि उसमें स्वल्प शंका का भी प्रवेश नहीं होता।२ सम्यक् दर्शन के प्रति गाढ़ अनुरक्ति होती है कि अन्य धर्मों को देखकर वह मनसा, वाचा, कर्मणाकांक्षा रूप३ अनुमोदना भी नहीं करती है और श्रद्धान धर्म के आचरण के फल के प्रति मन में संदेह भी नहीं करती है। सम्यक् श्रद्धान पर चलनेवाले की प्रशंसा करती हुई उसको धर्म में स्थिर करती है। स्वधर्मी बन्धुओं के प्रति आत्मीयता के भाव रखती है और उनको धर्म का रहस्य समझाकर जिनेश्वर भगवंतों के सिद्धान्तों की प्रभावना करती है। इसप्रकार इस गुणस्थानवी जीव बड़े ही महत्वपूर्ण कार्य ४७ जा गंठी ता पढमं गंठि समइच्छाओ अपुलं तु। अनियट्टिकरणं पुण सम्मत्त पुरक्खडे जीवे।। - विशेषावश्यकभाष्य १२०३ ४८ अरिहंत भगवन्तों के स्वरूप हेतु दृष्टव्य है - षड्दर्शन समुच्चय, गाथा -४५, ४६ ४६ सिद्ध भगवन्तों के स्वरूप हेतु दृष्टव्य है - उत्तराध्ययनसूत्र, गाथा ३६/६६,६७ जिणधम्मो, पृ. १००-१०४. ५१ निस्संकिय निकंखिय निवितिगिच्छा अमूढदिट्ठिय। उववूह थिरीकरणे वच्छल्ल पभावणे अट्ठ ।। - उत्तराध्ययनसूत्र, २८/३१. "अधिगतजीवाजीवादित्तत्वस्यापि भगवतः शासनं भावतोऽभिप्रपन्नस्यासंहार्यमनेः सम्यकदृष्टेरर्हत्प्रोक्तेषु अत्यन्तसूक्ष्मेष्वतीन्द्रियेषुकेवलागम ग्राह्येष्वर्थेषु य संदेहो भवति एवं स्यादेवं न स्यादिति सा शक्ङा।" सभाष्यतत्वार्थाधिगमसूत्राणि आचार्य उमास्वाति, मोतीलाल लाघाजी भवानी, पेठ, प्र.सं. पृ. १४४. ५३ "ऐहलौकिकपारलौकिकेषु विषयेष्वाशंसा कांक्षा। सोऽतिचारः सम्यग्दृष्टेः कुतः। कांक्षिता ह्यविचरित गुणदोषः समयमतिक्रामति।"-सभाष्यतत्वार्थधिगमसूत्राणि, पृ. १४४ ५४ प्रवचनसारोद्धार (पूर्वभाग) पत्रांक -६४ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... प्रथम अध्याय........{14} करता है। इतना सब होते हुए भी अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव अप्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क के उदय के कारण व्रत ग्रहण करने में समर्थ नहीं होता है ।६। अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क, मिथ्यात्व मोहनीय, मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्व मोहनीय-इन सात प्रकृतियों (दर्शन सप्तक) को आत्मा जब पूर्णतः क्षय करके इस चतुर्थ भूमिका को प्राप्त करती है, तो उसका सम्यक्त्व क्षायिक होता है तथा ऐसी आत्मा इस गुणस्थान से कभी भी पतित नहीं होती है, वरन् अग्रिम विकास के सोपान पर अग्रसर होकर परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर लेती है, लेकिन जब आत्मा दर्शन सप्तक का उपशम करके इस भूमिका को प्राप्त करती है, तो उसका सम्यक्त्व औपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है। ऐसी परिस्थिति में आत्मा अन्तर्मुहूर्त के अन्दर ही दमित वासनाओं के पुनः प्रगटीकरण होने पर यथार्थता से विमुख हो जाती है। इसीप्रकार जब वासनाओं का आंशिक रूप में क्षय और आंशिक रूप में उपशम होने पर जो यथार्थता का बोध होता है, उसमें भी अस्थायित्व होता है, क्योंकि दमित वासनाएँ पुनः प्रकट होकर आत्मा को यथार्थ दृष्टि के स्तर से नीचे गिरा देती है। ऐसा सम्यक्त्व क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है। (५) देशविरति गुणस्थान- यह आध्यात्मिक विकास का पंचम सोपान है। चतुर्थ अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में साधक कर्तव्याकर्तव्य का विवेक रखते हुए भी कर्तव्यपथ पर आरूढ़ नहीं हो पाता है, जबकि इस पंचम देशविरति गुणस्थान में साधक कर्तव्यपथ पर यथाशक्ति चलने का प्रयास करता है। प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय होने से जीव पापक्रियाओं से सर्वथा निवृत्त तो नहीं हो सकता है, किन्तु अप्रत्याख्यानावरण का उदय न होने से देश (अंश) से पाप क्रियाओं से निवृत्त होता है, इस गुणस्थानवर्ती जीव देशविरति श्रावक कहलाते हैं। उनकी इस आंशिक त्यागमयी अवस्था के कारण ही इसे देशविरति गुणस्थान कहते हैं।७ इस गुणस्थान का दूसरा नाम विरताविरत गुणस्थान भी है, क्योंकि इस गुणस्थानवी जीव सर्वज्ञ वीतराग के कथन में श्रद्धा रखता हुआ त्रस जीवों की हिंसा से विरत होता ही है और बिना प्रयोजन स्थावर जीवों की भी हिंसा नहीं करता है, किन्तु सप्रयोजन स्थावर जीवों की हिंसा से वह विरत नहीं होता है। त्रस जीवों की अपेक्षा से विरत और स्थावर जीवों की हिंसा की अपेक्षा से अविरत होने से उसे विरताविरत भी कहा जाता है। इस गुणस्थान के अन्य नाम संयतासंयत या देशसंयत भी है। देशविरति गुणस्थानवी जीव अहिंसा आदि पांच अणुव्रत, दिग्व्रत आदि तीन गुणव्रत और सामायिक आदि चार शिक्षाव्रत-इसप्रकार कुल बारह व्रत का पालन करने वाले होते हैं तथा ग्यारह प्रतिमाओं को धारण कर आत्मा का कल्याण करते हैं। इस पंचम गुणस्थान का काल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः देशोनपूर्वकोटि परिमाण है। प्रथम के चार गुणस्थान चारों गतियों अर्थात् देव, मनुष्य, तिर्यंच और नरक के जीवों में पाए जाते हैं, किन्तु पाँचवाँ गुणस्थान मनुष्य और तिर्यंचों में ही होता (६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान- पाँचवें गुणस्थान की अपेक्षा जीव की अध्यवसाय की धारा में अधिक विशुद्धता आती है, तो वह छठे गुणस्थान को प्राप्त होता है। इस गुणस्थानवी जीव के प्रत्याख्यानावरणीय कषाय चतुष्क का क्षयोपशम हो जाने से वह निर्ग्रन्थ मुनि अवस्था को स्वीकार करता है। षष्ठ गुणस्थानवी जीव में बाह्य परिग्रह से परिपूर्ण निवृत्ति होती है, परन्तु आभ्यन्तर परिग्रह की निवृत्ति के लिए वह प्रयत्न करता है, तथापि जब तक अध्यवसायों में अप्रमत्तभाव रूप स्वस्वरूप रमण की तीव्रता नहीं ५६ ५५ यहाँ उत्कृष्ट भावों में रमण करनेवाले अव्रती सम्यग्दृष्टि जीव की अपेक्षा से वर्णन किया गया है। वैसे तो सम्यग्दृष्टि जीव को महारम्भी, महाक्रियावादी और नरकायु का बन्धक भी कहा गया है - विशेष विवरण हेतु दृष्टव्य है -सर्द्धर्ममण्डनम्, पृ. ४८-५१. द्वितीयानां कषायानामुदयाद्वतवर्जितम्। सम्यक्त्वं केवलं यत्र, तच्चतुर्थ गुणास्पदम्।।- गुणस्थानक्रमारोह, श्लोक १६. पच्चक्खाणुदयादो, संजय भावो ण होदि ण व दिंतु। थोव वदो होदि तदो, देसवदो होदि पंचमओ।। - गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा -३०. जो तसवहाउ विरदो, अविरदो तह य थावरवहादो। एक्क समयम्हि जीवो, विरदाविरदो निसेक्कमइ।। - गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा -३१. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... प्रथम अध्याय........{15} आती, तब तक वह प्रमत्त संज्ञा को प्राप्त रहता है और जिस समय अध्यवसायों में अप्रमत्तता अर्थात स्वरूप में स्थित होने की उत्सुकता पैदा होती है, उस समय वह अप्रमत्त अवस्था का वरण कर लेता है। जो जीव श्रेणी आरोहण नहीं करता उसकी अध्यवसायधारा का उत्कर्ष-अपकर्ष उत्कृष्ट से देशोनपूर्वकोटि वर्ष तक चलता रहता है। तत्पश्चात् जीव को छठे और सातवें गुणस्थान का परित्याग करना पड़ता है, क्योंकि अधिक से अधिक संयम पालन की अवधि देशोनपूर्वकोटि होती है तथा ये दोनों गणस्थान संयमी जीवों के होते हैं। छठे गुणस्थानवर्ती सभी साधक सदैव प्रमाद का सेवन करे ही, ऐसा नहीं है। जब वे प्रमाद का सेवन नहीं करते, तब सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान पर चले जाते हैं, किन्तु क्वचित् देहभाव रूप प्रमाद का सेवन होने से ही इसे प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती कहा गया है। इसप्रकार श्रमण छठे से सातवें तथा सातवें से छठे, दोलायमान स्थिति में रहते हैं। जब देहभाव रहते हैं, तब वे छठे गुणस्थान में रहते है और आत्मभाव या आत्म सजगता में आते हैं, तब सातवें गुणस्थान में चले जाते हैं। इस अवस्था में आत्मकल्याण के साथ लोक-कल्याण की भावना और उस अनुसार प्रवृत्ति भी होती है। यहाँ आत्मा पुद्गल आसक्ति या कर्तृत्व भाव का त्याग कर विशुद्ध ज्ञाता एवं द्रष्टा के स्व-स्वरूप में अवस्थिति का प्रयास तो करती है, लेकिन देहभाव या प्रमाद अवरोध करता है, अतः इस अवस्था में पूर्ण जागृति सम्भव नहीं होती है, इसीलिए साधक को प्रमाद के कारणों का उन्मूलनीकरण या उपशमन करना होता है और जब वह सफल हो जाता है, तो विकास की अग्रिम श्रेणी में प्रविष्ट हो जाता है। । अप्रमत्तसंयत गुणस्थान- आत्मसाधना में सजग साधक सप्तम गुणस्थान में आते हैं, जो देह में रहते हुए भी देहातीत भाव से युक्त आत्मस्वरूप में रमण करते हैं और प्रमाद पर नियन्त्रण करते हैं। इस गुणस्थानवर्ती साधक में पूर्ण जागरूकता रहती है। साधक का ध्यान अपने लक्ष्य के प्रति ही बना रहता है, लेकिन यहाँ पर दैहिक उपाधियाँ साधक का ध्यान विचलित करने का प्रयास करती रहती है। कोई भी सामान्य साधक ४८ मिनिट से अधिक देहातीत भाव में नहीं रह सकता है, अतः इस गुणस्थान में साधक का निवास अल्पकालीन होता है। इसके बाद भी वह साधक देहातीत भाव में रहता है, तो विकास की अग्रिम श्रेणी में प्रस्थान कर जाता है या देहभाव की जागृति होने पर निम्न छठे गुणस्थान में चला जाता है। अप्रमत्तसंयत गणस्थान में साधक समस्त प्रमादस्थानों (जिनकी संख्या ३७,५०० मानी गई है)६० से बचता है। ___भगवतीसूत्र में एक जीव के एक भव में अप्रमत्तसंयत गुणस्थान की समग्र स्थिति देशोनकरोड़ पूर्व की मानी गई है। किन्तु यह काल छठे और सातवें में संयुक्त रूप से समझना चाहिए, अथवा सातवें गुणस्थान से क्षपकश्रेणी से आरोहण कर जो केवली हो जाते हैं, वे भी अप्रमत्तसंयत तो होते हैं, अतः उनकी दृष्टि से समझना चाहिए। सैद्धान्तिक दृष्टि से इस अप्रमत्तसंयत नामक सप्तम गणस्थान का काल अन्तर्महर्त है। इस गणस्थान से आगे की विकास यात्रा दो रूपों में चलती है, अर्थात कर्मरूपी शत्रु सेना पर विजय पाने की यात्रा दो रूपों में चलती है। एक तो वह जिसमें शत्रु सेना को समाप्त करते हुए आगे बढ़ा जाता है, दूसरी वह जिसमें शत्रुसेना के अवरोध को दूर करते हुए प्रगति की जाती है, अर्थात् शत्रु सैनिकों को पूर्णतः विनष्ट नहीं किया जाता है, उनके अवरोध को समाप्त कर उन्हें तितर-बितर कर दिया जाता है, जिन्हें जैन पारिभाषिक शब्दावलि में क्रमशःक्षपकश्रेणी और उपशम श्रेणी कहा जाता है। सातवें गुणस्थान के अन्तिम समय में साधक या तो इन दोनों श्रेणियों में से किसी एक का चयन करता है या फिर पुनः छठे गुणस्थान में लौट जाता है। जो साधक उपशमश्रेणी का आरोहण करता है, वह कर्म शत्रु के अवरोध को तितर-बितर कर आगे बढ़ता है, जबकि जो साधक क्षपकश्रेणी से आरोहण करता है, वह कर्म शत्रुओं को पूर्णतः समाप्त करते हुए अपनी विकास यात्रा करता है। ५६ कर्मग्रन्थ, भाग -२ ६० २५ विकथाएँ, २५ कषाय और नोकषाय, ६ मन सहित पांचों इन्द्रियाँ, ५ निद्राएँ, २ राग और द्वेष, इन सब के गुणनफल से ___३७५०० की संख्या बनती है। ६१ "अपमत्तसंजयस्स णं भंते! अप्पमत्त संजमे वट्टमाणस्स सत्वा वि य णं अप्पमत्तद्धा कालतो केवच्चिरं होंति?" "मंडियपुत्ता! एक जीव पडुच्च जहन्नेणं अन्तोमुहूतं उक्कोसेणं पुवकोडी देसूणा! णाणा जीवे पडुच्च सव्वद्धं।"-भगवतीसूत्रम्, सूत्र ३/३/१५४ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... प्रथम अध्याय........{16} (८) अपूर्वकरण गुणस्थान- विकासोन्मुखी आत्मा जब प्रमाद को सर्वथा पराभूत कर देती है, तब वह आठवें गुणस्थान में आरोहण करती है। इस समय उसके परिणाम प्रतिक्षण आत्मविशुद्धि की अपेक्षा से यहाँ अपूर्व शब्द का अर्थ है - जो पूर्व में नहीं था उसकी प्राप्ति । इस गुणस्थान के पूर्व आत्मा पर कर्म हावी रहता है, किन्तु इस गुणस्थान से आत्मा कर्मों पर हावी हो जाती है, उसे विशेष शक्ति प्राप्त हो जाती है, इसीलिए इसे अपूर्वकरण कहते हैं। अपूर्व, अपूर्व ही होते हैं; इसी कारण इसका नाम अपूर्वकरण है। इस गुणस्थान की यह विशेषता है कि यहाँ से आगे की यात्रा मोहनीय कर्म के क्षय या उपशम के माध्यम से निष्पादित होती है। सातवें गुणस्थान में रहने वाला जीव जब आध्यात्मिक उत्कर्ष की दिशा में गतिशील बनता है तो वह अष्टम अपूर्वकरण गुणस्थान में आता है।६२ प्रथम के तीनों बादर कषाय चतुष्कों की निवृत्ति हो जाती है, इसीलिए इसे निवृत्तिबादर गुणस्थान की संज्ञा से भी अभिहित किया जाता है। एक अन्य दृष्टि से निवृत्ति का अर्थ है - अध्यवसाय, परिणाम तथा बादर का अर्थ है-भिन्नता । चूंकि इस गुणस्थान में समसमयवर्ती जीवों के अध्यवसाय भी विभिन्न प्रकार के होते हैं, अतः इस गुणस्थान को निवृत्तिबादर गुणस्थान कहा जाता है। अष्टम गुणस्थान में जीव को निम्न पांच बातों को करने की अपूर्व शक्ति उपलब्ध होती है (१) स्थितिघात - कर्मों की लम्बी स्थिति को अपवर्तनाकरण के द्वारा घटाकर छोटी करना स्थितिघात है, अर्थात् जो कर्मदलिक आगे उदय में आने वाले हैं, उन्हें अपवर्तनाकरण द्वारा अपने उदय के नियत समय से हटा देना और शीघ्र उदय में आने योग्य बनाकर वर्तमान में उदय योग्य कर्म के साथ उन्हें भोग लेना स्थितिघात कहलाता है। (२) रसघात - बन्धे हुए कर्मों के फल देने की तीव्र शक्ति को अपवर्तनाकरण द्वारा मंद कर देना रसघात कहलाता है। (३) गुणश्रेणी- जिन कर्मदलिकों को स्थितिघात करके और मन्दरस करके अपने उदयस्थान से हटाया है, उनको समय क्रम से अन्तर्मुहूर्त में स्थापित करना गुणश्रेणी है। इसमें उदय समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त जितने समय होते हैं, उनमें से उदयावलिका के समयों को छोड़कर शेष समयों में जो कर्म दलिक स्थापित किए जाते हैं, उन्हें पहले समय में कम, दूसरे समय में उनसे संख्यातगुणा अधिक, यावत् अन्तिम समय तक प्रत्येक समय की अपेक्षा आगे-आगे के समयों में असंख्यातगुणा स्थापित करके उन्हें उदयावलि में लाकर क्षय कर देना गुणश्रेणी है।६३ (४) गुणसंक्रमण - पूर्व में बंधी हुई अशुभ प्रकृतियों को वर्तमान में बन्ध रही शुभ प्रकृतियों में रूपान्तरित करना गुणसंक्रमण है। इसमें भी पहले समय की अपेक्षा आगे-आगे के समयों में असंख्यातगुणा कर्मदलिकों का संक्रमण होता है। (५) अपूर्वस्थितिबन्ध - पूर्व की अपेक्षा अत्यल्प स्थितिवाले कर्मों को बांधना अपूर्वस्थितिबन्ध है। यद्यपि ये पांचों प्रक्रियाएँ पूर्व के गुणस्थानों में भी होती है। पूर्व गुणस्थानों की अपेक्षा इस गुणस्थान में अपूर्व विधान होने से यह गुणस्थान अपूर्वकरण कहलाता है।६५ __अपूर्वकरण गुणस्थान को प्राप्त हुए, प्राप्त होने वाले एवं प्राप्त हो रहे, सभी जीवों के संयम के अध्यवसाय स्थान उनका वैविध्य असंख्यात लोकाकाश प्रदेश परिमाण है। इसका कारण यह है कि इस गुणस्थान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है और अन्तर्मुहूर्त में असंख्यात समय होते हैं। अतः प्रथम द्वितीयादि समयवर्ती त्रैकालिक जीवों के संयम के अध्यवसाय स्थान असंख्यात ६२ अपूर्वात्मगुणाप्तित्वादपूर्वकरणं मतम् - गुणस्थानकमारोह, पृष्ठ २६. ६३ "उपरितनस्थितेर्विशुद्धिवशादपवर्तनाकरणेनावतारितस्य दलिकस्यान्तर्मुहूर्त प्रमाणमुक्ष्यक्षणादुपरि क्षिप्रतर क्षपणाय __ प्रतिक्षणमसंख्येयगुणवृद्धया विरचनं गुणश्रेणिरित्युच्यते।"- सटीकाश्चत्वारः प्राचीनाः कर्मग्रन्थाः (कर्मस्तव) पृष्ठ-४ ख, गुणस्थानक्रमारोह, पृ. २६. ६४ "शुभं प्रकृतिष्वशुभप्रकृति दलिकस्य प्रतिक्षणमसंख्येयगुणवृद्धया विशुद्धिवशांन्नयनं गुणसंक्रमः तमिहासावपूर्वकरोति।" -सटीकाश्चत्वारः प्राचीनाः कर्मग्रन्थाः (कर्मस्तवः) पृ. ४, कर्मग्रन्थ, भाग-२, पृष्ठ -२६ ६५ अपूर्वकरणं स्थितिघातरसघात गुणश्रेणिगुणसंक्रमणस्थितिबन्धानां पंचानामर्थानां निर्वर्तनमस्यासावपूर्वकरणः तथाहि यावत्प्रमाणमसौ पूर्वगुणस्थानविशुद्धया स्थितिखण्डकं रसखण्डकं वा हलवान् ततो वृहत्तरप्रमाणमपूर्वस्मिन् गुणस्थानेहन्ति।-सटिकाश्चत्वारः प्राचीनाः कर्मग्रन्थाः (कर्मस्तव) पृष्ठ -४. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... प्रथम अध्याय........{17} लोकाकाश प्रदेश परिमाण होते हैं, अनन्त नहीं होते हैं।६६ ___असंख्यात संख्या के अनेक भेद है, अतः एक समयवर्ती जीवों के अध्यवसायों की संख्या और सब समय में रहे हुए त्रैकालिक जीवों के अध्यवसायों की संख्या ये दोनों संख्याएँ तारतम्यता के रूप में असंख्यात है, फिर भी दोनों के परिमाण में भिन्नता है, क्योंकि असंख्यात संख्या भी अनेक प्रकार की होती हैं। इस गुणस्थान को प्राप्त करने वाले सभी जीवों के भी असंख्यात संयम स्थान ही होते है, क्योंकि समसमयवर्ती बहुत से जीवों के संयम स्थान तुल्य शुद्धिवाले होने से अलग-अलग नहीं माने जाते हैं। इस गुणस्थान में उत्तरोत्तर अनन्तगुणा विशुद्धि होती है। उन्हें सामान्यतः इसप्रकार समझना चाहिए कि समसमयवर्ती अध्यवसाय एक दूसरे से - (१) अनन्तभाग अधिक शुद्ध (२) असंख्यातभाग अधिक शुद्ध (३) संख्यात भाग अधिक शुद्ध (४) संख्यातगुणा अधिक शुद्ध (५) असंख्यातगुणा अधिक शुद्ध; या (६) अनन्तगुणा अधिक शुद्ध होते हैं। इस प्रकार अधिकाधिक शुद्धि के इन छः प्रकारों को षट्स्थान कहते हैं। इसी प्रकार उत्कृष्टता के समान ही हीनता के भी षट्स्थान होते हैं। उनके नाम इसप्रकार हैं- (१) अनन्त भाग हीन (२) असंख्यात भाग हीन (३) संख्यात भाग हीन (४) संख्यात गुणा हीन (५) असंख्यात गुणा हीन और (६) अनन्त गुणा हीन । ___ इस गुणस्थान के अन्तिम समय तक पूर्व-पूर्व समय के अध्यवसायों से उत्तर-उत्तर समय के अध्यवसाय भिन्न-भिन्न समझने चाहिए। इसमें पूर्व की अपेक्षा उत्तरकाल के अध्यवसाय अनन्तगुणा विशुद्ध होते हैं। आठवें गुणस्थान का काल जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त है। (६) अनिवृत्तिकरण गुणस्थान- इस गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी आदि तीनों कषाय चतुष्क का तो क्षय या उपशम हो जाता है, किन्तु संज्वलन कषाय चतुष्क का उदय रहने से तथा समसमयवर्ती जीवों के परिणामों की समानता होने से इसे अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान कहते हैं। पूर्ववर्ती गुणस्थानों की अपेक्षा उत्तरवर्ती गुणस्थानों में कषायों का अंश न्यून होता जाता है। जैसे-जैसे कषायों का अंश कम होता है, वैसे-वैसे परिणामों की विशुद्धि बढ़ती जाती है। इस गुणस्थान में होने वाले परिणामों के द्वारा आयु कर्म के बिना शेष सात कर्मों की गुणश्रेणी-निर्जरा, गुणसंक्रमण, स्थितिघात और अनुभाग खंडन होता है। इस गुणस्थान में उत्तरोत्तर स्थितिबन्ध इतना कम होता है कि इसके अन्तिम समय में पहुँचने पर कर्मों की जो जघन्य स्थिति बतलाई गई है, उस प्रकार की स्थिति का बन्ध होने लगता है। कर्मों की सत्ता का भी अत्यधिक परिमाण में नाश हो जाता है। प्रतिसमय कर्मप्रदेशों की निर्जरा भी असंख्यातगुणा बढ़ जाती है। इस गुणस्थान का काल जघन्य और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त परिमाण है और एक अन्तर्मुहूर्त के जितने समय होते हैं, उतने ही अध्यवसाय स्थान होते हैं, क्योंकि इस गुणस्थान में प्रविष्ट समसमयवर्ती जीवों के अध्यवसाय एक समान या तुल्य शुद्धिवाले होते हैं। प्रवेश काल से लेकर दूसरे, तीसरे आदि क्रम से अन्तिम समय तक समान समय में अध्यवसाय भी समान ही होते हैं और समान अध्यवसायों को एक ही अध्यवसाय स्थान माना जाता है। इस गुणस्थान का जितना काल है, उतने ही उसके परिणाम है, इसीलिए प्रत्येक समय में एक ही परिणाम होता है। अतएव यहाँ भिन्न समयवर्ती परिणामों में सर्वथा विसदृशता और एक समयवर्ती परिणामों में सदृशता ही होती है तथा इन परिणामों के द्वारा कर्मों का विशेष क्षय होता है। न गुणस्थान को प्राप्त करनेवाले जीव दो प्रकार के होते हैं -उपशमक और क्षपक। जो चारित्र मोहनीय कर्म का उपशमन करते हैं, वे उपशमक हैं और जो चारित्र मोहनीय कर्म का क्षय करते हैं, वे क्षपक हैं। अतः नवें गुणस्थान में जीव उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी दोनों प्रकार के आते हैं। इस गुणस्थान के अन्तिम समय तक संज्वलन लोभ को छोड़कर सभी कषाय और नोकषाय समाप्त हो जाते हैं। (१०) सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान - इस गुणस्थान में मात्र संज्वलन लोभ कषाय के सूक्ष्म खण्डों का उदय रहता है; इसीलिए ६६ सटीकाश्वत्वारः प्राचीनाः कर्मग्रन्थाः (कर्मस्तव), पृष्ठ -४. Jain Education Intemational Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... प्रथम अध्याय........{18} इस गुणस्थान का, सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान यह सार्थक नाम है। जिस प्रकार धुले हुए गुलाबी रंग के कपड़े में लालिमा सुर्सी की सूक्ष्म-सी आभा रह जाती है, उसीप्रकार इस गुणस्थानवी जीव संज्वलन लोभ के सूक्ष्म खण्डों का वेदन करता है।६७ मोहनीय की सत्ताईस कर्मप्रकृति का क्षय या उपशम हो जाने पर जब तक मात्र संज्वलन लोभ का उदय शेष रहता है, तब साधक इस गुणस्थान में रहता है। उसका क्षय हो जाने पर सीधे क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान में और उसका उपशम होने पर उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान में आरोहण कर जाता है। (११) उपशान्तमोह गुणस्थान - जब अध्यात्म मार्ग का साधक पूर्व अवस्था में रहे हुए सूक्ष्म लोभ को भी उपशान्त कर देता है, तब वह इस गुणस्थान में पहुंचता है, लेकिन आध्यात्मिक विकास में अग्रसर साधक के लिए यह अवस्था उचित नहीं है। विकास की इस श्रेणी में मात्र वे ही आत्माएँ आती हैं, जो वासनाओं का दमन कर उपशमश्रेणी से विकास करती हैं। जो आत्माएँ वासनाओं को सर्वथा हुए क्षपक श्रेणी से विकास करती हैं, वे इस श्रेणी में न आकर सीधे बारहवें गुणस्थान में जाती जिनका कषाय उपशान्त हो गया है, सूक्ष्म राग आदि का भी जिनमें सर्वथा उदय नहीं है, किन्तु सत्ता में रहे हुए हैं, वे जीव उपशान्तकषाय वीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवर्ती कहलाते हैं।६८ इस गुणस्थानवी जीव अन्तर्मुहूर्त में अवश्य च्युत होता है। यदि वह बीच में ही कालधर्म को प्राप्त हो जाता है, तो अनुत्तरविमान में देवरूप में उत्पन्न होता है और वहाँ चतुर्थ गुणस्थान को प्राप्त करता है। यदि कालधर्म को प्राप्त नहीं होता है, तो पुनः क्रमशः नीचे के गुणस्थानों में होता हुआ सातवें, छठे, चौथे या प्रथम गुणस्थान में पहुँच जाता है। यह गुणस्थान उपशमश्रेणी का अन्तिम स्थान है, अतः इस गुणस्थान में विद्यमान जीव आगे के गुणस्थानों को प्राप्त करने में समर्थ नहीं होते न तो क्षपक श्रेणीवाला जीव ही आरोहण कर सकता है तथा क्षपक श्रेणी के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, परन्तु ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती जीव तो नियम से उपशमश्रेणी से आरोहण करने वाला होता है, अतः यह जीव ग्यारहवें गुणस्थान से अवश्य पतित होता है। इस गुणस्थान का काल जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त है। (१२) क्षीणमोह गुणस्थान - मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय होने के पश्चात् ही यह गुणस्थान प्राप्त होता है। इस गुणस्थान में मोहनीय कर्म की सभी अट्ठाईस प्रकृतियाँ सर्वथा क्षय हो जाती है, उनकी सत्ता भी नहीं रहती है, अतः इसका नाम क्षीणमोह गुणस्थान है। इस गुणस्थानवी जीव के भाव स्फटिक मणि के निर्मल पात्र में रखे हुए जल के समान निर्मल होते है। यहाँ से जीव का पतन नहीं होता है, किन्तु वह विकास की अग्रिम कक्षाओं में ही बढ़ता जाता है। इस गुणस्थानवी जीव का मोक्ष अवश्यम्भावी होता है। मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने से वीतरागता प्राप्त होने पर भी तीन छद्म-ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय, अभी विद्यमान होने से इस गुणस्थान का पूरा नाम क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ है। इस गुणस्थान के अन्तिम समय में इन तीनों घातीकों का क्षय हो जाता है और व्यक्ति तेरहवें सयोगीकेवली गुणस्थान को प्राप्त हो जाता है। इस गुणस्थान का जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवाले जीव ही इस गुणस्थान को प्राप्त करते हैं । (१३) सयोगीकेवली गुणस्थान- बारहवें गुणस्थान के अन्त में तीन घातीकर्मों का क्षय करके जीव तेरहवें सयोगीकेवली गुणस्थान को प्राप्त होता है।६६ यहाँ ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय के क्षय होने पर अनन्त चतुष्टय अर्थात् अनन्तज्ञान (केवलज्ञान), अनन्तदर्शन (केवलदर्शन), अनन्तसुख और अनन्तवीर्य प्रकट हो जाते हैं। उनके आवरण समाप्त हो ६७ लोभः संज्वलनः सूक्ष्मः, शमं यत्र प्रपद्यते। क्षयं वा संयतः सूक्ष्मः, साम्परायः स कथ्यते।। कौसुम्मोन्तर्गतो रागो, यथा वस्त्रे तिष्ठते। सूक्ष्म लोभ गुणे लोभः, शोध्यमानस्तथा तनुः।। - संस्कृत पंचसंग्रह, १/४३, ४४. ६८ सटीकाश्चत्वारः प्राचीनाः कर्मग्रन्थाः (कर्मस्तव), पृष्ठ -४,५ ६६ 'उप्पन्नंमि अणंते नटुंमि य छाउमत्थिए नाणे।' -सटीकाश्वत्वारः प्राचीनः कर्मग्रन्थाः (कर्मस्तव), पृष्ठ -५. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... प्रथम अध्याय........{19) जाते हैं। तेरहवें गुणस्थान में जो परिपूर्ण विशुद्ध क्षायिकभाव होता है, वह सादि-अनन्त है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय- इन चार घातीकों का क्षय करके जो केवलज्ञान और केवलदर्शन आदि को प्राप्त कर चुके हैं, जो पदार्थ को जानने देखने में इन्द्रिय, आलोक आदि निमित्तों की अपेक्षा नहीं रखते है, ये समस्त चराचर तत्वों को हस्ताकमलवत् देखने जानने लग जाते हैं; अतः वे केवली कहे जाते है। यद्यपि उनमें आत्मवीर्य अर्थात् आत्म शक्ति का पूर्ण प्रकटन हुआ है फिर भी शरीर आदि की योगप्रवृत्ति शेषज्ञ है, अतः वे सयोगीकेवली कहे जाते है। केवली भगवान सयोगी अवस्था में जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और म करोड़ पूर्व वर्ष तक रहते हैं। सयोगीकेवली भगवान यदि तीर्थंकर हों, तो वे देशना देकर तीर्थ की स्थापना करते हैं। यद्यपि क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति चौथे या सातवें गुणस्थान में ही हो जाती है, तथापि उसमें परिपूर्णता ज्ञानावरण और दर्शनावरण के पूर्णतया क्षय होने पर तेरहवें गुणस्थान में ही आती है, जो सिद्धि पर्यन्त बनी रहती है। इस अपेक्षा से ही क्षायिक सम्यक्त्व को सादि-अनन्त कहा है। इस गुणस्थानवर्ती केवली भगवन्तों को मन, वचन एवं काया-इन तीनों योगों की प्रवत्ति रहती है। अनत्तरविमानवासी देवों अथवा मनःपर्यवज्ञानी द्वारा मन से पछे गए प्रश्न का समाधान करने के लिए मनोवर्गणा रूप मनोयोग का प्रयोग करते हैं, उपदेश देने के लिए वचनयोग का तथा हलन-चलनादि क्रियाएँ करने के लिए काययोग का प्रयोग करते हैं। ये सयोगीकेवली भूत, भविष्य अथवा वर्तमान का ऐसा कोई पदार्थ नहीं. जिसको वे नहीं देखते हों या नहीं जानते हों।७२ इस सम्बन्ध में विशेषावश्यक भाष्य में भी कहा है कि - संभिन्नं पासंतो लोगमलोगं च सत्वओ सव्वं। तं नत्थि जंन पासइ भूयं भव्वं भविस्सं च।।७३ . सयोगीकेवली के वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र-ये चार अघाती कर्म शेष रहते हैं। इनमें यदि वेदनीय, आयु और नामकर्म की स्थिति अधिक हो और आयुष्यकर्म की स्थिति कम हो, तो इन चारों अघातीकर्मों की स्थिति समान करने के लिए वे केवली समुद्घात करते हैं; किन्तु यदि चारों अघातीकर्मों की स्थिति पहले से ही समान हो, तो समुद्घात नहीं भी करते हैं। तेरहवें गणस्थान के अन्त में वे अपातीकर्मों का क्षय करने के लिए लेश्यातीत अत्यन्त अप्रकम्प परम निर्जरा के कारणभत परम शुक्लध्यान को स्वीकार करते हैं और इसप्रकार योगनिरोध के लिए उपक्रम करते हैं। वहाँ पर पहले बादर काययोग से बादर मनोयोग का तत्पश्चात् बादर वचनयोग का निरोध करते हैं। तत्पश्चात् सूक्ष्म काययोग, तदनन्तर क्रमशः सूक्ष्म मनोयोग और सूक्ष्म वचनयोग का निरोध करके चौदहवें सयोगीकेवली गुणस्थान को प्राप्त हो जाते हैं। (१४) अयोगीकेवली गुणस्थान- जो केवली भगवान योगों से रहित होते हैं और शुक्लध्यान के चतुर्थ चरण में स्थित है, वे अयोगीकेवली कहलाते हैं।७६ _यह गुणस्थान चारित्र विकास और स्वरूप स्थिरता की चरम अवस्था है। इस गुणस्थान में अ, इ, उ, ऋ, लु इन पांच हस्व स्वरों के उच्चारण में जितना समय लगता है, उतने समय में आत्मा उत्कृष्ट शुक्लध्यान द्वारा सुमेरू पर्वत सदृश स्थिति को प्राप्त करके अन्त में देहत्याग करके सिद्धावस्था को प्राप्त करती है। ७० घातिकर्म क्षये लब्ध्वा, नव केवलः लब्धयः । येनासौ विश्वतत्वज्ञः, सयोगः केवली विभुः।। - संस्कृत पंचसंग्रह, १/४२ ७१ प्रज्ञापनोपागम, उत्तरार्धम्, टीकाकार आचार्य मलयगिरी, पत्रांक-६०६, सूत्र ३६/३४८. ७२ कर्मग्रन्थ (भाग-६) टीकाकार आचार्य मलयगिरि, उद्धृत - अभिधान राजेन्द्रकोष, भाग-३, खवगसेढी, पृष्ठ - ७२६-३१. ७३ विशेषावश्यक भाष्य, गाथा -१३४२. ७४ प्रज्ञापना पत्र ६०१.१ ७५ कर्मग्रन्थ, भाग -६, टीकाकार आचार्य मलयगिरि, उद्धत अभिधान राजेन्द्र कोष, भाग-३, खवगसेढी, पृष्ठ ६२६-३१. ७६ प्रदा घातिकर्माणि, शुक्लध्यान कृशानुना। अयोगो याति शैलेशो, मोक्षलक्ष्मी निरासवः।। - संस्कृत पंचसंग्रह १/५०. Jain Education Intemational Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... प्रथम अध्याय........{20} सर्वप्रथम केवली भगवान बादर काययोग से बादर मनोयोग और बादर वचनयोग को रोकते हैं। उसके बाद सूक्ष्म काययोग से बादर काययोग का निरोध करते हैं और फिर सूक्ष्म काययोग से क्रमशः सूक्ष्म मनोयोग और सूक्ष्म वचनयोग का निरोध करते हैं। अन्त में सूक्ष्मक्रियानिवृत्ति शुक्लध्यान से अपने शरीर के मुख्य, उदर आदि पोले भागों को पूर्ण करते हुए शरीर के तीसरे भाग परिमाण आत्मप्रदेशों का संकोच करते हैं, जिससे उनके आत्मप्रदेश घनरूप तथा वर्तमान शरीर के दो तिहाई भाग जितने रह जाते हैं। इसके बाद वे अयोगीकेवली भगवान समुच्छिन्नक्रियाअप्रतिपाति शुक्लध्यान को प्राप्त करते है और पांच हृस्वाक्षर के उच्चारण जितने समय में शैलेशीकरण के द्वारा चारों अघाती कर्मों का सर्वथा क्षय करके एक समय में ऋजुगति से उर्ध्वगमन कर लोक के अग्रभाग में स्थित मोक्ष या सिद्धालय को प्राप्त कर लेते हैं। ये लोक के अनुभाग में विराजमान परमात्मा सिद्ध भगवन्त अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अव्याबाध सुख, अनन्त वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व, अक्षयस्थिति (अवगाहनत्व), अरुपी और अगुरुलघुत्व- इन आठ गुणों से युक्त हो सदा-सदा के लिए कृतकृत्य बन जाते हैं। ये कर्मबीज रहित होने से पुनः संसार में लौटकर नहीं आते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि तेरहवें गुणस्थान में समग्र कायिक, वाचिक और मानसिक व्यापार अर्थात् योग का पूर्णतः निरोध हो जाता है। वह योग सन्यास है, यही सर्वांगीण पूर्णता है, चरम आदर्श की उपलब्धि है। बाद की जो अवस्था है उसे जैन विचारकों ने मोक्ष, निर्वाण, शिवपद एवं निर्गुण-ब्रह्म स्थिति कहा है।७६ इन सभी चौदह गुणस्थानों में किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है, किनका उदय रहता है, किनकी उदीरणा सम्भव है, किनकी सत्ता रहती है या सत्ता का विच्छेद हो जाता है, यह समस्त चर्चा हमने षट्खण्डागम, सर्वार्थसिद्धि तथा विशेषरूप से द्वितीय कर्मग्रन्थ कर्मस्तव के गुणस्थान सम्बन्धी विवरण में विस्तार से की है, इच्छुक पाठक उसे वहाँ देखें । त्र आध्यात्मिक विकास के सोपान-गुणस्थान K जैनदर्शन मुख्यरूप से आत्मविशुद्धि का दर्शन है। कर्म-कलंक से युक्त आत्मा को निष्कलंक बनाना ही इसका उद्देश्य है। जैनदर्शन की मान्यता है कि कर्ममल के कारण आत्मा की स्वाभाविक शक्तियाँ आवृत्त होती हैं और वह अशुद्ध अवस्था को प्राप्त होती है। गणस्थान का सिद्धान्त मूलतः कर्मों के इस आवरण को क्रमशः विमुक्ति की अवस्था को सूचित करता है। इसप्रकार गुणस्थान व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास के विभिन्न सोपानों के रूप में स्वीकृत किए गए हैं। मिथ्यात्वदशा आत्मा के अविकास की अवस्था है, किन्तु उसकी विकासयात्रा भी यही से प्रारम्भ होती है। यही कारण है कि मिथ्यात्व को भी गुणस्थान के रूप में स्वीकृत किया गया है। इस गुणस्थान के चरमसमय में आत्मा पुरुषार्थ करके अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क और मिथ्यात्वमोह, मिश्रमोह के उदय को रोककर, इनके क्षय या उपशम के द्वारा सम्यक्त्व की प्राप्ति करती है । सम्यक्त्व की प्राप्ति की दृष्टि से प्रथम प्रयास इसी अवस्था में होता है, अतः इसे आध्यात्मिक विकास की दिशा में प्रथम चरण कहा गया है। यह आत्मा की पूर्णतः परतन्त्रता की अवस्था है। इस अवस्था में आत्मा दर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीय दोनों से ग्रस्त रहती है। उसके विचारदृष्टि और आचारसृष्टि-दोनों ही दूषित रहते हैं । इस गुणस्थान के अन्त में आत्मा प्रयत्नपूर्वक यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण-इन तीन करणों के माध्यम से सर्वप्रथम अपनी दृष्टि की विशुद्धि करती है। ऐसा प्रयत्न इस गुण या उपान्त्य समय में ही होता है, अतः इसे आध्यात्मिक विकास की दिशा में प्रथम चरण माना गया है, किन्तु यहाँ यह ज्ञातव्य है कि ऐसा प्रयत्न इस गुणस्थान में स्थित सभी आत्माएँ नहीं कर पाती हैं। केवल संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में से कुछ भव्य जीव ही इस दिशा में प्रयत्न करते हैं। उन जीवों के इस प्रयत्न की अपेक्षा से ही इसे गुणस्थान कहा गया है। यह आत्मा के आध्यात्मिक विकास की दिशा में उठा हुआ प्रथम चरण है। ७७ विशेषावश्यकभाष्य - ३०५६,६४,६८,६६, ८२, ८६ ७८ (क) अनुयोगद्वार, क्षायिक भाव, पृष्ठ ११७, सूत्र १२६. (ख) प्रवचनसारोद्धार, गाथा १५६३-६४. (ग) समवायांगसूत्र, समवाय -३१ ७६ ज्ञानसार, त्यागाष्टक (दर्शन और चिन्तन, भाग-२, पृष्ठ २७५, पर उघृत) Jain Education Interational Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... प्रथम अध्याय........{21} दूसरा सास्वादन गुणस्थान और तीसरा सम्यग्मिध्यादृष्टि गुणस्थान यद्यपि आध्यात्मिक विकास के सोपान माने जाते हैं. किन्तु वे ऊपर के गुणस्थानों से आत्मा के पतन को ही सूचित करते है। सास्वादन गुणस्थान में आत्मा में मिथ्यात्व के कारणभूत अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय तो आरम्भ हो जाता है, किन्तु मिथ्यात्व का उदय नहीं रहने से इसे मिथ्यात्व गुणस्थान की अपेक्षा से आध्यात्मिक विकास का एक सोपान कहा गया, किन्तु अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय में मिथ्यात्व का ग्रहण तो नियम से होता है, अतः यह पतन का ही सूचक है। अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय के पश्चात् मिथ्यात्व के ग्रहण के मध्य जो समय लगता है, वह ही इस गुणस्थान का काल है। इस गुणस्थान से कोई भी जीव आध्यात्मिक विकास के अग्रिम सोपानों पर आगे नहीं बढ़ सकता है। वह अनिवार्य रूप से गिरकर मिथ्यात्व गुणस्थान में जाता है। इसी कारण से इसे पतन का सूचक माना गया है। तीसरा गुणस्थान सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है। इस गुणस्थान में भी दूसरे गुणस्थान के समान ही मिथ्यात्व के ग्रहण का अभाव होता है, किन्तु सम्यक्त्व का ग्रहण भी नहीं होता है। यह मिथ्यात्व और सम्यक्त्व के बीच की अवस्था है। व्यक्ति अपनी संशयात्मकता के कारण न तो सम्यक्त्व को ग्रहण कर पाता है और न मिथ्यात्व को। मिथ्यात्व के ग्रहण का अभाव होने से इसे चाहे आध्यात्मिक विकास का एक सोपान माना जाय, किन्तु यह पतन की ही अवस्था है, क्योंकि जब तक कोई जीव सम्यक्त्व को ग्रहण नहीं करता है, तब तक वह इस गुणस्थान में नहीं आता है। सामान्यतया चतुर्थ गुणस्थान से पतित होकर ही जीव इस गुणस्थान को प्राप्त करता है। इसी दृष्टि से इसे आध्यात्मिक पतन की अवस्था ही कहा गया है। यद्यपि यहाँ यह ज्ञातव्य है कि यदि किसी जीव ने पूर्व में सम्यक्त्व को ग्रहण किया था किन्तु बाद में वह सम्यक्त्व से पतित होकर मिथ्यात्व को प्राप्त हो गया, वह जीव प्रगति करे तो पुनः प्रथम गुणस्थान से तीसरे गुणस्थान की ओर प्रगति कर सकता है। अतः चतुर्थ गुणस्थान से पतित होने के कारण यह आध्यात्मिक पतन का सूचक है, किन्तु पूर्व में चतुर्थ गुणस्थान से पतित होकर जो जीव प्रथम गुणस्थान में आया है, वह यदि मिथ्यात्व का वमन करके पुनः तीसरे गुणस्थान में जाए तो उसकी अपेक्षा से वह विकास की अवस्था भी कहा जा सकता है। वस्तुतः यह तृतीय गुणस्थान संशय या अनिश्चयात्मकता का सूचक है। इसमें साधक सत्य और असत्य में यथार्थ विवेक नहीं कर पाता है। यदि वह विवेक कर भी ले, तो भी सत्य को ग्रहण करने का साहस नहीं कर पाता। निर्णायक दृष्टि का अभाव होने के कारण ही वह गुणस्थान यथार्थ में आध्यात्मिक विकास की यात्रा में बाधक ही है। वही कारण है कि आध्यात्मिक विकास की वास्तविक यात्रा का प्रारम्भ तो चतुर्थ अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से ही होता है। आध्यात्मिक विकास का मार्ग या दर्शन की विशुद्धि तथा चारित्र या आचरण की विशुद्धि दोनों से युक्त है, किन्तु आध्यात्मिक विकास के लिए दृष्टिविशुद्धि या दर्शनविशुद्धि अपरिहार्य हैं। दर्शनविशुद्धि के अभाव में चारित्र की विशुद्धि नहीं होती है। चारित्र विशुद्धि के लिए दृष्टिकोण का सम्यक् होना अपरिहार्य है। चतुर्थ अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में दर्शन की विशुद्धि तो होती है, किन्तु चारित्र की विशुद्धि का अभाव होता है। व्यक्ति सत्य को सत्य के रूप में जानते हुए भी उसे अपने आचरण में नहीं उतार पाता है। सत्य को जानना अलग बात है और सत्य को जीना अलग बात है। इस चतुर्थ गुणस्थान में स्थित व्यक्ति सत्य को जानता है, किन्तु उसे जी नहीं पाता। उसकी मनः स्थिति का एक सम्यक् चित्रण महाभारत के कथानक में प्राप्त होता है। दुर्योधन जब यह कहता है कि “जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिः, जानामि अधर्म न च मे निवृत्तिः।" अर्थात् मैं धर्म को जानता हूँ, किन्तु फिर भी मैं उसमें प्रवृत्त नहीं हो पाता हूँ। इसी प्रकार मैं अधर्म को भी जानता हूँ, किन्तु उससे निवृत्त नहीं हो पा रहा हूँ। इस प्रकार सत्य को जानते हुए भी जो उसे जी न पाए, वह इस भूमिका में स्थित माना जा सकता है। यथार्थबोध की अपेक्षा से यह एक विकास की अवस्था है, किन्तु आचरण की अपेक्षा से यह आध्यात्मिक अविकास का ही सूचक है। पांचवाँ गुणस्थान देशविरतिसम्यग्दृष्टि का माना गया है। देशविरति का शाब्दिक अर्थ आंशिक रूप से विरति या संयम का । यदि चारित्र के विकास की दृष्टि से देखे, तो यह व्यक्ति के आध्यात्मिक चारित्रिक विकास का प्रथम चरण है। यद्यपि सम्यग्दृष्टि प्राप्त करने के पूर्व व्यक्ति को अपनी अनन्तानुबन्धी कषाय पर विजय पाना होता है, फिर भी उसमें अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण की क्षमता विकसित नहीं होती है। वह प्रतिक्रिया को रोकता है, किन्तु वासनाओं के उद्वेग को रोकने में असमर्थ रहता है। देशविरतिसम्यग्दृष्टि नामक इस गुणस्थान में व्यक्ति अपने आवेगों और वासनाओं पर नियंत्रण का आंशिक प्रयत्न करता है। कषायों को पूरी तरह से रोक तो नहीं पाता है, किन्तु उनकी अभिव्यक्ति पर नियंत्रण अवश्य रखता है। इस गुणस्थान को संयमासंयम या विरताविरत भी कहते हैं। इसे जैन परम्परा में व्रतीश्रावक की स्थिति का ही कहा गया है। वह हिंसा आदि पापों से पूर्णतया तो विरत नहीं होता है, किन्तु त्रस जीवों की हिंसा का त्यागी होता है। इस प्रकार वह व्यक्ति के चारित्रिक विकास की यात्रा में उठा हुआ प्रथम चरण माना गया है। चारित्रिक विकास की दृष्टि से जब व्यक्ति की साधना यात्रा आगे बढ़ती है, तो वह संयम Jain Education Intemational Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... प्रथम अध्याय........{22} अर्थात् मुनि जीवन को स्वीकार कर अग्रिम गुणस्थान को प्राप्त कर लेता है। छठा गुणस्थान प्रमत्तसंयत गुणस्थान है। यह अवस्था चारित्रिक विकास की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण अवस्था है। हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार और परिग्रह का सम्पूर्ण रूप से त्याग करके ही व्यक्ति आध्यात्मिक विकास की इस अवस्था को प्राप्त कर सकता है। इस अवस्था में व्यक्ति पूर्ण रूप से संयम का पालन करता है। संज्वलन कषाय चतुष्क को छोड़कर वह अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानीय और प्रत्याख्यानीय-इन तीन कषाय चतुष्कों पर विजय प्राप्त कर लेता है। क्रोधादि कषायों की बाह्य अभिव्यक्ति पूर्णतः समाप्त हो जाती है। व्यक्ति अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का सम्यक् प्रकार से पालन करता है। यद्यपि इस अवस्था में देहभाव और कषायों के सूक्ष्म रूप बने रहते हैं, फिर भी व्यक्ति की आत्मसंयम की शक्ति इतनी ज्ञानी होती है कि जीवन में कषायों का प्रकटन पूर्ण रूप से रुक जाता है। इस गुणस्थान को प्रमत्तसंयत गुणस्थान इसीलिए कहा जाता है कि इस अवस्था में साधक संयम का तो पालन करता है, किन्तु सतत जागरूकता सम्भव नहीं होती है। देहभाव या देहासक्ति पूर्णतया समाप्त नहीं होती है। व्यक्ति छद्मरूप में उपस्थित कषायों और देहभाव के कारण सतत् जागरूकता रख पाने में समर्थ नहीं होता है, अतः प्रमाद आकर उसे घेर लेता है। इसी कारण इस गुणस्थान को प्रमत्तसंयत गुणस्थान कहा गया है। यह अवस्था छद्म एवं अन्तर में निहित वासनाओं और कषायों के साथ संघर्ष की अवस्था है। कभी व्यक्ति पर वासनाएँ हावी होती हैं, तो कभी वह वासनाओं पर हावी हो जाता है। देहभाव के कारण जब वासनाएँ उस पर हावी हो जाती हैं, तब वह इस छठे गुणस्थान में रहता है, किन्तु इस संघर्ष की अवस्था में जब वह वासनाओं को दबा देता है या उन पर हावी हो जाता है, तब वह सातवें गुणस्थान को प्राप्त कर लेता है। सातवाँ गुणस्थान अप्रमत्तसंयत गुणस्थान है। इस गुणस्थान में संज्वलन कषायों की सत्ता तो समाप्त नहीं होती है। वह व्यक्ति छद्मरूप से रही हुई कषायों के प्रति सजग होता है, तो वे अपनी बाह्य अभिव्यक्ति करने में असमर्थ रहती है। जिस प्रकार घर में घुसा हुआ चोर गृहस्वामी के जागने पर अपना चौर्यकर्म करने में सफल नहीं हो पाता है, वैसे ही इस गुणस्थान में स्थित आत्मा अपनी सतत् जागरूकता के कारण छद्म कषायों से अप्रभावित रहती है। जैन परम्परा में निद्रा आदि असजगता की स्थितियों के साथ-साथ कषायों को भी प्रमाद की संज्ञा से अभिहित किया गया है। यद्यपि इस गुणस्थान में कषाएं छद्म रूप से बनी तो रहती हैं, किन्तु जब तक व्यक्ति उनके प्रति सजग रहता है, तब तक वे अपना प्रभाव आत्मा पर डालने में असमर्थ रहती है। इसप्रकार अप्रमत्तसंयत नामक यह गुणस्थान आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण माना गया है। जैन परम्परा की दृष्टि से प्रथम छ: गणस्थानों में आत्मा पर कर्म हावी होते हैं। व्यक्ति में आत्म पुरुषार्थ की शक्ति होते हुए भी कर्मों के प्रभाव से वह कण्ठित रहती है। साथ में अप्रमत्तसंयत नामक इस गुणस्थान में व्यक्ति अपनी आत्म-सजगता के कारण अपना आध्यात्मिक विकास करने में स्वतन्त्रता का अनुभव करता है। प्रथम से लेकर छठे गुणस्थान तक आत्मा की परतंत्रता की अवस्था है, किन्तु सातवें गुणस्थान में वह परतंत्रता से मुक्त होकर आत्म स्वतन्त्रता की स्थिति में श्वास लेना प्रारम्भ करती है । आठवाँ गुणस्थान अपूर्वकरण के नाम से अभिहित किया गया है। इस अवस्था में आत्मा छद्म रूप से रही हुई कषायों हास्य आदि नोकषायों पर अपनी विजय यात्रा प्रारम्भ करती है। सातवें गुणस्थान में आत्म-स्वातंत्र्य की अनुभूति करने के बाद आत्मा में इतने साहस का विकास हो जाता है कि वह छद्म रूप में रहे हुए क्रोधादि कषायों के पूर्ण उन्मूलन का प्रयत्न करती है। आध्यात्मिक विकास की पूर्णता को प्राप्त करने के लिए वास्तविक यात्रा तो यहीं से प्रारम्भ होती है। जैन परम्परा में इसे श्रेणी आरोहण कहा जाता है। इस अवस्था के पूर्व तक कर्म आत्मा को प्रभावित करते थे, किन्तु अब आत्मा कर्मों को अपने ढंग से योजित करने का प्रयत्न करती है। कर्मों की स्थिति, रस आदि को क्षीण करने की उसमें अपूर्व शक्ति विकसित होती है। यही कारण है कि इस गुणस्थान को अपूर्वकरण गुणस्थान कहा जाता है। इस गुणस्थान से आध्यात्मिक विकास की यात्रा दो रूपों में प्रारम्भ होती है, एक उपशमश्रेणी और दूसरी क्षपकश्रेणी। यदि व्यक्ति छद्म कषायों का समूल नाश नहीं करते हुए, उन्हें दबाकर आगे बढ़ता है, तो वह उपशमश्रेणी कही जाती है। इसमें सूक्ष्म कषायों की अभिव्यक्ति तो रुकती है, किन्तु उनकी सत्ता समूल रूप से । नष्ट नहीं होती है। व्यक्ति की आध्यात्मिक विकास की यात्रा आगे बढ़ते हुए भी उससे पतन की संभावना समाप्त नहीं होती है, किन्तु जो व्यक्ति क्षपकश्रेणी से यात्रा करते हैं, वे इस गुणस्थान से आगे बढ़ते हुए अन्त में कैवल्य को प्राप्त कर लेते हैं। आध्यात्मिक विकास की यात्रा का अग्रिम चरण अनिवृत्तिबादरसम्पराय नामक गुणस्थान है। शाब्दिक दृष्टि से कहे तो इस गुणस्थान में रागादि भाव से व्यक्ति पूर्णतया मुक्त नहीं हो पाता है, किन्तु मुक्त होने का प्रयत्न अवश्य करता है। इस गुणस्थान में वह सूक्ष्म लोभ को छोड़कर संज्वलन कषाय त्रिक, हास्यषट्क और वेदत्रय पर पूर्णतः विजय प्राप्त कर लेता है। उसकी वासनाएँ Jain Education Intemational Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... प्रथम अध्याय........{23} . . और कषाएं या तो निर्मूल हो जाती है या इतनी क्षीण हो जाती है कि उनमें अभिव्यक्ति की सामर्थ्य नहीं रहती है। इस गुणस्थान में आत्मा मोहनीय कर्मों पर अधिकांश रूप से विजय प्राप्त कर लेती है। दसवाँ गुणस्थान सूक्ष्मसम्पराय नाम से अभिहित किया गया है। इस अवस्था में देह-राग को छोड़कर सभी कषाएं या तो निर्मूल हो जाती हैं, या फिर सत्ता में रहते हुए भी पूर्णतया उपशान्त रहती हैं। जो व्यक्ति क्षपकश्रेणी से अपनी यात्रा करता है, उसमें इनका पूर्णतया अभाव होता है, किन्तु जो व्यक्ति उपशमश्रेणी से यात्रा करता है, उसमें कषायों का उदय तो पूर्णतया रूक जाता है, किन्तु सत्ता का समूल नाश नहीं होता है। ऐसा व्यक्ति अग्रिम ग्यारहवें गुणस्थान तक पहुँचकर वहाँ से पतित होता है। ग्यारहवाँ गुणस्थान उपशान्तमोह है। जो व्यक्ति कर्मों का क्षय न करके वासनाओं और कषायों को दमित करके यात्रा करते हैं, उनके आध्यात्मिक विकास का यह अन्तिम पड़ाव है। उपशमश्रेणी से यात्रा करने वाला साधक दसवें गुणस्थान से इस ग्यारहवें गुणस्थान को प्राप्त करता है, किन्तु क्षपकश्रेणी से यात्रा करनेवाला इस गुणस्थान का अतिक्रमण कर सीधा बारहवें गुणस्थान को प्राप्त होता है। जो व्यक्ति वासनाओं और कषायों को उपशान्त करते हुए इस गुणस्थान तक पहुँचते हैं, वे इस गुणस्थान में अधिकतम अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर पुनः नीचे की ओर लौट जाते हैं। जैनदर्शन में इस गुणस्थान का उल्लेख यह सिद्ध करता है कि आध्यात्मिक विकास का वास्तविक मार्ग वासनाओं और कषायों के दमन का मार्ग नहीं है। इस मार्ग से यात्रा करने वाला साधक मुक्ति को प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि दमित वासनाएँ कालान्तर में अभिव्यक्त होती ही हैं और वे आध्यात्मिक विकास के इस उच्चतम शिखर से पुनः नीचे गिरा देती हैं। आधुनिक मनोविज्ञान आज वासनाओं के दमन के मार्ग को अनुचित बताने का जो प्रयास कर रहा है, उसे जैनाचार्यों ने सदियों पूर्व ही व्यक्त कर दिया था। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि आध्यात्मिक विकास का सच्चा मार्ग तो वासनाओं के निर्मूलीकरण का मार्ग है। आध्यात्मिक विकास का अग्रिम सोपान क्षीणमोह गुणस्थान कहा गया है। इस गुणस्थान में चारित्रिक विकास पूर्णता की स्थिति में होता है, क्योंकि इस अवस्था में वासनाएँ और कषाएं पूर्णतया निर्मूल हो जाती हैं। शास्त्रीय परिभाषा की दृष्टि से दर्शनमोह और चारित्रमोह पूर्णतया क्षीण हो जाता है, क्योंकि ये दोनों ही प्रकार के मोहनीय कर्मबन्धन के मुख्य आधार रहे हुए है। इनके समाप्त होने के साथ-साथ इस गुणस्थान में ज्ञान, दर्शन (अनुभूति) और आध्यात्मिक विकास में बाधक अन्तराय कर्म भी मोहनीय कर्म की सत्ता के समाप्त होने के साथ ही अपना अस्तित्व खो बैठते है। इसप्रकार यह गुणस्थान आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस गुणस्थान के उपान्त्य काल में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म के क्षय होने से अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति हो जाती है और व्यक्ति आध्यात्मिक पूर्णता के शिखर रूप तेरहवें सयोगीकेवली गुणस्थान को प्राप्त हो जाता है। तेरहवाँ सयोगीकेवली गुणस्थान आध्यात्मिक विकास का अन्तिम चरण है। संसारदशा में रहते हुए भी यह आध्यात्मिक पूर्णता का सूचक है। इसमें आत्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य से युक्त हो जाती है। आत्मा की ये चारों शक्तियाँ जो पूर्व में आवरित थी, वे अनावरित होकर पूर्ण रूप से प्रकट हो जाती है। यह जीवन्मुक्त या सदेह मुक्ति की अवस्था है। जैनदर्शन की दृष्टि से इस गुणस्थान को प्राप्त करके आत्मा परमात्मपद को प्राप्त कर लेती है। यह आत्म पुरुषार्थ की दृष्टि से कृतकृत्यता की स्थिति है, क्योंकि अब व्यक्ति के लिए कुछ भी करणीय शेष नहीं रहता है। इसे अर्हन्त अवस्था भी कहा गया है। जब तक आयुष्य की और देह की स्थिति बनी रहती है, तब तक संसार में रहकर भी वह विमुक्त ही रहती है। जब आयुष्य और देह की समाप्ति की स्थिति ज्ञात होती है, तब वह चौदहवें अयोगीकेवली गुणस्थान को प्राप्त कर इस देह का त्याग कर देती है और सिद्ध अवस्था को प्राप्त हो जाती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि गुणस्थान सिद्धान्त प्रगाढ़ बन्धन की अवस्था से पूर्ण विमुक्ति की अवस्था तक आध्यात्मिक विकास के विभिन्न सोपानों को सूचित करता है। यद्यपि आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से जैनदर्शन में लेश्या सिद्धान्त और त्रिविध आत्मा की अवधारणा का भी उल्लेख हुआ है। लेश्या सिद्धान्त मूलतः व्यक्ति के शुभाशुभ मनोभावों का सूचक है। तीव्रतम अशुभ मनोभावों से विशुद्धतम शुभ मनोभावों की जो यात्रा है, वह लेश्याओं की अवधारणाओं द्वारा सूचित की गई है। जैन दर्शन में लेश्याएं निम्न छः मानी गई है - (१) कृष्ण (२) नील (३) कापोत (४) तेजो (५) छद्म और (६) शुक्ल। इनमें कृष्णलेश्या तीव्रतम संक्लेश युक्त अशुभ मनोभावों की सूचक है, जबकि नीललेश्या तीव्रतर संक्लेशयुक्त अशुभ मनोभावों की सूचक है। कापोतलेश्या अपेक्षाकृत मन्द संक्लेश युक्त अशुभ आत्म-परिणामों की सूचक है। अग्रिम तीन लेश्याएँ शुभ मनोभावों की सूचक है। इनमें भी तरतमता की दृष्टि से तेजोलेश्या शुभ मनोभावों की सूचक है, वहीं पद्मलेश्या शुभतर आत्म-परिणामों की सूचक है और Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ प्रथम अध्याय......{24} शुक्लेश्या शुभम या शुद्ध आत्म-परिणामों की सूचक है। इसप्रकार लेश्याओं की अवधारणा भी आध्यात्मिक विकास की सूचक है, किन्तु फिर भी गुणस्थानों की अवधारणा और लेश्या सिद्धान्त की अवधारणा में तात्विक अन्तर है । लेश्या का सम्बन्ध मुख्यतया मनोभावों से है, जबकि गुणस्थानों का सम्बन्ध कर्ममल की विशुद्धि से है। यही कारण है कि प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में भी छह लेश्याओं की सम्भावना स्वीकार की गई है। मनोभावों की विशुद्धि और कर्मविशुद्धि में अन्तर है । यद्यपि कर्मविशुद्धि मनोभाव विशुद्ध होते हैं, किन्तु कर्म की सत्ता होते हुए भी मनोभावों में परिवर्तन सम्भव है। गुणस्थानों की अपेक्षा से लेश्याओं की चर्चा करते हुए यह माना गया है कि प्रथम छः गुणस्थानों में छहों लेश्याएँ सम्भव होती हैं। सातवें गुणस्थान में मात्र तीन शुभ लेश्याएँ ही सम्भव होती हैं। आठवें गुणस्थान से लेकर तेरहवें सयोगीकेवली गुणस्थान तक मात्र एक शुक्ललेश्या ही होती है। चौदहवें गुणस्थान में लेश्या का अभाव होता है। लेश्या कोई भी हो, वह कर्मबन्ध का कारण तो अवश्य है। चौदहवें गुणस्थान में • लेश्या का अभाव होने पर ही बन्ध का अभाव होता है। इसप्रकार यद्यपि लेश्या सिद्धान्त भी आध्यात्मिक विशुद्धि का आधार माना सकता है, फिर भी उसमें मुख्यरूप से मनोभावों की विशुद्धि को ही प्रधानता दी गई है, आत्मविशुद्धि या कर्ममल की विशुद्धि को नहीं । इसी प्रकार आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से जैनदर्शन में आचार्य कुन्दकुन्द से प्रारम्भ करके पूज्यपाद देवनन्दी, मुन रामसिंह, आचार्य योगिन्दुदेव, आचार्य शुभचन्द्र, आचार्य हेमचन्द्र, आशाधर, यशोविजय, आनन्दघन, देवचन्द्र आदि ने त्रिविध आत्मा की अवधारणा को प्रस्तुत किया है । विषयोन्मुख आत्मा को बहिरात्मा कहा जाता है, आत्मोन्मुख या साधक आत्मा को अन्तरात्मा कहा जाता है और कर्मकलंक से रहित विशुद्ध आत्मा, परमात्मा कही जाती है। गुणस्थानों की दृष्टि से प्रथम से लेकर तीसरे गुणस्थान में स्थित आत्मा बहिरात्मा है। चौथे गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक की आत्माएँ अन्तरात्मा कही जाती हैं। आचार्यों ने गुणस्थानों के आधार पर अन्तरात्मा के भी तीन भेद किए हैं। चतुर्थ गुणस्थान में स्थित अन्तरात्मा जघन्य अन्तरात्मा है, पांचवें गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान तक की आत्माएँ मध्यम अन्तरात्मा कही गई है। ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में स्थित आत्मा उत्कृष्ट अन्तरात्मा कही गई है। गुणस्थानों की अपेक्षा से तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवर्ती आत्माएँ परमात्मा कही जाती हैं । यद्यपि त्रिविध आत्मा की अवधारणा और गुणस्थान की अवधारणा- दोनों ही आध्यात्मिक विकास की सूचक है, फिर भी गुणस्थान की अवधारणा में जो सूक्ष्मता है, वह त्रिविध आत्मा की अवधारणा में नहीं है । गुणस्थानों की चर्चा मूल में कर्मविशुद्धि को प्रमुखता दी गई है, जबकि त्रिविध आत्मा की अवधारणा में मुख्यतः भावों की विशुद्धि की है । यद्यपि कर्मविशुद्धि के आधार पर ही भाव विशुद्धि होती है, फिर भी भावों की विशुद्धि के साथ-साथ गुणस्थान की अवधारणा में कर्मों के उदय, उदयविच्छेद, बन्ध, बन्धविच्छेद, सत्ता, सत्ताविच्छेद आदि की जितनी गम्भीर चर्चा मिलती है, उतनी गम्भीर चर्चा त्रिविध आत्मा की अवधारणा में उपलब्ध नहीं होती है । गुणस्थान सिद्धान्त का सम्पूर्ण ढांचा कर्मसिद्धान्त के आधार पर खड़ा हुआ है। अग्रिम अध्यायों में हम इस सम्बन्ध में विस्तार से विचार करेंगे कि विभिन्न गुणस्थानों में किन कर्मप्रकृतियों का उदय रहता है, किनकी उदीरणा सम्भव होती है और किन कर्मप्रकृतियों का उदयविच्छेद हो जाता है । इसीप्रकार बन्ध की अपेक्षा से भी किन गुणस्थानों में किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है और किन कर्मप्रकृतियों का बन्धविच्छेद हो जाता है। सत्ता की अपेक्षा से किन कर्मप्रकृतियों की सत्ता रहती है और किन कर्मप्रकृतियों की सत्ता का विच्छेद हो जाता है। जैन आगमों और कर्मसाहित्य के ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में अति विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है। अग्रिम अध्यायों में हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि जैनसाहित्य में गुणस्थान की और उनके साथ कर्मों के सहसम्बन्ध की चर्चा किस रूप में उपलब्ध होती है । इस समग्र विवेचन में हमने सर्वप्रथम श्वेताम्बर अर्द्धमागधी आगम साहित्य और आगमिक व्याख्या साहित्य के आधार पर चर्चा की है। उसके पश्चात् शौरसेनी आगम साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा किस रूप में उपलब्ध है, इस पर गम्भीरता से विचार किया है। दोनों ही परम्पराओं के आगम साहित्य या आगम तुल्य साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा की इस चर्चा के पश्चात् अपनी विवेचना में हमने तत्त्वार्थसूत्र और उसकी श्वेताम्बर तथा दिगम्बर टीकाओं को आधार मानकर चर्चा की है। उसके पश्चात् अग्रिम अध्याय में श्वेताम्बर और दिगम्बर कर्मसाहित्य में गुणस्थान की अवधारणा किस रूप में उपस्थित है, इसे स्पष्ट करने का प्रयास किया है। छठा अध्याय परवर्ती काल में रचित गुणस्थान सम्बन्धी स्वतन्त्र ग्रन्थों का उल्लेख करता है और अन्त में गुणस्थान की अवधारणा पर तुलनात्मक दृष्टि से विचार किया गया है। अतः इस अध्याय में हम गुणस्थानों के सामान्य स्वरूप चर्चा के साथ विराम लेते हैं । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 2 ल अर्द्धमागधी आगम साहित्य और आगमिक व्याख्याओं में गुणस्थान की अवधारणा अर्द्धमागधी आगम साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा। नियुक्ति साहित्य और गुणस्थान सिद्धांत भाष्य साहित्य और गुणस्थान सिद्धांत चूर्णि साहित्य और गुणस्थान सिद्धांत आगमिक टीकाएं और गुणस्थान सिद्धांत POOOOOOOOOOOOOOD Jan Education intentional For Privale H EE BOOOOOOOOOOOY www.jainaliba Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ هههههههههههههههههههههه | अध्याय 2 שששששששששששששששששששששש अर्द्धमागधी आगम साहित्य और आगमिक व्याख्याओं में गुणस्थान की अवधारणा त्र अर्द्धमागधी आगम साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा समग्र जैन सिद्धान्तों का आधार द्वादशांगी है। दिगम्बर परम्परा वर्तमान में द्वादशांगी का अभाव मानती है और अपने . आगम तुल्य ग्रन्थों का आधार मुख्य रूप से दृष्टिवाद का आंशिक ज्ञान मानती है। जहाँ तक श्वेताम्बर परम्परा का प्रश्न है, वह दृष्टिवाद का विच्छेद मानती है, किन्तु शेष एकादश आगमों के अस्तित्व को स्वीकार करती है। यद्यपि वह भी अंगबाह्य ग्रन्थों के लिए दष्टिवाद के आंशिक ज्ञान को ही आधारभत स्वीकार करती है। इस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार जैन दर्शन के विभिन्न सिद्धान्तों का मूल स्रोत आगम साहित्य ही माना जाता है। जहाँ तक गुणस्थान सिद्धान्त का प्रश्न है, वहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि क्या इस सिद्धान्त का मूल स्रोत या आधार आगम साहित्य है? डॉ.सागरमल जैन ने अपने ग्रन्थ 'गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण' में यह माना है कि गुणस्थान सिद्धान्त का आधार श्वेताम्बर आगम साहित्य नहीं है । वे समवायांग सूत्र में चौदह गुणस्थानों का नाम उल्लेख करने वाली गाथा को भी कालान्तर में प्रक्षिप्त मानकर स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित करते हैं कि गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव और विकास एक परवर्ती घटना है और यह वल्लभीवाचना के पश्चात् ही अपने विकसित स्वरूप में अस्तित्व में आया है। यद्यपि वे यह मानते हैं कि गुणस्थान सिद्धान्त के मूल बीज के रूप में कुछ अवस्थाओं एवं गुणश्रेणियों की चर्चा तत्त्वार्थसूत्र, उसके स्वोपज्ञभाष्य तथा आचारांग नियुक्ति आदि में मिलते हैं। उनका यह कथन तो सत्य है कि श्वेताम्बर मान्य आगम साहित्य में समवायांग को छोड़कर कहीं भी चौदह गुणस्थानों का एक साथ उल्लेख नहीं है। भगवतीसूत्र और प्रज्ञापनासूत्र जैसे विश्लेषणात्मक आगमों में भी गुणस्थानों की कोई सुस्पष्ट चर्चा हमें देखने को नहीं मिलती है, किन्तु इस आधार पर यह निर्णय निकाल लेना कठिन होगा कि आगमकाल में गुणस्थानों की अवधारणा का पूर्णतः अभाव था। यदि इस प्रश्न को एक ओर भी रखें कि समवायांगसूत्र की गाथा प्रक्षिप्त है या नहीं? फिर भी हमने अपनी गवेषणा के आधार पर यह पाया है कि चाहे आगमों में गुणस्थान सिद्धान्त का स्पष्ट रूप से उल्लेख न हुआ हो, किन्तु गुणस्थानों से सम्बन्धित विभिन्न अवस्थाओं का उल्लेख हमें आगम साहित्य में प्रचुर मात्रा में मिलता है । आगे हम इसी आधार पर क्रमशः विभिन्न आगमों को लेकर चर्चा करेंगे। Jain Education Intemational Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... अग आगम विभाग १. आचारांग और गुणस्थान : जैनधर्म में अंग-आगमों में प्रथम स्थान आचारांगसूत्र का है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट होता है, आचारांगसूत्र सामान्य रूप से जैनधर्म के आचार सम्बन्धी सिद्धान्तों का और विशेषरूप से मुनि आचार का वर्णन प्रस्तुत करता है। वर्तमान में आचारांगसूत्र में दो श्रुतस्कन्ध उपलब्ध हैं। इसमें दूसरा श्रुतस्कन्ध चूलिका के नाम से भी जाना जाता है। दूसरे श्रुतस्कन्ध का मुख्य प्रतिपाद्य मुनि आचार है। यद्यपि इसके अन्त भगवान महावीर का जीवन-चरित्र भी वर्णित है, फिर भी प्रथम अध्याय में प्रतिपादित विषयों की ही विस्तृत व्याख्या के रूप में विद्वानों ने आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध को अति प्राचीन माना है। उनके अनुसार इस ग्रन्थ में भगवान महावीर के मूल वचन प्रामाणिक रूप से सुरक्षित और संकलित है। आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध की शैली अन्य आगमों से भिन्न है। इसके अधिकांश वाक्य सूत्रात्मक हैं और एक-एक सूत्र में आध्यात्मिक और साधनात्मक जीवन का सार तत्व प्रस्तुत कर दिया गया है। इसके प्रथम श्रुतस्कन्ध में नौ अध्ययन हैं। उनमें महापरिज्ञा नामक अध्ययन वर्तमान में अनुपलब्ध है। उपधानश्रुत नामक नवम अध्ययन में भगवान महावीर की तपसाधना का सजीव चित्रण उपलब्ध होता है। इसके पूर्व अध्ययनों में मुख्यरूप से जैन साधना की मूलभूत जीवन-दृष्टि प्रतिपादित है, किन्तु इसके साथ ही मुनि आचार के विधि-निषेध सम्बन्धी सूत्र भी उपलब्ध होते हैं। आचारांगसूत्र की शैली उपनिषदों की शैली के समान ही सूत्रात्मक है। इसके एक-एक सूत्र में गम्भीर अर्थ निहित है। आचारांगसूत्र के अनेक सूत्र एवं विवरण उपनिषदों में भाषा सम्बन्धी अन्तर को छोड़कर यथावत् रूप में पाए जाते हैं। इस आधार पर इसे प्राचीनतम आगम ग्रन्थ माना जाता है। इसमें भगवान महावीर के मूल वचन सुरक्षित हैं । द्वितीय अध्याय.....{26} प्रस्तुत प्रसंग में हमारा उद्देश्य आचारांगसूत्र की विषयवस्तु का विवरण देना नहीं है, अपितु यह देखना है कि इस महत्वपूर्ण सूत्रग्रन्थ में आध्यात्मिक विकास की जिन ऊँचाईयों का चित्रण है, उनमें कहीं भी गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी अवधारणा और उससे सम्बन्धित विषयों का चित्रण उपलब्ध है या नहीं ? आगे हम इस सम्बन्ध में विचार करेंगे कि गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी उल्लेख कहाँ और कितना है। आचारांगसूत्र प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन के चतुर्थ उद्देशक में 'जे पमत्ते से गुणट्ठिए' ऐसा उल्लेख है। इसका तात्पर्य यह है कि जो प्रमत्त है वह गुणों में स्थित है, किन्तु यहाँ गुण शब्द इन्द्रियजन्य विषयों के सन्दर्भ में ही आया है। इसी प्रकार प्रथम अध्ययन के पंचम उद्देशक में उल्लेख है कि 'जे गुणे से आवट्टे जे आवट्टे से गुणे', अर्थात् जो गुण है वह आवर्त (संसार) है, जो आवर्त (संसार) है वह गुण है। यहाँ भी गुण शब्द का प्रयोग विषयासक्ति से ही है। इस प्रकार इन दोनों सूत्रों में गुण शब्द का उल्लेख है, किन्तु वह उल्लेख गुणस्थान से सम्बन्धित प्रतीत नहीं होता है। इसी क्रम में आचारांग के द्वितीय अध्ययन के प्रथम उद्देशक में वर्णित है कि 'जीविए इह जे पमत्ता', अर्थात् इस संसार में जो प्रमत्त हैं, वे जीवन के आकांक्षी हैं। यहाँ प्रमत्त शब्द का उल्लेख है और उसे विषयभोगों का आकांक्षी बताया गया है, किन्तु यहाँ भी प्रमत्त शब्द का सम्बन्ध प्रमत्तसंयत गुणस्थान से सम्बन्धित नहीं है। आचारांगसूत्र के तृतीय अध्ययन के द्वितीय उद्देशक में कहा गया है कि 'लोयंसी परमदंसी विवित्तजीवी उवसंते, समिते सहिते सया ए कालकंखी परिव्वए ।।' अर्थात् जो परमदृष्टा, एकान्तजीवी और उपशान्त है, वह समता से युक्त होता है। और सदा यत्नवान होता है। प्रस्तुत गाथा में जो उपशान्त पद है वह उपशान्तकषाय गुणस्थान का वाचक है, यह कहना कठिन है। यहाँ उसका प्रयोग सामान्य अर्थ में ही हुआ है। आचारांग सूत्र के चतुर्थ सम्यक्त्व अध्ययन के प्रथम उद्देशक में 'पत्ते बहिया पास, अपमत्ते सया परक्कमेज्जासि ।।' अर्थात् प्रमत्त बहिर्दृष्टा होता है और अप्रमत्त सदा आत्मोन्मुख हो पुरुषार्थ करता है। यहाँ प्रमत्त और अप्रमत्त के लक्षणों का स्पष्ट विवेचन हुआ है, किन्तु इसे गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित कहना कठिन है। इसी क्रम में चतुर्थ अध्ययन के द्वितीय उद्देशक में कहा गया है कि 'अट्टा वि संता अदुआ पमत्ता ।' अर्थात् जो प्रमत्त है वह आर्तध्यान से ८० अंगसुत्ताणि, भाग -१, आयारो-वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी; जैन विश्वभारती लाडनूं सं. २०३१ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... द्वितीय अध्याय........{27} युक्त होता है। यहाँ भी प्रमत्त के सामान्य स्वरूप की चर्चा है। इसे प्रमत्तसंयत गुणस्थान का उल्लेख नहीं माना जा सकता है। इसी क्रम में पंचम अध्ययन के द्वितीय उद्देशक के सैतीसवें सूत्र में भी प्रमत्त को बहिर्मुखी और अप्रमत्त को प्रवर्जित कहा गया है। यहाँ भी इसे गुणस्थान सिद्धान्त का परिचायक नहीं कहा जा सकता है। आचारांगसूत्र के पंचम अध्ययन के तृतीय उद्देशक में 'गुणासाएहिं' शब्द का उल्लेख है, जिसका तात्पर्य गणों में आसक्त होना है। यहाँ भी गुण शब्द पूर्ववत् ऐन्द्रिक विषयों का ही परिचायक है, गुणस्थानों का नहीं। पंचम अध्ययन के चतुर्थ उद्देशक के सूत्र क्रमांक-७५ एवं पंचम उद्देशक के सूत्र क्रमांक-८६ में उवसंत (उपशान्त) शब्द का प्रयोग हुआ है। पुनः आचारांगसूत्र के नवम अध्ययन के द्वितीय उद्देशक की चतुर्थ गाथा में, भगवान महावीर को रात-दिन यत्नवान होकर, अप्रमत्तभाव से आत्म समाधिस्थ होकर ध्यान करने वाला कहा गया है, किन्तु यहाँ महावीर की जिस अप्रमत्त अवस्था को सूचित किया गया है वह गुणस्थान की प्रतिपादक हो, यह कहना कठिन है। यद्यपि यह अवश्य माना जा सकता है कि महावीर की यह अवस्था सप्तम गुणस्थानवर्ती अप्रमत्तसंयत के समान ही रही होगी। उपर्युक्त चर्चा के अतिरिक्त आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के विभिन्न अध्ययनों में विरत और अविरत शब्द का भी अनेक बार उल्लेख हुआ है, किन्तु यह उल्लेख भी सामान्यतया मुनि की विशेषताओं के ही सन्दर्भ में हुआ है। अतः इस समस्त चर्चा में गुणस्थान की संकल्पना करना दूर की कौड़ी ढूंढने के समान ही है। आचारांगसूत्र के इस प्रथम श्रुतस्कन्ध में गुण शब्द का जहाँ भी प्रयोग हुआ है, वहाँ विषयासक्ति या ऐन्द्रिक विषयों के अर्थ में ही हुआ है एवम् उसका भी गुणस्थान से कोई सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता है। डॉ. सागरमल जैन ने उनकी पुस्तक 'गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण' में आचारांग के आधार पर गुणस्थान सिद्धान्त में प्रयुक्त गुण शब्द के एक नवीन अर्थ की संकल्पना की है। उनके अनुसार गुणस्थान में गुण शब्द सर्व गुणों या आत्म गुणों का वाचक न होकर बन्धक का वाचक है। यह बन्धन के स्थानों के क्षय की चर्चा करता है। यह स्पष्ट है कि आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध में गुण शब्द विषय आसक्ति या बन्धन का ही वाचक रहा है, क्योंकि गुण शब्द का एक अर्थ रस्सी भी होता है। जिस प्रकार रस्सी बांधने का काम करती है, ठीक उसी प्रकार इन्द्रियों के विषय भी आत्मा को बांधने का काम करते हैं। यदि हम कर्मप्रकृतियों के बन्ध और सत्ता की दृष्टि से विचार करें, तो गुणस्थान सिद्धान्त आत्मा को बन्धन में डालने वाले स्थानों का विचार करते हैं। यदि हम कर्मप्रकृतियों के क्षय की दृष्टि से विचार करें, तो गुणस्थान सिद्धान्त आत्मिक गुणों के विकास की चर्चा करता है। इस प्रकार दोनों ही अवधारणाएं सापेक्षित रूप से सत्य मानी जाती हैं। जहाँ तक आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध अर्थात् आचारांगचूला का प्रश्न है, सामान्य रूप से उसमें असंयत और संयत-ऐसी दो अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है । उसमें असंयत और संयत-इन दोनों अवस्थाओं का उल्लेख लगभग एक सौ चालीस बार हुआ है, किन्तु इन समस्त प्रसंगों में मुनि के लिए क्या करणीय है, इसी का उल्लेख मिलता है। सम्पूर्ण आचारांगचूला मुख्यतया मुनि आचार से सम्बन्धित है. इसीलिए उसमें जहाँ-जहाँ संयत (संजय) पद आया है, वहाँ-वहाँ इसी तथ्य को इंगित किया गया है कि मुनि के लिए क्या करणीय है और क्या अकरणीय है। इस प्रकार आचारांगचूला में जहाँ-जहाँ असंयत (असंजय) पद आया है, वहाँ-वहाँ सामान्यतया यह कहा गया है कि किस-किस प्रकार की क्रिया मुनि के असंयम का कारण होती है। जैसे मिट्टी आदि से लिप्त पात्र को खोलकर उससे भोजन-पानी आदि लेना यह मुनि के लिए असंयम का कारण है। ऐसे अनेक प्रसंगों में जहाँ निषेध अथवा सदोष अशन, पान, वस्त्र अथवा अन्य प्रकार की प्रवृत्तियों का उल्लेख हुआ है, वहाँ यह बताया गया है कि कौन-कौन सी प्रवृत्तियाँ मुनि के लिए असंयम का कारण होती है। चूंकि हमारा प्रतिपाद्य विषय गुणस्थान सिद्धान्त है, अतः इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा करना आवश्यक प्रतीत नहीं होता है। यद्यपि इस चर्चा में संयम के संरक्षण और उससे विचलित होने की स्थितियों की चर्चा है, किन्तु इस समस्त चर्चा का सम्बन्ध संयमी जीवन से होते हुए भी प्रमत्तसंयत या अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों से प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि गुणस्थानों की अपेक्षा से जो चर्चा की जाती है, उसमें मुख्य रूप से इन अवस्थाओं में किन कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा, बन्ध-विच्छेद आदि की क्या स्थिति होती है, इसी की चर्चा रहती है, जबकि यहाँ मुख्य प्रतिपाद्य विषय यह है कि संयमी मुनि के लिए क्या करणीय है या क्या अकरणीय। इस प्रकार हम देखते हैं कि आचारांग और उसकी चूला में हमें गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित किसी विशिष्ट सामग्री की उपलब्धि नहीं होती है। - Jain Education Intemational Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{28} .. २. सूत्रकृतांग और गुणस्थान : अंग-आगमों में दूसरा स्थान सूत्रकृतांग का है। विद्वानों ने इसे भी प्राचीन स्तर का आगम माना है। आचारांग के समान ही सूत्रकृतांग भी दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है। इसके प्रथम श्रुतस्कन्ध में सोलह और द्वितीय श्रुतस्कन्ध में सात अध्ययन हैं। दिगम्बर परम्परा में प्रतिक्रमण ग्रन्थत्रयी नामक पुस्तक में इसके तेईस अध्ययनों के नाम उपलब्ध होते हैं, जिनके नगण्य अन्तर को छोड़कर वर्तमान में उपलब्ध सूत्रकृतांग में समरूपता पाई जाती है। जहाँ आचारांगसूत्र मूलतः आचार-प्रधान है, वहीं सूत्रकृतांगसूत्र मूलतः दर्शन प्रधान है। यद्यपि इसमें आचार सम्बन्धी अनेक अध्ययन भी है, फिर भी ग्रन्थ के प्रारम्भ में समय नामक अध्ययन में और ग्रन्थ के अन्तिम नालन्दीय अध्ययन में विविध दार्शनिक विचारणा का उल्लेख होने से इसे दर्शन सम्बन्धी ग्रन्थ भी माना जाता है। नन्दीसूत्र और समवायांग में इसकी विषयवस्तु का चित्रण करते हुए यह माना गया है कि इसमें जैन और जैनेत्तर ग्रन्थों का विवरण उपलब्ध होता है। जैसा कि हमने संकेत किया है, प्रथम समय नामक अध्ययन में और अन्तिम नालन्दीय नामक अध्ययन में भगवान महावीर के समय में प्रचलित विभिन्न दार्शनिक मान्यताओं का अच्छा चित्रण उपलब्ध होता है। इस ग्रन्थ का एक अन्य वैशिष्ट्य यह है कि जहाँ आचारांगसूत्र में अहिंसा की अवधारणा पर विशेष बल दिया गया है, वहीं सूत्रकृतांग में अपरिग्रह पर विशेष बल दिया गया है। यद्यपि दोनों ही ग्रन्थों में पंच महाव्रतों का उल्लेख है, फिर भी सूत्रकृतांग की यह विशेषता है कि हिंसा के कारणों का विश्लेषण करते हुए यह कहता है कि हिंसा का कारण परिग्रह है। यहाँ हम इन सब प्रश्नों पर विस्तार से चर्चा न करते हुए अपने शोधविषय के आधार पर मात्र यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि क्या सूत्रकृतांग में गुणस्थान की अवधारणा के प्रसंग में कोई विचारणा या संकेत है या नहीं ? यदि वे उपलब्ध होते हैं तो किस रूप में ? आगे हम इसी सम्बन्ध में विशेष चर्चा करेंगे। ___जहाँ तक गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित शब्दों या पदों की सूत्रकृतांग में उपस्थिति का प्रश्न है, सूत्रकृतांग में हमें अनिवृत्त (२/६/५३), अप्रमत्त (१/६/३०), अविरत (२/४/१), असंयत (१/७/८), उपशान्त (२/१/६०), मिथ्यादृष्टि (१/१/३७-४०, ५६), विरत (१/१०/६), विरताविरत (२/२/७५), संयत (१/१/३७) आदि अवस्थाओं के उल्लेख मिलते हैं। इन्हें भी संक्षिप्त रूप में सामान्य दृष्टि से देखें तो मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, विरताविरतं, विरत, अनिवृत्त और उपशान्त अवस्थाएं सामान्यतया गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित प्रतीत अवश्य होती है, किन्तु जिन सन्दर्भो में इन अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है, वे गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित है या नहीं, यह प्रश्न विचारणीय है। आगे हम इस पर चर्चा करेंगे। जहाँ तक मिथ्यादृष्टि शब्द का प्रश्न है, इस शब्द का उल्लेख गुणस्थानों के अतिरिक्त भी विविध प्रसंगों में हुआ है और अनेक आगमों में इसका उपयोग हुआ है। सूत्रकृतांग में भी हमें मिथ्यादृष्टि शब्द का प्रयोग तो देखने को मिला है, किन्तु वहाँ इस शब्द का प्रयोग अनार्य मिथ्यादृष्टि श्रमण के रूप में हुआ है। यहाँ यह गुणस्थान का सूचक नहीं है। इसी प्रकार अविरतसम्यग्दृष्टि शब्द भी, जो चतुर्थ गुणस्थान का सूचक है, सूत्रकृतांग में कहीं नहीं पाया जाता है। सूत्रकृतांग में अविरय, अविरइ, विरताविरत आदि शब्द मिलते हैं। इसमें अविरति को आरम्भस्थान,अनाहारीस्थान आदि के नाम से अभिहित किया गया है। प्रथम तो इन शब्दों के साथ न तो गुणस्थान शब्द का प्रयोग हुआ है और न ही उक्त प्रसंगों में उसकी कोई चर्चा है। अतः सूत्रकृतांग में प्रयुक्त अविरय, अविरई, विरयाविरई शब्द चाहे गुणस्थान की अवधारणा के निकट हैं, फिर भी सूत्रकृतांग में उनका गुणस्थान के रूप में कोई उल्लेख नहीं है। वे साधक की सामान्य अवधारणाओं के ही उल्लेख हैं। इसी प्रकार सूत्रकृतांग में प्रयुक्त संजय (संयत) शब्द अवस्था का ही सूचक है। सूत्रकृतांग में विशेष रूप से हमें अनिवृत्त शब्द का प्रयोग मिलता है, लेकिन यहाँ अनिवृत्त शब्द उन श्रमणों के लिए आया है, उन हस्तीतापसों के लिए आया है, जो दोषों से निवृत्त नहीं है। इस प्रकार यह अनिवृत्त शब्द सूत्रकृतांग में गुणस्थान के सन्दर्भ में प्रयुक्त नहीं है। इसी प्रकार आचारांग के साथ-साथ सूत्रकृतांग में भी हमें गुणस्थान सम्बन्धी कोई निर्देश प्राप्त नहीं हुआ है। १ वही, सूयगडो. Jain Education Intemational Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.. द्वितीय अध्याय........{29) ३. स्थानांगसूत्र और गुणस्थान : अंग-आगमों में तृतीय स्थान स्थानांगसूत्र का है। स्थानांगसूत्र एक कोष शैली का ग्रन्थ है। इसमें संख्याओं के आधार पर जैनधर्म-दर्शन सम्बन्धी विविध विषयों का संकलन किया गया है। जैसे एक-एक तत्त्व कौन-से हैं?, दो-दो तत्त्व कौन-से हैं ? इस क्रम से, एक से लेकर दस तक की संख्याओं के आधार पर विभिन्न विषयों को संकलित किया गया है। इसकी शैली बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय से मिलती है। प्राचीनकाल में संख्याओं के आधार पर विषयों के संकलन करने की परम्परा रही है। वर्तमान में जैसे शब्दों के वर्णानुक्रम के आधार पर कोष बनते हैं, वैसे ही प्राचीनकाल में संख्याओं के आधार पर कोष-ग्रन्थ बनते थे। स्थानांगसूत्र भी उसी प्रकार का एक ग्रन्थ है। कोष-ग्रन्थ होने के कारण इसमें प्राचीन और परवर्तीकालीन सभी विषयों को संकलित करने का प्रयास किया गया है। यही कारण है कि विद्वानों ने इसे एक परवर्ती ग्रन्थ माना है। इसमें अनेक सूचनाएं ऐसी हैं, जो प्राचीन परम्परा का अनुसरण करती है। उदाहरण के रूप में इसमें दस दशाओं और उनकी विषयवस्तु का जो चित्रण है, वह प्राचीन स्तर का है, जबकि महावीर के नौ गणों सम्बन्धी जो उल्लेख है, वह परवर्तीकालीन है। इस ग्रन्थ में एक से लेकर दस तक की संख्याओं सम्बन्धी विषय संकलित किए गए हैं। इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा में न जाकर यहाँ मात्र यही विचार करेंगे कि स्थानांगसूत्र में गुणस्थान सम्बन्धी विचारणा के कोई संकेत उपलब्ध है अथवा नहीं? ___ स्थानांगसूत्र में मिथ्यादृष्टि, अविरति, असंयत, संयतासंयत, संजय (संयत), सूक्ष्मसंपराय, उपशान्तकषाय, क्षीणमोह, सयोगीकेवली, अयोगीकेवली जैसे शब्दों का प्रयोग उपलब्ध होता है । इनमें विशेष रूप से अनिवृत्ति, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्तकषाय, क्षीणमोह, सयोगी केवली, अयोगीकेवली-ऐसे शब्द हैं, जो सामान्य रूप से गुणस्थान से सम्बन्धित प्रतीत होते हैं। जहाँ तक सयोगीकेवली और अयोगीकेवली का प्रश्न है, भवस्थ केवलज्ञान की चर्चा के प्रसंग में यहाँ दो विभाग किए गए हैं- सयोगी भवस्थ केवलज्ञान और अयोगी भवस्थ केवलज्ञान। इसके पश्चात् पुनः सयोगी भवस्थ केवलज्ञान और अयोगी भवस्थ केवलज्ञान के लिए प्रथम समयवर्ती और अप्रथम समयवर्ती-ऐसे दो-दो विभाग किए गए हैं । इस प्रकार यहाँ सयोगी और अयोगी शब्दों का प्रयोग मात्र अवस्था विशेष के सन्दर्भ में ही है, गुणस्थान के सन्दर्भ में प्रतीत नहीं होता है। इसी प्रकार संयम पद की चर्चा के प्रसंग में संयम के दो विभाग किए गए हैं- सरागसंयम और वीतरागसंयम। पुनः सरागसंयम के दो भेद हैं- बादरसंपरायसंयम और सूक्ष्मसंपरायसंयम। वीतरागसंयम के भी दो भेद किए गए हैं- उपशान्तकषाय वीतरागसंयम और क्षीणकषाय वीतरागसंयम। इस प्रकार यहाँ भी ये अवस्थाएं मुख्य रूप से गुणस्थान से सम्बन्धित प्रतीत नहीं होती है, यद्यपि यह माना जा सकता है कि इन विविध अवस्थाओं को सुव्यवस्थित करके ही गुणस्थान सिद्धान्त का विकास हुआ है। यहाँ पर इन अवस्थाओं की चर्चा वस्तुतः संयम के भेद के रूप में ही हुई है। संयम के भेदों में सूक्ष्मसंपराय का उल्लेख है। सूक्ष्मसंपराय और बादरसंपराय के दो भेदों के आधार पर प्रथम समय बादरसंपराय और अप्रथम समय बादरसंपराय, प्रथम समय सूक्ष्मसंपराय और अप्रथम समय सूक्ष्मसंपराय- ऐसे चार भेद किए गए हैं। पुनः उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय को लेकर भी चार भेद किए गए हैं- प्रथम समय उपशान्तकषाय और अप्रथम समय उपशान्तकषाय, प्रथम समय क्षीणकषाय और अप्रथम समय क्षीणकषाय। यहाँ संयम पद के जो आठ प्रकार बताए गए हैं, उनमें प्रथम समय और अप्रथम समय का जो आधार है, उसे देखकर सम्भवतः यह विचार हो सकता है कि प्रथम समय का तात्पर्य उस गुणस्थान में प्रवेश का समय और अप्रथम समय का तात्पर्य उस गुणस्थान में प्रवेश के बाद का समय हो । इस आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि इनका सम्बन्ध गुणस्थानों से है, लेकिन जैसा कि हमने पूर्व में कहा है कि इन अवस्थाओं की चर्चा आगमकाल में भी होती थी, अतः इनका सम्बन्ध गुणस्थानों से हो यह कहना कठिन है। क्योंकि आगम साहित्य में हमें कहीं भी गुणस्थान शब्द का उल्लेख नहीं मिलता है, इसीलिए इन अवस्थाओं को गुणस्थान सिद्धान्त की अवस्थाएं मानना सम्यक् प्रतीत नहीं होता है। ८२ वही, ठाणांग. Jain Education Intemational Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{30) ४. समवायांग और गुणस्थान :____ अंग-आगमों में चतुर्थ स्थान समवायांगसूत्र का है। शैली की अपेक्षा से स्थानांग और समवायांग दोनों ही कोष-शैली के ग्रन्थ हैं । जहाँ स्थानांगसूत्र में एक से लेकर दस तक की संख्यावाले विषयों का संकलन किया गया है, वहीं समवायांगसूत्र में एक से लेकर सौ, हजार, लाख, करोड़ आदि संख्याओं को लेकर भी विषयवस्तु को संकलित करने का प्रयत्न किया गया है। संख्या की अपेक्षा से तो समवायांग का क्षेत्र व्यापक है, किन्तु यदि हम विषय सामग्री को देखें तो स्थानांग का आकार समवायांग की अपेक्षा अधिक वृहत् है। दोनों में कुछ विषयवस्तु तो समान है और कुछ भिन्न समवायांग की एक विशेषता यह भी है कि इसके अन्त में परिशिष्ट के रूप में चौबीस तीर्थंकरों सम्बन्धी और आगम साहित्य की विषयवस्तु सम्बन्धी परिशिष्ट भी उपलब्ध होते हैं। स्थानांगसूत्र में जहाँ केवल दस दशाओं सम्बन्धी और उनके अध्यायों सम्बन्धी ही उल्लेख मिलते हैं, वहीं समवायांग में बारह ही अंग-आगमों की विषयवस्तु का विस्तृत परिचय दिया गया है। प्रस्तुत गवेषणा का प्रतिपाद्य विषय तो गुणस्थान सिद्धान्त है, अतः हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि इस अंग-आगम में गुणस्थान सम्बन्धी उल्लेख है तो किस रूप में है और कितना है ? ज्ञातव्य है कि स्थानांगसूत्र केवल दस तक की संख्या का विचार करता है इसीलिए उसमें चौदह गुणस्थानों सम्बन्धी विचारणा उपलब्ध होने की सम्भावना अल्प ही थी, किन्तु समवायांगसूत्र विशेष विवरण की दृष्टि से भी एक से एक सौ उनसाठ (१५८) तक की संख्या का स्पष्ट चित्रण करता है इसीलिए इसमें गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा की सम्भावना अधिक प्रतीत होती है। अब समवायांगसूत्र में गुणस्थान सिद्धान्त किस रूप में उपलब्ध है, इसकी चर्चा करेगें। समवायांगसूत्र में गुणस्थान शब्द तो नहीं मिलता है, फिर भी इसमें कर्मविशुद्धि की अपेक्षा से चौदह जीवस्थानों के रूप में चौदह गुणस्थानों का उल्लेख मिलता है। समवायांग में सम्पूर्ण चौदह गुणस्थानों के नाम का उल्लेख करनेवाला यह सूत्र निम्न है"कम्मविसोहीमग्गणं पडुच्च चउद्दस जीवट्ठाणा पण्णता, तं जहामिच्छदिट्ठी (मिथ्यादृष्टि), सासायणसम्मदिट्ठी (सास्वादनसम्यग्दृष्टि), सम्मामिच्छदिट्ठी (सम्यग्मिथ्यादृष्टि), अविरयसम्मदिट्ठी (अविरतसम्यग्दृष्टि), विरयाविरए (विरताविरत), पमत्तसंजए (प्रमत्तसंयत), अपमत्तसंजए (अप्रमत्तसंयत), नियट्टिबायरे (निवृत्तिबादरसंपराय), अनियट्टिबायरे (अनिवृत्तिबादरसंपराय), सुहुमसंपराए (सूक्ष्मसंपराय), उवसमए वा खवए वा उवसंतमोहे (उपशान्तमोह), खीणमोहे (क्षीणमोह), सजोगी केवली (सयोगी केवली), अजोगी केवली (अयोगीकेवली)"। इस प्रकार समवायांग में चौदह गुणस्थानों के नामों का स्पष्ट उल्लेख हुआ है, किन्तु यहाँ उन्हें गुणस्थान न कहकर कर्मविशुद्धिमार्गणा प्रत्युत चौदह जीवस्थान कहा है। समवायांगसूत्र के सन्दर्भ में विद्वानों की यह मान्यता है कि यह सूत्र देवर्द्धिगणि की वल्लभी वाचना के समय अन्तिम रूप से सुव्यवस्थित हुआ है और इसमें महावीर के पश्चात् से लेकर वल्लभी वाचना के पूर्व तक की अनेक अवधारणाएं संकलित कर दी गई। इसी आधार पर डॉ. सागरमल जैन ने यह माना है कि यह अंश प्रक्षिप्त है। इस सम्बन्ध में उनके अपने तर्क हैं, किन्तु यहाँ हम इस विवाद में उतरना आवश्यक नहीं समझते हैं। इतना अवश्य है कि आगम साहित्य में यही एक मात्र ऐसा स्थल है जहाँ सर्वप्रथम जीवस्थान के नाम से इन चौदह गुणस्थानों के नाम का उल्लेख हुआ है। यह चौदह जीवस्थान निश्चय ही गुणस्थान की अवधारणा से सम्बन्धित हैं, इसमें भी कोई शंका की स्थिति नहीं है। इससे एक बात स्पष्ट रूप से सिद्ध होती है कि वल्लभी वाचना के पूर्व गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा उपस्थित रही है, चाहे उसे गुणस्थान से अभिहित नहीं किया गया हो। गुणस्थानों की इस अवधारणा को गुणस्थान नाम मिलने से पूर्व जीवस्थान, जीवसमास आदि नामों से अभिहित किया जाता रहा है, क्योंकि समवायांग के अतिरिक्त षट्खण्डागम में और जीवसमास नाम के ग्रन्थ में भी इन चौदह अवस्थाओं को सर्वप्रथम जीवसमास के नाम से अभिहित किया गया है। आवश्यक नियुक्ति में भी जो दो गाथाएं है, उनमें भी गुणस्थान-ऐसे नाम का उल्लेख नहीं है। इन गाथाओं के सन्दर्भ में डॉ. सागरमल जैन का मानना है कि संग्रहणीसूत्र से आवश्यक नियुक्ति में प्रक्षिप्त की गई है। यहाँ हम बिना किसी विवाद में उलझे, केवल इतना कह ८३ वही, समवायांग. Jain Education Intemational Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{31) सकते हैं कि चाहे गुणस्थान नामकरण परवर्ती हो, लेकिन उसके पूर्व या कम से कम वल्लभीवाचना के पूर्व इन में से कुछ अवस्थाओं के उल्लेख मिलते हैं। समवायांग के उपर्युक्त चौदहवें समवाय के अतिरिक्त प्रकीर्णक समवाय (परिशिष्ट) के १६४ वें सूत्र में आहारक शरीर की चर्चा करते हुए मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयतसम्यग्दृष्टि, प्रमत्तसंयतसम्यग्दृष्टि, अप्रमत्तसंयतसम्यग्दृष्टि नामों का उल्लेख भी समवायांग में उपलब्ध होता है, किन्तु यहाँ पर इन अवस्थाओं की चर्चा आहारक शरीर सम्बन्धी चर्चा के प्रसंग में हुई है। अतः इसे स्पष्ट रूप से गुणस्थान से सम्बन्धित कहना कठिन है। ५. भगवतीसूत्र" और गुणस्थान सिद्धान्त : अंग-आगमों में भगवतीसूत्र को पाँचवा अंग माना गया है। इसका एक अन्य नाम व्याख्याप्रज्ञप्ति भी मिलता है। अंग-आगमों में आकार की दृष्टि से और विवेच्य विषयों की दृष्टि से यह एक विशाल ग्रन्थ है। वर्तमान में भी इस ग्रन्थ का आकार पन्द्रह हजार (१५०००) श्लोक परिमाण है। यह ग्रन्थ शतकों में विभाजित है। शतकों को पुनः उद्देशों में विभाजित किया गया है। वर्तमान में इसमें इकतालीस (४१) शतक उपलब्ध है, जो अनेक उद्देशों में विभक्त किए गए हैं। यह माना जाता है कि इस ग्रन्थ में भगवान महावीर ने गौतम गणधर के छत्तीस हजार (३६०००) प्रश्नों के उत्तर दिए हैं। इस प्रकार इस ग्रन्थ में विषय वैविध्य है। वस्तुतः जैनदर्शन का कोई भी विषय ऐसा नहीं है, जिसकी चर्चा इस ग्रन्थ में संक्षेप में या विस्तार से नहीं की गई है। यही कारण है कि जैन समाज में इसके प्रति अत्यधिक पूज्यता का भाव है और इसे "भगवती” ऐसा आदर्शसूचक नाम दिया गया है। विद्वानों ने इस ग्रन्थ में प्राचीनता की दृष्टि से अनेक स्तर माने हैं। इस ग्रन्थ में नंदीसूत्र, अनुयोगद्वारसूत्र और प्रज्ञापनासूत्र आदि के सन्दर्भ भी मिलते हैं। इस आधार पर कुछ विद्वानों की मान्यता है कि यह परवर्तीकालीन है, किन्तु वास्तविकता इससे भिन्न है। वस्तुतः वल्लभीवाचना के समय जब इसका सम्पादन किया गया तो इसके आकार को सीमित करने के लिए जो विषय अन्य आगमों में विस्तार से विवेचित है, उन्हें उन-उन स्थलों पर देख लेने के लिए निर्देश किया गया है। इसकी विषयवस्तु का गम्भीर अध्ययन करके विद्वानों ने यह भी स्थापित किया है कि इस ग्रन्थ में विषयवस्तु की प्राचीनता की अपेक्षा अनेक स्तर है। इसकी अधिकांश चर्चाएं तो भगवान महावीर की समकालीन प्रतीत होती है। प्रस्तुत प्रकरण में हमारा मुख्य उद्देश्य तो भगवतीसूत्र में गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा की चर्चा करना है। यद्यपि भगवतीसूत्र में हमें कहीं भी गुणस्थान शब्द उपलब्ध नहीं हुआ है, किन्तु आश्चर्य का विषय यह है कि इस ग्रन्थ में गुणस्थानों की विविध अवस्थाओं से सम्बन्धित लगभग बारह अवस्थाओं का नाम निर्देश उपलब्ध होता है। अग्रिम पृष्ठों में हम यह विचार करने का प्रयास करेंगे कि गणस्थानों से सम्बन्धित ये अवस्थाएं कहाँ और किस रूप में उल्लेखित हैं। भगवतीसूत्र में जैनधर्म-दर्शन से सम्बन्धित विविध विषयों और उनके सभी पक्षों की चर्चा हुई है, किन्तु यह आश्चर्य का विषय है कि उसमें भी कहीं गुणस्थान शब्द अथवा गुणस्थानों से सम्बन्धित विवरण नहीं मिलता है। विद्वानों ने भगवतीसूत्र में कालक्रम की दृष्टि से अनेक स्तर मानें हैं, फिर भी उसमें गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा का अनुलेख इस बात को पुष्ट करता है कि भगवतीसूत्र के इन विविध स्तरों के रचनाकाल तक भी जैनदर्शन में गुणस्थान सिद्धान्त की सुस्पष्ट चर्चा प्रारम्भ नहीं हुई थी, क्योंकि यदि उस काल तक गुणस्थान सिद्धान्त की कोई चर्चा प्रचलित होती तो भगवतीसूत्र में कहीं न कहीं उसका निर्देश अवश्य मिलता। चाहे भगवतीसूत्र में गुणस्थान शब्द और गुणस्थान सम्बन्धी विचारणा का अभाव हो, फिर भी भगवतीसूत्र के आलोड़न में हमें उसमें मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि, अविरत, विरयाविरय (विरताविरत), प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली- ऐसे गुणस्थान वाचक तेरह नाम प्राप्त हो जाते हैं। इसप्रकार भगवतीसूत्र में गुणस्थान शब्द और गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विचारणा का अभाव होते हुए भी चौदह गुणस्थानों में से तेरह गुणस्थानों का नाम उपलब्ध होना एक महत्वपूर्ण घटना है, क्योंकि यदि उस युग में इन तेरह ८४ वही, भाग-२, भगवई. Jain Education Intemational Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{32} अवस्थाओं की कोई अवधारणा नहीं होती, तो फिर इन शब्दों का प्रयोग भी नहीं होना था। चाहे गुणस्थानों के रूप में इन तेरह अवस्थाओं का उल्लेख न हुआ हो, किन्तु जीव की इन तेरह अवस्थाओं से उनका परिचय तो अवश्य रहा होगा। जब हम यह कहते हैं कि भगवतीसूत्र में गुणस्थानों सम्बन्धी तेरह अवस्थाओं के नाम होते हुए भी उसमें गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा का अभाव है, तो इसका तात्पर्य यह है कि उसमें न तो गुणस्थानों के स्वरूप की कोई चर्चा है और न ही किस गुणस्थान में किन-किन कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता, बन्ध-विच्छेद और क्षय आदि होते हैं, इसकी कोई चर्चा है। जहाँ तक अवस्थाओं के नाम मिलने का प्रश्न है, वे प्रासंगिक रूप से ही वहाँ आए हैं। इस विषय में हम प्रत्येक अवस्था के सम्बन्ध में मिलनेवाले उल्लेखों के आधार पर संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत करेंगे। मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि - भगवतीसूत्र में मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टिक शब्द का उल्लेख अनेक स्थलों पर अनेक सन्दर्भो में मिलता है। जैसे ग्यारहवें शतक में यह प्रश्न पूछा गया है कि हे भगवन्! जीव मिथ्यादृष्टि होते हैं या सम्यग्दृष्टि होते हैं? या सम्यग्मिथ्यादृष्टि होते हैं? इसके उत्तर में कहा गया है कि जीव नो सम्यग्दृष्टि, नो मिथ्यादृष्टि और नो सम्यग्मिथ्यादृष्टि होते हैं। तब २४ वें शतक में यह पूछा गया है कि एक समय की स्थिति में कौन-से जीव उत्पन्न होते हैं? उत्तर में कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं, सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होते हैं। इसी प्रकार एक समय में नारकीओं में कौन-से जीव उत्पन्न होते है? सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि या सम्यग्मिथ्यादृष्टि? उत्तर में पुनः यही कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि ही उत्पन्न होते हैं। सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होते हैं। इसी प्रकार पृथ्वीकाय आदि में भी उत्पत्ति के क्रम को लेकर भी ऐसे ही प्रश्न पूछे जाते रहे हैं। जब पृथ्वीकाय के सम्बन्ध में यह पूछा गया कि उसमें सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि में से कौन-से जीव उत्पन्न होते हैं, तो कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं, परन्तु सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होते है। इसप्रकार हम देखते हैं कि भगवतीसूत्र में मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि- इन तीन अवस्थाओं का उल्लेख तो है, किन्तु उनके सम्बन्ध में गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा नहीं मिलती है, एक सामान्य अवस्था मात्र ही उनकी चर्चा की गई है। इसी प्रकार अविरत, विरताविरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत अवस्थाओं के भी उल्लेख है। उदाहरण के रूप में जब संसारी जीवों के भेदों की चर्चा आई, तो कहा गया है कि संसारी जीव दो प्रकार के होते हैं- संयत और असंयत। पुनः संयत दो प्रकार के हैं- प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत। पुनः जब यह पूछा गया कि प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत अवस्था का काल कितना होता है? तो उत्तर में कहा गया कि प्रमत्तसंयत अवस्था का काल जघन्य में एक समय और उत्कृष्ट में कुछ कम पूर्वकोटि है। इसीप्रकार जब यह पूछा गया कि अप्रमत्तसंयत अवस्था का काल कितना है? तो यह कहा गया कि अप्रमत्तसंयत अवस्था का काल जघन्य में अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट में देशोनपूर्वकोटि है। इसी प्रकार जब यह पूछा गया कि जीव विरत होते हैं या अविरत होते हैं? या विरताविरत होते हैं? उत्तर में कहा गया कि विरत भी होते हैं, विरताविरत भी होते हैं और अविरत भी होते हैं। __ भगवतीसूत्र में विरत अथवा संयत पद के प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत-ऐसे दोनों विभाग भी उपलब्ध हैं। (म. १/१/३४) प्रस्तुत सूत्र में लेश्याओं के सन्दर्भ में प्रमतसंयत और अप्रमत्तसंयत की चर्चा हुई है। इसी क्रम में भगवतीसूत्र में यह भी चर्चा आई है कि स्वआरंभ, परआरंभ और तदुभयआरंभ में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत के कौन-से आरंभ स्थान होते हैं? वहाँ यह कहा गया है कि अप्रमत्तसंयत; स्वआरंभ, परआरंभ और तदुभयआरंभ से रहित होते हैं। प्रमत्तसंयत भी अशुभ योग रूप स्वआरंभ, परआरंभ और तदुभयआरंभ करते हैं, किन्तु शुभ योग रूप स्वआरंभ, परआरंभ और तदुभयआरंभ नहीं करते हैं। भगवतीसूत्र में प्रथम शतक में मनुष्यों का वर्गीकरण करते हुए सर्वप्रथम यह कहा गया है कि वे मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि होते है। पुनः सम्यग्दृष्टि के तीन विभाग किए गए हैं- असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयतसम्यग्दृष्टि और संयतसम्यग्दृष्टि। पुनः संयमो के दो विभाग किए गए हैं -सराग संयम और वीतराग संयम। पुनः सरागसंयम के दो विभाग किए गए हैं-प्र अप्रमत्त संयम। इसप्रकार हम देखते हैं कि भगवतीसूत्र में मनुष्यों की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि या Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{33} असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयतसम्यग्दृष्टि, संयतसम्यग्दृष्टि, सरागसंयमदृष्टि, वीतरागसंयमसम्यग्दृष्टि, प्रमत्तसंयतसम्यग्दृष्टि, अप्रमत्तसंयतसम्यग्दृष्टि- इन अवस्थाओं का चित्रण हुआ है, किन्तु यह समग्र चित्रण गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित है, यह कहना कठिन है, क्योंकि यह समस्त चर्चा क्रियास्थानों को लेकर की गई है। (१/२/६७) इन सब अवस्थाओं के चित्रण में कहीं भी न तो गुणस्थानों के स्वरूप की दृष्टि से कोई चर्चा है, न ही कर्म के बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा, बन्ध-विच्छेद, क्षय आदि को लेकर कोई चर्चा की गई है। अतः इन अवस्थाओं को गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित कहना कठिन है। भगवतीसूत्र में हमें नवें शतक के ४६ वें एवं ६८वें सूत्र में अपूर्वकरण शब्द उपलब्ध होता है, किन्तु दोनों ही स्थान पर अपूर्वकरण का सम्बन्ध तीन करणों से ही सम्बन्धित प्रतीत होता है। वहाँ कहा गया है कि प्रशस्त अध्यवसायों के वृद्धिगत होते हुए सर्वप्रथम अनन्त, नरकभव ग्रहण करने सम्बन्धी कर्मों की विसंयोजना करता है। अनन्त, तिर्यंच योनि के भव ग्रहण करने की विसंयोजना करता है। अनन्त, मनुष्य योनि के भव ग्रहण करने की विसंयोजना करता है। अनन्त, देव योनि के भव ग्रहण करने की विसंयोजना करता है। इस प्रकार के नारकी, तिर्यंच, मनुष्य और देवगति सम्बन्धी उत्तर प्रकृतिओं की विसंयोजना करता हुआ अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ का, तत्पश्चात् अप्रत्याख्यानीय क्रोध, मान, माया लोभ का, उसके बाद प्रत्याख्यानीय क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षय करता है। उसके पश्चात् संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षय करता है। पांच ज्ञानावरण, नौ प्रकार के दर्शनावरण का क्षय करता है, फिर पांच प्रकार के अन्तराय कर्म का क्षय करता है। इसप्रकार से मोहनीय आदि कर्मरज को विकीर्ण करता हुआ अपूर्वकरण में अनुप्रविष्ट होता है और फिर अनन्त, अनुत्तर, निर्बाध, निरावरण, प्रतिकूल केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त करता है। यद्यपि यहाँ कर्मप्रकृतियों के क्षय की चर्चा है, लेकिन यहाँ केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्राप्ति के पूर्व अपूर्वकरण में प्रविष्ट होने की बात कही गई है। अतः इसका सम्बन्ध किसी प्रकार से गुणश्रेणियों के साथ जोड़ा जा सकता है, किन्तु गुणस्थान सिद्धान्त के साथ नहीं जोड़ा जा सकता है। ज्ञानावरण आदि कर्मों का क्षय करने के बाद अपूर्वकरण में प्रविष्ट होने की बात समुचित नहीं लगती है, क्योंकि गुणस्थान सिद्धान्त में अपूर्वकरण संज्वलन कषायों के तथा ज्ञानावरण आदि के उदय और सत्ता में रहने पर ही होता है। पुनः भगवतीसूत्र में ४१ वें शतक के ८४ वें सूत्र में अपूर्व शब्द आया है, किन्तु वहाँ इस शब्द का प्रयोग भगवान के वचन की अपूर्वता को बताने के लिए किया गया है, अतः इसका सम्बन्ध गुणस्थान सिद्धान्त से नहीं है। भगवतीसूत्र के २५ वें शतक के ६०६३ सूत्र में अनियट्टि शब्द उपलब्ध होता है, किन्तु यहाँ इस शब्द का प्रयोग शुक्लध्यान के तृतीय पद अनिवृत्तसूक्ष्मक्रिया के अर्थ में हुआ है। अतः इस शब्द का सम्बन्ध अनिवृत्तिकरण गुणस्थान से नहीं है। भगवतीसूत्र में अनेक स्थलों पर सूक्ष्मसंपराय शब्द उपलब्ध होता है। सर्वप्रथम आठवें शतक के १४३ वें सूत्र में चारित्रलब्धि की चर्चा करते हुए सूक्ष्मसंपराय चारित्रलब्धि का प्रयोग हुआ है। उसके पश्चात् २५ वें शतक के ३०४ और ३०६ वें सूत्र में पुलाक चारित्र वाले को कौन-कौन से चारित्र होते हैं और कौन-कौन से चारित्र नहीं होते हैं, इसकी चर्चा में यह बताया गया है कि पुलाक चारित्र वाले मुनि को सूक्ष्मसंपराय चारित्र नहीं होता है। इसीप्रकार जब कषाय कुशील चारित्र के बारे में पूछा गया तो उसके उत्तर में कहा गया है कि कषाय कुशील चारित्रवाले को सूक्ष्मसंपराय चारित्र होता है, किन्तु आगे यह बताया गया है कि निग्रंथ चारित्रवाले को सूक्ष्मसंपराय चारित्र नहीं होता है। इसी २५ वें शतक में आगे पाँच प्रकार के संयतों की चर्चा करते हुए सूक्ष्मसंपराय का उल्लेख हुआ है, और उसमें आगे यह भी बताया है कि सूक्ष्मसंपराय संयत दो प्रकार के होते हैंसंकिलश्यमान सूक्ष्मसंपराय संयत और विशुद्धमान सूक्ष्मसंपराय संयत। पुनः वेद-पद की चर्चा में यह कहा गया है कि सूक्ष्मसंपराय चारित्र वाला मुनि सवेद होता है। इसीप्रकार राग-पद की चर्चा में यह कहा गया है कि सूक्ष्मसंपराय संयत सराग होता है। इसप्रकार भगवतीसूत्र में पाँच प्रकार के निग्रंथ और पाँच प्रकार के चारित्र को लेकर जो चर्चा हुई है, उसमें सूक्ष्मसंपराय चारित्र और सूक्ष्मसंपराय संयत-इन दो रूपों में, सूक्ष्मसंपराय शब्द का अनेकशः प्रयोग हुआ है। इस चर्चा में संयमपद, पर्यायपद, योगपद, उपयोगपद, कषायपद, लेश्यापद, परिणामपद, बन्धपद, वेदनापद, उदीरणापद, संज्ञापद, आहारपद, कालपद, अन्तरपद, समुद्घातपद, Jain Education Intemational Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... द्वितीय अध्याय....{34} भावपद, अल्पबहुत्वपद आदि में सूक्ष्मसंपराय शब्द का उल्लेख हुआ है। ये सभी उल्लेख सूक्ष्मसंपराय चारित्रवर्ती आत्मा में कषाय, लेश्या, परिणाम, कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय आदि की क्या स्थिति होती है, इसकी चर्चा से सम्बन्धित है। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान की चर्चा में भी ये सभी प्रश्न उठाए जाते हैं, किन्तु जहाँ तक भगवतीसूत्र का प्रश्न है सूक्ष्मसंपराय का यह उल्लेख सूक्ष्मसंपराय चारित्र के ही सम्बन्ध में है। इस समग्र विवेचन में कहीं भी गुणस्थान शब्द का कोई उल्लेख नहीं है। यदि यह चर्चा गुणस्थान से सम्बन्धित होती, तो कहीं भी गुणस्थान शब्द का प्रयोग अवश्य होता । इसीप्रकार हमारी दृष्टि में भगवतीसूत्र में आए सूक्ष्मसंप शब्द, सूक्ष्मसंपराय चारित्र से ही सम्बन्धित प्रतीत होते हैं और इस चर्चा में लेश्या, कषाय आदि का अवतरण भी सूक्ष्मसंपराय चारित्र को लेकर ही हुआ है। स्थान सिद्धान्त में ग्यारहवाँ गुणस्थान उपशान्तमोह के नाम से और बारहवाँ गुणस्थान क्षीणमोह के नाम से जाना जाता । भगवतीसूत्र में उपशान्तमोह और क्षीणमोह शब्द का प्रयोग तो केवल एक ही बार हुआ है, किन्तु उपशान्त एवं क्षीण शब्द का प्रयोग अनेक बार हुआ है। यहाँ यह विचार करना आवश्यक है कि भगवतीसूत्र में प्रयुक्त उपशान्तमोह शब्द एवं क्षीणमोह शब्द, उपशान्तमोह गुणस्थान एवं क्षीणमोह गुणस्थान के वाचक हैं या नहीं? पाँचवें शतक के १०७ वें सूत्र में यह प्रश्न पूछा गया है अनुत्तरविभाग के देव उदीरणमोह है या उपशान्तमोह है या क्षीणमोह है ? इसके उत्तर में भगवान ने कहा है- गौतम, वे न तो उदीरणमोह है और न ही क्षीणमोह है, अपितु उपशान्तमोह है । यहाँ हम देखते हैं कि भगवतीसूत्र का यह समग्र प्रसंग अनुत्तरविभाग के देवों के सन्दर्भ में है । अतः वहाँ उपशान्तमोह एवं क्षीणमोह अवस्थाओं का उल्लेख किया गया हैं, जो गुणस्थान की दृष्टि से नहीं है । पुनः यहाँ केवल उपशान्तमोह और क्षीणमोह शब्द का प्रयोग ही नहीं हुआ है, उदीरणमोह का भी प्रयोग हुआ इससे यह प्रसंग गुणस्थान से सम्बन्धित प्रतीत नहीं होता है। भगवतीसूत्र में अन्यत्र भी उपशान्त और क्षीण शब्द का प्रयोग हुआ है, वह सामान्यरूप से उपशान्त एवं क्षीण स्थितियों का ही सूचक है। कर्मप्रकृतियों के सन्दर्भ में भी इस चर्चा में उनके उपशान्त एवं क्षीण होने का ही उल्लेख आया है। अतः उपशान्त और क्षीण शब्द गुणस्थानवाची प्रतीत नहीं होता है। भगवतीसूत्र में सयोगी और अयोगी शब्दों के उल्लेख अनेक स्थलों पर उपलब्ध होते हैं, किन्तु यहाँ सयोगी और अयोगी शब्द क्रमशः उन जीवों के लिए प्रयुक्त हुए हैं, जिनमें मन, वचन और काया की प्रवृत्ति होती है और जिनमें मन, वचन और काया की प्रवृत्ति नहीं होती है। अतः सयोगी और अयोगी शब्द का सम्बन्ध गुणस्थान से प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि गुणस्थानों में सयोगीकेवली और अयोगीकेवली- ये दो अवस्थाएं होती हैं । हमें भगवतीसूत्र में कहीं सयोगीकेवली और अयोगीकेवली के प्रयोग उपलब्ध नहीं हुए हैं। भगवतीसूत्र में सयोगी और अयोगी शब्द का प्रयोग उनके सामान्य अर्थ में ही हुआ है। उदाहरण के लिए भगवतीसूत्र के छठे शतक के ४७ वें सूत्र में ज्ञानावरणीय कर्म का वेध नहीं होता है। इसी प्रकार आठवें शतक के १७६ वें सूत्र में ज्ञानी और अज्ञानी की चर्चा के प्रसंग में यह प्रश्न उठाया गया है कि सयोगी में कितने ज्ञान होते हैं? इसके उत्तर में कहा गया है कि काययोग की चर्चा के समान ही सयोगी में पाँच ज्ञान और तीन अज्ञान होते हैं । इसीप्रकार पाँच ज्ञानों की चर्चा में भी यह बताया गया है कि सयोगी में मति आदि पाँचों ज्ञान पाए जाते हैं। अयोगी में मात्र केवलज्ञान होता है। इसीप्रकार नवें शतक में असोच्चा केवली सयोगी होते हैं। इसी क्रम में संज्ञाओं की चर्चा लेकर यह कहा गया है कि सयोगी संज्ञी और असंज्ञी दोनों ही होते हैं, किन्तु अयोगी जीव न संज्ञी होते हैं और न असंज्ञी होते हैं । इसीप्रकार २५ वें शतक में पाँच प्रकार के निर्ग्रथ की चर्चा में लाक सयोगी होता है, अयोगी नहीं होता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवतीसूत्र में जहाँ भी, जिस-जिस सन्दर्भ में, सयोगी और अयोगी की चर्चा आई है, वहाँ उसका सम्बन्ध मन, वचन, काया की प्रवृत्ति से युक्त अथवा मन, वचन, काया की प्रवृत्ति से रहित सामान्य जीवों की चर्चा के प्रसंग में ही इन शब्दों का प्रयोग हुआ है । फलतः निष्कर्ष यह निकलता है कि भगवतीसूत्र में सयोगी और अयोगी की जो चर्चा है, उसका सम्बन्ध सयोगी केवली गुणस्थान और अयोगी केवली गुणस्थान से नहीं है। इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवतीसूत्र में गुणस्थान सूचक अनेक शब्द पाए जाते हैं, किन्तु इसमें उन शब्दों का प्रयोग अपने सामान्य अर्थ में ही हुआ है, गुणस्थानों के अर्थ में नहीं हुआ है। सम्पूर्ण ग्रन्थ में मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि, Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय....{35} विरताविरत, विरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगी और अयोगी आदि जो शब्द उपलब्ध होते हैं, वे उन अवस्थाओं के सूचक हैं किन्तु गुणस्थान के सूचक नहीं हैं। सम्पूर्ण ग्रन्थ में हमें कहीं भी न तो स्वतन्त्ररूप से और न इन अवस्थाओं के साथ गुणस्थान शब्द का प्रयोग मिला है। अतः यह निर्णय करना कठिन है कि भगवतीसूत्र में गुणस्थान के परिचायक कुछ शब्दों को देखकर यह कल्पना कर ली जाए कि भगवतीसूत्र में गुणस्थानों का विवेचन है। हमारी दृष्टि में ऐसा मानना दूर की कौड़ी लेने के समान ही होगा। ६. ज्ञाताधर्मकथा और गुणस्थान :____ अंग-आगमों में ज्ञाताधर्मकथासूत्र को छठे अंगसूत्र के रूप में स्वीकार किया गया है। इसके नाम से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि इसमें ज्ञातृवंशीय भगवान महावीर द्वारा कही हुई धर्मकथाएँ हैं। वर्तमान में ज्ञाताधर्मकथासूत्र के दो श्रुतस्कंध मिलते हैं, किन्तु प्राचीन उल्लेखों में इसके एक श्रुतस्कंध और उन्नीस अध्यायों का उल्लेख उपलब्ध होता है। इन कथाओं में अधिकांश कथाएँ शिक्षा की दृष्टि से ही कही गई हैं। इन कथाओं को कहने का मुख्य लक्ष्य यह है कि साधक इन कथाओं के माध्यम से जीवन में कुछ शिक्षाएँ ग्रहण करें। अनेक ग्रन्थों के अन्त में तो भगवान महावीर ने स्वयं ही कथा के हार्द को स्पष्ट करते हुए यह बताया है कि इस कथा से साधक को क्या शिक्षा लेनी चाहिए। उदाहरण के रूप में मयूर के अंडे सम्बन्धी कथा से यह शिक्षा मिलती है कि दृढ़ आस्था और विश्वास से जो काम किए जाते हैं, वे फलदायक होते हैं, और शंका से युक्त व्यक्ति के यत्न निष्फल हो जाते हैं। कछुए के दृष्टान्त से यह समझाया गया है कि इन्द्रिय के विषयों की ओर भागनेवाला व्यक्ति विनाश या मृत्यु को प्राप्त होता है, जबकि जो व्यक्ति अपनी इन्द्रियों को वश में रखता है, वह अपने संयमी जीवन की रक्षा करने में समर्थ होता है । तुम्बे के दृष्टान्त से यह समझाया गया है कि आत्मा कर्म से भारी और हल्की होकर किस प्रकार संसाररूपी समुद्र में डूबती और तैरती है। मेघकुमार की कथा यह बताती है कि व्यक्ति को छोटी-छोटी आपदाओं में विचलित नहीं होना चाहिए। द्रौपदी की कथा निदान के कटु परिणामों की चर्चा करती है, तो भगवान मल्लिनाथ की कथा सांसारिक भोगों की निःसारता और शरीर की अशुचिता को प्रकट करती है। इसप्रकार यह कथाग्रन्थ भगवान महावीर द्वारा कही गई शिक्षाप्रद कथाओं का एक संकलन है। यह एक प्राचीन ग्रन्थ है। इसका उल्लेख श्वेताम्बर और दिगम्बर-दोनों परम्पराओं में मिलता है। प्रस्तुत प्रसंग में हमारा मुख्य प्रयोजन तो गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी अवधारणा की खोज करना है, इसीलिए ज्ञाताधर्मकथासूत्र की विषयवस्तु के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा नहीं करते हुए, केवल यह देखने का प्रयास करेंगे कि इस ग्रन्थ में गुणस्थान सम्बन्धी कोई संकेत उपलब्ध है या नहीं? ज्ञाताधर्मकथा में विरत, अविरत, प्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण, उपशान्त, क्षीण-ऐसे कुछ शब्द मिलते हैं, जिन्हें देखकर . सामान्य बुद्धि यह कल्पना कर सकता है कि ज्ञाताधर्मकथा में गुणस्थानों की कोई चर्चा रही हुई है, किन्तु ज्ञाताधर्मकथा में प्रयुक्त इन शब्दों से सम्बन्धित स्थलों का अवलोकन करने पर हमें यह ज्ञात होता है कि उससे ये शब्द अपने सामान्य अर्थ में ही प्रयुक्त है, गुणस्थानों के सन्दर्भ में नहीं। उदाहरण के रूप में प्रथम मेघकुमार नामक अध्ययन में जो उवसंत शब्द आया है, वह दावानल के शांत हो जाने के सन्दर्भ में है, न कि उपशान्त मोह के अर्थ में । ज्ञाताधर्मकथा के चौदहवें तैतली पुत्र नामक अध्ययन में प्रयुक्त अपूर्वकरण शब्द ऐसा है, जो अपने सन्दर्भ के आधार पर प्रथम दृष्टि में गुणस्थान से सम्बन्धित प्रतीत होता है। यह कहा गया है कि उस तैतलीपुत्र नामक अणगार के शुभ परिणामों और प्रशस्त अध्यवसायों से आत्मविशुद्धि करते हुए आवरणीय कर्मों के क्षयोपशम द्वारा कर्मरज से रहित होकर अपूर्वकरण में प्रवेश करके केवलज्ञान तथा केवलदर्शन को प्राप्त हुआ। यहाँ भी हम देखते हैं कि अपूर्वकरण शब्द का यह प्रयोग भगवती के समान ही केवलज्ञान और केवलदर्शन के उत्पन्न होने कि पूर्व अवस्था के रूप में किया गया है। इसप्रकार इसका सम्बन्ध गुणश्रेणियों में किए जाने वाले तीन करणों से ही प्रतीत होता है, यह गुणस्थान की अवधारणा का सूचक नहीं है। पुनः सम्पूर्ण ज्ञाताधर्मकथा में न तो स्वतन्त्र रूप से और न ही इन शब्दों के साथ गुणस्थान शब्द ६५ वही, भाग-३, नायाधम्मकहाओ. Jain Education Intemational Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{36} का प्रयोग देखा जाता है। अतः यह निर्णय करना कठिन है कि ज्ञाताधर्मकथा में गुणस्थान सिद्धान्त उपस्थित है। ७. उपासकदशा और गुणस्थान : अंग-आगमों में उपासकदशा का क्रम सातवाँ है। सामान्यतया आगम साहित्य का अवलोकन करने पर यह प्रतीत होता है कि सभी आगमविषय का वर्ण्यविषय मुनि आचार से ही सम्बन्धित रहा है। उपासकदशा ही मात्र एक ऐसा आगम ग्रन्थ है, जो भगवान महावीर के दस उपासकों के जीवन का विवरण प्रस्तुत करने के साथ ही उपासकों के आचार-सम्बन्ध में विस्तार से प्रकाश डालता है। इस ग्रन्थ के अध्ययन से श्रावकों की जीवनशैली का पता तो चलता ही है, किन्तु इसके साथ ही उनके आचार-सम्बन्धी व्यवस्थाओं की प्रामाणिक जानकारी भी उपलब्ध हो जाती है। उपासकदशा में श्रावक के बारह व्रतों का सम्यक् स्वरूप तो विश्लेषित है ही, इसके अतिरिक्त इसमें उन बारह व्रतों के अतिचारों अर्थात् उनमें लगनेवाले संभावित दोषों की भी चर्चा की गई है, और यह निर्देशित किया गया है कि श्रावक को उन दोषों से बचने का प्रयास करना चाहिए। बारह व्रतों की इस चर्चा के पश्चात् श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का भी इसमें उल्लेख उपलब्ध होता है। सम्पूर्ण आगम साहित्य में दशाश्रुतस्कंध को छोड़कर उपासकदशा के अतिरिक्त कहीं भी श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं का चित्रण नहीं मिलता है। इन प्रतिमाओं के चित्रण से ज्ञात होता है कि श्रावक भी, अपनी साधना में क्रमशः विकास करता हुआ, किस प्रकार श्रमण-जीवन के निकट पहुँच जाता है। इस ग्रन्थ की एक अन्य यह भी विशेषता है कि दस श्रावकों के जीवन के अन्त में उन्हें समाधिमरण स्वीकार करते हुए प्रस्तुत किया गया है। इससे यह सिद्ध होता है कि समाधिमरण श्रमण और गृहस्थ दोनों के लिए भी आचरणीय रहा है। समाधिमरण के इन प्रसंगों में श्रावकों की दृढ़ धर्मश्रद्धा का भी परिचय मिलता है। इसप्रकार आगम-साहित्य श्रावकों की धर्मसाधना से सम्बन्धित एक प्रमुख प्रस्तुत प्रसंग में हमारी गवेषणा का मुख्य विषय तो आगम साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त के बीजों की खोज करना ही है। अतः इस ग्रन्थ की विषयवस्तु की चर्चा के विस्तार में न जाकर केवल यह देखने का प्रयास करेंगे कि क्या इस आगमग्रन्थ में गुणस्थान सम्बन्धी कोई संकेत उपलब्ध है। गुणस्थान सिद्धान्त की अपेक्षा से ये सभी उपासक संयतासंयत या देशविरति गुणस्थान की कोटि में माने जाते हैं, फिर भी उसमें कहीं भी गुणस्थान की अपेक्षा से उनके पद को सूचित नहीं किया गया है। ८. अन्तकृतदशा और गुणस्थान : अंग-आगमों में अन्तकृत्दशा आठवाँ अंग-आगम है। अन्तकृत् शब्द का तात्पर्य है कि जिन साधकों ने अपने जीवन के अन्तिम क्षणों में कैवल्य और मुक्ति की प्राप्ति की हो, वे अन्तकृत् कहे जाते हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ में भगवान अरिष्टनेमी और भगवान महावीर के शासन के ऐसे ही साधकों के जीवन का चित्रण है। वर्तमान में उपलब्ध अन्तकृत्दशा में आठ वर्ग और नब्बे अध्याय है, किन्तु स्थानांगसूत्र में जहाँ दस दशाओं का विवेचन है, वहीं अन्तकृत्दशा के मात्र दस अध्ययन ही कहे गए हैं। इस ग्रन्थ में मुख्यरूप से वासुदेव-कृष्ण के परिवार के अनेक व्यक्तियों द्वारा, दीक्षा ग्रहण कर, मोक्ष प्राप्ति के उल्लेख हैं। इस प्रसंग में उनके लघुभ्राता गजसुकुमाल की क्षमाभावना का चित्रण अत्यन्त मार्मिक है। भगवान महावीर के शासन में दीक्षित साधकों में अर्जुनमाली, एवंताकुमार और राजा श्रेणिक की पत्नियों की तपसाधना सम्बन्धी विवरण भी प्रेरणादायक है। वैसे ये सम्पूर्ण ग्रन्थ कथा एवं चरित्र-चित्रण से युक्त हैं, किन्तु इसमें तपसाधना आदि का भी विस्तृत विवरण उपलब्ध हो जाता है। यहाँ हमारा विवेच्य विषय तो इस आगम ग्रन्थ में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कोई संकेत या विवरण की खोज करना ही है। इसीलिए आगे हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कोई विचारणा है या नहीं? जहाँ तक अन्तकृत्दशा का प्रश्न है, उसके तृतीय वर्ग के गजसुकुमाल नामक अष्टम अध्ययन में अपूर्वकरण का उल्लेख हुआ है। वहाँ यह कहा गया है कि उन गजसुकुमाल अणगार ने उस कठिन वेदना को समभावपूर्वक सहन करते हुए, शुभ परिणामों ८६ वही, भाग-३, उवासगदसाओ ८७ वही, भाग-३, अन्तगडदसाओ. Jain Education Intemational nterational Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{37) और प्रशस्त अध्यवसायों के द्वारा आवरणीय कर्मों को क्षय करके और कर्मरज की विशुद्धि करते हुए अपूर्वकरण में अनुप्रविष्ट होकर, अनन्त, अनुत्तर, निराबाध, निरावरण, सम्पूर्ण-ऐसे श्रेष्ठ केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त किया। अन्त में सर्व दुःखों का अन्त करके मुक्ति को प्राप्त किया। यह विवरण आंशिक रूप से ज्ञाताधर्मकथा के तैतलीपुत्र नामक अध्ययन से समानता रखता है। उसके समान यहाँ भी यह कहा गया है कि गजसुकुमाल अणगार ने अपूर्वकरण में प्रविष्ट होकर केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त किया। हमारी दृष्टि में यहाँ अपूर्वकरण शब्द अपूर्वकरण गुणस्थान से सम्बन्धित प्रतीत न होकर तीन करणों में दूसरे अपूर्वकरण से सम्बन्धित प्रतीत होता है। इसे गुणस्थान से सम्बन्धित करने में कठिनाई यह है कि वहाँ अपूर्वकरण के पश्चात् सीधे ही केवलज्ञान और केवलदर्शन की प्राप्ति की बात कही गई है। यदि इस अपूर्वकरण शब्द का सम्बन्ध गुणस्थान सिद्धान्त के साथ होता तो फिर मध्यवर्ती अवस्थाओं का भी उल्लेख होना था। अंग-आगमों में ज्ञाताधर्मकथा के पश्चात् प्रश्नव्याकरणदशा ही एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें कुछ ऐसे शब्द है, जिन्हें प्रथम दृष्ट्या गुणस्थान से सम्बन्धित माना जा सकता है। ९. अनुत्तरोपपातिकसूत्र" और गुणस्थान : ___अंग-आगमों में अनुत्तरोपपातिकसूत्र का क्रम नवाँ है। इस आगम ग्रन्थ में मुख्य रूप से उन आत्माओं के जीवन चरित्र का वर्णन किया गया है, जिन्होंने इस जीवन में अपनी साधना के द्वारा अनुत्तरविमान में जन्म लिया है और वहाँ से एक मनुष्यभव करके वे मुक्त होनेवाले हैं। स्थानांगसूत्र में अनुत्तरोपपातिकदशा के दस अध्ययनों का उल्लेख है। वे निम्न है - (१) ऋषिदास (२) धन्य (३) सुनक्षत्र (४) कार्तिक (५) संस्थान (६) शालिभद्र (७) आनंद (८) तैतली (६) दशार्णभद्र और (१०) अतिमुक्तक, किन्तु वर्तमान में अनुत्तरोपपातिकदशा के तीन वर्ग हैं; जिसके प्रथम वर्ग में दस, द्वितीय वर्ग में तेरह और तृतीय वर्ग में दस, इसप्रकार तैतीस अध्ययन है । इसप्रकार स्थानांग आदि में अनुत्तरोपपातिकदशा की जो विषयवस्तु वर्णित है, उससे उपलब्ध विषयवस्तु में अन्तर प्रतीत होता है, यद्यपि इसके तृतीय वर्ग में अध्यायों के जो नाम दिए गए हैं, उसमें कुछ का साम्य प्राचीन विषयवस्तु से है, जैसे ऋषिदास, धन्य, सुनक्षत्र। जहाँ तक इसमें वर्णित व्यक्तित्वों का प्रश्न है, उनमें से अधिक जैन परम्परा में सुविस्तृत है, जैसे धन्ना, शालिभद्र, अभयकुमार आदि। वर्तमान में प्रस्तुत ग्रन्थ की विषयवस्तु के अध्ययन का हमारा मुख्य प्रयोजन तो गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा की खोज करना है, अतः हम इन महान् व्यक्तियों के चरित्रों का चित्रण न कर आगे हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि इस अंग-आगम में गुणस्थान की अवधारणा के कुछ संकेत उपलब्ध हैं या नहीं? १०. प्रश्नव्याकरणसूत्र और गुणस्थान : - अंग-आगमों में दसवाँ स्थान प्रश्नव्याकरणसूत्र का है। स्थानांगसूत्र में प्रश्नव्याकरणसूत्र की विषयवस्तु का निर्देश करते हुए उसके दस अध्यायों का उल्लेख है। यद्यपि वर्तमान प्रश्नव्याकरणसूत्र में भी दस ही अध्याय हैं, किन्तु इन अध्यायों के नाम स्थानांग, समवायांग और नंदीसूत्र में वर्णित नामों से सर्वथा भिन्न है। वर्तमान में इसमें इसके दो श्रुतस्कंध है। प्रथम श्रुतस्कंध के पाँच अध्याय है- हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह। दूसरे श्रुतस्कंध में भी पाँच ही अध्याय हैं - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। इसी आधार पर प्रथम श्रुतस्कन्ध को आश्रवद्वार और द्वितीय श्रुतस्कन्ध को संवरद्वार में कहा गया है। प्रश्नव्याकरणसूत्र की विषयवस्तु में कैसे, कब और कितना परिवर्तन हुआ है, इस प्रश्न को लेकर डॉ. सागरमल जैन ने अपने लेख 'प्रश्नव्याकरणसूत्र की प्राचीन विषयवस्तु' में विस्तार से चर्चा की है। उनके अनुसार उपलब्ध ऋषिभाषित, उत्तराध्ययन आदि की विषयवस्तु ही प्रश्नव्याकरणसूत्र की विषयवस्तु रही है, किन्तु हम यहाँ इस विवाद में पड़ना नहीं चाहते। हमारा मुख्य प्रयोजन तो प्रश्नव्याकरणसूत्र की उपलब्ध विषयवस्तु में गुणस्थान की अवधारणा की खोज करना है, इसीलिए हम तो उपलब्ध विषयवस्तु को आधार मानकर ही इस सम्बन्ध में खोज करेंगे। वर्तमान में प्रश्नव्याकरणसूत्र की जो विषयवस्तु आस्रव और संवरद्वार के रूप में ८८ वही, भाग-३, अनुत्तरोववाई ८६ वही, भाग-३, पण्हावागरणाओ. Jain Education Intemational Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... द्वितीय अध्याय........{38} वर्णित है, उसमें हिंसा-अहिंसा, सत्य-असत्य, स्तेय-अस्तेय, ब्रह्मचर्य-अब्रह्मचर्य, परिग्रह-अपरिग्रह को लेकर सूक्ष्म विवेचनाएँ उपलब्ध होती हैं। इस ग्रन्थ में इनके स्वरूप को जितनी गम्भीरता और विस्तार से समझाया गया है वह अत्यन्त महत्वपूर्ण है, किन्तु हमारा प्रयोजन तो केवल यह खोजना है कि गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा या उसके बीज, आगम साहित्य में कहाँ और किस रूप में मिलते हैं? अतः आगे हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि उपलब्ध प्रश्नव्याकरणसूत्र की विषयवस्तु में गुणस्थान की अवधारणा के कोई संकेत हैं या नहीं? प्रश्नव्याकरणसूत्र में हमें मिथ्यादृष्टि, अविरत, विरत (संयत), प्रमत्त, अप्रमत्त ऐसे कुछ शब्द उपलब्ध होते हैं, किन्तु जिन संदर्भो में ये शब्द प्रयुक्त किए जाते हैं, वे सभी सन्दर्भ सामान्य रूप से इन अवस्थाओं के सूचक हैं। उनका सम्बन्ध गुणस्थानों से प्रतीत नहीं होता है। इस सम्पूर्ण ग्रन्थ में कहीं भी गुणस्थान शब्द या गुणस्थान से सम्बन्धित विवरण उपलब्ध नहीं है। अतः मिथ्यादृष्टि आदि जो शब्द यहाँ प्रयुक्त हुए हैं, वे गुणस्थान से सम्बन्धित नहीं माने जाते हैं। ११. विपाकसूत्र और गुणस्थान : अंग-आगम में ग्यारहवाँ अंग आगम-विपाकसूत्र है। स्थानांगसूत्र में इसका जो परिचय मिलता है, उसके अनुसार इसमें दस अध्ययनों का उल्लेख है, किन्तु वर्तमान में जो विपाकसूत्र उपलब्ध है, उसमें दो श्रुतस्कंध है और दोनों में ही दस-दस अध्ययन उपलब्ध होते हैं। इसके नाम से ही स्पष्ट है कि यह आगम व्यक्ति के शुभाशुभ कर्मों के विपाक से सम्बन्धित है, किन्तु विपाक की इस चर्चा में प्रस्तुत ग्रन्थ में कुछ कथाएँ दी गई है। प्रथम श्रुतस्कंध में दुःखविपाक में जो दस अध्ययन मिलते हैं, वे यह बताते हैं कि व्यक्ति के द्वारा किए गए पापों का परिणाम किस प्रकार का होता है। दुःखविपाक श्रुतस्कंध में जो दस अध्ययन उपलब्ध होते हैं, उनमें स्थानांग के वर्णित दस अध्ययनों से, चाहे नामों के रूप में समानता न हो, किन्तु उनकी कथावस्तु में लगभग समानता प्रतीत होती है। दुःखविपाक के दस अध्ययनों में जो नामभेद हैं, उनका सम्बन्ध उन्हीं व्यक्तियों के पूर्वभव से रहा हुआ है। इस सम्बन्ध में आचार्य श्री जयन्तसेनसूरिजी लिखते हैं कि “स्थानांगसूत्र में वर्णित दस नामों में और वर्तमान में उपलब्ध नामों में जो नामभेद हैं, उसका कारण मात्र वाचना अन्तर है।" विपाकसूत्र के दूसरे श्रुतस्कंध में उन दस व्यक्तियों के जीवन का वर्णन है, जिन्होंने पूर्वजन्म में शुभ कार्य किए और फलस्वरूप उन्हें दूसरे जीवन में अनुकूल सुखद परिस्थितियाँ प्राप्त हुई। इसप्रकार प्रस्तुत आगम ग्रन्थ, पापकर्मों और पुण्यकर्मों का फल क्रमशः दुःखद और सुखद रूप में प्राप्त होता है, इसकी चर्चा करता है। इस आगम ग्रन्थ के प्रारम्भ में सुधर्मास्वामी और इनके शिष्य जम्बूस्वामी का भी विस्तृत परिचय उपलब्ध होता है, किन्तु ये सभी विवरण कथात्मक है, सैद्धान्तिक नहीं है। हमारा मुख्य उद्देश्य तो प्रस्तुत आगम में गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा की खोज करना है, इसीलिए हम इन कथाओं की विस्तृत चर्चा में न जाकर यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि प्रस्तुत आगम में कहीं गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित विवरण या संकेत उपलब्ध होते हैं या नहीं? प्रश्नव्याकरणसूत्र के पश्चात् अंग-आगमों में अन्तिम विपाकसूत्र का क्रम आता है। विपाकसूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के तृतीय अभंगसेन नामक अध्ययन में प्रमत्त शब्द का उल्लेख है, किन्तु यहाँ केवल यह बताया गया है कि वह विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का भोग करते हुए प्रमत्त रूप में विचरण करता था। इससे स्पष्ट है कि यहाँ प्रमत्त शब्द का सम्बन्ध प्रमत्तसंयत गुणस्थान से नहीं है। इस प्रकार हम देखते हैं कि अंग-आगम साहित्य में गुणस्थानों से सम्बन्धित कुंछ शब्द तो अवश्य उपलब्ध होते हैं, किन्तु वे गुणस्थानों के सूचक न होकर मात्र उन सामान्य अवस्थाओं के सूचक हैं। अंग-आगम साहित्य में कहीं भी गुणस्थान शब्द उपलब्ध नहीं है, मात्र समवायांग ही एक ऐसा अपवाद है, जिसमें हमें जीवस्थान के रूप में यथाक्रम चौदह गुणस्थानों के नाम उल्लेख प्राप्त होते हैं । ६० वही, भाग-३, विवागाओ. Jain Education Intemational Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.. द्वितीय अध्याय........{39) | उपांग आगम विभाग | १. औपपातिकसूत्र और गुणस्थान : उपांग आगम साहित्य में सर्वप्रथम स्थान औपपातिकसूत्र का है। इस उपांगसूत्र में सर्वप्रथम भगवान महावीर के संघ में रहे हुए विभिन्न मुनियों द्वारा आचरित विभिन्न तपों का वर्णन है। उसके पश्चात् इसमें विनय के भेद-प्रभेदों की चर्चा करते हुए आचार्य, उपाध्याय, स्थविर आदि के स्वरूप की चर्चा है। इसी क्रम में चार प्रकार के ध्यान, उनके लक्षण तथा आवान्तर भेद आदि का विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। उसके पश्चात् प्रत्याख्यान के स्वरूप का विवेचन है। उसके पश्चात् कोणिक के प्रति भगवान के दिए गए उपदेश और इन्द्रभूति गौतम की जिज्ञासाओं का समाधान है। उसके बाद अंबड परिव्राजकों की और सप्त निह्नवों की चर्चा है। ग्रन्थ के अन्त में सिद्धशीला और सिद्धों के स्वरूप का वर्णन है, किन्तु इस समग्र चर्चा में हमें गुणस्थान से सम्बन्धित किसी भी प्रकार का विवेचन उपलब्ध नहीं होता है। मात्र केवली समुद्घात की चर्चा एवं सयोगी और अयोगी अवस्थाओं का वर्णन ही ऐसा है, जिसे तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान के साथ सम्बन्धित माना जा सकता है, किन्तु ग्रन्थ के अवलोकन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ केवली समुद्घात और योगनिरोध आदि की चर्चा सामान्य रूप से ही प्रस्तुत की गई है, गुणस्थानों की चर्चा से उसका कोई सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता है। इसप्रकार औपपातिकसूत्र में गुणस्थान सिद्धान्त की विवेचना का अभाव है। २. राजप्रश्नीयसूत्र और गुणस्थान : उपांग-साहित्य में राजप्रश्नीय का क्रम दूसरा है। इसे सूत्रकृतांग का उपांग माना गया है। इस ग्रन्थ में पार्श्वपत्य परम्परा के आचार्य केशीश्रमण और राजा प्रसेनजित के संवाद का चित्रण किया गया है। इसमें आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए अनेक प्रमाण प्रस्तुत किए गए हैं। विद्वानों ने इसे एक प्राचीन ग्रन्थ माना है। प्रसेनजित सम्बन्धी यह कथानक राजप्रश्नीय के अतिरिक्त बौद्ध आगम-साहित्य में भी उपलब्ध होता है। इस ग्रन्थ की दूसरी विशेषता यह है कि इसमें सय री विशेषता यह है कि इसमें सूर्याभदेव की ऋद्धि एवं जीवनशैली के साथ-साथ देवविमानों की रचना का भी विस्तृत वर्णन है। इसमें सूर्याभदेव के द्वारा की जानेवाली जिनपूजा और भगवान महावीर के समक्ष उपस्थित होकर विविध नाटकों एवं नृत्य करने का वर्णन भी उपलब्ध है। विद्वानों की दृष्टि में इस ग्रन्थ के अध्ययन से न केवल मंदिर निर्माण और मूर्तिकला का बोध होता है, अपितु उस युग में प्रचलित विविध कृत्यसाधक कलाओं अर्थात् नाटक, संगीत आदि के बारे में भी विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है। इसप्रकार यह ग्रन्थ जैन परम्परा में प्रचलित विविध कलाओं का भी सुन्दर चित्रण प्रस्तुत करता है। इससे उस समय की लोकजीवन, नगररचना, समाज व्यवस्था और रीतिरिवाजों का भी भलीप्रकार से ज्ञान हो जाता है, किन्तु हमारा मुख्य प्रयोजन गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी अवधारणा की खोज तक ही सीमित होने के कारण इस ग्रन्थ की विशेषताओं के सम्बन्ध में विशेष प्रकाश डालना सम्भव नहीं है। हम तो यहाँ केवल यह जानने का प्रयत्न करेंगे कि राजप्रश्नीयसूत्र में गुणस्थान सम्बन्धी विचारणा का क्या कोई उल्लेख है। इस ग्रन्थ के अवलोकन के पश्चात् हम इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि राजप्रश्नीयसूत्र में गुणस्थान सिद्धान्त या उससे सम्बन्धित कोई भी चर्चा परिलक्षित नहीं होती है। ६१ उववाई, सं. रतनमुनिजी-श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर. ६२ रायप्पेसिणयं संपादक : रतनमुनिजी, श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राज.) Jain Education Intemational Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{40} ३. जीवाजीवाभिगमसूत्र और गुणस्थान : उपांग-साहित्य में तीसरा क्रम जीवाजीवाभिगमसूत्र का आता है। जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ जीव और अजीव द्रव्यों का विवेचन प्रस्तुत करता है। सर्वप्रथम जीवों और उनके विविध भेदों की विस्तार से चर्चा की गई है। इसी चर्चा के प्रसंग में विभिन्न नरकों, ज्योतिष्क विमानों तथा देवलोक का वर्णन आता है। तिर्यग्लोक के प्रसंग में जंबूद्वीप का विस्तृत विवरण दिया गया है। इसी क्रम में विभिन्न प्रकार के कल्पवृक्षों की भी चर्चा है। जंबूद्वीप के पश्चात् लवणसमुद्र, धातकीखंड आदि की भी चर्चा हुई है। अन्त में संसारी जीवों के प्रकारों की चर्चा के साथ-साथ उनके अल्प-बहुत्व की चर्चा है। इस समग्र चर्चा में भी सामान्यतया गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कोई चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। जहाँ आहारक और अनाहारक के अल्प-बहुत्व की चर्चा हुई है, वहाँ छद्मस्थ, केवली, सयोगीभवस्थकेवली, अयोगीभवस्थकेवली आदि का भी उल्लेख आया है, किन्तु ये सभी उल्लेख मूलतः आहारक और अनाहारक जीवों के विभिन्न भेदों तथा उनके अल्प-बहुत्व से सम्बन्धित है। इसप्रकार इस ग्रन्थ के समग्र विवेचन में भी हमें कहीं भी गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा परिलक्षित नहीं होती है। इसमें जीवों के प्रकारों की चर्चा करते हुए दो से लेकर दशविध भेदों का निरूपण किया गया है। इसके साथ ही यह ग्रन्थ समाप्त हो जाता है। जीवों के चौदह भेदों, चौदह मार्गणाओं और चौदह गुणस्थानों की कोई चर्चा इसमें उपलब्ध नहीं होती है। ४. प्रज्ञापनासूत्र" और गुणस्थान : उपांग-साहित्य में प्रज्ञापना को चतुर्थ उपांग माना गया है। यद्यपि अपने क्रम के आधार पर इसे समवायांग का उपांग माना जाता है, किन्तु यदि हम इसकी विषयवस्तु को देखें तो इसका सम्बन्ध भगवतीसूत्र से रहा हुआ है। इसमें भगवतीसूत्र के अधिकांश विषयों को क्रमबद्ध रूप से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। इस ग्रन्थ के ३६ पद हैं। प्रथम प्रज्ञापनापद में जीव और अजीव द्रव्यों के भेद-प्रभेदों का विस्तार से उल्लेख हुआ है। इसके अन्य पदों में भाषापद, शरीरपद, कषायपद, लेश्यापद, कर्मप्रकृतिपद, कर्मबन्धकपद, कर्मवेदकपद, समुद्घातपद आदि महत्वपूर्ण माने गए हैं। इसकी विषयवस्तु व्यापक है और यह उपांगों में सबसे बड़ा उपांग है। प्रस्तुत प्रसंग में हमारा उद्देश्य तो प्रज्ञापनासूत्र में गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा की चर्चा करना है, अतः हम अग्रिम पंक्तियों में इसी दृष्टि से प्रज्ञापनासूत्र की विषयवस्तु का विश्लेषण करेंगे। प्रज्ञापनासूत्र में प्रथम जीव प्रज्ञापना में आसालिया नामक जीवों का उल्लेख करते हुए यह कहा गया है कि वे असंज्ञी और मिथ्यादृष्टि होते हैं। इसीप्रकार संमूर्छिम मनुष्यों की विभक्ति करते हुए कहा गया है कि वे मिथ्यादृष्टि होते हैं। ___ प्रज्ञापनासूत्र में प्रथम जीवप्रज्ञापनापद में आर्यों की चर्चा करते हुए सर्वप्रथम उनके दो भेद बताए गए हैं- सराग दर्शन आर्य और वीतराग दर्शन आर्य। वीतराग दर्शन आर्य के दो भेद बताए हैं - उपशान्तकषाय वीतराग दर्शन आर्य और क्षीणकषाय वीतराग दर्शन आर्य। उपशान्तकषाय वीतराग दर्शन आर्य के दो भेद बताए गए हैं - प्रथम समय उपशान्तकषाय वीतराग दर्शन आर्य और अप्रथम समय उपशान्तकषाय वीतराग दर्शन आर्य, अर्थात् चरम समय उपशान्तकषाय वीतराग दर्शन आर्य और अचरम समय उपशान्तकषाय वीतराग दर्शन आर्य। क्षीणकषाय वीतराग दर्शन आर्य के भी दो भेद किए गए हैं-छद्मस्थ क्षीणकषाय वीतराग दर्शन आर्य और केवली क्षीणकषाय वीतराग दर्शन आर्य। पुनः इन दोनों के भी स्वयंसंबुद्ध और बुद्धबोधित अर्थात् प्रथम समय और अप्रथम समय अर्थात् चरम समय और अचरम समय आदि के अनेक भेद किए गए हैं। केवली क्षीणकषाय वीतराग दर्शन आर्य के दो भेद किए गए हैं -सयोगी केवली क्षीणकषाय वीतराग दर्शन आर्य और अयोगी केवली क्षीणकषाय वीतराग दर्शन आर्य। इनके भी पुनः प्रथम समय और अप्रथम समय तथा चरम समय और अचरम समय आदि के आधार पर अनेक भेद किए हैं। इसी क्रम में चारित्र आर्यों की चर्चा करते हुए सराग चारित्र आर्य और वीतराग चारित्र आर्य भेद किए गए हैं। पुनः सराग चारित्र आर्यों के ६३ जीवाजीवाभिगमसूत्र भाग -१-२, सं. राजेन्द्रमुनिजी, श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राज.) सं. २०४८. ६४ उवंगसुत्ताणि, भाग-४ पण्णावणा, वाचनाप्रमुख आचार्य तुलसी; जैन विश्वभारती लाडनूं, सं. २०४५. Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{41} दो विभाग किए गए हैं -बादरसंपराय सराग चारित्र आर्य और सूक्ष्मसंपराय सराग चारित्र आर्य। पुनः वीतराग चारित्र आर्यों के दो भेद है- उपशान्तकषाय वीतराग चारित्र आर्य और क्षीणकषाय वीतराग चारित्र आर्य। पुनः क्षीणकषाय वीतराग चारित्र आर्यों के भेद हैं- छद्मस्थ क्षीणकषाय वीतराग चारित्र आर्य और केवली क्षीणकषाय वीतराग चारित्र आर्य। पुनः केवली क्षीणकषाय वीतराग चारित्रआर्य के सयोगी केवली और अयोगी केवली-ऐसे दो भेद किए गए हैं। इस प्रकार इस चर्चा में अनिवृत्तिबादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्तकषाय (उपशान्तमोह), क्षीणकषाय (क्षीणमोह), सयोगी केवली और अयोगी केवली-इन छः अवस्थाओं के उल्लेख मिलते हैं, जो गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा में पाई जाती है। फिर भी प्रज्ञापना की यह चर्चा आर्यों की अपेक्षा से है, न कि गुणस्थानों की अपेक्षा से। पुनः प्रज्ञापनासूत्र के तीसरे अल्प-बहुत्व पद में मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि के अल्प-बहुत्व की चर्चा हुई है, किन्तु यह अल्प-बहुत्व की चर्चा इन तीनों अवस्थाओं की अपेक्षा से है, गणस्थानों की अपेक्षा से नहीं। इसी तीसरे अल्प-बहुत्व पद में यह भी बताया गया है कि तिर्यंच योनि के जीवों की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव अधिक है। मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा अविरत अधिक है। अविरत की अपेक्षा सकषायी अधिक है। सकषायी की अपेक्षा छद्मस्थ अधिक है। छद्मस्थ की अपेक्षा सयोगी अधिक है, सयोगी की अपेक्षा संसारी अधिक है। संसारी की अपेक्षा सर्व जीवराशि अधिक है। यहाँ भी मिथ्यादृष्टि, अविरत आदि का जो अल्प-बहुत्व बताया गया है, वह गुणस्थानों की अपेक्षा से प्रतीत नहीं होता है, इन अवस्थाओं की अपेक्षा से है। प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रांति पद में कौन जीव कहाँ उत्पन्न होते हैं, इसकी चर्चा है, उसमें यह कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि जीव विविध योनियों में उत्पन्न होते हैं, किन्तु सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होते हैं। पुनः इसी विवेचना में आगे यह बताया गया है कि असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयतसम्यग्दृष्टि और संयतसम्यग्दृष्टि जीव कहाँ उत्पन्न होते हैं। पुनः इसी चर्चा में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव कहाँ उत्पन्न होते हैं, इसकी भी चर्चा है। इसप्रकार इसी विवेचना में मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरतसम्यग्दृष्टि, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत-इन छः अवस्थाओं का उल्लेख उनकी व्युत्क्रांति की चर्चा में हुआ है, किन्तु इस चर्चा को सीधे गुणस्थान सिद्धान्त से जोड़ना कठिन है। प्रज्ञापनासूत्र के १३वें परिणामी पद में भी मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि- इन तीन अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है, किन्तु यह उल्लेख भी गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित प्रतीत नहीं होता है। प्रज्ञापनासूत्र के १४ वें कषायपद में उपशान्तकषाय और अन उपशान्तकषायऐसी दो अवस्थाओं का उल्लेख है, किन्तु यह उल्लेख भी गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित प्रतीत नहीं होता है। इसी क्रम में १७ वें लेश्या पद में भी मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि तथा असंयत, संयतासंयत और संयत इन तीन-तीन अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है। आगे पुनः सम्यग्दृष्टि के तीन विभाग किए गए हैं- असंयत, संयतासंयत और संयत। पुनः संयतों के विभाग किए गए हैं-प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत, किन्तु हमारी दृष्टि में यह चित्रण पूर्ववत् इन अवस्थाओं का चित्रण है, गुणस्थानों का नहीं है। यहाँ यह चर्चा लेश्या पुद्गलों के समाहार के परिप्रेक्ष्य पर की गई है। प्रज्ञापनासूत्र के १६वें सम्यक्त्व पद में यह बताया गया है कि एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के सभी जीव सम्यग्दृष्टि भी होते हैं, मिथ्यादृष्टि भी होते हैं, किन्तु सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते हैं। यहाँ पर श्यामाचार्य ने दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के सम्यग्दृष्टि होने की संभावना को भी व्यक्त किया है। यह संभावना उन्होंने किस अपेक्षा से व्यक्त की है, हमें स्पष्ट नहीं है, क्योंकि सामान्य सिद्धान्त में तो चतुरिन्द्रिय तक सभी जीवों को मिथ्यादृष्टि ही माना जाता है। आचार्यश्री का यह प्रतिपादन किस अपेक्षा से है, इसका चिन्तन करना आवश्यक है। जहाँ तक पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य और देवों का प्रश्न है, वे सम्यग्दृष्टि भी होते हैं, मिथ्यादृष्टि भी होते हैं और सम्यग्मिथ्यादृष्टि भी होते हैं। जहाँ तक सिद्ध आत्माओं का प्रश्न है, उन्हें नियम से ही सम्यग्दृष्टि माना जाता है। वे मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते हैं। इसप्रकार यहाँ गति एवं जाति की अपेक्षा से सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि-इन तीन अवस्थाओं का विचार हुआ है। प्रज्ञापना के इस प्रतिपादन में गुणस्थानों का विचार हुआ है। प्रज्ञापना के इस प्रतिपादन से गुणस्थानों की अवधारणा को नहीं जोड़ा जा सकता है। यद्यपि यह Jain Education Intemational Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.... द्वितीय अध्याय........{42} सत्य है कि मार्गणाओं में गुणस्थानों का अवतरण करते समय गतिमार्गणा और जातिमार्गणा में भी यह चर्चा आती है, किन्तु इस स्थल पर तो इसे सामान्य विवेचना के रूप में ही स्वीकार करना उचित प्रतीत होता है, क्योंकि ये चर्चा गुणस्थानों के सदंर्भ में होती तो फिर इन तीनों के अतिरिक्त अन्य गुणस्थानों की दृष्टि से भी विचार अवश्य किया होता। प्रज्ञापनासूत्र के २१ वें अवगाहन एवं संस्थान पद में यह चर्चा आई है कि आहारक शरीर किसे प्राप्त होता है। इसके उत्तर में कहा गया है कि ऋद्धि प्राप्त प्रमत्तसंयतसम्यग्दृष्टि को आहारक शरीर प्राप्त होता है। यहाँ प्रमत्तसंयत अवस्था का उल्लेख है, किन्तु इस उल्लेख को गुणस्थान से सम्बन्धित नहीं माना जा सकता है। प्रज्ञापनासूत्र के २२ वें क्रियापद में क्रियाओं की चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि संयतासंयत जीव परिग्रहिता क्रिया करते हैं। प्रमत्तसंयत जीव आरम्भक्रिया करते हैं। अप्रमत्तसंयत जीव मायावर्तिका क्रिया करते हैं। मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यादर्शनवर्तिका क्रिया करते हैं। इस प्रकार यहाँ पाँचों क्रियाओं के सन्दर्भ में मिथ्यादृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है, किन्तु इस उल्लेख को गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित कहना समुचित नहीं होगा, यह एक सामान्य चर्चा ही है। प्रज्ञापनासूत्र के २८ वें आहार पद में यह चर्चा उपलब्ध होती है कि मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत, संयतासंयत जीवों में कौन आहारक होता है और कौन अनाहारक होता है? इसके उत्तर में यह कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि जीव एकेन्द्रिय को छोड़कर आहारक भी होते हैं और अनाहारक भी होते हैं, अथवा स्यात् आहारक और स्यात् अनाहारक भी होते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव आहारक ही होते हैं, अनाहारक नहीं होते हैं। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीवों में सिद्ध अनाहारक होते हैं, शेष आहारक भी होते हैं, अनाहारक भी होते हैं, स्यात् आहारक भी होते हैं तथा स्यात् अनाहारक भी होते हैं। संयतासंयत जीव आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं होते हैं। असंयत जीव भी स्यात् आहारक और स्यात् अनाहारक होते हैं। संयत जीव भी स्यात् आहारक और स्यात् अनाहारक होते हैं। सिद्ध जीव अनाहारक होते है। इसप्रकार यहाँ उपर्युक्त छः अवस्थाओं एवं सिद्धों के सन्दर्भ में आहारक और अनाहारक का विचार हुआ है, किन्तु इस आधार पर यह कहना कठिन है कि आहारक और अनाहारक की यह चर्चा गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित नहीं है। प्रज्ञापनासूत्र के ३२ वें संयत पद में असंयत, संयतासंयत, संयत, नो-संयत, नो-असयंत और नो-संयतासंयत- ऐसी छः अवस्थाओं की चर्चा है। इस चर्चा में यह बताया गया है कि नारकी से लेकर चतुरिन्द्रिय तक सभी जीव असंयत होते हैं, पंचेन्द्रिय तिर्यंच असंयत भी होते हैं और संयतासंयत भी होते हैं, किन्तु संयत नहीं होते हैं। मनुष्य असंयत भी, संयतासंयत भी और संयत भी होते हैं। वैमानिक आदि देव असंयत ही होते हैं। सिद्ध आत्माएँ नो असंयत होती हैं, नो संयतासंयत होती हैं और नो संयत होती हैं। इस प्रकार विभिन्न गतियों एवं जातियों की अपेक्षा से यहाँ असंयत, संयतासंयत और संयत आदि की चर्चाएँ की हैं। ये चर्चाएँ सीधे रूप से गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित नहीं है। " प्रज्ञापनासूत्र के ३६वें समुद्घात पद के ६२ वें सूत्र में यह प्रश्न उठाया गया है कि क्या सयोगी सिद्ध होते है? इसके उत्तर में कहा गया है कि सयोगी सिद्ध नहीं होते हैं, अयोगी ही सिद्ध होते हैं। इसी क्रम में यहाँ योगनिरोध की प्रक्रिया भी बताई गई है, किन्तु यह योगनिरोध की प्रक्रिया भी सीधे रूप से गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित प्रतीत नहीं होती है। वैसे ही इस प्रसंग में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि यहाँ आत्मा गुणश्रेणी का अनुसरण करके किस प्रकार कर्म का क्षय करती है, इसका विवेचन किया गया है। इसमें गुणश्रेणी शब्द का स्पष्ट रूप से प्रयोग किया गया है। इस प्रकार हम देखते है कि प्रज्ञापनासूत्र में गुणस्थानों से सम्बन्धित अनेक पदों के होते हुए भी न तो गुणस्थान शब्द का प्रयोग मिलता है, न गुणस्थानों का कोई विवेचन मिलता है, किन्तु गुणश्रेणी शब्द का उल्लेख अवश्य हुआ है। अतः प्रज्ञापनासूत्र में गुणश्रेणियों की चर्चा करनेवाले आचारांग नियुक्ति को तत्त्वार्थसूत्र के समकालीन माना जाता है। ५. जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र" और गुणस्थान : उपांगसूत्रों में जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति का पाँचवाँ स्थान है। सामान्यतया इस आगम में जंबूद्वीप के स्वरूप आदि का विवेचन है और ६५ वही, जंबूदीवपन्नती. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... द्वितीय अध्याय......{43} इसके साथ-साथ विशेषरूप से ऋषभदेव और प्रथम चक्रवर्ती भरत का जीवनवृत्त वर्णित है। इस कारण से इस आगम ग्रन्थ में स्थान सिद्धान्त के विवेचन की संभावना तो अति अल्प है। फिर भी इस आगम में यत्र-तत्र जो गुणस्थान के नाम वाचक शब्द हैं, उन पर विचार कर लेना उचित होगा। जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति के दूसरे वक्षस्कार के १६ वें सूत्र में तीसरे आरे के मनुष्यों के स्वभाव आदि का विवेचन करते हुए वहाँ कहा गया है कि उस काल में मनुष्य प्रकृति से उपशान्त और अल्प क्रोध, मान, माया और लोभ वाले होते हैं। यद्यपि यहाँ उपशान्त शब्द का प्रयोग है; परन्तु वह, उपशान्तमोह गुणस्थान का वाचक न होकर उस काल के मनुष्यों के स्वभाव का वाचक है। जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति के दूसरे वक्षस्कार के ६८ वें सूत्र में भगवान ऋषभदेव के मुनि-जीवन का विवरण करते हुए उन्हें उपशान्त कहा गया है, किन्तु यहाँ उपशान्त शब्द एक सामान्य विशेषण ही है, गुणस्थान का वाचक नहीं है। इसके पश्चात् तीसरे वक्षस्कार में भरत के केवलज्ञान उत्पन्न होने सम्बन्धी विवरण को प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि उन भरतराजा ने अपने विशुद्धमान अध्यवसायों द्वारा कर्मरज का क्षय करते हुए अपूर्वकरण में प्रविष्ट होकर, अनन्त, अनुत्तर, सम्पूर्ण, निर्बाध, निरावरण, केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त किया। इसप्रकार हम देखते हैं कि ज्ञाताधर्मकथा आदि के समान ही यहाँ भी अपूर्वकरण में प्रविष्ट होकर केवलज्ञान प्राप्त करने की बात कही गई है। हमारी दृष्टि में यहाँ अपूर्वकरण शब्द अपूर्वकरण गुणस्थान का वाचक न होकर, तीन करणों में से जो दूसरा अपूर्वकरण है, उसका ही वाचक है। इसका सम्बन्ध गुणश्रेणी से ही प्रतीत होता है। इसी वक्षस्कार के २२५ वें सूत्र में यह हा गया है कि भरत केवली ने योगनिरोध करते हुए नाम, गोत्र, आयुष्य और वेदनीय कर्म का क्षय करके सिद्ध, बुद्ध, मुक्त अवस्था को प्राप्त किया। यहाँ क्षीण शब्द का प्रयोग नाम, गोत्र, आयुष्य और वेदनीय कर्म के क्षय करने के सम्बन्ध में हुआ है, न कि क्षीणमोह गुणस्थान के सम्बन्ध में । यह सत्य है कि यह अवस्था अयोगी केवली गुणस्थान की है, किन्तु यहाँ इसे गुणस्थान से सम्बन्धित करने की अपेक्षा मुक्त होने की पूर्वस्थिति का वाचक ही मानना चाहिए। इस प्रकार हम देखते है कि जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति में अपूर्वकरण, उपशान्त और क्षीण- इन तीन अवस्थाओं का चित्रण है, किन्तु इन्हें उन नामवाले गुणस्थानों से सम्बन्धित करना कठिन ही है। संक्षेप में यह कह सकते हैं कि इस ग्रन्थ में गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा का प्रायः अभाव ही है। ६. सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र " और गुणस्थान : जैन आगम साहित्य में सूर्यप्रज्ञप्ति को एक उपांगसूत्र के रूप में स्वीकार किया जाता है। इसके नाम से ही स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ में सूर्य की गति आदि के सम्बन्ध में विस्तार से विचार किया गया है। इसप्रकार इस ग्रन्थ का सम्बन्ध ज्योतिषविद्या के साथ है। इसमें न केवल सूर्य अपितु चंद्र, ग्रह, नक्षत्रों की गति आदि की भी चर्चा उपलब्ध होती है। यह ग्रन्थ जैनधर्म और दर्शन से स्पष्ट रूप से सम्बन्धित प्रतीत नहीं होता है। इसमें ऐसी अनेक मान्यताएँ भी हैं जिनकी जैनधर्म-दर्शन से संगति बिठाना कठिन प्रतीत होती है । जहाँ तक इस ग्रन्थ की विषयवस्तु की प्राचीनता का प्रश्न है, निश्चित ही यह ग्रन्थ प्राचीन स्तर का है। इसमें प्रतिपादित ज्योतिष सम्बन्धी विषय वर्तमान प्रचलित ज्योतिषशास्त्र की अपेक्षा वैदिक ज्योतिष से अधिक संगति रखते हैं । यहाँ हमारा मूलभूत प्रयोजन तो आगम साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी अवधारणा का अनुशीलन करना ही है। इस ग्रन्थ की विषयवस्तु ज्योतिष से ही सम्बन्धित है और इसका जैनधर्मदर्शन से स्पष्ट कोई सम्बन्ध नहीं है, इसीलिए इसमें गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा का अभाव स्वाभाविक है। इस ग्रन्थ में गुणस्थान सिद्धान्त के सम्बन्ध में कोई भी सूचना या संकेत उपलब्ध नहीं है। ६६ वही, सूरपन्नती. Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{44} ७. चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र और गुणस्थान : आगम साहित्य में चन्द्रप्रज्ञप्ति की गणना भी उपांग साहित्य के अन्तर्गत ही की जाती है। इसके नाम से यह स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ चन्द्र की गति आदि के सम्बन्ध में चर्चा करता है और इसप्रकार यह ग्रन्थ भी ज्योतिषविद्या से सम्बन्धित है। यद्यपि उपांग साहित्य में सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति को अलग-अलग ग्रन्थ माना गया है, किन्तु संक्षिप्त पाठभेद के अतिरिक्त इन दोनों ग्रन्थों की विषयवस्तु समान ही है। हमने पूर्व में ही यह बता दिया है कि सूर्यप्रज्ञप्ति में सूर्य के अतिरिक्त चन्द्र, ग्रह, नक्षत्रों आदि की गतियों का भी विचार है। दोनों ही ग्रन्थों का मूलपाठ समान होने के कारण हम यह कह सकते हैं कि चन्द्रप्रज्ञप्ति न केवल चन्द्र की गति का अपितु अन्य ग्रह, नक्षत्रों की गति का भी विवरण प्रस्तुत करता है। यह ग्रन्थ भी ज्योतिषविद्या से सम्बन्धित होने के कारण गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा नहीं करता है। ___ उपांगसूत्रों में जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति के पश्चात् सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, निरियावलिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा-ये सात उपांगों का क्रम आता है। इनमें सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति का सम्बन्ध मुख्यरूप से ज्योतिष से और शेष पाँच उपांगों का सम्बन्ध कथाओं से सम्बन्धित है। इन ग्रन्थों का सामान्य अवलोकन करने पर हमें गुणस्थान सम्बन्धी कोई भी विवरण उपलब्ध नहीं होता है। इसप्रकार सम्पूर्ण उपांग साहित्य में गुणस्थानों से सम्बन्धित कुछ नामों के उल्लेख के अतिरिक्त अन्य कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। सम्पूर्ण उपांग साहित्य में न तो गुणस्थान शब्द का प्रयोग मिलता है और न ही गुणस्थान सम्बन्धी विशेष विवरण उपलब्ध होता है। केवल यत्र-तत्र अपूर्वकरण आदि कुछ नाम अवश्य मिलते हैं, किन्तु उन्हें गुणस्थान सिद्धान्त की विवेचना से सम्बन्धित मानना समुचित प्रतीत नहीं होता है। ८. निरियावलिकासूत्र और गुणस्थान :उपांग साहित्य में आठवें उपांग के रूप में निरियावलिका का उल्लेख है। इसे नंदीसूत्र में कालिक आगमों के वर्ग में रखा गया है। निरियावलिका नाम से ही यह स्पष्ट है कि इस उपांगसूत्र में राजा श्रेणिक के उन दस राजकुमारों का वर्णन है, जो युद्ध करते हुए मृत्यु को प्राप्त हुए और नरक में उत्पन्न हुए। यद्यपि इन दस राजकुमारों के वर्णन के अतिरिक्त राजगृही नगर और राजा श्रेणिक तथा उसके पुत्र कोणिक का भी विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है। साथ ही यह उपांग, हार और हाथी को लेकर कोणिक और उसके अन्य दस भाईयों के मध्य हुए युद्ध का भी वर्णन करता है। जिस प्रकार हिन्दू परम्परा में भाईयों के बीच हुए महाभारत नामक युद्ध का उल्लेख मिलता है, उसी प्रकार जैन परम्परा में कोणिक और उसके अन्य भाईयों के मध्य हुए युद्ध का विवरण मिलता है, जिसमें एक करोड़ अस्सी लाख लोगों को मारे जाने का उल्लेख है। कथावस्तु चाहे कुछ भी हो किन्तु इसमें हिन्दू परम्परा की उस अवधारणा का, जो युद्ध में मारा जाता है वह स्वर्ग को प्राप्त होता है, खण्डन करते हुए यह बताया गया है कि यदि वैराग्यभाव को प्राप्त न हो, तो युद्ध में मरनेवाला व्यक्ति नरक को ही प्राप्त होता है। इस निरियावलिका उपांगसूत्र में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी अवधारणा का अभाव है। ९. कल्पावतंसिकासूत्र और गुणस्थान : कल्पावतंसिकासूत्र का स्थान उपांग साहित्य में नवाँ है। इसके नाम से स्पष्ट होता है कि इसमें कल्प अर्थात देवलोकों में उत्पन्न होनेवाली जीवात्माओं के चरित्र का वर्णन है। इसमें राजा श्रेणिक के पौत्र और कालकुमार के पद्म आदि दस पुत्रों की कथाएँ हैं, जिन्होंने भगवान महावीर के पास दीक्षा ग्रहण की थी और संयमी जीवन का पालन करते हुए ये सब देवलोक में उत्पन्न हुए हैं। वहाँ से ये च्यवकर महाविदेहक्षेत्र में जन्म लेंगे और वहाँ से मुक्ति प्राप्त करेंगे। इसप्रकार इस उपांगसूत्र में वैराग्य और ६७ वही, चंदपन्नती. ६८ वही, निरियावलिका. १६ वही, कप्पवडिंसयाओ. Jain Education Intemational Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{45} संयमी जीवन के महत्त्व को स्पष्ट किया गया है। यह ग्रन्थ अत्यन्त संक्षिप्त है। इसमें कहीं भी गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा उपलब्ध नहीं है। १०. पुष्पिकासूत्र और गुणस्थान : पुष्पिकासूत्र का उपांग साहित्य में दसवाँ स्थान है। इसके दस अध्ययन हैं और उनमें चन्द्र, सूर्य, शुक्र, बहुपुत्रिकादेवी, पूर्णभद्र, माणीभद्र, दत्तशिव, बल और अनादृष्टि की कथाएँ हैं। ये सभी ज्योतिष्क देव माने गए हैं। इन्होंने भगवान महावीर के समवसरण में उपस्थित होकर विविध प्रकार के नाटक आदि दिखाए थे। इनकी इस ऋद्धि को देखकर गौतमस्वामी ने भगवान महावीर से प्रश्न किया था कि इन्हें यह ऋद्धि कैसे प्राप्त हुई? इसके उत्तर में भगवान महावीर ने उनके पूर्वभव की कथा सुनाई और यह बताया कि इन्होंने पूर्वभव में दीक्षा ग्रहण की थी, किन्तु संयम की विराधना करने के कारण ये ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न हुए और वहाँ से च्यवकर महाविदेहक्षेत्र में जन्म लेकर पुनः संयम को धारणकर मोक्ष को प्राप्त करेंगे। इस ग्रंथ में गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित कोई भी चर्चा उपलब्ध नहीं है। ११. पुष्पचूलिकासूत्र और गुणस्थान : पुष्पचूलिकासूत्र का स्थान उपांग साहित्य में ग्यारहवाँ है। इस उपांग में श्री, ही, धृति, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी, इला, सुरा आदि दस देवियों के पूर्वभव की कथा है। इनके सम्बन्ध में भी यही बताया गया है कि इन्होंने अपने पूर्वभव में दीक्षा ग्रहण की थी, फिर संयम की विराधना करने से देवियों के रूप में उत्पन्न हुई। ये भी पुनः महाविदेहक्षेत्र में जन्म धारणकर, संयम ग्रहणकर, मोक्ष को प्राप्त करेंगी। इस उपांग साहित्य में भी हमें गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कोई संकेत उपलब्ध नहीं होता है । १२. वृह्निदशा और गुणस्थान : वृष्णिदशासूत्र का स्थान उपांग साहित्य में बारहवाँ है। इस उपांगसूत्र में द्वारिका नगरी में भगवान अरिष्टनेमी के पदार्पण और श्रीकृष्ण वासुदेव के सपरिवार उनके दर्शनार्थ जाने का वर्णन है। इसी प्रसंग में उनके भ्राता बलदेव के पुत्र निषध के अरिष्टनेमी के पास दीक्षा लेने का उल्लेख है। इसमें वृष्णिवंश के निषध आदि बारह राजकुमारों की दशा है। ये सभी भगवान अरिष्टनेमी के पास संयम ग्रहण करते हैं और विशुद्ध संयम का पालन करते हुए सर्वार्थसिद्धि विमान में देवरूप में उत्पन्न होते हैं। वहाँ से च्यवकर महाविदेहक्षेत्र में जन्म लेकर, पुनः दीक्षा लेकर संयम की साधनाकर, मोक्ष को प्राप्त करेंगे। यह उपांगसूत्र भी कथात्मक है। इसमें भी गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कोई चर्चा उपलब्ध नहीं है। | मूलसूत्र आगम विभाग १. पिण्डनियुक्ति तथा ओघनियुक्ति और गुणस्थान : श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में पिण्डनियुक्ति को भी मूलसूत्रों के अन्तर्गत परिगणित किया गया है, जबकि कुछ आचार्य इसके स्थान पर ओघनियुक्ति को मूलसूत्र के अन्तर्गत मानते हैं। यद्यपि ये नियुक्तियाँ आगमग्रन्थों की व्याख्या के रूप में ही हैं, फिर भी मुनि आचार से इनका निकट सम्बन्ध होने के कारण इन्हें मूलसूत्र में परिगणित किया गया है। हमारी दृष्टि में इसका एक १०० वही, पुफियाओ. १०१ वही, पुप्फचूलियाओ. १०२ वही, वण्हिदसाओ. १०३ पिण्डनिर्यक्ति तथा ओघनियुक्ति, मुनि श्री दीपरत्नसागर, आगमदीप प्रकाशन, अहमदाबाद, सं. २०५३. Jain Education Intemational Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{46} कारण यह भी हो सकता है कि दशवैकालिकसूत्र, मूलसूत्र के अन्तर्गत आता है, अतः उससे सम्बन्धित पिण्डनियुक्ति को भी मूलसूत्र के अन्तर्गत परिगणित किया गया है। इसीप्रकार ओघनियुक्ति, आवश्यकसूत्र की नियुक्ति है, इसीलिए कुछ आचार्य इसे भी मूलसूत्रों के अन्तर्गत मानते हैं। यहाँ हमारा प्रयोजन तो आगम साहित्य के अन्तर्गत गुणस्थान सिद्धान्त की खोज करना ही है, इसीलिए नियुक्तियों के सम्बन्ध में विशेष गहराई में न जाकर हम केवल यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि इन दोनों नियुक्तियों में कहीं गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा है। इन नियुक्तियों में पिण्डनियुक्ति की विषयवस्तु मूलतः मुनि की भिक्षाचर्या से सम्बन्धित है। जैसा कि हमने स्पष्ट किया है कि पिण्डनियुक्ति का मुख्य सम्बन्ध भिक्षाचर्या से है, इसमें पिण्ड शब्द की व्याख्या करने के पश्चात् भिक्षा के उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजना सम्बन्धी दोषों की विस्तृत चर्चा की गई है। अन्त में भिक्षा के परिमाण और आहार ग्रहण करने के कारणों की चर्चा है। इसमें आहार ग्रहण करने के छः कारण बताए गए हैं। वैसे इन छ: कारणों की चर्चा अन्यत्र भी मिलती है। ये छः कारण हैं - (१) क्षुधानिवारण (२) प्राणरक्षा (३) ईर्यासमिति का पालन (४) संयम का पालन (५) ध्यान और स्वाध्याय आदि करने हेतु तथा (६) अन्य साधुओं की सेवा (वैयावच्च) के लिए मुनि आहार कर सकता है। इसीप्रकार छः कारणों से आहार का निषेध किया गया है। वे छः कारण इस प्रकार हैं - (१) आतंक (२) उपसर्ग (३) ब्रह्मचर्य का पालन (४) प्राणीदया (५) तप तथा (६) समाधिमरण। इस प्रकार हम देखते हैं कि यह सम्पूर्ण ग्रन्थ मुख्यतः भिक्षाचर्या से ही सम्बन्धित है। इसमें भी कहीं भी गुणस्थान सिद्धान्त का विवेचन उपलब्ध नहीं हुआ है। अतः यह स्वाभाविक है कि इस नियुक्ति में गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा उपलब्ध न हो। पिण्डनियुक्ति की गाथाओं का अवलोकन करने पर हमें कहीं भी गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कोई संकेत नहीं मिले हैं । मुनि आचार से सम्बन्धित होने के कारण इस नियुक्ति में संयत, विरत आदि पद तो मिल जाते हैं, किन्तु उनका सम्बन्ध गुणस्थान सिद्धान्त से नहीं है। ____ ओघनियुक्ति को भी कुछ आचार्यों ने मूलसूत्रों के रूप में स्वीकार किया है। ओघनियुक्ति को आवश्यकनियुक्ति की पूरक माना है। आवश्यक नियुक्ति पर वर्तमान में विशेषावश्यकभाष्य उपलब्ध होता है, किन्तु विशेषावश्यकभाष्य की मूलगाथाओं में भी गुणस्थान सिद्धान्त की कोई चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। ओघनियुक्ति, आवश्यकनियुक्ति की पूरक है। इसमें मंगल और उपसंहार गाथाओं के अतिरिक्त सात द्वार पाए जाते हैं - (१) प्रतिलेखनाद्वार (२) पिण्डद्वार (३) उपधिपरिमाणद्वार (४) अनायतनवर्जनद्वार (५) प्रतिसेवनाद्वार (६) आलोचनाद्वार और (७) विशुद्धिद्वार । प्रतिलेखनाद्वार में, प्रतिलेखना कितने प्रकार की है, किन परिस्थितियों में, किस प्रकार से, प्रतिलेखना करना आदि की विस्तृत चर्चा की है। दूसरे पिण्डद्वार में भिक्षा सम्बन्धी विधि और तत्सम्बन्धी उत्सर्ग-अपवाद मार्ग की चर्चा की है। उपधिपरिमाण नामक तृतीय द्वार में मुनि की आवश्यक उपधि कितनी है, उसमें भी जिनकल्पी, स्थविरकल्पी आदि मुनियों की अपेक्षा से उनकी संख्या और परिमाण की बात की है। चतुर्थ अनायतनवर्जनद्वार में साधु का किस प्रकार से आचार-व्यवहार करने और मुनियों के अयोग्य क्रियाओं का त्याग करके मुनि के योग्य गुणों को धारण करने के सम्बन्ध में विवेचन किया गया है। पंचम प्रतिसेवनाद्वार में मुख्यरूप से मुनि जीवन के नियमों में हुई विराधना या स्खलना की चर्चा है। षष्ठ आलोचनाद्वार में उन स्खलनाओं, विराधनाओं या व्रतभंग की आलोचना किस प्रकार करना इसका निर्देश किया गया है। अन्तिम सप्तम विशुद्धिद्वार में आलोचना द्वारा आत्म-विशुद्धि की प्रक्रिया बताई गई है। ओघनियुक्ति की विषयवस्तु के उपर्युक्त स्पष्टीकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि उसमें गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विवेचन का अभाव है। यद्यपि ओघनियुक्ति का सातवाँ विशुद्धिद्वार ऐसा था, जहाँ गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन प्रस्तुत किया जा सकता था, किन्तु यह द्वार अत्यन्त संक्षिप्त है। इसमें मात्र १३ गाथाएँ हैं। उनमें कहीं भी गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विवेचन नहीं है। ओधनियुक्ति के इन सप्तद्वारों में प्रतिलेखनाद्वार और पिंडद्वार ही अति विस्तृत है। इनमें लगभग ५००-५०० गाथाएँ है। उपधिद्वार मध्यम आकार का है। उसमें लगभग १०० गाथाएँ हैं। शेष सभी द्वार अत्यन्त संक्षिप्त है और उनमें कहीं भी गुणस्थान सम्बन्धी कोई विवेचन नहीं है। । Jain Education Intemational mtemational Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{47} २. आवश्यकसूत्र और गुणस्थान : ___ आगम साहित्य में आवश्यकसूत्र का महत्वपूर्ण स्थान है। नंदीसूत्र में तो अंगबाह्य आगमों में सर्वप्रथम इसे ही स्थान दिया गया है और अंगबाह्य आगमों का आवश्यक तथा आवश्यक व्यतिरेक इसी रूप में वर्गीकरण किया गया है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि नंदीसूत्र में षट् आवश्यकों को स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में परिगणित किया गया है, किन्तु वर्तमान में इसे एक ग्रन्थ ही माना जाता है और षडावश्यकों को इसके छः अध्याय कहे जाते हैं। दिगम्बर परम्परा में भी इसे अंगबाह्य ग्रन्थों में स्वीकृत किया गया है। वर्तमान में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा इसे मूलसूत्रों के धर्म में स्थान देती हैं। किन्तु स्थानकवासी और तेरापंथी सम्प्रदाय इसे मूल ग्रन्थों में परिगणित न करके एक स्वतन्त्र ग्रन्थ ही मानते हैं । इस ग्रन्थ में सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दन, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान-ऐसे छः विभाग है। इस ग्रन्थ का सम्बन्ध श्रमण एवं गृहस्थ उपासकों के आवश्यक कर्तव्यों से है। यद्यपि यह ग्रन्थ अपने आकार में संक्षिप्त ही है, किन्तु जैनाचार्यों ने इस पर विस्तृत व्याख्या सहित सृजन किया है। जितनी व्याख्याएँ और टीकाएँ इस ग्रन्थ पर मिलती हैं, उतनी अन्य ग्रन्थों पर नहीं। यहाँ हमारा विवेच्य विषय तो गुणस्थान की अवधारणा है, इसीलिए इसकी विषयवस्तु में विस्तृत चर्चा न करते हुए यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि इस ग्रन्थ में क्या कहीं भी गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा या संकेत उपलब्ध है या नहीं ? ____ अर्द्धमागधी आगम साहित्य में आवश्यकसूत्र का महत्वपूर्ण स्थान है। सर्वाधिक टीकाएँ और व्याख्याएँ इसी आगम पर मिलती है। इसमें साधकों के लिए करणीय षडावश्यकों का विवेचन है। इसके प्रतिक्रमण नामक चतुर्थ अध्ययन के निग्रंथ प्रवचन स्थिरीकरणसूत्र में मिथ्यात्व, असंयत और संयत जैसे शब्द उपलब्ध होते हैं, किन्तु यहाँ इन शब्दों का प्रयोग गुणस्थानों के सन्दर्भ में न होकर उनके अपने सामान्य अर्थ में ही हुआ है। इसके एकविध आदि अतिचार प्रतिक्रमणसूत्र में भी चौदह प्रकार के भूतग्राम अर्थात् जीवों का ही उल्लेख हुआ है। वहाँ भी चौदह गुणस्थानों का कोई उल्लेख नहीं है। इस प्रकार आवश्यकसूत्र में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी चर्चा का प्रायः अभाव ही है। ३. दशवैकालिकसूत्र और गुणस्थान :__आगम साहित्य में दशवैकालिकसूत्र एक सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रन्थ है। दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में अंगबाह्य आगमों के रूप में इसका उल्लेख उपलब्ध होता है। नंदीसूत्र में भी अंगबाह्य आगमों के उत्कालिक सूत्रों के वर्ग में इसे प्रथम स्थान दिया गया है। इस ग्रन्थ के स्वाध्याय के लिए काल-अकाल का विचार नहीं किया जाता है। विकाल में भी इसका अध्ययन किया जा सकता है, इसीलिए इसे वैकालिक या उत्कालिक कहते हैं। दूसरे इस ग्रन्थ में दस अध्याय होने के कारण इसे दशवैकालिक-ऐसा नाम दिया गया है। प्रस्तुत ग्रन्थ में दस अध्ययन और दो चूलिकाएं हैं । इसमें मुनि आचार का संक्षिप्त किन्तु सर्वांगीण विवेचन उपलब्ध होता है। इस ग्रन्थ के रचयिता आर्य शय्यंभवसूरि माने गए हैं। यह कहा जाता है कि आर्य शय्यंभवसूरि ने, अपने पुत्र मनक की अल्पायु जानकर उसके अध्ययन के लिए इस ग्रन्थ की रचना की थी। धर्म के सामान्य स्वरूप की चर्चा के पश्चात्, इस आगम ग्रन्थ में मुनि आचार का ही विस्तार से विवेचन किया गया है। इसमें मुनि के लिए क्या करणीय है और क्या अकरणीय है, इस पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। इसकी दोनों चूलिकाएँ हितशिक्षाओं के संकलन के रूप में है। यहाँ हमारा मूलभूत प्रयोजन तो आगम साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा की खोज करना है, अतः इसकी विषयवस्तु के सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा न कर केवल यह देखने का यत्न करेंगे कि इस ग्रन्थ में क्या कहीं गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कोई संकेत उपलब्ध हैं । ___ दशवैकालिकसूत्र में मुख्यरूप से मुनिआचार का ही वर्णन है। चूंकि यह ग्रन्थ मुनिआचार से सम्बन्धित है, इसीलिए इसमें सम्यग्दृष्टि, संयत, अप्रमत्त, उपशान्त आदि पदों का बहुशः उल्लेख हुआ है, किन्तु वह उल्लेख अपने सामान्य अर्थ में ही है। १०४ नवसुत्ताणि, भाग-५, आवश्यकसूत्र, वाचनाप्रमुख आचार्य तुलसी, जैनविश्वभारती लाडनूं (राज.) सं. २०५७ १०५ वही, दसवेयालियं. . Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{48} दशवैकालिकसूत्र के छठे अध्ययन में उपशान्त पद उपलब्ध होता है। यहाँ यह कहा गया है कि मैथुन की प्रवृत्ति से उपशान्त मुनि का विभूषा से क्या प्रयोजन? (६/६४) किन्तु यहाँ यह उपशान्त पद उपशान्तमोह गुणस्थान का वाचक नहीं है। इसी क्रम में आठवें अध्ययन की १६ वीं गाथा में अप्रमत्त शब्द का उल्लेख है। वहाँ कहा गया है कि सर्व इन्द्रियों में समाहित ऐसा अप्रमत्तसंयत, आठ प्रकार के सूक्ष्मों को जानकर, सदैव यतनापूर्वक आचरण करें। इसप्रकार यहाँ अप्रमत्त शब्द गुणस्थान का वाचक प्रतीत नहीं होता है, अपितु अप्रमत्त होकर आचरण करने का ही वाचक है। इसी क्रम में दशवैकालिक सूत्र के दसवें अध्ययन की ७ वी गाथा में सम्यग्दृष्टि और दसवीं गाथा में उपशान्त पद आया है, किन्तु ये दोनों पद ही भिक्षु के विशेषण के रूप में प्रयोग हुए हैं, गुणस्थान के रूप में नहीं। इसप्रकार दशवैकालिकसूत्र में सम्यग्दृष्टि, संयत, अप्रमत्तसंयत, उपशान्त जैसे पदों की उपस्थिति तो देखी जाती है, परन्तु वह गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा से प्रतीत नहीं होती है। ४. उत्तराध्ययनसूत्र और गुणस्थान : श्वेताम्बर जैन परम्परा में उत्तराध्ययनसूत्र को मूल आगम के रूप में स्वीकार किया गया है। इस सन्दर्भ में स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पराएँ एकमत हैं। हमारी दृष्टि में इसे मूल आगम कहने का मुख्य प्रयोजन यह है कि यह ग्रन्थ जैनधर्म-साधना का आधारभूत ग्रन्थ है। वस्तुतः हिन्दू परम्परा में जो स्थान गीता का है, बौद्ध परम्परा में वो स्थान धम्मपद का है, जैन परम्परा में वही स्थान उत्तराध्ययनसूत्र का रहा है। उत्तराध्ययन नियुक्ति के अनुसार इस ग्रन्थ का प्रणयन पूर्व साहित्य के आधार पर हुआ है। इसकी विषयवस्तु में मुख्यरूप से जिनभाषित, ऋषिभाषित एवं आचार्यभाषित तत्त्व है। उत्तराध्ययनसूत्र को एक आकर ग्रन्थ माना गया है। इसमें जैनतत्वमीमांसा, जैनआचारमीमांसा का विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। सम्पूर्ण सूत्र छत्तीस अध्ययनों में विभक्त है। इसके २८वें और ३६ वें अध्ययन में जीवादिक तत्वों का विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। इसके अतिरिक्त प्रथम आदि कुछ अध्यायों में मुनि के विनय गुण आदि का विवेचन है। समाचारी नामक २६ वें अध्ययन में मुनि आचार का निरूपण किया गया है। इसके अतिरिक्त कुछ अध्ययन उपदेशात्मक और कथात्मक है। विशेषरूप से आठवें अध्ययन में कपिल की वैराग्य भावना का विवरण है, तो नवें नमिप्रवज्या नामक अध्ययन में, नमि और इन्द्र के संवाद के रूप में, एकत्व भावना और वैराग्य का सुन्दर चित्रण हुआ है। इसीप्रकार इस ग्रन्थ का २३ वाँ अध्ययन केशी-गौतम के संवाद के रूप में है। इसमें जहाँ एक ओर महावीर और पार्श्व की परम्परा के अन्तर को स्पष्ट किया गया है, तो दूसरी ओर उनमें समन्वय का प्रयास किया गया है। इसके अतिरिक्त इस अध्याय में अनेक आध्यात्मिक प्रश्नों का सुन्दर समाधान है। इसके कुछ अध्याय उपदेशात्मक है और साधक को आध्यात्मिक विकास की प्रेरणा देते हैं। प्रस्तुत प्रसंग में हमारा मुख्य लक्ष्य तो उत्तराध्ययनसूत्र में गुणस्थान सम्बन्धी विवरणों की खोज करना है, अतः अग्रिम पृष्ठों में हम इसी दृष्टि से कुछ प्रयास करेंगे। ___ उत्तराध्ययनसूत्र की गणना मूलसूत्र में कहीं की जाती है। यह ग्रन्थ भी मुख्यरूप से आचार और उपदेशपरक ही है। इस ग्रन्थ में भी विरत, संयत, प्रमत्त, अप्रमत्त, उपशान्त आदि शब्दों का प्रयोग देखा जाता है, किन्तु यहाँ ये शब्द अपने सामान्य अर्थ में ही प्रयुक्त हुए हैं। उदाहरण के रूप में उत्तराध्ययनसूत्र के चतुर्थ असंस्कृत नामक अध्ययन में प्रमत्त और अप्रमत्त शब्दों का अनेक बार प्रयोग हुआ है, किन्तु इन स्थलों पर मुनि को यह शिक्षा दी गई है कि वह प्रमत्त न बनें, अपितु अप्रमत्त बनकर अपनी साधना करें। इसी क्रम में छठे, दसवें और सत्रहवें अध्ययन में मुनि के लिए अप्रमत्त जीवन जीने का निर्देश दिया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र के नमिप्रवज्या नामक नवें अध्ययन में नमिराजर्षि का वर्णन है। इसकी प्रथम गाथा में ही नमिराजर्षि के विशेषण के रूप में, उपशान्त शब्द का प्रयोग हुआ है। उसमें कहा गया है कि उनके मोह के उपशान्त होने पर उन्हें जाति-स्मरण ज्ञान हुआ और उस ज्ञान से प्रेरित होकर पुत्र को राज्य देकर उन्होंने संयम ग्रहण किया। यहाँ पर उपशान्तमोह शब्द का प्रयोग नमिराजर्षि के दीक्षित होने की पूर्व अवस्था के रूप में हुआ है। उत्तराध्ययनसूत्र के बीसवें महानिग्रंथीय नामक अध्ययन में सम्पराय शब्द का १०६ वही, उत्तरज्झयणाई. Jain Education Intemational ucation intermational Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.... द्वितीय अध्याय........{49} प्रयोग हुआ है, किन्तु यहाँ यही निर्देश किया गया है कि चिरकाल का दीक्षित मुनि यदि साधना में अस्थिर है, तो वह तप नियमों को करते हुए भी अपनी आत्मा को क्लेश ही देता है और सम्पराय अर्थात् कषायों से ऊपर नहीं उठ पाता है। इसप्रकार यहाँ सम्पराय शब्द सामान्यरूप से कषाय के लिए प्रयुक्त हुआ है, सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के लिए नहीं। इसी अध्ययन में अनाथी-मुनि की विशेषताओं का वर्णन करते हुए उन्हें गुणसमृद्ध, विगतमोह आदि कहा गया है, लेकिन ये शब्द भी गुणस्थान के वाचक प्रतीत नहीं होते। उत्तराध्ययनसूत्र के २६वें सम्यक्त्वपराक्रम नामक अध्ययन में भगवान से यह पूछा गया कि संवेग से क्या प्राप्त होता है? इसके उत्तर में भगवान ने यह कहा कि संवेग से अनुत्तर धर्मश्रद्धा प्राप्त होती है। अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ का क्षय होता है। मिथ्यात्व की विशुद्धि होती है और दर्शन की आराधना होती है। इसप्रकार यहाँ संवेग को मिथ्यात्व की विशुद्धि एवं अनन्तानुबन्धी चतुष्क के क्षय की बात कही गई है। प्रथम दृष्टया यह अंश प्रथम गुणस्थान के अन्त और चतुर्थ गुणस्थान की उपलब्धि प्राप्त करने का निर्देश करता है, फिर भी इसे स्पष्टतया गुणस्थान का सूचक मानना कठिन ही है। इसी अध्ययन में यह पूछा गया है कि प्रत्याख्यान से क्या लाभ है? इसके उत्तर में यह कहा गया कि प्रत्याख्यान से जीव अयोगी अवस्था को प्राप्त होता है। वह नए कर्मों को नहीं बांधता है और पुराने कर्मों को निर्जरित कर देता है। इसी क्रम में यह भी पूछा गया कि एकाग्रता से क्या लाभ होता है ? इसके उत्तर में यह कहा गया कि मन की एकाग्रता से ज्ञानपर्याय उत्पन्न होती है। इससे मिथ्यात्व नष्ट होता है और सम्यक्त्व प्राप्त होता है। फिर भी यह चित्रण सामान्य स्थिति का सूचक है। इसके आधार पर यह कल्पना करना कि यहाँ सम्यक्त्व या अयोगी केवली गुणस्थान की चर्चा है, यह समुचित नहीं होगा। उत्तराध्ययनसत्र के २६वें सम्यक्त्वपराक्रम नामक अध्ययन के अन्त में यह प्रश्न उठाया गया है कि मिथ्यादर्शन और राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करने से क्या होता है? इसके उत्तर में यह कहा गया कि मिथ्यादर्शन और राग-द्वेष आदि पर विजय प्राप्त करने से ज्ञान, दर्शन, चारित्र की आराधना होती है। उस आराधना के फलस्वरूप साधक आठ प्रकार की कर्मग्रंथियों का विमोचन करता है। उसमें भी सर्वप्रथम मोहनीयकर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों का क्षय करता है। फिर पाँच प्रकार के ज्ञानावरण, नौ प्रकार के दर्शनावरण और पाँच प्रकार के अन्तराय का युगपत् रूप से क्षय करता है। तत्पश्चात् अनुत्तर, अनन्त, परिपूर्ण, निरावरण, लोकालोक प्रकाशक, विशुद्ध केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त करता है। जब तक वह सयोगी रहता है, तब तक दो समय की स्थितिवाले शातावेदनीय ईर्यापथिक कर्म का बन्ध करता है। प्रथम समय में वे कर्म बद्ध होते हैं, दूसरे समय में वेदित होते हैं और तीसरे समय में निर्जीर्ण हो जाते हैं। जो कर्म स्पष्ट और बद्ध थे, वे उदीरण और वेदित होकर निर्जरित हो जाते हैं। उसके पश्चात् वह अन्तर्मुहुर्त शेष रहने पर योगनिरोध करता है और शुक्लध्यान को ध्याता हुआ प्रथम मनोयोग का निरोध करता है, फिर वचनयोग का निरोध करता है और अन्त में श्वासोच्छ्वास का निरोध करके वह पाँच हृस्व अक्षरों के उच्चारण में लगनेवाले काल में ही, अनिवृत्तसमुच्छिन्नक्रिया नामक शुक्लध्यान को ध्याता हुआ आयुष्य, नाम, गोत्र और वेदनीय-इन चार कर्मों का एक ही साथ क्षय करता है। ऋजुश्रेणी को प्राप्त होकर अस्पर्शमान एवं अविग्रहगति से, एक समय में ही लोकांत को प्राप्त होकर, सर्व दुःखों का अन्त करके, सिद्ध अवस्था को प्राप्त करता है। उत्तराध्ययनसूत्र के २६ वें सम्यक्त्वपराक्रम नामक अध्ययन की इस चर्चा से बारहवें,तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान की समस्त प्रक्रिया स्पष्ट हो जाती है। फिर भी यह प्रसंग गुणस्थानों की चर्चा करता है, ऐसा कहना समुचित नहीं होगा। यहाँ यह चर्चा मुख्यरूप से मिथ्यादर्शन एवं राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करने से किस फल की प्राप्ति होती है, इस सन्दर्भ में आई है। इस समग्र चर्चा में गुणस्थान शब्द कहीं नहीं आया है। यहाँ केवल मिथ्यादर्शन एवं राग-द्वेष और उनके परिणामस्वरूप कर्मप्रकृतियों के क्षय की चर्चा है। चाहे विद्वद्जन इस बात को स्वीकार न करे कि यहाँ गुणस्थान की कोई चर्चा है, किन्तु हमें इतना तो मानना ही होगा कि यहाँ जो चर्चा प्रस्तुत की गई है वह बारहवें, तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान की स्थिति को समझने के लिए आधारभूत है। उत्तराध्ययनसूत्र के ३१ वें चरणविधि नामक अध्ययन में यह कहा गया है कि मुनि को एक ओर से विरक्त होना चाहिए तथा एक ओर प्रवृत्त होना चाहिए। उसे असंयम से निवृत्त होकर संयम में प्रवृत्त होना चाहिए, किन्तु यह गाथा मात्र उपदेशात्मक है, गुणस्थान की स्थिति को स्पष्ट करने वाली नहीं है। इस अध्ययन में एक से लेकर तैंतीस बोलों की चर्चा है। इसमें चौदहवें बोल में चौदह प्रकार के भूतग्रामों (जीवों) का उल्लेख आया है, किन्तु चौदह गुणस्थानों का कोई उल्लेख नहीं है। उत्तराध्ययनसूत्र का ३३ वाँ कर्मप्रकृति नामक अध्ययन कर्मप्रकृतियों की चर्चा करता है। इस प्रसंग में वहाँ मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व-इसप्रकार मोहनीयकर्म की Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ द्वितीय अध्याय.....{50} इन तीन प्रकृतियों की चर्चा है। यह चर्चा भी मात्र मोहनीय कर्म की इन तीन प्रकृतियों का ही उल्लेख करती है। उत्तराध्ययनसूत्र के ३४ वें लेश्या नामक अध्ययन में मिथ्यादृष्टि, अविरत, उपशान्त आदि शब्द मिलते हैं, किन्तु ये यहाँ अपने सामान्य अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं, गुणस्थानों के सम्बन्ध में नहीं। उत्तराध्ययनसूत्र का ३६ वाँ जीवाजीवविभक्ति नामक अध्ययन जीव और अजीव की विभक्ति के रूप में है और २६८ गाथाओं का सबसे विस्तृत अध्ययन है, किन्तु इस अध्ययन में कहीं भी गुणस्थान सम्बन्धी कोई निर्देश नहीं है। इसप्रकार हम देखते हैं कि उत्तराध्ययनसूत्र जो मूलसूत्रों में सबसे अधिक प्रतिष्ठित और प्रामाणिक माना जाता है, उसमें गुणस्थानों से मिलते-जुलते कुछ नामों को छोड़कर गुणस्थान सम्बन्धी कोई सुव्यवस्थित विवरण नहीं है । यही कारण है कि विद्वान इसी आधार पर यह निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि उत्तराध्ययनसूत्र जैसे प्राचीन आगमों के काल तक गुणस्थान की अवधारणा विकसित नहीं हुई थी। चूलिकासूत्र आगम विभाग १ नंदीसूत्र और गुणस्थान : अर्द्धमागधी आगम साहित्य में नंदीसूत्र को चूलिकासूत्र के अन्तर्गत माना जाता है। यह ग्रन्थ मूलतः मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान- इन पंच ज्ञानों के बारे में विस्तार से चर्चा करता है। पंच ज्ञान की अवधारणा जैनदर्शन की एक महत्वपूर्ण अवधारणा है। नंदीसूत्र का अध्ययन करने से न केवल इन पंच ज्ञानों के स्वरूप का बोध होता है, अपितु इन ज्ञानों की व्याख्या सम्बन्धी ऐतिहासिक विकासक्रम का भी बोध होता है। वैसे तो यह ग्रन्थ पाँचों ही ज्ञानों के लक्षण, स्वरूप, प्रकार आदि की चर्चा करता है, किन्तु इसमें सर्वाधिक विस्तार से हमें श्रुतज्ञान की चर्चा मिलती है। श्रुतज्ञान के अन्तर्गत इसमें आगम साहित्य का विस्तृत परिचय भी दिया गया है। आगमों के वर्गीकरण की इसकी पद्धति वर्तमान में उपलब्ध पद्धति से भिन्न है। इसमें आगम साहित्य को पहले अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य - ऐसे दो भेदों में बांटा गया है। फिर अंगबाह्य के दो भेद किए गए है- आवश्यक और आवश्यक व्यतिरेक । पुनः आवश्यक व्यतिरेक के भी दो विभाग किए गए है- कालिक और उत्कालिक । इसप्रकार इसकी आगमों के वर्गीकरण की शैली वर्तमान शैली से भिन्न है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि इसमें आगम ग्रन्थों की जो सूची उपलब्ध होती है, उसमें से अधिकांश ग्रन्थ वर्तमान में अनुपलब्ध हैं। इसप्रकार पंच ज्ञान सम्बन्धी विवेचन और विशेष रूप से आगमों के विषयवस्तु की जानकारी की दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसमें अंग-आगमों की विषयवस्तु आदि का विवरण उपलब्ध हो जाता है। नंदीसूत्र में यदि गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित किन्हीं संदर्भों की विचारणा की संभावना है तो मात्र पंचज्ञानों की चर्चा प्रसंग में ही है। पंचज्ञान की चर्चा के प्रसंग में नंदीसूत्र में केवलज्ञान के दो भेद किए गए हैं। भवस्थ केवलज्ञान और सिद्ध केवलज्ञान । पुनः भवस्थ केवलज्ञान के भी सयोगी भवस्थ केवलज्ञान और अयोगी भवस्थ केवलज्ञान । पुनः प्रथम समय, अप्रथम समय, चरम समय और अचरम समय आदि को लेकर अनेक भेद किए गए हैं, किन्तु प्रस्तुत प्रसंग में हमारा सम्बन्ध मात्र सयोगी केवली और अयोगी केवली इन दो अवस्थाओं से ही है। निश्चय ही गुणस्थान सिद्धान्त में इन दोनों अवस्थाओं को तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान के रूप में स्वीकार किया गया है, किन्तु प्रस्तुत प्रसंग में इन दोनों अवस्थाओं का उल्लेख ज्ञान सम्बन्धित चर्चा के प्रसंग में हुआ है | अतः इन्हें यहाँ गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित करना समुचित नहीं लगता है। इसीप्रकार मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की चर्चा भी यह कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि का मतिज्ञान, ज्ञान है और मिथ्यादृष्टि का मतिज्ञान, अज्ञान है। इसीप्रकार सम्यग्दृष्टि का श्रुतज्ञान, ज्ञान है और मिथ्यादृष्टि का श्रुतज्ञान, श्रुतअज्ञान है। यहाँ भी सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि पद की चर्चा है, किन्तु यह चर्चा ज्ञान की अपेक्षा से है, गुणस्थानों की अपेक्षा से नहीं । इस प्रकार नंदीसूत्र में मिध्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि, सयोगी केवली और १०७ वही, नन्दीसुत्त Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{51) अयोगी केवली-इन चार अवस्थाओं का नामोल्लेख हुआ है, किन्तु उनका सम्बन्ध गुणस्थानों से नहीं है । २. अनुयोगद्वारसूत्र और गुणस्थान :___ अनुयोगद्वारसूत्र को श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में चूलिकासूत्र के रूप में तथा स्थानकवासी और तेरापंथी परम्परा में मूलसूत्र के रूप में स्वीकार किया गया है। इस ग्रन्थ का मूल प्रयोजन आगमों में प्रतिपादित विषयों को समझने के लिए, एक विधि या पद्धति प्रस्तुत करना है। जैनदर्शन में किसी भी कथन के सम्यक् तात्पर्य को समझने के लिए नय और निक्षेप की पद्धति आवश्यक मानी गई है, किन्तु नय और निक्षेप के अतिरिक्त, विषयों के वर्गीकरण की दृष्टि से और उनकी स्पष्ट व्याख्या की दृष्टि से, अनुयोगद्वारसूत्र की पद्धति का भी विकास हुआ। अनुयोगद्वारसूत्र की पद्धति यह बताती है कि किस विषय को किस-किस अपेक्षा से, किस-किस रूप में, व्याख्यायित किया जा सकता है। तत्त्वार्थसूत्र, जीवसमास और षट्खण्डागम में सत्संख्यादि आठ अनुयोगद्वारों की चर्चा है, किन्तु इसे पूर्व आगम परम्परा में द्रव्यानुयोग, चरणकरणानुयोग, गणितानुयोग और धर्मकथानुयोग-इन आधार मानकर आगमों की विषयवस्तु का वर्गीकरण किया गया है; किन्तु प्रस्तुत अनुयोगद्वारसूत्र में मुख्यरूप से जैन पारिभाषिक शब्दों को किस-किस दृष्टि से व्याख्यायित एवं स्पष्ट किया जा सकता है, इसकी चर्चा है। वस्तुतः यह ग्रन्थ जैन आगम की विषयवस्तु और उसके पारिभाषिक शब्दों के अर्थों को समझने के लिए एक पूंजी के रूप में है। यह आगमिक विषयों के अर्थ का उद्घाटन करनेवाला सूत्र है। इसके माध्यम से ही हम आगमिक विषयों को सम्यक् प्रकार से समझ सकते हैं। इसमें विभिन्न द्वारों के माध्यम से पारिभाषिक शब्दों के अर्थों को स्पष्ट करने की विधि बताई गई है। परम्परागत दृष्टि से इस ग्रन्थ के रचयिता आचार्य आर्यरक्षित माने जाते हैं। अनुयोगद्वारसूत्र का उल्लेख नंदीसूत्र में आगमों की जो सूची दी गई है, उसमें है। इस अपेक्षा से यह नंदीसूत्र के पूर्व की रचना है। इसका काल प्रथम-द्वितीय शताब्दी के लगभग माना जाता है। प्रस्तुत विवेचना में हमारा मुख्य प्रयोजन तो आगम ग्रंथों में गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा की खोज करना है। अतः इस सम्बन्ध में अधिक विस्तार में न जाकर हम आगे यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि अनुयोगद्वारसूत्र में क्या गुणस्थान सम्बन्धी कोई विचारणा या संकेत उपलब्ध है? . ____नंदीसूत्र के पश्चात् चूलिकासूत्र में अनुयोगद्वार का क्रम है। अनुयोगद्वारसूत्र में षष्ट नाम पद में सर्वप्रथम औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक और सन्निपातिक-ऐसे छः भावों की चर्चा है। इसी चर्चा में औदयिक भावों की चर्चा करते हुए मिथ्यादृष्टि, अविरत, सयोगी शब्द आए हैं, किन्तु यहाँ उनका सम्बन्ध औदयिक भाव से ही है, गुणस्थानों से नहीं। इसी क्रम में औपशमिकभाव की चर्चा करते हुए उपशान्तदर्शनमोह, उपशान्तचारित्रमोह, उपशान्त कषाय छद्मस्थवीतराग आदि पदों का उल्लेख हुआ है। इसीप्रकार क्षीणभाव की चर्चा करते हुए क्षीणदर्शनमोह, क्षीणचारित्रमोह पदों का उल्लेख भी मिलता है, किन्तु इस समस्त चर्चा के मूल में क्षायिक और औपशमिक भावों की विभिन्न अवस्थाओं का ही चित्रण है, इनका सम्बन्ध गुणस्थानों से नहीं है। (२७१ से २६७) इस प्रकार हम देखते है कि नंदीसूत्र और अनुयोगद्वारसूत्र-दोनों में ही गुणस्थान सम्बन्धी विचारणा का अभाव है। | छेदसूत्र आगम विभाग | १. दशाश्रुतस्कंध और गुणस्थान : श्वेताम्बर परम्परा में आगमों के एक विभाग के रूप में छेदसूत्रों का भी एक वर्ग है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा इस वर्ग के अन्तर्गत दशाश्रुतस्कंध, बृहत्कल्प, व्यवहार, निशीथ, महानिशीथ, जीतकल्प-इन छः ग्रन्थों का समावेश करती है, जबकि १०८ वही, अनुयोगद्वार १०६ वही, दसाओ. Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{52} | स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पराएं इनमें से केवल प्रथम चार को ही स्वीकार करती है। इनमें प्रथम क्रम दशाश्रुतस्कंध या आचारदशा का है। इस ग्रन लए क्या आचरणीय है और क्या आचरणीय नहीं है, इसकी चर्चा है। इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ में उपासकों की ग्यारह प्रतिमाओं का भी वर्णन है। इसमें सामान्य रूप से विरत, संयत, अप्रमत्त आदि शब्दों का प्रयोग देखा जाता है, किन्तु इन सभी शब्दों का प्रयोग मूलतः मुनि के सन्दर्भ में ही हुआ है। इसीप्रकार इस ग्रन्थ के आठवें अध्याय के परिशिष्ट के रूप में, जो पर्युषणकल्प (कल्पसूत्र) है, उसमें भगवान महावीर का जीवन वर्णित है। उसमें उनके केवलज्ञान आदि का भी विवरण आता है, किन्तु इस समग्र विवेचन में हमें गुणस्थान सम्बन्धी कोई विवेचन उपलब्ध नहीं हुआ है। २. व्रतकल्प और गुणस्थान : इसी प्रकार द्वितीय छेदसूत्र व्रतकल्प भी मुनि-आचार और तत्सम्बन्धी प्रायश्चित से सम्बन्धित है। इसमें भी यद्यपि संयत, प्रमत्त और अप्रमत्त आदि पद देखे जाते हैं, किन्तु वे सभी मुनि आचार की व्यवस्थाओं के सन्दर्भ में ही प्रयुक्त हुए हैं, गुणस्थान सिद्धान्त से उनका कोई सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता है। ३. व्यवहारसूत्र और गुणस्थान : इसी क्रम में तीसरा स्थान व्यवहारसूत्र का है। यह ग्रन्थ भी मुख्यरूप से मुनि जीवन में लगे हुए दोषों की परिशुद्धि के लिए विविध प्रकार के प्रायश्चितों का विधान करता है। इस सम्पूर्ण ग्रन्थ में भी हमें गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित कोई चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। केवल उपशान्त पद मिलते हैं, किन्तु उनका प्रयोग गुणस्थान के सन्दर्भ में नहीं हुआ है। ४. निशीथसूत्र और गुणस्थान : छेदसूत्रों में चौथा स्थान निशीथसूत्र का है। यद्यपि छेदसूत्रों में यह सबसे विस्तृत ग्रन्थ है, किन्तु इस ग्रन्थ में भी हमें गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा उपलब्ध नहीं होती है, क्योंकि इस सूत्र में मुख्यरूप से दो बातों का विचार किया गया है। एक तो यह कि मुनि जीवन के लिए निषिद्ध कार्य कौन-कौन से है और उन निषिद्ध कार्यों को करने पर किस प्रकार की प्रायश्चित-व्यवस्था है। निशीथसूत्र के सम्बन्ध में हमें यह भी जान लेना चाहिए कि पहले यह सूत्र आचारांग की चूला के रूप में निर्मित हुआ है, उसके पश्चात् वहाँ से इसे पृथक् करके एक स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में यहाँ स्थान दिया गया है। आचारांग की चूला होने के कारण इसका सम्बन्ध मुनि-जीवन के लिए क्या कल्प्य है और क्या अकल्प्य है इसकी चर्चा से ही है, इसीलिए इसमें गुणस्थान सम्बन्धी कोई भी चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। ५. जीतकल्प और गुणस्थान : छेद सूत्रों में पाँचवें छेदसूत्र के रूप में जीतकल्प का स्थान है। जीतकल्प प्रायश्चित सम्बन्धी ग्रन्थ है। इसमें विस्तार से इस बात की चर्चा उपलब्ध होती है कि मुनि जीवन में किस नियम का भंग करने पर कौन-सा और कितना प्रायश्चित लेना होगा। यह ग्रन्थ दस प्रकार के प्रायश्चितों का उल्लेख करते हुए यह बताता है कि किस अपराध के लिए इनमें से कौन-सा प्रायश्चित कितनी मात्रा में दिया जाता है। इस ग्रन्थ में भी हमें गुणस्थान सम्बन्धी कोई भी चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। ६. महानिशीथ और गुणस्थान : छेदसूत्रों में महानिशीथ छठे छेदसूत्र के रूप में स्वीकार किया गया है। महानिशीथसूत्र मूलतः तो प्राचीन आचार्य द्वारा ११० वही, कल्प. १११ वही, व्यवहारो. ११२ वही, निसिहीआए. ११३ जीतकल्प-आगम सुत्ताणि सटीकं सं.दीपरत्न सागर, भाग २३, प्रकाशनः आगमश्रुत प्रकाशन अहमदाबाद ११४ महानिशीथ, प्रकाशक -दला. भारतीय संस्कृति विद्या मन्दिर, अहमदाबाद Jain Education Intemational Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{53} प्रणीत ही माना जाता है, किन्तु कालान्तर में इसकी प्रति दीमक द्वारा भक्षित हो जाने के कारण इसका पुनरुद्धार आचार्य हरिभद्रसूरि ने किया था। यह ग्रन्थ छः अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में आलोचना करने की दृष्टि से अठारह पाप स्थानकों का स्वरूप वर्णित है। दूसरे अध्याय में कर्मविपाक की चर्चा करते हुए कर्मों से विमुक्ति के लिए पापों की आलोचना की विधि बताई गई है। तीसरा और चौथा अध्याय उपदेशात्मक है। मुनि आचार का सम्यक् रूप से परिपालन नहीं करनेवाले साधुओं से दूर रहने का निर्देश किया गया है। पाँचवें अध्याय में गच्छ के स्वरूप का विवेचन किया गया है। अन्तिम छठे अध्याय में प्रायश्चित और आलोचना के विभिन्न प्रकारों का विवेचन किया गया है। इसीप्रकार इस ग्रन्थ का सम्बन्ध भी मुख्यतःमुनि आचार से ही है। इस ग्रन्थ की एक अन्य यह विशेषता यह भी है कि इसमें जैन परम्परा के अनुरूप विविध मंत्रों और उनकी साधना-विधिओं का उल्लेख हुआ है। सामान्यरूप से यह ग्रन्थ उपदेशात्मक और आलोचनात्मक ही है। मुनि आचार से सम्बन्धित होने के कारण इसमें संयत, विरत, केवली, अयोगी (केवली) आदि शब्द तो अनेकशः उपलब्ध हो जाते है, किन्तु इन प्रसंगों में गुणस्थान सम्बन्धी कोई भी विवेचन हमें परिलक्षित नहीं होता है। इसके द्वितीय अध्ययन में कर्मविपाक एवं कर्मक्षय की चर्चा करते हुए अयोगीदशा (२/३/३३७) कर्मक्षय की प्रक्रिया का उल्लेख भी उपलब्ध होता है, किन्तु हमारी दृष्टि में यह चर्चा गुणस्थान की अपेक्षा से नहीं है। इसी अध्याय और उद्देशक में अनन्तगुणकर्मनिर्जरा की चर्चा भी हुई है। इससे ऐसा लगता है कि इसके मूललेखक भी गुणश्रेणी की चर्चा से अवश्य परिचित रहे है। गुणश्रेणी की चर्चा को विद्वानों ने गुणस्थानों की अवधारणा से प्राचीन माना है। संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि चाहे महानिशीथसूत्र में गुणश्रेणी का उल्लेख हुआ हो, किन्तु गुणस्थान सम्बन्धी कोई उल्लेख नहीं है। प्रकीर्णकसूत्र आगम विभाग जैन आगम साहित्य का एक वर्ग प्रकीर्णक के नाम से जाना जाता है। वैसे तो प्रकीर्णक के नाम से अनेक ग्रन्थ हैं, किन्तु वर्तमान में निम्न दस प्रकीर्णकों को ही आगमग्रन्थों के रूप में स्वीकार किया जाता है। (१) चतुःशरण (२) आतुरप्रत्याख्यान (३) भक्तपरिज्ञा (४) संस्तारक (५) तंदुलवैचारिक (६) चन्द्रवेद्यक (७) देवेन्द्रस्तव (८) गणिविद्या (६) महाप्रत्याख्यान (१०) और वीरस्तव । १. चतुःशरण५ और गुणस्थान : चतुःशरण प्रकीर्णक में मुख्यरूप से तीन विभाग हैं। प्रथम विभाग में अरिहंत, सिद्ध, साधु और जिनधर्म- इन चार की शरण ग्रहण करने का विधान किया गया है। उसके पश्चात् दूसरे विभाग में दुष्कृत्यों की गर्दा का और तीसरे विभाग में सुकृत्यों की अनुमोदना सम्बन्धी विचार है। इस ग्रन्थ में मिथ्यात्व, श्रावक, साधु आदि शब्द अवश्य उपलब्ध होते हैं, किन्तु ये सभी शब्द अपने सामान्य अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। यहाँ गुणस्थान सम्बन्धी विचार उपलब्ध नहीं होते। २. आतुरप्रत्याख्यान और गुणस्थान प्रकीर्णकों में दूसरा स्थान आतुरप्रत्याख्यान का है। आतुरप्रत्याख्यान विशेष परिस्थितियों में समाधिमरण ग्रहण करने की विधि और तत्सम्बन्धी उपदेशों से युक्त है। इस ग्रन्थ में हमें कहीं भी गुणस्थान सम्बन्धी कोई भी विवेचन परिलक्षित नहीं होता है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि आतुरप्रत्याख्यान के नाम से जो तीन ग्रन्थ उपलब्ध हैं, उन सभी में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन का अभाव ही है। ११५ दशपयन्ना, गुजरातीछाया, मुनिदीपरत्नसागरजी, आगमदीप प्रकाशन, अहमदाबाद, सं. २०५३. ११६ वही. Jain Education Intemational Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा... द्वितीय अध्याय......{54} ३. भक्तपरिज्ञा और गुणस्थान : प्रकीर्णकों में तीसरे क्रम पर भक्तपरिज्ञा का स्थान है। इस ग्रन्थ की विषयवस्तु भी समाधिमरण से सम्बन्धित है। यह ग्रन्थ श्रावक और मुनि दोनों के लिए ही समाधिमरण ग्रहण करने का उल्लेख करता है। इस ग्रन्थ में अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरति, संयतविरत आदि के उल्लेख उपलब्ध है, किन्तु ये सभी उल्लेख गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित प्रतीत नहीं होते है। इनका उल्लेख अपने सामान्य अर्थ में ही हुआ है । ४. संस्तारक१८ और गुणस्थान :___संस्तारक नामक चतुर्थ प्रकीर्णक भी समाधिमरण से सम्बन्धित है। इस प्रकीर्णक में मिथ्यादृष्टि, संयमी, क्षीणकर्मरज-ऐसे अपने सामान्य अर्थ में प्रयुक्त तीन पद उपलब्ध होते हैं, किन्तु इनका सम्बन्ध गुणस्थान सिद्धान्त से नहीं है। ये शब्द अपने सामान्य अर्थ में ही प्रयुक्त हुए हैं। ५. तंदुलवैचारिक और गुणस्थान : प्रकीर्णकों के क्रम में तंदुलवैचारिक का स्थान पाँचवाँ है। यह ग्रन्थ मानव जीवन को अवस्थाओं के आधार पर दस भागों में विभक्त करके उसकी चर्चा करता है। इस ग्रन्थ में स्त्रियों की चर्चा के प्रसंग में एक स्थान पर मात्र प्रमत्तभाव, ऐसा पद उपलब्ध होता है। इस ग्रन्थ में कहीं भी गुणस्थान सम्बन्धी कोई भी विचारणा उपलब्ध नहीं होती है । ६. चन्द्रवेद्यक२० और गुणस्थान : इसके पश्चात् षष्ट प्रकीर्णक का नाम चन्द्रवेद्यक है। यह प्रकीर्णक भी जीवन की अन्तिम आराधना अर्थात् समाधिमरण से सम्बन्धित है। इस ग्रन्थ में मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, प्रमाद आदि शब्द अवश्य हैं, किन्तु वे गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित नहीं है। इस ग्रन्थ की गाथा क्रमांक १४५ में यह बताया गया है कि उपशान्तकषायवाला जीव अनन्तचतुष्टयी उपलब्धि के निकट पहुँच कर भी पुनः पतित हो जाता है, तो फिर जिस व्यक्ति में थोड़ा-सा भी कषाय अवशिष्ट है, उसका कैसे विश्वास किया जा सकता है, किन्तु यहाँ यह चर्चा इसी रूप में आई है कि यदि कषाय की थोड़ी-सी भी सत्ता शेष रहती है, तो पतन की संभावनाएँ समाप्त नहीं होती है। हमारी दृष्टि में यह एक सामान्य उल्लेख ही है। इसे गुणस्थान से सम्बन्धित कर पाना कठिन है । ७. देवेन्द्रस्तव और गुणस्थान : प्रकीर्णक-साहित्य में सप्तम क्रम पर देवेन्द्रस्तव का उल्लेख है। यह ग्रन्थ मुख्यरूप से देवलोक सम्बन्धी विचारणा से परिपूर्ण है, इसीलिए सामान्यरूप से इसमें गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विचारणा का अभाव ही है। यद्यपि ग्रन्थ की अन्तिम गाथाओं में सिद्धशीला एवं सिद्धों से सम्बन्धित विवरण है, किन्तु हमारी दृष्टि में इस चर्चा में भी गुणस्थान सम्बन्धी कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। ८. गणिविद्या और गुणस्थान : प्रकीर्णकों में अष्टम स्थान गणिविद्या का है। इस ग्रन्थ में मुख्यरूप से दीक्षा, विहार, केशलोच आदि के नक्षत्र, तिथि और ११७ वही. ११८ वही. ११६ वही. १२० वही. १२१ वही. १२२ वही. Jain Education Intemational Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{55} वारों का विचार किया गया है। इस प्रकीर्णक में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विचारणा का अभाव है। ९. महाप्रत्याख्यान २३ और गुणस्थान इसी क्रम में नवाँ प्रकीर्णक महाप्रत्याख्यान है। महाप्रत्याख्यान प्रकीर्णक का सम्बन्ध भी मुख्यतया समाधिमरण से है। हमें इस प्रकीर्णक ग्रन्थ में भी गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कोई चर्चा परिलक्षित नहीं होती है। मात्र एक स्थान पर यह कहा गया है कि मैं त्रिदंड से विरत होकर, त्रिकरणों से शुद्ध होकर, तीन शल्यों से निःशल्य होकर, अप्रमत्तभाव से, त्रिविध रूप से, महाव्रतों की रक्षा करता हूँ, किन्तु इस उल्लेख को गुणस्थान सिद्धान्त से नहीं जोड़ा जा सकता है। १०. वीरस्तव और गुणस्थान अन्तिम दशम प्रकीर्णक के रूप में वीरस्तव का नाम आता है। वीरस्तव मूलतः भगवान महावीर की स्तुतिरूप है और उनके विभिन्न नामों का उल्लेख करता है। भगवान के विभिन्न नामों में उपशान्तमोह, क्षीणमोह और केवली जैसे नाम आए हैं, किन्तु ये सब भगवान के विशेषण के रूप में ही है। इनका गुणस्थान सिद्धान्त से कोई सम्बन्ध नहीं है। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रकीर्णक-साहित्य में कहीं भी गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। यद्यपि प्रकीर्णक में वीरस्तव आदि कुछ प्रकीर्णक ऐसे अवश्य है, जो परवर्तीकालीन माने जाते हैं, फिर भी इन सभी प्रकीर्णकों में गुणस्थान सम्बन्धी विचारणा का अभाव यही सूचित करता है कि श्वेताम्बर परम्परा में, आगमयुग में, गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विचारणा को विशेष महत्व प्राप्त नहीं हुआ था। गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी चर्चा विशेषरूप से कर्मसाहित्य के रचनाकाल में ही विकसित हुई है, क्योंकि अंग, उपांग, छेद, मूल तथा चूलिकासूत्रों में और प्रकीर्णकों में समवायांग के एक अपवाद को छोड़कर गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विचारणा का अभाव है। समवायांग में भी मात्र उन चौदह नामों का जीवस्थान के रूप में उल्लेख मिलता है। अन्य आगमों में जहाँ गुणस्थानों के नामों के समरूप कुछ नाम मिलते हैं, वे ही सामान्य अर्थ में ही प्रयुक्त हुए हैं। सम्पूर्ण आगम साहित्य में हमें एक भी स्थल ऐसा नहीं मिला, जहाँ गुणस्थान शब्द का प्रयोग हुआ हो। समवायांग में भी जहाँ इन चौदह अवस्थाओं का उल्लेख है, वहाँ भी उन्हें गुणस्थान नहीं कहा गया है। वहाँ उनके लिए जीवस्थान शब्द का प्रयोग हुआ है। परवर्तीकाल में विशेष रूप से कर्मसाहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त को जो महत्व मिला उसका अर्द्धमागधी आगम साहित्य में अभाव ही परिलक्षित होता है। - नियुक्ति साहित्य और गुणस्थान सिद्धान्त जैन परम्परा में आगमों की व्याख्या के रूप में विपुल साहित्य का सर्जन हुआ है। आगमिक व्याख्याओं के अन्तर्गत नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका, वृत्ति और टब्बे आते हैं। आगमों के व्याख्या साहित्य के रूप में सबसे पहले नियुक्तियों की रचना हुई। नियुक्तियाँ मुख्यरूप से आगमों के पारिभाषिक शब्दों के अर्थ का विभिन्न दृष्टियों से स्पष्टीकरण करती है। इसप्रकार वे आगमिक शब्दों की प्रथम व्याख्या है। इसके अतिरिक्त वे आगम की विषयवस्तु का संक्षिप्त विवरण भी प्रस्तुत करती है। जहाँ तक इन नियुक्तियों के लेखक का प्रश्न है, परम्परा के अनुसार इनके लेखक आचार्य भद्रबाहु को माना जाता है। यद्यपि इन नियुक्तियों में उपलब्ध कुछ परवर्तीकालीन संदर्भो को देखते हुए विद्वानों ने इन्हें प्रथम भद्रबाहु की कृति मानने से इन्कार कर दिया है। कुछ विद्वानों ने इन्हें वराहमिहिर के भाई आचार्य भद्रबाहु द्वितीय की कृति माना है, किन्तु इस सन्दर्भ में डॉ. सागरमल जैन आदि विद्वानों ने अपनी आपत्ति प्रस्तुत की है। डॉ. सागरमल जैन ने अपने लेख 'नियुक्ति साहित्य एक पुनर्चिन्तन' में नियुक्तियों को गौतमगौत्रीय आर्य भद्र की कृति माना है। उनके अनुसार नियुक्तियों का रचनाकाल विक्रम की प्रथम-द्वितीय शताब्दी १२३ वही. १२४ वही. Jain Education Intemational Jain Education Interational Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.. द्वितीय अध्याय........{56} यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि नियुक्तियाँ सभी आगम ग्रन्थों पर उपलब्ध नहीं है। आवश्यक नियुक्ति में निम्न दस आगमों पर नियुक्ति लिखने का उल्लेख है (१) आवश्यक नियुक्ति (२) दशवैकालिक नियुक्ति (३) उत्तराध्ययन नियुक्ति (४) आचारांग नियुक्ति (५) सूत्रकृतांग नियुक्ति (६) दशाश्रुतस्कंध नियुक्ति (७) बृहत्कल्प नियुक्ति (८) व्यवहार नियुक्ति (६) सूर्यप्रज्ञप्ति नियुक्ति (१०) ऋषिभाषित नियुक्ति, किन्तु वर्तमान में इन दस नियुक्तियों में से आठ ही नियुक्तियाँ उपलब्ध होती हैं। सूर्यप्रज्ञप्ति नियुक्ति और ऋषिभाषित नियुक्ति वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। ये दोनों नियुक्तियाँ लिखी गई थी या नहीं इस सम्बन्ध में भी विद्वानों में मतभेद है। इन उपलब्ध आठ नियुक्तियों के अतिरिक्त, वर्तमान में नियुक्तियों के नाम से जो साहित्य उपलब्ध है उसमें गोविन्द नियुक्ति, ओध नियुक्ति, पिण्ड नियुक्ति और आराधना नियुक्ति की परिगणना होती है । इनमें से आराधना नियुक्ति का उल्लेख श्वेताम्बर साहित्य में नहीं मिलता है। इसका उल्लेख प्रोफेसर ए.एन. उपाध्याय ने बृहद्कथाकोष की अपनी प्रस्तावना में किया है,१२५ किन्तु डॉ. सागरमल जैन ने 'नियुक्ति साहित्य एक पुनर्चिन्तन' में उनकी इस मान्यता को भ्रामक बताया है। डॉ. जैन के अनुसार मूलाचार में आगम ग्रन्थों के उल्लेख के सन्दर्भ में आराधना और नियुक्ति का उल्लेख आया है। यहाँ नियुक्ति शब्द सामान्य रूप से नियुक्ति साहित्य का सूचक है, न कि आराधना नियुक्ति का। जहाँ तक ओधनियुक्ति और पिण्ड नियुक्तियों का प्रश्न है, विद्वानों ने इन्हें स्वतन्त्र नहीं माना है। ओधनियुक्ति को आवश्यक नियुक्ति का और पिण्ड नियुक्ति को दशवैकालिक नियुक्ति का ही एक भाग माना गया है। गोविन्द नियुक्ति का उल्लेख तो श्वेताम्बर साहित्य में उपलब्ध होता है किन्तु वर्तमान में यह नियुक्ति भी उपलब्ध नहीं है। ऐसा माना जाता है कि आचारांगसूत्र में वर्णित षट्जीवनिकाय की अवधारणा में, पंच स्थावरकायों में जीव है, इसकी सिद्धि के लिए ही यह नियुक्ति लिखी गई थी। इसके लेखक आचार्य गोविन्द थे, जिनका उल्लेख नंदीसूत्र की स्थविरावली में मिलता है। यह नियुक्ति अपने लेखक के नाम से ही प्रसिद्ध रही है। ओध नियुक्ति और पिण्ड नियुक्ति की गणना आगम ग्रन्थों के रूप में भी की जाती है। इन दोनों नियुक्तियों में, गुणस्थान सिद्धान्त की क्या स्थिति है, इसकी चर्चा हम आगम साहित्य सम्बन्धी विवेचन में कर चुके हैं। संक्षेप में इन दोनों नियुक्तियों में हमें गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा उपलब्ध नहीं हुई है। अवशिष्ट आठ नियुक्तियों में गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा किस रूप में उपलब्ध है इसकी चर्चा आगे करेंगे। नियुक्ति साहित्य में गुणस्थान से सम्बन्धित जो उल्लेख मिलता है वह आवश्यक नियुक्ति में अवतरित निम्न दो गाथाएँ हैं मिच्छादिट्ठी सासायणे य तह सम्ममिच्छादिट्ठी य। अविरससम्मदिट्ठी विरयाविरए पमत्ते य ।। तत्ते य अप्पमत्तो नियट्टिअनियट्टिबायरे सुहुमे। उवसंतखीणमोहे होइ सजोगी अजोगी य।। _ - नियुक्तिसंग्रह'२६ (आवश्यक नियुक्ति, पृ. १४६) इन दोनों गाथाओं में स्पष्टरूप से चौदह गुणस्थानों का निर्देश है। इनमें गुणस्थानों के नाम इस क्रम में दिए गए हैं - (१) मिथ्यादृष्टि (२) सास्वादन (३) सम्यग्मिथ्यादृष्टि (४) अविरतसम्यग्दृष्टि (५) विरताविरत (६) प्रमत्त (संयत) (७) अप्रमत्त (संयत) (८) निवृत्ति (E) अनिवृत्तिबादर (१०) सूक्ष्म (संपराय) (११) उपशान्त (मोह) (१२) क्षीणमोह (१३) सयोगी (केवली) (१४) अयोगी (केवली) । आवश्यकनियुक्ति में उपलब्ध इन गाथाओं में इन नामों के अतिरिक्त अन्य कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। इन चौदह अवस्थाओं के साथ गुणस्थान शब्द का भी उल्लेख नहीं है, फिर भी नामों की समरूपता के आधार पर हमें यह तो स्वीकार करना पड़ेगा कि ये दोनों गाथाएँ चौदह गुणस्थानों का उल्लेख करती हैं, चाहे इनके लिए गुणस्थान शब्द का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया हो। इसके अतिरिक्त इन चौदह नामों में एक विशेषता यह देखने को मिलती है कि यहाँ आठवें गुणस्थान का नाम निवृत्ति दिया गया है। समवायांगसूत्र में भी अप्रमत्तसंयत के बाद निवृत्तिबादर नामक अवस्था का उल्लेख मिलता है। यहाँ निवृत्ति से सामान्य तात्पर्य मिथ्यात्वत्रिक और अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क को ही लेना चाहिए। दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में निवृत्तिबादर _ १२५ बृहद्कथाकोष, पृ. ३१, प्रो. ए.एन. उपाध्येय. १२६ नियुक्ति संग्रह, भद्रबाहु विरचित, संपादक विजय जिनेन्द्रसूरि, प्रकाशक श्री हर्ष पुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला, लाखाबाक्ल, शान्तिपुरी सौराष्ट्र. Jain Education Intemational Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{57} के स्थान पर अपूर्वकरण शब्द का ही प्रयोग देखा जाता है, जबकि समवायांग और आवश्यकनियुक्ति यहाँ निवृत्तिबादर या निवृत्ति शब्द का ही प्रयोग करती है। इन गाथाओं के आधार पर तो ऐसा लगता है कि नियुक्तिकार के समक्ष चौदह गुणस्थानों की अवधारणा उपस्थित रही होगी, किन्तु उपर्युक्त गाथाएँ नियुक्ति गाथा है या नहीं यह एक विवादास्पद प्रश्न है । डॉ. सागरमल जैन का स्पष्ट रूप से यह कहना कि ये गाथाएँ मूलतः नियुक्ति गाथाएँ नहीं हैं, इन्हें बाद में प्रक्षिप्त किया गया है। अपने तर्क के पक्ष में वे दो प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। प्रथम तो यह कि नियुक्तिसंग्रह में जहाँ ये दो गाथाएँ दी गई है, वहाँ इन्हें मूल गाथाओं में परिगणित नहीं किया गया है, अतः ये गाथाएँ आवश्यकनियुक्ति की मूल गाथा न होकर अन्य ग्रन्थ से प्रक्षिप्त की गई गाथाएँ हैं। दूसरा उनके सम्बन्ध में सबल तर्क यह है कि आचार्य हरिभद्र ने आठवीं शताब्दी में आवश्यकनियुक्ति पर टीका लिखी, उस टीका में वे स्पष्टरूप से इन्हें संग्रहणी गाथा कहकर उद्धृत करते हैं। इसप्रकार यह सिद्ध होता है कि आवश्यकनियुक्ति में उपलब्ध चौदह गुणस्थानों का उल्लेख करनेवाली गाथा उसकी मूल गाथाएँ नहीं है, अपितु संग्रहणीसूत्र से लेकर उन्हें प्रक्षिप्त किया गया है। फिर भी यह प्रश्न तो अनुत्तरित ही है कि ये गाथाएँ आवश्यकनियुक्ति में कब प्रक्षिप्त की गई। इतना तो स्पष्ट है कि आचार्य हरिभद्र को उपलब्ध आवश्यकनियुक्ति में ये दोनों गाथाएँ थी। यह भी सम्भव हो सकता है कि नियुक्तिकार के समक्ष भी ये दोनों गाथाएँ रही हो और उन्होंने इन्हें अपने ग्रंथ में अवतरित कर लिया हो। सत्य तो केवलीगम्य है। हाँ, इतना अवश्य है कि नियुक्ति साहित्य में आवश्यकनियुक्ति के इन संदर्भो को छोड़कर गुणस्थान सम्बन्धी कोई विचारणा हमें उपलब्ध नहीं हुई है। मात्र आचारांगनियुक्ति में आध्यात्मिक विकास (कर्म निर्जरा) दस अवस्थाओं का उल्लेख है, जिनमें से कुछ का नाम गुणस्थान सिद्धान्त की चौदह अवस्थाओं से साम्य है। आचारांग नियुक्ति में आध्यात्मिक विकास की निम्न दस अवस्थाओं का उल्लेख प्राप्त होता है- सम्यक्त्व प्राप्ति, श्रावक, विरत, अनन्त वियोजक, दर्शनमोह क्षपक, उपशामक (कषाय उपशामक) उपशान्त क्षपक, क्षीणमोह और जिन। इन दस अवस्थाओं का उल्लेख आचारांग नियुक्ति के अतिरिक्त षट्खण्डागम के चतुर्थ कृति अनुयोगद्वार की चूलिका में तथा तत्त्वार्थसूत्र में भी मिलता है। तुलनात्मक अध्ययन के लिए हम उन संदर्भो को यहाँ यथावत् प्रस्तुत कर रहे हैं। आचारांगनियुक्ति में ये गाथाएँ निम्न रूप में हैं - सम्मत्तुप्पत्ती सावए विरए अणंतकम्मसे। दसण मोहक्खवए उवसामन्ते य उवसंते।। खवए य खीणमोहे जिणे असेढी भवे असंखिज्जा। तब्बिरओ कालो संखिज्जगुणाइ सेढी ए। ।। गाथा २२-२३ ।। षट्खण्डागम में ये गाथाएँ हैं - सम्मतुप्पत्ती वि य सावय विरदे अणंतकम्मसे। दंसणमोहक्खवए कसाय उवसामए य उवसंते।। खवए य खीणमोहे जिणे य णियमा भवे असंखेज्जा। तब्विवरीदो कालो संखेज्जगुणा य सेडीओ।। षट्खण्डागम, कृति अनुयोगद्वार, प्रथम चूलिका गाथा ७-८ तत्त्वार्थसूत्र में इसी से सम्बन्धित सूत्र निम्न रूप से मिलता है - सम्यग्यदृष्टिश्रावक विरतानन्तवियोजकदर्शनमोहक्षपकोपशमकोपशान्त मोहक्षपकक्षीणमोहजिनाःक्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः।। (तत्त्वार्थसूत्र - ६/४७) इन उल्लेखों के आधार पर डॉ. सागरमल जैन का यह मानना है कि नियुक्तियों के रचनाकाल तक गुणस्थान सिद्धान्त का पूर्णतः विकास नहीं हुआ था। उस काल में आध्यात्मिक विकास की दस गुणश्रेणियों की चर्चा ही प्रचलित थी। जैसा कि हमने पूर्व में उल्लेख किया है, ये गुणश्रेणियाँ गुणस्थान सिद्धान्त के बीज रूप में रही हुई है। इनके आधार पर ही गुणस्थान सिद्धान्त का विकास हुआ हो, इस सम्भावना को पूरी तरह निरस्त नहीं किया जा सकता है, फिर भी यथार्थता क्या रही है, यह तो केवलीगम्य है, क्योंकि परम्परा तो गुणस्थान सिद्धान्त को भी जिन प्रणीत ही मानती है और प्राचीन स्तर के कर्म साहित्य में इसके सन्दर्भ है। Jain Education Interational Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... द्वितीय अध्याय........{58} यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि इन गुणश्रेणियों की चर्चा परवर्तीकाल में भी यथावत् होती रही है। मात्र यही नहीं, कालान्तर में इनकी संख्या दस से ग्यारह हो गई है। षट्खण्डागम की चूलिका में उद्धृत गाथा में तो यह संख्या दस ही थी, किन्तु षट्खण्डागम के मूल व्याख्यासूत्रों में यह संख्या ग्यारह हो गई है। इसमें दसवीं जिन नामक अवस्था में सयोग केवली संयत और योग निरोध केवली संयत ऐसे दो विभाग किए गए हैं। सयोग केवली संयत को यहाँ 'आधापवत्त केवली संजल' नाम दिया गया है। ज्ञातव्य है कि ये दोनों गाथाएँ कार्तिकेयानुप्रेक्षा और गोम्मटसार तथा श्वेताम्बर परम्परा के प्राचीन और अर्वाचीन कर्मसाहित्य के ग्रन्थों में भी मिलती है। इन दस अवस्थाओं और उनके अग्रिम विकास के तुलनात्मक अध्ययन को लेकर डॉ.सागरमल जैन ने अपने ग्रन्थ 'गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण' के प्रथम अध्याय से लेकर चतुर्थ अध्याय तक अनेक प्रमाणों को प्रस्तुत करते हुए विस्तृत चर्चा की है। हम उस चर्चा की गहराई में न जाकर यहाँ इतना संकेत करना ही पर्याप्त समझते हैं कि नियुक्ति साहित्य में आचारांग नियुक्ति की आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाओं का चित्रण करने वाली उपर्युक्त दो गाथाओं और आवश्यक नियुक्ति में संग्रहणीसूत्र से उद्धृत मात्र चौदह गुणस्थानों के नामों के उल्लेख करने वाली दो गाथाओं के अतिरिक्त गुणस्थान की अवधारणा को लेकर अन्य कोई विस्तृत विवरण उपलब्ध नहीं होता है । भाष्य साहित्य और गुणस्थान सिद्धान्त नियुक्तियों के पश्चात् आगमिक व्याख्या साहित्य में भाष्यों की रचनाएँ हुई। नियुक्तियों की रचनापद्धति गूढ़ एवं संक्षिप्त थी, अतः उनके गूढ़ अर्थों को स्पष्ट करने के लिए उत्तरकालीन आचार्यों ने उन पर जो व्याख्याएँ लिखी वे भाष्य कहे गए। भाष्य भी नियुक्ति के समान ही प्राकृत भाषा में एवं पद्यों में लिखे गए। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि भाष्य मुख्यतः नियुक्तियों को आधार बनाकर ही लिखे गए हैं, यद्यपि इनका आधार तो आगम ग्रन्थों से ही जोड़ा गया है। जिस प्रकार नियुक्तियाँ भी सभी आगम ग्रन्थों पर नहीं है, उसी प्रकार भाष्य भी सभी आगम ग्रन्थों पर उपलब्ध नहीं है। भाष्य साहित्य के रूप में जो ग्रन्थ लिखे गए थे उनमें बृहत्कल्पभाष्य, व्यवहारभाष्य, निशीथभाष्य, आवश्यकमूलभाष्य, विशेषावश्यकभाष्य, पंचकल्प महाभाष्य, उत्तराध्ययनभाष्य, दशवैकालिकभाष्य, बृहत्कल्पभाष्य, पंचकल्पभाष्य, जीतकल्पभाष्य, ओघनियुक्तिभाष्य और पिण्डनियुक्तिभाष्य। इस विपुल भाष्य साहित्य में जो भाष्य प्रकाशित हुए हैं, उनमें बृहत्कल्पभाष्य, व्यवहारभाष्य, विशेषावश्यकभाष्य, उत्तराध्ययनभाष्य, जीतकल्पभाष्य और निशीथभाष्य ही प्रमुख है। निशीथभाष्य निशीथचूर्णि के साथ चार भागों में प्रकाशित हुआ हैं। इसीप्रकार बृहत्कल्पभाष्य भी छः खण्डों में प्रकाशित हुआ है। व्यवहारभाष्य का एक नवीन संस्करण लाडनूं से प्रकाशित हुआ है। इसके अतिरिक्त उत्तराध्ययनभाष्य और जीतकल्पभाष्य भी प्रकाशित है, किन्तु ये दोनों भाष्य आकार में संक्षिप्त है। उत्तराध्ययनभाष्य में तो मात्र पैंतालीस (४५) गाथाएँ है। जीतकल्पभाष्य भी संक्षिप्त ही है। इन दोनों भाष्य में हमें कहीं भी गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। बृहतकल्पभाष्य यद्यपि छः खण्डों में प्रकाशित है किन्तु ये छहों खण्ड हमें प्राप्त नहीं हो सके, इसीलिए इस ग्रन्थ में गुणस्थान सिद्धान्त की उपलब्धि या अनुपलब्धि को लेकर हम कोई चर्चा करने में असमर्थ ही है। बृहत्कल्पभाष्य में अनेक गाथाएँ व्यवहारभाष्य के समरूप है। व्यवहारभाष्य में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी चर्चा का अभाव है, अतः यही सम्भावना बृहत्कल्प भाष्य के सम्बन्ध में भी व्यक्त की जा सकती है। दूसरे, ये दोनों भाष्य बृहत्कल्प और व्यवहार नामक छेदसूत्रों पर हैं और छेदसूत्रों का विषय प्रायश्चित सम्बन्धी है, अतः इनमें गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा का अभाव हो, यह स्वाभाविक है। मुनि दुलहराज ने बृहत्कल्पभाष्य और व्यवहारभाष्य को विशेषावश्यक भाष्य की अपेक्षा प्राचीन माना है। वे व्यवहारभाष्य की भूमिका के रूप में लिखे गए अपने आलेख 'व्यवहारभाष्य एक अनुशीलन' में व्यवहारभाष्य को विशेषावश्यकभाष्य की अपेक्षा प्राचीन बताते हैं और इसका काल चौथी-पाँचवीं शताब्दी निश्चित करते हैं। उन्होंने इस भाष्य का जो विस्तृत विषयानुक्रम प्रस्तुत किया है, उसका अवलोकन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस भाष्य में कहीं भी गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कोई चर्चा १२७ व्यवहारभाष्य, संपादक, आ. महाप्रज्ञ, समणी कुसुमप्रज्ञा, प्रकाशक : जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं (राज.) Jain Education Intemational national Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{59) उपलब्ध नहीं होती है। इस भाष्य में मुख्यतया दस प्रायश्चितों का विवरण प्रस्तुत करके यह बताया गया है कि किन परिस्थितियों में किए गए, कौनसे अपराध, किस और कितने प्रायश्चित के योग्य होते हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में विविध उदाहरणों और देश, कालगत परिस्थितियों का चित्रण भी इस ग्रन्थ में मिलता है। इस ग्रन्थ के सामान्य अवलोकन के आधार पर हम यह पाते हैं कि इस ग्रन्थ में कहीं भी गुणस्थान सिद्धान्त या उससे सम्बन्धित तथ्यों का विवेचन नहीं हुआ है। इसकी गाथा २७६७ में इतना अवश्य कहा गया है कि भावों की विशुद्धि से मोहकर्म का अपचय होता है। मोहकर्म का अपचय होने से भावों की विशुद्धि होती है, किन्तु इस चर्चा का सम्बन्ध गुणस्थान सिद्धान्त के साथ जोड़ना कठिन है। इसी प्रकार भरतक्षेत्र में कब, किसका विच्छेद हुआ, इसकी चर्चा करते हुए यह कहा गया है कि केवली और चतुर्दश पूर्वधर के विच्छेद के साथ ही पारांचित प्रायश्चित का भी विच्छेद हुआ है, किन्तु यहाँ केवली शब्द का प्रयोग सयोगीकेवली या अयोगीकेवली गुणस्थान के सम्बन्ध में नहीं है। मुनि एवं गृहस्थ आदि के भी कुछ उल्लेख इसमें अवश्य है, किन्तु उनका सम्बन्ध देशविरति, प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों के साथ नहीं जोड़ा जा सकता है। इसप्रकार निष्कर्ष रूप में हम यह कह सकते हैं कि व्यवहारभाष्य में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विवेचना का अभाव है। भाष्यसाहित्य में विशेषावश्यकभाष्य अति महत्वपूर्ण माना गया है। सामान्यतया तो यह आवश्यकसूत्र पर लिखा गया भाष्य है, किन्तु यदि इसकी विषयवस्तु को देखें तो यह जैनधर्मदर्शन का एक आकर ग्रन्थ कहा जा सकता है। विशेषावश्यकभाष्य के लेखक जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण है। इस ग्रन्थ की एक प्रतिलिपि जैसलपुर भण्डार में प्राप्त होती है। यह प्रतिलिपि जिसके आधार पर तैयार की गई है, वह शक संवत् ५३१ की है। इससे इतना तो निश्चित है कि यह ग्रन्थ लगभग ईसा की छठी शताब्दी के अन्त में लिखा गया होगा। इस ग्रन्थ पर स्वोपज्ञटीका के अतिरिक्त मलधारी हेमचन्द्रसूरि कृत वृत्ति भी उपलब्ध होती है। इस ग्रन्थ में मूल में तो गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा का प्रायः अभाव ही दिखाई देता है, किन्तु मूलग्रन्थ में कर्मों की स्थितियों की चर्चा के प्रसंग में मूलगाथाओं की टीका करते हुए मलधारी हेमचन्द्रसूरि ने विविध गुणस्थानों की चर्चा अवश्य की है। विशेषावश्यकभाष्य की ११८६ गाथा में सामयिक की चर्चा के प्रसंग में यह कहा गया है कि आठों कर्मों की कर्मप्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति के होने पर चार प्रकार की सामायिक में किसी की भी प्राप्ति नहीं होती है। टीका में इन चार प्रकार की सामायिकों का उल्लेख इन रूपों में हुआ है- सम्यक्त्व सामायिक, श्रुत सामायिक, देशविरति सामायिक और सर्वविरति सामायिक। यहाँ मूलगाथा में मात्र चार प्रकार के सामायिकों का उल्लेख है, गुणस्थानों का कोई उल्लेख नहीं है, किन्तु इसकी टीका में मलधारी हेमचन्द्रसूरि ने गुणस्थान सम्बन्धी विचारणा को भी स्थान दिया है। इसी क्रम में आगे यह भी कहा गया है कि जब तक मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध होता रहता है, तब तक आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष छः कर्मों का भी उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता रहता है, किन्तु जब आयुष्य कर्म के अतिरिक्त शेष सात कर्मों की स्थिति एक कोडाकोडी सागरोपम से कुछ न्यून होती है, तो चार में से एक सामायिक का लाभ प्राप्त होता है, अर्थात् वह सम्यक्त्व सामायिक को प्राप्त होता है। इसके पश्चात् सम्यक्त्व की प्राप्ति के निमित्तरूप यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण की चर्चा हुई। यहाँ पर यद्यपि अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण का उल्लेख है, वि. तु यह उल्लेख अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के सन्दर्भ में न होकर सम्यक्त्व की प्राप्ति में होनेवाले त्रिकरणों के रूप में हुआ है। मुलगाथाओं में गाथा क्रमांक ११२५ से १२३ में यह विचार किया गया है कि किन कषायों की सत्ता में कौनसा गण प्रकट नहीं होता है। वहाँ अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय में सम्यग्दर्शन, अप्रत्याख्यानीय कषाय के उदय में देशविरति, प्रत्याख्यानीय कषाय के उदय में सर्वविरति और सूक्ष्मकषायों के उदय में केवलज्ञान की प्राप्ति सम्भव नहीं होती है। यद्यपि यह चर्चा गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित प्रतीत होती है, किन्तु इसे हम गुणस्थान सिद्धान्त की प्रारम्भिक अवस्था ही कह सकते हैं। यहाँ सुव्यवस्थित रूप से न तो गुणस्थानों का उल्लेख हुआ है और न ही गुणस्थान विशेष के रूप में इन अवस्थाओं का चित्रण किया गया है। पुनः इसी क्रम में गाथा क्रमांक १२६० में चारित्र के पाँच प्रकार की चर्चा हुई है। उसमें सूक्ष्मसंपराय नामक चारित्र का भी उल्लेख हुआ है। सूक्ष्मसंपराय नामक गुणस्थान ही है, किन्तु यहाँ सूक्ष्मसंपराय का उल्लेख चारित्र के एक भेद के रूप में ही समझना चाहिए, Jain Education Intemational Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{60} गुणस्थान के रूप में नहीं। यद्यपि टीकाकार आचार्य मलधारी हेमचन्द्रसूरि ने गाथाओं की टीका में गुणस्थान सम्बन्धी निर्देश करते हुए यह कहा है कि सूक्ष्मलोभांश जिस चारित्र में रहता है, वह सूक्ष्मसंपराय चारित्र है। उन्होंने पुनः इस सूक्ष्मसंपराय के दो भेद किए हैं-विशध्यमान और संकिलश्यमान। यह बताया है कि क्षपकश्रेणी से अथवा उपशमश्रेणी से ग्यारहवें। गुणस्थान की ओर जाते हुए विशुध्यमान चारित्र होता है, परन्तु उपशमश्रेणी से आरोहण करके ग्यारहवें गुणस्थान से पुनः पतित होकर दसवें गुणस्थान में आते हए पनःसंकिलश्यमान चारित्र होता है, इसप्रकार मलधारी टीका में तो यहाँ गणस्थान सम्बन्धी चर्चा परिलक्षित होती है, किन्त मुलगाथाओं में गणस्थान सम्बन्धी कोई संकेत हमें उपलब्ध नहीं होता है। यहाँ यह तथ्य भी विचारणीय है कि जहाँ सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान से केवल सूक्ष्मलोभ की सत्ता मानी गई है, वहीं आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने गाथा क्रमांक १२७७ में स्पष्ट रूप से क्रोधादि कषायों के सूक्ष्म अवशेष को भी सूक्ष्मसंपराय कहा है और यह माना है कि सूक्ष्मसंपराय चारित्र में क्रोधादि कषाएँ सूक्ष्मरूप से अवशिष्ट रहती हैं। विशेषावश्यकभाष्य में उपशमश्रेणी और क्षपक श्रेणी से आरोहण करता हआ जीव किस क्रम से कर्मप्रकतियों का क्षय करत है इसकी विस्तत चर्चा की गई है, (गा. १२८५ से १२६३) इस चर्चा में उपशान्तकषाय का भी उल्लेख हआ है, (गा. १३०६), किन्तु यहाँ उपशान्तकषाय का सम्बन्ध उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान से जोड़ना समुचित प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि कर्मप्रकृतियों के क्षय, उपशम की इस चर्चा में कहीं भी गुणस्थान शब्द का उल्लेख हमें दृष्टिगत नहीं हुआ है। यद्यपि यह अवश्य कहा गया है कि दर्शनमोह का क्षय होने पर निवृत्तिबादर कहलाता है और संज्वलन लोभ का संख्यातवाँ भाग अनिवृत्तिबादर कहलाता है। इस संख्यातवें भाग लोक के असंख्यात भाग करने पर असंख्यातवाँ भाग शेष रहने पर सुक्ष्मसंपराय कहा जाता है। इस असंख्यातवें भाग के भी क्षय होने पर साधक क्षपक निर्ग्रन्थ कहलाता है। उसके पश्चात् छद्मस्थ काल के दो चरम समय शेष रहने पर निद्रा और प्रचला का क्षय करके वह ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय का क्षय करके केवलज्ञान को प्राप्त होता है. (गा १३३० से १३३३)। इस चर्चा से स्पष्टतया ऐसा लगता है कि यहाँ जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण निवृत्तिबादर, अनिवृत्तिबादर, सूक्ष्मसंपराय, क्षीणमोह, क्षपक निर्ग्रन्थ और केवली (सयोगी केवली) गुणस्थान की चर्चा कर रहे हैं, फिर भी यह आश्चर्य है कि यहाँ उन्होंने कहीं भी गुणस्थान शब्द का उल्लेख नहीं किया है। यह प्रश्न विद्वानों के लि तणे विशेषावश्यकभाष्य की विषयवस्तु का अवलोकन करने पर यह ज्ञात होता है कि उसमें सर्वप्रथम मंगल के स्वरूप की चर्चा की गई है। उसके पश्चात उसमें लगभग ३०० गाथाओं में पंच ज्ञानों की चर्चा है। उसके पश्चात विभिन्न अनुयोगद्वारों के आधार पर आवश्यक और सामायिक शब्द की व्याख्या की गई है। इसके पश्चात् तीर्थ की व्याख्या करते हुए द्रव्यतीर्थ और भावतीर्थ के रूप में विचार किया गया है। उसके पश्चात् पाँच प्रकार के चारित्र का वर्णन किया गया है और यहाँ किन कषायों की उपस्थिति में किन चारित्रों का अभाव होता है, इसकी भी चर्चा की गई है। उसके पश्चात् गणधरवाद में ग्यारह गणधरों, उनकी शंकाओं और उनके निरसन के सम्बन्ध में विस्तार से विचार हुआ है। तदनन्तर जैन तत्वज्ञान और नय-निक्षेप आदि की चर्चा उपलब्ध होती है। इसी क्रम में जमाली आदि निह्नवों का और उनके मतों के निरसन सम्बन्धी विवेचन है। निह्नवों की इस चर्चा के अन्त में दिगम्बर मत की उत्पत्ति के प्रसंग में शिवभूति सम्बन्धी कथानक है। अन्त में अर्हन्त, सिद्ध आदि की चर्चा करते हुए पुनः सामायिक पद की व्याख्या उपलब्ध है। इस समग्र विषयवस्तु का अवलोकन करने से यह स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ में गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा उपलब्ध नहीं है। यह भी विचारणीय विषय है कि इस ग्रन्थ में केवली समदघात की चर्चा करते हए गणश्रेणी की भी चर्चा की गई है। इस ग्रन्थ में भी दो स्थल अवश्य ऐसे हैं, जहाँ गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा की जा सकती है। प्रथम, पाँच प्रकार के चारित्र और उन चारित्रों में बाधक कषायों की चर्चा का प्रसंग और दूसरा, पूर्वोक्त केवली समुद्घात का प्रसंग, किन्तु हमें यह आश्चर्य है कि ग्रन्थकार ने यहाँ भी गणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा नहीं की है। जहाँ तक ग्रन्थकार अवलोकन कर सके. वहाँ तक हमें उसमें न तो गुणस्थान शब्द का उल्लेख प्राप्त हुआ और न ही गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा उपलब्ध हुई। आश्चर्य का विषय Jain Education Interational Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{61} यह है कि विशेषावश्यकभाष्य के रचनाकाल तक गुणस्थान के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा प्रारम्भ हो गई थी। दिगम्बर परम्परा में षटखण्डागम, पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका और श्वेताम्बर परम्परा में जीवसमास आदि ग्रन्थ गुणस्थान की चर्चा कर रहे थे, फिर भी जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने इस आकर ग्रन्थ में गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा क्यों नहीं की, यह जिज्ञासा का विषय बना रहता है। गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन को विद्वानों के अनुसार चाहे कितना ही परवर्ती माने, किन्तु यह तो निश्चित है कि विशेषावश्यकभाष्य की रचना के पूर्व यह चर्चा अस्तित्व में थी। हमारी दृष्टि में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण द्वारा गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा की अपेक्षा का एक ही कारण प्रतीत होता है, वह यह कि उनका यह ग्रन्थ मूलतः आवश्यक नियुक्ति की व्याख्या रूप ही था और आवश्यक नियुक्ति में गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा का अभाव होने से उन्होंने भी उसकी कोई चर्चा न की हो। उपलब्ध आवश्यक नियुक्ति में गुणस्थान सम्बन्धी दो गाथाएँ अवश्य मिलती हैं, किन्तु हरिभद्रसूरि की टीका में इन्हें संग्रहणी की गाथा के रूप में ही उद्धृत किया गया है। इस आधार पर यह माना जा सकता है कि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के समक्ष जो आवश्यक नियुक्ति उपलब्ध रही होगी उसमें इन गाथाओं का अभाव ही रहा होगा। यदि आधार ग्रन्थ में गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा नहीं हो, तो व्याख्या ग्रन्थ में उस चर्चा का अभाव आश्चर्यजनक नहीं है। आगे सत्य तो केवली गम्य है। चूर्णिसाहित्य और गुणस्थान सिद्धान्त र आगमिक व्याख्याओं के रूप में नियुक्ति और भाष्यों के पश्चात् चूर्णियाँ लिखी गई है। जहाँ नियुक्ति और भाष्य प्राकृत पद्यों में लिखे गए हैं, वहीं चूर्णियाँ प्राकृत या संस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषा में तथा गद्यों में लिखी गई है। चूर्णि शब्द का तात्पर्य यह है कि वर्ण्य विषय को अधिक स्पष्टता के साथ और उदाहरण सहित समझाना। नियुक्तियों की अपेक्षा भाष्य और भाष्य की अपेक्षा चूर्णियाँ अधिक विस्तृत है। इनमें प्रत्येक विषय को विस्तारपूर्वक एवं उदाहरण सहित समझाया गया है। जिस प्रकार नियुक्तियाँ एवं भाष्य सभी आगम ग्रन्थों पर नहीं मिलते हैं, उसी प्रकार चूर्णियाँ भी सभी आगम ग्रन्थों में नहीं मिलती है। फिर भी जहाँ नियुक्तियाँ दस आगम ग्रन्थों पर लिखी गई है, वहीं चूर्णियाँ अठारह आगम ग्रन्थों पर लिखी गई है। हमें निम्न आगम ग्रन्थों पर चूर्णियाँ लिखी जाने की सूचना प्राप्त होती है- (१) आचारांगचूर्णि (२) सूत्रकृतांगचूर्णि (३) भगवतीचूर्णि (४) जीवाजीवाभिगमचूर्णि (५) जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिचूर्णि (६) दशाश्रुतस्कंधचूर्णि (७) बृहत्कल्पचूर्णि (८) व्यवहारचूर्णि (६) निशीथचूर्णि (१०) महानिशीथचूर्णि (११) उत्तराध्ययनचूर्णि (१२) दशवैकालिकचूर्णि (१३) नंदीचूर्णि (१४) अनुयोगद्वारचूर्णि (१५) आवश्यकचूर्णि (१६) जीतकल्पचूर्णि (१७) पंचकल्पचूर्णि और (१८) ओघनियुक्तिचूर्णि । इस प्रकार हम देखते हैं कि चूर्णियों की संख्या नियुक्ति और भाष्य से अधिक है। जैसा कि हमने पूर्व में कहा है चूर्णियाँ प्राकृत एवं संस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषा में लिखी गई है। यद्यपि दशवैकालिकचूर्णि आदि कुछ चूर्णियों में प्राकृत को ही प्रमुखता दी गई है, फिर भी यथाप्रसंग संस्कृत के श्लोक एवं उदाहरण तो उनमें भी है। ___ जहाँ तक चूर्णिकारों का प्रश्न है, उनमें अगस्त्यसिंहसूरि, जिनदासगणि महत्तर, सिद्धसेनसूरि, प्रलंबसूरि आदि प्रमुख है। अगस्त्यसिंहसूरि की दशवैकालिकचूर्णि सबसे प्राचीन मानी जाती है। अगस्त्यसिंहसूरि कोटिक गण और व्रजी शाखा में हुए हैं। इनके गुरू का नाम ऋषिगुप्त है। अगस्त्यसिंहसूरि की दशवैकालिकचूर्णि में तत्त्वार्थसूत्र के अनेक उदाहरण उपलब्ध होते हैं। इस अपेक्षा से वे उमास्वाति के बाद कभी हुए होंगे। उमास्वाति का काल तीसरी-चौथी शताब्दी का माना जाता है। अतः इनका काल चौथी-पाँचवीं शताब्दी के लगभग निश्चित होता है। चूर्णिकारों में सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति जिनदासगणि महत्तर है। जिनदासगणि ने सूत्रकृतांगचूर्णि, उत्तराध्ययनचूर्णि, दशवैकालिकचूर्णि, नंदीचूर्णि, अनुयोगद्वारचूर्णि, निशीथविशेषचूर्णि और आवश्यकचूर्णि लिखी है। परम्परा के आधार पर जो कुछ सूचनाएँ मिलती हैं, उससे यह निश्चित होता है कि ये कोटिकगण, व्रजी शाखा और वाणिच्य कुल के थे। इनके गुरु का नाम गोपालगणि महत्तर और विद्या गुरु का नाम प्रद्युम्न क्षमाश्रमण था। इनका काल ईसा की सातवीं शताब्दी के लगभग है। जिनदासगणि महत्तर के पश्चात् चूर्णिकारों में सिद्धसेनसूरि और प्रलंबसूरि के नाम आते है। इनका काल लगभग Jain Education Intemational Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ द्वितीय अध्याय....{62} ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी होना चाहिए, क्योंकि तेरहवीं शताब्दी में इनके ग्रन्थों पर टीकाएँ लिखी गई। इसप्रकार हम देखते हैं कि चूर्णियों की लिखने की परम्परा एक लम्बे काल तक चलती रही। श्वेताम्बर परम्परा में चौथी - पाँचवीं शताब्दी से लेकर ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी तक चूर्णियाँ लिखी जाती रही । जहाँ तक दिगम्बर परपंरा का प्रश्न है, हमें कसायपाहुडसुत्त पर यतिवृषभ द्वारा चूर्णिसूत्र लिखे जाने की सूचना प्राप्त होती है। दिगम्बर परम्परा में अन्य किसी ग्रन्थ पर चूर्णियाँ लिखी गई हो, ऐसा हमें ज्ञात नहीं है । यतिवृषभ ने कसायपाहुडसुत्त पर चूर्णिसूत्र लिखे हैं, उनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि यतिवृषभ ने गुणस्थान सिद्धान्त के विकास के पश्चात् चूर्णिसूत्र लिखे हैं । मूल ग्रन्थ में गुणस्थान की अवधारणा का अभाव है। मात्र गुणस्था सम्बन्धित कुछ नाम ही मिलते हैं, जबकि चूर्णिसूत्रों में स्पष्ट रूप से गुणस्थानों का उल्लेख है। श्वेताम्बर परम्परा में आवश्यकचूर्ण को छोड़कर अन्य चूर्णियों में गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा का प्रायः अभाव ही देखा जाता है। हमारी दृष्टि में इसका कारण यह है कि जिन आगम ग्रन्थों पर चूर्णियाँ लिखी गई, उनमें गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा का अभाव होने के कारण चूर्णिकारों ने भी उनकी कोई चर्चा नहीं की । यद्यपि सभी चूर्णियों का आद्योपान्त अवलोकन करना सम्भव नहीं था, इसके दो कारण रहे हैं - (१) ग्रन्थों की उपलब्धि का अभाव (२) चूर्णि साहित्य की विशालता । हमने विशेष रूप से चूर्णि साहित्य में केवल उन्हीं स्थलों को देखने का प्रयत्न किया है, जहाँ मूल ग्रन्थ के आधार पर उनकी सम्भावना हो सकती थी। हमें जो सूचनाएँ उपलब्ध हो सकी हैं, उसके आधार पर " आवश्यकचूर्णि” एक ऐसा ग्रन्थ उपलब्ध हुआ, जिसमें गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी अवधारणा का संतोषजनक विवरण है। अतः अग्रिम पृष्ठों में हम आवश्यकचूर्णि में उपलब्ध गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं । आवश्यकचूर्णि९२८ श्वेताम्बर परम्परा में आगमिक व्याख्याओं में आवश्यकचूर्णि का महत्वपूर्ण स्थान है। आवश्यकचूर्णि मुख्यतः आवश्यकसूत्र की व्याख्या रूप है । इसके रचनाकार जिनदासगणि महत्तर माने जाते हैं। विद्वानों की दृष्टि में इनका काल लगभग सातवीं शताब्दी माना गया है। इसमें प्रतिक्रमण नामक चतुर्थ अध्ययन की चूर्णि लिखते हुए जिनदासगणि महत्तर ने चतुर्दश भूतग्राम की चर्चा के पश्चात् लिखा है कि अन्य कुछ आचार्य " चउदसहिं भूतगामेहि" सूत्र के स्थान पर " चउदस गुणठाणानि वि पन्नवेंति”, ऐसा पाठ स्वीकार करते हैं। इससे ऐसा लगता है कि उनके काल में कुछ आचार्य चौदहवें बोल में चतुर्दश भूतग्राम ( जीवस्थान) के स्थान पर चतुर्दश गुणस्थानों की प्रज्ञापना करते थे। इस सम्बन्ध में उनका यह तर्क था कि चौदह गुणस्थान भी चौदह भूतग्राम या जीवस्थान ही है, क्योंकि जीव इनमें वर्तन करता है या रहता है। इस स्थान पर चूर्णिकार ने दो गाथाओं को उद्धृत किया है। ये दोनों गाथाएँ समवायांगसूत्र और आवश्यक निर्युक्ति में भी उल्लेखित है। डॉ. सागरमल जैन का मानना है कि समवायांगसूत्र और आवश्यकनिर्युक्ति में ये दोनों गाथाएँ संग्रहणी सूत्र से उद्धृत की है । आवश्यक निर्युक्ति की हरिभद्र टीका में स्पष्ट रूप से इन्हें संग्रहणी गा गया है।१२* निर्युक्ति संग्रह में भी इन्हें संग्रहणी कहकर उद्धृत किया गया है। ३८ आवश्यक चूर्णिकार जिनदास गणि महत्तर ने निम्न चौदह गुणस्थानों का उल्लेख किया है- (१) मिथ्यादृष्टि गुणस्थान (२) सास्वादन गुणस्थान (३) सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ( ४ ) अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान ( ५ ) विरताविरत गुणस्थान ( ६ ) प्रमत्तसंयत गुणस्थान (७) अप्रमत्तसंयत गुणस्थान ( ८ ) निवृत्ति-नियट्टी (मिथ्यात्व मोह) गुणस्थान (६) अनिवृत्ति (बादर कषाय ) गुणस्थान (१०) सूक्ष्मसंपराय (सुहुम संपराय) गुणस्थान (११) उपशान्तमोह गुणस्थान ( १२ ) क्षीणमोह गुणस्थान (१३) सयोगीकेवली गुणस्थान (१४) अयोगीकेवली गुणस्थान। उसके पश्चात् चूर्णिकार ने लगभग तीन पृष्ठों में इन चौदह गुणस्थानों की व्याख्या की । सर्वप्रथम मिध्यादृष्टि गुणस्थान की व्याख्या करते बताया है कि मिथ्यादृष्टि दो प्रकार के होते हैं - अभिगृहीत मिथ्यादृष्टि और अनभिगृहीत मिथ्यादृष्टि । यहाँ चूर्णिकार ने १२८ आवश्यकचूर्णि, जिनदासगणिमहत्तर, ऋषभदेव केशरीमल संस्था, रतलाम. सं. १६२६, उत्तरभाग, पृ. १३३-१३६. १२६ आवश्यक निर्युक्ति, हरिभद्रीवृत्ति, भाग-२, प्र. भेरूलाल कन्हैयालाल कोठारी, धार्मिक ट्रस्ट, मुम्बई, पृ. १०६-१०७. १३० निर्युक्ति संग्रह - हर्षपुष्पामृत ग्रन्थमाला, लाखाबावल, पृ. १४६. Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{63} अभिगृहीत मिथ्यादृष्टियों में सांख्यों, आजीवकों, बौद्धों एवं निह्नवों और बौटिक आदि विचारकों की गणना की है, वहीं अनभिगृहीत मिथ्यादृष्टि में एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रीय, त्रीन्द्रिय, चतुरेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय- उन जीवों को बताया है, जो किसी दार्शनिक परम्परा से बद्ध नहीं है। जो किसी धर्म-दर्शन को मानते हैं, उनका मिथ्यात्व अभिगृहीत है। सास्वादन गुणस्थान की चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा है कि जिनवचन में जिसकी ईषत् रुचि हो अथवा जो उपशम सम्यक्त्व से मिथ्यात्व की ओर जा रहा हो (किन्तु मिथ्यात्व का ग्रहण न किया हो) अथवा जैसा कोई पुरुष पुष्प-फल आदि से समृद्ध ऊँचे वृक्ष से प्रमाद दोष के कारण गिरता हुआ, जब तक धरणी तल को प्राप्त नहीं होता हो, उसके बीच का जो अन्तराल काल है, ऐसा ही सम्यक्त्व मूलक जिनवचनरूपी कल्पद्रुम से मिथ्यात्व की ओर संक्रमण करता हुआ, जब तक जीव मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता तब तक छः आवलिका परिमाण काल सास्वादन गुणस्थान को होता है, अथवा जो सम्यक्त्व का आस्वाद ले रहा है, वह सास्वादनसम्यग्दृष्टि है । इस सम्बन्ध में जिनदासगणि महत्तर ने निम्न नियुक्ति गाथा भी उद्धरित की है - उवसमसमा पऽसाणओ तु मिच्छत्त संकमण काले । सासाणो छावलीओ भूमिमपत्तोव्व पडमाणो ।। अर्थात् उपशम सम्यक्त्व से गिरते हुए मिथ्यात्व तक पहुंचने का संक्रमण काल जो छः आवलिका परिमाण समय होता है, वह सास्वादन गुणस्थान का है। जिस प्रकार वृक्ष से गिरता हुआ जीव जब तक भूमि को प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार उपशम सम्यक्त्व से गिरता हुआ जीव जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता, उसके बीच का संक्रमण काल सास्वादन गुणस्थान है। तीसरा सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान नियमतः पर्याप्त संज्ञि पंचेन्द्रिय संसारी जीवों को होता है। ये जीव प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में ही प्रशस्त अध्यवसायों के परिणामस्वरूप मिथ्यात्वमोह कर्म के पुद्गलों को तीन भागों में विभाजित करते हैं। यथामिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व। इस सम्बन्ध में कोद्रव का दृष्टांत दिया गया है। वे मादक कोद्रव जिनको धोकर उनकी मादक शक्ति को कम नहीं किया गया है, वे अधिक नशा देते हैं, किन्तु जिन मादक कोद्रवों को एक बार धोकर उनकी मादक शक्ति को मंद कर दिया गया है, उनका नशा अल्प होता है, वे मादक कोद्रव जो विशिष्ट प्रकार के जल से तीन बार धो दिए गए हैं, उनकी मादकता समाप्त हो जाती है और उनसे मधुर भात बनता है। इसीप्रकार से जीव मिथ्यात्व आदि भाव से उपचित होने पर शुभ अध्यवसायों के द्वारा मिथ्यात्व के जनक अशुभ अध्यवसायों को धोकर उन्हें तीन प्रकार का बना देता है-मिथ्यात्वमोह, सम्यग्मिथ्यात्व मोह और सम्यक्त्व मोह।। यहाँ जीव मिथ्यात्व का उदय होने पर उसे सम्यग्मिथ्यात्व के रूप में परिणमित कर देता है और उसे जिनवचन के प्रति श्रद्धा-अश्रद्धा का भाव जगाता है। यह अवस्था अन्तर्मुहुर्त तक बनी रहती है। उसके पश्चात् वह या तो सम्यक्त्व में परिणमन कर देता है या मिथ्यात्व में परिणमन कर देता है। इसप्रकार सम्यग्मिथ्यात्व नामक गुणस्थान में जीव को जिनवचनों के प्रति न तो पूर्णतः श्रद्धा का भाव रहता है और न ही पूर्णतः अश्रद्धा का भाव रहता है। चौथे अविरतसम्यग्दृष्टि नामक गुणस्थान से नारक, तिर्यच, मनुष्य और देवगति में महाव्रत अथवा अणुव्रत को ग्रहण नहीं करके क्षायिक अथवा क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि होती है। वे जीव अविरतसम्यग्दृष्टि कहे जाते हैं। उनका सम्यग्दर्शन दो प्रकार का होता है। अभिगम सम्यक्त्व और निसर्ग सम्यक्त्व। इसमें जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष-ऐसे नौ पदार्थों का जहाँ सीमित सम्यग्ज्ञान होता है, उसे अभिगम सम्यक्त्व कहते हैं। निसर्ग नाम स्वभाव का है। अभिगम में अध्ययन आदि के द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है। निसर्ग में स्वाभाविक रूप से ही जीव ज्ञान को प्राप्त होता है। यहाँ जिनदासगणि महत्तर ने निसर्ग सम्यक्त्व का एक दूसरा ही उदाहरण दिया है। वे कहते हैं कि श्रावक के पुत्र नाति आदि कुल परम्परा से ही निसर्ग सम्यक्त्व प्राप्त कर लेते हैं। जैसे स्वयंभूरमण समुद्र में रहे हुए मत्स्य जिनप्रतिमा के आकार के मत्स्य, साधु के आकार के मत्स्य, पद्म के आकार के मत्स्य आदि को देखकर कर्मों के क्षयोपशम से निसर्ग सम्यक्त्व प्राप्त होता है और उसी के कारण जहाँ रहे हुए वे तेइन्द्रिय जीव देवलोक प्राप्त करते हैं। उनको जो सम्यक्त्व होता है, वह निसर्ग सम्यक्त्व है। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....... प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा. द्वितीय अध्याय........{64} विरताविरत नामक पंचम गुणस्थान में मनुष्य, पंचेन्द्रिय तिर्यच जो संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त शरीर को प्राप्त है, मूल अथवा उत्तर गुणों को आंशिक रूप से प्रत्याख्यान कर इस अवस्था को प्राप्त करते हैं। जो महाव्रत को स्वीकार करते हैं, वे प्रमत्तसंयत कहलाते हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थान दो प्रकार के कहे गए हैं- कषाय प्रमत्त और योगप्रमत्त। जो क्रोध-लोभ आदि कषायों के वशीभूत है, वे कषायप्रमत्त है और जो मन-वचन काया की प्रवृत्ति में सावधान नहीं है अथवा मन-वचन और काया के द्वारा दुष्प्रवृत्ति करता है अथवा जो इन्द्रियों के विषयों के प्रति आसक्त है और इन्द्रियों के विषयों के प्रति आसक्त होकर इन्द्रियों के विषय के सेवन में शमित भाव वाला नहीं है और इन्द्रियों के विषयों के प्रति आसक्त बना हुआ है, अथवा आहार-उपधि आदि के प्रति जिसके मन में आसक्त भाव है और इसके सम्बन्ध में उद्गम -उत्पादन आदि दोषों का निवारण नहीं करते है, वह योगप्रमत्त कहलाता है। कषाय अप्रमत्त क्षीणकषाय है, अथवा कषायों पर अपना अधिकार रखे हुए हैं, वह कषाय अप्रमत्त है। पंच समितिओं द्वारा जो उदय को प्राप्त क्रोधादि का निरोध कर उनकी फल देने की शक्ति को नष्ट कर देता है, वह योग अप्रमत्त कहलाता है। योग अप्रमत्त अपनी इन्द्रियों का अथवा राग-द्वेष आदि विषयों का निग्रह करता है। ऐसा योग अप्रमत्त जीव मोहनीय का क्षय या उपशमं करता है। इस गुणस्थान में रहा हुआ जीव हास्य-रति-अरति आदि नौ कषायों के उदय को छेद नहीं कर पाता है। अतः अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थित कर पुनः अन्य गुणस्थानों में प्रवेश कर जाता है। निवृत्तिकरण (दर्शनमोह) जब जीव मोहनीय कर्म का क्षय या उपशम करता है, ऐसा अप्रमत्तसंयत बाद में प्रशस्त अध्यवसायों में विहरण करता हुआ मोहनीय कर्म को क्षय करता है या उपशमित करता है, किन्तु तब तक उसके हास्य-रति-अरति-शोक-भय-दुर्गछा आदि भावों का छेद न होकर उदय बना रहता है, ऐसे अणगार भगवान अन्तर्मुहूर्त काल के लिए निवृत्तकरण (दर्शनमोह) कहे जाते हैं। ___ अनिवृत्तिबादरसंपराय नामक गुणस्थान में पूर्ववर्ती गुणस्थान की अपेक्षा प्रशस्त अध्यवसायों में वर्तन करता हुआ जीव हास्यषट्क का क्षय कर देता है, किन्तु जब तक माया के उदय का छेद नहीं होता है, तब तक इस अवस्था में वर्तमान में अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है, उसे अनिवृत्तबादरसंपराय कहते है। सूक्ष्मसंपराय नामक गुणस्थान में, जब तक मुनि सूक्ष्म राग भाव के उदय के कारण आयुष्य और मोहनीय कर्म को छोड़कर शेष छः कर्मों की मूलप्रकृतियों का शिथिल बन्ध करता है, जो अल्पकाल की स्थिति का होता है, जिसका अनुभाग भी मंद होता है। ऐसा साधक अपने सूक्ष्म राग के कारण सूक्ष्मसंपराय कहा जाता है। यह विशुद्धमान आत्म परिमाण के कारण अन्तर्मुहूर्त काल तक इस अवस्था में रहकर या तो ऊपर के गुणस्थान में आरोहण कर जाता है या नीचे गिर जाता है। उपशान्त मोहनीय कर्म की जो अट्ठाईस प्रकृतियाँ बताई गई हैं, वे सभी जब उपशान्त हो जाती है और उनमें से किंचित् मात्र वेदन नहीं रहता है, उस अवस्था को उपशान्तमोह गुणस्थान कहते हैं। इस गुणस्थान से व्यक्ति चाहे आंशिक रूप से पतन को प्राप्त करे या सर्वथा पतन हो, किन्तु नियम से अवश्य पतित ही होता है। क्षीणमोह नामक गुणस्थान में जब कर्मों का नायक मोहनीय कर्म, पूर्णतया या निरवशेष रूप से समाप्त हो जाता है, तब यह गुणस्थान प्राप्त होता है। यहाँ नियम से आत्मा का परिणाम विशुद्धमान ही होता है और व्यक्ति अन्तर्मुहूर्त में ही केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है। सयोगीकेवली नामक गुणस्थान में जिस केवलज्ञानी के मन-वचन-काया की प्रवृत्तियाँ अर्थात् योग अवशिष्ट है, वह सयोगीकेवली कहलाता है। धर्मकथा, शिष्यों का अनुशासन एवं प्रश्नों के व्याकरण के निमित्त से उसकी वचनयोग की प्रवृत्ति होती है। बैठने, सोने, खड़ा होने, उद्वर्तन, परिवर्तन विहार आदि के निमित्त से उसे काययोग कहा गया है। मनोयोग की प्रवृत्ति विकल्प से पर के कारण होती है, जैसे अनुत्तरविमान के देव अथवा अन्य देव और मनुष्यों के द्वारा मन से पूछे गए प्रश्न या संशय के निराकरण के लिए उन्हें मनोयोग की प्रवृत्ति होती है। वे मन प्रायोग्य द्रव्यों को ग्रहण करके, उनका परिणमन करके, मन से ही उनका निराकरण या व्याकरण करते हैं। इसप्रकार से अनुत्तर आदि के मनोवर्गणा के पुद्गलों को जान करके, मन से ही उनके Jain Education Intemational Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... द्वितीय अध्याय.....{65} संशयों का निराकरण होता है, अन्यथा उनका मन से कोई प्रयोजन नहीं है। कारण के होने पर भी उनके मन की प्रवृत्ति होती है, अन्यथा उनका निषेध ही रहता है। तात्पर्य यह है कि केवली को स्वतः की अपेक्षा से मन की प्रवृत्ति करने का कोई प्रयोजन नहीं होता है ! अयोगकेवली गुणस्थान तब होता जब आत्मा शैलेशी अवस्था को प्राप्त होती है। वह तीनों योगों से रहित होकर “कखगघङ” इन पांच हस्व अक्षरों के उच्चारण के परिमित काल तक अयोगी केवली रहती है और तदुपरांत सर्व कर्मों से विमुक्त होकर सिद्ध अवस्था को प्राप्त करती है । इस प्रकार हम देखते हैं कि श्वेताम्बर परम्परा में सर्वप्रथम जिनदासगणि महत्तर ने आवश्यकसूत्र के प्रतिक्रमण नामक अध्ययन की चूर्णि करते हुए चौदह गुणस्थानों के लक्षण का अपेक्षाकृत विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया है। इसके पूर्व आगमों में, समवायांग सूत्र में तथा आवश्यक निर्युक्ति में चौदह गुणस्थानों के नाम सम्बन्धी गाथाएँ मात्र उपलब्ध होती हैं। उनके सम्बन्ध में भी विद्वानों की यह मान्यता है कि इन दोनों स्थानों पर ये गाथाएँ संग्रहणीसूत्र से अवतरित की गई है । उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र के स्वोपज्ञभाष्य में भी कहीं गुणस्थानों का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है । तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं में दिगम्बर परम्परा में पूज्यपाद देवनन्दी ने और श्वेताम्बर परम्परा में सिद्धसेनगणि ने सर्वप्रथम गुणस्थान का उल्लेख किया है। प्राचीन स्तर के श्वेताम्बर साहित्य में जीवसमास ही मात्र ऐसा ग्रन्थ है, जिसमें गुणस्थानों का अपेक्षाकृत विस्तृत विवरण है, इसप्रकार हम देखते हैं कि समवायांग, जीवसमास, आवश्यक निर्युक्ति, आवश्यकचूर्णि, आगमों की टीकाओं में और तत्वार्थ की सिद्धसेनगणि टीका में श्वेताम्बर आचार्यों ने गुणस्थानों का उल्लेख किया है। आगे हम आगमों की टीका में गुणस्थानों का उल्लेख किस रूप में है, इसकी चर्चा करेंगे । आगमिक टीकाएँ और गुणस्थान सिद्धान्त आगमिक व्याख्या ग्रन्थों में निर्युक्ति, भाष्य और चूर्णि के पश्चात् टीकाओं और वृत्तियों का क्रम है । टीकाएँ प्रायः संस्कृत भाषा में ही लिखी गई है, फिर भी कुछ टीकाएँ प्राकृत भाषा में भी उपलब्ध होती है। यद्यपि प्रथमतः हमने यह सोचा था कि संस्कृत साहित्य के ग्रन्थों की चर्चा के प्रसंग में ही टीका ग्रन्थों में उपलब्ध गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विचारणा का उल्लेख किया जाए, किन्तु टीकाएँ तो आगमों से सम्बन्धित ही है, अतः आगम साहित्य और उनके प्राकृत व्याख्या साहित्य के साथ ही आगमिक टीका साहित्य में उपलब्ध गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणाओं की चर्चा करने का निर्णय किया है। आगमों पर टीकाओं का लेखन प्रायः आठवीं शताब्दी से प्रारम्भ हुआ। निर्युक्ति, भाष्य और चूर्णि की अपेक्षा टीकाओं की विशेषता यह है कि उनमें अपनी परम्परा के आधार पर विषयों के विवेचन के साथ-साथ अन्य परम्परा की दार्शनिक एवं धार्मिक मान्यताओं की समीक्षा उपलब्ध होती है। टीकाएँ प्रायः दर्शनकाल में लिखी गई हैं और दर्शनकाल में समीक्षात्मक शैली प्रमुख रही है। अतः टीकाओं में भी समीक्षात्मक शैली पाई जाती है। आगमिक टीकाओं के पूर्व यद्यपि उमास्वाति ने संस्कृत भाषा में तत्वार्थभाष्य और जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य पर स्वोपज्ञवृत्ति संस्कृत भाषा में लिखी थी, फिर भी संस्कृत भाषा में आगमिक टीका लिखने का प्रारम्भ आचार्य हरिभद्र से माना जाता है। आचार्य हरिभद्र ने मुख्यरूप से आवश्यक, दशवैकालिक, जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना, नंदी और अनुयोगद्वार पर टीकाएँ लिखी है। आचार्य हरिभद्र के पश्चात् आगमिक टीकाकारों में आचार्य शीलांक का नाम आता है। ये नवीं-दसवीं शताब्दी में हुए हैं। वर्तमान में इनकी आचारांग और सूत्रकृतांग पर टीकाएँ उपलब्ध होती है। आचार्य शीलांक के पश्चात् आगमिक टीकाकारों में वादिवेताल शांतिसूरि का क्रम आता है। वादिवेताल शांतिसूरि का काल विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी है। इनके द्वारा लिखी गई उत्तराध्ययनसूत्र की टीका उपलब्ध है। इसके पश्चात् आगमिक टीकाकारों में नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि का नाम आता है। अभयदेवसूरि ने आचारांग और सूत्रकृतांग को छोड़कर शेष नौ अंग-आगमों पर टीका लिखी है, इसीलिए वे नवांगी वृत्तिकार के नाम से जाने जाते हैं। इनकी एक टीका औपपातिकसूत्र पर भी उपलब्ध होती है। अभयदेवसूरि Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... द्वितीय अध्याय.....{66} I I के पश्चात् आगमिक टीकाकारों में आचार्य मलयगिरि और मलधारी हेमचंद्राचार्य के नाम विशेषरूप से उल्लेखित है । मलयगिरि ने भगवतीसूत्र (द्वितीय शतक), राजप्रश्नीय, जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना, चंद्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, नंदीसूत्र, व्यवहारसूत्र, बृहत्कल्प और आवश्यकसूत्र पर टीकाएँ लिखी है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जहाँ अभयदेवसूरि ने अपने को औपपातिक के एक अपवाद को छोड़कर प्रायः अंग-आगमों की टीका तक सीमित रखा है, वहाँ मलयगिरि ने भगवती के द्वितीय शतक की टीका को छोड़कर, प्रायः अपने को अंगबाह्य आगमों तक सीमित रखा है । मलधारी हेमचंद्र ने आगम ग्रन्थों में अनुयोगद्वार, नंदी और आवश्यकसूत्र पर टीकाएँ लिखी है। उनमें भी अनुयोगद्वार की टीका वृत्ति रूप है, जबकि नंदी और आवश्यक पर मात्र इन्होंने टिप्पण ही लिखा है। जहाँ तक इन टीकाओं में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विवरणों के खोज का प्रश्न है, यह एक कठिन कार्य है। उसके दो कारण है- प्रथम तो यह है कि टीका साहित्य इतना विपुल है कि उस सब का आद्योपान्त अध्ययन सीमित समय में सम्भव नहीं है। दूसरा यह है कि जो प्रकाशित टीकाएँ है, वे भी सर्वत्र सहज रूप से उपलब्ध नहीं है । अतः आगमिक टीका साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त की खोज के लिए हमें दीपरत्नसागरजी द्वारा प्रकाशित टीकाओं तक ही अपने को सीमित रखना पड़ रहा है। वैसे उन्होंने अधिकांश आगमों की टीकाएँ अपने संकलन में समाहित करने का प्रयास किया है, फिर भी कुछ टीका ग्रन्थ तो उनमें समाहित नहीं है। इन सब टीकाओं को भी आद्योपान्त पढ़ना सम्भव नहीं था, अतः हमने मुख्यरूप से, मूल आगमों के आधार पर, उन्हीं स्थलों को देखने का प्रयत्न किया है, जहाँ हमें गुणस्थान सिद्धान्त की संभावना प्रतीत हुई। इसीलिए यह सम्भव हो सकता है कि साहित्य में कुछ स्थल हमारी दृष्टि से ओझल रह गए हों। टीका ग्रन्थों में विशेषरूप से गुणस्थान सम्बन्धी जो विवरण हमें उपलब्ध हुआ है, वे आचारांग की शीलांक की टीका में, अभयदेव के समवायांगसूत्र के चौथे समवाय की टीका में तथा भगवतीसूत्र की अभयदेव की वृत्ति में हैं। ये ऐसे स्थल हैं जहाँ टीकाकार ने गुणस्थान सिद्धान्त का संक्षिप्त, फिर भी एक समग्र विवरण प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। आचारांग की शीलांक की टीका में गुणस्थान आगमिक टीकाओं में जहाँ तक अंग-आगमों की टीकाओं का प्रश्न है, उनमें प्राचीनतम टीका के रूप में आचारांग और सूत्रकृतांग पर आचार्य शीलांग की टीकाएँ उपलब्ध है। शेष नौ अंगों पर आचार्य अभयदेवसूरि की वृत्तियाँ उपलब्ध होती हैं । आचार्य शीलांग का काल लगभग नवीं शताब्दी के आसपास का माना जाता है, जबकि अभयदेव का काल लगभग दसवीं ग्यारहवीं शताब्दी का है। यह तो स्पष्ट है कि ये दोनों आचार्य जिस काल में हुए, उस काल तक गुणस्थान सिद्धान्त अपनी सम्पूर्णता के साथ उपस्थित था, अतः आचार्य शीलांग और आचार्य अभयदेव गुणस्थान सिद्धान्त से अपरिचित हों, यह नहीं कहा जा सकता है, किन्तु उन्होंने जिन आगम-ग्रन्थों पर अपनी टीकाएँ लिखीं, उनमें गुणस्थान सिद्धान्त की सुस्पष्ट विवेचना अनुपलब्ध है। जैसा कि हम आगम साहित्य में गुणस्थान की चर्चा के प्रसंग में देख चुके हैं कि आगमों में चाहे गुणस्थान सिद्धान्त की सुव्यवस्थित चर्चा उपलब्ध न हो, उनमें गुणस्थानों के समरूप अवस्थाओं के उल्लेख तो अवश्य ही मिलते हैं। इन टीकाकारों ने भी यथाप्रसंग गुणस्थान सम्बन्धी कुछ विवरण अवश्य प्रस्तुत किए हैं। आचार्य शीलांग ने अपनी आचारांग की टीका में अनेक स्थलों पर गुणस्थानों की चर्चा की है। इसी प्रकार आचार्य अभयदेवसूरि ने समवायांग के चौदहवें समवाय की टीका में चौदह ही का संक्षिप्त, किन्तु स्पष्ट विवेचन किया है। गुणस्थान आचारांग सूत्र पर अपनी वृत्ति में आचार्य शीलांग ने गुणस्थान सम्बन्धी विवरण कहाँ और किस रूप में प्रस्तुत किया है, इस सम्बन्ध में हम थोड़े विस्तार से चर्चा करेंगे। आचारांग सूत्र में असंयत, संयत, प्रमत्त और अप्रमत्त जैसी अवस्थाओं का उल्लेख बहुतायत से मिलता है। इन प्रसंगों को लेकर शीलांगाचार्य ने अविरति, देशविरति, सर्वविरति, असंयत, संयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत आदि अवस्थाओं का स्पष्टीकरण किया है । यद्यपि यह स्पष्टीकरण सर्वत्र गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित नहीं किया गया है, किन्तु शीलांग की टीका में कुछ प्रसंग अवश्य ऐसे हैं, जहाँ उन्होंने उपशम एवं क्षपक श्रेणी की दस गुणश्रेणियों की Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{67} तथा चौदह गुणस्थानों की चर्चा की है।३१ टीका में कुछ प्रसंग ऐसे भी हैं, जहाँ आचार्य शीलांग ने सम्पूर्ण गुणस्थानों का उल्लेख नहीं किया है, किन्तु गुणस्थान शब्द के स्पष्ट उल्लेख के साथ कुछ अवस्थाओं के निर्देश किए हैं। ३२ आचार्य शीलांग की टीका के तृतीय अध्ययन के प्रथम उद्देशक के सूत्र क्रमांक -१०६ की टीका में उन्होंने यह बताया है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान और सास्वादन गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी का उदय रहता है। इसी प्रसंग में यह भी चर्चा की गई है कि स्त्यानगृद्धि आदि निद्रात्रिक का बन्ध और उदय किस गुणस्थान तक रहता है। निद्रा और प्रचला का उदय उपशमक और उपशान्तमोह वाले साधकों को रहता है,३३ किन्तु क्षीणकषाय गुणस्थान के द्विचरम समय में इन दोनों निद्रा और प्रचला का क्षय हो जाता है। इसी तृतीय अध्ययन के प्रथम उद्देशक की वृत्ति में उपशमश्रेणी और क्षपक श्रेणी का भी उल्लेख है। इसी क्रम में चारित्र मोहनीय की सत्ता किस जीवस्थान और गुणस्थान में किस रूप में होती है, यह भी उन्होंने स्पष्ट किया है। यहाँ क्षपकों के सत्कर्मस्थानों की भी चर्चा है। आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के तृतीय अध्ययन के चतुर्थ उद्देशक के एक सौ पैतीसवें सूत्र की टीका में सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगी केवली गुणस्थान का उल्लेख है'३५ आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के तृतीय अध्ययन के चतुर्थ उद्देशक के एक सौ सैंतीसवें सूत्र की वृत्ति में यह कहा गया है कि शैलेशी अवस्था प्राप्त हो जाने पर संयम और गुणस्थान का अभाव हो जाता है। इसी क्रम में चतुर्थ अध्ययन के तृतीय उद्देशक के एक सौ सैतालीसवें सूत्र की टीका में जीवस्थानों और गुणस्थानों के उल्लेख के साथ-साथ उनमें कर्मप्रकृतियों के उदयस्थानों की भी चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि सयोगीकेवली और अयोगीकेवली को कितनी कर्मप्रकृतियों का उदय या ध्रुवोदय रहता है। इसीप्रकार इसी चतुर्थ अध्ययन के चतुर्थ उद्देशक के सूत्र एक सौ पचास की वृत्ति में सम्यग्दृष्टि आदि तथा अपूर्वकरण आदि गुणस्थानों का निर्देश हुआ है। .. आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के चतुर्थ अध्ययन के प्रथम उद्देशक की टीका में यह चर्चा भी उपलब्ध होती है कि सम्यग्दर्शन के पूर्व की अवस्थाओं को गुणस्थान क्यों कहा जाता है? उन्हें गुणस्थान इसीलिए कहा जाता है कि उन अवस्थाओं में गुणों का आविर्भाव होता है। इस चर्चा को आगे बढ़ाते हुए यहाँ गुणश्रेणियों से सम्बन्धित आचारांग नियुक्ति की दो गाथाओं को उद्धृत करके उनकी टीका में इन अवस्थाओं की विस्तृत चर्चा की गई है और यह कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में देशोन कोटाकोटि सागरोपम की कर्मस्थिति को छोड़कर शेष कर्मों की निर्जरा हेतु तीनों करणों को करते हुए ग्रंथिभेद करता है। इसी कारण मिथ्यात्व को भी गुणस्थान कहा गया है। आगे गुणश्रेणियों की किंचित् विस्तार के साथ चर्चा है। इसी चतुर्थ अध्ययन के द्वितीय उद्देशक में देशविरति, प्रमत्त, अप्रमत्त आदि के भी उल्लेख उपलब्ध हैं। यद्यपि यह कहना कठिन है कि यह उल्लेख गुणस्थानों की अपेक्षा है, फिर भी चतुर्थ अध्ययन के चतुर्थ उद्देशक में कर्मों की निर्जरा की प्रक्रिया को बताते हुए सम्यग्दृष्टि, अपूर्वकरण, निवृत्तिबादर, सूक्ष्मसंपराय आदि गुणस्थानों से सम्बन्धित अवस्थाओं का चित्रण करते हुए क्षपकश्रेणी द्वारा शैलेशी अवस्था की प्राप्ति का उल्लेख हुआ है।२६ पुनः आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के नवम उपधानश्रुत नामक अध्ययन में गुणस्थानों और गुणश्रेणियों की विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है। इसमें यह भी बताया गया है कि साधक किस प्रकार कर्मप्रकृतियों का क्षयोपशम करता हुआ गुणस्थानों की इन विविध अवस्थाओं को प्राप्त करता है। इस चर्चा में सम्यग्दृष्टि, देशविरति, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय, क्षीणमोह, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली अवस्थाओं का उल्लेख उपलब्ध होता है। इस चर्चा में मिथ्यादृष्टि, १३१ आगमसुत्ताणि सटीक भाग-१, आचारांगसूत्र मूलं एवं शीलांक विरचितावृत्ति; पृ. १८४ १३२ वही, पृ. १८०, १५३ १३३ वही, पृ. १५६ १३४ वही, पृ. १६३ १३५ वही, १७६ १३६ वही, पृ. १८४ १३७ वही, पृ. ३०४-३०७ Jain Education Intemational Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{68} सास्वादन, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और उपशान्तमोह अवस्था का स्पष्ट चित्रण नहीं है, फिर भी टीकाकार ने यह चर्चा गुणस्थानों की अपेक्षा से ही की है, इसमें कोई मतभेद नहीं है। इस चर्चा में ध्यान की विविध अवस्थाओं को लेकर उनमें भी गुणस्थानों के अवतरण का प्रयास किया गया है। जहाँ तक आचारांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कंध के विविध अध्ययनों की टीका का प्रश्न है; उनमें असंयत, संयतासंयत और संयत अवस्थाओं के कुछ निर्देशों के अतिरिक्त गुणस्थान सम्बन्धी विशेष चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। इन आधारों पर यह कहा जा सकता है कि आचार्य शीलांक गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा से ही नहीं गुणस्थानों के जीवस्थान, मार्गणास्थान आदि के सहसम्बन्धों से भी सुपरिचित थे। साथ ही उन्होंने इस टीका में गुणश्रेणियों और ध्यानों की विविध अवस्थाओं को लेकर गुणस्थानों के अवतरण का प्रयत्न भी किया है। वैसे उनके द्वारा किया गया गुणस्थान सम्बन्धी उपर्युक्त विवेचन आश्चर्यजनक नहीं है, क्योंकि उनके काल में (लगभग नवीं-दसवीं शताब्दी) में गुणस्थानों की चर्चा के सन्दर्भ में जैन चिन्तकों में पर्याप्त जागरूकता थी। कसायपाहुड, षट्खण्डागम आदि की दिगम्बर टीकाओं में तथा गोम्मटसार जैसे ग्रंथों में यह चर्चा विस्तार के साथ हो रही थी। अतः आचार्य शीलांक जैसा प्रबुद्ध व्यक्तित्व अपनी टीकाओं में उनका उल्लेख न करे, यह कैसे हो सकता था। | समवायांगसूत्र की अभयदेव की वृत्ति में गुणस्थान ३८ ॥ समवायांगसूत्र के चौदहवें समवाय में कर्मविशुद्धि की अपेक्षा से चौदह जीवस्थानों का उल्लेख हुआ है। ज्ञातव्य है कि यहाँ मूल पाठ में कहीं भी गुणस्थान शब्द का उल्लेख नहीं है, उन्हें जीवस्थान ही कहा गया है। यहाँ जो चौदह गुणस्थानों के नाम मिलते हैं, वे इसप्रकार है- (१) मिथ्यादृष्टि गुणस्थान (२) सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान (३) सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान (४) अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान (५) विरताविरत गुणस्थान (६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान (७) अप्रमत्तसंयत गुणस्थान (८) निवृत्तिबादर गुणस्थान (६) अनिवृत्तिबादर गुणस्थान (१०) सूक्ष्मसंपराय- उपशमक या क्षपक गुणस्थान (११) उपशान्तमोह गुणस्थान (१२) क्षीणमोह गुणस्थान (१३) सयोगीकेवली गुणस्थान (१४) अयोगीकेवली गुणस्थान । ग्रन्थकारों ने नामों के अतिरिक्त अन्य कोई उल्लेख नहीं किया है। यहाँ दो ही बातें विशेष रूप से ध्यान देने योग्य हैं। प्रथम तो यह कि इसमें गुणस्थान शब्द के स्थान पर जीवठाण शब्द का उल्लेख हुआ है। दूसरी यह है कि सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में इन्होंने, उपशामक और क्षपक- ऐसी दो स्थितियों का उल्लेख किया है। इसकी टीका में अभयदेवसूरि ने थोड़े विस्तार से प्रकाश डाला है। वे लिखते हैं कि कर्म विशुद्धि मार्गणा के अन्तर्गत ज्ञानावरण आदि कर्मों की विशुद्धि की दृष्टि से यहाँ चतुर्दश जीवस्थानों का उल्लेख किया गया है। उन्हें जीवों के भेद भी कहा गया है। वे इस प्रकार हैं - (१) मिथ्यादृष्टि गुणस्थान- मिथ्यात्व मोहनीय के विशेष उदय के कारण व्यक्ति का जो मिथ्या या विपरीत दृष्टिकोण होता है, उसे मिथ्यादृष्टि गुणस्थान कहते हैं। (२) सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान - जिसे अभी तत्त्वश्रद्धान के रस का आस्वादन बना हुआ है, वह सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहा जाता है। अनन्तानुबन्धीकषाय के उदय से जिसने सम्यक्त्व का वमन किया है, उसे फिर भी कुछ काल तक उसका आस्वादन बना हुआ रहता है, जैसे कि घण्ट के बजा देने के बाद भी कुछ समय तक उसमें ध्वनि तरंगे बनी रहती हैं। उसका काल छ: आवलि माना गया है। यहाँ अभयदेवसूरि ने एक गाथा उद्धृत की है। उसका तात्पर्य यह है कि उपशम सम्यक्त्व से च्युत होकर अभी मिथ्यात्व को जिसने प्राप्त नहीं किया है, उसका छः आवलिका अन्तराल काल सास्वादन सम्यक्त्व है। यह सम्यग्दर्शन से पतन की अवस्था में ही होता है। १३८ आगमसुत्ताणि सटीकं, भाग-४, समवायांगसूत्र मूलं + अभयदेवसूरि विरचितावृत्तिः समवाय -१४, पृ. ३५-३६, ४३-१४,५० Jain Education Intemational Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{69} (३) सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान - दर्शन मोहनीय के विशेष उदय के कारण जिसकी दृष्टि न तो पूरी तरह सम्यक् है और न पूरी तरह मिथ्या है, ऐसा व्यक्ति सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहा जाता है। (४) अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान-जिसने अभी देशविरति को भी स्वीकार नहीं किया, ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव अविरतसम्यग्दृष्टि कहा जाता है। (५) विरताविरत गुणस्थान - जिसने आंशिक रूप से विरति स्वीकार की है, ऐसा श्रावक विरताविरत गुणस्थानवर्ती होता (६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान - सर्वविरत मुनि, जिसमें अभी किंचित् प्रमाद अवशेष है, वह प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती कहा जाता है। (७) अप्रमत्तसंयत गुणस्थान - सर्वतः प्रमाद से रहित मुनि अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती होते हैं। (८) निवृत्तिबादर गुणस्थान - क्षपकश्रेणी अथवा उपशमश्रेणी का आश्रय लेकर, जिस जीव ने दर्शन सप्तक अर्थात् अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क और मिथ्यात्वमोह, मिश्रमोह तथा सम्यक्त्वमोह त्रिक, ऐसी सात प्रकृतियों का पूर्णतः उपशम या क्षय कर दिया है, वह निवृत्तिबादर कहा जाता है। जिस गुणस्थान को समकाल में जीवों के अध्यवसायों में प्रधानतः भेद रहता है तथा संज्वलन कषाय को छोड़कर अन्य कषायों से निवृत्ति हो जाती है, इसीलिए उसे निवृत्तिबादर गुणस्थान कहते हैं। (६) अनिवृत्तिबादर गुणस्थान-इस गुणस्थान में संज्वलन कषाय चतुष्क तथा हास्य चतुष्क (हास्य-रति-भय-जुगुप्सा) इन आठ कषाय अष्टक का क्षपण प्रारम्भ करके, नपुंसक वेद का उपशमन करते हुए, स्थूल लोभ के आंशिक क्षपण या उपशमन के होने पर यह गुणस्थान होता है। संज्वलन स्थूल लोभ की पूर्णतया निवृत्ति न होने के कारण इसे अनिवृत्तिबादर गुणस्थान कहा जाता है। गुणस्थानों की चर्चा के इस प्रसंग में आठवें गुणस्थान के दो नाम ही उपलब्ध होते है- अपूर्वकरण गुणस्थान तथा निवृत्तिबादर गुणस्थान। इसके बाद नवें गुणस्थान का नाम सर्वत्र ही अनिवृत्तिबादर दिया गया है। चूंकि आठवें गुणस्थान की अपेक्षा नवें गुणस्थान में आत्मविशुद्धि अधिक है, अतः यह प्रश्न उपस्थित होता है कि आठवें को निवृत्तिबादर और नवें को अनिवृत्तिबादर क्यों कहा गया है। निवृत्ति का सामान्य अर्थ समाप्त हो जाना या निवृत्त हो जाना होता है। जैनाचार्यों ने यहाँ निवृत्ति को अर्थभेद कहा और इस अपेक्षा से यह अर्थ किया जाता है कि आठवें गुणस्थान में समकाल में श्रेणी आरूढ़ साधकों में आत्मविशुद्धि में परस्पर अन्तर या भेद होता है, जबकि नवें गुणस्थान में समकाल में श्रेणी आरुढ़ व्यक्तियों की आत्मविशुद्धि में परस्पर भेद नहीं होता है। इसमें सबकी विशुद्धि समान रूप से होती है, इसीलिए इसे अनिवृत्तिबादर कहा है। एक अन्य दृष्टि से डॉ. सागरमल जैन का मानना यह है कि निवृत्तिबादर, यह कथन मिथ्यात्वमोह की अपेक्षा से है, क्योंकि इस गुणस्थान में क्षायिक या औपशमिक सम्यग्दर्शन में बाधक अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क और मोहत्रिक का पूर्णतः उपशम या क्षय हो जाता है। अतः इसे दर्शनमोह की अपेक्षा से निवृत्तिबादर कहा है। इसके विपरीत नवें गुणस्थान को अनिवृत्ति बादर चारित्रमोह की अपेक्षा से कहा जाता है, क्योंकि उसमें संज्वलन कषाय चतुष्क स्थूल रूप से उपस्थित रहता है। इसप्रकार आठवें और नवें गुणस्थानों के नामकरण के सन्दर्भ में स्पष्टता होना आवश्यक है, अन्यथा सामान्य बुद्धिवाले व्यक्ति को भ्रम होना स्वाभाविक है। (१०) सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान - संज्वलन लोभ के असंख्यातवें भाग रूप, आंशिक या सूक्ष्म कषाय रहने के कारण, इसे सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान कहा गया है। यह सूक्ष्म लोभ का अनुवेदक होता है। यह द्विविध कहा गया है- उपशमक या उपशमश्रेणी प्रतिपन्न। क्षपक अथवा क्षपक श्रेणी प्रतिपन्न। (११) उपशान्तमोह गुणस्थान - जिस गुणस्थान में मोहनीय कर्म का सर्वथा अनुदय रहता है, किन्तु उसकी कर्मप्रकृतियाँ सत्ता में बनी रहती है, उसे उपशान्तमोह गुणस्थान कहा जाता है। उसे उपशम वीतराग भी कहा गया है। यह गुणस्थान, Jain Education Intemational Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... द्वितीय अध्याय........{70) उपशमश्रेणी की समाप्ति पर, अन्तर्मुहूर्त के लिए होता है। फिर साधक यहाँ से गिर जाता है। (१२) क्षीणमोह गुणस्थान - जिसने मोहनीय कर्म की सत्ता को पूर्णतः समाप्त कर दिया है, वह क्षीणमोह गुणस्थान है। इसे क्षय वीतराग भी कहते हैं। यह भी अन्तर्मुहूर्त का होता है। (१३) सयोगीकेवली गुणस्थान - जिस केवल ज्ञानी के मन आदि के व्यापार रहे हुए हैं, वह सयोगी केवली कहा जाता है। (१४) अयोगीकेवली गुणस्थान - जिसने मन आदि तीनों योगों का निरोध कर दिया है, जो शैलेशी अवस्था को प्राप्त है, वह अयोगीकेवली गुणस्थान है। इसका काल पाँच हृस्व अक्षरों के उच्चारण काल के समान कहा गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि समवायांगसूत्र, मूल और उसकी अभयदेवसूरि की टीका दोनों में गुणस्थानों के नाम के विवरण के अतिरिक्त गुणस्थानों के सन्दर्भ में विशेष कोई जानकारी प्राप्त नहीं होती है। टीका का वैशिष्ट्य यह है कि उसमें प्रत्येक गुणस्थान के स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। दोनों में गुणस्थानों का जीवस्थान और मार्गणास्थान आदि से सम्बन्ध नहीं बताया गया है और न ही इन गुणस्थानों की किन-किन कर्म प्रकृतियों का बन्ध-उदय-उदीरणा-सत्ता आदि होते हैं, इसकी कोई चर्चा नहीं है। भगवतीसूत्र की अभयदेव की वृत्ति ३९ में गुणस्थान गुणस्थानों के सदंर्भ में, आगमिक उल्लेखों की खोज में हमने यह पाया था कि समवायांग और भगवतीसूत्र में ही तत्सम्बन्धी कुछ निर्देश उपलब्ध होते हैं। समवायांग में स्पष्ट रूप से चौदह गुणस्थानों के नाम का जीवस्थान के रूप में उल्लेख है, अतः टीका साहित्य में भी हमने समवायांग में उस अंश की टीका को विशेषरूप से देखने का प्रयत्न किया और वहाँ हमें चौदह गुणस्थानों का स्पष्ट विवरण मिला है, जिसका उल्लेख हम पूर्व में कर चुके हैं। जहाँ तक भगवतीसूत्र का प्रश्न है, उसमें गुणस्थान सम्बन्धी स्पष्ट अवधारणा का तो अभाव है, किन्तु उसमें गुणस्थानों के वाचक अनेक नाम उपलब्ध हो जाते हैं। भगवतीसूत्र में इन विभिन्न अवस्थाओं का नाम-निर्देश, विभिन्न प्रसंगों में अलग-अलग हुआ है। सम्यक्त्व एवं मिथ्यात्व की अपेक्षा की चर्चा में मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि- ऐसे तीन नाम प्राप्त होते हैं। इसीप्रकार विरत और अविरत चर्चा के प्रसंग में भी अविरत, विरताविरत और विरत- ऐसी तीन अवस्थाओं के नाम प्राप्त होते हैं। प्रमत्त और अप्रमत्त की चर्चा के प्रसंग में, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत-ऐसे दो नाम उपलब्ध होते हैं। तीन करणों की चर्चा के प्रसंग में, विशेषरूप से अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण-ऐसे दो नाम प्राप्त होते है। कषाय (संपराय) की चर्चा में, बादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय- ऐसे दो नाम प्राप्त होते हैं। मोहनीय कर्म के क्षय और उपशम की चर्चा में उपशान्तमोह और क्षीणमोह-ऐसी दो अवस्थाओं के नाम प्राप्त होते हैं। इसीप्रकार केवली के सन्दर्भ में सयोगीकेवली और अयोगीकेवली- ऐसे दो नाम प्राप्त होते हैं, किन्तु ये समस्त नाम अलग-अलग प्रसंगों में और अलग-अलग सन्दर्भो में ही पाए जाते हैं। जहाँ तक भगवतीसूत्र की टीका का प्रसंग है, उसमें भी स्वाभाविक रूप से इन अवस्थाओं के निर्देश मिल जाते हैं। भगवतीसूत्र की दीपरत्नसागरजी द्वारा सम्पादित अभयदेवसूरिजी की वृत्ति में गुणस्थान के सन्दर्भ में दो तरह के विवरण उपलब्ध होते हैं। एक वह है, जहाँ केवल अवस्थाओं के नाम निर्देश हैं और दूसरा वह है कि जहाँ गुणस्थान शब्द का स्पष्ट निर्देश हुआ है। आगे हम इन दोनों की अलग-अलग चर्चा करेंगे। जहाँ तक गुणस्थान सिद्धान्त में वर्णित समरूप अवस्थाओं के चित्रण के उल्लेख का प्रश्न है, भगवतीसूत्र की टीका में इनक अनेक बार उल्लेख आया है। भगवतीसूत्र की अभयदेवसूरि की वृत्ति में हमें मिथ्यादृष्टि४०, सम्यग्मिथ्यादृष्टि४१, सम्यग्दृष्टि४२ १३६ आगमसुत्ताणि सटीकं, भाग-५, भगवईसूत्र मूलं+ अभयदेव विरचितावृत्तिः । १४० आगम सुत्ताणि सटीक भाग-५, भगवती अंगसूत्रं मूलं + अभयदेवसूरि विरचितावृत्ति भाग-५, पृ. नं.-६६, भाग-६, पृ. २४१ १४१ वही, भाग-६, पृ. २४१. १४२ वही, भाग-५ पृ.नं.-९६ Jain Education Interational Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{71} अविरत५३, देशविरत४४, संयतासंयत (विरताविरत), सर्वविरत४५, अपूर्वकरण१४६, अनिवृत्तिकरण'४७, सूक्ष्मसंपराय या सरागसंयत, उपशान्तकषाय४६ या उपशान्तमोह, क्षीणकषाय५०, वीतरागसंयत" या छद्मस्थवीतराग, सयोगीकेवली'५२ और अयोगीकेवली'५३ जैसे शब्दों का अनेकशः उल्लेख आया है। मात्र यही नहीं टीकाकार ने इन शब्दों के अर्थों को भी स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है, फिर भी कुछ प्रसंगों को छोड़कर सामान्यतया इन शब्दों की व्याख्या या स्पष्टीकरण करते हुए टीकाकार ने गुणस्थान की कोई अवधारणा प्रस्तुत नहीं की है। उदाहरण के रूप में भगवतीसूत्र के सातवें शतक के प्रथम उद्देशक में यह प्रश्न उपस्थित किया गया है कि श्रमणोपासक को दान देने से क्या लाभ प्राप्त होता है? इसके उत्तर में यह कहा गया है कि वह दान देकर अपूर्वकरण के द्वारा ग्रंथिभेद करता है, ग्रंथिभेद करके अनिवृत्तिकरण को प्राप्त होता है। अन्त में सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है। इसप्रकार यहाँ, यद्यपि अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ है, किन्तु इनका सम्बन्ध गुणस्थानों से न होकर सम्यग्दर्शन को प्राप्त होने वाले यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण आदि तीन करणों से ही है। इसीप्रकार भगवतीसूत्र के आठवें शतक के अष्टम उद्देशक की टीका में किन कर्मप्रकृतियों के कारण किन अवस्थाओं में कितने परिषह होते हैं, इसकी चर्चा है। यहाँ सरागछद्मस्थ, वीतरागछद्मस्थ, सयोगी केवली और अयोगीकेवली आदि अवस्थाओं का उल्लेख है, किन्तु उन्हें गुणस्थानों के रूप में उल्लेखित नहीं किया गया है। भगवतीसूत्र के तेरहवें शतक के आठवें उद्देशक में ज्ञानावरणीय कर्म के जघन्यस्थितिबन्ध का विवरण प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि सूक्ष्मसंपराय वाला उपशमक अथवा क्षपक ज्ञानावरणीय कर्म की जघन्य स्थिति का बन्ध करता है। यहाँ पर सूक्ष्मसंपराय अवस्था में उपशमक और क्षपक दोनों ही स्थितियों को स्वीकार किया गया है, किन्तु इनका सम्बन्ध सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान से है, ऐसा निश्चित करना कठिन है, क्योंकि यहाँ स्पष्ट रूप से गुणस्थान का कोई उल्लेख नहीं है। यह कथन गुणश्रेणियों के सम्बन्ध में भी हो सकता है। इसीप्रकार भगवतीसूत्र के २५ वें शतक के सप्तम उद्देशक में भी पाँच प्रकार के संयमों की चर्चा करते हुए सूक्ष्मसंपराय शब्द का उल्लेख मिलता है, किन्तु वहाँ भी यह शब्द गुणस्थान से सम्बन्धित है, ऐसा टीकाकार ने कोई निर्देश नहीं किया है। जैसा कि हम पूर्व में उल्लेख कर चुके है कि भगवतीसूत्र के मूलपाठ में गुणस्थानों के समरूप अधिकांश अवस्थाओं का स्पष्ट नामनिर्देश है, किन्तु सम्पूर्ण मूलग्रन्थ में गुणस्थान शब्द का तथा सास्वादन अवस्था का अनुलेख यही सिद्ध करता है कि भगवतीसूत्रकार अपनी इन विवेचनाओं में गुणस्थान सिद्धान्त को प्रस्तुत नहीं कर रहा है। किन्तु जहाँ तक टीका का प्रश्न है, यह निश्चित है कि टीकाकार गुणस्थान की अवधारणा से सुपरिचित है। यह तो सत्य है कि भगवतीसूत्रकार के टीकाकार अभयदेवसूरि ने भी कहीं भी एकसाथ चौदह गुणस्थानों के स्वरूप का कोई चित्रण नहीं किया है, किन्तु टीका में अनेक स्थानों पर गुणस्थान शब्द का प्रयोग होने से इतना अवश्य कहा जा सकता है कि टीकाकार अभयदेवसूरि गुणस्थान की अवधारणा से सुपरिचित थे। अभयदेवसूरि ने प्रथम शतक के द्वितीय उद्देशक (भाग-२, पृष्ठ -५६) में 'प्रमत्तगुणस्थानकसामर्थ्यात्' - ऐसा स्पष्ट उल्लेख किया है। इसीप्रकार भगवतीसूत्र के प्रथम शतक के चतुर्थ उद्देशक की टीका में भी 'उत्तमगुणस्थानकाद् हीनतरं गच्छेदित्यर्थः तथा न हि पण्डितत्वात्प्रधानतरं गुणस्थानकमस्ति'- ऐसे दो स्थानों पर गुणस्थान १४३ वही, भाग-५, पृ.नं.-६६ १४४ वही, भाग-५, पृ. नं.-३८, ४०, ३६१, भाग-६ पृ. २४१ १४५ वही, भाग-५, पृ. ४० १४६ वही, भाग-५, पृ.३०८ १४७ वही, भाग-५ पृ.३०८ १४८ वही, भाग-५, पृ.५२,३०१ १४६ वही, भाग-५, पृ.५१,७३ १५० वही, भाग-५, पृ.७,१४,५१ १५१ वही, भाग-५, पृ.५१,५२, ३७६ १५२ वही, भाग-५, पृ. २३, २८१ १५३ वही, भाग-५, पृ. २८१, २८३, ३७६ Jain Education Interational Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... द्वितीय अध्याय........{72} शब्द का स्पष्ट उल्लेख किया है। इसीप्रकार दूसरे शतक के प्रथम उद्देशक (भाग-५, पृष्ठ-१२१) में 'मिथ्यादृष्ट्यादिगुणस्थानकानाम्'ऐसा स्पष्ट उल्लेख है। इससे भी यह निश्चित होता है कि टीकाकार अभयदेवसूरि चौदह गुणस्थानों की अवधारणा से सुपरिचित थे। इसी क्रम में भगवतीसूत्र के तीसरे शतक के तृतीय उद्देशक की टीका (भाग -५, पृष्ठ -१६६) में अभयदेवसूरि ने प्रमत्त गुणस्थान के काल का निर्देश किया है। इसी टीका में आगे उन्होंने प्रमत्ताप्रमत्त गुणस्थान के कहकर दोनों गुणस्थानों के संयुक्त काल की भी चर्चा की है। इसप्रकार टीका में यहाँ भी स्पष्ट रूप से गुणस्थान शब्द का निर्देश मिलता है। इसी क्रम में पाँचवें शतक के चतुर्थ उद्देशक की टीका में (भाग-५, पृष्ठ-२२५) उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी की स्पष्टरूप से चर्चा मिलती है, यद्यपि यहाँ गुणस्थान शब्द का कोई स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं है। छठे शतक के तृतीय उद्देशक की टीका में उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगीकेवली को ईर्यापथिक बन्ध होता है- ऐसा स्पष्ट उल्लेख है, यद्यपि यहाँ भी गुणस्थान शब्द का स्पष्ट उल्लेख नहीं है। कर्मबन्ध से सम्बन्धित इस चर्चा में टीकाकार ने मिथ्यादृष्टि, मिश्रदृष्टि, सम्यग्दृष्टि, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगीकेवली, अयोगीकेवली तथा केवली के अन्य रूपों यथा समुदघातकेवली आदि की भी चर्चा की है। यहाँ यह भी कहा गया है कि समुदघात केवली ईर्यापथिक बन्ध करता है, किन्तु अयोगी केवली ईर्यापथिक बन्ध नहीं करता है। फिर भी इस समस्त चर्चा में हमें कहीं भी गुणस्थान शब्द का उल्लेख नहीं मिलता है। इसी छठे शतक के तृतीय उद्देशक की चर्चा के अन्त में अनिवृत्तिबादरसंपराय का भी स्पष्ट उल्लेख है। यद्यपि उसे भी गुणस्थान शब्द से अभिहित नहीं किया गया है। इसप्रकार हम देखते हैं कि भगवतीसूत्र की टीका में गुणस्थान सम्बन्धी कोई विशिष्ट विवरण तो उपलब्ध नहीं होते हैं, किन्तु कुछ स्थानों पर गुणस्थान शब्द का स्पष्ट निर्देश होने से हम इतना अवश्य कह सकते है कि भगवतीसूत्र के टीकाकार अभयदेवसूरि गुणस्थान की अवधारणा से सुपरिचित रहे हैं। अभयदेवसूरि ने स्थानांगसूत्र से लेकर विपाकसूत्र तक नौ अंग-आगमों पर टीकाएँ लिखी हैं। इन नौ अंग-आगमों की टीका में समवायांग में गुणस्थानों की अवधारणा का स्पष्ट, किन्तु संक्षिप्त विवरण है। भगवतीसूत्र की टीका में भी यथाप्रसंग कुछ स्थलों पर उन्होंने गुणस्थान शब्द का स्पष्ट निर्देश किया है। अन्य अंग-आगमों की टीका में भी गुणस्थान की अवधारणा का अभाव ही परिलक्षित होता है, क्योंकि उन मूलग्रन्थों में गुणस्थान सम्बन्धी कोई निर्देश नहीं है। अतः अन्य आगमों की टीकाओं का हमने आंशिक रूप से ही आलोड़न किया है, क्योंकि उनमें गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा की संभावना अल्पतम ही प्रतीत हुई है। . Jain Education Intemational Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 3 शौरसेनी आगम साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा कषायपाहुड और गुणस्थान की अवधारणा। षट्खण्डागम में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विवेचन। * भगवती आराधना में गुणस्थान सिद्धान्त। मूलाचार में गुणस्थान सम्बन्धी विचारणा। आचार्य कुन्द-कुन्द के ग्रन्थों में गुणस्थान की अवधारणा। Jain Education internal Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ هههههههههههههههههههههم | अध्याय 3 | שששששששששששששששששששששש शौरसेनी आगम साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा कषायप्राभृत में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज (अ) कषायप्राभृत का सामान्य परिचय : किसी भी ग्रन्थ में गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा किस रूप में उपलब्ध होती है, इसका अध्ययन करने के लिए मुख्यरूप से उसमें गुणस्थान शब्द का प्रयोग, गुणस्थानों के नामों के उल्लेख, विविध गुणस्थानों में विभिन्न कर्मों के बन्ध, उदय, उदीरणाकरण, सत्ता आदि की स्थिति तथा गुणस्थानों का जीवस्थान, मार्गणास्थान आदि से सहसम्बन्ध का अध्ययन करना आवश्यक होता है । इस दृष्टि से विचार करने पर यह पाते हैं कि कसायपाहुडसुत्त में चाहे गुणस्थान शब्द का स्पष्ट प्रयोग न हुआ हो फिर भी उसमें गुणस्थानों की कुछ अवस्थाओं का चित्रण तो अवश्य ही उपस्थित है । प्रस्तुत अध्ययन में हम कसायपाहुडसुत्त में गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित पूर्वोक्त मान्यताओं की समीक्षा करने का प्रयत्न करेंगें। ___कसायपाहुडसुत्त शौरसेनी आगम साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ हैं, यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा में पंचसंग्रह के अन्तर्गत कसायपाहुड का निर्देश है और उसकी गाथाएँ भी उपलब्ध है । तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि दोनों भिन्न-भिन्न ग्रन्थ हैं। प्रस्तुत कसायपाहुड ग्रन्थ पूर्व साहित्य के (पेज्जदोस पाहुड) की दसवीं वस्तु से उद्धृत है। कसायपाहुड की प्रथम गाथा में ही इस तथ्य को स्वीकार किया गया है । (पेज्जदोस पाहुड) की विवेच्य वस्तु राग और द्वेष रही है, जिन्हें कर्मबन्ध का मूल कारण माना गया है । शौरसेनी कसायपाहुडसुत्त में २३३ गाथाएँ उपलब्ध है । इसमें भी मूल गाथाएं १८० मानी गई है। शेष गाथाएँ भाष्य गाथाओं और संग्रहणी गाथाओं के रूप में है। इसके अतिरिक्त इसकी क्षपणा अधिकार नामक एक चूलिका भी मिलती है, जिसमें १२ गाथाएँ हैं । कसायपाहुड में कहीं भी उसके कर्ता का नाम उल्लेख नहीं है । कसायपाहुडसुत्त के कर्ता के रूप में गुणधर का और चूर्णिकार के रूप में यतिवृषभ का उल्लेख कसायपाहुडसुत्त की जयधवला टीका में मिलता है, किन्तु जयघवलाकार ने भी आचार्य गुणधर कौन थे और किस परम्परा से सम्बन्धित थे, इसका उल्लेख नहीं किया है। जयधवला केवल इतना ही स्पष्ट करती है कि आचार्य परम्परा से आती हुई ये सूत्र गाथाएं आर्य मंक्षु और नागहस्ती को प्राप्त हुई। उनके पादमूल में बैठकर आचार्य गुणधर Jain Education Intemational Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... I तृतीय अध्याय ........ (74} के मुखकमल से निकली हुई इन १८० गाथाओं का श्रवण कर यतिवृषभ भट्टारक ने चूर्णिसूत्रों की रचना की । १५४ इस कथन से केवल इतना ही निश्चित होता है कि आचार्य गुणधर आर्य मंक्षु और नागहस्ती की परम्परा में हुए थे । आर्य मंक्षु और नागहस्ती के उल्लेख नंदीसूत्र की स्थविरावली में मिलते हैं । यतिवृषभ को ये गाथाएं आर्य मंक्षु और नागहस्ती के द्वारा प्राप्त हुई तथा आर्य मंक्षु और नागहस्ती ने इन्हें आचार्य परम्परा से प्राप्त की, अतः ये गाथाएं इन दोनों के पूर्व की ही हैं । श्वेताम्बर पट्टावलियों में गुणधर नाम के कुछ आचार्यों के उल्लेख मिलते हैं, किन्तु ये सब आर्य मंक्षु और नागहस्ती से पर्याप्त परवर्ती हैं, अतः उन्हें कसायपाहुडसुत्त का कर्ता नहीं माना जा सकता है। इसीलिए कसायपाहुडसुत्त के कर्ता गुणधर कौन थे और किस परम्परा के थे, यह निर्णय करना कठिन है। डॉ. सागरमल जैन ने अपने ग्रन्थ जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय में उन्हें उत्तर भारत के अविभक्त निर्ग्रन्थ संघ का माना है तथा उनका काल आर्य मंक्षु और नागहस्ती से पूर्व ही माना है । १५५ नंदीसूत्र और कल्पसूत्र की स्थविरावलि के अनुसार आर्य मंक्षु और नागहस्ती का काल ईसा की दूसरी शताब्दी का पूर्वार्द्ध माना गया है। यदि आचार्य गुणधर इनसे पूर्ववर्ती है, तो उनका काल ईसा की प्रथम शताब्दी के आसपास मानना होगा। कसायपाहुडसुत्त में गुणस्थान की अवधारणा का प्रायः अभाव तथा तत्त्वार्थसूत्र के समान गुणश्रेणियों की चर्चा यह स्पष्ट करती है कि कसायपाहुडसुत्त का काल ईसा की प्रथम शताब्दी से ईसा की तीसरी शताब्दी के मध्य कहीं होगा । कसायपाहडसुत्त के चूर्णिकार यतिवृषभ माने जाते हैं । यतिवृषभ तिलोयपण्णत्ति के भी कर्ता हैं । यद्यपि परवर्ती काल में उसमें पर्याप्त रूप से प्रक्षेप हुआ है और यदि उसके समग्र रूप को देखें तो यतिवृषभ ईसा की पांचवी शताब्दी के सिद्ध होते हैं, किन्तु यतिवृषभ के चूर्णिसूत्रों में भी गुणस्थान सम्बन्धी स्पष्ट उल्लेख का अभाव है । इससे ऐसा लगता है कि चूर्णिसूत्र षट्खण्डागम की अपेक्षा प्राचीन रहे होंगे, किन्तु यह भी संभव है कि मूल ग्रन्थ में गुणस्थान की अवधारणा के उल्लेख का अभाव होने के कारण चूर्णिकर्ता ने भी उसका कोई उल्लेख नहीं किया हो । यतिवृषभ ने आर्य मंक्षु और आर्य नागहस्ती के सान्निध्य में बैठकर कसायपाहुडसुत्त का अध्ययन किया और उस पर चूर्णिसूत्र लिखे, ऐसा उल्लेख जयधवला में किया गया है । इसके सम्बन्ध में यह कहना सही है कि यतिवृषभ आर्य मंक्षु और नागहस्ती के समकालीन है, क्योंकि उन दोनों का काल तो निश्चित ही ईसा की द्वितीय शताब्दी के आसपास ही है, किन्तु यतिवृषभ को यदि तिलोयपण्णत्ति का कर्ता माना जाता है, तो उन्हें आर्य मंक्षु और नागहस्ती का समकालीन तो नहीं कहा जा सकता है । यह भी हो सकता है उन्हें कसायपाहुडसुत्त; आर्य मंक्षु और नागहस्ती की परम्परा से प्राप्त हुआ हो । ग्रन्थ के रचनाकाल के सम्बन्ध में भी विद्वानों में मतभेद है । सामान्यतया इसे ईसा की प्रथम शताब्दी से लेकर तीसरी शताब्दी के मध्य रचित माना जा सकता है । यदि गुणस्थान सम्बन्धी चिन्तन को आधार बनाकर देखें, तो इसकी स्थिति षट्खण्डागम के पूर्व और तत्वार्थसूत्र से परवर्ती सिद्ध होती है। डॉ. सागरमल जैन ने अपने ग्रन्थ " गुणस्थान सिद्धान्त एक विश्लेषण ” में यह माना है कि कसायपाहुडसुत्त, तत्वार्थसूत्र और तत्वार्थभाष्य से किंचित् परवर्ती और षट्खण्डागम आदि गुणस्थान सिद्धांत की विस्तृत चर्चा करने वाले ग्रन्थों से पूर्ववर्ती सिद्ध होता है । १५६ उनका मानना यह है कि आचारांग निर्युक्ति और तत्वार्थसूत्र तथा उसके स्वोपज्ञभाष्य में हमें आध्यात्मिक विकास की केवल दस अवस्थाओं का चित्रण उपलब्ध होता है। तत्वार्थसूत्र एवं उसके स्वोपज्ञभाष्य में आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाएँ ही मिलती है। कसायपाहुड से इनकी तुलना करने पर हम यह पाते हैं कि कसायपाहुड में मिथ्यात्व और मिश्र अवस्था की चर्चा भी है, जबकि इन ग्रन्थों में इनकी कोई चर्चा उपलब्ध नहीं होती है । पुनः जहाँ षट्खण्डागम में पूर्व में जीवस्थान के नाम से और बाद में गुणस्थान शब्द से जिन चौदह अवस्थाओं की जैसी चर्चा की गई है, वैसी व्यवस्थित चर्चा कसायपाहुडसुत्त में अनुपलब्ध है । कसायपाहुडसुत्त की मूल गाथा में हमें कहीं भीं १५४ जयधवला पृ. ८३, उद्धृत जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय डॉ. सागरमल जैन, प्रकाशन : पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर १५५ जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय, डॉ. सागरमल जैन पृ. ८३, प्रकाशन : पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर (राज.) १५६ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण, डॉ. सागरमल जैन, पृ. ३, प्रकाशन: पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ तृतीय अध्याय........{75}गुणठाण (गुणस्थान) शब्द का उल्लेख नहीं मिलता है। यद्यपि कसायपाहुड में सूक्ष्मसंपराय, क्षीणमोह आदि नाम उपलब्ध होते हैं, किन्तु इनके साथ गुणश्रेणी आदि शब्द का प्रयोग उपलब्ध है। इस आधार पर विद्वानों की यह मान्यता है कि आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाओं से चौदह गुणस्थानों की अवधारणा विकसित हुई हैं । इस आधार पर कसायपाहुड का काल तत्त्वार्थसूत्र तथा आचारांग निर्युक्ति के पश्चात् एवं षट्खण्डागम के मध्य ही रखा जा सकता है । अपने इन्हीं तर्कों के आधार पर डॉ. सागर जैन ने इसे आचरांगनिर्युक्ति, तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य के बाद और षट्खण्डागम के पूर्व स्थान दिया है। उनके अनुसार श्वेताम्बर परम्परा में चौदह गुणस्थानों की सुव्यवस्थित चर्चा जीवसमास (लगभग पांचवीं छठी शताब्दी) तत्त्वार्थ सूत्र की सिद्धसेनगणि की टीका (लगभग सातवीं शताब्दी), और आवश्यकचूर्णि (लगभग सातवीं शताब्दी) में मिलती है । दिगम्बर परम्परा में चौदह गुणस्थानों की चर्चा षट्खण्डागम (लगभग पांचवीं - छठी शताब्दी) और तत्त्वार्थसूत्र की पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्ध टीका (लगभग छठी शताब्दी) में मिलती है । यह तो निश्चित है कि विद्वानों की दृष्टि में कसायपाहुड का रचना काल ईसा के पांचवी शताब्दी से पूर्व और आचारांग निर्युक्ति (लगभग दूसरी शताब्दी), तत्त्वार्थसूत्र (लगभग चौथी शताब्दी) के पश्चात् मध्य में कहीं रखा जाता है । अतः इसका काल तीसरी के बाद और पांचवी के पूर्व ही कहीं निश्चित होता है । यद्यपि दिगम्बर परम्परा के कुछ विद्वानों ने डॉ. सागरमल जैन की इस मान्यता को स्वीकार नहीं किया है और वे कसायपाहुडसुत्त को ईसा की प्रथम शताब्दी के लगभग रखना चाहते है । हमारी दृष्टि में कसायपाहुडसुत्त को ईसा की प्रथम शताब्दी में तभी माना जा सकता है कि जब हम उमास्वाति और उनके तत्त्वार्थसूत्र को ईसा की प्रथम शताब्दी के पूर्व माने । कालक्रम के सम्बन्ध में चाहे निश्चयात्मक रूप से कहना कठिन हो परन्तु इतना सुनिश्चित है कि कसायपाहुड की स्थिति तत्त्वार्थसूत्र और षट्खण्डागम के मध्य ही कहीं मानना होगी । कषायपाहुड और गुणस्थान की अवधारणा यह सुनिश्चित है कि कसायपाहुड की मूल गाथाओं में गुणस्थान, जीवस्थान और जीवसमास - ऐसे नामों का कहीं भी उल्लेख नहीं है। फिर भी उसके अन्दर कुछ ऐसी अवस्थाओं के निर्देश अवश्य उपलब्ध हैं, जो गुणस्थान या तत्त्वार्थ में वर्णित आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाओं के निकटवर्ती कही जा सकती हैं। जो नाम हमें कसायपाहुडसुत्त की मूलगाथाओं में उपलब्ध हुए, उन्हें हम इस क्रम से रख सकते हैं- मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र), सम्यक्त्व, अविरत, विरताविरत (मिश्र), विरत, बादरराग, बादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्तकषाय, क्षीणमोह और केवलदर्शन । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि कसायपाहुड के चूर्णिसूत्रों में अपूर्वकरण आदि कुछ अवस्थाओं का भी संकेत मिलता है। यदि हम गुणस्थान सिद्धान्त की दृष्टि से इन अवस्थाओं का विचार करते हैं तो हमें अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण तथा अयोगीकेवली जैसी अवस्थाओं का कहीं कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है । कसायपाहुडसुत्त में यद्यपि अयोगीकेवली के सम्बन्ध में मूलगाथाओं में कहीं कोई निर्देश नहीं है, किन्तु उसके चूर्णिसूत्रों के अन्त में अयोगीकेवली अवस्था सम्बन्धी निर्देश उपलब्ध होते हैं। इसके चूर्णसूत्र, जो यतिवृषभ के माने जाते हैं, लगभग छठी शताब्दी के हैं । कसायपाहुडसुत्त की एक अन्य विशेषता यह है कि इसमें दर्शनमोह और चारित्रमोह दोनों के सम्बन्ध में उपशामक, उपशान्त, क्षपक और क्षीण अवस्थाओं का चित्रण उपलब्ध है । इससे ऐसा लगता है कि प्राचीनकाल में मिथ्यात्वमोह और चारित्रमोह दोनों के सन्दर्भ में पहले उपशमक, उपशान्त और फिर क्षपक और क्षीण इन चार अवस्थाओं की चर्चा प्रमुख रूप से होती थी । यही कारण है कि कसायपाहुड में भी उपशामक, उपशान्त, क्षपक और क्षीण - इन चारों अवस्थाओं का चित्रण दर्शनमोह और चारित्रमोह के सम्बन्ध में अलग-अलग रूप में मिलता है । यह भी स्पष्ट है कि कसायपाहुड में किस-किस अवस्था में किन-किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध, उदय, उदीरणा, संक्रमण आदि होता है, इसकी भी चर्चा की गई है । फिर भी यहाँ गुणस्थान सिद्धान्त जैसी कोई अवधारणा हमें स्पष्ट रूप से प्राप्त नहीं होती है । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय.......{76} __ कसायपाहुडसुत्त में गुणस्थान सिद्धान्त की स्पष्ट अवधारणा के अभाव को लेकर दो प्रकार के दृष्टिकोण हो सकते हैं। कुछ विद्वान तत्त्वार्थसत्र, कसायपाहुड एवं श्वेताम्बर आगम साहित्य में गुणस्थान का स्पष्ट निर्देश न पाकर यह मान्यता रखते हैं कि गुणस्थान सिद्धान्त का विकास एक परवर्ती काल की घटना है, किन्तु इस सम्बन्ध में यह भी कहा जा सकता है कि चाहे कसायपाहुड में गुणस्थानों की पूर्णतः विकसित अवधारणा का अभाव हो, फिर भी उसमें गुणस्थान सम्बन्धी विभिन्न अवस्थाओं का चित्रण तो है ही। ज्ञातव्य है कि कसायपाहुडसुत्त का सम्बन्ध मात्र कषायों के बन्ध, उदय, उदीरणा और संक्रमण तथा उपशमन और क्षय से है, इसीलिए इसमें गुणस्थान की सम्पूर्ण अवधारणा का अभाव देखकर यह निर्णय करना उचित नहीं है कि उस काल में गुणस्थान था ही नहीं। चूंकि प्रस्तुत ग्रन्थ का विषय केवल कषायों के अर्थात् दर्शनमोह और चारित्रमोह के उपशम और क्षय को बताना है, इसीलिए उसमें गुणस्थान सिद्धान्त की व्यवस्थित अवधारणा का अभाव स्वभाविक ही है, क्योंकि ग्रन्थकार जिस विषय का विवेचन करता है, स्वयं को उसी विषय तक सीमित रखता है। यद्यपि यह स्पष्ट है कि गुणस्थान सिद्धान्त का मुख्य सम्बन्ध तो दर्शनमोह और चारित्रमोह के उपशमन और क्षय की विभिन्न अवस्थाओं का चित्रण करना हैं, इसलिए प्रयोजन की अपेक्षा से हम इतना अवश्य कह सकते है कि गुणस्थान सिद्धान्त एवं कसायपाहुडसुत्त-दोनों का ही सम्बन्ध व्यक्ति की आध्यात्मिक विकास की भूमिकाओं की चर्चा करना है, इसीलिए दोनों में समरूपता होना स्वाभाविक है। मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों के बन्ध, उदय, उपशमन और क्षय की चर्चा दोनों में ही की गई है और उसमें सैद्धांतिक दृष्टि से विशेष मतभेद नहीं देखा जाता है । कसायपाहुड की मूल गाथाओं में अयोगीकेवली गुणस्थान का चित्रण न होना अस्वाभाविक नहीं है । चूंकि प्रस्तुत ग्रन्थ का विषय मोहनीय कर्म के क्षय तक ही सीमित है, इसीलिए इसके क्षय के पश्चात् सर्वज्ञता की प्राप्ति की चर्चा कर देने मात्र से ही इसका प्रयोजन पूर्ण हो जाता है। आगे हम इस बात की विस्तार से चर्चा करेंगे कि इन विभिन्न अवस्थाओं में कसायपाहुडसुत्त मोहनीय कर्म की किन-किन प्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा, उपशम और क्षय की चर्चा करता है । कसायपाहुड षट्खण्डागम से पूर्ववर्ती है और षट्खण्डागम कसायपाहुड से परवर्ती है । इस तथ्य को कसायपाहुडसुत्त की प्रस्तावना में पं. हीरालाल ने स्वयं स्वीकार किया है । वे स्वयं लिखते हैं कि कसायपाहुडसुत्त के कर्ता आचार्य गुणधर, आचार्य धरसेन तथा पुष्पदन्त और भूतबली से पूर्ववर्ती है। (पृ.४-७) ____ कसायपाहुड के चूर्णिसूत्रों में चौदह जीवसमासों का उल्लेख हुआ है, किन्तु वहाँ जीवसमास का तात्पर्य चौदह गुणस्थान न होकर चौदह जीवस्थान ही है । (पृ.५६४) कसायपाहुड के चूर्णिसूत्रों की प्राचीनता का एक आधार यह भी है कि तत्त्वार्थसूत्र (भाष्य मान्य पाठ) के समान इनमें पांच मूल नयों का ही उल्लेख है। (पृ.१७) यहाँ यह ज्ञातव्य है कि षट्खण्डागम में भी मूल पांच नयों का ही उल्लेख है। पांच नयों की अवधारणा अपेक्षाकृत प्राचीन होने से चूर्णिसूत्रों की प्राचीनता सिद्ध होती है। कसायपाहुडसुत्त की विषयवस्तु एवं गुणस्थान सिद्धान्त : जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं कि कसायपाहुडसुत्त की विषयवस्तु मुख्यतया दर्शनमोह और चारित्रमोह की विभिन्न अवस्थाओं में कर्मप्रकृतियों की स्थिति, अनुभाग और प्रदेश विभक्ति से सम्बन्धित हैं। साथ ही यह उनके बन्ध, संक्रमण आदि की चर्चा करता है। कसायपाहुडसुत्त में वर्णित पन्द्रह अधिकारों के विषय इस प्रकार बताए गए हैं ।'५७ १.प्रेयोद्वेष विभक्ति २. स्थिति विभक्ति ३. अनुभाग विभक्ति ४. बन्ध विभक्ति ५.संक्रमण विभक्ति ६.वेदक विभक्ति या उदीरणा विभक्ति ७. उपयोग विभक्ति ८. चतुःस्थान विभक्ति ६.व्यंजन विभक्ति १५७ कसायपाहुडसुत्त, लेखक : गुणधराचार्य, प्रकाशक : वीर शासन संघ, कलकत्ता, सम्पादक एवं हिन्दी अनुवादक : पं. हीरालाल जैन, गाथा क्रमांक : १३-१४ Jain Education Intemational Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{77} १०. दर्शनमोह उपशमना विभक्ति ११. दर्शनमोह क्षपण विभक्ति १२. संयमासंयम लब्धि १३. चारित्र लब्धि १४. चारित्रमोह उपशमन विभक्ति १५. चारित्रमोह क्षपण विभक्ति ज्ञातव्य है कि मलगाथाओं. चर्णिसत्रों और जयधवला टीका में इन नामों में कहीं क्रमभेद तो कहीं नामभेद देखा जाता है। चूर्णिकार स्थिति और अनुभाग को अलग-अलग न करके एक ही भाग में रखता है और चारित्रमोह क्षपण विभक्ति के बाद अद्धा परिमाण निर्देश नामक एक अधिकार की चर्चा करता है । इसी प्रकार जयधवलाकार दर्शनमोह उपशमन और दर्शनमोह क्षपण-इन दो विभक्तियों को मिलाकर सम्यक्त्व विभक्ति नाम देता है और एक अधिकार की पूर्ति प्रकृति विभक्ति नाम से करता है । इस सामान्य मतभेद को छोडकर विषयवस्तु से सम्बन्धित अधिकारों में कोई महत्वपूर्ण अन्तर नहीं देखा जाता है ।५८ ___ कर्म की जिन विभिन्न अवस्थाओं का चित्रण कसायपाहुडसुत्त में पाया जाता है, उनमें मुख्य रूप से बन्ध , संक्रमण , अपवर्तन , उपशमन और क्षय की ही चर्चा विशेष रूप से देखी जाती है। स्थिति की चर्चा में हम उनकी चर्चा की सत्ता को भी अन्तर्भावित कर सकते हैं। जहाँ तक आध्यात्मिक विकास की अवस्थाओं के चित्रण का प्रश्न है, इसके प्रारंभ में तो सम्यग्दृष्टि, देशविरत, संयत (विरत), दर्शनमोह उपशमक, दर्शनमोहक्षपक,चारित्रमोह उपशमक, चारित्रमोह क्षपक- इन सात अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है। अन्यत्र मिथ्यात्व, मिश्र, बादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय तथा केवली-इन पांच अवस्थाओं का भी उल्लेख पाया जाता है । इस प्रकार आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से इसमें बारह अवस्थाओं का चित्रण उपलब्ध है । मूल गाथाओं में कहीं भी सास्वादन अवस्था का उल्लेख नहीं है। इसी प्रकार से इसमें प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत-ऐसे दो विभागों के स्थान पर मात्र संयत का निर्देश मिलता है। अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण की चर्चा इस ग्रन्थ की मूल गाथाओं में नहीं मिलती है। इसी प्रकार से इसमें केवली के सयोगी और अयोगी भेद का मूलगाथा में कहीं उल्लेख नहीं मिलता है, यद्यपि उसके चूर्णिसूत्रों में इनका उल्लेख है। यदि हम अनिवृत्तिकरण को बादरसंपराय के अर्थ में गृहीत करें, तो इसमें गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित ग्यारह नाम स्पष्टरूप से उपलब्ध होते हैं। दर्शनमोह के सम्बन्ध में उपशमक और क्षपक-ये दो भेद गुणस्थान सिद्धान्त में नहीं है, किन्तु हमें इस ग्रन्थ में मिलते हैं। यदि हम कसायपाहुडसुत्त में वर्णित इन अवस्थाओं की तुलना आचारांगनियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित दस अवस्थाओं से करते हैं, तो कसायपाहुडसुत्त में हमें केवल सम्यग्मिथ्यादृष्टि का चित्रण अधिक मिलता है। तत्त्वार्थसूत्र में आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से मिथ्यात्व का कहीं उल्लेख नहीं मिलता है, किन्तु कसायपाहुडसुत्त में मिथ्यादृष्टि का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। तत्त्वार्थसूत्र में जहाँ अनन्तवियोजक का उल्लेख हुआ है, वहीं कसायपाहुडसुत्त में दर्शनमोह उपशामक का उल्लेख है और उसकी चूर्णि में अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण का भी स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध होता है।५६ पुनः चूर्णिसूत्रों में चौदहवें अधिकार में ५४४ वें सूत्र में सास्वादन (सासाणं) गुणस्थान का भी उल्लेख हुआ है और उसमें विस्तार से दोनों अवस्थाओं की स्थिति क्या होती है, इसकी भी चर्चा की गई है। इसी प्रकार से चूर्णिसूत्रों में सयोगी जिन और अयोगी जिन (केवली) का स्पष्टरूप से उल्लेख है।६० इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि कसायपाहुडसुत्त के चूर्णिसूत्रों के कर्ता यतिवृषभ, गुणस्थान सिद्धान्त से पूरी तरह परिचित थे। इन उल्लेखों में यह भी सिद्ध होता है कि कसायपाहुडसुत् न सिद्धान्त के विकास के बाद ही लिखी गई है। इस दृष्टि से चूर्णि और चूर्णिकार यतिवृषभ का समय लगभग छठी शताब्दी से पूर्व का नहीं माना जा सकता है। यतिवृषभ की तिलोयपण्णत्ति में भगवान महावीर के निर्वाण के एक हजार वर्ष पश्चात् होने वाले राजा आदि का उल्लेख किया है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि वे भगवान महावीर के निर्वाण के एक हजार वर्ष पश्चात् अर्थात् विक्रम की छठी शताब्दी के पूर्व में कभी १५८ कसायपाहुडसुत्त, गुणधराचार्य रचित, सम्पादक : पं. हीरालाल जैन, प्रकाशक : वीर शासन संघ, कलकत्ता १५६ कसायपाहुडसुत्त, चूर्णि अधिकार १४ सूत्र ५४४ १६० कसायपाहुडसुत्त, गाथा २३३ के चूर्णिसूत्र १५७१-१५७२ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{78} हुए हैं। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य में यतिवृषभ के मत का उल्लेख किया है। इसी प्रकार पूज्यपाद देवनन्दी ने भी सर्वार्थसिद्धि में उनके इस मत का भी उल्लेख किया है कि सास्वादन गुणस्थानवी जीव एकेन्द्रिय में उत्पन्न नहीं होता।'६' इन दोनों आधारों पर हम यह कह सकते हैं कि यतिवृषभ का काल ईस्वी सन् की पांचवीं शताब्दी के अन्त और विक्रम की छठी शताब्दी के पूर्व कहीं स्थिर होगा। इससे निष्कर्ष यह निकलता है कि पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्ध टीका भी ईस्वी सन् के पांचवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के पश्चात् लगभग छठी शताब्दी में ही लिखी गई है। इस प्रकार जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया है कि आध्यात्मिक विकास की चर्चा के प्रसंग में कसायपाहडसत्त की स्थिति आचारांगनियुक्ति और तत्त्वार्थसूत्र के बाद और षट्खण्डागम, देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका एवं गुणस्थान की चर्चा करने वाले अन्य ग्रन्थ जैसे मूलाचार, भगवती आराधना, कुन्दकुन्द के ग्रन्थ के पूर्व सिद्ध होती है । इस प्रकार आध्यात्मिक विकास की आचारांगनियुक्ति में वर्णित दस अवस्थाओं से चौदह गुणस्थानों के विकास की इस यात्रा में कसायपाहुडसुत्त को एक मध्यवर्ती पड़ाव कहा जा सकता है। जैसे कि हमने पूर्व में उल्लेख किया है कि कसायपाहुडसुत्त मूलतः दर्शनमोह और चारित्रमोह की कर्मप्रकृतियों के प्रदेशबन्ध, प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध-इन चारों का उल्लेख करता है। इस ग्रन्थ के पन्द्रह अधिकारों में से प्रथम अधिकार (पेज्जदोस विभक्ति) है। इसमें सर्व प्रथम बताया गया है कि कषाय रागद्वेष के ही रूप हैं। रागद्वेष और कषायों के स्वरूप की चर्चा के पश्चात इनके कितने भेद हैं ? वे किस स्थिति में कितनी देर तक स्थित रहते हैं ? इनका अन्तरकाल क्या हैं? इनसे युक्त जीवों में किस प्रकार के हीनाधिक परिणाम पाए जाते हैं, इसकी चर्चा है। इस अधिकार में मूलतः मोहनीय कर्म के मूल दो और आवान्तर अट्ठाईस भेदों की चर्चा की गई है। कसायपाहुडसुत्त का दूसरा अधिकार स्थिति विभक्ति है। इसमें मोहनीय कर्म एवं उसके आवान्तर भेदों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का वर्णन अनेक अनुयोगद्वारों के आधार पर किया गया है। तीसरा विभाग अनुभाग विभक्ति है। कर्मों के फल देने की शक्ति या तीव्रता अनुभाग कही जाती है। इसके अन्तर्गत लता, काष्ठ और पर्वत के उदाहरणों से कर्मों की हीनाधिक रूप से फल देने की शक्ति का विचार किया गया है। इसी अनुभाग विभक्ति के अन्तर्गत प्रदेश विभक्ति की भी चर्चा की गई है। प्रस्तुत ग्रन्थ का ये चौथा अधिकार है। इसमें मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग के निमित्त से कर्मों का जो बन्ध होता है, वह कैसे होता है, इसकी अत्यन्त संक्षिप्त चर्चा है। इसके साथ ही इसी गाथा (गाथा. २३) में कर्मसंक्रमण की चर्चा का भी निर्देश है। इसमें गुणहीन और गुणविशिष्ट कितने जघन्य और उत्कृष्ट प्रदेशों का संक्रमण होता है, इसका निर्देश मात्र है। अगला अधिकार संक्रमण अधिकार है। संक्रमण के भी बन्ध के समान ही चार भेद माने गए हैं। प्रकृति संक्रमण, स्थिति संक्रमण, अनुभाग संक्रमण और प्रदेश संक्रमण । ज्ञातव्य है कि कर्मों का संजातीय आवान्तर प्रकृतियों में रूपान्तरित होना ही संक्रमण है, अतः वह प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग सभी के सम्बन्ध में घटित होता है । यद्यपि यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि प्रकृतिबन्ध में संक्रमण अपनी आवान्तर कर्मप्रकृतियों में ही होता है। कर्मप्रकृति का जितनी स्थिति का बन्ध होता है, उस स्थिति को कम-अधिक करना, स्थिति संक्रमण कहलाता है। इसी प्रकार कर्म की फल देने की शक्ति को कम-अधिक करना, यह अनुभाग संक्रमण कहलाता है। पुनः जिन कर्मप्रकृतियों के जितने प्रदेश हैं उन प्रदेशों का अपनी ही आवान्तर कर्म प्रकृतियों में संक्रान्त हो जाना प्रदेश संक्रमण कहलाता हैं। प्रस्तुत अधिकार में संक्रमण के विभिन्न अनुयोगद्वारों के आधार पर चर्चा की गई है। विशेषरूप से इसमें पांच प्रकार के उपक्रम, चार प्रकार के निक्षेप, पांच प्रकार के नय और आठ प्रकार के निर्गमों के आधार पर संक्रमण की चर्चा की गई है। ____ अग्रिम अधिकारों में छठा वेदक अधिकार है। इसमें कर्म का फल किस प्रकार से अनुभव किया जाता है इसका वर्णन है। इसमें वेदन से सम्बन्धिघत उदय और उदीरणा दोनों की चर्चा हुई है। १६१ सर्वार्थसिद्धि - पूज्यपाद देवनन्दी, प्रस्तावना पृ. ६, सम्पादनः पं. फूलचन्द्र शास्त्री, प्रकाशनः भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली-११००३२ Jain Education Intemational Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{79} अग्रिम अधिकार उपयोग अधिकार है। इसके अर्न्तगत कषाय भावों का उल्लेख है । यहाँ कषाय को चेतना का उपयोग कहा गया है। इसमें एक जीव को कौनसी कषाय कितने समय तक उदय में रहती है ? किस गति के जीव को कौनसी कषाय उदय में आती है ? एक भव में कषायों का उदय कितनी बार होता है और कितने समय तक होता है ? एक भव में उदित कषाय कितने भव तक रह सकती है ? आदि की चर्चा है। अग्रिम चतुःस्थान अधिकार के अन्तर्गत चारों कषायों के अनन्तानुबन्धी आदि चार-चार भेदों की चर्चा है। इसमें यह भी चर्चा की गई है कि कौनसे कषाय देशघाती और कौनसा कषाय सर्वघाती है ? इसके पश्चात् नवें व्यंजन अधिकार में कषायों के पर्यायवाची नामों की चर्चा की गई है। यह चर्चा प्रायः भगवतीसूत्र के समान है। इसके पश्चात् दसवाँ अधिकार दर्शनमोह उपशमन अधिकार है। इसमें दर्शनमोह में जीव कौनसी अवस्था को प्राप्त होता है ? उसका परिणाम कैसा होता है ? इसकी चर्चा है। साथ ही किस जीव में कौन-कौन सी कषाय, लेश्या और वेद होता है? इसकी भी चर्चा की गई है। प्रस्तुत ग्रन्थ का अग्रिम अधिकार दर्शनमोह क्षपण अधिकार है। इसमें दर्शनमोह के क्षपण का आरंभ किससे होता है ? इसकी चर्चा है । इसमें यह भी बताया गया है कि दर्शनमोह के क्षपण की क्रिया समाप्त होने के पूर्व यदि मनुष्य की मृत्यु हो जाए, तो वह चारों गति में अपने-अपने आयुष्य कर्म के बन्ध अनुसार उत्पन्न हो सकता हैं, किन्तु दर्शनमोह का क्षपण होने पर प्रस्तुत भव के अतिरिक्त अधिक से अधिक तीन भव कर मुक्त हो जाता है। अगला अधिकार संयमासंयमलब्धि अधिकार है। इस अधिकार के अन्दर मूल गाथा में केवल इतना ही बताया गया है कि साधक इस अवस्था में चारित्रमोह के उपशमन की क्रिया करता है। वस्तुतः यह अवस्था देशविरतिसम्यग्दृष्टि गुणस्थान के समान है। इसके पश्चात अग्रिम दो अधिकारो में चारित्रमोह के उपशमन और चारित्रमोह के क्षपण की विस्तार से चर्चा की गई है। इन दोनों अधिकारों में विस्तार से यह बताया गया है कि चारित्रमोह कर्म का उपशमन और क्षय किस रूप में होता है ? इन दोनों अधिकारों में साधक चारित्र मोहनीय कर्म का उपशमन और क्षय किस प्रकार से करता है? इसकी चर्चा विस्तृत रूप से उपलब्ध है। इसमें यह भी बताया गया है कि वह किन कर्मप्रकृतियों का किनमें संक्रमण करके उसका उपशम और क्षय करता है। संक्रमण की चर्चा के अतिरिक्त इसमें गुणश्रेणी तथा अपकर्ष-उत्कर्ष कृष्टिकरण आदि की भी विस्तार से चर्चा की गई है। कृष्टिकरण वह प्रक्रिया है जिसमें कर्म वर्गणाओं के स्पर्धकों को इस प्रकार से समायोजित किया जाता है कि उनका क्षय सुविधापूर्ण रूप से किया जाता है। कृष्टि करने वाला साधक पूर्व स्पर्धकों और अपूर्व स्पर्धकों का भेदन करता है, परन्तु कृष्टियों का वेदन नहीं करता। कृष्टियों में साधक नियम से ही कर्मों की स्थिति और अनुभाग का अपवर्तन करता है, अर्थात् उसकी शक्ति को क्षीण करता है। यहाँ यह स्मरण रखनाचाहिए कि गुणस्थानों में आगे-आगे चलने वाले साधक कृष्टियों के माध्यम से कर्मों का अपकर्षण करते हैं, अर्थात् उनकी स्थिति और अनुभाग कम करते हैं, किन्तु ऊपर के गुणस्थान से गिरनेवाले जीव उत्कर्षण के परिणामस्वरूप कर्मों की स्थिति और अनुभाग अधिक करते हैं। अतः चारित्रमोहनीय का क्षपक कृष्टियों के माध्यम से और अपकर्षण करता हुआ आगे बढता हुआ अन्त में चारित्रमोह का क्षय करके क्षीणमोह अवस्था को प्राप्त करता है और अन्त में सर्वज्ञ पद की प्राप्ति कर लेता गुणस्थान सिद्धान्त में उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी के रूप में आठवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक आध्यात्मिक विकास की दो श्रेणियों की चर्चा की गई है। कसायपाहुडसुत्त में भी उपशामक और क्षपक-ऐसी आध्यात्मिक विकास की दो श्रेणियों की चर्चा है, किन्तु जहाँ गुणस्थान सिद्धान्त में यह माना गया है कि सातवें गुणस्थान के अन्त में साधक अपनी योग्यता अनुसार किसी एक श्रेणी से आरोहण करता हुआ अपनी आध्यात्मिक विकास यात्रा करता है, वहाँ कसायपाहुडसुत्त में पहले उपशामक और उपशान्त की और बाद में क्षपक एवं क्षीण की चर्चा है। गुणस्थान सिद्धान्त के अनुसार जो उपशमश्रेणी से यात्रा करता है, वह ग्यारहवें गुणस्थान से पतित होकर सातवें गुणस्थान में आ जाता है। यदि यहाँ भी वह स्थित न रहकर गिरता है, Jain Education Intemational Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ तृतीय अध्याय........{80} तो चौथे और पहले गुणस्थान तक जा सकता है, जबकि क्षपक श्रेणीवाला दसवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान को प्राप्त कर अन्त में तेरहवें गुणस्थान में जाकर कैवल्य प्राप्त कर लेता है, किन्तु कसायपाहुडसुत्त में आध्यात्मिक विकास यात्रा में जो श्रेणी सम्बन्धी चर्चा है, वह गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा से थोड़ी भिन्न परिलक्षित होती है। इसमें जिन अवस्थाओं का चित्रण है, वे निम्न रूप में प्रस्तुत की जा सकती है - १ दर्शनमोह उपशामक २ दर्शनमोह उपशान्त ३ दर्शनमोह क्षपक ४ दर्शनमोह क्षीण ५ चारित्रमोह उपशामक ६ चारित्रमोह उपशान्त ७ चारित्रमोह क्षपक ८ चारित्रमोह क्षीण (क्षीण कषाय ) १६२ इस प्रकार हम देखते है कि यहाँ दर्शनमोह और चारित्रमोह- दोनों के सन्दर्भ में उपशामक, उपशान्त, क्षपक और क्षीण - ऐसी चार-चार अवस्थाओं का उल्लेख है । उपशामक और उपशान्त के बाद हुई क्षपक तथा क्षीण अवस्थाओं का जो क्रम दिया गया है वह गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा से थोड़ा भिन्न प्रतीत होता है। डॉ. सागरमल जैन का मानना है कि प्राचीन स्तर के ग्रन्थों में हमें उपशामक, उपशान्त, क्षपक और क्षीण- इन चार अवस्थाओं की चर्चा प्रथम दर्शनमोह के सन्दर्भ में तथा बाद में चारित्रमोह के सन्दर्भ में उत्पन्न होती हैं। कसायपाहुडसुत्त में भी यह चर्चा इसी रूप में उपलब्ध है, अतः कसायपाहुडसुत्त गुणस्थानसिद्धान्त की समग्र विकास के पूर्व की अवस्था का सूचक माना जाता है । पुनः यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि कसायपाहुडसुत्त आध्यात्मिक विकास की मिथ्यात्व, मिश्र, सम्यक्त्व, अविरत, विरताविरत (मिश्र), विरत, चारित्रमोह उपशामक, चारित्रमोह उपशान्त, चारित्रमोह क्षपक और चारित्रमोह क्षीण तथा केवली - ऐसी ग्यारह अवस्थाओं की चर्चा करता है। इन अवस्थाओं के सन्दर्भ में वह न केवल कर्मों के बन्ध, संक्रमण, उद्वर्तन, अपवर्तन, उदय, उदीरणा आदि की चर्चा करता है, अपितु इन अवस्थाओं में उपयोग, कषाय, वेद, लेश्या, गति आदि मार्गणाओं की अपेक्षा से भी विस्तृत विवेचन प्रस्तुत करता है। इस प्रकार कसायपाहुडसुत्त में गुणस्थानसिद्धान्त के विकसित स्वरूप का उल्लेख तो नहीं है, फिर भी उसे इस सिद्धान्त के विकास की पूर्व अवस्था का प्रतिपादक ग्रन्थ माना जा सकता है। तत्त्वार्थसूत्र और कसायपाहुडसुत्त में वर्णित आध्यात्मिक विकास की अवस्थाओं का तुलनात्मक विवेचन करने पर हमें यह ज्ञात होता है कि कसायपाहुडसुत्त में - १ मिथ्यात्व २ मिश्र ३ सम्यक्त्व ४ अविरत ५ विरताविरत ६ विरत ७ उपशामक ८ क्षपक ६ क्षीण और १० जिन-ऐसी दस अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है, जो तत्त्वार्थसूत्र में कर्म निर्जरा की अपेक्षा से वर्णित दस अवस्थाओं में आंशिक समानता और आंशिक विभिन्नता लिए हुए है। कसायपाहुडसुत्त में जहाँ सम्यक्त्व की अपेक्षा से मिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक्त्व - ऐसी तीन अवस्थाओं की तथा चारित्र की अपेक्षा से अविरत, विरताविरत और विरत - ऐसी तीन अवस्थाओं की चर्चा है, वहीं दूसरी और दर्शनमोह की अपेक्षा से दर्शनमोह उपशमक, दर्शनमोह उपशान्त, दर्शनमोह क्षपक और दर्शनमोह क्षीण तथा चारित्रमोह के अनुसार चारित्रमोह उपशमक, चारित्रमोह उपशान्त, चारित्रमोह क्षपक और चारित्रमोह क्षीण - ऐसी आठ अवस्थाओं का भी उल्लेख है । इनके अतिरिक्त जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया कि इस ग्रन्थ में सूक्ष्मसंपराय और बादरराग-ऐसी दो अवस्थाओं का भी उल्लेख पाया जाता है। यह तो स्पष्ट है कि प्रस्तुत ग्रन्थ में उपर्युक्त अवस्थाओं के आधार पर मोहनीय कर्म की बन्धयोग्य २६ तथा उदययोग्य २८ कर्म प्रकृतियों के बन्ध, संक्रमण, उदय, उदीरणा आदि को समझाया गया है । साथ ही प्रस्तुत ग्रन्थ में पूर्व निर्दिष्ट अवस्थाओं के आधार पर विविध मार्गणाओं में बन्धन की अपेक्षा से जीव की क्या स्थिति रहती है, इसे भी समझाया गया है। इस आधार पर हम इतना तो निश्चित रूप से कह सकते हैं कि प्रस्तुत ग्रन्थ में आध्यात्मिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं में विभिन्न मार्गणाओं के आधार पर कर्मों के बन्ध, संक्रमण, उदय, उदीरणा आदि की चर्चा है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ जीव स्थान-र्मागणा स्थान के आधार पर आध्यात्मिक विकास की विभिन्न स्थितियों का उल्लेख करता है। अतः यह गुणस्थान सिद्धांत की विस्तृत चर्चा की पूर्व स्थिति का सूचक है। इस प्रकार प्रस्तुत कृति में आध्यात्मिक विकास की इन विभिन्न अवस्थाओं में कर्म के बन्ध, संक्रमण, उदय, उदीरणा की चर्चा की गई है। १६२ गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण पृ. १०, ११, लेखक - डॉ. सागरमल जैन, प्रकाशक : पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{81} कसायपाहुडसुत्त की मूलगाथाओं और उनकी प्रतिपाद्य विषयवस्तु का अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता है कि उस विभिन्न मार्गणाओं की अपेक्षा से दर्शनमोह और चारित्रमोह की विभिन्न कर्म प्रकतियों के स्थि संक्रमण, उदय, उदीरणा, उपशमन तथा क्षय की चर्चा की गई है। मूल गाथाओं की विषयवस्तु को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रन्थकार का प्रतिपाद्य विषय मोहनीय कर्म की विभिन्न अवस्थाओं का विवेचन करना ही है। मूल गाथाओं में हमें कहीं भी गुणस्थान शब्द की चर्चा नहीं मिलती है। मूल गाथाओं में कुछ स्थलों पर स्थान (ठाण) शब्द का उल्लेख मिलता है, किन्तु वह हमें तो जीवस्थानों का ही वाचक लगता है। कहीं-कहीं ठाण शब्द का प्रयोग संक्रमणस्थान, बन्धस्थान आदि की अपेक्षा से भी हुआ है, गुणस्थान की अपेक्षा से नहीं हुआ है। प्रारंभ में कसायपाहुडसुत्त के विभिन्न अधिकारों की चर्चा करते हुए दर्शनमोह उपशमना अधिकार, दर्शनमोह क्षपणा अधिकार, चारित्र मोह उपशमना अधिकार, चारित्रमोह क्षपणा अधिकार आदि का उल्लेख है। इस उल्लेख में दर्शनमोह उपशमक, दर्शनमोह क्षपक, चारित्रमोह उपशमक, चारित्रमोहक्षपक, क्षीणमोह आदि अवस्थ हुआ है, किन्तु ये अवस्थाएं गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता है। कसायपाहुडसुत्त का प्रथम अधिकार पेज्जदोस विभक्ति है। इस अधिकार में मुख्य रूप से रागद्वेष और कषायों के स्वरूप, उनके भेद, उनकी स्थिति, उनकी तीव्रता एवं अन्तरकाल की चर्चा है ।१६३ यह स्पष्ट है कि गुणस्थान सिद्धान्त का आधार भी मोहनीय कर्म की कर्म प्रकृतियों के क्षय एवं क्षयोपशम से है। गुणस्थान सिद्धान्त में दसवें गुणस्थान तक तो प्रमुख रूप से मोहनीय कर्म की कर्म प्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा एवं क्षय की चर्चा है। इस प्रकार विषयवस्तु की अपेक्षा से कसायपाहुडसुत्त एवं त में पर्याप्त समानता है, फिर भी उसे गुणस्थानों के विवेचन के रूप में नहीं समझा जा सकता है। आगे बन्ध-संक्रमण अधिकार में गति आदि चौदह मार्गणाओं में मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का बन्ध-संक्रमण आदि किस रूप में होता है, इसकी चर्चा है। जिस प्रकार गुणस्थान सिद्धान्त में मोहनीय कर्म को विशेष महत्व देते हुए भी प्रासंगिक रूप से अन्य कर्मो के बन्ध, उदय, उदीरणा आदि की चर्चा हुई है, उसी प्रकार कसायपाहुडसुत्त में भी कहीं-कहीं अन्य कर्म प्रकृतियों के बन्ध, उदय आदि की चर्चा पाई जाती है। फिर भी दोनों में मुख्य अन्तर यह है कि जहाँ कसायपाहुड में इस चर्चा में मार्गणास्थानों को विशेष महत्व दिया है, वहीं गुणस्थान सिद्धान्त में गुणस्थानों को महत्व दिया गया है, किन्तु जैसे मार्गणाओं में सम्यक्त्व मार्गणा की चर्चा आती है, तो वहाँ मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि तथा अविरत, विरताविरत और विरत अवस्थाओं में कितने संक्रमण-स्थान होते हैं, इसकी चर्चा आई है। वहाँ कहा गया है कि मिथ्यात्व में २७, २६,२५ और २३ कर्म प्रकृतियों के ऐसे चार संक्रमण स्थान होते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि या मिश्र अवस्था में २५ और २१-ऐसे दो संक्रमण स्थान होते है। सम्यग्दृष्टि में २३ कर्म प्रकृतियों का एक संक्रमण-स्थान होता है। अविरतसम्यग्दृष्टि में २७,२६, २५, २३, २२ और २१ कर्म प्रकृतियों के छः संक्रमण-स्थान होते हैं। मिश्र अर्थात् विरताविरत में २७, २६, २३, २२ और २१-ऐसे पांच संक्रमण-स्थान होते हैं। विरत में २२ कर्म प्रकृतियों का एक संक्रमण-स्थान होता है। इस प्रकार यहाँ संक्रमण-स्थानों की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि, मिश्रदृष्टि और सम्यग्दृष्टि तथा अविरत, विरताविरत (मिश्र) और विरत-इन छः अवस्थाओं का उल्लेख आता है। यद्यपि इन गाथाओं का अर्थ करते हुए पण्डित हीरालालजी ने यहाँ गुणस्थानों की चर्चा की है, किन्तु मूल गाथाओं में गुणस्थान का कोई उल्लेख नहीं है। यद्यपि यहाँ वर्णित ये छः अवस्थाएं गुणस्थान सिद्धान्त में भी उल्लेखित है, किन्तु यहाँ सम्यग्दृष्टि और अविरत-इन दो अवस्थाओं का अलग-अलग उल्लेख है और सासादन अवस्था का कोई उल्लेख नहीं है। इस आधार पर इन गाथाओं को गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित मानना हमारी दृष्टि में योग्य प्रतीत नहीं होता है। यहाँ यह चर्चा सम्यक्त्व मार्गणा और संयम मार्गणा के आधार पर ही समझना चाहिए। इसी क्रम में उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय के भी उल्लेख हैं, किन्तु हमारी दृष्टि में वे उल्लेख इस नाम से वर्णित गुणस्थानों के समरूप होते हुए भी गुणस्थानों से सम्बन्धित नहीं माने जा सकते । वे केवल मोहनीय कर्म के क्षय या उपशम की अपेक्षा से वर्णित अवस्थाएं हैं। १६३ कसायपाहुडसुत्त, गाथा ५६ से ६२, गुणधराचार्य प्रणीत, प्रकाशन : वीर शासन संघ, कलकत्ता Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{82} बन्ध और संक्रमण अधिकार के पश्चात् वेदक अर्थ अधिकार तथा उपयोग अर्थ अधिकार में गुणस्थानों से सम्बधित कोई भी संकेत उपलब्ध नहीं होता है। चतुःस्थान अधिकार में मुख्य रूप से क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चार कषायों की अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानीय, प्रत्याख्यानीय और संज्वलन ऐसी चार-चार अवस्थाओं का सोदाहरण उल्लेख हुआ है। इन चार-चार अवस्थाओं को चतुःस्थान कहा गया है। इससे सम्बन्धित गाथाओं में पुनः मिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक्त्व तथा अविरत, विरताविरत और विरत का उल्लेख हुआ है, किन्तु इन अवस्थाओं में मोहनीय कर्म की तीन प्रकृतियों के बन्ध आदि होते हैं, इसका सामान्य संकेत मात्र है। उसके पश्चात् व्यंजन अधिकार में भी सामान्य रूप से चारों कषायों के विभिन्न नामों की चर्चा है। ज्ञातव्य है कि यह चर्चा भगवतीसूत्र आदि में भी उपलब्ध होती है। यहाँ भी गुणस्थान सम्बन्धी कोई निर्देश नहीं है। इसके पश्चात् दसवें सम्यक्त्व अधिकार में दर्शनमोह उपशमक के परिणाम कैसे होते हैं ? उसमें योग, उपयोग, कषाय, लेश्या, वेद आदि की क्या स्थिति होती है ? इसकी चर्चा है। इस चर्चा में आगे यह भी बताया गया है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव दर्शनमोह का अबन्धक होता है। इसी चर्चा में यह भी कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि जिन प्रवचन में श्रद्धा करता है। मिथ्यादृष्टि उस पर श्रद्धा नहीं करता है। इस प्रकार इस सम्यक्त्व अधिकार में मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, दर्शनमोह क्षपक आदि का उल्लेख हुआ है, किन्तु यह उल्लेख गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित है, ऐसा निर्णीत करना कठिन है। इस अधिकार के चूर्णि सूत्रों में अधः प्रवृत्तकरण (यथा प्रवृत्तकरण), अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण का भी उल्लेख हुआ है, किन्तु यह उल्लेख गुणस्थानों की अपेक्षा से न होकर मिथ्यात्व के क्षय या उपशम की अपेक्षा से है। अतः चूर्णिसूत्रों के आधार पर भी इस समग्र विवेचन को गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित नहीं माना जा सकता है। इसके पश्चात् दर्शनमोहक्षपणा अधिकार है।'६५ इसमें यह बताया गया है कि दर्शनमोह का क्षपण कौन कर सकता है तथा किस प्रकार कर सकता है। इसी क्रम में क्षीणमोह शब्द का उल्लेख का तात्पर्य क्षायिकसम्यग्दृष्टि ही है। इसमें कहा गया है कि मनुष्यों में क्षीणमोही अर्थात् क्षायिकसम्यग्दृष्टि नियम से संख्यात सहन होते हैं। शेष गतियों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव नियम से असंख्यात होते हैं। इसके चूर्णिसूत्रों में भी अघः प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण आदि की विस्तृत चर्चा है,६६ किन्तु इसका सम्बन्ध दर्शनमोह के क्षपण से ही है, अतः ये भी गुणस्थानों से सम्बन्धित नहीं माने जा सकते। इसके पश्चात् संयमासंयमलब्धि और संयमलब्धि अर्थ अधिकार है। इस अधिकार में मात्र एक ही गाथा है। इस गाथा में मात्र संयमासंयम शब्द का उल्लेख मिलता है।६७ इसके चूर्णिसूत्रों में संयम को प्राप्त करने वाले जीव के परिणाम, योग, कषाय, उपयोग और लेश्या आदि कैसे होते हैं, इसकी चर्चा है।६८ यहाँ भी अधः प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण आदि का उल्लेख हुआ है,६६ किन्तु यह चर्चा भी गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित प्रतीत नहीं होती है, तथापि इसे गुणश्रेणी से सम्बन्धित माना जा सकता है, क्योंकि विद्वानों की दृष्टि में गुणश्रेणियों की चर्चा गुणस्थान सिद्धान्त से पूर्ववर्ती है। आचारांगनियुक्ति, तत्त्वार्थसूत्र के मूल पाठ एवं भाष्य में गुणश्रेणियों का उल्लेख हुआ है। यतिवृषभ ने अपने चूर्णिसूत्रों में भी गुणश्रेणी की चर्चा की है। इसके पश्चात् चारित्रमोह उपशमना अर्थ अधिकार है। इस अधिकार में किस-किस कर्म का उपशमन किस प्रकार से होता है, किस अवस्था में कौन से कर्म उपशान्त होते हैं और कौनसे कर्म अनुपशान्त होते हैं इसकी चर्चा की गई है। इस चर्चा के प्रसंग में बादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय की चर्चा है। यहाँ बादरराग को अनिवृत्तिबादरसंपराय नामक १६४ कसायपाहुडसुत्त, गाथा ७० से ७२ १६५ कसायपाहुडसुत्त, गाथा ११२ १६६ कसायपाहुडसुत्त, गाथा ११४ तथा उसके चूर्णिसूत्र-११-१६ १६७ कसायपाहुडसुत्त, गाथा ११५ १६८ कसायपाहुडसुत्त, गाथा ११५, के चूर्णिसूत्र पृ. ६६८ १६६ वही पृ. ६७० १७० वही पृ.६७४ Jain Education Intemational Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ तृतीय अध्याय.......{83} नवें 'गुणस्थान से और सूक्ष्मसंपरा को दसवें सूक्ष्मसंपराय नामक गुणस्थान से सम्बन्धित माना गया है। इस सम्पूर्ण अधिकार का सम्बन्ध तो चारित्रमोह कर्म की कर्मप्रकृतियों के उपशमन की चर्चा से है । यह सत्य है कि चारित्रमोह के उपशमन की स्थिति में बादरराग और सूक्ष्मसंपराय की स्थिति घटित होती है, किन्तु इसका सम्बन्ध भी उपशमक गुणश्रेणी से ही है। यहाँ बादरराग और सूक्ष्मसंपराय - ऐसी दो अवस्थाओं का चित्रण है। उसमें जो बादरराग शब्द का प्रयोग हुआ है, वह स्पष्ट अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान से सम्बन्धित ही हो, यह कहना कठिन है । यद्यपि चूर्णिसूत्रों में इस अवस्था में किन-किन कर्म प्रकृतियों का बन्ध होता है, कौन-कौन सी कर्म प्रकृतियाँ उदयावली में प्रवेश करती है अर्थात् उनका उदय होता है ? किन कर्म प्रकृतियों के कितने भाग का संक्रमण और उदीरणा होती है ? यह सब विस्तृत चर्चा मूल ग्रन्थ में तो नहीं है, किन्तु चूर्णिसूत्रों में है । यही कारण है कि कुछ विद्वानों ने इन गाथाओं का सम्बन्ध गुणस्थानों के साथ जोड़ने का प्रयत्न किया है। इन गाथाओं के चूर्णिसूत्रों में भी अधः प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण का उल्लेख हुआ है, किन्तु ये तीनों करण प्रत्येक गुणश्रेणी में घटित होते हैं। मूल गाथाओं और चूर्णिसूत्रों में स्पष्ट गुणस्थान शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है, किन्तु गुणश्रेणी शब्द का उल्लेख अनेक बार हुआ है। इससे इन गाथाओं का सम्बन्ध उपशम गुणश्रेणी से ही देखा जाना चाहिए। जैसा कि हम पूर्व में निर्देश कर चुके हैं कि गुणश्रेणियों की अवधारणा गुणस्थान से पूर्ववर्ती है। यह सम्भव है कि ग्रन्थकार के सम्मुख गुणश्रेणी की अवधारणा रही हो। मूल सूत्र में और उसकी भाष्य गाथाओं में तथा चूर्णिसूत्रों में गुणश्रेणियों का उल्लेख तो मिलता है, किन्तु गुणस्थान शब्द का उल्लेख नहीं मिलता है। अग्रिम पन्द्रहवें अधिकार की भाष्य गाथाओं में गुणश्रेणी शब्द का उल्लेख हुआ 1909 कसायपाहुडसुत्त का पन्द्रहवाँ अधिकार चारित्रमोहक्षपणा है, इस अधिकार का सम्बन्ध चारित्रमोह कर्म की प्रकृतियों के क्षपण या क्षय से है। १७२ इस अधिकार में मूल गाथाओं की अपेक्षा भाष्य गाथाओं की संख्या सर्वाधिक है। इन गाथाओं में केवल दो स्थानों पर बादरराग और सूक्ष्मसंपराय या सूक्ष्मराग शब्द का प्रयोग हुआ है । १७३ इन तीनों में बादरराग का सम्बन्ध अनिवृत्तिबादरसंपराय नामक नवें गुणस्थान से तथा सूक्ष्मसंपराय और सूक्ष्मराग शब्द का सम्बन्ध सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थान से जोड़ा जाता है, किन्तु हमारी दृष्टि से यह चर्चा गुणश्रेणी से सम्बन्धित प्रतीत होती है, क्योंकि इस अधिकार की मूल गाथाओं और भाष्य गाथाओं में कहीं भी गुणस्थान शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है, किन्तु गुणश्रेणी शब्द का प्रयोग अनेक बार हुआ है। इसके चूर्णिसूत्रों में भी हमें कहीं भी गुणस्थान शब्द का प्रयोग देखने को नहीं मिलता है। इस अधिकार के अन्त में चूर्णिसूत्रों में यह कहा गया है कि तदनन्तर क्षपक केवलज्ञान, केवलदर्शन और अनन्तवीर्य से युक्त होकर जिन, केवली, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होता है, उसे सयोगी जिन कहा जाता है। * यहाँ सयोगी जिन शब्द का प्रयोग देखकर निश्चय से ऐसा लगता है कि चूर्णिसूत्रकार गुणस्थान सिद्धान्त से परिचित रहे होंगे, क्योंकि गुणश्रेणियों की जो प्रारंभिक चर्चा उपलब्ध होती है, उसमें तो दस गुण श्रेणियों का ही उल्लेख है, यद्यपि परवर्ती ग्रन्थों में ग्यारह गुणश्रेणियों का भी उल्लेख मिलता है। उनमें सयोगी जिन और अयोगी जिन-ऐसे अलग-अलग दो विभाग भी मिलते हैं। यद्यपि यहाँ चूर्णिसूत्रकारने अयोगी जिन का कोई उल्लेख नहीं किया है, फिर भी सयोगी जिन का जो यहाँ उल्लेख है, वह गुणश्रेणी से ही ज्यादा सम्बन्धित प्रतीत होता है, क्योंकि चूर्णि सूत्रों में उसके ठीक पश्चात् ‘असंखेज्जगुणएसेढीए’-इन शब्दों का उल्लेख हुआ है, इससे यही प्रतिफलित होता है कि कसायपाहुडसुत्त में जो कुछ नाम गुणस्थान से सम्बन्धित देखे जाते हैं, वे मूलतः गुणश्रेणी की अवधारणा से ही सम्बन्धित प्रतीत होते हैं । क्षपण अधिकार के अन्त में बारह चूलिका गाथाएं हैं । १७५ इन चूलिका गाथाओं में भी यह बताया गया है कि क्षपक श्रेणी करते समय जीव किस क्रम से कर्म १७४ १७१ कसायपाहुडसुत्त, गाथा क्रमांक १४०, १४६, १४६, १६०, १६५ १७२ कसायपाहुडसुत्त, गाथा भाष्य २१६, २१७ १७३ कसायपाहुडसुत्त, गाथा १२१ १७४ कसायपाहुडसुत्त, गाथा २३३ के चूर्णिसूत्र पृ. ८६६ १७५ कसायपाहुडसुत्त, गाथा ७, ८ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.. तृतीय अध्याय........{84} प्रकृतियों का संक्रमण एवं क्षय करता है। इन गाथाओं में भी हमें कहीं गुणस्थान शब्द का उल्लेख तो नहीं मिलता है, किन्तु दो स्थानों पर गुणश्रेणियों का उल्लेख है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कसायपाहुडसुत्त में मोहनीय कर्म की कर्म प्रकृत्तियों के संक्रमण, उपशम और क्षय की विस्तृत चर्चा है। जैसा कि हमने पूर्व में कहा कि इस चर्चा का सम्बन्ध गुणस्थान की अवधारणा से भी है, किन्तु मूल ग्रन्थ में और उसके चूर्णिसूत्रों में गुणस्थान शब्द का अनुल्लेख और गुणश्रेणी शब्द का बार-बार उल्लेख यही बताता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ में मोहनीय कर्म की कर्मप्रकृतियों के संक्रमण, क्षय, उपशम आदि की जो चर्चा है, वह चर्चा मूलतः गुणश्रेणी की अवधारणा से ही सम्बन्धित है। डॉ. सागरमल जैन आदि विद्वानों का कहना है कि यह ग्रन्थ गुणस्थान सिद्धान्त के विकास से पूर्ववर्ती है, किन्तु आचारांगनियुक्ति एवं तत्त्वार्थसूत्र में वर्णित गुणश्रेणियों की अवधारणा से गुणस्थान की अवधारणा का जो विकास हुआ है, उसमें मध्यवर्ती पड़ाव के रूप में है। अतः षट्खण्डागम, जो स्पष्ट रूप से चौदह गुणस्थानों का वर्णन करता है, उसकी अपेक्षा कसायपाहुडसुत्त पूर्ववर्ती ही सिद्ध होता है। यह भी सम्भव है कि कसायपाहुडसुत्त की रचना ही नहीं, उसके चूर्णिसूत्रों की रचना के भी पश्चात् षट्खण्डागम की रचना हुई हो। भ्रषट्खण्डागम में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी परिचय एवं विवेचन दिगम्बर परम्परा के आगम तुल्य ग्रन्थों में षट्खण्डागम का महत्वपूर्ण स्थान है। यद्यपि दिगम्बर परम्परा आगम साहित्य का विच्छेद मानती है, किन्तु उसके अनुसार कसायपाहुड, षट्खण्डागम, मूलाचार, भगवती आराधना आदि ग्रन्थ आगम साहित्य के आधार पर ही निर्मित हुए है। षट्खण्डागम की रचना का आधार दृष्टिवाद माना गया है। दृष्टिवाद के जो पांच 3 नमें एक अंग पूर्व साहित्य के रूप में माना जाता है। षट्खण्डागम का उद्गम द्वितीय अग्रायणी पूर्व से माना जाता है। इस प्रकार किसी रूप में यह आगम साहित्य का ही एक अंग माना गया है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार भगवान महावीर के निर्वाण के लगभग ६८३ वर्ष पश्चात् क्रमशः अंग और पूर्वो का ज्ञान क्षीण होते-होते आंशिक रूप से ही अवशिष्ट रह गया था। उस समय काठियावाड के गिरनार पर्वत की चंद्रगुफा में स्थित आचार्य धरसेन को यह विचार आया कि मैं अब अतिवृद्ध हो रहा हूँ, मेरे पास जो पर्वसाहित्य और विशेष रूप से कर्मसाहित्य का जो ज्ञान है. यदि वह किसी योग्य व्यक्ति को नहीं दिया गया तो लप्त हो जाएगा। इस प्रकार श्रुत के संरक्षण के भाव से उन्होंने दक्षिणपथ में रहे हुए मुनियों को यह सूचना भिजवाई कि श्रुत को ग्रहण कर उसको धारण करने में समर्थ ऐसे योग्य साधओं को इनके पास भेजा जाए। तब दक्षिणपथ से पुष्पदंत और भतबली नामक दो मनि आचार्य धरसेन की सेवा में पहुँचें। आचार्य धरसेन ने उन्हें महाकर्म प्रकृति प्राभृत का विधिपूर्वक अध्ययन करवाया। आगे उसी महाकर्म प्रकृति प्राभृत के आधार पर आचार्य पुष्पदंत और भूतबली ने षट्खण्डागम की रचना की। इसी कथानक के आधार पर षट्खण्डागम के रचनाकार पुष्पदंत और भूतबली को माना जाता है। उपर्युक्त विवरण से यह भी स्पष्ट हो जाता है षट्खण्डागम का मुख्य विषय जैनदर्शन का कर्म सिद्धान्त है। जहाँ तक ग्रन्थ के रचनाकाल का प्रश्न है, सामान्य के ६८३ वर्ष पश्चात् अर्थात् विक्रम की तीसरी शताब्दी में इस ग्रन्थ की रचना हुई होगी । यद्यपि डॉ. सागरमल में गुणस्थान सिद्धान्त की विस्तृत विवेचना को देखकर यह अनुमान किया है कि इसका रचनाकाल पांचवीं शताब्दी के आसपास होना चाहिए। उनके कथन का मुख्य आधार यह है कि तत्त्वार्थ सूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य में गुणस्थान सिद्धान्त की विस्तृत विवेचना करने वाले ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य से परवर्ती होना चाहिए। वे तत्त्वार्थसूत्र का काल विक्रम की तीसरी-चौथी शताब्दी के लगभग मानते हैं। इसी आधार पर उन्होंने षट्खण्डागम का काल पांचवीं शताब्दी किन्तु परम्परागत दृष्टि से उमास्वाति और उनके तत्त्वार्थसूत्र का काल ईसा की प्रथम शताब्दी माना जाता है, यदि करें तो षट्खण्डागम का काल विक्रम की तीसरी शताब्दी मानने में कोई बाधा नहीं आती है। जहाँ तक षटखण्डागम की परम्परा का प्रश्न है, सामान्यतया षटखण्डागम को दिगम्बर परम्परा में आगम तुल्य ग्रन्थ के रूप Jain Education Intemational Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{85) स्वीकति प्राप्त है। यद्यपि डॉ. सागरमल जैन ने 'जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय' नामक ग्रन्थ में इसे यापनीय सम्प्रदाय का ग्रन्थ माना है और इसके लिए उन्होंने अनेक परिमाण भी प्रस्तुत किए है, फिर भी यापनीय सम्प्रदाय कुछ मतभेदों के साथ मूलतः तो अचेल परम्परा का ही पक्षधर रहा है, इसमें कहीं कोई विवाद भी नहीं है। डॉ. सागरमल जैन ने भी यापनीय सम्प्रदाय को अचेल परम्परा से ही सम्बन्धित माना है। अतः इस विवाद का कोई अर्थ नहीं रह जाता है कि यह दिगम्बर परम्परा का ग्रन्थ है या यापनीय परम्परा का, क्योंकि यापनीय परम्परा भी मूलतः दिगम्बर परम्परा का ही एक अंग है, उसका ही एक उप-सम्प्रदाय है। यह बात अलग है कि यापनीय सम्प्रदाय स्त्रीमुक्ति, केवलीमुक्ति आदि कुछ बातों में श्वेताम्बर परम्परा से सहमति रखता है, किन्तु इस आधार पर उसे श्वेताम्बर तो नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि वह भी अचेलता का इतना ही संपोषक है, जितनी दिगम्बर परम्परा। यहाँ हम इस विवाद में नहीं पड़ना चाहते हैं कि वह किस परम्परा का ग्रन्थ है। इतना सुस्पष्ट है कि शौरसेनी आगम साहित्य के प्राचीनतम ग्रन्थों में कसायपाहुड के पश्चात् इसका महत्वपूर्ण स्थान है। हमारे शोध का विषय गुणस्थान सिद्धान्त है और इस सिद्धान्त का सांगोपांग विस्तृत विवेचना करनेवाला यदि जैन साहित्य में कोई प्राचीनतम ग्रन्थ है, तो वह षट्खण्डागम है। अतः गुणस्थान सिद्धान्त की विवेचना की दृष्टि से षट्खण्डागम का स्थान अतिमहत्वपूर्ण है। इस ग्रन्थ का प्रारंभ ही गुणस्थानों की विवेचना से होता है। इसमें सर्वप्रथम चौदह गुणस्थानों के स्वरूप का ही निर्देश हुआ है। न केवल इतना कि यह चौदह गुणस्थानों के स्वरूप का विवेचन करता है, अपितु चौदह मार्गणाओं और चौदह गुणस्थानों के पारस्परिक सम्बन्ध को भी स्पष्ट करता है। इसकी यह विवेचना शैली पूज्यपाद की तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्ध टीका का स्मरण करा देती है। हमें ऐसा लगता है कि पूज्यपाद देवनन्दी ने सर्वार्थसिद्ध टीका के प्रथम अध्याय में गुणस्थानों का चौदह मार्गणाओं में जो अवतरण किया है, वह षट्खण्डागम पर ही आधारित है। इस प्रकार हम देखते हैं कि दिगम्बर परम्परा में गुणस्थानों की जो विवेचना उपलब्ध होती है, इसका मूल आधार षटखण्डागम ही है। यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि षट्खण्डागम में गुणस्थान का जो विस्तृत विवरण उपलब्ध है, इसका मूल आधार क्या रहा होगा? उसका मूल आधार श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध अर्द्धमागधी आगमों को नहीं माना जा सकता है, क्योंकि अर्द्धमागधी आगमों में गुणस्थान सिद्धान्त का वैसा सुव्यवस्थित विवरण उपलब्ध नहीं होता है, जैसा कि हमें षट्खण्डागम में मिलता है । दिगम्बर परम्परा में षट्खण्डागम के सम्पादक पण्डित हीरालालजी शास्त्री ने और श्वेताम्बर परम्परा में डॉ. सागरमल जैन ने षटखण्डागम के प्रथम खण्ड जीवस्थान (जिसमें गुणस्थानों का विस्तृत विवरण उपलब्ध है) का आधार श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित 'जीवसमास' नामक ग्रन्थ को माना है। इन दोनो विद्वानों ने जीवसमास की विभिन्न गाथाओं और षटखण्डागम के विभिन्न सूत्रों के तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर इसे स्पष्ट किया है कि षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड का उपजीव्य, जीवसमास रहा है। जिस प्रकार दिगम्बर परम्परा में गुणस्थान सिद्धान्त का सर्व प्रथम विस्तृत विवेचन करने वाला ग्रन्थ षटखण्डागम है, उसी प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थान सिद्धान्त का सांगोपांग परिचय देने वाला प्रथम ग्रन्थ जीवसमास है। इन दोनों ग्रन्थों की समरूपता को पण्डित हीरालाल शास्त्री ने षटखण्डागम की भूमिका में और डॉ. सागरमल जैन ने जीवसमास की भूमिका में स्पष्ट किया है। हमारा विवेच्य विषय गुणस्थान सिद्धान्त है। अतः अग्रिम पृष्ठों में हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि षटखण्डागम में गुणस्थान सिद्धान्त का विवेचन किस रूप में प्रस्तुत किया गया है। षट्खण्डागम में चौदह गुणस्थानों का सामान्य स्वरूप७६ : षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड के सत्प्ररूपणा नामक प्रथम द्वार में नवें सूत्र से लेकर बाईसवें सूत्र तक सामान्य रूप से क्रमशः चौदह गुणस्थानों के स्वरूप का वर्णन किया गया है। मिथ्यादृष्टि शब्द दो शब्दों मिथ्या + दृष्टि से बना है। मिथ्या, वितथ, अलीक और असत्य-ये पर्यायवाची शब्द हैं। दृष्टि १७६ षट्खण्डागम, पृ ५ से ११, प्रकाशकः श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण Jain Education Intemational Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{86} शब्द का अर्थ दर्शन या श्रद्धान होता है। मिथ्यात्व कर्म के उदय से जिन जीवों का दृष्टिकोण या श्रद्धान विपरीत, एकान्त, संशय और अज्ञान रूप तथा अन्धविश्वास युक्त होता है, उन्हें सामान्यतया मिथ्यादृष्टि जीव कहते हैं। सम्यक्त्व की विराघना को आसादन कहते हैं। जिनका सम्यक्त्व आसादन से युक्त हो उन्हें सामान्यतया सासादनसम्यग्दृष्टि जीव कहते हैं। अनन्तानुबन्धी चतुष्क में से किसी एक कषाय का उदय होने पर जो जीव सम्यक्त्व से च्युत होकर भी अभी मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं हुआ है, परंतु मिथ्यात्व की ओर अभिमुख है, ऐसा जीव सासादन सम्यग्दृष्टि कहलाता है। दृष्टि, श्रद्धा, रुचि और प्रत्यय-ये सभी पर्यायवाची शब्द हैं । जिस जीव की सम्यक् और मिथ्या-दोनों प्रकार की दृष्टि होती है, उसे सामान्यतया सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहते हैं । जिस प्रकार दही और गुड़ को मिला देने पर उसके स्वाद को पृथक् नहीं किया जाता है, किन्तु दोनों का मिला हुआ स्वाद जात्यन्तर स्वरूप को प्राप्त होता है, उसी प्रकार सम्यक्त्व और मिथ्यात्व रूप मिले हुए परिणामवाला जीव मिश्र गुणस्थानवर्ती है। मिथ्यात्व के उदय से सम्यक्त्व का सर्वथा क्षय होता है, किन्तु सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान के उदय से सम्यक्त्व का पूरी तरह नाश नहीं होता है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि नामक तृतीय गुणस्थान में दर्शन मोहनीय की सम्यक्त्व मिथ्यादृष्टि नामक प्रकृति के उदय से न मिथ्यात्व का निरन्वय नाश होता है और न ही सम्यक्त्व का निरन्वय नाश होता है, अर्थात् दोनों की एक मिश्र अवस्था बनी रहती है। इस गुणस्थान में दर्शन मोहनीय की मिथ्यात्व प्रकृति के सर्वघाती स्पर्द्धकों में से कुछ का क्षय होता है. कछ का उदय रहता है. कछ सत्ता में रहे हए मिथ्यात्व मोहनीय के स्पर्द्धक उपशमित हो जाते हैं। इस प्रकार मिथ्यात्व के सर्वघाती स्पर्द्धकों के क्षय और उपशम से तथा सम्यग्मिथ्यात्व प्रकति के सर्वघाती क्षायोपशमिक भाव रहता है। एक अन्य अपेक्षा से सम्यक्त्वमोहनीय कर्म प्रकति के देशघाती स्पर्द्धकों में से कुछ का उदय, कछ का क्षय और कछ का उपशम तथा मिथ्यात्व प्रकति के सर्वघाती स्पर्द्धकों के उदय से इस गणस्थान में क्षायोपशमिक भाव रहता है। जिसकी दृष्टि समीचीन होती है, उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं। संयम रहित सम्यग्दृष्टि जीव को असंयतसम्यग्दृष्टि कहते हैं। वे सम्यग्दृष्टि जीव तीन प्रकार के होते हैं। क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि (क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि) और औपशमिक सम्यग्दृष्टि। अनन्तानुबन्धी कषाय धतुष्क, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व मोहनीय-इन सात कर्म प्रकृतियों के सर्वथा क्षय से क्षायिक सम्यग्दर्शन होता है। इन सात प्रकृतियों के उपशम से उपशम सम्यग्दर्शन तथा सम्यक्त्वमोह नामक प्रकृति के उदय से वेदक सम्यग्दर्शन होता है। वेदक सम्यक्त्व, मिथ्यात्व मोह और मिश्रमोह नामक कर्म प्रकृतियों के स्पर्द्धकों में से कुछ के उदय, कुछ के क्षय और कछ सत्ता स्थित स्पर्द्धकों के उपशम से और सम्यक्त्व मोहनीय के देशघाती स्पर्द्धकों के उदय से हआ करता है, इसीलिए इसको क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन भी कहा जाता है। क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव कभी मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता, किन्त औपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव परिणामवश उपशम सम्यक्त्व से च्युत होकर मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है। वह कभी सासादनसम्यग्दृष्टि, कभी सम्यग्मिध्यादृष्टि और कभी वेदक सम्यग्दृष्टि होता है। वेदक सम्यग्दृष्टि जीव शिथिल श्रद्धावाला होता है। जिस प्रकार वृद्ध पुरुष लकड़ी को लड़खड़ाते पकड़ता है, वैसे तत्वार्थ के स्वरूप ज्ञान के विषय में वह शिथिल होता है। इस गुणस्थान में क्षायिक सम्यक्त्व की अपेक्षा क्षायिकभाव, औपशमिक सम्यक्त्व की अपेक्षा औपशमिक भाव और वेदक सम्यक्त्व की अपेक्षा क्षायोपशमिक भाव होता है। इस गुणस्थान में असंयत या अविरत नामक जो विशेषण दिया वह अन्तर्दीपक न्याय से है। वह गुणस्थानों की असंयत अवस्था को सूचित करता है तथा जो सम्यग्दृष्टि शब्द है वह गंगा नदी के प्रवाह के समान में अनिवृत्ति को प्राप्त करता है अर्थात् अग्रिम गुणस्थानों में बना रहता है। यद्यपि पंचम गणस्थानवी जीव में संयमभाव और असंयमभाव-इन दोनों का एक साथ स्वीकार होता है, फिर भी इसमें कोई विरोध नहीं आता क्योंकि संयम और असंयम दोनों की उत्पत्ति के कारण भिन्न-भिन्न हैं। उसमें संयमभाव में त्रसहिंसा से विरतिभाव और असंयमभाव में स्थावर हिंसा से अविरति भाव है, इसीलिए इसका नाम संयतासंयत गुणस्था भाव क्षायोपशमिक भाव हैं, क्योंकि अप्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क के वर्तमानकालीन सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदय में आकर क्षय होने से और आगामी समय में उदय आने योग्य उसके सर्वघाती स्पर्द्धकों का उपशम होने से तथा प्रत्याख्यानीय कषाय के उदय Jain Education Intemational Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{87} में रहने से यह संयमासंयम की अवस्था होती है। प्रकर्ष अर्थात विशेष रूप से जो मत्त है. उन्हें प्रमत्त कहते हैं. अर्थात प्रमादसहित जीवों का नाम प्रमत्त है और जो पूरी तरह से विरति या संयम को प्राप्त हैं, वे संयत हैं । तात्पर्य यह है कि जो प्रमाद से युक्त होते हुए भी संयत है, वे प्रमत्तसंयत कहे जाते हैं। छठे गुणस्थान में प्रमाद के रहते हुए भी संयम का अभाव नहीं है। यहाँ “प्रमत्त" शब्द अन्तर्दीपकन्याय है, इसीलिए इससे पूर्व के सभी गुणस्थानों में प्रमाद का सद्भाव समझना चाहिए। इस गुणस्थान में संयम की अपेक्षा से क्षायोपशमिक भाव रहता है, क्योंकि वर्तमान में प्रत्याख्यानीय कषायचतुष्क के सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदय में आकर क्षय हो जाने से तथा उन्हीं के आगामी समय में आने वाले तथा सत्ता में स्थित सर्वघाती स्पर्द्धकों का उपशम होने से तथा संज्वलन कषाय के उदय की स्थिति होने से यह प्रमत्तसंयत गुणस्थान प्राप्त होता है। सम्यग्दर्शन की अपेक्षा से क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक भाव भी रहते हैं। संज्वलन कषाय तथा नोकषाय के उदय से चारित्र के पालन में जो असावधानी होती है, उसे ही प्रमाद कहते हैं। वह स्त्रीकथा, भक्तकथा, देशकथा और राजकथा, क्रोध, मान, माया और लोभ, स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र, निद्रा और प्रणय (कामवासना का उदय) के भेद से पन्द्रह प्रकार का है। जिनका संयम प्रमाद के पन्द्रह प्रकारों से रहित होता है, उन्हें अप्रमत्त संयत कहते हैं। इस गुणस्थान में भी संयम की अपेक्षा से क्षायोपशमिक भाव रहता है, क्योंकि उस समय में प्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क के सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदय नहीं होने से और आगामी समय में उदय में आनेवाले स्पर्द्धकों का उपशम हो जाने से तथा संज्वलन कषाय का मन्द उदय होने से अप्रमत्तसंयत होता है। यहाँ सम्यक्त्व की अपेक्षा क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक भाव हो सकते हैं। . अब चारित्र मोहनीय का उपशम या क्षय करनेवाले गुणस्थान का निरूपण करते हैं। अपूर्वकरण गुणस्थान में प्रवेश करने वाले संयतों में उपशमक और क्षपक दोनों होते हैं। करण शब्द का अर्थ परिणाम या मनोभाव होता है। जो परिणाम पूर्व के किसी भी गुणस्थान में नहीं हुए हैं, ऐसे आत्म परिणाम को ही अपूर्वकरण कहते हैं। प्रथम समय से लेकर प्रत्येक समय में क्रमशः वृद्धिगत आत्म-विशुद्धि के परिणाम इस गुणस्थानवी जीवों को छोडकर अन्य जीवों को प्राप्त नहीं होने से वे परिणाम अपूर्व कहे जाते हैं। ये अपूर्व परिणाम जिन जीवों को होते हैं, वे अपूर्वकरण प्रविष्ट-शुद्धि संयत कहे जाते हैं। जो जीव चारित्र मोहनीय कर्म सय करने में उद्यत होते हैं वे क्षपक कहलाते हैं। अपूर्वकरण गणस्थान को प्राप्त हए सभी जीवों के, चाहे वे क्षपक हो या उपशमक, परिणामों में समानता होती है। इस गुणस्थानवर्ती क्षपक जीवों में क्षायिक तथा उपशमक जीवों में औपशमिक भाव पाए जाते हैं। सम्यग्दर्शन की अपेक्षा से क्षपक में क्षायिक भाव ही होता है, किन्तु उपशमक में औपशमिक तथा क्षायिक दोनों में से कोई एक भाव हो सकता है। जो जीव दर्शनमोह का क्षय नहीं करता है, वह क्षपकश्रेणी पर तथा जो जीव दर्शनमोह का क्षय या उपशम नहीं करता है, वह उपशमश्रेणी पर चढ़ नहीं सकता है। समान समयवर्ती जीवों के समान परिणामों की वृत्ति को अनिवृत्ति कहा जाता है। निवृत्ति का अन्य अर्थ व्यावृत्ति भी होता है। जिसमें परिणामों की व्यावत्ति अर्थात विषम परिणमन नहीं होता है, उसे अनिवत्तिकरण कहते समयवर्ती जीवों के सर्वथा विसदश और अभिन्न समयवर्ती जीवों के सर्वथा सदश परिणाम होते हैं। अनिवत्तिकरण गणस्थान के अन्तर्महर्त मात्र जितने समय में भी किसी काल विशेष में रहनेवाले अनेक जीवों में जिस प्रकार से शरीर का आकार, अवगाहना और वर्ण आदि बाह्य पर्यायों और ज्ञानोपयोग आदि आभ्यन्तर पर्यायों में भेद होता है, उसी प्रकार उनके आत्मविशद्धि के परिणामों में भेद नहीं होता है। उनके प्रत्येक समय में उत्तरोत्तर अनन्तगुणी विशुद्धिवाले समान आत्म परिणाम होते हैं। बादर शब्द अन्तर्दीपक होने से पूर्व के समस्त गुणस्थान पर लागू होता है, क्योंकि उन सभी में स्थूल कषाय होता है। संपराय यानी कषाय तथा बादर अर्थात् स्थूल अतः स्थूल कषाय भाव होने पर बादरसंपराय होता है। तात्पर्य यह है कि जिन संयत जीवों की विशुद्धि भेदरहित है, किन्तु जिनमें स्थूल कषायरूप परिणाम अभी शेष है, उन्हें अनिवृत्तिबादरसंपराय संयत कहते हैं। इनमें उपशमक और क्षपक दोनों प्रकार के जीव होते हैं। इसी प्रकार सूक्ष्म संपराय शुद्धि संयतों में भी उपशमक और क्षपक-ऐसे दोनों प्रकार Jain Education Interational Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{88} के जीव होते हैं। सूक्ष्म कषाय को सूक्ष्मसंपराय कहते हैं। इस गुणस्थान में जिन संयतो ने आत्म शुद्धि हेतु प्रवेश किया है, उन्हें सूक्ष्मसंपराय प्रविष्ट शुद्धिसंयत कहते हैं। ये भी उपशमक और क्षपक, दोनों प्रकार के हो सकते है। इनमें चारित्रमोह की अपेक्षा से क्षायिक अथवा औपशमिक भाव हो सकता है, किन्तु सम्यग्दर्शन की अपेक्षा क्षपक श्रेणी वालों को क्षायिक भाव ही होता है। उपशम श्रेणी वालों में औपशमिक और क्षायिक दोंनो में से कोई एक भाव हो सकता है, क्योंकि दोनों ही प्रकार के सम्यक्त्व में उपशमश्रेणी पर आरोहण सम्भव है । जिनकी कषाय उपशान्त हो गई है, उन्हें उपशान्त कषाय कहते हैं और जिनका राग नष्ट हो गया है उन्हें वीतराग कहते हैं, किन्तु ज्ञानावरण और दर्शनावरणरूप छद्म के रहने से वे छद्मस्थ भी कहलाते हैं। जो वीतराग होते हुए भी छद्मस्थ है, उन्हें वीतराग छद्मस्थ कहते हैं। इसमें वीतराग विशेषण के द्वारा दसवें गुणस्थान तक के सराग छद्मस्थ का निवारण समझना चाहिए। जो उपशान्त कषाय होते हुए भी वीतराग छद्मथ हैं, उन्हें उपशान्त कषाय वीतराग छद्मस्थ कहते हैं। इस गुणस्थान में सम्पूर्ण कषाय उपशान्त हो जाती है, इसीलिए यहाँ चारित्र की अपेक्षा औपशमिक भाव तथा सम्यग्दर्शन की अपेक्षा औपशमिक या क्षायिक भाव में से कोई एक होता है। जिस तरह वर्षा ऋतु के गन्दे पानी में निर्मली फल डालने से गन्दापन नीचे बैठ जाता है और पानी स्वच्छ हो जाता है, उसी तरह समस्त मोहनीय कर्म के उपशम से जीवों के जो परिणाम उत्पन्न होते हैं, उन्हें उपशान्तकषाय गुणस्थान समझना चाहिए। जिनकी कषाय क्षीण हो गई हो, उन्हें क्षीणकषाय कहते हैं। जो क्षीणकषाय के साथ वीतराग तथा छद्मस्थ होते हैं, उन्हें क्षीण कषाय वीतराग छद्मस्थ कहते हैं। छद्मस्थ पद अन्तर्दीपक होने से पूर्ववर्ती समस्त गुणस्थानों के छद्मस्थ पाने का सूचक है। इस गुणस्थान में दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय कर्म सर्वथा क्षय हो जाता है, अतः चारित्र और सम्यग्दर्शन दोनों की अपेक्षा से क्षायिक भाव रहता है। जिसने सम्पूर्ण रूप से प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप मोहनीय कर्म को क्षय कर दिया है, उसी कारण जिसका अन्तःकरण स्फटिक मणि के निर्मल भाजन में रखे हुए जल के समान निर्मल हो गया हो, ऐसे निग्रंथ साधु क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती होते हैं। जिस ज्ञान में इन्द्रिय, आलोक और मन.की अपेक्षा नहीं होती है उसे केवल (असहाय) कहते हैं। जिस जीव को केवलज्ञान होता है , वह केवलज्ञानी कहलाता है। जो योग सहित रहते हैं, उन्हें सयोग कहते हैं। इसी तरह जो सयोग के साथ केवली हैं, वे सयोगीकेवली कहे जाते हैं। इसमें जो सयोग शब्द है, वह अन्तर्दीपक होने से तेरहवें गुणस्थान तक के सभी गुणस्थान सयोगी है। चार घाती कर्मों का क्षय कर देने से तथा वेदनीय कर्म को शक्तिहीन कर देने से अथवा आठों ही कर्मो की अवयवभूत साठ उत्तर कर्म प्रकृतियों को (घाती कर्मों की सैंतालीस और नामकर्म की तेरह) क्षय कर देने से उन्हें क्षायिक भाव ही होते हैं। जिसके योग विद्यमान नहीं है, परन्तु केवलज्ञान है, उन्हें अयोगीकेवली कहते हैं। सम्पूर्ण घाती कर्मों का क्षय होने से इस गुणस्थान में भी क्षायिक भाव ही रहता है। जो अठारह हजार प्रकार के शील के स्वामी होकर मेरू के समान निष्कम्प अवस्था को प्राप्त है तथा जिन्होंने सम्पूर्ण आसव का निरोध कर दिया है तथा मन, वचन और काया के योग से रहित होते हुए भी केवलज्ञान से विभूषित हैं, उन्हें अयोगीकेवली कहते हैं। सिद्ध, निष्ठित, निष्पन्न, कृतकृत्य और सिद्धसाध्य - ये उनके पर्यायवाची नाम हैं । जिन्होंने समस्त कर्मों का निराकरण करके निरपेक्ष अनन्त, अनुपम, स्वाभाविक और निर्बाध सुख को प्राप्त कर लिया है, जो निर्लेप है, निश्चल स्वरूप को प्राप्त है, सम्पूर्ण गुणों के निधान है, जिनकी आत्मा का आकार अन्तिम शरीर से कुछ न्यून है, जो लोक के अग्र भाग में निवास करते हैं, उन्हें सिद्ध कहते हैं । षट्खण्डागम में चौदह मार्गणाओं एवं अष्ट अनुयोगद्वारों में गुणस्थानों का अवतरण (8) सत्प्ररूपणाद्वार में विभिन्न मार्गणाओं में गुणस्थानों का अवतरण: षट्खण्डागम के जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड के सत्प्ररूपणा नामक प्रथम द्वार७७ में आदेश अर्थात् विशेष की अपेक्षा से मार्गणाओं का विवेचन करते हुए बताया है कि प्रथम गति मार्गणा में पाँच गतियाँ उल्लेखित हैं - १. नरक गति २. तिथंच गति ३. मनुष्य गति ४. देव गति ५. सिद्ध गति । जो हिंसादि कार्यों में रत है उन्हें निरत और उनकी गति को निरय (नरक) गति कहते हैं। १७७ षट्खण्डागम, पृ १२ से ५२, प्रकाशनः श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण Jain Education Intemational Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{89} जो नर अर्थात् प्राणियों का अतिपात करता है या उन्हें दुःख देता है, वह नरक है । नरक एक कर्म है । उस कर्म के निमित्त से उत्पन्न होनेवाले को नारक तथा उनकी गति को नरक गति कहते हैं। जिस गति में अशुभ कर्म का उदय है, उसे नरक गति कहते हैं। जो तिरस् अर्थात् वक्र या कुटिल भाव को प्राप्त होते हैं, उन्हें तिथंच और उनकी गति को तिर्यंचगति कहते हैं। दूसरे शब्दों में जो मनसा, वाचा और कर्मणा कुटिल है, जिनकी आहारादि संज्ञाएँ सुव्यध है, जो निकृष्ट अज्ञान वाले हैं, जिन में पाप की बहुलता पाई जाती है, उन्हें तिर्यंच कहते हैं। जो मन से निपुण अर्थात् गुण-दोष आदि का विचार करते हैं और जो मनु की सन्तान हैं, उनकी गति को मनुष्य गति कहते हैं। जो अणिमा आदि आठ ऋद्धियों के बल से क्रीड़ा करते हैं, उन्हें देव और उनकी गति को देवगति कहते हैं। जो जन्म, जरा, मरण, भय, संयोग, वियोग, दुःख, आहारादि संज्ञाओं और रोगादि से रहित है, उन्हें सिद्ध और उनकी गति को सिद्धगति कहते हैं। नरकगति में गुणस्थानों का विवेचन करते हुए कहा गया है कि नारकी के जीवों में मिथ्यादृष्टि , सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि-ये चार गुणस्थान पाए जाते हैं, किन्तु अपर्याप्त नारकी के जीवों में सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान नहीं होते हैं। पर्याप्त अवस्था में सातों नारकी के जीवों में अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान का सद्भाव पाया जाता है। बद्ध आयुष्यवाला सम्यग्दृष्टि जीव मरकर प्रथम नारकी में उत्पन्न होता है, अतः प्रथम नारकी में अपर्याप्त अवस्था में भी सम्यग्दर्शन होता है, परन्तु कोई भी सम्यग्दृष्टि जीव मरकर दूसरी आदि नारकी में उत्पन्न नहीं होता है, अतः द्वितीय आदि नारकी में अपर्याप्त अवस्था में सम्यग्दर्शन नहीं होता हैं। नरकगति में इन चार गुणस्थानों के अलावा अन्य गुणस्थान नहीं होते हैं, क्योंकि यहाँ संयमासंयम और संयम के भाव उत्पन्न नहीं हो सकते है। तिर्यंच जीवों में मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत-ये पांच गुणस्थान पाए जाते हैं। असंयतसम्यग्दृष्टि और सासादन गुणस्थान में बद्ध आयुष्यवाले अपर्याप्त तिर्यंच भी पाए जाते हैं, परन्तु सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयत गुणस्थान अपर्याप्त तिर्यंचों में नहीं होते हैं, क्योंकि अपर्याप्त तिर्यंच में इन दो गुणस्थानों का निषेध किया गया है। सामान्य तिर्यंच, तिर्यंच पंचेन्द्रिय, पर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिय, पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंचनी और अपर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिय-इन पांच प्रकार के तिर्यंचों में से अपर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रियों में उक्त पाँच गुणस्थान नहीं होते हैं, क्योंकि लब्धि पर्याप्त किन्तु योग्यता अपर्याप्त में एक मिथ्यात्व गुणस्थान, अपर्याप्त तिर्यंचनियों में मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि-ये दो गुणस्थान होते है। चूंकि तिर्यंचनियों में सम्यग्दृष्टिओं की उत्पत्ति नहीं होती है, इसीलिए उनके अपर्याप्त काल में चौथा गुणस्थान नहीं पाया जाता है। सम्यग्दृष्टि जीव प्रथम पृथ्वी के अतिरिक्त नीचे की छः पृथ्वियों में, ज्योतिषी, व्यन्तर एवं भवनवासी देवों में और सभी प्रकार की स्त्रियों में उत्पन्न नहीं होता है। मनुष्यगति में मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण प्रविष्टशुद्ध संयतों में उपशमक और क्षपक, अनिवृत्ति बादर सम्पराय प्रविष्टशुद्धि संयतो में उपशमक और क्षपक, सूक्ष्मसंपराय में उपशमक और क्षपक, उपशान्तकषाय वीतरागछद्मस्थ, क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली-चौदह गुणस्थान पाए जाते हैं। देवगति में मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि-ये चार गुणस्थान पाए जाते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक सभी तिर्यच होते हैं। जिनके पास एक स्पर्श इन्द्रिय होती है, उन्हें एकेन्द्रिय कहते हैं। जो असंज्ञी होने पर भी पंचेन्द्रिय तिर्यंच होते हैं, उन्हें असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच कहते हैं। पांचो प्रकार के एकेन्द्रिय, तीनों विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव केवल तिर्यंचगति में ही पाए जाते हैं। संज्ञी पंचेन्द्रिय में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक पांच गुणस्थान होते हैं। मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि-ये चार गुणस्थान संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच अन्य तीनों गतिवाले जीवों में समान भाव से पाए जाते हैं। इसीलिए इन चार गुणस्थानों की अपेक्षा से तिर्यच जीव तीन गतिवाले जीवों के साथ समतुल्य कहे जाते हैं। संयमासंयम गुणस्थान की अपेक्षा से पंचेन्द्रिय तिर्यंच की समानता केवल मनुष्यों के साथ ही है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक के इन पांच गुणस्थानों के मनुष्य और तिर्यंच समान रूप से अधिकारी हैं। प्रथम गुणस्थान से लेकर चौथे गुणस्थान तक तीन Jain Education Intemational Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{90} गतियों वाले जीवों के समान रूप से सहभागी होते हैं। संयमासंयम गुणस्थान की अपेक्षा मनुष्य तिर्यंचो के साथ सहभागी हैं। प्रारम्भ के पांच गुणस्थानों को छोड़कर शेष गुणस्थान मात्र मनुष्यगति में ही पाए जाते हैं। अतः शेष गुणस्थान के स्वामी मनुष्यों को शुद्ध कहा गया है। गतिमार्गणा के पश्चात् इन्द्रियमार्गणा में गुणस्थानों का निरूपण किया गया है। इन्दन अर्थात् ऐश्वर्यशाली होने से इन्द्र शब्द का अर्थ आत्मा है। इन्द्र के लिंग को (चिन्ह) इन्द्रिय कहते हैं। इन्द्रियाँ नामकर्म के द्वारा रची जाती हैं। वे दो प्रकार की बताई गई हैं - द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय । द्रव्येन्द्रिय दो प्रकार की हैं - निवृत्ति और उपकरण। जो कर्म के द्वारा रची जाती है, उसे निवृत्ति कहते हैं। वह बाह्य निवृत्ति और आभ्यन्तर निवृत्ति के भेद से दो प्रकार की हैं। उनमें प्रतिनियत चक्षु आदि इन्द्रियों के आकार रूप से परिणत हुए लोकपरिमाण अथवा उत्सेधांगुल के असंख्यातवें भागपरिमाण विशुद्ध आत्म प्रदेशों की रचना को आभ्यन्तर निर्वृत्ति कहते हैं। अभिप्राय यह है कि स्पर्शक्षेत्र इन्द्रिय की आभ्यन्तर निर्वृत्ति लोक परिमाण आत्म प्रदेशों में तथा अन्य चार इन्द्रियों की आभ्यन्तर निर्वृत्ति उत्सोघांगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण प्रदेशों में होती है। उन्हीं आत्म प्रदेशों में इन्द्रिय नाम को धारण करने वाला व प्रतिनियत आकार से युक्त जो पुद्गल समूह होता है, उसे बाह्य निर्वृत्ति कहते हैं। श्रोत्र इन्द्रिय का आकार यव की नली के समान, चक्षु इन्द्रिय का मसूर के समान, रसना इन्द्रिय का आधे चन्द्रमा के समान, घ्राण इन्द्रिय का कदम्ब के फूल के समान और स्पर्श इन्द्रिय का आकार अनेक प्रकार का है। जो निर्वृत्ति उपकार करती हैं, उसे उपकरण इन्द्रिय कहते हैं। उसके भी बाह्य और आभ्यंतर-ऐसे दो भेद हैं। उनमें चक्षु इन्द्रिय में जो कृष्ण और शुक्ल मण्डल देखा जाता है, वह चक्षु इन्द्रिय का आभ्यन्तर उपकरण तथा पलक और बरौनी (रोमसमूह) आदि उसका बाह्य उपकरण है। भावेन्द्रिय दो प्रकार की है - लब्धि और उपयोग । जो इन्द्रिय की निवृत्ति का कारणभूत क्षयोपशम विशेष होता है, उसका नाम लब्धि है और उस क्षयोपशम के आश्रय से आत्मा का जो परिणाम होता है, उसे उपयोग कहा जाता है। जिस जीव को एक ही इन्द्रिय होती है, वह एकेन्द्रिय जीव कहा जाता है। वीर्यान्तराय और स्पर्शनेन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग नामकर्म के उदय के अवलंबन से जिसके द्वारा आत्मा पदार्थगत स्पर्श गुण को जानती है, उसे स्पर्शनेन्द्रिय कहते हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति-ये पांच एकेन्द्रिय जीव हैं । इन्हें स्थावर भी कहते हैं। वीर्यांतराय और रसनेन्द्रियावरण के क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म के उदय का अवलम्बन करके जिसके द्वारा रस का ग्रहण होता है, उसे रसन-इन्द्रिय कहते हैं। जिनके स्पर्श और रसन-दो इन्द्रियाँ होती हैं, उन्हें द्वीन्द्रिय कहते है, जैसे - लट, सीप, शंख और गण्डोला आदि। वीर्यांतराय और घ्राणेन्द्रियावरण के क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म के उदय के अवलम्बन से जिसके गन्ध का ग्रहण होता है, उसे घ्राणेन्द्रिय कहते हैं। स्पर्श, रसन, घ्राण-ये तीन इन्द्रिय जिन जीवों को होती हैं, उसे त्रीन्द्रिय कहते हैं, जैसे-कुन्थु, चींटी, खटमल, जू आदि। वीर्यान्तराय और चक्षुरिन्द्रियावरण के क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म के उदय का आलम्बन करके जिससे रूप का ग्रहण होता है, उसे चक्षुरेन्द्रिय कहते है, उन्हें चतुरेन्द्रिय जीव कहते हैं, जैसे मकड़ी, भौंरा, मधुमक्खी, मच्छर, पतंगा आदि। वीर्यान्तराय और श्रोत्रेन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म के आलम्बन से जिसके द्वारा सुना जाता है, उसे श्रोत्रेन्द्रिय कहते हैं। जिन जीवों को उक्त पांच इन्द्रियाँ होती हैं, उन्हें पंचेन्द्रिय जीव कहते हैं, जैसे-स्वेदज, संमूर्छिम, उद्भिज, औपपतिक रसजनित, अंडज, पोतज और जरायुज आदि । जिनके इन्द्रियाँ नहीं है, वे शरीर रहित सिद्ध जीव अनिन्द्रिय है। एकेन्द्रिय जीव दो प्रकार के हैं - सूक्ष्म और बादर। उनमें बादर दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त। सूक्ष्म एकेन्द्रिय भी दो प्रकार के हैं, पर्याप्त और अपर्याप्त। जिन जीवों को बादर नामकर्म का उदय पाया जाता है, वे बादर कहे जाते हैं । जिन जीवों को सूक्ष्मनामकर्म का उदय पाया जाता है, वे सूक्ष्म कहे जाते हैं । जो पर्याप्त नामकर्म के उदय से युक्त हैं, उन्हें पर्याप्त कहते हैं और जो अपर्याप्त नामकर्म के उदय से युक्त हैं, उन्हें अपर्याप्त कहते हैं । पर्याप्त जीव आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति, आनपानपर्याप्ति, भाषापर्याप्ति और मनपर्याप्ति-इन छः पर्याप्तिओं को पूर्ण करके ही जो मरण को प्राप्त होते है, वे पर्याप्त कहलाते हैं तथा जो इन पर्याप्तिओं को पूर्ण किए बिना ही मृत्यु को प्राप्त होते हैं, उन्हें अपर्याप्त कहते है । द्वीन्द्रिय जीव दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । त्रीन्द्रिय जीव दो प्रकार के Jain Education Intemational Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{91) हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । पंचेन्द्रिय जीव दो प्रकार के हैं, संज्ञी और असंज्ञी । संज्ञी जीव दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त। असंज्ञी जीव दो प्रकार के है-पर्याप्त और अपर्याप्त । इन्द्रियमार्गणा के अन्तर्गत एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव आते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीवों में मात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान नामक प्रथम गुणस्थान होता है । संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में मिथ्यात्व से लेकर अयोगीकेवली तक के सभी गुणस्थान होते हैं। केवलियों की भावेन्द्रियां सर्वथा नष्ट हो गई हैं और द्रव्य इन्द्रियों का व्यापार भी बंद हो गया है, परन्तु छद्मस्थ रूप अवस्था में भावेन्द्रियों के निमित्त से उत्पन्न हुई द्रव्येन्द्रियों की सत्ता की अपेक्षा उन्हें पंचेन्द्रिय कहा गया है। एकेन्द्रियादि जाति भावों से रहित जीव अनिन्द्रिय होते हैं, क्योंकि उनके द्रव्य और भाव कर्म नष्ट हो चुके हैं । सिद्धजीव अनिन्द्रिय हैं । जो जीव पृथ्वीकायिक नामकर्म के उदयवाले हैं, उन्हें पृथ्वीकायिक कहा जाता है। इसी प्रकार जलकाय आदि को भी समझना चाहिए। स्थावर नामकर्म के उदयवाले स्थावर जीव कहे जाते हैं। त्रसकाय नामकर्म के उदय वाले जीव त्रसकायिक कहे जाते है। जिनका त्रस और स्थावर नामकर्म नष्ट हो गया हैं, उन सिद्धों को अकायिक कहा जाता है । जिस प्रकार अग्नि के सम्बन्ध से सुवर्ण कीट और कालिमा रूप, बाह्य और आभ्यन्तर-दोनों प्रकार के मल से रहित हो जाता है, उसी प्रकार ध्यान रूप अग्नि के सम्बन्ध से जीव, काय और कर्मबन्धन से मुक्त होकर कायरहित हो जाता है। पृथ्वीकाय के दो भेद माने गए हैं, बादर और सूक्ष्म। बादर पृथ्वीकाय के भी दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । इसी प्रकार सूक्ष्म पृथ्वीकाय के भी दो भेद हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त। इसी प्रकार जलकाय, अग्निकाय और वायुकाय के बारे में भी जानना चाहिए। वनस्पतिकाय के जीव दो प्रकार से होते हैं - प्रत्येक शरीर और साधारण शरीर। प्रत्येक वनस्पतिकाय दो प्रकार से हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त। साधारण वनस्पतिकाय दो प्रकार से हैं - बादर और सूक्ष्म । बादर साधारण वनस्पतिकाय दो प्रकार से हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त। सूक्ष्म साधारण वनस्पतिकाय दो प्रकार से हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त । पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय को स्थावर माना है । जो त्रसनामकर्म के उदयवाले हैं, वे त्रसकायिक कहे जाते हैं । एकन्द्रिय सभी जीव स्थावर हैं और शेष अर्थात् द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीव त्रस कहे जाते हैं । पांचो स्थावर कायवाले जीवों को मात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है । त्रसकाय के जावों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक के सभी गुणस्थान पाए जाते हैं । स्थावर और त्रसकाय से रहित कायरहित अर्थात् अकायिक जीव भी होते हैं। सिद्ध जीव अकायिक हैं। योगमार्गणा में मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी जीव होते हैं।.भावमन की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न होता है उसे मनोयोग, भाषा की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न होता है उसे वचनयोग, काया की क्रिया के लिए जो प्रयत्न होता है उसे काययोग कहते हैं। जिसको मनोयोग होता है, उसे मनोयोगी कहते हैं । ऐसे ही वचनयोगी और काययोगी के विषय में भी समझ लेना चाहिए। जिन जीवों को किसी भी प्रकार का योग नहीं है, वे जीव अयोगी कहलाते हैं। मनोयोग चार प्रकार का है - सत्यमनोयोग, मृषामनोयोग, सत्य-मृषामनोयोग और असत्य-अमृषा मनोयोग । सत्य के विषय में होने वाले मन के योग को सत्य मनोयोग कहते हैं । असत्य के विषय में होने वाले मन के योग को मृषामनोयोग कहते हैं । जो योग सत्य और मृषा-इन दोनों के मिश्रण से होता है, उसे सत्य-मृषामनोयोग कहते हैं । जो योग असत्य और अमृषा इन दोनों योगों से बनता है, उसे असत्य-अमृषा मनोयोग कहते हैं। अब मनोयोग का गुणस्थान में निरूपण करते हुए कहा गया है कि सत्यमनोयोग तथा असत्य-अमृषा मनोयोग में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के सभी गुणस्थान सम्भव होते हैं। मृषामनोयोग और सत्यमृषामनोयोगी में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतराग छद्मस्थ तक के सभी गुणस्थान पाए जाते हैं। वचनयोग चार प्रकार के हैं - सत्यवचनयोग, मृषावचनयोग, सत्य-मृषा वचनयोग और असत्य-अमृषा वचनयोग । जनपद सत्य आदि दस प्रकार के सत्य वचन के निमित्त से जो योग होता है, उसे सत्यवचनयोग कहते हैं । असत्य वचन के निमित्त से होनेवाले वचन के योग को मृषावचनयोग कहते हैं। जो योग सत्य और मृषा दोनों योगों के मिश्रण से होता है, उसे सत्य-मृषावचनयोग कहते हैं। जो असत्य और Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... तृतीय अध्याय........{92} अमृषा-दोनों के योग से बनता है, उसे असत्य-अमृषा वचनयोग कहते हैं। सत्य वचनयोग और असत्य-अमृषा वचनयोग वाले को मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली तक के सभी गुणस्थान सम्भव होते हैं। मृषावचनयोग और सत्यमृषा वचनयोग वाले जीवों में मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीण कषाय वीतराग छद्मस्थ तक के सभी गुणस्थान पाए जाते हैं। काययोग सात प्रकार के होते हैं - औदारिक काययोग, औदारिक मिश्रकाय योग, वैक्रिय काययोग, वैक्रिय मिश्र काययोग, आहारक काययोग, आहारक मिश्र काययोग और कार्मण काययोग। १. औदारिक शरीर द्वारा उत्पन्न हुई शक्ति से जीव के प्रदेश में परिस्पन्दन का कारणभूत जो प्रयत्न होता है, उसे औदारिक काययोग कहते हैं। २. औदारिक शरीर जब तक पूर्ण नहीं होता है, तब तक मिश्र कहलाता है। उसके निमित्त से होनेवाले योग को औदारिकमिश्रकाययोग कहते हैं। ३. जो शरीर अणिमा, महिमा आदि अनेक ऋद्धियों से युक्त होता है, उसे वैक्रियशरीर और उसके निमित्त से होने वाले योग को वैक्रियकाययोग कहते हैं। ४. वैक्रियमिश्र को औदारिकमिश्र की तरह समझना चाहिए। ५. जिसके द्वारा आत्मा सूक्ष्म पदार्थों का आहरण (ग्रहण) करता है, उसे आहारक शरीर और आहारक शरीर से जो योग होता है, उसे आहारककाययोग कहते हैं। औदारिकमिश्र की तरह समझना चाहिए । आहारक शरीर सुक्ष्म होने के कारण गमन करते समय वैक्रियशरीर के समान न तो पर्वतों से टकराता है, न शस्त्रों से छिदता है और न अग्नि से जलता है। ७. ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्मों के स्कन्ध को कार्मण शरीर कहते हैं और उसके द्वारा होनेवाले योग को कार्मणकाययोग कहते हैं। औदारिककाययोग और औदारिकमिश्र काययोग तिर्यंच और मनुष्यों को होते हैं। वैक्रियकाययोग और वैक्रियमिश्रकाययोग देव और नारकी को होते हैं। आहारक काययोग और आहारक मिश्रकाययोग ऋद्धि प्राप्त प्रमत्तसंयतो को ही होते हैं। कार्मण काययोग विग्रहगति को प्राप्त जीवों को तथा समुद्घात को प्राप्त केवली को होता है। औदारिक काययोग और औदारिक मिश्र काययोग में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली तक के सभी गुणस्थान पाए जाते हैं। विशेष यह है कि मात्र औदारिक मिश्र काययोग में प्रथम चार अपर्याप्त गुणस्थान ही होते हैं। वैक्रिय काययोग और वैक्रियमिश्रकाययोग में मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के चार गुणस्थान ही पाए जाते हैं। विशेष यह है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान पर्याप्तदशा में ही होता है और वैक्रियमिश्र काययोग पर्याप्त अवस्था में ही होता है। आहारक काययोग और आहारकमिश्रकाययोग मात्र एक प्रमत्तसंयत गणस्थान में ही होता है। कार्मण काययोग मिथ्यादष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली तक के सभी गुणस्थानवर्ती जीवों में ही होता है। विशेष यह कि पर्याप्त अवस्था में संयतासंयतादि गुणस्थानों में कार्मणकाययोग नहीं पाया जाता है। पर्याप्त अवस्था में वह समुद्घात के समय ही पाया जाता है। क्षयोपशम की अपेक्षा से एकरूपता को प्राप्त तीनों योगों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकवली तक के तेरह गुणस्थान पाए जाते हैं । नारकी जीव मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में कभी पर्याप्त होते हैं और कभी अपर्याप्त होते हैं। सासादन एवं सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में नारकी जीव पर्याप्त ही होते हैं, क्योंकि नारकी जीवों को अपर्याप्त अवस्था में इन दो गुणस्थानों की उत्पत्ति के निमित्तभूत परिणामों की संभावना नहीं हैं। वह सामान्य कथन हुआ। प्रथम पृथ्वी के जीव के गुणस्थान सामान्य नारकी जीवों के समान होते हैं। दूसरी पृथ्वी से सातवीं नरक तक के जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में कभी पर्याप्त होते हैं और कभी अपर्याप्त भी होते हैं। मिथ्यादृष्टि जीवों की उत्पत्ति प्रथम पृथ्वी को छोड़कर शेष छः पृथ्वियों में ही पाई जाती है। सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान दूसरी पृथ्वी से लेकर सातवीं पृथ्वी तक के पर्याप्त नारकी जीवों Jain Education Intemational Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{93} में पाए जाते है। सासादन गुणस्थानवी जीव नरक में उत्पन्न नहीं होते हैं, क्योंकि सासादनवाले को नरकायु का बन्ध नहीं होता है। नरकायु का बन्ध करने वाले जीव का सासादन गुणस्थान में मरण सम्भव नहीं है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में मरण सम्भव ही नहीं है, अतः यह गुणस्थान पर्याप्त अवस्था में ही पाया जाता है। असंयतसम्यग्दृष्टि जीव द्वितीयादि पृथ्वियों में उत्पन्न नहीं होता है। तिर्यंच जीव मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में कभी पर्याप्त होते हैं और कभी अपर्याप्त होते हैं। जिन जीवों ने सम्यग्दर्शन प्राप्त करने से पहले मिथ्यादृष्टि की अवस्था में तिर्यंच का आयुष्य बांध लिया है, उन जीवों की सम्यग्दर्शन के साथ तिर्यंचों में उत्पत्ति होती है, किन्तु शेष सम्यग्दृष्टि जीवों की उत्पत्ति वहाँ नहीं होती है । ज्ञातव्य है कि जिन्होंने तिर्यंच आयुष्य का मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में बन्ध कर लिया है, वे मरकर भोगभूमि के तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं, कर्मभूमि के तिर्यंच में नहीं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयत गुणस्थान में तिर्यंच जीव पर्याप्त ही होते हैं। तिर्यंच पंचेन्द्रिय और पर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिय की प्ररूपणा सामान्य तिर्यचों के समान है। योनिमति तिर्यंच पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में कभी पर्याप्त और कभी अपर्याप्त होते हैं। सासादन गुणस्थानवी जीव मरकर नरक में नहीं जाता है, क्योंकि सासादन गुणस्थानवर्ती को नरकायु का बन्ध नहीं होता है, क्योंकि नरकायु का बन्ध करनेवाले जीव का मरण सम्भव नहीं हैं। योनिमति तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानों में पर्याप्त अवस्था में ही होते है। ऊपर के गुणस्थानों में मरकर कोई भी जीव योनिमति तिर्यचों में उत्पन्न नहीं होता है। अपर्याप्त तिर्यंचों को मिथ्यात्व गुणस्थान छोड़कर दूसरा कोई भी गुणस्थान सम्भव नहीं होता है। मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती मनुष्य कभी पर्याप्त होते हैं और कभी अपर्याप्त होते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानों में मनुष्य पर्याप्त ही होते हैं । पर्याप्त मनुष्य की प्ररूपणा सामान्य मनुष्यों के समान समझना चाहिए, अर्थात् उनमें चौदह ही गुणस्थान सम्भव होते हैं। मिथ्यादृषि गणस्थानों में मनष्यनी कभी पर्याप्त भी होती है और कभी अपर्याप्त भी होती है। सम्यग्मिथ्यादष्टि. असंयतसम्यग्दष्टि और संयतासंयत गुणस्थानों में मनुष्यनी पर्याप्त ही होती हैं। यह उल्लेख धवला एवं हिन्दी व्याख्या में है, किन्तु षट्खण्डागम के मूल पाठ में संयतासंयत, संयत आदि गुणस्थानों में मनुष्यनी पर्याप्त ही होती है, ऐसा उल्लेख है ।१७८(१/६३) मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में देव कभी पर्याप्त भी होते हैं और कभी अपर्याप्त भी होते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में देव पर्याप्त ही होते हैं। क्योंकि तृतीय गुणस्थान में मरण नहीं होता है तथा अपर्याप्त अवस्था में तीसरे गुणस्थान की प्राप्ति नहीं होती है। भवनवासी, वाणव्यन्तर और ज्योतिषी देव तथा उनकी देवियाँ तथा सौधर्म और ईशान कल्प की देवियाँ - ये सब मिथ्यादृष्टि एवं सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में कभी पर्याप्त होती हैं तथा कभी अपर्याप्त भी होती हैं। इन दोनों गुणस्थानों से युक्त जीव उपर्युक्त देव और देवियों में उत्पन्न होते हैं, इसीलिए दोनों अवस्थाएं सम्भव हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पूर्वोक्त देव और देवियाँ पर्याप्त ही होती हैं। सौधर्म और ईशान से लेकर ऊपर ग्रैवेयक विमानवासी देव मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में कभी पर्याप्त होते हैं और कभी अपर्याप्त होते हैं । देव सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में तो पर्याप्त ही होते हैं । नौ अनुदिश में तथा विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सवार्थसिद्ध - इन पांच अनुत्तर विमानों में रहनेवाले देव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में कभी पर्याप्त होते हैं और कभी अपर्याप्त होते हैं । वेदमार्गणा में गुणस्थान का निरूपण करते हुए बताते हैं कि स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद-ये तीन वेद होते हैं। इन तीनों में से जिन्हें एक भी वेद नहीं होता है, वे जीव अपगतवेदी कहलाते हैं। 'दोषैरात्मानं परं स्तृणाति छादयति स्त्री'-इस उक्ति १७८ षट्खण्डागम, १/६३, प्रकाशनः श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण Jain Education Interational Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{94} के अनुसार जो दोषों से स्वयं को और दूसरे को आच्छादित करती है, उसे स्त्री कहते हैं। स्त्री की काम वासना को स्त्रीवेद कहते हैं अथवा जो पुरुष की इच्छा करती है, उसे स्त्रीवेद कहते हैं। वेद का अर्थ अनुभवन होता है। ऐसे जो जीव अपने को स्त्रीरूप अनुभव करते हैं, उसे स्त्रीवेद कहते हैं। 'पुरुगुणेषु पुरूभोगेषु च शेते इति पुरुषः', इस प्रकार जो पुरू (उत्कृष्ट) गुणों में और भोगों में शयन करता है, उसे पुरुष कहते है अथवा जो स्त्री की इच्छा करता है, उसे पुरुष कहते हैं । उसका अनुभव करने वाले जीव को पुरुषवेदी कहते हैं। जो न स्त्री है, न पुरुष है, उसे नपुंसक कहते हैं, अथवा स्त्री और पुरुष दोनों की इच्छा करने वाले को और उसका अनुभव करने वाले जीव को नपुंसकवेदी कहते है। जिन जीवों को तीनों प्रकार से होने वाला संताप दूर हो गया है, वे अपगतवेदी कहलाते हैं। सामान्यतया स्त्रीवेद और पुरुषवेदवाले जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक होते हैं। नपुंसक वेद वाले जीव भी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक होते हैं। अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के प्रथम भाग के अन्त में पुरुषवेद का विच्छेद हो जाने से आगे वेद का अभाव बतलाया है। यहाँ भाववेद ही समझना चाहिए, द्रव्य वेद नहीं, किन्तु यह मन्तव्य केवल धवला टीकाकार का है, मूल ग्रन्थकार का नहीं। मार्गणा में वेदों का प्रतिपादन करते हुए कहा गया है कि नारकी जीवों में चारों गुणस्थानों में नपुंसकवेदी होते हैं। तिर्यंच में एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के जीव नपुंसकवेदी होते हैं । तिर्यंच पंचेन्द्रिय में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक तीनों वेदों से युक्त होते हैं। मनुष्य मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के प्रथम भाग तक तीनों वेदवाले होते हैं। अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के द्वितीय भाग में तथा आगे के सभी गुणस्थानों में वेद से रहित मनुष्य होते हैं । देवगति में चार गुणस्थान ही होते हैं । सौधर्म, ईशान देवलोक तक के देव स्त्री और पुरुष दोनों वेदवाले होते हैं। सनत्कुमार से ऊपर के सभी देव पुरुषवेदी ही होते हैं, क्योंकि इन देवलोकों में देवियाँ नहीं होती हैं। ___ कषाय मार्गणा में क्रोध कषाय वाले, मान कषाय वाले और माया कषाय वाले जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक होते हैं । लोभ कषाय वाले जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक होते हैं। कषायरहित जीव उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ, क्षीण कषाय वीरागछद्मस्थ, सयोगी केवली और अयोगीकेवली - इन चार गुणस्थानों में होते हैं। ज्ञानमार्गणा में मति-अज्ञान वाले, श्रुत-अज्ञान वाले, विभंगज्ञान वाले, आभिनिबोधिक ज्ञान वाले, श्रुतज्ञान वाले, अवधिज्ञान वाले, मनः पर्यवज्ञानवाले और केवलज्ञानवाले जीव होते हैं। जो जानता है, उसे ज्ञान कहते है। जिसके द्वारा आत्मा जानती है, जानती थी और जानेगी, ऐसे ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से अथवा सम्पूर्ण क्षय से उत्पन्न हुए आत्मपरिणाम को ज्ञान कहते हैं। ज्ञान दो प्रकार के हैं - प्रत्यक्ष और परोक्ष। इनमें परोक्ष के दो भेद हैं - मतिज्ञान और श्रुतज्ञान। प्रत्यक्ष के तीन भेद हैं - अवधि, मनःपर्यव और केवलज्ञान। विष, यन्त्र, कूट, पंजर आदि के विषय में बुद्धि प्रवृत्त होती है, उसे मति-अज्ञान कहते हैं। चौरशास्त्र और हिंसाशास्त्र आदि के अयोग्य उपदेशों को श्रुत-अज्ञान कहते हैं । मिथ्यादृष्टि को जो विपरीत अवधिज्ञान होता है, उसे विभंगज्ञान कहते हैं। इन्द्रिय और मन की सहायता से पदार्थ का जो अवबोध होता है, उसे आभिनिबोधिकज्ञान कहा जाता है। मतिज्ञान से जाने हुए विषय के सम्बन्ध से जो दूसरे विषयों का ज्ञान होता है, उसको श्रुतज्ञान कहते हैं। श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है। इसके अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक अथवा शब्दजन्य और लिंगजन्य-इस प्रकार दो भेद बताये गए हैं। उनमें शब्दजन्य श्रुतज्ञान मुख्य है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से जिस ज्ञान के विषय की अवधि (सीमा) हो, उसे अवधि ज्ञान कहते हैं। इसे परमागम में 'सीमाज्ञान' भी कहते हैं। इसके भव प्रत्यय और गुण प्रत्यय-ऐसे दो भेद हैं । दूसरे मन में स्थित विषयों को जो जानता है, उसे मनःपर्यवज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान मनुष्य क्षेत्र के भीतर संयत जीवों को ही होता है। जो तीनों लोकों के समस्त पदार्थों को युगपत् जानता है, उसे केवलज्ञान कहते हैं। मति-अज्ञानवाले और श्रुत-अज्ञानवाले जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होते हैं। · विभंगज्ञान, मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती और सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों को होता है। विभंगज्ञान, देव और नारकी Jain Education Intemational Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... तृतीय अध्याय........{95} को भवप्रत्यय होता है। यह विभंगज्ञान पर्याप्त जीवों को होता है और अपर्याप्तों को नहीं होता है। अपर्याप्त अवस्थावाला देव और नारक विमंगज्ञान का स्वामी नहीं है, किन्तु पर्याप्त अवस्थावाला देव और नारक, विभंगज्ञान का स्वामी है। मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंगज्ञानवाले जीवों को मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होते हैं। अज्ञान के विवेचन के पश्चात् ज्ञान की विवेचना करते हैं। आमिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञानवाले जीव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं। मनःपर्यवज्ञानवाले जीव प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं। केवलज्ञानवाले जीव सयोगीकेवली और अयोगीकेवली-इन गुणस्थानों में ही होते हैं। संयममार्गणा में सर्वप्रथम संयत के अर्थ का निरवचन करते हैं । सं अर्थात् समीचीन सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के साथ 'यत्' अर्थात् बाह्य और आभ्यंतर आसवों से विरत हैं, उन्हें संयत कहते हैं। द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा समस्त सावद्ययोग के त्याग का नाम सामायिकशुद्धिसंयम है। एक ही व्रत को दो, तीन आदि भेद से धारण करना, उसे छेदोपस्थापना संयत कहते हैं। यह संयम पर्यायार्थिक नय की अपेक्षावाला है । जिनको हिंसा का परिहार प्रघान है, ऐसे शुद्धि प्राप्त संयम को परिहारशुद्धिसंयत कहते हैं। सम्पराय अर्थात् कषाय, जिनकी कषाय सूक्ष्म हो गई है, ऐसे शुद्धि प्राप्त संयत को सूक्ष्मसम्परायशुद्धिसंयत कहते हैं। जिनके परमागम में प्रतिपादित विहार अर्थात् कषायों के अभाव रूप अनुष्ठान प्राप्त करने वाले संयत को यथाख्यात परिहारविशुद्धिसंयत कहते हैं। जो पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों को ग्रहण कर कर्मनिर्जरा करते हैं, ऐसे सम्यग्दृष्टि जीव संयतासंयत कहलाते हैं। उनके दार्शनिक, व्रतिक, सामायिकी, पोषधोपवासी, सचित्तविरत, रात्रिभुधिविरत, बह्मचारी, आरम्भविरत, परिग्रहविरत, अनुमतिविरत और उदिष्टविरत-ये ग्यारह भेद हैं। जो जीव छः काय के जीवों की हिंसा एवं इन्द्रिय के विषयों में विरत नहीं होते हैं, उन्हें असंयत कहते हैं। संयत जीव प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक होते हैं। सामायिक और छेदोपस्थापनीयशुद्धि संयत जीव प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक होते हैं। परिहारशुद्धि संयत जीव प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत-ऐसे धानों में ही होते हैं। सूक्ष्मसंपरायिकशुद्धिसंयत जीव मात्र सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में होते हैं । यथाख्यातपरिहारविशुद्धिसंयत जीव उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ, क्षीणकषाय, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली-इन चार गुणस्थानों में होते हैं । संयतासंयत जीव संयतासंयत गुणस्थान में ही होते हैं। असंयत जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होते हैं । जिसके द्वारा देखा जाता है, वह दर्शन कहलाता है अथवा ज्ञान की उत्पत्ति में कारणभूत जो प्रयत्न होता है, उससे सम्बद्ध आत्मविषयक उपयोग को दर्शन कहते हैं। वह चार प्रकार का है-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवघिदर्शन और केवलदर्शन। चाक्षुष ज्ञान के उत्पादक प्रयत्न से सम्बद्ध आत्मसंवेदन को चक्षुदर्शन कहते हैं। चक्षु इन्द्रिय को छोड़कर शेष चार इन्द्रियों और मन से होनेवाले दर्शन को अचक्षदर्शन कहते हैं । __ अवधिज्ञान के पूर्व होनेवाले दर्शन को अवधिदर्शन कहते हैं। प्रतिपक्ष से रहित जो दर्शन होता है, उसे केवलदर्शन कहते हैं। चक्षुदर्शनवाले जीव को मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं। अचक्षुदर्शनी जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतराग छद्मस्थ तक के गुणस्थान होते हैं। अवधिदर्शनवाले जीव को असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतराग छद्मस्थ तक के गुणस्थान होते हैं। केवलदर्शनवाले जीव सयोगीकेवली और अयोगीकेवली-इन दो गुणस्थानों में और सिद्धस्थान में होते हैं । लेश्या अर्थात् कषाय से अनुरंजित जो योगों की प्रवृत्ति होती है, उसे लेश्या कहते हैं। “कर्मस्कन्धैः आत्मानं लिम्पति” इति लेश्या। कषाय का उदय छः प्रकार का होता है, तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र, मन्द, मन्दतर और मन्दतम । इन छः प्रकार के कषायों से उत्पन्न हुई लेश्या भी छः प्रकार की है-कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या। इन लेश्याओं से युक्त जीवों की पहचान निम्न प्रकार से होती है - Jain Education Interational Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{96} (१) जो तीव्र क्रोध करने वाला हो, वैर को न छोड़े, लड़ना जिसका स्वभाव हो, धर्म और दयारहित हो, वर्तमान कार्य करने में विवेकरहित हो, मानी हो, मायावी हो, आलसी, पांच इन्द्रियों के विषय में लम्पट हो, ऐसे जीव को चाहिए। (२) जो अतिशय निद्रालु हो, दूसरों को ठगने में दक्ष हो और धन-धान्य के विषय में तीव्र लालसा रखता हो, उसे नीललेश्यावाला जानना चाहिए। (३) जो दूसरे पर क्रोध करता है, दूसरों की निन्दा करता है, दूसरों को दुःख देता है, अत्यधिक शोक और भय से संतप्त रहता है, दूसरों का उत्कर्ष सहन नहीं करता है, दूसरों का तिरस्कार करता है तथा कार्य-अकार्य की गणना नहीं करता है, उसे कापोतलेश्यावाला जानना चाहिए। (४) जो कार्य-अकार्य और सेव्य-असेव्य को जानता है, सब विषय में समदर्शी रहता है, दया-दान में तत्पर रहता है, मन-वचन काया से कोमल परिणामी होता है, उसे पीत अथवा तेजोलेश्यावाला जानना चाहिए। (५) जो त्यागी है, भद्र परिणामी है, निरन्तर कार्य करने में उद्यत रहता है, कष्टों को सहन करता है, साधु तथा गुरुजनों की पूजा में रत रहता है, उसे पद्मलेश्यावाला जानना चाहिए। ) जो पक्षपात नहीं करता है, निदान नहीं बांधता है, सभी के साथ समान व्यवहार करता है, इष्ट और अनिष्ट पदार्थों के विषय में राग-द्वेष रहित होता है, उसे शुक्ललेश्यावाला जानना चाहिए। प्रथम के तीन लेश्यावाले जीव को मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक के गुणस्थान होते हैं। तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावाले जीव को मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत तक के सभी गुणस्थान होते हैं। शुक्ललेश्यावाले जीव को मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली तक के गुणस्थान होते हैं। यहाँ संशय होता है कि जो जीव कषाय से रहित हो चुके हैं, उनके शुक्ललेश्या कैसे सम्भव है ? कहा गया है कि जिन जीवों की कषाय क्षीण अथवा उपशान्त हो गई है, उनमें कर्म लेप का कारणभूत योग पाया जाता है, इस अपेक्षा से शुक्ललेश्या का सद्भाव माना जाता है। तेरहवें गुणस्थान से आगे सभी जीव लेश्या रहित हैं, क्योंकि उनमें बन्ध के कारणभूत योग और कषाय दोनों का ही अभाव है। भव्यमार्गणा में जिन जीवों में अनन्तचतुष्टयरूप सिद्धि को प्राप्त करने की योग्यता है, उसे भव्य कहते हैं और जिन जीवों में अनन्तचतुष्टयरूप सिद्धि की योग्यता नहीं है, उसे अभव्य कहते हैं । भव्य जीवों को मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली तक के सभी गुणस्थान होते हैं । अभव्य जीवों को मात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही होता है । सम्यक्त्वमार्गणा में जिनेन्द्र देव द्वारा उपदिष्ट छः द्रव्य, पांच अस्तिकाय और नौ पदार्थों में आज्ञा अथवा अधिगम से श्रद्धान करने को सम्यक्त्व कहते हैं। वह सम्यक्त्व जिस में पाया जाता है, उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं। दर्शनमोह का सर्वथा क्षय हो जाने से जो निर्मल तत्वार्थ श्रद्धान होता है, उसे क्षायिक सम्यक्त्व और जिसमें क्षायिक सम्यक्त्व होता है, उसे क्षायिक सम्यग्दृष्टि कहते हैं । सम्यक्त्व मोहनीय के उदय से जो चल, मलिन और अगाढ़ श्रद्धान होता है, उसे वेदक सम्यक्त्व अथवा क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं और जिसमें क्षायोपशमिक सम्यक्त्व अर्थात वेदक सम्यक्त्व होता है, उसे क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि अथवा वेदक सम्यग्दृष्टि कहते हैं। जिस प्रकार मलिन जल में निर्मली फल के डालने से कीचड़ नीचे बैठ जाता है और जल स्वच्छ हो जाता है, उसी प्रकार दर्शन मोहनीय के उपशम से जो निर्मल तत्वार्थ श्रद्धान होता है, उसे उपशमसम्यक्त्व और जिसमें उपशमसम्यक्त्व होता है, उसे औपशमिक सम्यग्दृष्टि कहते हैं । सम्यग्मिथ्यात्व के उदय से जो सम्यक्त्व और मिथ्यात्व रूप मिला हुआ तत्वार्थ श्रद्धान होता है, उसे सम्यग्मिथ्यासम्यक्त्व और उससे युक्त जीव को सम्यग्मिध्यादृष्टि कहते हैं। उपशम सम्यक्त्व के काल में कम से कम एक समय और अधिक से अधिक छः आवलि परिमाण काल के शेष रहने पर किसी एक अनन्तानुबन्धी का उदय आ जाने से जिसका सम्यक्त्व नष्ट हो चुका हो और जो मिथ्यात्व अवस्था को प्राप्त नहीं हुआ है, उसे सास्वादन सम्यक्त्व कहते हैं और ऐसे जीव को सास्वादनसम्यग्दृष्टि कहते हैं । मिथ्यात्व के उदय से जिन जीवों का तत्वार्थश्रद्धान विपरीत हो उन्हें मिथ्यादृष्टि कहते Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय.......{97} हैं। सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक होते हैं । वेदक सम्यग्दृष्टि जीव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होते हैं। उपशमसम्यग्दृष्टि जीव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं । सास्वादनसम्यग्दृष्टि जीव सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में ही होते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में होते हैं। मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में होते हैं। नारकी जीवों के प्रथम चार गुणस्थान होते हैं। सातों पृथ्वी में प्रथम के चारों गुणस्थान होते हैं। नारकी जीव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं। प्रथम नरक पृथ्वी में नारकी जीव तीनों सम्यक्त्व से युक्त होते हैं। दूसरी नरक पृथ्वी से लेकर सातवीं नरक पृथ्वी तक नारकी जीव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि को छोड़कर शेष दो सम्यक्त्व से युक्त होते हैं। तिर्यंचों में प्रथम के पांच गुणस्थान होते हैं। यद्यपि मानुषोत्तर पर्वत तक सम्पूर्ण द्वीप समुद्रवर्ती तिर्यचों में प्रथम के पांच गुणस्थान होते हैं, तथापि मानुषोत्तर पर्वत से आगे तथा स्वयंभूरमणदीपस्थ स्वयंआभाचल तक असंख्यात द्वीप-समुद्रों में उत्पन्न तिर्यचों को संयमासंयम गुणस्थान नहीं होता है, फिर भी वैर के सम्बन्ध से देवों या दानवों के द्वारा कर्मभूमि से उठाकर वहाँ डाले गए कर्मभूमिज देशव्रती तिर्यंचों की सत्ता वहाँ सम्भव है । तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते हैं। संयता संयत गुणस्थानवर्ती तिर्यंच क्षायिकसम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं, शेष दो सम्यक्त्व से युक्त होते हैं। क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव मरकर तिर्यंचों में उत्पन्न नहीं होते हैं। यद्यपि पूर्वबद्धायुष्क जीव तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं, परन्तु वे भोगभूमि में ही उत्पन्न होते हैं। भोगभूमि में उत्पन्न जीवों को देशसंयम की प्राप्ति नहीं होती है । इसीलिए क्षायिकसम्यग्दृष्टि तिर्यचों को पांचवाँ गुणस्थान नहीं होता है । योनिमती पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि नहीं होते, शेष दो सम्यक्त्व होते हैं क्योंकि योनिमती तिर्यंचों में न तो क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों की उत्पत्ति की संभावना है और न ही दर्शनमोहनीय की क्षपणा की संभावना है। यह सम्भावना ढाई द्वीप और दो समुद्रों में ही जानना चाहिए, क्योंकि तिर्यंचों की तरह मानुषोत्तर पर्वत से आगे देवों के कारण से मनुष्यों के भी पहुँचने की संभावना नहीं है । मनुष्य असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानों में क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं। इसी प्रकार पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनियों में भी जानना चाहिए। देवों को प्रथम के चार गुणस्थान होते हैं। इसी प्रकार ऊपर-ऊपर ग्रैवेयक विमानवासी देवों तक जानना चाहिए। देव असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते हैं। भवनवासी, वाणव्यन्तर और ज्योतिषी देव और उनकी देवियाँ तथा सौधर्म और ईशानकल्पवासिनी देवियाँ-ये सब असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं, शेष दो सम्यक्त्व से युक्त होते हैं, क्योंकि इन सभी देव-देवियों में दर्शनमोहनीय के क्षपण की संभावना नहीं है। दर्शनमोहनीय की क्षपणा करनेवाले जीवों की उत्पत्ति इन देव-देवियों में सम्भव नहीं हैं। सौधर्म और ईशान कल्प से लेकर ऊपर-ऊपर के ग्रैवेयकविमानवासी देवों तक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं। नौ अनुदिशों में तथा विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध - इन पांच अनुत्तरविमानों में रहनेवाले देव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं । संज्ञीमार्गणा में जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं। प्रश्न उपस्थित होता है कि मनसहित होने के कारण सयोगीकेवली भी तो संज्ञी हैं, फिर उनको संज्ञी क्यों नहीं स्वीकार किया ? इसका उत्तर है कि आवरण कर्म से रहित हो जाने के कारण केवलियों को मन के अवलम्बन से अर्थ का ग्रहण नहीं होता है। असंज्ञी जीव को एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही होता है। ___ आहारमार्गणा में आहारक जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली तक होते हैं। यहाँ पर आहार शब्द से केवली में कवलाहार, लेपाहार, ऊष्माहार, मानसिक आहार और कर्माहार को छोड़कर मात्र नोकर्म आहार का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि इसके बिना अन्य आहारों की संभावना नहीं है। विग्रहगति को प्राप्त मिथ्यात्व, सास्वादन और अविरत सम्यग्दृष्टि जीव तथा समुद्घात प्राप्त सयोगीकेवली-इन चार गुणस्थानवी जीव तथा अयोगीकेवली और सिद्ध जीव अनाहारक होते हैं। Jain Education Interational Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ तृतीय अध्याय........{98} पुष्पदंत और भूतबली प्रणीत षट्खण्डागम के जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड के द्वितीय द्वार में द्रव्यपरिमाणानुगम ७६ नामक द्वितीयद्वार में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से चौदह मार्गणाओं में चौदह गुणस्थानों की प्ररूपणा की है। जो पर्यायों को प्राप्त होता है, प्राप्त होगा और प्राप्त हुआ है, उसे द्रव्य कहते हैं, अथवा जिसके द्वारा पर्यायें प्राप्त की जाती हैं, प्राप्त की जायेगी और प्राप्त की गई थी, उसे द्रव्य कहते हैं। वह द्रव्य दो प्रकार का है - जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य । जो पांच प्रकार के वर्ण, पांच प्रकार के रस, दो प्रकार की गंध और आठ प्रकार के स्पर्श रहित, सूक्ष्म और असंख्यात प्रदेशी है तथा जिसका आकार इन्द्रियगोचर नहीं है, वह जीव है । ये जीव का साधारण लक्षण है, क्योंकि यह दूसरे धर्मादि अमूर्त द्रव्यों में भी पाया जाता है । उर्ध्व गतिस्वभाव, भोगकर्तृत्व और स्व-पर आकाशक्त्व यह जीव का असाधारण लक्षण है, क्योंकि यह लक्षण जीव-द्रव्य को छोड़कर अन्य किसी भी द्रव्य में पाया नहीं जाता है। जिसमें चेतना गुण नहीं पाया जाता है, उसे अजीव कहते हैं। वे पांचब प्रकार के हैं - धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल । अजीव के रूपी और अरुपी - ऐसे दो भेद हैं। जिसमें रूप, रस, गंध और स्पर्श से युक्त जो पुद्गल है, वह रूपी अजीव द्रव्य हैं । रूपी अजीव द्रव्य पृथ्वी, जल आदि के भेद से छः प्रकार के हैं । अरूपी अजीव द्रव्य चार प्रकार के हैं - धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य । जो जीव और पुद्गलों के गमनागमन में कारणभूत है, उसे धर्मद्रव्य कहते हैं और जो स्थिरता में कारणभूत है, उसे अधर्म द्रव्य कहते हैं। ये दोनों द्रव्य अमूर्तिक और असंख्यात प्रदेशी होकर लोक के समान हैं । जो सर्वव्यापक होकर अन्य द्रव्यों को स्थान देनेवाला है, उसे आकाशद्रव्य कहते हैं । जो अपने और दूसरे द्रव्यों को परिणमन का कारण और एक प्रदेश है, उसे कालद्रव्य कहते हैं। लोकाकाश के जितने प्रदेश हैं, उतने ही काल अणु हैं। आकाश के दो भेद हैं - लोकाकाश और अलोकाकाश। जहाँ पांच द्रव्य रहते हैं, उसे लोकाकाश कहते हैं और जहाँ वे पांचों द्रव्य नहीं पाए जाते हैं, उसे अलोकाकाश कहते हैं । यहाँ पर केवल जीव द्रव्य की ही विवक्षा की है, अन्य द्रव्यों की नहीं । जिसके द्वारा पदार्थ आते-जाते हैं या गिने जाते हैं, उसे परिमाण कहते हैं । द्रव्य का परिमाण द्रव्यपरिमाण कहा जाता हैं । वस्तु के अनुरूप ज्ञान को अनुगम कहते हैं अथवा केवली और श्रुतकेवलियों द्वारा परम्परा से आये हुए अनुरूप ज्ञान को अनुगम कहते हैं। द्रव्य और परिमाण के अनुगम को द्रव्यपरिमाणानुगम कहते हैं । द्रव्यपरिमाणानुगम की अपेक्षा निर्देश दो प्रकार के हैं - ओधनिर्देश और आदेश (विशेष) निर्देश । गत्यादि मार्गणा भेदों से रहित चौदह गुणस्थानों की अपेक्षा जीवों के परिमाण का निरूपण करना ओघनिर्देश है। गति और मार्गणाओं के आधार पर भेद को प्राप्त हुए चौदह गुणस्थानों का प्ररूपणा करना आदेश-निर्देश है। - - सामान्यतया मिध्यादृष्टि जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा अनन्त हैं। एक-एक के अंक को घटाते जाने पर जो संख्या कभी समाप्त नहीं होती है, उसे अनन्त कहा जाता है, अथवा जो संख्या मात्र केवलज्ञान की विषय है, उसे अनन्त कहते हैं । उस अनन्त के नामानन्त, स्थापनानन्त, द्रव्यानन्त, शाश्वतानन्त, गणनानन्त, अप्रदेशानन्त, एकानन्त, उभयानन्त, विस्तारानन्त, सर्वानन्त और भावानन्त-ये ग्यारह भेद हैं । यहाँ पर गणनानन्त की विवक्षा है। वह तीन प्रकार का है परीतानन्त, युक्तानन्त और अनन्तानन्त । इसमें से भी यहाँ अनन्तानन्त अपेक्षित है । अनन्तानन्त भी तीन प्रकार का है - उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । यहाँ पर मध्यम अनन्तानन्त मानना चाहिए। मिथ्यादृष्टि जीव काल की दृष्टि से अनन्तानन्त उत्सर्पिणियों और अनन्तानन्त अवसर्पिणियों द्वारा समाप्त नहीं होते हैं । अनन्तानन्त उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों के समयों की राशि को तथा दूसरी ओर समस्त मिथ्यादृष्टि जीवों की राशि को स्थापित करके उन समयों में से एक समय को तथा मिथ्यादृष्टियों की राशि में से एक मिथ्यादृष्टि जीव को कम करना, इस प्रकार काल के समस्त समय तो समाप्त हो जाते हैं, परन्तु मिथ्यादृष्टि जीवराशि समाप्त नहीं होती है। अतीत काल के समयों की अपेक्षा भी मिथ्यादृष्टि जीवराशि अधिक है। क्षेत्र की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त लोकपरिमाण हैं । लोक में जिस प्रकार प्रस्थ (एक आकार का माप) आदि के १७६ षट्खण्डागम, पृ. ५३ से ८४, प्रकाशनः श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{99} . द्वारा गेहूँ-चावल आदि मापे जाते हैं, उसी प्रकार से बुद्धि से लोक के द्वारा मिथ्यादृष्टि जीव राशि को मापने पर वह अनन्त लोक के बराबर है । तात्पर्य यह है कि लोक के एक-एक प्रदेश पर एक-एक मिथ्यादृष्टि जीव को रखने पर एक लोक होता है । इसी प्रकार उत्तरोत्तर मापने पर मिथ्यादृष्टि जीवराशि अनन्तानन्त लोकपरिमाण है । भाव परिमाण की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीवों का परिमाण द्रव्य, क्षेत्र, काल इन तीनों परिमाणों का ज्ञान ही भाव परिमाण है। मतिज्ञानादि पांच ज्ञानों में से प्रत्येक ज्ञान द्रव्य, क्षेत्र और काल के भेद से तीन प्रकार का है । इन तीनों में से द्रव्यों के अस्तित्व विषयक ज्ञान को द्रव्यभावपरिमाण, क्षेत्रविशिष्ट द्रव्य के ज्ञान को क्षेत्रभावपरिमाण और कालविशिष्ट द्रव्य के ज्ञान को कालभावपरिमाण जानना चाहिए। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा पल्योपम के असंख्यातवाँ भाग है । उनके द्वारा अन्तर्मुहूर्त से पल्योपम समाप्त होता है। प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा कोटिपृथक्त्व परिमाण है। कोटिपृथक्त्व तीन करोड़ से ऊपर और नौ करोड़ से नीचे की संख्या होती है । परमगुरु के आदेशानुसार प्रमत्तसंयत जीवों का परिमाण पांच करोड तिरानवे लाख अट्ठानवे हजार दो सौ छः है। अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा संख्यात है। यहाँ पर स्पष्ट जानना चाहिए कि प्रमत्तसंयत गुणस्थान के काल से अप्रमत्तसंयत गुणस्थान का काल संख्यातगुणा हीन है। चारों गुणस्थानों के उपशमक जीव द्रव्यपरिमाण के प्रवेश की अपेक्षा एक अथवा दो अथवा तीन-इस प्रकार उत्कृष्ट रूप से चौवन होते हैं, काल की अपेक्षा उपशम श्रेणी में संचित हुए सभी जीव संख्यात होते हैं। आठ समयों के भीतर उपशमश्रेणी के प्रत्येक गुणस्थान में उत्कृष्ट रूप से संचित हुए सम्पूर्ण जीवों को एकत्रित करने पर उनका परिमाण तीन सौ चार होता है । चारों गुणस्थानों के क्षपक और अयोगीकेवली जीवों का परिमाण प्रवेश की अपेक्षा से एक अथवा दो अथवा तीन-इस प्रकार उत्कृष्टरूप से एक सौ आठ होता है। आठ समय और छः महीनों के भीतर क्षपकश्रेणी के योग्य आठ समय होते हैं। उन समयों की सामान्य रूप से प्ररूपणा करने पर जघन्य से एक जीव और उत्कृष्ट से एक सौ आठ जीव क्षपक गुणस्थानों को प्राप्त होता हैं। काल की अपेक्षा संचित हुए क्षपक जीव संख्यात होते हैं। आठ समयों में संचित जीवों को एकत्रित करने पर वे उकृष्ट रूप से छ: सौ आठ होते हैं। सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव परिमाण प्रवेश की अपेक्षा एक, दो अथवा तीन इस प्रकार उत्कृष्ट रूप से एक सौ आठ होते हैं । एक काल में सत्ता की अपेक्षा से सामान्यतया सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव लक्षपृथक्त्व परिमाण होते हैं। विशेष की अपेक्षा से गति मार्गणा में नरकगति के नारकी जीवों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं, तात्पर्य यह है कि नरकगति में नारकी मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा मध्यम असंख्यातासंख्यात परिमाण हैं। काल की अपेक्षा नारक मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के द्वारा समाप्त हो जाते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा सामान्यतया नारक मिथ्यादृष्टि जीवराशि जगप्रतर के असंख्यातवें भाग परिमाण और जगप्रतर असंख्यात जगश्रेणी परिमाण हैं। उन जगश्रेणियों की विषकम्भ सूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल को उसी के द्वितीय वर्गमूल से गुणित करने पर जो संख्या उपलब्ध होती है, उतनी ही है। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती नारकी जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं। सामान्य नारकी जीवों के द्रव्यपरिमाण के समान पहली पृथ्वी के नारकीओं का द्रव्यपरिमाण जानना चाहिए। दूसरी पृथ्वी से लेकर सातवीं पृथ्वी तक नारकीओं में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं। कालपरिमाण की अपेक्षा दूसरी पृथ्वी से लेकर सातवीं पृथ्वी तक प्रत्येक पृथ्वी के नारक मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के द्वारा समाप्त होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा द्वितीयादि छहों पृथ्वियों में प्रत्येक पृथ्वी के नारक मिथ्यादृष्टि जीव जगश्रेणी के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं। इस जगश्रेणी के असंख्यातवें भाग की जो श्रेणी है, उसका आयाम असंख्यात कोटि योजन है, जिस असंख्यात कोटियोजन का परिमाण जगश्रेणी के संख्यात प्रथमादि वर्गमूलों के परस्पर गुणा करने से जितना परिमाण उत्पन्न हो, उतना है । सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती नारकी जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं। Jain Education Intemational Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ तृतीय अध्याय ........{100} तिर्यंचगति की अपेक्षा तिर्यंचों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक तिर्यंच सामान्य प्ररूपणा के समान अर्थात् पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । तिर्यंच पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा पंचेद्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों एवं उत्सर्पिणियों द्वारा गृहीत समयों से अधिक , तात्पर्य यह है कि जितने असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के समय हैं, उनकी अपेक्षा तिर्यंच पर्चेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव अधिक हैं। क्षेत्र की अपेक्षा पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि तिर्यंचों के द्वारा देवों के अपहारकाल से असंख्यातगुण हीन काल के द्वारा तर समाप्त होता है। दो सौ छप्पन सूची अंगुलों के वर्ग को आवलि के असंख्यातवें भाग से भागित करने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टि जीवों का अपहारकाल होता है। इस अपहारकाल का जग प्रतर में भाग देने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंच मिथ्यादृष्टियों का द्रव्यपरिमाण प्राप्त होता है । सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक पंचेन्द्रिय तिर्यंच प्रत्येक गुणस्थान सामान्य तिर्यंचों के समान पल्योपम के असंख्यातवे भाग परिमाण हैं । तिर्यंच पंचेन्द्रिय पर्याप्त मिध्यादृष्टि जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा तिर्यंच पंचेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीवों का अपहार असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के समयों द्वारा समाप्त होता है। क्षेत्र की अपेक्षा तिर्यंच पंचेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीवों की संख्या का अपहारकाल देवों के अपहारकाल से संख्यातगुणा हीनकाल के द्वारा जगप्रतर समाप्त होता है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से कर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती तिर्यंच पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव ओघ के समान पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमति अर्थात् स्त्रीलिंगी तिर्यंच जीव में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के समयों द्वारा समाप्त होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमति मिथ्यादृष्टि जीवों के द्वारा देवों के अपहारकाल की अपेक्षा संख्यातगुणा अपहारकाल से जगप्रतर समाप्त होता है । सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमति अर्थात् तिर्यंच स्त्रीलिंगी जीव सामान्य तिर्यंच जीवों के समान पल्योपम के असंख्यातवें भाग हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं । काल की अपेक्षा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के समयों द्वारा समाप्त होते हैं । क्षेत्र की अपेक्षा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तों के द्वारा देवों के अपहारकाल से असंख्यातगुणा हीन अपहारकाल से जगप्रतर समाप्त होता है । मनुष्यगति प्रतिपन्ना मनुष्यों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्य परिमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं । काल की अपेक्षा मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के समयों द्वारा समाप्त होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीवराशि जगश्रेणी के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । उस श्रेणी का आयाम असंख्यात करोड़ योजन है। सूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल को उसी के तृतीय वर्गमूल से गुणित करने पर जो संख्या उपलब्ध हो, उसे शलाका रूप से स्थापित करने पर मिथ्यादृष्टि मनुष्यों की जीव राशि के द्वारा समाप्त होती है । सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती मनुष्य द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा संख्यात है । यह सामान्य कथन है । विशेष की अपेक्षा से सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्य बावन करोड़ हैं, सम्यग्मिथ्यादृष्टि मनुष्य सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्यों से द्विगुणित हैं । असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्य सात सौ करोड़ , संयतासंयत मनुष्य तेरह करोड़ हैं । कितने ही आर्चाय सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्यों का परिमाण पचास करोड़ तथा सम्यग्दृष्टि मनुष्यों का परिमाण उनसे द्विगुणित हैं, ऐसा मानते हैं । प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती मनुष्य सामान्यवत् अर्थात् पल्योपम के असंख्यातवाँ भाग परिमाण है। पर्याप्त मनुष्यों में मिथ्यादृष्टि मनुष्य द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा करोड x करोड़ x करोड़ के ऊपर करोडx करोड़ x करोड़ x करोड़ के नीचे छः वर्गों के ऊपर और सात वर्गों के नीचे अर्थात् छठे और सातवें वर्ग के बीच की संख्या परिमाण हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत स्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती पर्याप्त मनुष्य द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा संख्यात है । प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती पर्याप्त मनुष्यों का परिमाण सामान्य प्ररूपणा के समान ही समझना चाहिए । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{101} मनुष्यनियों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा करोड़ x करोड़ x करोड़ के ऊपर और करोड़ x करोड़ x करोड़ x करोड के नीचे छठे वर्ग के ऊपर और सातवें वर्ग के नीचे मध्य की संख्या परिमाण हैं। मनुष्यनियों में सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा संख्यात है । लब्धिपर्याप्त मनुष्य द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा लब्धिपर्याप्त मनुष्य असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के समयों द्वारा समाप्त होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा लब्धिपर्याप्त मनुष्य जगश्रेणी के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं। उस जगश्रेणी के असंख्यातवें भाग रूप श्रेणी का आयाम असंख्यात करोड़ योजन है । सूची अंगुल के तृतीय वर्गमूल से गुणित प्रथम वर्गमूल को शलाकारूप से स्थापित करके अधिक लब्धि पर्याप्त मनुष्यों द्वारा जगश्रेणी समाप्त होती है । सूची अंगुल के प्रथम और तृतीय वर्गमूल को परस्पर गुणित करने से जो राशि प्राप्त हो, उसमें जगश्रेणी को भाजित करके लब्ध राशि में से कम कर देने पर सामान्य मनुष्य राशि का परिमाण प्राप्त होता है। इसमें से पर्याप्ता मनुष्यराशि का परिमाण कम कर देने पर शेष लब्धि पर्याप्त मनुष्यों का परिमाण प्राप्त होता है। देवगति में देवों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों के समयों के समान होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा जगप्रतर के दो सौ छप्पन अंगुलों के वर्गरूप प्रतिभाग से मिथ्यादृष्टि देवों की राशि प्राप्त होती है। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि- सामान्य देवों का द्रव्यपरिमाण पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं। भवनवासी देवों में मिथ्यादृष्टि देव असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों के समयों द्वारा समाप्त होते हैं । क्षेत्र की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि भवनवासी देव असंख्यात जगश्रेणी परिमाण हैं, जो जगप्रतर के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं। उन असंख्यात जगश्रेणियों की विषकम्भसूची, सूची अंगुल को सूची अंगुल के प्रथम वर्गमूल से गुणित करने पर जो संख्या प्राप्त हो, उतनी है । सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि भवनवासी देव पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं। वाणव्यन्तर देवों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा वाणव्यन्तर देवों का परिमाण असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों के समयों के समान होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा जगप्रतर के संख्यात सौ योजनों के वर्गरूप प्रतिभाग से वाणव्यन्तर मिथ्यादृष्टि जीवों की राशि प्राप्त होती है। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यगमिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि वाणव्यन्तर देव पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण है, जितनी देवगति प्राप्त सामान्य देवों की संख्या अर्थात् असंख्यात ज्योतिषी देवों की संख्या है। सौधर्म और ईशान कल्पवासी देवों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं । काल की अपेक्षा सौधर्म और ईशान कल्पवासी मिथ्यादृष्टि देवों की संख्या असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के समयों के समान होती हैं । क्षेत्र की अपेक्षा सौधर्म और ईशान कल्पवासी मिथ्यादृष्टि देव असंख्यात जगश्रेणी परिमाण हैं । उन अंसख्यात जगश्रेणियों का परिमाण जगप्रतर का असंख्यातवाँ भाग है तथा उनकी विषकम्भसूची सूचीअंगुल के द्वितीय वर्गमूल को उसके तृतीय वर्गमूल से गुणित करने पर जो प्राप्त हो, उतनी है । सौधर्म, ईशान कल्पवासी सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यमिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देव पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं। सातवीं नरक पृथ्वी में नारकीयों के द्रव्यपरिमाण के समान सनत्कुमार से लेकर सहस्रार तक के कल्पवासी देवों में मिथ्यादृष्टि देव असंख्यात हैं। आनत और प्राणत से लेकर नव ग्रैवयेक तक विमानवासी देवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती उक्त देव द्रव्य परिमाण की अपेक्षा पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं। अनुदिश के विमानों से लेकर अपराजित विमान तक इन विमानों में रहनेवाले असंयतसम्यग्दृष्टि देव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं। इन जीवराशियों के द्वारा अन्तर्मुहूर्त से पल्योपम समाप्त होता है । सर्वार्थसिद्ध विमानवासी देव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा संख्यात हैं । विशेष यह है कि सर्वार्थसिद्ध विमानवासी देव मनुष्यनियों के परिमाण से तीन गुणा हैं। इन्द्रियमार्गणा में एकेन्द्रिय, एकेन्द्रिय पर्याप्त, एकेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय Jain Education Intemational Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{102} अपर्याप्त, सक्ष्म एकेन्द्रिय, सक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त. सक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा अनन्त हैं। काल परिमाण की अपेक्षा पूर्वोक्त एकेन्द्रियादि नौ जीवराशियां अनन्तानन्त अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के समयों द्वारा भी समाप्त नहीं होती हैं। अतीत काल के समयों की जितनी संख्या है, उससे भी बहुत अधिक उपर्युक्त बादर एकेन्द्रियादि जीवों का परिमाण हैं । क्षेत्र परिमाण की अपेक्षा से एकेन्द्रियादि नौ जीवराशियाँ अनन्तानन्त लोक परिमाण हैं । द्वीन्द्रिय,त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव तथा उन्हीं के पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों की संख्या द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं । काल की अपेक्षा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय के पर्याप्त और अपर्याप्त जीव असंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के समयों द्वारा समाप्त होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के द्वारा सूची अंगुल के असंख्यातवें भाग के वर्गरूप प्रतिभाग से जगप्रतर समाप्त होता है । उन्हीं के पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों के द्वारा क्रमशः सूची अंगुल के असंख्यातवें भाग के वर्गरूप प्रतिभाग से एवं सूची अंगुल के संख्यातवें भाग के वर्गरूप प्रति भाग से जगप्रतर समाप्त होता है। पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों मे मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों के समयों के समतुल्य होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और पंचेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टियों के द्वारा सूची अंगुल के असंख्यातवें भाग के वर्गरूप प्रतिभाग से और सूची अंगुल के संख्यातवें भाग के वर्गरूप प्रतिभाग से जगप्रतर समाप्त होता हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव सामान्य प्ररूपणा के समान पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं। पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीव असंख्यातासंख्यात और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों द्वारा समाप्त होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवों के द्वारा सूची अंगुल के असंख्यातवें भाग के वर्गरूप प्रति भाग से जगप्रतर समाप्त होता कायमार्गणा में पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय जीव तथा बादर पृथ्वीकाय, बादर अप्काय, बादर तेजसकाय, बादर वायुकाय, बादर वनस्पतिकाय के प्रत्येक शरीरी जीव तथा इन्हीं पांच बादर काय सम्बन्धी अपर्याप्त जीव, सूक्ष्म पृथ्वीकाय, सूक्ष्म अप्काय, सूक्ष्म तेजस्काय, सूक्ष्म वायुकाय जीव तथा इन्हीं चार सूक्ष्म सम्बन्धी पर्याप्त और अपर्याप्त जीव-ये प्रत्येक द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा असंख्यात लोक परिमाण हैं। बादर पृथ्वीकाय, बादर अप्काय तथा बादर वनस्पतिकाय-प्रत्येक शरीरी जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा बादर पृथ्वीकाय, बादर अप्काय, बादर वनस्पतिकाय पर्याप्त शरीरी जीव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के समयों के समतुल्य होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा बादर पृथ्वीकाय, बादर अप्काय, बादर वनस्पतिकाय प्रत्येक शरीरी पर्याप्त जीवों के द्वारा सूची अंगुल के असंख्यातवें भाग के वर्गरूप प्रतिभाग से जगप्रतर समाप्त होता है। बादर तेजस्काय पर्याप्त जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं। यह असंख्यात रूप परिमाण असंख्यात आवलियों के वर्गरूप हैं, जो आवलि के घन के भीतर आता है । बादर वायुकाय पर्याप्त जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा बादर वायुकाय पर्याप्त जीव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों द्वारा समाप्त होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा बादर वायुकाय पर्याप्त जीव असंख्यात जगप्रतर परिमाण हैं। यह असंख्यात जगप्रतर लोक के संख्यातवें भाग हैं। यहाँ संख्यात से घनलोक के भाजित करने पर बादर वायुकाय पर्याप्त जीवों का द्रव्यपरिमाण आता है। वनस्पतिकाय जीव, निगोद जीव, बादर वनस्पतिकाय जीव, सूक्ष्म वनस्पतिकाय जीव, बादर वनस्पतिकाय पर्याप्त जीव , बादर वनस्पतिकाय अपर्याप्त जीव, वनस्पतिकाय सूक्ष्म पर्याप्त जीव, वनस्पतिकाय सूक्ष्म अपर्याप्त जीव, निगोद बादर जीव, निगोद सूक्ष्म जीव, निगोद बादर पर्याप्त जीव, निगोद बादर अपर्याप्त जीव, निगोद सूक्ष्म पर्याप्त जीव और निगोद सूक्ष्म अपर्याप्त जीव-ये प्रत्येक वर्ग के जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा अनन्त हैं । काल की अपेक्षा उपर्युक्त चौदह जीव राशियाँ अनन्तानन्त अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के समयों द्वारा समाप्त नहीं होती है। क्षेत्र की अपेक्षा ये जीव राशियाँ अनन्तानन्त लोक परिमाण हैं। त्रसकाय और त्रसकाय पर्याप्त में Jain Education Intemational Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{103} मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा त्रसकाय और त्रसकाय पर्याप्त में मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के समयों द्वारा समाप्त होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा त्रसकाय में मिथ्यादृष्टि जीवों के द्वारा सूची अंगुल के असंख्यातवें भाग के वर्गरूप प्रतिभाग से और त्रसकाय पर्याप्तों में मिथ्यादृष्टि जीवों के द्वारा सूची अंगुल के संख्यातवें भाग के वर्गरूप प्रतिभाग से जगप्रतर समाप्त होता है । सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती त्रसकाय अपर्याप्त और त्रसकाय पर्याप्त जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समरूप है । त्रसकाय लब्धि पर्याप्त जीवों का परिमाण पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्तों के परिमाण के समान है। योगमार्गणा में पांचों मनोयोगियों और तीन वचनयोगियों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा देवों के संख्यातवें भाग हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती पूर्वोक्त आठ योगवाले जीवों का परिमाण पल्योपम के असंख्यातवे भाग हैं । प्रमत्तसंयत गणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में पर्वोक्त जीवराशियाँ द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा संख्यात हैं। वचनयोगियों और असत्यमषा अर्थात अनभय वचनयोगियों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा वचनयोगी और अनुभय वचनयोगी मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के समयों के समरूप होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा वचनयोगियों और अनुभय वचनयोगियों में मिथ्यादृष्टि जीवों के द्वारा अंगुल के संख्यातवें भाग के वर्गरूप प्रतिभाग से जगप्रतर समाप्त होता है। सास्वादनसम्यग्दृष्टि आदि शेष गुणस्थानवर्ती वचनयोगी और अनुभय वचनयोगी सास्वादनसम्यग्दृष्टि आदि जीव मनोयोगियों के समान हैं। काययोगियों और औदारिक काययोगियों में मिथ्यादृष्टि जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं। ये दोनों ही जीवराशियाँ अनन्त हैं। काल की अपेक्षा काययोगी और औदारिक काययोगी मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के समयों द्वारा समाप्त नहीं होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा ये अनन्तानन्त लोक परिमाण हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक काययोगी और औदारिक काययोगी मिथ्यादृष्टि जीव मनोयोगियों के समान हैं। औदारिक मिश्र काययोगी सास्वादनसम्यग्दृष्टि जीव सामान्य प्ररूपणा के समान अर्थात् पल्योपम के असंख्यातवें भाग हैं। असंयतसम्यग्दष्टि और सयोगीकेवली औदारिकमिश्र काययोगी जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा संख्यात हैं। वैक्रियकाययोगियों में मिथ्यादष्टि जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा देवों के संख्यातवें भाग से कम हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दष्टि वैक्रियकाययोगी जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा ओघ प्ररूपणा के समान अर्थात पल्योपम के असंख्यातवें भाग हैं। वैक्रियमिश्रकाययोगियों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्य परिमाण की अपेक्षा देवों का संख्यातवाँ भाग हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि असंयतसम्यग्दष्टि वैक्रियमिश्रकाययोगी जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा ओघ प्ररूपणा के समान अर्थात पल्ययोपम के संर भाग हैं। आहारककाययोगियों में प्रमत्तसंयत जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा चौवन हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थान को छोड़कर दूसरे गुणस्थानों में आहारक शरीर नहीं पाया जाता है। आहारकमिश्रकाययोगियों में प्रमत्तसंयत जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा संख्यात हैं। कार्मणकाययोगियों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समतुल्य है । सास्वादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि कार्मणकाययोगी जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समतुल्य है। कार्मणकाययोगी सयोगीकेवली जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा संख्यात हैं। . वेदमार्गणा में स्त्रीवेदियों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा देवियों से कुछ अधिक है । सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान प्रत्येक गुणस्थानवर्ती स्त्रीवेदी जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समान हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादरसंपराय प्रविष्ट उपशमक और क्षपक गुणस्थान तक स्त्रीवेदी जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा देवों से कुछ अधिक हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादरसंपराय प्रविष्ट उपशमक और क्षपक जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समरूप हैं। नपुंसकवेदी जीवों में मिथ्यादृष्टि से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समरूप हैं । प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर Jain Education Interational Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{104} अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान तक के उपशमक और क्षपक जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा संख्यात हैं। अपगतवेदी जीवों में तीनों गुणस्थान के उपशमक जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा और प्रवेश की अपेक्षा एक अथवा दो अथवा तीन अथवा उत्कृष्ट रूप से चौवन होते हैं । काल की अपेक्षा उपर्युक्त तीनों गुणस्थानवर्ती अपगतवेदी उपशमक जीव संख्यात हैं। अपगतवेदियों में तीन गुणस्थानवर्ती क्षपक और अयोगीकेवली जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समतुल्य हैं। अपगतवेदियों में सयोगीकेवली जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समरूप हैं। कषायमार्गणा में क्रोधकषायवाले, मानकषायवाले, मायाकषायवाले और लोभकषायवाले जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में जीवों का द्रव्यपरिमाण पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समान है। प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक चारों कषायवाले जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा संख्यात हैं। चारों कषायों के काल को जोड़ करके उसकी चार प्रतिराशियाँ करके अपने-अपने काल से अपवर्तित करने पर जो संख्या प्राप्त हो उससे इच्छित राशि के भाजित करने पर अपनी-अपनी राशि होती है । इस प्रकार इन गुणस्थानों में मानकषायवाले सबसे कम हैं। क्रोधकषायवाले मानकषायवाले जीवों से विशेष अधिक हैं। मायाकषायवाले क्रोधकषायवाले जीवों से विशेष अधिक हैं। लोभकषायवाले जीव मायाकषायवाले जीवों से विशेष अधिक हैं। विशेष यह है कि लोभकषायवाले जीवों में सूक्ष्मसंपरायशुद्धिसंयत उपशमक और क्षपक जीवों की संख्या पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समयों के समरूप है, क्योंकि क्षपक और उपशमक सूक्ष्मसांपरायिक जीवों में लोभकषाय को छोड़कर अन्य कोई भी कषाय नहीं होती है। कषायरहित जीवों में उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ जीवों के द्रव्यपरिमाण भी पल्योपम के संख्यातवें भाग के समयों के समान हैं। यहाँ भावकषाय के अभाव की अपेक्षा उपशान्तकषाय जीवों को अकषायी कहा है, द्रव्यकषाय के अभाव की अपेक्षा से नहीं; क्योंकि द्रव्यकर्म, उदय, उदीरणा, अपकर्षण, उत्कर्षण और पर प्रकृति संक्रमण आदि से रहित अपेक्षा से होता है । क्षीण कषाय वीतराग छद्मस्थ और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों की संख्या सामान्य प्ररूपणा के समान है। सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का द्रव्यपरिमाण पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समयों के समरूप है। ज्ञानमार्गणा में मति-अज्ञानवाले और श्रुत-अज्ञानवाले जीवों में मिथ्यादृष्टि और सास्वादनसम्यग्दृष्टि जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समयों के समान है। विभंगज्ञानियों में मिथ्यादृष्टि जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा देवों से कुछ अधिक हैं । विभंगज्ञानवाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । आभिनिबोधिक ज्ञानवाले, श्रुतज्ञानवाले और अवधिज्ञानवाले जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समयों के समान हैं । अवधिज्ञानियों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा से संख्यात है । मनःपर्यवज्ञानियों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा संख्यात है । केवलज्ञानियों में सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों की द्रव्य प्ररूपणा पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समान है । संयममार्गणा में संयत जीवों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का द्रव्यपरिमाण सामान्य प्ररूपणा के समान है । प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर ऊपर के सभी गुणस्थानवी जीव संयत ही होते हैं। सामायिक और छेदोपस्थापनीय शुद्धिसंयत जीवों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादरसांपरायिक प्रविष्ट उपशमक और क्षपक गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव एल्योपम के असंख्यातवें भाग के समय के समरूप है । परिहारविशुद्धि संयतों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा संख्यात हैं। सूक्ष्मसांपरायिक शुद्धि संयत जीवों में सूक्ष्मसांपरायिक शुद्धिसंयत उपशमक और क्षपक जीव द्रव्यपरिमाण से पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समान हैं। यथाख्यातशुद्धिसंयतों में ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवी जीवों की संख्या सामान्य प्ररूपणा के समान है। Jain Education Intemational Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{105) संयतासंयत जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समरूप हैं। असंयतों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के जीवों की संख्या पल्योपम के संख्यातवें भाग के समान है। __ दर्शनमार्गणा में चक्षुदर्शनी जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा असंख्यात हैं। काल की अपेक्षा चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के समयों द्वारा समाप्त होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा चक्षुदर्शनी में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों के द्वारा सूची अंगुल के संख्यातवें भाग के वर्गरूप प्रतिभाग से जगप्रतर समाप्त होता है । सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती चक्षुदर्शनी जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग हैं। अचक्षुदर्शनियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गणस्थानवर्ती जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समान है। अवधिदर्शनी जीवों की द्रव्यप्ररूपणा अवधिज्ञानियों के समान है । केवलदर्शन वाले जीवों की द्रव्य प्ररूपणा केवलज्ञानियों के समान है। लेश्यामार्गणा में कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्यावाले जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समान हैं। तेजोलेश्यावाले जीवों में मिथ्यावृष्टि गुणस्थानवी जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा ज्योतिष देवों से कुछ अधिक हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती तेजोलेश्या से युक्त जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समरूप है । तेजोलेश्यावाले जीवों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा संख्यात हैं। पद्मलेश्यावाले जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव द्रव्य परिमाण की अपेक्षा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती जीवों के संख्यातवें भाग परिमाण हैं । पद्मलेश्यावाले जीवों में सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का द्रव्य परिमाण सामान्य प्ररूपणा के समान है। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती पद्मलेश्यावाले जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा संख्यात हैं। शुक्ललेश्यावाले जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव द्रव्य परिमाण की अपेक्षा पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । इन जीवों के द्वारा अन्तर्मुहूर्त काल से पल्योपम समाप्त होता है। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती शुक्ललेश्यावाले जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा संख्यात हैं। अपूर्वकरण गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती शुक्ललेश्यावाले जीवों का द्रव्यपरिमाण पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समरूप है । अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव लेश्यारहित हैं, क्योंकि उनमें कर्मलेप के कारणभूत योग और कषाय नहीं पाई जाती भव्यमार्गणा में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुण स्थानवर्ती भव्य जीवों का द्रव्य परिमाण पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समान है। अभव्य जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा अनन्त हैं। सम्यक्त्वमार्गणा में सम्यग्दृष्टि में असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगीकेवली तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का द्रव्यपरिमाण सामान्य प्ररूपणा के समान है । क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों के द्रव्यपरिमाण सामान्य प्ररूपणा के समान है, संयतासंयत गुणस्थान से लेकर उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक के गुणस्थानवर्ती क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा संख्यात हैं। चारों क्षपक और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समरूप हैं। सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का द्रव्यपरिमाण सामान्य प्ररूपणा के समान है । वेदकसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के गुणस्थानवी जीवों का द्रव्यपरिमाण सामान्य प्ररूपणा के समान है । उपशमसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों की संख्या सामान्य प्ररूपणा के समान है । प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक के उपशमसम्यग्दृष्टि जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा संख्यात हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का द्रव्यपरिमाण सामान्य प्ररूपणा के समान है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का द्रव्यपरिमाण सामान्य प्ररूपणा के समान है। मिथ्यादृष्टि गुण स्थानवी जीवों का द्रव्य परिमाण सामान्य प्ररूपणा के समान है। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{106} संज्ञीमार्गणा में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती संज्ञी जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा देवों से कुछ अधिक हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती संज्ञी जीवों का द्रव्यपरिमाण सामान्य प्ररूपणा के समान है। असंज्ञी जीव द्रव्यपरिमाण की अपेक्षा अनन्त हैं। काल की अपेक्षा असंज्ञी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव अनन्तानन्त अवसर्पिणियों और उत्सर्पिणियों के समयों के द्वारा समाप्त नहीं होते हैं। क्षेत्र की अपेक्षा असंज्ञी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव अनन्तानन्त लोक परिमाण हैं। __ आहारमार्गणा में आहारकों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का द्रव्यपरिमाण पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समरूप हैं । अनाहारक जीवों का द्रव्यपरिमाण कार्मणकाययोगियों के द्रव्यपरिमाण के समान हैं । अनाहारक अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का द्रव्यपरिमाण सामान्य प्ररूपणा के समान है। पुष्पदंत एवं भूतबली प्रणीत षट्खण्डागम के जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड के क्षेत्रानुगम नामक तृतीय द्वार में सर्वप्रथम बताया गया है कि क्षेत्रानुगम की अपेक्षा निर्देश दो प्रकार के हैं-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। ओघ अर्थात् सामान्य निर्देश की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव सम्पूर्ण लोक में रहतें है । सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र में रहते हैं। सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र में अथवा लोक के असंख्यातवें बहुभाग परिमाण क्षेत्र में अथवा सम्पूर्ण लोक में रहते है, दण्डसमुद्घात को प्राप्त केवली सामान्य लोक आदि चारों लोकों के असंख्यातवें भाग तथा ढाई द्वीप सम्बन्धी क्षेत्र से असंख्यात में रहते हैं। कषाय समुद्घात प्राप्त केवली सामान्यलोक, अधोलोक और उर्ध्वलोक इन तीन लोकों के असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग तथा ढ़ाई द्वीप से असंख्यातगुणा क्षेत्र में रहते हैं। प्रतर समुद्घात प्राप्त केवली लोक के असंख्यात बहुभाग परिमाण क्षेत्र में रहते हैं। लोकपूरण समुद्घात प्राप्त केवली समस्त लोक में रहते हैं। आदेश अर्थात् विशेष की अपेक्षा गतिमार्गणा में नरकगति में नारकियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र में रहते हैं। इसी प्रकार सातों पृथ्वीयों में नारकी जीव लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र में रहते हैं। तियंचगति में तिर्यंचों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव सम्पूर्णलोक में रहते हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक के तिर्यंच के जीव लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र में रहते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमति जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती तिर्यंच लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र में रहते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीव लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र में रहते हैं। मनुष्यगति में मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र में रहते हैं। सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव सामान्यवत् अर्थात् लोक के असंख्यातवें भाग में, लोक के असंख्यात बहुभाग परिमाण क्षेत्र में अथवा समस्त लोक में रहते हैं। लब्धि अपर्याप्त मनुष्य लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र में रहते हैं। देवगति में देवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती देवलोक के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र में रहते हैं। इसी प्रकार भवनवासी देवों से लेकर ऊपर-ऊपर ग्रैवेयकविमानवासी देवों तक का क्षेत्र जानना चाहिए। नौ अनुदिशाओं से लेकर सर्वार्थसिद्ध विमान तक के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र में रहते हैं। इन्द्रियमार्गणा में एकेन्द्रिय जीव, बादर एकेन्द्रिय जीव, सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव सम्पूर्ण लोक में रहते हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीव और उन्हीं के पर्याप्त और अपर्याप्त जीव लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र में रहते हैं। पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त १८० षट्खण्डागम, पृ. ८५ से १००, प्रकाशनः श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण Personal Use only www.jan Jain Education Intemational Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{107} जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र में रहते हैं। सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव का क्षेत्र सामान्य प्ररूपणा के समान है। पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त जीव लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र में रहते हैं। कायमार्गणा में पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय तथा बादर पृथ्वीकाय, बादर अप्काय, बादर तेजस्काय, बादर वायुकाय और बादर वनस्पतिकाय, प्रत्येक शरीरी जीव तथा इन्हीं पांच बादरकाय सम्बन्धी अपर्याप्त जीव, सूक्ष्म पृथ्वीकाय, सूक्ष्म अप्काय, सूक्ष्म तेजस्काय, सूक्ष्म वायुकाय और इन्हीं सूक्ष्मों के पर्याप्त और अपर्याप्त जीव सम्पूर्ण लोक में रहते हैं। बादर पृथ्वीकाय, बादर अप्काय, बादर तेजस्काय और बादर वनस्पतिकाय प्रत्येकशरीरी ये सभी पर्याप्त जीव लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण क्षेत्र में रहते हैं। बादर वायुकाय पर्याप्त जीव लोक के संख्यातवें भाग में रहते हैं। वनस्पतिकाय जीव, निगोद जीव, वनस्पतिकाय बादर जीव, वनस्पतिकाय सूक्ष्म जीव, वनस्पतिकाय बादर पर्याप्त जीव, वनस्पतिकाय बादर अपर्याप्त जीव, वनस्पतिकाय सूक्ष्म पर्याप्त जीव, वनस्पतिकाय सूक्ष्म अपर्याप्त जीव, निगोद बादर पर्याप्त जीव, निगोद बादर अपर्याप्त जीव, निगोद सूक्ष्म अपर्याप्त जीव सम्पूर्ण लोक में रहते हैं। त्रसकाय और पर्याप्त जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव का क्षेत्र ओघ निरूपित सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती आत्मा के क्षेत्र के समान है। त्रसकाय लब्धि अपर्याप्त जीवों का क्षेत्र पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्तों के समान है। योगमार्गणा में पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। काययोगियों में सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव को योग का अभाव हो जाने से उनका ग्रहण नहीं किया। काययोगवाले जीवों में सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव का क्षेत्र ओघ प्ररूपित सयोगीकेवली के क्षेत्र के समान है । औदारिककाययोगियों में मिथ्यादृष्टि जीवों का क्षेत्र ओघ के समान सम्पूर्ण लोक है । सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगी केवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती औदारिक काययोगी जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। औदारिक मिश्रकाय योगियों में मिथ्यादृष्टि जीव ओघ के समान सम्पूर्ण लोक में रहते हैं। औदारिकमिश्रकाययोगी, सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। वैक्रियकाययोगियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। वैक्रियमिश्रकाययोगियों में मिथ्यादृष्टि, सास्वादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। आहारककाययोगियों और आहारकमिश्रकाययोगियों में प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। कार्मणकाययोगियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव ओघ मिथ्यादृष्टि जीवों के समान सम्पूर्ण लोक में रहते हैं। कार्मणकाययोगी सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। कार्मणकाययोगी सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव प्रतर सुद्घात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें बहुभाग में और लोकपूरण की अपेक्षा सम्पूर्ण लोक में रहते हैं। वेदमार्गणा में स्त्रीवेदी और पुरुषवेदियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। नपुंसकवेदी जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का क्षेत्र ओघ के समान है । अपगतवेदी जीवों में अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के अवेदभाग से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । कषायमार्गणा में क्रोधकषायवाले, मानकषायवाले, मायाकषायवाले और लोभकषायवाले जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है । सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती Jain Education Intemational Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ तृतीय अध्याय ........(108} चारों कषायवाले जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । लोभकषायवाले जीवों में सूक्ष्मसंपरायशुद्धि संयत उपशमक और क्षपक जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । अकषायवाले जीवों में उपशान्तकषाय आदि चारों गुणस्थानवर्ती जीवों का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है । यद्यपि उपशान्तकषाय गुणस्थान में कषायों का उपशम रहने से उसे सर्वथा अकषाय नहीं कहा जा सकता है, परन्तु भाव कषायों के उदय का अभाव रहने से उसे भी अकषायी गुणस्थानों में ग्रहण किया है । ज्ञानमार्गणा में मति-अज्ञानवाले और श्रुत- अज्ञानियों का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती मति-अज्ञानवाले और श्रुत- अज्ञानियों का क्षेत्र सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों के समान लोक का असंख्यातवाँ भाग है। विभंगज्ञानियों में मिथ्यादृष्टि और सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। आभिनिबोधिकज्ञानवाले, श्रुतज्ञानवाले और अवधिज्ञानियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । मनः पर्यवज्ञानियों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । केवलज्ञानियों में सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों का क्षेत्र ओघ के समान है । केवलज्ञानियों में अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । संयममार्गणा में संयतों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक के गुणस्थानवर्ती जीव ओघ के समान लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । संयतों में सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव ओघ के समान लोक के असंख्यातवें भाग में, लोक के असंख्यात बहुभाग में और सम्पूर्ण लोक में रहते हैं । सामायिक और छेदोपस्थापनीय शुद्धिसंयतों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव सामायिक और छेदोपस्थापनीय शुद्धिसंयतों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव सामायिक और छेदोपस्थापनीय शुद्धि संयत जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । परिहारविशुद्धि संयतों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । सूक्ष्मसंपराय शुद्धि संयतों में सूक्ष्मसंपराय शुद्धि संयत उपशमक और क्षपक जीवों का क्षेत्र लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । यथाख्यातशुद्धि संयतों में उपशान्तकषाय गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक के चारों गुणस्थानवर्ती संयतों का क्षेत्र ओघ के समान है । संयतासंयत गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । असंयतों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव सम्पूर्ण लोक में रहते हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव ओघ के समान लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । दर्शनमार्गणा में चक्षुदर्शनियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । अचक्षुदर्शनियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव लोक में रहते हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि स्थान से लेकर क्षीण कषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती अचक्षुदर्शनी जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । केवलदर्शनी जीवों का क्षेत्र अवधिज्ञानियों के समान लोक का असंख्यातवाँ बहुभाग और सम्पूर्ण लोक है। श्यामार्गणा की अपेक्षा कृष्णले श्यावाले, नीललेश्यावाले और कापोतले श्यावाले जीवों में मिथ्यादृष्टि जीव सम्पूर्ण लोक में रहते हैं। तीनों अशुभलेश्यावाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । तेजोलेश्यावाले जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। शुक्ललेश्यावाले जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक ' गुणस्थानवर्ती शुक्लले श्यावाले जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं । शुक्ललेश्यावाले सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों का क्षेत्र ओघ के समान है । भव्यमार्गणा में भव्यसिद्धि के जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवों का क्षेत्र ओघ के समान है । अभव्यसिद्धिक जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव सम्पूर्ण लोक में रहते हैं । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.... तृतीय अध्याय........{109) सम्यक्त्वमार्गणा में सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का क्षेत्र ओघ के समान है। सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का क्षेत्र ओघ से कथित क्षेत्र के समान है। वेदकसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टि जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गणस्थान तक प्रत्येक गणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टि जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों का क्षेत्र ओघ के समान है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का क्षेत्र ओघ के समान है । मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों का क्षेत्र ओघ के समान है। __ संज्ञीमार्गणा में संज्ञी जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती संज्ञी जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। असंज्ञी जीव सम्पूर्ण लोक में रहते हैं। __ आहारमार्गणा में आहारक जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का क्षेत्र ओघ के समान सम्पूर्ण लोक है । सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी आहारक जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। अनाहारकों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है । अनाहारक सास्वादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग में रहते हैं। अनाहारक सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव लोक के बहुमाग और सम्पूर्ण लोक में रहते हैं। प्रतरसमुद्घात को प्राप्त सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती केवली भगवान लोक के असंख्यात बहुभागों में रहते हैं, क्योंकि वे लोक के चारों ओर स्थित वातवलय को छोड़कर शेष समस्त लोक के क्षेत्र को पूर्ण करके स्थित होते हैं । तथा लोकपूरण समुद्घात में वे ही सयोगीकेवली जिन सम्पूर्ण लोक में रहते हैं, क्योंकि उस समय वे लोक को पूर्ण करके स्थित होते हैं । पुष्पदंत एवं भूतबलीप्रणीत षट्खण्डागम में जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड के स्पर्शानुगमनामक चतुर्थ द्वार में कहा गया है कि स्पर्शानुगम की अपेक्षा निर्देश दो प्रकार के हैं-ओघनिर्देश (सामान्य) और आदेशनिर्देश (विशेष)। सामान्य की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं। स्वस्थान-स्वस्थान, विहारस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रिय और मारणान्तिक समुदघात प्राप्त तथा उपपाद प्राप्त सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव वर्तमान काल में सामान्तया लोक के असंख्यातवें भाग तथा मनुष्य लोक से असंख्यातगुणा क्षेत्र का स्पर्श करके रहे हुए हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव अतात काल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग तथा कुछ कम बारह बटे चौदह भाग परिमाण क्षेत्र का स्पर्श करते हैं। वर्तमान काल की अपेक्षा सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव अतीत काल की अपेक्षा कुछ कम करते हैं। स्वस्थान-स्वस्थान, विहारस्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और वैक्रियसमुद्घात प्राप्त सम्यग्मिथ्यादृष्टि गणस्थानवी जीव वर्तमान काल में सामान्यतया लोक के असंख्यातवें भाग का और मनुष्य क्षेत्र से असंख्यातगुणा क्षेत्र का स्पर्श करके रहे हुए हैं। स्वस्थान-स्वस्थान, विहारस्वस्थान, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, वैक्रियसमुद्घात, मारणान्तिकसमुद्घात और उपपाद को प्राप्त असंयतसम्यग्दष्टि गणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र क्षेत्र प्ररूपणा के समान जानना चाहिए। सम्यग्मिथ्यादष्टि और असंयतसम्यग्दष्टि गणस्थानवी जीव अतीत काल की अपेक्षा कछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श करते हैं। संयतासंयत गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवाँ भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं। संयतासंयत गुणस्थानवी जीव अतीत काल की अपेक्षा कुछ कम छः बटे चौदह भाग का स्पर्श करते हैं। स्वस्थान-स्वस्थान, विहारस्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रिय समुद्घात प्राप्त १८१ षट्खण्डागम, पृ. १०१ से १२६, प्रकाशनः श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ तृतीय अध्याय ........{110} संयतासंयत गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग, तिर्यग्लोक के संख्यातवें भाग का और मनुष्यक्षेत्र से असंख्यातगुणा क्षेत्र का स्पर्श करके रहे हुए हैं । मारणान्तिक समुद्घात प्राप्त संयतासंयत गुणस्थानवर्ती जीव कुछ कम छः बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं । स्वस्थान- स्वस्थान, विहारस्वस्थान, वेदना, कषाय, वैक्रिय, तेजस और आहारक समुद्घात प्राप्त प्रमत्तसंयतादि गुणस्थानवर्ती जीव सामान्यतया लोक के असंख्यातवें भाग का और मनुष्यलोक के असंख्यातवें भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं । मारणान्तिक समुद्घात प्राप्त प्रमत्तसंयतादि गुणस्थानवर्ती जीव सामान्यतया लोक के असंख्यातवें भाग का और मनुष्यलोक से असंख्यातगुणा क्षेत्र का स्पर्श करके रहे हुए हैं । सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग का, असंख्यात बहुभाग का और सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं । विशेष की अपेक्षा गतिमार्गणा में नरकगति में नारकियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं। नारकी मिथ्यादृष्टि जीव अतीत काल की अपेक्षा कुछ कम छः बटे चौदह भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं । यह स्पर्शक्षेत्र का परिमाण मारणान्तिक समुद्घात प्राप्त और उपपाद प्राप्त नारक मिथ्यादृष्टि जीवों का समझना चाहिए । सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकी अतीत काल की अपेक्षा कुछ कम पांच बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। प्रथम नरक पृथ्वी में रहे हुए नारकियों में मिध्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के गुणस्थानवर्ती नारकी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। समुद्घात प्राप्त नारकी जीव अतीत काल की अपेक्षा यथाक्रम द्वितीय पृथ्वी से लेकर छठी पृथ्वी तक प्रत्येक पृथ्वी के नारकियों में मिथ्यादृष्टि और सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद प्राप्त उक्त नारकी जीव अतीत काल की अपेक्षा यथाक्रम से लोक के चौदह भागों में से कुछ कम एक, दो, तीन, चार और पांच भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं । द्वितीय पृथ्वी से लेकर छठी पृथ्वी तक प्रत्येक पृथ्वी के सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। सातवीं पृथ्वी में रहे हुए नारकियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। सातवीं पृथ्वी के मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद प्राप्त मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकीय जीव अतीत काल की अपेक्षा कुछ कम छः बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। सातवीं पृथ्वी के सास्वादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। सातवीं पृथ्वी के इन तीनों गुणस्थानवर्ती जीवों के मारणान्तिक और उपपाद-ये दो पद नहीं होते हैं, शेष पांच पद होते हैं। तिर्यंचगति में तिर्यंचों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव ओघ की अपेक्षा सम्पूर्ण लोक में रहे हुए हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंच जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। मारणान्तिक समुद्घात को प्राप्त सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंच भूत और भविष्य काल की अपेक्षा लोक का कुछ कम सात बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हु हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंच लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानवर्ती तिर्यंच अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम छः बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच, तिर्यंच पंचेन्द्रिय पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमति अर्थात् स्त्री में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं । ये तीनों प्रकार के तिर्यंच जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं। शेष सास्वादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानवर्ती तिर्यंच जीवों का स्पर्श क्षेत्र सामान्य तिर्यंचों के समान है । लब्धि अपर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं । तिर्यंच पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए 1 Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{111) मनुष्यगति में मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनियों में सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। मारणान्तिक समुद्घात प्राप्त मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनियों में सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम सात बटे चौदह भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं। इन तीनों प्रकार के मनुष्यो में सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। उपर्युक्त मनुष्यों में सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग, बहुभाग और सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं । लब्धि अपर्याप्त मनुष्य लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। लब्धि अपर्याप्त मनुष्य अतीत और अनागत काल की अपेक्षा सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं। देवगति में देवों में मिथ्यादृष्टि और सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। देवों में मिथ्यादृष्टि और सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव अतीत और अनागतकाल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और कुछ कम नौ बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। विहारस्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रिय समुद्घात को प्राप्त हुए पहले और दूसरे गुणस्थानवर्ती देव आठ बटे चौदह भाग और मारणान्तिक समुद्घात प्राप्त पहले और दूसरे गुणस्थानवर्ती देव नौ बटे चौदह भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं, ऐसा जानना चाहिए । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं । तीसरे और चौथे गुणस्थानवर्ती देव अतीत और अनागत काल में कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क देवों में मिथ्यादृष्टि और सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। मिथ्यादृष्टि और सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती भवनपति, व्यन्तर और ज्योतिष्क देव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा लोकनाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम साढ़े तीन भाग, आठ भाग और नौ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। विहारस्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रिय समुद्घात को प्राप्त ये तीनों प्रकार के मिथ्यादृष्टि और सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव त्रसनाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम साढ़े तीन भाग का और आठ भागों का स्पर्श करके रहे हुए हैं, कारण यह कि मेरू पर्वत के नीचे दो रज्जु और ऊपर सौधर्म विमान के शिखर के ध्वजादण्ड तक डेढ़ रज्जु का स्पर्श तो बिना किसी अन्य देव के सहयोग से स्पर्श करते हैं, तथा ऊपर के देवों की सहायता से मेरू पर्वत के नीचे दो रज्जु और ऊपर आरणअच्युत कल्प तक छः रज्जु, इस प्रकार आठ रज्जु परिमाण क्षेत्र का स्पर्श करते हैं। मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा नीचे दो रज्जु और ऊपर सात रज्जु, इस प्रकार नौ रज्जु परिमाण क्षेत्र का स्पर्श करते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती भवनपति, व्यन्तर और ज्योतिष्क देव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती भवनपति, व्यन्तर और ज्योतिष्क देव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम साढ़े तीन भाग का और कुछ कम आठ बटे चौदह भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं। सौधर्म और ईशान कल्पवासी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती देवों का स्पर्शक्षेत्र देवों के सामान्य स्पर्शक्षेत्र के समान हैं । सानत्कुमार कल्प से लेकर सहस्रार कल्प तक के देवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती देव लोक के असंख्यातवें भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं। सानत्कुमार कल्प से लेकर सहस्रार कल्प तक के मिथ्यादृष्टि आदि चारों गुणस्थानवर्ती देव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श करते हैं। आनत कल्प से लेकर आरण-अच्युत तक के कल्पवासी देवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती देव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। प्रथम से लेकर चतुर्थ गुणस्थान तक के आनतादि चार कल्पों के देव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा लोक का कुछ कम छः बटे चौदह भाग स्पर्श करते हैं। विहार (गमनागमन) तथा वेदना, कषाय, वैक्रिय और मारणान्तिक समुद्घात को प्राप्त ये देव लोकनाड़ी के चौदह भागों में से छः भाग का स्पर्श करते हैं। इससे अधिक स्पर्श न करने का कारण यह है कि उनका चित्रा पृथ्वी के ऊपर के Jain Education Interational Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{112) तल के नीचे गमन सम्भव नहीं हैं । नौ ग्रैवेयकविमानवासी देवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। नौ अनुदिशों से लेकर सर्वार्थसिद्ध तक के विमानवासी देव, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। इन्द्रियमार्गणा में एकेन्द्रिय, एकेन्द्रिय पर्याप्त, एकेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीव तथा उन्हीं के अपर्याप्त जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं। पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । लब्धि अपर्याप्त पंचेन्द्रिय जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। लब्धि अपर्याप्त पंचेन्द्रिय जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं। __ कायमार्गणा में पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, बादर वायुकाय और बादर वनस्पतिकाय प्रत्येक शरीरी जीव तथा इन्हीं पांचों बादर कायों से सम्बन्धित अपर्याप्त जीव, सूक्ष्म पृथ्वीकाय, सूक्ष्म जलकाय, सूक्ष्म अग्निकाय, सूक्ष्म वायुकाय तथा इन्हीं सूक्ष्म जीवों के पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों प्रकार के जीव सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं। बादर पृथ्वीकाय, बादर जलकाय, बादर अग्निकाय और बादर वनस्पतिकाय प्रत्येक शरीरी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। इन जीवों ने अतीत और अनागत काल की अपेक्षा सम्पूर्ण लोक का स्पर्श किया है । बादर वायुकाय पर्याप्त जीव लोक का संख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। बादर वायुकाय के पर्याप्त जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं। वनस्पतिकाय जीव, निगोद जीव, वनस्पतिकाय बादर जीव, वनस्पतिकाय सूक्ष्म जीव, वनस्पतिकाय बादर पर्याप्त जीव, वनस्पतिकाय सूक्ष्म पर्याप्त जीव, वनस्पतिकाय सूक्ष्म अपर्याप्त जीव, निगोद बादर पर्याप्त जीव, निगोद बादर अपर्याप्त जीव, निगोद सूक्ष्म पर्याप्त जीव और निगोद सूक्ष्म अपर्याप्त जीव-ये सभी जीव सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं। त्रसकाय और त्रसकाय पर्याप्त जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। त्रसकाय लब्धि अपर्याप्त जीवों का स्पर्शक्षेत्र पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त जीवों के समान लोक का असंख्यातवाँ भाग है। योगमार्गणा में पांचों मनोयोगियों और पांचों वचनयोगियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग का और सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। काययोगियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान सम्पूर्ण लोक है । सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती काययोगी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । काययोगी सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ के समान लोक का असंख्यातवाँ भाग, असंख्यातवाँ बहुभाग और सम्पूर्ण लोक है । औदारिक काययोगी जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान सम्पूर्ण लोक है । औदारिक काययोगी सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। इन जीवों ने अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम सात बटे चौदह भाग का स्पर्श किया है। औदारिक काययोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। औदारिक काययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{113} औदारिक काययोगी चौथे और पांचवें गुणस्थानवी जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम छः बटे चौदह भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती औदारिक काययोगी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। औदारिकमिश्रकाययोगियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान सम्पूर्ण लोक है । औदारिकमिश्रकाययोगियों में सास्वादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। वैक्रियकाययोगियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। वैक्रियकाययोगी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग का और कुछ कम तेरह बटे चौदह भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं। विहार तथा वेदना, कषाय एवं वैक्रिय समुद्घात को प्राप्त वैक्रियकाययोगी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव आठ बटे चौदह भाग को तथा मारणान्तिक समुद्घात को प्राप्त वे जीव नीचे छः और ऊपर सात रज्जु-इस प्रकार तेरह बटे चौदह भाग का स्पर्श करते हैं। वैक्रियकाययोगी सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । वैक्रियकाययोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। वैक्रियमिश्रकाययोगी जीवों में मिथ्यादृष्टि, सास्वादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियों में प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। कार्मणकाययोगी जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान हैं। कार्मणकाययोगी सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए है। कार्मणकाययोगी सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव तीनों कालों की अपेक्षा कुछ कम ग्यारह बटे चौदह भाग स्पर्श करते हैं । कार्मणकाययोगी सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों को एक मात्र उपपाद पद ही होता है, शेष पद नहीं होते हैं। उपपाद पद में वर्तमान कार्मणकाययोगी सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव मेरू तल के नीचे पांच रज्जु और ऊपर छः रज्जु परिमाण क्षेत्र का स्पर्श करके रहे हुए हैं। कार्मणकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। कार्मणकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव तीनों कालो की अपेक्षा कुछ कम छः बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। इतना क्षेत्र परिमाण बताने का कारण यह है कि सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों के समान मेरूतल से नीचे पांच रज्जु परिमाण स्पर्शक्षेत्र नहीं पाया जाता है, क्योंकि नारकी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का तिर्यंचों में उपपाद नहीं होता है। कार्मणकाययोगी सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यात बहुभाग का और सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं। प्रतरसमुद्घात प्राप्त सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यात बहुभाग का तथा लोक पूरण समुद्घात को प्राप्त सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं। वेदमार्गणा में स्त्रीवेदवाले और पुरुषवेदवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले मिथ्यात्व गुणस्थानवी जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग तथा सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं। स्त्री और पुरुषवेदवाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का स्पर्श करके रहे हुए हैं। स्त्रीवेद और पुरुषवेदवाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह तथा नौ बटे चौदह भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं। स्त्रीवेद और पुरुषवेदवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि तथा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। ये जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। स्त्रीवेद और पुरुषवेदवाले संयतासंयत गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। स्त्रीवेद और पुरुषवेदवाले संयतासंयत गुणस्थानवी जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम छः बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। स्त्रीवेद और पुरुषवेदवाले प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण उपशामक और क्षपक गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। नपुंसकवेदवाले जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान सम्पूर्ण लोक Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{114} है । नपुंसकवेदवाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। नपुसंकवेदवाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम बारह बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं । नपुंसकवेदवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। नपुंसकवेदवाले असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती और संयतासंयत गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हा अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम छः बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। नपुंसकवेदवाले जीवों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव का स्पर्शक्षेत्र सामान्य कथन के समान है । अपगतवेदवाले जीवों में अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। अपगतवेदवाले सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। कषायमार्गणा में क्रोधकषायवाले, मानकषायवाले, मायाकषायवाले और लोभकषायवाले जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। विशेष यह है कि लोभकषायवाले जीवों में सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानवर्ती उपशमक और क्षपक जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। अकषायवाले जीवों में उपशान्तकषाय आदि चार गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। ज्ञानमार्गणा में मति-अज्ञानवाले और श्रुत-अज्ञानियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । मति-अज्ञानवाले और श्रुत-अज्ञानवाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। विभंगज्ञानियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। विभंगज्ञानवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं और मारणान्तिक समुद्घात को प्राप्त सम्पूर्ण लोक को स्पर्श करके रहे हुए हैं। विभंगज्ञानवाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । आभिनिबोधिकज्ञानवाले, श्रुतज्ञानवाले और अवधिज्ञानवाले जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। मनःपर्यवज्ञानियों में प्रमत्तसंयत गणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। केवलज्ञानियों में सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। केवलज्ञानियों में अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। __संयममार्गणा में संयतों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । संयतों में सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । सामायिक और छेदोपस्थापनीय शुद्धि संयतों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । परिहारविशुद्धिसंयतों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं । सूक्ष्मसंपरायशुद्धिसंयतों में सूक्ष्मसांपरायिक उपशमक और क्षपक जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। यथाख्यातविहारशुद्धिसंयतों में अन्तिम चार गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । संयतासंयत गुणस्थानवर्ती जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । असंयत जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। ____ दर्शनमार्गणा में चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। विहार तथा वेदना, कषाय एवं वैक्रिय समुद्घात को प्राप्त चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और मारणान्तिक समुद्घात व उपपाद प्राप्त सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती चक्षुदर्शनी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । अवधिदर्शनी जीवों का स्पर्शक्षेत्र अवधिज्ञानियों के समान है । केवलदर्शनी जीवों का स्पर्शक्षेत्र केवलज्ञानियों के समान Jain Education Intemational Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा... तृतीय अध्याय........{115} लेश्यामार्गणा में कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । इन तीनों अशुभलेश्यावाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। तीनों अशुभलेश्यावाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम पांच बटे चौदह भाग और दो बटे चौदह भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं। यह स्पर्शक्षेत्र अनुक्रम से मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद पदों में वर्तमान छठी पृथ्वी के कृष्णलेश्यावाले, पांचवी पृथ्वी के नीललेश्यावाले और तीसरी पृथ्वी के कापोतलेश्यावाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती समझना चाहिए। तीनों अशुभलेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। तेजोलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। तेजोलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग तथा कुछ कम नौ बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। तेजोलेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं। ये जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। तेजोलेश्यावाले संयतासंयत गुणस्थानवर्ती जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। तेजोलेश्यावाले संयतासंयत गुणस्थानवी जीव अतीत और अनागतकाल की अपेक्षा कुछ कम डेढ़ बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। तेजोलेश्यावाले प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । पद्मलेश्यावाले जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती पद्मलेश्यावाले जीव अतीत और अनागत की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। पद्मलेश्यावाले संयतासंयत गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। पद्मलेश्यावाले संयतासंयत गुणस्थानवर्ती जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं। पद्मलेश्यावाले प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । शुक्ललेश्यावाले जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव अतीत और अनागत काल की अपेक्षा छ: बटे चौदह भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती शुक्ललेश्यावाले जीव का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। भव्यमार्गणा में भव्यसिद्धिक जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । अभव्यसिद्धिक जीव सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं । सम्यक्त्वमार्गणा में सम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों का स्पर्शक्षेत्र क्षेत्र ओघ कथन के समान है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में संयतासंयत गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यात भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं। क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । वेदकसम्यग्दृष्टि जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। उपशमसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। संयतासंयत गणस्थान से लेकर उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टि लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का भी स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। Jain Education Intemational Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय.....{116) संज्ञीमार्गणा में संज्ञी जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। संज्ञी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव अतीत काल की अपेक्षा विहार, वेदना, कषाय एवं वैक्रिय समुद्घात में कुछ कम आठ बटे चौदह भाग तथा मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद पदों की अपेक्षा सम्पूर्ण लोक को स्पर्श करके रहे हुए हैं। संज्ञी जीव सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। असंज्ञी जीव सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं। आहारमार्गणा में आहारक जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी आहारक जीवों का स्पर्शक्षेत्र ओघ कथन के समान है । आहारक जीवों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए हैं। अनाहारक जीवों में जिन गुणस्थानों की संभावना है, उन गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र कार्मणकाययोगियों के स्पर्शक्षेत्र के समान है । अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव लोक का असंख्यातवाँ भाग स्पर्श करके रहे हुए पुष्पदंत एवं भूतबली प्रणीत षटखण्डागम नामक ग्रन्थ में कालानुगम नामक पंचम द्वार'८२ में बताया गया है कि कालानुगम से निर्देश दो प्रकार के हैं-ओघ अर्थात् सामान्यनिर्देश और आदेशनिर्देश अर्थात् विशेषनिर्देश। सामान्य से अर्थात् सभी जीवों की अपेक्षा, से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव सर्वकालों में अर्थात् सदैव होते हैं। उनका कभी अभाव नहीं होता है । एक जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों के काल तीन प्रकार के होते हैं - १. अनादि-अनन्त २. अनादि-सान्त और ३. सादि-सान्त। एक जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का सादि-सान्त काल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा अनादि-अनन्त काल कहा गया है, वह अभव्य मिथ्यादृष्टि जीव की अपेक्षा से बताया गया है, क्योंकि अभव्य जीवों के मिथ्यात्व कान आदि है, न मध्य है और न अन्त है। भव्य मिथ्यादृष्टि जीवों का काल अनादि होकर भी सान्त है, क्योंकि वे मिथ्यात्व भाव से रहित होकर मुक्ति को प्राप्त करने वाले हैं। किसी-किसी भव्य मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव के मिथ्यात्व का यह काल सादि-सान्त भी होता है, जो जघन्य से अन्तमुहूर्त मात्र है । वह इस प्रकार है - कोई सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत अथवा प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव परिणामों के निमित्त से मिथ्यात्व को प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्त काल वहाँ रह कर पुनः सम्यग्मिथ्यात्व को अंसयत के साथ सम्यक्त्व को, संयमासंयम को अथवा अप्रमत्तभाव के साथ संयम को प्राप्त हुआ, ऐसे जीव के मिथ्यात्व का काल जघन्य रूप से सर्वजघन्य अन्तर्मुहूर्त मात्र है। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव के लिए ग्रहण किए हुए मिथ्यात्व को अतिसंक्लिष्ट परिणाम के कारण शीघ्र छोड़ नहीं पाते। एक जीव की अपेक्षा मिथ्यात्व का सादि-सान्त काल उत्कृष्ट से कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन होता है। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती सर्व जीवों की अपेक्षा जघन्य काल एक समय होता है । सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा, उत्कृष्ट काल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग परिमाण है। दो, तीन अथवा चार इस प्रकार एक-एक अधिक बढ़ाते हुए पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र उपशमसम्यग्दृष्टि जीव एक समय को आदि करके उत्कृष्ट से छः आवलि परिमाण उपशमसम्यक्त्व के काल में शेष रहने पर सास्वादन गुणस्थान को प्राप्त होकर जब तक मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होते, तब तक अन्य भी उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान को प्राप्त होते रहते हैं। इस प्रकार सभी जीवों की अपेक्षा उत्कृष्ट से पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग जितना काल सासादन गुणस्थान का पाया जाता है। एक जीव की अपेक्षा सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का जघन्य काल एक समय मात्र है। एक उपशमसम्यग्दृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्व के काल में एक समय अवशिष्ट रहने पर सासादन गुणस्थान को प्राप्त होता है और एक समय मात्र सासादन गुणस्थान में रहकर दूसरे समय में मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार सासादन गुणस्थान का एक जीव की अपेक्षा जघन्य काल एक समय हैं। एक जीव की अपेक्षा सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का उत्कृष्ट काल १८२ षटखण्डागम, पृ १२७ से १६८, प्रकाशनः श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण Jain Education Intemational Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... तृतीय अध्याय ........{117} छः आवलि परिमाण है। एक उपशमसम्यग्दृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्व के काल में छः आवलिओं के शेष रहने पर सासादन गुणस्थान को प्राप्त होकर वहाँ छः आवलि काल तक वहाँ रहकर फिर मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का उत्कृष्ट काल छः आवलि होता है। इससे अधिक काल नहीं होता है, क्योंकि उपशमसम्यक्त्व के काल में छः आवलियों से अधिक काल के शेष रहने पर जीव द्वितीय गुणस्थान को प्राप्त नहीं करता है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान सभी जीवों की अपेक्षा, जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग परिमाण है । एक जीव की अपेक्षा सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव विशुद्ध होता हुआ सम्यक्त्वमिथ्यात्व को प्राप्त होकर, पुनः सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त काल सम्यग्मिथ्यादृष्टि रहकर विशुद्ध होता हुआ असंयम सहित सम्यक्त्व को प्राप्त हो जाता है, अथवा संक्लेश प्राप्त कोई वेदकसम्यग्दृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होकर और वहाँ पर सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त काल रहकर संक्लेश के नष्ट हुए बिना ही मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है, इस प्रकार भी सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान का जघन्य अन्तर्मुहूर्त होता है । एक जीव की अपेक्षा सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। विशुद्धि को प्राप्त होने वाला कोई एक मिध्यादृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्व को प्राप्त होकर, वहाँ सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त काल रहकर, संक्लेशयुक्त होता हुआ मिथ्यात्व को प्राप्त हो जाता है, इसी प्रकार एक जीव आश्रयी तृतीय गुणस्थान का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही है। असंयतसम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव अतीत, अनागत और वर्तमान- इन तीनों कालों में पाए जाते हैं, अतः सभी जीवों की अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का काल अनादि-अनन्त है । एक जीव की अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों का काल अन्तर्मुहूर्त है । जिसने पहले असंयमसहित सम्यक्त्व में बहुत बार परिवर्तन किया है, ऐसा कोई एक मोहनीय कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता रखनेवाला मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, संयतासंयत अथवा प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान को प्राप्त करता है । वहाँ सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त काल रहकर मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, संयमासंयम अथवा अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त होता है। इस प्रकार एक जीव की अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का जघन्य अन्तर्मुहूर्त होता है। एक जीव की अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का उत्कृष्ट काल साधिक तेंतीस सागरोपम है। यह इस प्रकार है - एक प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत अथवा चारों उपशमकों में कोई एक उपशामक जीव एक समय कम तैंतीस सागरोपम परिमाण आयुष्य कर्म की स्थितिवाले अनुत्तरविमानवासी देवों में उत्पन्न हुआ, फिर यहाँ से च्युत होकर यह पूर्वकोटि परिमाण आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होकर वहाँ अन्तर्मुहूर्त परिमाण आयु के शेष रहने तक असंयतसम्यग्दृष्टि रहकर तत्पश्चात् अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त हुआ, पुनः प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में सहस्त्रों परिवर्तन करके क्षपक श्रेणी के योग्य विशुद्धि करके अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त हुआ, फिर अपूर्वकरणक्षपक अनिवृत्तिकरण क्षपक, सूक्ष्मसंपराय क्षपक, क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थान को प्राप्त कर सिद्धपद को प्राप्त हो, इस प्रकार इन नौ अन्तर्मुहूर्तों से कम और पूर्वकोटि वर्ष से अधिक तेंतीस सागरोपम असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का काल होता हैं। संयतासंयत गुणस्थानवर्ती जीव सभी जीवों की अपेक्षा, सभी कालों में होते है । एक जीव की अपेक्षा संयतासंयत गुणस्थान का न्य अन्तर्मुहूर्त मात्र है। एक जीव की अपेक्षा संयतासंयत गुणस्थान का उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि परिमाण है । प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालो में पाए जाते हैं। एक जीव की अपेक्षा प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीवों का जघन्य काल एक समय है। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान का उत्कृष्ट काल एक जीव की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त है। चारों उपशामक सभी जीवों की अपेक्षा, जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त हैं। एक जीव की अपेक्षा चारों उपशामकों का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अपूर्वकरण आदि चारों क्षपक और अयोगकेवली गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा, जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । सभी जीवों की अपेक्षा, चारों क्षपकों और अयोगकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा भी चारों क्षपकों और अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा चारों क्षपकों और अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{118} का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सभी जीवों की अपेक्षा, सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जिन सभी कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्व कोटि वर्ष परिमाण है। विशेष की अपेक्षा गतिमार्गणा में नरकगति में नारकियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव सभी कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा नारकी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा नारकी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव का उत्कृष्ट काल तेंतीस सागरोपम है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकी जीवों का सभी जीवों की अपेक्षा तथा एक जीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल सामान्यवत् है । नारकी असंयतसम्यग्दृष्टि गणस्थानवी जीव सभी जीवों की अपेक्षा, सभी कालों में पाए जाते हैं। एक जीव की अपेक्षा नारकी में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेंतीस सागरोपम है। प्रथम पृथ्वी से लेकर सातवीं पृथ्वी तक नारकियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, सभी कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा प्रथम पृथ्वी से लेकर सातवीं पृथ्वी तक के नारकी मिथ्यादृष्टि जीवों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त मात्र है । सातों नरक पृथ्वियों के नारकी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का उत्कृष्ट काल क्रमशः एक, तीन, सात, दस, सत्रह, बाईस और तेंतीस सागरोपम परिमाण हैं। यह उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट आयु के अनुसार जानना चाहिए। सातों पृथ्वियों के सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का, सभी जीवों की अपेक्षा, और एक जीव की अपेक्षा, जघन्य तथा उत्कृष्ट काल सामान्यवत् है । सातों पृथ्वियों में नारकी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव तीनों कालों में होते है। एक जीव की अपेक्षा सातों पृथ्वियों में नारकी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । सातों पृथ्वियों के नारकी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का उत्कृष्ट काल क्रमशः कुछ कम एक, तीन, सात, दस, सत्रह, बाईस और तेंतीस सागरोपम है। __ तिर्यंचगति में तिर्यंचों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव सभी कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा तिर्यंच में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा तिथंच में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परावर्तन परिमाणरूप अनन्तकाल है। सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंचों का जघन्य एवं उत्कृष्ट काल ओघ के समान जानना चाहिए । असंयतसम्यः स्थानवर्ती तिर्यंच जीव तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यचों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल तीन पल्योपम है । संयतासंयत गुणस्थानवर्ती तिर्यंच सभी कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा संयतासंयत गुणस्थानवर्ती तिर्यंच का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा संयतासंयत गुणस्थानवर्ती तिर्यंचों का काल कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष परिमाण है । पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमतियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा इन तीनों प्रकार के तिर्यंचों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्व से अधिक तीन पल्योपम है । तीनों प्रकार के तिर्यंचों में सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का काल ओघ के अनुसार जानना चाहिए। इन तीनों प्रकार के तिर्यंचों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव तीनों कालों में पाए जाते हैं। एक जीव की अपेक्षा इन तीनों प्रकार के पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अनुक्रम से तीन पल्योपम, साधिक तीन पल्योपम और कुछ कम तीन पल्योपम है । तीनों प्रकार के पंचेन्द्रिय संयतासंयत गुणस्थानवर्ती तिर्यंचों का काल ओघ के समरूप जानना चाहिए। पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त तिर्यंच सभी कालों में पाए जाते हैं। एक जीव की अपेक्षा पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त तिर्यंचों का काल जघन्य से क्षुद्रभवग्रहण परिमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त है। मनुष्यगति में मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा इन तीनों प्रकार के मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी मनुष्यों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्व से अधिक तीन पल्योपम परिमाण है । इन तीनों प्रकार के मनुष्यों में सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का काल सभी जीवों की Jain Education Intemational Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय......{119} अपेक्षा, जघन्य से एक समय है । इन तीन प्रकार के मनुष्यों में सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का सभी जीवों की अपेक्षा, उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इन तीन प्रकार के सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी मनुष्यों में एक जीव की अपेक्षा जघन्य काल एक समय है । इन तीनों प्रकार के सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी मनुष्यों में एक जीव की अपेक्षा उत्कृष्ट काल छह आवलि परिमाण है। तीनों प्रकार के सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती मनुष्यों में सभी जीवों की अपेक्षा, इस गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। इन तीनों प्रकार के सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी मनुष्यों में इस गुणस्थान का उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूर्त है । इन तीनों प्रकार के सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी मनुष्यों में इस गुणस्थान का एक जीव की अपेक्षा जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । इन तीनों प्रकार के सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी मनुष्यों में इस गुणस्थान का एक जीव की अपेक्षा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । ये तीनों प्रकार के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी मनुष्य, सभी जीवों की अपेक्षा, सभी कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा से इन तीनों प्रकार के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती मनुष्यों में इस गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा से इन तीनों प्रकार के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती मनुष्यों में इस गुणस्थान का उत्कृष्ट काल अनुक्रम से तीन पल्योपम, साधिक तीन पल्योपम और कुछ कम तीन पल्योपम होता है। संयतासंयत गुणस्थान से अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती उपर्युक्त तीनों प्रकार के मनुष्यों में इन सभी गुणस्थानों का जघन्य और उत्कृष्ट काल सामान्य के अनुसार ही जानना चाहिए। लब्धि अपर्याप्त मनुष्यों में सभी जीवों की अपेक्षा से इन गुणस्थानों का जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहण परिमाण होता है । लब्धि अपर्याप्त मनुष्यों में इन गुणस्थानों का उत्कृष्ट काल सभी जीवों की अपेक्षा, से पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण है । लब्धि अपर्याप्त मनुष्यों में इन गुणस्थानों का, एक जीव की अपेक्षा से जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहण परिमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त देवगति में देवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव, सभी जीवों की अपेक्षा से तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती देव में इस गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट काल इकतीस सागरोपम है । सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इन दोनों गुणस्थानों का काल सामान्य कथन के समरूप जानना चाहिए। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव सभी जीवों की अपेक्षा, सभी कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा से असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इस गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल तेंतीस सागरोपम है। भवनवासी देवों से लेकर सहस्रार कल्पवासी देवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव, सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा भवनवासी देवों से लेकर सहस्रार तक के मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इन दोनों गुणस्थानों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । इन सभी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इस गुणस्थान का उत्कृष्ट काल अनुक्रम से साधिक एक सागरोपम, साधिक एक पल्योपम, साधिक दो सागरोपम, साधिक सात सागरोपम, साधिक दस सागरोपम, साधिक चौदह सागरोपम, साधिक सोलह सागरोपम और साधिक अठारह सागरोपम है। भवनवासियों से लेकर सहस्रार कल्प तक के सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इन गुणस्थानों का काल सामान्य कथन के समरूप ही जानना चाहिए । आनत - प्राणत कल्प से लेकर नव ग्रैवेयक तक विमानवासी देवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव, सभी जीवों की अपेक्षा, सभी कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा से आनत और प्राणत कल्प से लेकर नव ग्रैवेयक तक के विमानवासी मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इन दोनों गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। इन विमानवासी देवों में इन गुणस्थानों का उत्कृष्ट काल अनुक्रम से बीस, बाईस, तेईस, चौवीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस सागरोपम है । इन ग्यारह स्थानों के सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इन गुणस्थानों का काल सामान्य कथन के अनुरूप ही जानना चाहिए। अनुदिशविमानवासी देवों में तथा विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित-इन चार अनुत्तर विमानवासी देवों में, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव, सभी जीवों की अपेक्षा, सभी कालों में होते हैं। नौ अनुदिश विमानों में एक जीव की अपेक्षा Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{120}-. उपर्युक्त देवों में इस गुणस्थान का जघन्य काल साधिक इकतीस सागरोपम और चारों अनुत्तर विमानों में साधिक बत्तीस सागरोपम है। नौ अनुदिश विमानों में अनुदिशविमानवासी देवों में इस अविरतसम्यग्दृष्टि का उत्कृष्ट काल बत्तीस सागरोपम तथा चारों अनुत्तरविमानवासी देवों में इस गुणस्थान का उत्कृष्ट काल तेंतीस सागरोपम है। सर्वार्थसिद्ध विमानवासी देवों में असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव, सभी जीवों की अपेक्षा, सभी कालों में होते हैं। सर्वार्थसिद्ध विमानवासी देवों में एक जीव की अपेक्षा अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का जघन्य और उत्कृष्ट काल तेंतीस सागरोपम है। इन्द्रिय मार्गणा में एकेन्द्रिय सभी जीवों की अपेक्षा, मिथ्यादृष्टि जीव सभी कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा एकेन्द्रिय जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहण परिमाण और उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गलपरावर्त रूप अनन्त काल है । बादर एकेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, सभी कालों में होते हैं । एक जीव की अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय जीवों का जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहण परिमाण है । एक जीव की अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय जीवों का उत्कृष्ट काल अंगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी परिमाण है । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव सभी जीवों की अपेक्षा सभी कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्महर्त है । एक जीव की अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है । बादर एकेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहण परिमाण है । एक जीव की अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त जीवों में इस गुणस्थान का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, सभी कालो में होते हैं । एक जीव की अपेक्षा सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहण परिमाण है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों में मिथ्यात्व गुणस्थान का उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक परिमाण है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, सभी कालो में होते हैं। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में मिथ्यात्व गुणस्थान का जघन्य काल और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, सभी कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त जीवों में मिथ्यात्व गुणस्थान का जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहण परिमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय तथा द्वीन्द्रिय पर्याप्त, त्रीन्द्रिय पर्याप्त और चतुरिन्द्रिय पर्याप्त जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त परिमाण है। एक जीव की अपेक्षा इन विकलेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में इस गुणस्थान का उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहण परिमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त परिमाण और उत्कृष्ट काल क्रम से पूर्वकोटि पृथक्त्व से अधिक हजार सागरोपम और सागरोपमशतपृथक्त्व परिमाण है । सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक के पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में उन गुणस्थानों का काल सामान्य से जैसा कथित है, वैसा ही जानना चाहिए। पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त जीवों में इन गुणस्थानों का काल द्वीन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त जीवों के काल के अनुसार जानना चाहिए। कायमार्गणा में पृथ्वीकाय, जलकाय, तेजस्काय और वायुकाय के जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा इन जीवों में मिथ्यात्व गुणस्थान का जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहण परिमाण और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक परिमाण है। बादर पृथ्वीकाय, बादरजलकाय, बादरतेजस्काय, बादरवायुकाय और बादर वनस्पतिकाय प्रत्येक शरीरी जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, सभी कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा इन जीवों के मिथ्यात्व गुणस्थान का जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहण परिमाण और उत्कृष्ट काल कर्म स्थिति अर्थात् दर्शनमोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति सत्तरकोडाकोडी सागरोपम परिमाण है । बादर Jain Education Intemational Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय.......{121} पृथ्वीकाय पर्याप्त, बादर जलकाय पर्याप्त, बादरअग्निकाय पर्याप्त, बादर वायुकाय पर्याप्त और बादर वनस्पतिकाय प्रत्येक शरीरी पर्याप्त जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, सभी कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा इन जीवों के मिथ्यात्व गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है । बादर पृथ्वीकाय लब्धि अपर्याप्त बादर जलकाय लब्धि अपर्याप्त, बादर तेजस्काय लब्धि अपर्याप्त, बादर वायुकाय लब्धि अपर्याप्त और बादर वनस्पतिकाय प्रत्येक शरीरी लब्धि अपर्याप्त जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा इन जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहण परिमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सूक्ष्म पृथ्वीकाय, सूक्ष्म जलकाय, सूक्ष्म वायुकाय, सूक्ष्म वनस्पतिकाय, सूक्ष्म निगोद जीव और उनके ही पर्याप्त तथा अपर्याप्त जीवों का काल सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों के काल के समान जानना चाहिए। वनस्पतिकायिक जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का काल एकेन्द्रिय जीवों के काल के समान है । निगोद के जीव, सभी जीवों की अपेक्षा. तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा निगोद जीवों में मिथ्यात्व गुणस्थान का जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहण परिमाण और उत्कृष्ट काल ढाई पुद्गलपरावर्तन परिमाण है । बादर निगोद जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का काल बादर पृथ्वीकाय के जीवों के समान है । त्रसकाय और त्रसकाय पर्याप्त में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा त्रसकाय और त्रसकाय पर्याप्त जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । त्रसकाय मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व से अधिक दो हजार सागरोपम और त्रसकाय पर्याप्त जीवों का उत्कृष्ट काल पूरे दो हजार सागरोपम परिमाण है । सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक त्रसकाय और त्रसकाय पर्याप्त जीवों का काल सामान्य कथन के समरूप जानना चाहिए। त्रसकाय लब्धि अपर्याप्त जीवों का काल पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त जीवों के समान है। योगमार्गणा में पाचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवों में मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा उपर्युक्त गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का जघन्य काल एक समय है । एक जीव की अपेक्षा पांचों मनोयोगी तथा पांचों वचनयोगी मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों का काल सामान्य कथन के समरूप जानना चाहिए। पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव सभी जीवों की अपेक्षा, एक समय मात्र होते है। पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का उत्कृष्ट काल पल्योपम का असंख्यातवें भाग हैं। एक जीव की अपेक्षा पांचों मनोयोग और पांचों वचन योग वाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का जघन्य काल एक समय है । एक जीव की अपेक्षा पांचों मनोयोग और पांचों वचनयोगवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी, चारों उपशामक और क्षपक सभी जीवों की अपेक्षा, जघन्य से एक समय होते है । सभी जीवों की अपेक्षा, इन जीवों का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा इनका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । काययोगियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा काययोगी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों का उत्कृष्ट काल अनन्त काल रूप असंख्यात पुद्गल परावर्तन है । सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक काययोगियों का काल मनोयोगियों के समान हैं। औदारिककाययोगियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा औदारिककाययोगी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक औदारिककाययोगियों का काल मनोयोगी के समान है। औदारिकमिश्रकाययोगियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में होते है। एक जीव की अपेक्षा औदारिकमिश्र काय योगी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का जघन्य काल तीन समय कम Jain Education Intemational Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा... तृतीय अध्याय........{122) क्षुद्रभवग्रहण परिमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । औदारिक मिश्रकाययोगी सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिणाम हैं। एक जीव की अपेक्षा औदारिक मिश्रकाययोगी सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल एक समय कम छः आवलि परिमाण है। ___ औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव सभी जीवों की अपेक्षा, जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त मात्र हैं। एक जीव की अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का जघन्य काल 3 । एक जीव की अपेक्षा औदारिक मिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त मात्र है । औदारिक मिश्रकाययोगी सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा इस गुणस्थान का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । एक जीव की अपेक्षा औदारिक मिश्रकाययोगी सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव का जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय मात्र है। वैक्रियकाययोगी मिथ्यादृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा इन जीवों का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । वैक्रियकाययोगी सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का काल सामान्य के समरूप जानना चाहिए । वैक्रियकाययोगी में सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का काल मनोयोगियो के समान हैं । वैक्रियकाययोगी जीवों में मिथ्यादृष्टि और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थानों का काल, सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। सभी जीवों की अपेक्षा, वैक्रियमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का उत्कृष्ट काल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है। एक जीव की अपेक्षा वैक्रियमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । वैक्रियमिश्रकाययोगी में सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का काल, सभी जीवों की अपेक्षा, जघन्यतः एक समय मात्र है। वैक्रियमिश्रकाययोगी सास्वादनसम्यग्दृष्टि गणस्थान का उत्कष्ट काल पल्योपम का असंख्यातवां भाग परिमाण है । एक जीव की अपेक्षा इन गणस्थानों का जघन्यकाल एक समय है। वैक्रियमिश्रकाययोगियों में सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का उत्कृष्ट काल एक समय कम छः आवलि परिमाण है । आहारक काययोगियों में प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों में सभी जीवों की अपेक्षा इस गणस्थान का जघन्य काल एक समय है। आहारककाययोगी प्रमत्तसंयत गणस्थान उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा, आहारककाययोगी प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का जघन्य काल एक समय है। एक जीव की अपेक्षा आहारककाययोगी प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का उत्कृष्ट काल अन्तर्महर्त है। आहारकमिश्रकाययोगी प्रमत्तसंयत गणस्थानवी जीवों में इस गणस्थान का सभी जीवों अन्तर्महर्त और उत्कष्ट काल भी अन्तर्महर्त है। एक जीव की अपेक्षा. आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में इस गणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूर्त है। कार्मणकाययोगियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा कार्मणकाययोगी जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का जघन्य काल एक समय है। एक जीव की अपेक्षा कार्मणकाययोगी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का उत्कृष्ट काल तीन समय है। कार्मणकाययोग में सास्वादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का काल, सभी जीवों की अपेक्षा, जघन्यतः एक समय और उत्कष्ट काल आवलि के असंख्यातवें भाग परिमाण है । एक जीव की अपेक्षा इन जीवों में इन गणस्थानों का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है । कार्मणकाययोगी सयोगीकेवली गणस्थानवी जीवों में सभी जीवों की अपेक्षा इस गुणस्थान का जघन्य काल तीन समय है । सभी जीवों की अपेक्षा कार्मणकाययोगी सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । एक जीव की अपेक्षा कार्मणकाययोगी सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का जघन्य और उत्कृष्ट काल तीन समय मात्र है । वेदमार्गणा में स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्योपमशतपृथक्त्व है । स्त्रीवेदी सास्वादनसम्यग्दृष्टि Jain Education Intemational Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{123} गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का काल सामान्यतः जो कहा गया है, उसी के समरूप जानना चाहिए। स्त्रीवेदी सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का काल भी सामान्य के अनुरूप है । स्त्रीवेदियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा स्त्रीवेद में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा स्त्रीवेद में अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का उत्कृष्ट काल कुछ कम (तीन अन्तर्मुहूर्त कम) पचपन पल्योपम परिमाण है । संयतासंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक स्त्रीवेद में इन गुणस्थानों का काल सामान्यतः जैसा बताया गया है, उसी के अनुरूप जानना चाहिए । पुरुषवेद में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा पुरुषवेद में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा पुरुषवेद में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का उत्कृष्ट काल सागरोपमशतपृथक्त्व है। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में पुरुषवेदी जीवों का काल सामान्य कथन के अनुसार है । नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में होते हैं । एक जीव की अपेक्षा नपुंसकवेद में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती नपुंसकवेदी जीवों का उत्कृष्ट काल अनन्तकालात्मक असंख्यात पुद्गलपरावर्तन परिमाण है। नपुंसकवेदी सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का काल सामान्य कथन के अनुरूप है । नपुंसकवेदी सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का काल सामान्य कथन के समरूप है । नपुंसकवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में पाए जाते हैं। एक जीव की अपेक्षा नपुंसकवेद में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा नपुंसकवेद में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का उत्कृष्ट काल कुछ कम (छः अन्तर्मुहूर्त कम) तेंतीस सागरोपम है। संयतासंयत से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक नपुंसकवेद में इन गुणस्थानों का काल सामान्य से जैसा कहा गया है, उसी के समरूप है । अपगतवेदी जीवों में अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के अवेद भाग से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक का काल सामान्य कथन के समरूप है। कषायमार्गणा में क्रोधकषायवाले, मानकषायवाले, मायाकषायवाले और लोभकषायवाले जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के गुणस्थानों का काल मनोयोगियों के समान है। क्रोध, मान और माया - इन तीनों कषायों की अपेक्षा आठवें और नवें गुणस्थानवर्ती उपशमक जीवों में सभी जीवों की अपेक्षा, इन गुणस्थानों का जघन्य काल एक समय वों की अपेक्षा, इन गणस्थानों का उत्कष्ट काल अन्तर्महर्त है । एक जीव की अपेक्षा इन जीवों में इन गणस्थानों का जघन्य काल एक समय है, जो मरण की अपेक्षा है । एक जीव की अपेक्षा इनका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि कषायों का उदय अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक ही रहता है, इसके पश्चात् नियम से नष्ट होता है। क्षपकों में क्रोध, मान और मायाकषायवाले अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण-इन दो गुणस्थानवर्ती क्षपक तथा लोभकषायवाले अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसंपराय-इन तीन गुणस्थानवर्ती क्षपक, सभी जीवों की अपेक्षा, जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक होते है। सभी जीवों की अपेक्षा, इन क्षपक जीवों में इन गुणस्थानों का उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा भी इन क्षपक जीवों में इन गुणस्थानों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूर्त हैं। अकषायी अर्थात् कषाय रहित अन्तिम चार गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का काल सामान्य कथन के अनुसार है। ज्ञानमार्गणा में मति-अज्ञानवाले और श्रुत-अज्ञानवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का काल सामान्य कथन के समरूप है। मति-अज्ञानवाले और श्रुत-अज्ञानवाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का काल सामान्य के समान है। विभंगज्ञानियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा विभंगज्ञानवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेंतीस सागरोपम है । विभंगज्ञानवाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का काल सामान्य के अनुसार है । आभिनिबोधिकज्ञानवाले, श्रुतज्ञानवाले और अवधिज्ञानवाले जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर Jain Education Intemational Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय.......{124} क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक के जीवों में इन-इन गुणस्थानों का काल सामान्य के समान है । मनःपर्यवज्ञानियों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक का काल सामान्य के समान है। केवलज्ञानियों में सयोगीकेवली और अयोगीकवली गुणस्थान का काल सामान्य के समरूप है। संयममार्गणा में संयतों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक का काल सामान्य के अनुरूप है । सामायिक और छेदोपस्थापनीय शुद्धि संयतों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक का काल सामान्य के अनुरूप है । परिहारविशद्धि संयतों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का काल सामान्य कथन के समरूप है। सूक्ष्मसंपरायशुद्धि संयतो में सूक्ष्मसंपरायशुद्धि संयत उपशमक और क्षपक जीवों में इस गुणस्थान का काल सामान्य कथन के अनुसार है। यथाख्यातविहारशुद्धि संयतो में अन्तिम चार गुणस्थानों का काल सामान्य कथन के अनुरूप है। संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का काल सामान्य कथन के समरूप है । असंयत जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसमयग्दृष्टि गुणस्थान तक का काल सामान्य कथन के समान है। दर्शनमार्गणा में चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा चक्षुदर्शनी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल दो हजार सागरोपम है । सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक के गुणस्थानवर्ती चक्षुदर्शनी जीवों में इन गुणस्थानों का काल सामान्य के समरूप है । अचक्षुदर्शनियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक के गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का काल सामान्य कथन के समान है । अवधिदर्शनी जीवों में इन गुणस्थानों का काल अवधिज्ञानियों के समान है । केवलदर्शनी जीवों में गुणस्थानों के काल का कथन केवलज्ञानियों के समान है। लेश्यामार्गणा में कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कपोतलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा तीनों अशुभ लेश्यावालों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल क्रमशः साधिक (दो अन्तर्मुहूर्त से अधिक) तेंतीस सागरोपम या साधिक सत्रह सागरोपम या साधिक सात सागरोपम परिमाण है । तीनों अशुभ लेश्यावाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का काल सामान्य कथन के अनुसार है। तीनों अशुभ लेश्यावाले जीवों में सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का काल सामान्य कथन के अनुरूप है । तीनों अशुभ लेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा तीनों अशुभ लेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अनुक्रम से कुछ कम तेंतीस सागरोपम, सत्रह सागरोपम और सात सागरोपम है । तेजोलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवों में मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, सभी कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा तेजोलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ अधिक दो सागरोपम और पद्मलेश्यावाले उन्हीं जीवों में इन का उत्कृष्ट काल कुछ अधिक अठारह सागरोपम है । तेजोलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस का काल जो सामान्य से बताया गया है, उसी के अनुसार है । तेजो और पद्मलेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का जघन्य काल जो सामान्य से कथन किया गया है, उसी के समरूप है। तेजो और पद्मलेश्यावाले संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, सभी कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा तेजो और पद्मलेश्यावाले पंचम, षष्ठ और सप्तम गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा इन जीवों में मिथ्यात्व गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागरोपम है। शुक्ल लेश्यावाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों में इस गुणस्थान का काल सामान्य कथन के अनुसार है। शुक्ललेश्यावाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{125} जीवों में इस गुणस्थान का काल जो सामान्य से कहा गया है, उसी के समरूप है। शुक्ललेश्यावाले असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों में इस गुणस्थान का काल सामान्य के अनुरूप है । शुक्ललेश्यावाले संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव, सभी जीव की अपेक्षा, तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा शुक्ललेश्यावाले पाचवें, छठे और सातवें गुणस्थानवर्ती जीवों में इस गुणस्थान का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । शुक्ललेश्यावाले चारों उपशमक, चारों क्षपक और सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का काल सामान्य कथन के अनुसार है । भव्यमार्गणा में भव्यसिद्धिक मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा भव्यसिद्धिक मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का काल अनादि-सान्त और सादि-सान्त है । इनमें सादि-सान्त के मिथ्यात्व का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन है। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक उपर्युक्त भव्यसिद्धिक जीवों में इन-इन गुणस्थानों का काल जो सामान्य से कहा गया है, उसी के अनुसार है। अभव्यसिद्धिक जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा अभव्यसिद्धिक जीवों में मिथ्यात्व का काल अनादि-अनन्त है। सम्यक्त्वमार्गणा में सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टिवालों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणास्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का काल सामान्य कथन के अनुरूप है। वेदकसम्यग्दृष्टिवालों में असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के गुणस्थानों का काल, जो सामान्य से कहा गया है, उसीके समरूप है। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों में इन दोनों गुणस्थानों का काल सभी जीवों की अपेक्षा, जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः पल्योपम का असंख्यातवां भाग है । एक जीव की अपेक्षा उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूर्त है । प्रमत्तसंयत से लेकर उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में इन-इन गुणस्थानों का काल सभी जीवों की अपेक्षा, जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा इन छहों गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में इन छहों गुणस्थानों का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों में इस गुणस्थान का काल सामान्यतः जो कहा गया है, उसीके अनुसार है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का काल जो सामान्य से बताया गया है, उसी के समरूप है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का काल भी जो सामान्य से कथन किया है, उसी के अनुरूप है । संज्ञीमार्गणा में संज्ञी जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, सभी कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती संज्ञी जीवों में इस गुणस्थान का उत्कृष्ट काल सागरोपमशतपृथक्त्व मात्र है। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक के गुणस्थानवर्ती संज्ञी जीवों में इन-इन गुणस्थानों का काल, सामान्य से जैसा कहा गया है, उसीके अनुसार है। असंज्ञी मिथ्यादृष्टि जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा असंज्ञी जीवों में मिथ्यात्व गुणस्थान का जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहण परिमाण और उत्कृष्ट काल अनन्तकालात्मक असंख्यात पुद्गल परावर्तन परिमाण है। पुष्पदंत एवं भूतबली आणीत षट्खण्डागम के जीवस्थान नामक आथम खण्ड के क्षेत्रानुगम नामक तृतीय द्वार'८३ में सर्वआथम बताया गया है कि क्षेत्रानुगम की अपेक्षा निर्देश दो आकार के है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। आदेश अर्थात् विशेष दृष्टि से गतिमार्गणा में नरकगति में नारकियों में मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा से अन्तरकाल नहीं होता है, वे निरन्तर हैं। एक जीव की अपेक्षा प्रथम और चतुर्थ गुणस्थानवर्ती नारकियों में इन दोनों गुणस्थानों का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त होता है । एक जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि और अंसयतसम्यग्दृष्टि १८३ षट्खण्डागम, पृ १६६ से २१५, प्रकाशनः श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण Jain Education Intemational Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{126) गुणस्थानवर्ती नारकियों में इन गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेंतीस सागरोपम है । सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकियों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा, जघन्यतः एक समय मात्र है। सभी जीवों की अपेक्षा, द्वितीय और तृतीय गुणस्थानवर्ती नारकियों में इन गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र है। एक जीव की अपेक्षा द्वितीय और तृतीय गुणस्थानवर्ती नारकियों में इन गुणस्थानों का जघन्य अन्तरकाल अनुक्रम से पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकियों में इन गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेंतीस सागरोपम है । प्रथम पृथ्वी से लेकर सातवीं पृथ्वी तक के नारकियों में मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं होता है, वे निरन्तर हैं। एक जीव की अपेक्षा सातों पृथ्वियों के नारकियों में प्रथम और चतुर्थ गुणस्थानों का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा सातों पृथ्वियों के नारकियों में पहले और चौथे इन दोनों गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल क्रमशः कुछ क सात, दस, सत्रह, बाईस और तेंतीस सागरोपम है । सातों ही पृथ्वियों के सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गु नारकियों में इन दोनों गुणस्थानों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा से जघन्यतः एक समय है । सभी जीवों की अपेक्षा, सातों ही पृथ्वियों के द्वितीय और तृतीय गुणस्थानवर्ती नारकियों में इन गणस्थानों का उत्कष्ट अन्तरकाल पल्योपम भाग होता है। एक जीव की अपेक्षा सातों पृथ्वियों के द्वितीय और ततीय गणस्थानवर्ती नारकियों में इन गणस्थानों का जघन्य अन्तरकाल क्रमशः पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्महर्त है। एक जीव की अपेक्षा सातों पृथ्वियों में इन दोनों गुणस्थानवी नारकियों में इन गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल क्रमशः कुछ कम एक, तीन, सात, दस, सत्रह, बाईस और तेंतीस सागरोपम होता है। तिर्यंचगति में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंचों में इस गुणस्थान का, सभी जीवों की अपेक्षा, अन्तरकाल नहीं होता है, वे निरन्तर रहते हैं। एक जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंचों में इन गुणस्थानों का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंचों में इसका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्योपम है। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से संयतासंयत गुणस्थान तक के गुणस्थानवर्ती तिर्यंचों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल, सामान्यतः जैसा बताया गया है, उसी के अनुसार समझना चाहिए । पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियों में मिथ्यादृष्टि गणस्थान का सभी जीवों की अपेक्षा. अन्तरकाल नहीं होता है। एक जीव की अपेक्षा मिथ्यादष्टि गणस्थानवर्ती इन तिर्यंचों का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती इन तिर्यंचों में इस गुणस्थान का उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्योपम है । सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती इन तीनों प्र इन गुणस्थानों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा, जघन्यतः एक समय है। सभी जीवों की अपेक्षा, सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती इन तीनों प्रकार के तिर्यंचों में इन दोनों गुणस्थान का उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है । एक जीव की अपेक्षा, सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती इन तीन प्रकार के तिर्यंच जीवों में इन दोनों गुणस्थानों का जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा द्वितीय और तृतीय गुणस्थानवर्ती इन तीनों प्रकार के तिर्यंचों में इन गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटि पृथक्त्व से कुछ अधिक, तीन पल्योपम है । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती इन तीन प्रकार के तिर्यंचों में इस गुणस्थान का, सभी जीवों की अपेक्षा, अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर रहते हैं। एक जीव की अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती इन तीन प्रकार के तिर्यंचों में इस गुणस्थान का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त परिमाण है। एक जीव की अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती इन तीनों प्रकार के तिर्यंचों में इस गुणस्थान का उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटि पृथक्त्व से अधिक तीन पल्योपम है । सभी जीवों की अपेक्षा, संयतासंयत गुणस्थानवर्ती इन तीन प्रकार के तिर्यंचों में इस गुणस्थान का अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर रहते हैं। एक जीव की अपेक्षा संयतासंयत गुणस्थानवर्ती इन तीनों प्रकार के तिर्यंचों में इस गुणस्थान का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की Jain Education Intemational Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{127} अपेक्षा संयतासंयत गुणस्थानवर्ती इन तीनों प्रकार के तिर्यंचों में इस गुणस्थान का उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटि वर्ष पृथक्त्व है। गति की अपेक्षा पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त तिर्यंचों में सभी जीवों की अपेक्षा, अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर होते हैं । एक जीव की अपेक्षा पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त तिर्यंचों का जघन्य अन्तरकाल क्षुद्रभवग्रहण है । एक जीव की अपेक्षा पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त तिर्यंच का उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त कालस्वरूप असंख्यात पुद्गल परावर्तन हैं। यह अन्तर गति की अपेक्षा से है। गुणस्थान की अपेक्षा से लब्धि अपर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का एक तथा सभी जीवों की अपेक्षा से जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकार का अन्तर नहीं है, वे निरन्तर हैं । मनुष्यगति में मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर रहते हैं। एक जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती इन तीनों प्रकार के मनुष्यों में इस मिथ्यात्व गुणस्थान का अन्तरकाल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती इन तीनों प्रकार के मनुष्यों में मिथ्यात्व का उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्योपम है। सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती इन तीनों प्रकार के मनुष्यों में इन दोनों गुणस्थानों का अन्तरकाल, सभी जीवों की अपेक्षा, जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है । एक जीव की अपेक्षा सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती इन तीनों प्रकार के मनुष्यों में इन गुणस्थानों का जघन्य से अन्तरकाल क्रमशः पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा द्वितीय और तृतीय गुणस्थानवर्ती इन तीनों प्रकार के मनुष्यों में इन दोनों गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिवर्षपृथक्त्व से अधिक तीन पल्योपम है। सभी जीवों की अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती इन तीनों प्रकार के मनुष्यों में इस गुणस्थान का अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर होते हैं । एक जीव की अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती इन तीनों प्रकार के मनुष्यों में इस गुणस्थान का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती इन तीनों प्रकार के मनुष्यों में इस गुणस्थान का उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिवर्षपृथक्त्व से अधिक तीन पल्योपम है। सभी जीवों की अपेक्षा संयतासंयत गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत तक के गुणस्थानवर्ती इन तीनों प्रकार के मनुष्यों में इन सभी गुणस्थानों का अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं। एक जीव की अपेक्षा इन तीनों गुणस्थानवर्ती उपर्युक्त मनुष्यों का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा पाँचवें, छठे और सातवें गुणस्थानवर्ती-इन तीन आकार के मनुष्यों में इनका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिवर्षपृथक्त्व है। चारों उपशमकों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा, जघन्य से एक समय है। सभी जीवों की अपेक्षा, इन तीन प्रकार के मनुष्यों में चारों उपशमकों में इन चारों गुणस्थानों का अन्तरकाल उत्कृष्ट से वर्षपृथक्त्व है। एक जीव की अपेक्षा इन तीनों आकार के मनुष्यों में चारों उपशमकों में इन गुणस्थानों का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा इन तीनों प्रकार के मनुष्यों में चारों उपशमकों का उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिवर्षपृथक्त्व है। सभी जीवों की अपेक्षा इन तीनों प्रकार के मनुष्यों में चारों क्षपक और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में इन पाँचों गुणस्थानों का जघन्य अन्तरकाल एक समय है । सभी जीवों की अपेक्षा मनुष्य और मनुष्य पर्याप्तों में चारों क्षपक और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में इन पाँचों गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल छः मास तथा मनुष्यनियों में उनका उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । एक जीव की अपेक्षा क्षपकश्रेणी में इन गुणस्थानों में अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर होते हैं । सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती का अन्तरकाल जैसा सामान्य से बताया गया है, वैसा ही है। लब्धि अपर्याप्त मनुष्यों में सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल जघन्य से एक समय है। लब्धि अपर्याप्त मनुष्यों में उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है। एक जीव की अपेक्षा लब्धिअपर्याप्त मनुष्यों में जघन्य अन्तरकाल क्षुद्रभवग्रहण और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात पुदगल परावर्तन है। यह अन्तरकाल गति की अपेक्षा से है। गुणस्थान की अपेक्षा से दोनों ही प्रकार के मनुष्यों का अन्तरकाल नहीं है । देवगति में मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल, सभी जीवों की अपेक्षा नहीं है, वे निरन्तर रहते हैं। एक जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इन गुणस्थानों Jain Education Intemational Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय.......{128} का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इन दोनों गणस्थानों का उत्कष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागरोपम परिमाण है। सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादष्टि गणस्थानवर्ती देवों में इन दोनों गुणस्थानों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा जघन्यतः एक समय है। सभी जीवों की अपेक्षा सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इन गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल पस्योपम का असंख्यातवाँ भाग है। एक जीव की अपेक्षा सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इन दोनों गुणस्थानों का जघन्य अन्तरकाल क्रमशः पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा द्वितीय और तृतीय गुणस्थानवर्ती देवों में इन दोनों का उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागरोपम है। भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म, ईशान से लेकर सहस्रार कल्प तक के कल्पवासी मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इन दोनों गुणस्थानों का सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर रहते हैं । एक जीव की अपेक्षा उपर्युक्त मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इन दोनों गुणस्थानों का जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा उपर्युक्त देवों में इनका उत्कृष्ट अन्तरकाल क्रमशः एक सागरोपम, एक पल्योपम, साधिक दो, सात, दस, चौदह, सोलह, अठारह सागरोपम है । उपर्युक्त सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल जैसा सामान्य से कहा गया है वैसा ही है। आनत कल्प से लेकर नव ग्रैवेयक पर्यन्त विमानवासी देवों में मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इन दोनों गुणस्थानों का, सभी जीवों की अपेक्षा, अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं। एक जीव की अपेक्षा इनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा आनत-प्राणत, आरण-अच्युत कल्प और नव ग्रैवेयकवासी देवों में मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इन गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम बीस, बाईस, तेईस, चौबीस, पच्चीस, छब्बीस, सत्ताईस, अठाईस, उनतीस, तीस और इकतीस सागरोपम परिमाण है। आनतादि देवों में सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल जैसा सामान्य से कथन किया है, वैसा ही है। अनुदिशों से लेकर सर्वार्थसिद्ध तक के विमानवासी देवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में इस गुणस्थान का सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा उपर्युक्त देवों में इस गुणस्थान में अन्तरकाल नहीं है, वह निरन्तर रहता है। तात्पर्य यह है कि अनुदिश आदि विमानवासी देवों में एक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान ही होता है। इन्द्रियमार्गणा में सभी जीवों की अपेक्षा एकेन्द्रिय जीवों का अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा एकेन्द्रियों का जघन्य अन्तरकाल क्षुद्रभवग्रहण परिमाण है। एक जीव की अपेक्षा एकेन्द्रियों का उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व से अधिक दो हजार सागरोपम है। बादर एकेन्द्रियों का, सभी जीवों की अपेक्षा, अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं। एक जीव की अपेक्षा बादर एकेन्द्रियों का जघन्य अन्तरकाल क्षुद्रभवग्रहण परिमाण है। एक जीव की अपेक्षा बादर एकेन्द्रियों का उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोक परिमाण है। इसी प्रकार से बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त जीवों का भी अन्तरकाल जानना चाहिए। सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त जीवों का सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा इन एकेन्द्रिय जीवों का जघन्य अन्तर काल क्षुद्रभवग्रहण परिमाण होता है। एक जीव की अपेक्षा तीनों सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों का उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुल के असंख्यातवें भाग असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल परिमाण है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और उन्हीं के पर्याप्त तथा लब्धि अपर्याप्त जीवों का, सभी जीवों की अपेक्षा, अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा इन द्वीन्द्रियादि जीवों का जघन्य अन्तरकाल क्षद्रभवग्रहण परिमाण है। एक जीव की अपेक्षा इन द्वीन्द्रियादि जीवों का उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त कालात्मक असंख्यात पुद्गल परावर्तन है । एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त और पर्याप्त, सभी नियम से मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती ही होते हैं । पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल, जैसा सामान्यतः कथन किया है, वैसा ही है। पंचेन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय पर्याप्त सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इन दोनों गुणस्थानों का जघन्य अन्तरकाल, Jain Education Intemational Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{129) सभी जीवों की अपेक्षा से एक समय है । सभी जीवों की अपेक्षा द्वितीय और तृतीय गुणस्थानवर्ती पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में इन गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है। एक जीव की अपेक्षा दूसरे और तीसरे गुणस्थानवर्ती पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में इन दोनों गुणस्थानों का जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा दूसरे और तीसरे गुणस्थानवर्ती पंचेन्द्रियों में इन गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तर, पूर्वकोटिवर्षपृथक्त्व से अधिक, एक हजार सागरोपम तथा पंचेन्द्रिय पर्याप्तों का उत्कृष्ट अन्तरकाल सागरोपम शतपृथक्त्व है। असयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येक गुणस्थावर्ती पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में इन तीनों गुणस्थानों का सभी जीवों की अपेक्षा से अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर रहते हैं। एक जीव की अपेक्षा उपर्युक्त गुणस्थानवर्ती पंचेन्द्रिय जीवों में इन गुणस्थानों का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा इन चारों गुणस्थानवर्ती पंचेन्द्रिय जीवों में इन चारों गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिवर्षपृथक्त्व से अधिक हजार सागरोपम तथा पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों का उत्कृष्ट अन्तरकाल शतपृथक्त्व सागरोपम है। सभी जीवों की अपेक्षा पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में चारों उपशमक गुणस्थानों का अन्तरकाल जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है। एक जीव की अपेक्षा इन्हीं चारों गुणस्थानवर्ती उपशमकों में इनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त हैं। एक जीव की अपेक्षा पंचेन्द्रियों में चारों उपशमकों में इन चारों गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तर काल पूर्वकोटिवर्षपृथक्त्व से अधिक हजार सागरोपम और पंचेन्द्रिय पर्याप्तों में इनका उत्कृष्ट अन्तरकाल सागरोपमशतपृथक्त्व है। पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में चारों क्षपक और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कथन किया गया है, वैसा ही है। सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती इन जीवों में इस गुणस्थान का अन्तरकाल नहीं है। पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त जीवों का अन्तरकाल द्वीन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त के समान है । यह पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्त जीवों का अन्तरकाल इन्द्रियमार्गणा के आश्रय से कथित है । गुणस्थान की अपेक्षा दोनों प्रकार से अन्तर नहीं होता है, वे निरन्तर हैं । कायमार्गणा में पृथ्वीकाय, जलकाय, तेजस्काय, वायुकाय इनके बादर और सूक्ष्म तथा उन सबके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों में मिथ्यात्व का सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं हैं। एक जीव की अपेक्षा उपर्युक्त पृथ्वीकाय आदि जीवों में मिथ्यात्व का जघन्य अन्तरकाल क्षुद्रभवग्रहण परिमाण है। एक जीव की अपेक्षा उपर्युक्त पृथ्वीकाय आदि जीवों में मिथ्यात्व गुणस्थान का उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त कालात्मक असंख्यात पुद्गल परावर्तन है । वनस्पतिकाय निगोद जीव उनके बादर और सूक्ष्म तथा उन सबके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों का सभी जीवों की अपेक्षा से अन्तरकाल नहीं हैं, वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा उपर्युक्त जीवों का जघन्य अन्तरकाल क्षुद्रभवग्रहण है। एकजीव की अपेक्षा उन्हीं जीवों का उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोक है। बादर वनस्पतिकाय प्रत्येक शरीर उनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है, वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा उन्हीं का जघन्य अन्तरकाल क्षुद्रभवग्रहण है । एक जीव की अपेक्षा उन्हीं जीवों का उत्कृष्ट अन्तरकाल ढाई पुद्गल परावर्तन परिमाण है । ये सब नियम से मिथ्यादृष्टि ही है । त्रसकाय और त्रसकाय पर्याप्त जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में मिथ्यात्व गुणस्थान का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कथन किया गया है, वैसा ही है । त्रसकाय और त्रसकाय पर्याप्त सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा, जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है । एक जीव की अपेक्षा द्वितीय और तृतीय गुणस्थानवर्ती त्रसकाय और त्रसकाय पर्याप्त जीवों में इन गुणस्थानों का जघन्य अन्तरकाल क्रमशः पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा उपर्युक्त जीवों में इन गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल क्रम से पूर्वकोटिपृथक्त्व से अधिक दो हजार सागरोपम और कुछ कम दो हजार सागरोपम परिमाण है । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत तक के गुणस्थानवर्ती त्रसकाय और त्रसकाय पर्याप्त जीवों में इस गुणस्थान का अन्तरकाल, सभी जीवों की अपेक्षा नहीं है, वे निरन्तर रहते हैं। एक जीव की अपेक्षा उपर्युक्त असंयतसम्यग्दृष्टि आदि जीवों में इनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । असंयतादि चारों गुणस्थानवर्ती त्रसकाय और त्रसकाय पर्याप्त जीवों में इन चारों गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल क्रमशः पूर्वकोटिवर्षपृथक्त्व से अधिक दो हजार Jain Education Intemational Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{130} सागरोपम और कुछ कम दो हजार सागरोपम है । त्रसकाय और त्रसकाय पर्याप्त अपूर्वकरण से लेकर उपशान्तकषाय चारों उपशमकों में चारों गुणस्थानों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है । एक जीव की अपेक्षा उपर्युक्त चारों उपशमकों में इन चारों का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा त्रसकाय जीवों में, उन उपशमकों में, इन चारों गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिवर्षपृथक्त्व से अधिक दो हजार सागरोपम तथा त्रसकाय पर्याप्तों में इन्हीं का उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो हजार सागरोपम है। त्रसकाय और त्रसकाय पर्याप्त जीवों में चारों क्षपक और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है । त्रसकाय और त्रसकाय पर्याप्तों में सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का अन्तरकाल, सामान्य से जैसा कहा गया है, वैसा ही है। त्रसकाय लब्धि अपर्याप्तों में इस काय का अन्तरकाल पंचेन्द्रिय लब्धि अपर्याप्तों के समान है, यह अन्तर काल की अपेक्षा है। इस गुणस्थान की अपेक्षा से दोनों ही प्रकार से अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं। योगमार्गणा में पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी और औदारिक काययोगियों में मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर है। उपर्युक्त योगवाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का जघन्य अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा एक समय है । एक जीव की अपेक्षा उपर्युक्त योगवाले द्वितीय और तृतीय गुणस्थानवी जीवों में इन दोनों गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है । एक जीव की अपेक्षा उपर्युक्त योगवाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इनका अन्तर नहीं है, वे निरन्तर हैं । उपर्युक्त योगवाले चारों उपशमकों में इन गुणस्थानों का सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है । एक जीव की अपेक्षा इन गुणस्थानों का अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर है । उपर्युक्त योगवाले चारों क्षपकों में इन चारों गुणस्थानों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कथित है, वैसा ही है । औदारिकमिश्रकाययोगियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा नहीं है, वे निरन्तर हैं । औदारिकमिश्रकाययोगी सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इन दोनों गुणस्थानों का सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वह निरन्तर हैं। एक जीव की अपेक्षा भी इसका अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय है । सभी जीवों की अपेक्षा औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इसका उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व परिमाण है । एक जीव की अपेक्षा औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का अन्तरकाल नहीं है, वह निरन्तर हैं । औदारिकमिश्रकाययोगी सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का जघन्य अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा एक समय है । विशेष यह है कि कषाय समुद्घात से रहित केवलियों का कम से कम एक समय के लिए अभाव पाया जाता है । सभी जीवों की अपेक्षा औदारिकमिश्रकाययोगी केवलियों का उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व परिमाण है । एक जीव की अपेक्षा औदारिकमिश्रकाययोगी केवली जिन इस गुणस्थान का अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं। वैक्रियकाययोगियों में आदि के चारों गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल मनोयोगियों के समान है । वैक्रियमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में मिथ्यात्व गुणस्थान का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय है । सभी जीवों की अपेक्षा वैक्रियमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में मिथ्यात्व गुणस्थान का उत्कृष्ट अन्तरकाल बारह मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा वैक्रियमिश्रकाययोगी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का अन्तरकाल नहीं है, यह निरन्तर है । वैक्रियमिश्रकाययोगी सास्वादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इन दोनों गुणस्थानों का अन्तरकाल औदारिकमिश्रकाययोगियों के समान है । आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का जघन्य अन्तरकाल, सभी जीवों की अपेक्षा, एक समय है, सभी जीवों की अपेक्षा इसका उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व परिमाण है । एक जीव की अपेक्षा Jain Education Intemational Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{131} आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियों में प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं। कार्मणकाययोगियों में मिथ्यादृष्टि, सास्वादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में इन तीनों गुणस्थानों का अन्तरकाल औदारिकमिश्रकाययोगियों के समान हैं । वेदमार्गणा में स्त्रीवेदियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में मिथ्यात्व गुणस्थान का, सभी जीवों की अपेक्षा, अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में मिथ्यात्व का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में मिथ्यात्व गुणस्थान का उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पचपन पल्योपम है । स्त्रीवेदी सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल, सभी जीवों की अपेक्षा जैसा सामान्य से कथन किया है, वैसा ही है। एक जीव की अपेक्षा स्त्रीवेदी सास्वादनसम्यग्दृष्टि जीवों में इस गुणस्थान का जघन्य अन्तरकाल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इसका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा स्त्रीवेदी सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों में इन गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपम शतपृथक्त्व है । असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती स्त्रीवेदियों में इन चारों गुणस्थानों का, सभी जीवों की अपेक्षा, अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा चौथे से लेकर सातवें गुणस्थानवर्ती स्त्रीवेदियों में इन गुणस्थानों का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा उपर्युक्त चार गुणस्थानवर्ती स्त्रीवेदी जीवों में इन चारों गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपम शतपृथक्त्व है । अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण-इन दो गुणस्थानवर्ती स्त्रीवेदी उपशमकों में इन दोनों गुणस्थानों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कथित है, वैसा ही है। एक जीव की अपेक्षा उनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपम शतपृथक्त्व है । स्त्रीवेदी अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणवर्ती इन दो क्षपकों में इन दोनों गुणस्थानों का जघन्य अन्तरकाल, सभी जीवों की अपेक्षा एक समय है। सभी जीवों की अपेक्षा उपर्युक्त स्त्रीवेदवाले अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती क्षपकों में इनका उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । एक जीव की अपेक्षा आठवें और नवें गुणस्थानवर्ती स्त्रीवेदवाले क्षपकों में इनका अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं। दसवें गुणस्थान में वेद का अभाव है । पुरुषवेदवालों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है। पुरुषवेदवाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल, सभी जीवों की अपेक्षा, जघन्य से एक समय और उत्कृष्टतः पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है । एक जीव की अपेक्षा पुरुषवेदवाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का जघन्य अन्तरकाल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग तथा सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल सागरोपम शतपृथक्त्व है । असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक पुरुषवेदवाले जीवों में इन गुणस्थान का अन्तरकाल, सभी जीवों की अपेक्षा नहीं है, ये निरन्तर रहते हैं। एक जीव की अपेक्षा उपर्युक्त चारों गुणस्थानवर्ती पुरुषवेदवाले जीवों में इन गुणस्थानों का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा असंयतादि चारों गुणस्थानवर्ती पुरुषवेदवालों में इन गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल सागरोपम शतपृथक्त्व है। पुरुषवेदवाले अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती इन दो उपशमकों में इन दोनों गुणस्थानों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है, किन्तु एक जीव की अपेक्षा उनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उन्हीं का उत्कृष्ट अन्तरकाल सागरोपम शतपृथक्त्व है । पुरुषवेदवाले अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती इन दो क्षपकों में इन दोनों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः अन्तरकाल साधिक एक वर्ष है । एक जीव की अपेक्षा पुरुषवेदवाले दोनों क्षपकों में इनका अन्तर नहीं है, वे निरन्तर हैं । नपुंसकवेदवालों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का सभी जीवों की अपेक्षा से अन्तर नहीं है। एक जीव की अपेक्षा नपुंसकवेदवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में मिथ्यात्व गुणस्थान का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेंतीस सागरोपम है। सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक नपुंसकवेदवाले Jain Education Intemational Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय.......{132} उपशमक जीवों में इन-इन गुणस्थानों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है । नपुंसकवेदवाले क्षपकों में अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण का जघन्य अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है। एक जीव की अपेक्षा नपुंसकवेदवाले अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती क्षपकों में इनका अन्तर नहीं हैं, वे निरन्तर हैं । अपगतवेदवालों में अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती उपशमकों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । एक जीव की अपेक्षा नवें और दसवें गुणस्थानवर्ती उपशमकों में इन गुणस्थानों का जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त ही है । अपगतवेदवाले उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवर्ती जीवों में, सभी जीवों की अपेक्षा, इसका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । एक जीव की अपेक्षा उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों में अन्तरकाल नहीं होता है, वे निरन्तर हैं । अपगत वेद वालों में अनिवृत्तिकरण-क्षपक, सूक्ष्मसंपरायक्षपक, क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल जो सामान्य से कथित है, वैसा ही है । अपगतवेदवाले सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल भी जैसा सामान्य से बताया गया है, वैसा ही है। __कषायमार्गणा में क्रोधकषाय, मानकषाय, मायाकषाय, और लोभकषायवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती उपशमक और क्षपक तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल मनोयोगियों के समान है । अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । एक जीव की अपेक्षा अकषायवाले जीवों में, उपशान्त कषाय वीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों में, इस गुणस्थान का अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । अकषायवाले जीवों में क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कथन किया गया है, वैसा ही है। ज्ञानमार्गणा में मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंगज्ञानवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । तीनों अज्ञानवाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में अन्तरकाल, सभी जीवों की अपेक्षा जैसा सामान्य से बताया गया है, वैसा ही है । आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञानवाले जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटि परिमाण है । उन तीनों ज्ञानवाले संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों के अन्तरकाल में सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है, वह निरन्तर है । एक जीव की अपेक्षा तीनों ज्ञान वाले संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा तीनों ज्ञान वाले संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का अन्तरकाल साधिक छासठ सागरोपम परिमाण है। उपर्युक्त तीनों ज्ञानवाले प्रमत्त और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा से नहीं है, वे निरन्तर होते हैं । एक जीव की अपेक्षा तीनों ज्ञान वाले प्रमत्त और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों का इन दोनों गुणस्थानों में जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा तीनों ज्ञानवाले प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीवों में इन दोनों गुणस्थान का उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेंतीस सागरोपम है । तीनों ज्ञान वाले चारों उपशमकों का अन्तरकाल, सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कृष्टतः वर्षपृथक्त्व है । एक जीव की अपेक्षा तीनों ज्ञानवाले में चारों उपशमकों का जघन्य अन्तरकार र उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक छासठ सागरोपम है। तीनों ज्ञानवाले चारों क्षपकों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से बताया गया है, वैसा ही है । विशेषता यह है कि सभी जीवों की अपेक्षा, अवधिज्ञानियों में चारों क्षपकों अर्थात् आठवें, नवें, दसवें और बारहवें गुणस्थानवी जीवों का अन्तर वर्षपृथक्त्व है । मनः पर्यवज्ञानियों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा नहीं है, वे निरन्तर हैं। एक जीव की अपेक्षा मनः पर्यवज्ञानवाले प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों का जघन्य अन्तरकाल तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त ही है। मनः पर्यवज्ञानवाले चारों उपशमकों का जघन्य अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा, एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । एक जीव की अपेक्षा मनः पर्यवज्ञानवाले चारों उपशमकों का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{133} उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष है । मनः पर्यवज्ञानवाले चारों क्षपकों का जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । एक जीव की अपेक्षा मनः पर्यवज्ञानवाले चारों क्षपकों में चारों गुणस्थानों का अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । केवलज्ञानवाले जीवों में सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कथित है, वैसा ही है । केवलज्ञानवाले अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से बताया गया है, वैसा ही है। संयममार्गणा में संयतों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर उपशान्त कषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक के गुणस्थानवर्ती संयतों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल मनःपर्यवज्ञानियों के समान है । संयतो में चारों क्षपक और अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों में इनका अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कथन किया गया है, वैसा ही है। संयतों में सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती संयतो का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से बताया है, वैसा ही है । सामायिक और छेदोपस्थापनीय शुद्धि संयतो में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती संयतों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा नहीं है, वे निरन्तर हैं। एक जीव की अपेक्षा उन्हीं का जघन्य अन्तरकाल है तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त ही है । सामायिक और छेदोपस्थापनीय शुद्धि संयतो में अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण-इन दोनों गुणस्थानवर्ती उपशमकों का जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । एक जीव की अपेक्षा सामायिक और छेदोपस्थापनीय शुद्धि संयतों में दोनों उपशमकों का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटि परिमाण है । सामायिक और छेदोपस्थापनीय शुद्धि संयतों में अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण-इ दोनों गुणस्थानवर्ती क्षपकों का अन्तरकाल जैसा सामान्य से बताया गया है, वैसा ही है । परिहारविशुद्धि स अप्रमत्तसंयत गणस्थानवर्ती संयतों का सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा उनका जघन्य अन्तरकाल और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त ही है । सूक्ष्मसंपराय शुद्धि संयतों में सूक्ष्मसंपरायिक उपशमकों का सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरक न वर्षपृथक्त्व है । एक जीव की अपेक्षा उनका अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं। सूक्ष्मसंपराय शुद्धि संयतों में क्षपकों में इस गुणस्थान का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है । यथाख्यातपरिहारविशुद्धि संयतों में, चारों गुणस्थानवी जीवों में, इन चारों गुणस्थानों का अन्तरकाल अकषायवाले जीवों के समान है । संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल, सभी जीवों की अपेक्षा नहीं है, वे निरन्तर हैं। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा नहीं है, वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थावर्ती जीवों का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा उन्हीं जीवों का उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेंतीस सागरोपम है । असंयतों में सास्वादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यगदृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कथित है, वैसा ही है। दर्शनमार्गणा में चक्षुदर्शनी जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से बताया गया है, वैसा ही है । चक्षुदर्शनवाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थावर्ती जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल, सभी जीवों की अपेक्षा जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है । एक जीव की अपेक्षा उनका जघन्य अन्तरकाल क्रमशः पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है । उन्हीं का उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो हजार सागरोपम है । असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के गुणस्थानवर्ती चक्षुदर्शनवाले जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा नहीं है, वे निरन्तर हैं। एक जीव की अपेक्षा उनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो हजार सागरोपम है । चक्षुदर्शनवाले चारों उपशमकों में चारों गुणस्थानों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है । एक जीव की अपेक्षा उनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो हजार सागरोपम है । चक्षुदर्शनवाले चारों क्षपकों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है । अचक्षुदर्शनवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थावर्ती जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कथन किया गया है, वैसा ही है । अवधिदर्शनवाले जीवों का अन्तरकाल अवधिज्ञानियों के समान है । केवलदर्शनवाले जीवों का अन्तरकाल केवलज्ञानियों के समान है। Jain Education Interational www.jali Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{134} लेश्यामार्गणा में कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा उनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल क्रमशः कुछ कम तेंतीस, सत्रह, सात सागरोपम है । तीनों अशुभ लेश्यावाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल, सभी जीवों की अपेक्षा जैसा सामान्य से बताया गया है, वैसा ही है । एक जीव की अपेक्षा इन गुणस्थानों का जघन्य अन्तरकाल क्रमशः पल्योपम के असंख्यातवें भाग और अन्तर्मुहूर्त हैं। एक जीव की अपेक्षा भी इन्हीं का उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेंतीस सागरोपम, सत्रह सागरोपम और सात सागरोपम है । तेजोलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवों में, मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा नहीं है, वह निरन्तर है । एक जीव की अपेक्षा इनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक दो सागरोपम और साधिक अठारह सागरोपम है। तेजोलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल, सभी जीवों की अपेक्षा जैसा सामान्य से बताया गया है, वैसा ही है । एक जीव की अपेक्षा उनका जघन्य अन्तरकाल क्रमशः पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा उनका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक दो सागरोपम और साधिक अठारह सागरोपम है। तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावाले संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा नहीं है, वे निरन्तर हैं । शुक्ललेश्यावालों में, मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में, इन दोनों गुणस्थानों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा नहीं है, वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा उनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागरोपम है । शुक्ललेश्यावाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इन दोनों गुणस्थानों का अन्तरकाल, सभी जीवों की अपेक्षा जैसा सामान्य से बताया है, वैसा ही है। एक जीव की अपेक्षा उनका जघन्य अन्तरकाल क्रमशः पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा इनका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागरोपम है । शुक्ललेश्यावाले, संयतासंयत और प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों में इन दोनों गुणस्थानों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा नहीं है, वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा उनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । शुक्ललेश्यावाले उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों का, सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । एक जीव की अपेक्षा उनका अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । चारों क्षपक जीवों में इन चारों गुणस्थानों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से बताया गया है, वैसा ही है । शुक्ललेश्यावाले सयोगीकेवली गुणस्थान का अन्तरकाल भी, जैसा सामान्य से बताया गया है, वैसा ही है । भव्यमार्गणा में, भव्यसिद्धिकों में मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक के सभी गुणस्थानवर्ती भव्य जीवों में इन सभी गुणस्थानों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से बताया गया है, वैसा ही है । अभव्यसिद्धिक जीवों में सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है, वे निरन्तर हैं, क्योंकि ये सभी मिथ्यादृष्टि ही रहते हैं। सम्यक्त्वमार्गणा में सम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का अन्तरकाल, सभी जीवों की अपेक्षा नहीं है, वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा इसका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष है । संयतासंयत गुणस्थान से लेकर उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टियों का अन्तरकाल अवधिज्ञानियों के समान है । सम्यग्दृष्टियों में चारों क्षपक और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से बताया गया है, वैसा ही है । सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कथित किया गया है, वैसा ही है । क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा उनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष है । क्षायिकसम्यग्दृष्टिवाले संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा नहीं है, Jain Education Intemational Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{135} .. वे निरन्तर हैं। एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेंतीस सागरोपम है । क्षायिकसम्यग्दृष्टिवाले चारों उपशमकों का जघन्य अन्तरकाल, जीवों की अपेक्षा एक समय तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेंतीस सागरोपम है । क्षायिकसम्यग्दृष्टिवाले चारों क्षपक और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से बताया गया है, वैसा ही है । सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल भी, जैसा सामान्य से कथन किया गया है, वैसा ही है । वेदकसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल सम्यग्दृष्टियों के समान है । वेदकसम्यग्दृष्टिवाले संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा नहीं है, वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा उनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम छासठ सागरोपम है । वेदकसम्यग्दृष्टिवाले प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा नहीं है, वे निरन्तर है । एक जीव की अपेक्षा उनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेंतीस सागरोपम है। उपशमसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का, सभी जीवों की अपेक्षा, जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल सात अहोरात्रि है । एक जीव की अपेक्षा उनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । उपशमसम्यग्दृष्टिवाले संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों का जघन्य अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल चौदह रात-दिन है । एक जीव की अपेक्षा उनका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त ही है । उपशमसम्यग्दृष्टिवाले प्रमत्त और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों में इन दोनों गुणस्थानों का जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पन्द्रह रात-दिन है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त ही है । उपशमसम्यग्दृष्टि उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवर्ती जीवों में इसका सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है, वे निरन्तर हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का जघन्य अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है । एक जीव की अपेक्षा उनका अन्तर नहीं है, वे निरन्तर है । मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में मिथ्यात्व का सभी जीवों की अपेक्षा और एक जीव की अपेक्षा उनका अन्तर नहीं है, वे निरन्तर है। संज्ञीमार्गणा में, संज्ञी जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है। संज्ञियों में सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल पुरुषवेदियों के समान है । संज्ञी जीवों में चारों क्षपकों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से बताया गया है, वैसा ही है। असंज्ञी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में मिथ्यात्व गुणस्थान का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा और एक जीव की अपेक्षा नहीं है, वे निरन्तर हैं । आहारमार्गणा में, आहारक जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का अन्तरकाल जैसा सामान्य से कथन किया गया है, वैसा ही है । आहारक सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इन दोनों गुणस्थान का अन्तरकाल, सभी जीवों की अपेक्षा जैसा सामान्य से कथन किया गया है, वैसा ही है । एक जीव की अपेक्षा उनका अन्तरकाल क्रमशः पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा उनका उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी है। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के गुणस्थानवर्ती आहारक जीवों का सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा इनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा असंयतादि चारों गुणस्थानों के आहारक जीवों का उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुल के संख्यातवें भाग परिमाण असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी है । आहारकों में चारों उपशमकों का अन्तरकाल, सभी जीवों की अपेक्षा जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है । एक जीव की अपेक्षा उनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी है। आहारक चारों क्षपकों का Jain Education Interational Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.... तृतीय अध्याय........{136) अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कहा गया है वैसा ही है । आहारक सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है । अनाहारक जीवों का अन्तरकाल कार्मणकाययोगियों के समान है । विशेष यह है कि अनाहारक अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कथन किया गया है, वैसा ही है । पुष्पदंत एवं भूतबली प्रणीत षट्खण्डागम में जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड में भावानुगम'८४ नामक सप्तम द्वार में बताया गया है कि भावानुगम की अपेक्षा निर्देश दो प्रकार से है-ओघनिर्देश और आगमनिर्देश। सामान्यतया अर्थात् ओघनिर्देश से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में औदयिक भाव होते हैं। अतत्वश्रद्धानरूप भाव चूंकि मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय के उदय से होता है, अतएव मिथ्यात्व गुणस्थान में औदयिक भाव होते हैं । सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में पारिणामिक भाव होते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में क्षायोपशमिक भाव होते हैं । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव होते हैं, किन्तु असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में असंयतत्व पारिणामिक एवं औदयिक भाव होता है। संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीवों में क्षायोपशमिक भाव है । अपूर्वकरण आदि चारों उपशमकों में औपशमिक भाव है । चारों क्षपक, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में क्षायिक भाव है। आदेश अर्थात् विशेष की अपेक्षा से गतिमार्गणा में नरकगति में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकियों में औदायिक भाव है । सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकियों में पारिणामिक भाव होते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकियों में क्षायोपशमिक भाव होते हैं। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकियों में औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव होते हैं, किन्तु नारकियों में जो असंयम भाव है, वह संयमघातक चारित्रमोहनीय के उदय से होता है, अतः उसे औदयिक भाव समझना चाहिए। इसी प्रकार प्रथम नरक के नारकियों में गुणस्थानों सम्बन्धी उपर्युक्त चारों भाव होते हैं। द्वितीय पृथ्वी से लेकर सातवीं पृथ्वी तक के नारकियों में मिथ्यादृष्टि, सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों के भाव, जैसा सामान्य से बताया गया है, वैसे ही है । द्वितीय से लेकर सातवीं पृथ्वी तक के नारकियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का सम्यक्त्व औपशमिक और क्षायोपशमिक भाव है, किन्तु असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकी का असंयतत्व औदयिक भाव से है। तिर्यंचगति में सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच और पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों के भाव, जैसे सामान्य से कहे गए हैं, वैसे ही हैं । विशेष यह है कि पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में औपशमिक और क्षायोपशमिक भाव होते हैं, किन्तु पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का असंयतत्व औदयिक भाव के कारण है। मनुष्यगति में सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों के भाव, जैसे सामान्य से बताए गए हैं, वैसे ही हैं । देवगति में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती देवों के भाव जैसे सामान्य से बताए गए हैं, वैसे ही हैं । भवनवासी, वाणव्यन्तर और ज्योतिष देव एवं इनकी देवियाँ तथा सौधर्म और ईशान कल्पवासिनी देवियाँ-इनके मिथ्यादृष्टि, सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों के भाव, जैसे सामान्य से बताए गए हैं, वैसे ही हैं । उपर्युक्त देव और देवियों के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में औपशमिक और क्षायोपशमिक भाव होते हैं, किन्तु उपर्युक्त असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव और देवियों का असंयतत्व औदयिक भाव के कारण है । सौधर्म कल्प से लेकर नव ग्रैवेयक पर्यन्त विमानवासी देवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती १८४ षट्खण्डागम, पृ. २१५ से २२७, प्रकाशनः श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण Jain Education Intemational Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{137} जीवों में भाव, जैसे सामान्य से बताए गए हैं, वैसे ही हैं । अनुदिशों से लेकर सर्वार्थसिद्ध तक विमानवासी देवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव होते हैं, किन्तु उपर्युक्त देवों का असंयतत्व औदयिक भाव के कारण है। इन्द्रियमार्गणा में त्रसकाय और त्रसकाय पर्याप्तों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों में भाव, जैसे सामान्य से कहे गए हैं, वैसे ही हैं । योगमार्गणा में पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी और औदारिक काययोगियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों के भाव, जैसा सामान्य रूप से बताए गए हैं, वैसे ही हैं। औदारिकमिश्रकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव होते हैं, किन्तु औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में असंयतत्व औदयिक भाव के कारण है । औदारिकमिश्रकाययोगी सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में क्षायिक भाव होते हैं। वैक्रिय काययोगियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों के भाव, जैसे सामान्य से बताए गए हैं, वैसे ही हैं । वैक्रियमिश्रकाययोगियों में मिथ्यादृष्टि, सास्वादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों के भाव, जैसे बताए गए हैं, वैसे ही हैं। आहारक काययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियों में प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों में क्षायोपशमिक भाव है। कार्मणकाययोगियों में मिथ्यादृष्टि, सास्वादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों के भाव जैसे सामान्य रूप से बताए गए हैं, वैसे ही हैं। वेदमार्गणा में स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले और नपुंसकवेदवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवी जीवों के भाव, जैसे सामान्य रूप से कथन किए गए हैं, वैसे ही हैं । अपगतवेदवालों में अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के अवेद भाग से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों के भाव जैसे सामान्य से दर्शित हैं, वैसे ही हैं। कषायमार्गणा में क्रोधकषाय, मानकषाय, मायाकषाय और लोभकषायवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के उपशामक और क्षपक तक के जीवों के भाव जैसे सामान्य से कथित हैं, वैसे ही हैं । अकषायवाले जीवों में उपशान्तकषाय से लेकर अयोगीकेवली आदि चारों गुणस्थानवी जीवों के भाव, जैसे सामान्य से बताए गए हैं, वैसे ही हैं। ज्ञानमार्गणा में मति-अज्ञानवाले, श्रुत-अज्ञानवाले और विभंगज्ञानी जीवों में मिथ्यादृष्टि और सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों के भाव, जैसे सामान्य से कहे गए हैं, वैसे ही हैं । आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानियों में असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों के भाव, जैसे सामान्य से कहे गए हैं, वैसे ही हैं। मनःपर्यवज्ञानियों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर क्षीण कषाय वीतरागछद्मस्थ तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों के भाव जैसे सामान्य से कथित हैं, वैसे ही हैं। केवलज्ञानियों में सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों के भाव भी, जैसे सामान्य से बताए गए हैं, वैसे ही हैं। संयममार्गणा में संयतों में प्रमत्तसंयत से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों के भाव, जैसे सामान्य से बताए गए हैं, वैसे ही हैं। सामायिक और छेदोपस्थापनीय संयतों में प्रमत्तसंयत से लेकर अनिवृत्तिकरण तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों के भाव, जैसे सामान्य से बताये गए हैं, वैसे ही हैं । परिहारविशुद्धि संयतों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थावर्ती जीवों के भाव, जैसे सामान्य में बताए गए हैं, वैसे ही हैं । सूक्ष्मसंपराय संयतों में सूक्ष्मसंपराय उपशमक और क्षपक के भाव जैसे सामान्य से कहे गए हैं, वैसे ही हैं। यथाख्यातपरिहारविशुद्धि संयतों में उपशान्तकषाय आदि चारों गुणस्थानवी जीवों के भाव, जैसे सामान्य से कहे गए हैं, वैसे ही हैं । संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों के भाव, जैसे सामान्य से कथित हैं, वैसे ही हैं । असंयतों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों के भाव, जैसे सामान्य से कथित हैं, वैसे ही हैं। दर्शनमार्गणा में चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शनवालों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ तक प्रत्येक Jain Education Intemational Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में 'गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{138} गुणस्थानवर्ती जीवों के भाव, जैसे सामान्य से कहे गए हैं, वैसे ही हैं। अवधिदर्शनवाले जीवों के भाव अवधिज्ञानियों के समान हैं। केवलदर्शनवाले जीवों के भाव केवलज्ञानियों के समान हैं । श्यामार्गणा में कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतले श्यावालों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों के भाव, जैसे सामान्य से कहे गए हैं, वैसे ही हैं । तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावालों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवों के भाव, जैसे सामान्य से बताए गए हैं, वैसे ही हैं । शुक्ललेश्यावालों में मिध्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवों के भाव, जैसे सामान्य से कथित हैं, वैसे ही हैं । भव्यमार्गणा में भव्यसिद्धिकों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवों के भाव, जैसे सामान्य से कहे गए हैं, वैसे ही हैं। अभव्यसिद्धिक जीवों में पारिणामिक भाव हैं । सम्यक्त्वमार्गणा में सम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवों के भाव, जैसे सामान्य से कहे गए हैं, वैसे ही हैं । क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों में क्षायिक भाव हैं। उपर्युक्त जीवों का सम्यक्त्व क्षायिक है, किन्तु क्षायिक सम्यग्दृष्टियों का असंयतत्व औदयिक भाव के कारण है। क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीवों में क्षायोपशमिक भाव है । उपर्युक्त जीवों में सामान्यतः क्षायोपशमिक भाव होता है, किन्तु जिन जीवों को क्षायिक सम्यग्दर्शन ही होता है । क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में अपूर्वकरण आदि चार उपशमकों में औपशमिक भाव हैं, किन्तु क्षायिक सम्यग्दृष्टि चारों उपशमकों में सम्यक्त्व, क्षायिक भाव के कारण है । क्षायिक सम्यग्दृष्टि चारों क्षपक, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों में क्षायिक भाव है । चारों क्षपक, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों में क्षायिक सम्यग्दर्शन ही होता है । वेदक सम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों में क्षायोपशमिक भाव है । वेदकसम्यग्दृष्टि जीवों में क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन ही होता है। वेदकसम्यग्दृष्टियों का असंयतत्व औदयिक भाव से है । वेदकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीवों में क्षायोपशमिक भाव है । उपर्युक्त जीवों में सम्यग्दर्शन क्षायोपशमिक ही होता है । उपशमसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों में औपशमिक सम्यग्दर्शन ही होता है । उपशमसम्यक्त्ववाले असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों में असंयतत्व औदयिक भाव के कारण है । उपशमसम्यग्दृष्टि संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीवों में क्षायोपशमिक भाव है, किन्तु उपर्युक्त उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में सम्यग्दर्शन औपशमिक ही होता है । अपूर्वकरणादि चार गुणस्थानों के उपशमसम्यग्दृष्टि उपशामक जीवों में औपशमिक भाव होते हैं । उपर्युक्त जीवों में औपशमिक सम्यग्दर्शन ही होता है । सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों के भाव सामान्य से कहे गए पारिणामिक भाव हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों में, सामान्यतः क्षायोपशमिक भाव हैं । मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों में सामान्य से कहे गए अनुसार, औदयिक भाव 1 संज्ञीमार्गणा में संज्ञियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीण कषाय वीतरागछद्मस्थ तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवों के भाव जैसे सामान्य से कहे गए हैं, वैसे ही हैं । असंज्ञी जीवों में औदयिक भाव हैं । आहारमार्गणा में आहारकों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवों के भाव, जैसे सामान्य से कहे गए हैं, वैसे ही हैं । अनाहारक जीवों के भाव कार्मणकाययोगियों के समान हैं, किन्तु विशेष यह है कि अनाहारक अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों में क्षायिक भाव है । पुष्पदंत एवं भूतबली प्रणीत षट्खण्डागम के जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड के अल्पबहुत्वानुगम' नामक अष्टम द्वार में बताया गया है कि अल्पबहुत्वानुगम की अपेक्षा निर्देश दो प्रकार के हैं- ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । १८५ षट्खण्डागम, पृ. २२७ से २५, प्रकाशन: श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{139} ओघ अर्थात् सामान्य निर्देश से अपूर्वकरणादि तीन गुणस्थानों में उपशामक जीव प्रवेश की अपेक्षा परस्पर तुल्य तथा अन्य सभी गुणस्थानों की अपेक्षा अल्प हैं । उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों का अल्प-बहुत्व, पूर्व में कहा, वैसा ही है । उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थों से अपूर्वकरणादि तीन गुणस्थानवर्ती क्षपक संख्यातगुणित हैं। क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों का अल्प-बहुत्व, पूर्व में जैसा कहा गया है, वैसा ही है । सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों में प्रवेश की अपेक्षा दोनों ही तुल्य हैं और पूर्व में जैसा कहा है, वैसा है । सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती काल की अपेक्षा संख्यातगुणित हैं। सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों से अक्षपक अनुपशामक अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं। अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं । प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से संयतासंयत गुणस्थानवर्ती जीव असंख्यातगुणित हैं। संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों से सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं । सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों से असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों से मिथ्यादृष्टि गुणस्थावर्ती जीव अनन्तगुणित हैं । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थावर्ती जीवों से उपशमकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टियों से वेदक सम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं । संयतासंयत गुणस्थानवर्ती क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं । संयतासंयत गुणस्थानवर्ती क्षायिक सम्यग्दृष्टियों से उपशमसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं । संयतासंयत गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं । प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीवों में उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं । प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों में क्षायिक सम्यग्दृष्टियों से वेदक सम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं । इसी प्रकार अपूर्वकरणादि तीन उपशामक गुणस्थानवी जीवों में सम्यक्त्व सम्बन्धी अल्प-बहुत्व समझना चाहिए, विशेष यह है कि यहाँ क्षायोपशमिक सम्यक्त्व सम्भव नहीं होता है । अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों में उपशामक जीव सबसे कम हैं। अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थावर्ती उपशमकों से इन तीनों ही गुणस्थानवर्ती क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं । आदेश अर्थात् विशेष की अपेक्षा गति मार्गणा में नरकगति में नारकियों में सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव सबसे कम हैं। नारकियों में सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों से असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव असंख्यातगुणित हैं। नारकियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं। नारकियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं। क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदक सम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं। इसी प्रकार प्रथम पृथ्वी के नारकियों का अल्प-बहुत्व जानना चाहिए। नरकगति में दूसरी पृथ्वी से लेकर सातवीं पृथ्वी तक के नारकियों में सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव सबसे कम है। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं। नारकियों में दूसरी पृथ्वी से लेकर सातवीं पृथ्वी तक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणा हैं। नारकियों में द्वितीयादि छः पृथ्वियों के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती में उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं। नारकियों में द्वितीयादि छः पृथ्वियों के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं । तिर्यच गति में सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच और पंचेन्द्रिय योनिमति तिर्यंच जीवों में संयतासंयत सबसे कम हैं । उपर्युक्त चार प्रकार के तिर्यंचों में संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों से सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव असंख्यातगुणित हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं। उपर्युक्त चारों प्रकार के तिर्यंचों में सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों से असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित Jain Education Intemational Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{140} -- हैं। उपर्युक्त चारों प्रकार के तिर्यंचों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यचों से सामान्य मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती तियंच अनन्तगुणित है, शेष तीन प्रकार के तिर्यंचों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंचों से असंख्यातगुणित हैं। उपर्युक्त चारों प्रकार के तिर्यंचों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंच सबसे कम हैं। उपर्युक्त चारों प्रकार के तिर्यचों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंचों में उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि तिर्यच जीव असंख्यातगुणित हैं। उपर्युक्त चार तिर्यंचों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं। उपर्युक्त चार तिर्यचों में संयतासंयत गुणस्थानवर्ती में उपशमसम्यग्दृष्टि तिर्यंच सबसे कम हैं। उपशमसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि तिर्यच जीव असंख्यातगुणित हैं, विशेष यह है कि पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियों में असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियों में असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं। मनुष्यगति में मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों में उपशमक जीव प्रवेश की अपेक्षा तुल्य है और संख्या कि अपेक्षा सबसे कम हैं । उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों का परिमाण प्रवेश की अपेक्षा पूर्व में जैसा कहा है, वैसा ही है । उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थों से क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं। तीनों प्रकार के मनुष्यों में क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों का परिमाण पूर्व में जैसा बताया गया है, वैसा ही है । उपर्युक्त तीनों प्रकार के मनुष्यों में सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में दोनों प्रवेश की अपेक्षा तुल्य है और परिमाण की अपेक्षा पूर्व में कहे अनुसार है। उक्त तीनों प्रकार के मनुष्यों में सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव संचयकाल की अपेक्षा संख्यातगुणित हैं। तीनों प्रकार के मनुष्यों में सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों से अक्षपक और अनुपशमक अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं । तीनों प्रकार के मनुष्यों में अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं। संयतासंयत गुणस्थानवी जीव उन से भी संख्यातगुणित हैं। तीनों प्रकार के मनुष्यों में संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों से सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव संख्यातगुणित हैं। तीनों प्रकार के मनुष्यों में सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों से असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं। तीनों प्रकार के मनुष्यों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती मनुष्यों से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती मनुष्य असंख्यातगुणित हैं और शेष दोनों प्रकार के मनुष्य मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती से संख्यातगुणित हैं। तीनों प्रकार के मनुष्यों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी मनुष्यों में उपशमसम्यग्दृष्टि सबसे कम है। उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं। क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणित हैं। तीनों प्रकार के मनुष्यों में संयतासंयत गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम है। तीनों प्रकार के मनुष्यों में संयतासंयत गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से उपशमसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणित हैं। उपशमसम्यग्दृष्टि से वेदकसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणित हैं। तीनों प्रकार के मनुष्यों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं । तीनों प्रकार के मनुष्यों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम है। तीनों प्रकार के मनुष्यों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणित है। उपर्युक्त क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं। विशेष यह है कि मनुष्यों में असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम है। मनुष्यों में उपर्युक्त असंयतसम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानवर्ती क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से उपशमसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणित हैं। उपशमसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणित है। इसी प्रकार उपर्युक्त तीनों प्रकार के मनुष्यों में अपूर्वकरण आदि तीन उपशामक गुणस्थानों में भी सम्यक्त्व सम्बन्धी अल्प-बहुत्व इसी प्रकार हैं, उपर्युक्त तीन प्रकार के मनुष्यों में उपशामक मनुष्य सबसे कम हैं । उपशामकों से क्षपक जीव संख्यातगणित हैं। Jain Education Intemational Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{141) देवगति में सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव सबसे कम हैं। देवों में सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव संख्यातगुणित हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों से असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव असंख्यातगुणित हैं। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती देव असंख्यातगुणित हैं। देवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि वाले देव सबसे कम हैं। उनमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित हैं । देवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में वेदकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित हैं। देवों में भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क देव और इनकी देवियाँ तथा सौधर्म-ईशान कल्पवासिनी देवियों के अल्प-बहुत्व की प्ररूपणा सातवीं पृथ्वी के नारकी जीवों के अल्प-बहुत्व के समान हैं। सौधर्म-ईशान कल्प से लेकर सहस्रार कल्प तक के कल्पवासी देवों में अल्प-बहुत्व की प्ररूपणा देवगति के सामान्य कथन के समान हैं । आनत से लेकर नव ग्रैवेयक विमानों तक के विमानवासी देवों में सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती सबसे कम हैं । उपर्युक्त विमानवासी देवों में सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती देव संख्यातगुणित हैं । उनमें सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती देव असंख्यातगुणित हैं। उनमें मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों से असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव संख्यातगुणित हैं। आनत कल्प से लेकर नव ग्रैवेयक तक देवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि देव सबसे कम हैं। उन उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि देव असंख्यातगुणित हैं। क्षायिकसम्यग्दृष्यिों से वेदकसम्यग्दृष्टि देव संख्यातगुणित हैं। नव अनुदिशी देवों से लेकर अपराजित नामक अनुत्तर विमान तक विमानवासी देवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में उपशमसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं। उपर्युक्त असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों में वर्तमान उपशमसम्यग्दृष्टियों की अपेक्षा क्षायिकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित हैं, क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि देव संख्यातगुणित हैं। सर्वाथसिद्ध विमानवासी देवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं, उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि देव संख्यातगुणित हैं और क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि देव संख्यातगुणित हैं।। इन्द्रियमार्गणा में पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तों में अल्प-बहुत्व की प्ररूपणा जैसी सामान्य से कथित है, उसी के समान हैं, विशेष यह है कि उनमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं। शेष एकेन्द्रिय आदि जीवों में एक मात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का सद्भाव होने से उनमें अल्प-बहुत्व की संभावना नहीं है । कायमार्गणा में त्रसकाय और त्रसकाय पर्याप्तों में अल्प-बहुत्व, जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है । मात्र विशेष यह है कि असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं। योगमार्गणा में पांचों मनोयोगी. पांचों वचनयोगी. काययोगियों और औदारिककाययोगियों में अपर्वकरण आदि तीनों गुणस्थानवर्ती उपशमक जीव प्रवेश की अपेक्षा परस्पर तुल्य और संख्या की अपेक्षा अल्प हैं । उपर्युक्त बारह योगवाले उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों का अल्प-बहुत्व पूर्वोक्त परिमाण के अनुसार ही है। उनसे क्षपक संख्यातगुणित हैं। क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों का अल्प-बहुत्व पूर्वोक्त परिमाण के अनुसार ही है । उपर्युक्त बारह योगवाले सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में प्रवेश की अपेक्षा उनका अल्प-बहुत्व पूर्वोक्त परिमाण के अनुसार ही है । सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती संचयकाल की अपेक्षा उनसे भी संख्यातगुणित है । सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों से उपर्युक्त बारह योगवाले अक्षपक और अनुपशामक अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं। उपर्युक्त बारह योगवाले अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीवों से प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से संयतासंयत गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं। उपर्युक्त बारह योगवाले संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों से सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव असंख्यातगुणित हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं। उपर्युक्त बारह योग वाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों से असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं। पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से इन्हीं योगवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती असंख्यातगुणित Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... तृतीय अध्याय......{142} हैं और काययोगी तथा औदारिककाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से इन्हीं दोनों योगवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव अनन्तगुणित हैं। बारह योगवाले जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में सम्यक्त्व सम्बन्धी अल्प-बहुत्व की प्ररूपणा, सामान्यतः जैसा बताया गया है, उसी के अनुसार है। इसी प्रकार उपर्युक्त बारह योग वाले जीवों में अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों में भी सम्यक्त्व सम्बन्धी अल्प-बहुत्व जानना चाहिए । उपर्युक्त बारह योगवाले जीवों में उपशामक सबसे कम हैं, उपशामकों से क्षपक संख्यातगुणित हैं। औदारिकमिश्रकाययोगियों में सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव सबसे कम हैं, सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों से असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों से सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं, सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव अनन्तगुणित हैं। औदारिकमिश्रकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणित हैं। वैक्रियकाययोगियों में अल्प-बहत्व की प्ररूपणा देवगति के समान है। वैक्रियमिश्रकाययोगियों में सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव सबसे कम हैं, सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं, असंयतसम्यग्दृष्टि गणस्थानवी जीवों से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं । वैक्रियमिश्रकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में ही उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं, क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं । आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियों में प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं, उपर्युक्त आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियों में प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणित हैं। कार्मणकाययोगियों में सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव सबसे कम हैं, सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों से सास्वादनसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं, सास्वादनसम्यग्दृष्टियों से असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित हैं, असंयतसम्यग्दृष्टियों से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती अनन्तगुणित हैं। कार्मणकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं। कार्मणकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं। क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित हैं। वेदमार्गणा में स्त्रीवेदवालों में अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण-इन दोनों ही गुणस्थानों में उपशमक जीव प्रवेश की अपेक्षा तुल्य और संख्या की अपेक्षा अल्प है । स्त्रीवेदवालों में उपशामकों से क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं, क्षपकों से अक्षपक और अनुपशामक अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती संख्यातगुणित हैं । उपर्युक्त अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव संख्यातगुणित हैं । प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से संयतासंयत गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं। स्त्रीवेदवालों में संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों से सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों से सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती संख्यातगुणित हैं। स्त्रीवेदवालों में सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों से असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं, असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती असंख्यातगुणित हैं। स्त्रीवेदवालों में असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानवर्ती क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं, उपर्युक्त दोनों गुणस्थानवर्ती क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों से उपशमसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं। स्त्रीवेदवालों में उपर्युक्त दोनों गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित हैं, स्त्री वेद वालों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं। स्त्री वेद वालों में उपर्युक्त दोनों गुणस्थानवर्ती क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से उपशमसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं। स्त्रीवेदवालों में उपर्युक्त दोनों गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं। इसी प्रकार अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण इन दोनों गुणस्थान में स्त्रीवेदवालों का अल्प-बहुत्व जानना चाहिए । स्त्रीवेदवालों में उपशामक जीव सबसे कम हैं । उपशामकों से क्षपक संख्यातगुणित हैं । पुरुषवेदवालों में अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण-इन Jain Education Intemational Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{143} दोनों गुणस्थानवर्ती उपशामक जीव प्रवेश की अपेक्षा तुल्य और संख्या की अपेक्षा अल्प हैं । पुरुषवेदवालों में उपर्युक्त दोनों गुणस्थानवर्ती उपशामकों से क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं । पुरुषवेदवालों में उपर्युक्त दोनों गुणस्थानों के क्षपकों से अक्षपक और अनुपशामक अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती संख्यातगुणित हैं । पुरुषवेदवालों में उपर्युक्त अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं, प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से संयतासंयत गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं । पुरुषवेदवालों में संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों से सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं, सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती संख्यातगुणित हैं । पुरुषवेदवालों में सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों से असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं। पुरुषवेदवालों में असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में सम्यक्त्व सम्बन्धी अल्प-बहुत्व की प्ररूपणा, जैसी सामान्य से कही गई हैं, वैसी ही है । इसी प्रकार पुरुषवेदवालों में अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण-इन दोनों गुणस्थानों में भी सम्यक्त्व सम्बन्धी अल्प-बहुत्व जानना चाहिए । पुरुष वेद वालों में उपशामक जीव सबसे कम हैं, उपशामकों से क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं । नपुंसकवेदवालों में अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण-इन दोनों गुणस्थानों में उपशामक जीव प्रवेश की अपेक्षा तुल्य और संख्या की अपेक्षा अल्प हैं । नपुंसकवेदवालों में अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण-इन दोनों गुणस्थानों में उपशामकों से क्षपक जीव प्रवेश की अपेक्षा संख्यातगुणित हैं । नपुंसकवेदवालों में क्षपकों से अक्षपक और अनुपशामक अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं। नपुंसकवेदवालों में अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीवों से प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं, प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से संयतासंयत गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं, संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों से सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं, सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव अनन्तगुणित हैं। नपुंसकवेदवालों में असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानों में सम्यक्त्व सम्बन्धी अल्प-बहुत्व की प्ररूपणा, जैसी सामान्य से कही गई है, वैसी ही है। नपुंसक वेदवालों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों में क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं। नपुंसकवेदवालों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से उपशमसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणित हैं, उनसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं । इसी प्रकार नपुंसकवेदवालों में अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण-इन दोनों गुणस्थानों में सम्यक्त्व सम्बन्धी अल्प-बहुत्व जानना चाहिए । नपुंसकवेदवालों में उपशामक जीव सबसे कम हैं। उपशामकों से क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं। अपगतवेदवालों में अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसंपराय-इन दो गुणस्थानों में उपशामक जीव प्रवेश की अपेक्षा तुल्य और संख्या की अपेक्षा अल्प हैं। अपगतवेदवालों में उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों के अल्प-बहुत्व का परिमाण पूर्वानुसार ही है । अपगतवेदवालों में उपशामकों से क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं । क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों के अल्प-बहुत्व का परिमाण पूर्वोक्त ही है । सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव संचय काल की अपेक्षा इनसे संख्यातगुणित हैं । क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों के अल्प-बहुत्व का परिमाण पूर्वोक्त ही है, सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव संचय काल की अपेक्षा इनसे संख्यातगुणित हैं। कषायमार्गणा में क्रोधकषाय, मानकषाय, मायाकषाय और लोभकषायवाले जीवों में अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण-इन दो गुणस्थानों में उपशामक जीव प्रवेश की अपेक्षा तुल्य और संख्या की अपेक्षा अल्प ही हैं। चारों कषायवाले जीवों में उपशामकों से क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं । विशेष यह है कि लोभकषायवाले सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती उपशामको की अपेक्षा क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं । क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों के अल्प-बहुत्व का परिमाण पूर्वोक्त ही है, इनसे सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव संचयकाल की अपेक्षा संख्यातगुणित हैं । चारों कषायवाले जीवों में क्षपकों से अक्षपक और अनुपशामक अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती संख्यातगुणित हैं। चारों कषायवाले जीवों में अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं। चारों कषायवाले जीवों में प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से संयतासंयत गुणस्थानवर्ती Jain Education Interational Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{144} जीव असंख्यातगुणित हैं। चारों कषायवाले जीवों में संयतासंयत गुणस्थानवर्ती जीवों से सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव असंख्यातगुणित हैं। चारों कषायवाले जीवों में सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं । चारों कषायवाले जीवों में सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों से असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं । चारों कषायवाले जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव अनन्तगुणित हैं । चारों कषायवाले जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों में सम्यक्त्व सम्बन्धी अल्प-बहुत्व की प्ररूपणा सामान्य से बताए गए अनुसार है । इसी प्रकार अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण-इन दो गुणस्थानों में चारों कषायवाले जीवों का सम्यक्त्व सम्बन्धी अल्प-बहुत्व भी जानना चाहिए । चारों कषायवाले उपशामक जीव सबसे कम हैं। चारों कषायवाले उपशामकों से क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं। अकषायवाले जीवों में उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवर्ती जीव सबसे कम हैं, उन से क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं। अकषायवाले जीवों में सयोगीकेवली और अयोगीकेवली-ये दोनों ही गुणस्थानवी जीव प्रवेश की अपेक्षा तुल्य और संख्या की अपेक्षा अल्प हैं। अकषायवाले इन जीवों में सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव संचयकाल की अपेक्षा संख्यातगुणित हैं। ज्ञानमार्गणा में मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानवाले जीवों में सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव सबसे कम हैं । उपर्युक्त तीनों अज्ञानवाले सासादन गुणस्थानवर्ती जीवों से मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव अनन्तगुणित हैं तथा विभंगज्ञानवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं। आभिनीबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों में उपशमक जीव प्रवेश की अपेक्षा तुल्य और संख्या में अल्प हैं । मति, श्रुत और अवधिज्ञानियों में उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों का अल्प-बहुत्व का परिमाण पूर्वोक्त के अनुसार है। मति, श्रुत और अवधिज्ञानियों में उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों की अपेक्षा क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं। मति, श्रुत और अवधिज्ञानियों में क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों का अल्प-बहुत्व पूर्वोक्त क्षपकों के समान है। मति, श्रुत और अवधिज्ञानियों में क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों से अक्षपक और अनुपशामक अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव संख्यातगुणित हैं। मति, श्रुत और अवधिज्ञानियों में अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगणित हैं। मति, श्रुत और अवधिज्ञानियों में संयतासंयत गणस्थानवर्ती जीवों से असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगणित हैं। उपर्युक्त तीनों सम्यग्ज्ञानी जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में सम्यक्त्व सम्बन्धी अल्प-बहुत्व की प्ररूपणा, सामान्य से जैसी कही गई है, वैसी ही है । इसी प्रकार तीनों सम्यग्ज्ञानियों में अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों में सम्यक्त्व सम्बन्धी अल्प-बहुत्व जानना चाहिए । तीनों सम्यग्ज्ञानियों में उपशामक जीव सबसे कम हैं, उपशामकों से क्षपक संख्यातगुणित हैं। मनः पर्यवज्ञानियों में अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानवर्ती उपशामक जीव प्रवेश की अपेक्षा तुल्य और संख्या में अल्प हैं । मनः पर्यवज्ञानियों में उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवर्ती जीवों का अल्प-बहुत्व का परिमाण पूर्वोक्त ही है । उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों से क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं। मनःपर्यवज्ञानियों में क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों के अल्प-बहुत्व का परिमाण पूर्वोक्त ही है। मनःपर्यवज्ञानियों में क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों से अक्षपक और अनुपशामक अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं। मनःपर्यवज्ञानियों में अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से गुणस्थानवी जीव प्रमत्तसंयत संख्यातगुणित हैं। मनःपर्यवज्ञानियों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं। मनःपर्यवज्ञानियों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणित हैं, क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं। इसी प्रकार मनःपर्यवज्ञानियों में अपूर्वकरण आदि तीन उपशामक गुणस्थानों में सम्यक्त्व सम्बन्धी अल्प-बहुत्व जानना चाहिए । मनःपर्यवज्ञानियों में उपशामक जीव सबसे कम हैं, उपशामक जीवों से क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं। केवलज्ञानियों में सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव प्रवेश की अपेक्षा तुल्य हैं। केवलज्ञानियों में सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव संचय काल की अपेक्षा अयोगीकेवली से संख्यातगुणित हैं। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{145} संयममार्गणा में संयतों में अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों में उपशामक जीव प्रवेश की अपेक्षा तुल्य और संख्या में अल्प हैं । संयतों में उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों के अल्प-बहुत्व का परिमाण पूर्वोक्त ही है । संयतों में उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों से क्षपकजीव संख्यातगुणित हैं। संयतों में क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवर्ती जीवों के अल्प-बहुत्व का परिमाण पूर्वोक्त ही है । संयतों में सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव प्रवेश की अपेक्षा तुल्य और परिमाण में पूर्वोक्त ही हैं । संयतों में सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव संचय काल की अपेक्षा अयोगीकेवली संख्यातगुणित हैं । संयतों में सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों से अक्षपक और अनुपशामक अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं । संयतों में अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं । संयतों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों में उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं । संयतों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती उपशम सम्यग्दृष्टियों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं । क्षायिक सम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं। इसी प्रकार संयतों में अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों में सम्यक्त्व सम्बन्धी अल्प-बहुत्व जानना चाहिए। संयतों में अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों में उपशामक जीव सबसे कम हैं । संयतों में अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों के उपशमकों से क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं । सामायिक और छेदोपस्थापनीय शुद्धि संयतों में अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण-इन दो गुणस्थानों में उपशामक जीव प्रवेश की अपेक्षा तुल्य और संख्या में अल्प हैं । सामायिक और छेदोपस्थापनीय शुद्धि संयतों में उपशामक से क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं । सामायिक और छेदोपस्थापनीय शुद्धि संयतों में क्षपकों से अक्षपक और अनुपशामक अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं । सामायिक और छेदोपस्थापनीय संयतों में अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं । सामायिक और छेदोपस्थापनीय संयतों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों में उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं। उपर्युक्त दोनों संयतों में अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं। उपर्युक्त दोनों संयतों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं । इसी प्रकार उपर्युक्त जीवों का अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण-इन दोनों गुणस्थानों में सम्यक्त्व सम्बन्धी अल्प-बहुत्व जानना चाहिए । उपर्युक्त दोनों संयतों में उपशामक सबसे कम हैं। उपशामकों से क्षपक संख्यातगुणित हैं। परिहारविशुद्धि संयतों में अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव सबसे कम हैं । परिहारविशुद्धि संयतों में अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं। परिहारविशुद्धि संयतों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं। परिहारविशुद्धि संयतों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं। सूक्ष्मसंपराय शुद्धि संयतों में सूक्ष्मसंपराय उपशामक जीव अल्प हैं। सूक्ष्मसंपरायशुद्धि संयतों में उपशामकों से क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं। यथाख्यातविहार शुद्धि संयतों में अल्प-बहुत्व की प्ररूपणा अकषायवाले जीवों के समान हैं। संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों में संयम मार्गणा की अपेक्षा अल्प-बहुत्व नहीं है । संयतासंयत गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं। संयतासंयत गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि से उपशमसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं। संयतासंयत गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि से वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं। असंयतों में सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव सबसे कम हैं। असंयतों में सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं। असंयतों में सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों से असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं। असंयतों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव अनन्तगुणित हैं। असंयतों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं। असंयतों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं। असंयतों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों से वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं। दर्शनमार्गणा में चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शनवाले जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ तक Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{146) के प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों के अल्प-बहुत्व की प्ररूपणा, जैसी सामान्य से बताई गई हैं, उसी के समान हैं । विशेष यह है कि चक्षुदर्शनवाले जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं। अवधिदर्शनवाले जीवों के अल्प-बहुत्व की प्ररूपणा अवधिज्ञानियों के समान है । केवलदर्शनवाले जीवों के अल्प-बहुत्व की प्ररूपणा केवलज्ञानियों के समान है। लेश्यामार्गणा में कृष्ण लेश्या, नील लेश्या और कापोतलेश्यावाले जीवों में सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव सबसे कम हैं। तीनों अशुभलेश्यावाले जीवों में सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों से सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं। तीनों अशुभलेश्यावाले जीवों में सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं। तीनों अशुभलेश्यावाले जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव अनन्तगुणित हैं। तीनों अशुभलेश्यावाले जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सवसे कम हैं। तीनों अशुभलेश्यावाले जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से उपशमसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं। तीनों अशुभलेश्यावाले जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं, विशेष यह है कि कापोतलेश्यावालों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव सबसे कम हैं। कापोतलेश्यावालों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं। कापोतलेश्यावालों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदक सम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं। तेजोलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवों में अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव सबसे कम हैं। तेजोलेश्यावालों में अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव संख्यातगुणित हैं । प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से संयतासंयत गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं। तेजो और पद्मलेश्यावालों में संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों से सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं। उपर्युक्त दोनों लेश्यावालों में सासादनसम्यग्दृष्टियों से सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं, सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों से असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं। तेजो और पद्मलेश्यावालों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती असंख्यातगुणित हैं। तेजो और पद्म - दोनों लेश्यावालों में असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में सम्यक्त्व सम्बन्धी अल्प-बहुत्व की प्ररूपणा सामान्य से बताए अनुसार है। शुक्ललेश्यावालों में अपूर्वकरणादि तीनों गुणस्थानों में उपशामक जीव प्रवेश की अपेक्षा तुल्य और संख्या में अल्प हैं। शुक्ललेश्यावालों में उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों के अल्प-बहुत्व का परिमाण पूर्वोक्त ही है। उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ से क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं। शुक्ललेश्यावालों में क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों के अल्प-बहुत्व का परिमाण पूर्वोक्त ही है। शुक्ललेश्यावालों में सयोगीकेवली एवं अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव प्रवेश की अपेक्षा तुल्य हैं, उनका परिमाण पूर्वोक्त ही है। शुक्ललेश्यावालों में सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव संचयकाल की अपेक्षा अयोगीकेवली से संख्यातगुणित हैं। शुक्ललेश्यावालों में सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों से अक्षपक और अनुपशामक अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं। शुक्ललेश्यावालों में अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं, प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से संयतासंयत गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं। शुक्ललेश्यावालों में संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों से सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं, सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं, सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं। मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती शुक्ललेश्यावाले जीवों से असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती शुक्ललेश्यावाले जीव संख्यातगुणित हैं। शुक्ललेश्यावालों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं । शुक्ललेश्यावालों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टियों से क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं, क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणित हैं। शुक्ललेश्यावालों में संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में सम्यक्त्व सम्बन्धी अल्प-बहुत्व Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{147} जानना चाहिए । शुक्ललेश्यावालों में अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों में उपशामक जीव सबसे कम हैं। उपशामकों से क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं। भव्यमार्गणा में भव्यसिद्धिकों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक की अल्प-बहुत्व की प्ररूपणा सामान्य से जैसी बताई गई है, उसी के समान है। अभव्यसिद्धिकों में अल्प-बहुत्व नहीं है। सम्यक्त्वमार्गणा में सम्यग्दृष्टि जीवों में अल्प-बहुत्व की प्ररूपणा अवधिज्ञानियों के समान हैं। क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानवर्ती उपशामक जीव प्रवेश की अपेक्षा तुल्य और संख्या में अल्प हैं। क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों के अल्प-बहुत्व का परिमाण पूर्वोक्त ही है । क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों से क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों के अल्प-बहुत्व का परिमाण पूर्वोक्त ही है । क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थान प्रवेश की अपेक्षा तुल्य और इनका परिमाण पूर्वोक्त ही है । क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव संचयकाल की अपेक्षा इनसे संख्यातगुणित हैं। क्षायिकसम्यग्दृष्टि में सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों से अक्षपक और अनुपशामक अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं। क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं, प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से संयतासंयत गुणस्थानवर्ती संख्यातगुणित हैं। क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों से असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं। क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत-इन गुणस्थानों में क्षायिकसम्यक्त्व का भेद नहीं हैं, अतः इन गुणस्थानों में सम्यक्त्व का भी अल्प-बहुत्व नहीं है । वेदकसम्यग्दृष्टियों में अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव सबसे कम हैं । वेदकसम्यग्दृष्टियों में अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीवों से प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं, प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से संयतासंयत गुणस्थानवर्ती असंख्यातगुणित हैं। वेदकसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों से असंख्यातगुणित हैं। वेदकसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में चूंकि वेदकसम्यक्त्व का भेद नहीं है, अतः इन गुणस्थानों में सम्यक्त्व के अल्प-बहुत्व की संभावना नहीं है । उपशमसम्यग्दृष्टियों में अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों में उपशामक जीव प्रवेश की अपेक्षा तुल्य और संख्या में अल्प हैं। उपशमसम्यग्दृष्टियों में उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों के अल्प-बहुत्व का परिमाण पूर्वोक्त ही है । उपशमसम्यग्दृष्टियों में उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवर्ती जीवों से अनुपशामक अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं। उपशमसम्यग्दृष्टियों में अनुपशामक अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं, प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से संयतासंयत गुणस्थानवर्ती जीव असंख्यातगुणित हैं । उपशमसम्यग्दृष्टियों में संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों से असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं। उपशमसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों में उपशमसम्यक्त्व का अल्प-बहुत्व नहीं है, अतः वहाँ सम्यक्त्व का अल्प-बहुत्व सम्भव नहीं है । सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान जीवों में सम्यक्त्व का अभाव है, अतः उसका अल्प-बहुत्व नहीं है। संज्ञीमार्गणा में संज्ञियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवों के अल्प-बहुत्व की प्ररूपणा सामान्य से बताए गए के समान है। विशेष यह है कि संज्ञियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं। असंज्ञी जीवों में अल्प-बहुत्व नहीं है, क्योंकि वे सभी मिथ्यादृष्टि ही हैं। ____ आहारमार्गणा में आहारकों में अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों में उपशामक जीव प्रवेश की अपेक्षा तुल्य और संख्या में अल्प हैं। आहारकों में उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों का अल्प-बहुत्व पूर्वोक्त अनुसार ही है । आहारकों में उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवी जीवों से क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं। क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवर्ती Jain Education Intemational Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{148}जीवों का अल्प-बहुत्व पूर्वोक्त अनुसार ही है । आहारकों में सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का प्रवेश की अपेक्षा परिमाण पूर्वोक्त ही है। वे ही सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव संचयकाल की अपेक्षा इससे संख्यातगुणित है। आहारकों में सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों से अक्षपक और अनुपशामक अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं। आहारकों में उपर्युक्त अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं, प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से संयतासंयत गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं । आहारकों में संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों से सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित है, आहारकों में असंख्यातसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव अनन्तगुणित है। आहारकों में असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में सम्यक्त्व सम्बन्धी अल्प-बहुत्व की प्ररूपणा सामान्य से कहे गए के समान है। इसी प्रकार आहारकों में अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों में सम्यक्त्व सम्बन्धी अल्प-बहुत्व जानना चाहिए। आहारकों में इन गुणस्थानों में उपशामक जीव सबसे कम हैं, उपशामकों से क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं। अनाहारकों में सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव सबसे कम हैं। अनाहारकों में सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों से अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणित हैं। अनाहारकों में अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों से सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं, सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणित हैं। अनाहारकों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव अनन्तगुणित हैं । अनाहारकों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम है। अनाहारकों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपशमसम्यग्दृष्टि से क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं। क्षायिकसम्यग्दृष्टियों से वेदकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित षट्खण्डागम के जीवस्थान नामक प्रथमखण्ड की प्रथम एवं द्वितीय चूलिकाओं में गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा'६ पुष्पदंत एवं भूतबली प्रणीत षखण्डागम के जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड में आठ अनुयोग द्वारों के विषम अर्थात् दुर्बोध स्थलों के विशेष विवरण का नाम चूलिका है। यह जीवस्थान सम्बन्धी चूलिका नौ प्रकार की हैं। कौन से गुणस्थानवी जीव कितनी प्रकृतियों को बांधते हैं, ऐसा जिनमें बताया गया है, उन्हें प्रकृतिसमुत्कीर्तन और स्थानसमुत्कीर्तन चूलिका कहा गया है । प्रथम प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामक चूलिका में आठ कर्म और उसकी उत्तर प्रकृतियों का विवेचन किया गया है। कर्म प्रकृतियों का बन्ध एक साथ होता है अथवा क्रम से होता है, इसका स्पष्टीकरण इस द्वितीय स्थानसमुत्कीर्तन चूलिका में किया गया है । वह अर्थात् प्रकृति स्थान मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानवी जीवों को होता है । यहाँ संयत शब्द से प्रमत्तसंयत से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक जानना चाहिए, क्योंकि इनको छोड़कर अन्य कोई बन्धक नहीं है । यहाँ अयोगीकेवली गुणस्थान को ग्रहण नहीं किया है, क्योंकि उन्हें बन्ध का अभाव होता है । ज्ञानावरणीय कर्म की पांच प्रकृतियाँ हैं-आमिनिबोधिक ज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, मनः पर्यवज्ञानावरणीय और केवलज्ञानावरणीय । ज्ञानावरणीय कर्म की पांच प्रकृतियों का एक ही बन्ध स्थान है । इन पांचों प्रकृतियों का ज्ञानावरणीय का बन्ध एक परिणामविशेष से एक ही साथ होता है । वह बन्धस्थान मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानवी जीव को होता है। यहाँ संयत से सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक संयत जीवों का ग्रहण करना है, क्योंकि इससे ऊपर गुणस्थानों में ज्ञानावरणीय कर्म का बन्ध नहीं होता है। दर्शनावरणीय कर्म के तीन बन्धस्थान है। नौ, छः और चार का प्रकृतिरूप बन्धस्थान है । दर्शनावरणीय कर्म के तीन बन्धस्थानों में निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, निद्रा, प्रचला, चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय, अवधिदर्शनावरणीय और केवलज्ञानावरणीय-इन नौ प्रकृतियों के समूहरूप से एक साथ बांधने वाला एक ही परिणाम रूप यह प्रथम बन्धस्थान है । वह नव प्रकृति रूप प्रथमबन्धस्थान मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों को होता है । दर्शनावरणीय कर्म के तीन १५६ षट्खण्डागम, पृ. २५६ से २६७, प्रकाशनः श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण Jain Education Intemational Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{149) बन्धस्थानों में से दूसरा बन्धस्थान स्त्यानगृद्धि त्रिक को छोड़कर शेष छः प्रकृतियों का समूह रूप द्वितीय बन्धस्थान बांधनेवाले जीव का एक ही भाव में अवस्थान होता है। छः प्रकृतियों के द्वितीय बन्धस्थान के स्वामी सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानवी जीव है। यहाँ संयत पद से अपूर्वकरण गुणस्थान के सात भागों में से प्रथम भाग तक के संयत जानना चाहिए । दर्शनावरणीय कर्म के द्वितीय बन्धस्थान में से निद्रा और प्रचला को छोड़कर शेष चार प्रकृतियों का तृतीय बन्धस्थान बांधनेवाले जीव का एक ही भाव में अवस्थान होता है । इस चार प्रकृतियों रूप तृतीय बन्धस्थान के स्वामी संयत जीव होते हैं । अपूर्वकरण गुणस्थान के सात भागों में से द्वितीय भाग से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक इन चारों प्रकृतियों का बन्ध होता है। वेदनीय कर्म की दो प्रकृतियाँ हैं-सातावेदनीय और असातावेदनीय । इन दोनों प्रकृतियों को क्रमशः बांधनेवाले बन्धक जीव का एक ही भाव में अवस्थान होता है। साता और असाता वेदनीय-ये दोनों प्रकृतियाँ परस्पर विरूद्ध होने से एक साथ नहीं बन्धती हैं । वे क्रम से विशुद्धि और संक्लेश के निमित्त से बन्ध को प्राप्त होती हैं, अतएव इन दोनों का बन्ध एक साथ नहीं होता है, परंतु यहाँ तो इनके एक संख्या में अवस्थित होने से इनका एक बन्धस्थान ही निर्दिष्ट किया गया है । वेदनीय कर्म का बन्धस्थान मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानवी जीवों को होता है। यहाँ संयत पद से सयोगीकेवली गुणस्थान तक ही ग्रहण करना है, आगे अयोगीकेवली गुणस्थान में बन्ध सम्भव नहीं है। मोहनीय कर्म के दस बन्धस्थान हैं। बाईस, इक्कीस, सत्रह, तेरह, नौ, पांच, चार, तीन, दो और एक प्रकति रूप बन्धस्थान। बाईस का बन्धस्थान इस प्रकार है-मिथ्यात्व, अनन्तानबन्धी सोलह कषाय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपंसकवेद-इन तीनों में से कोई एक वेद, हास्य और रति तथा अरति और शोक-इन दोनों युगलों में से कोई एक युगल, भय और जुगप्सा, इन बाईस प्रकृतियों के समूह रूप प्रथम बन्धस्वामी जीव का एक ही भाव में अवस्थान होता हैं। बाईस प्रकृति का प्रथम बन्धस्थान मिथ्यात्व के उदययुक्त मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव को छोड़कर मिथ्यात्व प्रकति का अन्यत्र बन्ध नहीं होता है । इस प्रथम बन्धस्थान के स्वामी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव हैं । प्रथम बन्धस्थान की बाईस प्रकतियों में से मिथ्यात्व और नपंसक वेद को छोड़कर इक्कीस प्रकृतियों का द्वितीय बन्धस्थान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्क आदि सोलह कषाय, स्त्रीवेद और पुरुषवेद-इन दोनों में से कोई एक वेद, हास्य-रति और अरति-शोक-इन दो युगलों में से कोई एक युगल तथा भय और जुगुप्सा-इन इक्कीस प्रकृतियों का बन्ध करने वाले जीव का एक ही भाव में अवस्थान होता है । दोनों वेद और हास्यादि दोनों युगलों के विकल्प से दो गुणित दो बराबर चार का एक भंग होता है । इक्कीस प्रकृतिवाले द्वितीय बन्धस्थान के स्वामी सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव हैं। अनन्तानबन्धी चतष्क और स्त्रीवेद का बन्ध दूसरे गणस्थान से आगे नहीं होता है। अतः मोहनीय कर्म सम्बन्धी द्वितीय बन्धस्थान की इक्कीस प्रकतियों में से अनन्तानबन्धी चतष्क और स्त्रीवेद को कम करने पर सत्रह प्रकतिवाला ततीय बन्धस्थान होता है । अप्रत्याख्यानीयादि बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य-रति और अरति-शोक इन दोनों युगलों में से कोई एक युगल, भय सा-इन सत्रह प्रकृतियों के बांधनेवाले जीव का एक ही भाव में अवस्थान होता है । सत्रह प्रकृतिवाले तृतीय बन्धस्थान के स्वामी सम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव हैं । चौथे गुणस्थान से आगे अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क का बन्ध नही होता हैं । मोहनीय कर्म की ततीय बन्धस्थान की सत्रह प्रकतियों में से अप्रत्याख्यानावरणीय चतष्क को कम कर देने पर तेरह प्रकतिवाला चतुर्थ बन्धस्थान होता है। प्रत्याख्यानीयादि आठ कषाय, पुरुषवेद, हास्य-रति और अरति-शोक-इन दोनों युगलों में से कोई एक, भय और जुगुप्सा-इन तेरह प्रकृतियों को बांधनेवाले जीव का एक ही भाव में अवस्थान है । हास्यादि दोनों युगलों के विकल्प से दो भंग होते हैं। तेरह प्रकृतिवाले चतुर्थ बन्धस्थान के स्वामी संयतासंयत गुणस्थानवी जीव होते हैं। पांचवें गणस्थान से आगे अप्रत्याख्यनीय चतुष्क का बन्ध सम्भव नहीं है । चतुर्थ बन्धस्थान की तेरह प्रकृतियों में से प्रत्याख्यानीय चतुष्क को कम करने से नौ प्रकृतिवाला पंचम बन्धस्थान होता है । संज्वलन चतुष्क, पुरुषवेद, हास्य-रति और अरति-शोक-इन दोनों युगलों में से कोई एक युगल तथा भय और जुगुप्सा-इन नौ प्रकृतियों को बांधनेवाले जीव का एक ही भाव में अवस्थान होता है। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{150} नौ प्रकृतिवाला पांचवाँ बन्धस्थान संयत गुणस्थानवी जीवों को होता है । यहाँ संयत, प्रमत्तसंयत से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यन्त ही समझना चाहिए। इससे आगे छः नौ कषायों का बन्ध नहीं है । मोहनीय कर्म के पंचम बन्धस्थान की नौ प्रकृतियों में से हास्य-रति, अरति-शोक, भय और जुगुप्सा को कम करने पर पांच प्रकृतिवाला छठा बन्धस्थान होता है। संज्वलन चतुष्क और पुरुषवेद-इन पांच प्रकृतियों को बांधनेवाले जीव का एक ही भाव में अवस्थान होता हैं। पांच प्रकृतिवाले षष्ठ बन्धस्थान के स्वामी प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान पर्यन्त तक के संयत होते हैं। मोहनीय कर्म के षष्ठ बन्धस्थान की पांच प्रकृतियों में से पुरुषवेद को कम करने पर चार प्रकृतिवाला सप्तम बन्धस्थान होता है । संज्वलन चतुष्क रूप चारों प्रकृतियों को बांधनेवाले जीवों का एक ही भाव में अवस्थान होता है । चार प्रकृति रूप सप्तम बन्धस्थान के स्वामी प्रमत्तसंयत गु लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान पर्यन्त के जीव होते हैं। मोहनीय कर्म के सप्तम बन्धस्थान की चार प्रकृतियों में से संज को कम करने पर तीन प्रकतिवाला अष्टम बन्धस्थान होता है। संज्ववलन त्रिक रूप मान आदि तीनों प्रकृतियों को बांधनेवाले जीव का एक ही भाव में अवस्थान होता है । तीन प्रकृति वाले अष्टम बन्धस्थान के स्वामी प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण संयत गुणस्थान तक होते हैं। मोहनीय कर्म सम्बन्धी अष्टम बन्धस्थान की तीन प्रकृतियों से संज्वलन मान को कम करने पर दो प्रकतिवाला नवाँ बन्धस्थान होता है । संज्वलन माया और लोभ-इन दो प्रकृतियों को बांधनेवाले जीव का एक ही भाव में अवस्थान होता है। दो प्रकृतिवाले नवें बन्धस्थान के स्वामी संयत जीव होते हैं। मोहनीय कर्म सम्बन्धी नवें बन्धस्थान की दो प्रकृतियों में से संज्वलन माया को कम करने पर एक प्रकृतिवाला दसवाँ बन्धस्थान होता है । संज्वलन लोभ को बांधनेवाले जीव का एक ही भाव में अवस्थान होता है । एक प्रकतिवाले दसवें बन्धस्थान के स्वामी संयत जीव होते हैं। __आयु कर्म की चार प्रकृतियाँ हैं-नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु । आयु कर्म की चार प्रकृतियों में नरकायु को बांधनेवाले जीव का एक ही भाव में अवस्थान होता है । एक प्रकृतिवाले नरकायु के बन्धवाला बन्धस्थान मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव को होता है, क्योंकि मिथ्यात्व कर्म के उदय के बिना नरकायु का बन्ध नहीं होता हैं। तिर्यंचायु को बांधनेवाले जीव का एक ही भाव में अवस्थान होता है । तिर्यंचाय के बन्धरूप एक प्रकतिवाले बन्धस्थान के स्वामी मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव होते हैं। मनुष्यायु को बांधनेवाले जीव का एक ही भाव में अवस्थान होता है । मनुष्यायु के बन्धरूप एक बन्धस्थान के स्वामी मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव होते हैं। देवायु को बांधनेवाले जीव का एक ही भाव में अवस्थान होता है। देवायु के बन्धरूप एक प्रकृतिवाले बन्धस्थान के स्वामी मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव होते हैं। इससे आगे आयु कर्म का बन्ध नहीं होता है । नामकर्म के आठ बन्धस्थान होते हैं। ये ३१, ३०, २६, २८, २६, २५, २३ और १ प्रकृतिवाले बन्धस्थान हैं। नामकर्म के आठ बन्धस्थानों में अठाईस प्रकृतिवाला बन्धस्थान इस प्रकार है-नरकगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियशरीर, तैजसशरीर, कार्मणसंस्थान, हुडकसंस्थान, वैक्रियशरीरांगोपांग, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुअलघु, उपघात, पराघात, उच्छवास, अप्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशः कीर्ति और निर्माण-इन अट्ठाईस प्रकृतियों को बांधनेवाले का एक ही भाव में अवस्थान होता है । अट्ठाईस प्रकृतिवाले बन्धस्थान के स्वामी पंचेन्द्रिय जाति और पर्याप्त नामकर्म से संयुक्त नरकगति के मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती पर्याप्त नारक होते हैं। तिर्यंचगति नामकर्म के पांच बन्धस्थान हैं। तीस प्रकृतिवाला, उनतीस प्रकृति वाला, छत्तीस प्रकृति वाला, पचीस प्रकृति वाला और तेईस प्रकृति वाला-ये पांच के तिर्यंचगति सम्बन्धी इन पांच बन्धस्थानों में प्रथम तीस प्रकति वाला बन्धस्थान यह है-तिर्यंचगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, छः संस्थानों में से कोई एक, औदारिकशरीरांगोपांग, छः संघयणों में से कोई एक, वर्ण, गंघ, रस, स्पर्श, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात उच्छ्वास, दोनों विहायोगति में से कोई एक, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर और अस्थिर-इन दोनों में से कोई एक, सुस्वर और दुःस्वर-इन दोनों में से Jain Education Intemational Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा. तृतीय अध्याय.......{151} कोई एक, आदेय और अनादेय में से कोई एक, यशः कीर्ति और अयशः कीर्ति-इन दोनों में से कोई एक और निर्माण नामकर्म-इन प्रकृतियों का एक ही भाव में अवस्थान है । यहाँ छः संस्थान, छ: संघयण, दो विहायोगतियाँ, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, सुस्वर-दुःस्वर, आदेय-अनादेय और यशः कीर्ति-अयशः कीर्ति-इन परस्पर विरुद्ध प्रकृतियों में से एक समय में यथासम्भव किसी एक-एक प्रकृति का ही बन्ध सम्भव होने से चार हजार छः सौ आठ (छः गुणित छः गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो बराबर ४६०८) भंग होते हैं। प्रथम तीस प्रकृतिवाले बन्धस्थान के स्वामी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और उद्योत नामकर्म से संयुक्त तिर्यंचगति को बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव होते हैं । तिर्यंच सम्बन्धी द्वितीय बन्धस्थान भी तीस प्रकृतिवाले है। पूर्व प्रथम तीस प्रकृति वाला बन्धस्थान में हुंडक संस्थान और असंप्राप्तासृपाटिका संघयण-इन दो प्रकृतियों का सद्भाव था, किन्तु इस द्वितीय बन्धस्थान में वे दोनों प्रकृतियों नहीं है, दोनों बन्धस्थानों में बस इतना भेद है । द्वितीय तीस प्रकृतिवाले बन्धस्थान के स्वामी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और उद्योत नामकर्म से युक्त तिर्यंचगति को बांधनेवाले सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव होते हैं। पांच संस्थान, पांच संघयण तथा विहायोगति आदि सात युगलों के विकल्प से इसके तीन हजार दो सौ (पांच गुणित पांच गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित बराबर ३२००) भंग होते हैं। तिर्यंच सम्बन्धी तृतीय बन्धस्थान भी तीस प्रकृतिवाला हैं। तृतीय बन्धस्थान में द्वीन्द्रियादि जाति नामकर्म स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, यशः कीर्ति और अयशः कीर्ति, इनके विकल्प से चौबीस (तीन दो गुणित दो गुणित दो गुणित बराबर २४) भंग होते हैं। तृतीय तीस प्रकृति वाले बन्धस्थान के स्वामी विकलेन्द्रियपर्याप्त और उद्योत नामकर्म से तिर्यंचगति को बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव होते हैं। तिर्यंचगति सम्बन्धी पांच बन्धस्थानों में से प्रथम उनतीस प्रकृति वाला बन्धस्थान भी तीस प्रकृतिवाले बन्धस्थानों के समान है, परंतु विशेष यह है कि यहाँ उद्योत नामकर्म को छोड़कर शेष उनतीस प्रकृतियों का एक भाव में अवस्थान होता है। प्रथम उनतीस प्रकृति वाले बन्धस्थान के स्वामी सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच होते हैं। तिर्यंचगति सम्बन्धी द्वितीय उनतीस प्रकृतिवाला बन्धस्थान प्रथम उनतीस प्रकृति वाले बन्ध स्थान के समान हैं। इन द्वितीय बन्धस्थान सम्बन्धी उनतीस प्रकृतियों का एक ही भाव में अवस्थान होता है। द्वितीय उनतीस प्रकृति वाले बन्धस्थान के स्वामी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव होते हैं। तिर्यंचगति सम्बन्धी तृतीय बन्धस्थान भी उद्योत नामकर्म को छोड़कर उनतीस प्रकृतिवाला ही हैं। इन उनतीस प्रकृतियों का एक ही भाव में अवस्थान होता है। तृतीय उनतीस प्रकृतिवाले बन्धस्थान के स्वामी विकलेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव होते हैं। नामकर्म के तिर्यंच सम्बन्धी पांच बन्ध स्थानों में छब्बीस प्रकृति वाला भी एक बन्धस्थान हैं - तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस, कार्मण, हुंडक संस्थान, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, तिर्यंचगति प्रायोग्यानपूर्वी, अगुरुअलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, आतप और उद्योत-इन दोनों में से कोई एक, स्थावर, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर और अस्थिर-इन दोनों में से कोई एक, शुभ और अशुभ दोनों में से कोई एक, दुर्भग, अनादेय, यशः कीर्ति और अयशः कीर्ति-इन दोनों में से कोई एक तथा निर्माण नामकर्म-इन छब्बीस प्रकृतियों का एक ही भाव में अवस्थान होता है । आतप-उद्योत, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ और यशः कीर्ति-अयशः कीर्ति-इन के विकल्प से सोलह (दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो बराबर १६ ) भंग होते हैं। छब्बीस प्रकृतिवाले बन्धस्थान के स्वामी एकेन्द्रिय जाति, बादर, पर्याप्त तथा आतप और उद्योत-इन दोनों में से किसी एक से संयुक्त तिर्यंचगति को बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव होते हैं। नामकर्म के तिर्यंचगति सम्बन्धी पांच बन्धस्थानों में यह प्रथम पच्चीस प्रकृतिवाला बन्धस्थान है - तिर्यंचगति, एकेन्द्रियजाति, औदारिक, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुंडक संस्थान, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, तिर्यंचगतिआप्रयोग्यानुपूर्वी, अगुरुअलघु उपघात, पराघात, उच्छ्वास, स्थावर, बादर और सूक्ष्म-इन दोनों में से कोई एक, पर्याप्त और अपर्याप्त में कोई एक, प्रत्येक शरीर और साधारण शरीर में से कोई एक शरीर, स्थिर और अस्थिर-इन दोनों में से कोई एक, शुभ और अशुभ-इन दोनों में से कोई एक, दुर्भग, अनादेय, यशः कीर्ति और अयशः कीर्ति-इन दोनों में से कोई एक तथा निर्माण नामकर्म-इन प्रथम पच्चीस प्रकृतियों का एक ही भाव में अवस्थान होता है । यहाँ बादर-सूक्ष्म, प्रत्येक-साधारण, Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ तृतीय अध्याय ........{152} स्थिर अस्थिर, शुभ-अशुभ और यशः कीर्ति अयशः कीर्ति इन विरूद्ध प्रकृतियों के विकल्प से बत्तीस (दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो बराबर ३२) भंग होते हैं । प्रथम पच्चीस प्रकृतिवाले बन्धस्थान के स्वामी एकेन्द्रिय जाति के पर्याप्त तथा बादर और सूक्ष्म-इन दोनों में से किसी एक से युक्त तिर्यंचगति को बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव होते हैं। यह बन्धस्थान सासादन आदि गुणस्थानों में नहीं पाया जाता है, क्योंकि ऊपर के गुणस्थानवर्ती जीवों को एकेन्द्रिय जाति, बादर और सूक्ष्म-इन नामकर्म की प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है । द्वितीय बन्धस्थान पच्चीस प्रकृतिवाला भी है - तिर्यंचगति, द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति और पंचेन्द्रिय जाति- इन चार जातियों में से कोई एक, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुंडक संस्थान, औदारिक शरीरांगोपांग, असंप्राप्तासृपाटिका संघयण, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशः कीर्ति और निर्माण नामकर्म- इन द्वितीय बन्धस्थान की इन पच्चीस प्रकृतियों का भी एक ही भाव में अवस्थान होता है । द्वीन्द्रियादि चार जातिप्रकृतियों के विकल्प से चार (४) भंग होते हैं । द्वितीय पच्चीस प्रकृतिवाले बन्धस्थान के स्वामी त्रस और अपर्याप्त नामकर्म से संयुक्त तिर्यंचगति को बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव होते हैं। नामकर्म के तिर्यंचगति संबन्धी पांच बन्धस्थानों में तेईस प्रकृतिवाला बन्धस्थान है । तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुंडक संस्थान, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, तिर्यंचगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुअलघु, उपघात, स्थावर, बादर और सूक्ष्म इन दोनों में से कोई एक, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीर और साधारण शरीर इन दोनों में से कोई एक, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशः कीर्ति और निर्माण नामकर्म-इन तेईस प्रकृतियों का एक ही भाव में अवस्थान होता है । यहाँ बादर-सूक्ष्म और प्रत्येक साधारण इन दो युगलों के विकल्प से ( दो गुणित दो बराबर ४) चार भंग होते हैं । तेईस प्रकृतिवाले बन्धस्थान के स्वामी एकेन्द्रिय जाति - अपर्याप्त तथा बादर और सूक्ष्म-इन दोनों में से एक से संयुक्त तिर्यंचगति बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव होते हैं । मनुष्यगति नामकर्म के तीन बन्धस्थान हैं- तीस, उनतीस और पच्चीस प्रकृतिवाले । नामकर्म के मनुष्यगति सम्बन्धी तीन बन्धस्थानों में से तीस प्रकृतिवाला निम्न बन्धस्थान है - मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रऋषभनाराचसंघयण, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुअलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर और अस्थिर- इन दोनों में से कोई एक, शुभ और अशुभ- इन दोनों में से कोई एक, सुभग, सुस्वर, आदेय यशःकीर्ति और अयशः कीर्ति- इन दोनों में से कोई एक, निर्माण और तीर्थंकर नामकर्म- इन तीस प्रकृतियों का अवस्थान एक ही भाव में होता है । यहाँ स्थिर अस्थिर, शुभ-अशुभ और यशः कीर्ति और अयशः कीर्ति- इन सप्रतिपक्ष प्रकृतियों के विकल्प से आठ (दो गुणित दो गुणित दो बराबर ८) भंग होते हैं। तीस प्रकृतिवाले बन्धस्थान के स्वामी पंचेन्द्रिय जाति और तीर्थंकर नामकर्म से युक्त मनुष्यगति को बांधनेवाले असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव होते हैं । मनुष्यगति सम्बन्धी जो दूसरा उनतीस प्रकृतिवाला बन्धस्थान है, वह तीस प्रकृतिवाले बन्धस्थान के समान है । विशेष यह है कि तीर्थकर नामकर्म को छोड़ देना चाहिए। इन उनतीस प्रकृतियों का एक ही भाव में अवस्थान होता है । उनतीस प्रकृतिवाले बन्धस्थान के स्वामी पंचेन्द्रिय जाति और पर्याप्त नामकर्म से संयुक्त मनुष्यगति को बांधनेवाले सम्यग्मिथ्यादृष्ट और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव होते हैं। मनुष्यगति सम्बन्धी उनतीस प्रकृति वाला ही एक अन्य बन्धस्थान भी है - मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुंडक संस्थान को छोड़कर शेष पांच संस्थानों में से कोई एक, औदारिकशरीरांगोपांग, असंप्राप्तासृपाटिका संघयण को छोड़कर शेष पांच संस्थानों में से कोई एक वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुअलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, दोनों विहायोगति में से कोई एक, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर और अस्थिर इन दोनों में से कोई एक, शुभ और अशुभ दोनों में से कोई एक, सुभग और दुर्भग-इन दोनों में से कोई एक, सुस्वर और दुःस्वर- इन दोनों में से कोई एक, आदेय और अनादेय इन दोनों में से कोई एक, यशः कीर्ति और अयशः कीर्ति- इन दोनों में से कोई एक तथा निर्माण नामकर्म, इन उनतीस प्रकृतियों का भी एक ही भाव में अवस्थान होता Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{153} है । यहाँ पांच संस्थान, पांच संघयण तथा विहायोगति आदि उपर्युक्त सात युगलों के विकल्प से बत्तीस सौ (पांच गुणित पांच गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो बराबर ३२००) भंग होते हैं । द्वितीय उनतीस प्रकृतिवाले बन्धस्थान के स्वामी पंचेन्द्रिय जाति और पर्याप्त नामकर्म से युक्त मनुष्यगति बांधनेवाले सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव हैं। मनुष्यगति सम्बन्धी एक अन्य उनतीस प्रकृतिवाला बन्धस्थान, पूर्व के उनतीस प्रकृतिवाले बन्धस्थान के समान है। विशेष यह है कि यहाँ छहों संस्थान तथा छहों संघयण का ग्रहण करना। यहाँ छः संस्थान, छः संघयण और विहायोगति आदि सात युगल प्रकृतियों के विकल्प से चार हजार छः सौ आठ (छः गुणित छः गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो बराबर ४६०८) भंग होते हैं। तृतीय उनतीस प्रकृति वाले बन्धस्थान के स्वामी पंचेन्द्रिय जाति और पर्याप्त नामकर्म से संयुक्त मनुष्यगति को बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव होते हैं। मनुष्यगति सम्बन्धी तीन बन्धस्थानों में पच्चीस प्रकृतिवाला तीसरा बन्धस्थान है-मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुंडक संस्थान, औदारिक शरीरांगोपांग, असंप्राप्तासृपाटिका संघयण, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुअलघु, उपघात, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशः कीर्ति और निर्माण नामकर्म-इन पच्चीस प्रकृतियों का एक ही भाव में अवस्थान होता है । पच्चीस प्रकृति वाले बन्धस्थान के स्वामी पंचेन्द्रिय जाति और अपर्याप्त नामकर्म से संयुक्त मनुष्यगति को बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव होते हैं । देवगति नामकर्म के पांच बन्धस्थान है। इकतीस, तीस, उनतीस, अठाईस और एक प्रकृतिवाला बन्धस्थान। नामकर्म के देवगति सम्बन्धी पांच बन्धस्थानों में इकतीस प्रकृतिवाला बन्धस्थान है-देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय शरीर, आहारक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियशरीरांगोपांग, आहारकशरीरांगोपांग, वर्ण, गंघ, रस, स्पर्श, देवगतिप्रयोग्यानुपूर्वी, अगुरुअलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, निर्माण और तीर्थंकर-इन इकतीस प्रकृतियों का एक ही भाव में अवस्थान है । इकतीस प्रकृतिवाले बन्धस्थान के स्वामी पंचेन्द्रिय जाति, पर्याप्त, आहारक शरीर और तीर्थंकर नामकर्म से युक्त देवगति को बांधने वाले अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीव होते हैं। देवगति सम्बन्धी तीस प्रकृति वाला दूसरा बन्धस्थान इकतीस प्रकृति वाले बन्धस्थान के समान ही है । विशेष अन्तर इतना है कि तीर्थंकर प्रकृति को छोड़कर शेष तीस प्रकृतिवाले बन्धस्थान हैं। इन तीस प्रकृतियों का एक ही भाव में अवस्थान है । तीस प्रकृति वाले बन्धस्थान के स्वामी पंचेन्द्रिय जाति, पर्याप्त और आहारक शरीर से संयुक्त देवगति को बांधने वाले अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीव होते हैं। देवगति सम्बन्धी उनतीस प्रकृति वाला बन्धस्थान भी इकतीस प्रकृति वाले बन्धस्थान के समान ही है । विशेष यह है कि आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग को छोड़कर शेष पूर्ववत् जानना चाहिए। इन प्रथम उनतीस प्रकृतियों का एक ही भाव में अवस्थान होता है । इस उनतीस प्रकृति वाले बन्धस्थान के स्वामी पंचेन्द्रिय जाति, पर्याप्त और तीर्थंकर प्रकृति से संयुक्त देवगति को बांधनेवाले प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीव होते हैं। देवगति सम्बन्धी एक अन्य उनतीस प्रकृति वाला बन्ध स्थान है-देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियशरीरांगोपांग, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुअलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर और अस्थिर-इन दोनो में से कोई एक, शुभ और अशुभ-दोनों में से कोई एक, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति और अयशः कीर्ति-इन दोनों में से कोई एक, निर्माण और तीर्थंकर नामकर्म-इन उनतीस प्रकृतियों का एक ही भाव में अवस्थान होता है । यहाँ स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ और यशःकीर्ति-अपयशःकीर्ति-इन सप्रतिपक्ष प्रकृतियों के विकल्प से आठ (दो गुणित दो गुणित दो बराबर ८) भंग होते हैं। इस उनतीस प्रकृति वाले बन्धस्थान के स्वामी पंचेन्द्रिय जाति, पर्याप्त और तीर्थकर प्रकृति से युक्त देवगति को बांधनेवाले असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानवी जीव होते हैं । देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियशरीरांगोपांग, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरु Jain Education Interational Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ तृतीय अध्याय........{154} अलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति और निर्माण-इन अठाईस प्रकृतियों का एक ही भाव में अवस्थान होता है । यहाँ अयशः कीर्ति का बन्ध नही होता है, क्योंकि प्रमत्तसंयत गुणस्थान में इसका बन्ध-विच्छेद हो जाता है । इस प्रथम अठाईस प्रकृति वाले बन्धस्थान के स्वामी पंचेन्द्रिय जाति और पर्याप्त नामकर्म से युक्त देवगति को बांधने वाला अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती संयत होता है। देवगति सम्बन्धी एक अन्य अठाईस प्रकृति वाला बन्धस्थान है - देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रिय शरीरांगोपांग, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुअलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर और अस्थिर इन दोनों में से कोई एक, शुभ और अशुभ- इन दोनों में से कोई एक, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति और अयशः कीर्ति इन दोनों में से कोई एक और निर्माण नामकर्म-इन द्वितीय अठाईस प्रकृतियों का एक ही भाव में अवस्थान होता है । यहाँ स्थिर, शुभ और यशः कीर्ति इन तीन युगलों के विकल्प से आठ ( दो गुणित दो गुणित दो बराबर ८ ) भंग होते हैं। इस अठाईस प्रकृति वाले बन्धस्थान के स्वामी पंचेन्द्रिय जाति और पर्याप्त नामकर्म से युक्त देवगति को बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव होते हैं, क्योंकि प्रमत्तसंयत गुणस्थान से आगे अस्थिर, अशुभ और अयशः कीर्ति- इन प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है । देवगति सम्बन्धी पांच बन्धस्थानों में यशः कीर्ति नामकर्म सम्बन्धी एक प्रकृति वाला बन्धस्थान है । एक प्रकृति वाले बन्ध स्थान के स्वामी वे संयत ही होते हैं, जो अपूर्वकरण गुणस्थान के सातवें भाग से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक के गुणस्थानवर्ती संयत होते हैं, क्योंकि यशः कीर्ति को छोड़कर शेष सभी नामकर्म की प्रकृतियों का अपूर्वकरण गुणस्थान के छठे भाग में बन्ध-विच्छेद हो जाता है । यशः कीर्ति भी सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक ही बन्ध को प्राप्त होती है । गोत्रकर्म की दो प्रकृतियाँ हैं - उच्चगोत्र और नीचगोत्र । नीचगोत्र एक प्रकृतिवाला बन्धस्थान है । नीचगोत्र एक प्रकृति वाले बन्धस्थान के स्वामी मिथ्यादृष्टि और सासादनसमयग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव होते हैं। इससे आगे नीचगोत्र सम्भव नहीं है । उच्चगोत्र भी एक प्रकृति वाला बन्धस्थान है। उच्चगोत्र नामक एक प्रकृति वाले बन्धस्थान के स्वामी मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत गुणस्थानवर्ती जीव होते हैं । अन्तराय कर्म की पांच प्रकृतियाँ हैं - दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय । इन पांचों प्रकृतियों का एक ही भाव में अवस्थान होता है । इन पांचों अन्तराय प्रकृतियों वाले बन्धस्थान के स्वामी मिध्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक के संयत जीव होते हैं । षट्खण्डागम प्रथम खण्ड की आठवीं और नवीं चूलिकाओं में गुणस्थान विवेचन १८७ : षट्खण्डागम के जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड की आठवीं चूलिका में सम्यक्त्व की सर्व प्रथम प्राप्ति किस प्रकार और किन्हें होती है, इसकी चर्चा की गई है। इसमें कहा गया है कि जब जीव को सभी कर्मों की अन्तः कोडाकोडी परिमाण स्थिति रहती है, तब संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीव दर्शन मोहनीय कर्म का उपशमन करता हुआ पन्द्रह कर्मभूमियों में प्रथम बार औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त करता है । इस प्रकार आठवीं चूलिका में मिथ्यादृष्टि जीव किस प्रकार सम्यक्त्व की और अभिमुख होता है इसका विवेचन है । षट्खण्डागम की जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड की नवीं चूलिका में प्रथम मिथ्यादृष्टि नारकी, संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, देव और मनुष्य किन स्थितियों में और किन कारणों से प्रथम औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त होते हैं, इसकी चर्चा की गई है । सर्वप्रथम यह बताया गया है कि चारों ही गति के जीव पर्याप्त संज्ञी अवस्था में ही सर्वप्रथम औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त होते हैं । प्रथम औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति के कारणों की चर्चा करते हुए इसमें यह कहा गया है कि प्रथम तीन नारक के जीव जाति स्मरण ज्ञान के द्वारा अथवा धर्मोपदेश श्रवण के द्वारा वेदना से अभिभूत होकर औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त होते १८७ षट्खण्डागम, पृ. ३११ से ३४४, प्रकाशनः श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{155} हैं, किन्तु नीचे की चार नारक पृथ्वी के नारकी जीव जातिस्मरण ज्ञान और वेदना से अभिभूत होकर क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करते हैं। प्रथम तीन पृथ्वियों में देवों का जाना सम्भव होने से वहाँ धर्मोपदेश की संभावना मानी गई है। नीचे की चार पृथ्वियों में देवों का जाना सम्भव नहीं होने से वहाँ जातिस्मरण ज्ञान और वेदना से अभिभूत होकर सम्यक्त्व को प्राप्त होते हैं। जहाँ तक संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्यों का प्रश्न है, वे वहाँ सर्व प्रथम औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति के कारण में जातिस्मरणज्ञान, धर्मोपदेश का श्रवण और जिनप्रतिमा का दर्शन-ये तीन कारण माने गए हैं। गर्भोपक्रांत संज्ञी पंचेन्द्रिय मनुष्य आठ वर्ष से अधिक की उम्र में ही तिर्यंचों के समान ही जातिस्मरणज्ञान, धर्मोपदेश श्रवण और जिनप्रतिमा के दर्शन इन तीनों कारणों से सम्यक्त्व को प्राप्त होते हैं । देवों में ग्रैवेयक विमानवासी देवों तक ही सर्वप्रथम सम्यक्त्व की प्राप्ति सम्भव होती है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि जीव ग्रैवेयक तक ही उत्पन्न हो सकते हैं। अनुत्तरविमानवासी देव तो सम्यक्त्व से युक्त ही होते हैं। देवों में भवनपति से लेकर सहस्रार देवलोक तक के देव जातिस्मरणज्ञान, धर्मोपदेशश्रवण, देव ऋद्धि के दर्शन और जिनप्रतिमा को क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त होते हैं। आनत-प्राणत. आरण-अच्यत इन चार कल्पों के निवासी मिथ्यादष्टि देव जातिस्मरणज्ञान. धर्मोपदेशश्रवण और जिन प्रतिमा को देखकर सर्व प्रथम औपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त होते हैं। ग्रैवेयक विमानवासी देव केवल जातिस्मरणज्ञान और धर्मोपदेश श्रवण-इन दो कारणों से ही सर्वप्रथम औपशमिर हैं, क्योंकि न तो वे तीर्थंकर परमात्मा के कल्याणक महोत्सव में जाते हैं और न ही वे अष्टान्हिका आदि के अवसर पर नंदीश्वर द्वीप जाते हैं। इस प्रकार इस नवीं चूलिका में भी सर्वप्रथम सम्यक्त्व के उत्पत्ति के कारण की चर्चा है । इसके पश्चात् इस चूलिका में यह बताया गया है कि सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव इन गुणस्थानों में आयुष्य पूर्ण करके कहाँ उत्पन्न होते हैं। इसमें यह भी बताया गया है कि सम्यग्दृष्टि नारकी, नरक से निकलकर एक मात्र मनुष्य गति को प्राप्त होते हैं। मनुष्यों में भी वे गर्भोपक्रांत पर्याप्त संज्ञी में संख्यातवर्ष की आयुवालों में ही जन्म लेते हैं। इसी क्रम में यह भी कहा गया हैं, कि सम्यगमिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव, चूंकि इस गुणस्थान में मृत्यु सम्भव नहीं है, अतः वे इस गुणस्थान में अपनी आयुष्य पूर्ण नहीं करते हैं। साथ ही यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि सातवीं नारक पृथ्वी के सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव इन गुणस्थानों में उस सातवीं नारकी के नरकायु को पूर्ण नहीं करते। वे मिथ्यात्व को ग्रहण करके ही नियम से संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त संख्यातवर्ष की आयु वाले तिर्यंच में ही जन्म लेते हैं । षखण्डागम के जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड की इस नवीं चूलिका में तिर्यंच जीव किन-किन गतियों में जाते हैं; इसका भी विवेचन किया गया है । इस सन्दर्भ में गुणस्थानों का अवतरण करते हुए यह कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि तिर्यंच, तिर्यंच पर्याय में मरकर नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव-इन चारों ही गतियों में उत्पन्न हो सकते हैं, किन्तु जहाँ तक सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंच जीवों का प्रश्न हैं, वे तिर्यंच, मनुष्य और देव-इन तीन गतियों में ही जाते हैं। पुनः तिर्यंच में जन्म लेते हुए वे एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय तिर्यंच में ही जन्म लेते हैं, विकलेन्द्रिय तिर्यंच में जन्म नहीं लेते । यदि वे एकेन्द्रिय में जन्म लेते हैं, तो वे बादर पृथ्वीकाय, बादर अप्काय, बादर वनस्पतिकाय प्रत्येक शरीर एवं पर्याप्त अवस्था में ही जन्म लेते हैं। यदि उनका जन्म पंचेन्द्रिय तिर्यंच में हो, तो वे नियम से गर्भज पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुवाले संज्ञी तिर्यंच में ही जन्म लेते हैं । यदि सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंच जीव मनुष्यों में जन्म लेते हैं, तो वे गर्भज पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुवाले मनुष्य में ही जन्म लेते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंच जीव मृत्यु को प्राप्त नहीं होते हैं, अतः उनके किसी भी गति में जन्म लेने का प्रश्न ही नहीं उठता है। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंच जीव इस गुणस्थान में आयुष्य पूर्ण करते हैं, तो वे सौधर्म देव लोक से लेकर अच्युत देवलोक के कल्पवासी देवों में ही उत्पन्न होते हैं। इस चर्चा के प्रसंग में यह भी बताया गया है कि असंख्यात वर्ष की आयुष्यवाले तिर्यच में, चाहे वे मिथ्यादृष्टि हो, सासादनसम्यग्दृष्टि हो अथवा असंयतसम्यग्दृष्टि हो, मृत्यु को प्राप्त करके देवलोक मे ही जाते हैं। Jain Education Intemational Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{156). देशविरतियों का विवेचन षट्खण्डागम में नहीं हैं। जहाँ तक संख्यात वर्ष की आयुवाले मिथ्यादृष्टि मनुष्यों का प्रश्न है, संख्यात वर्ष की आयुष्यवाले मनुष्य पर्याय में आयुष्य पूर्ण करके चारों ही गतियों की सभी स्थिति में जन्म लेते है, किन्तु यदि वे मिथ्यादृष्टि है, तो नव ग्रैवेयक तक ही जन्म लेते हैं । संख्यात वर्ष की आयु वाले सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी मनुष्य मृत्यु को प्राप्त करके तिर्यंच, मनुष्य और देव-इन तीन गतियों में जन्म लेते हैं। यदि तिर्यंच में जन्म लें, तो वे एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय में ही जन्म लेते हैं, विकलेन्द्रियों में नहीं । एकेन्द्रिय में जन्म ले, तो बादर प्रत्येक शरीरी पर्याप्तो में ही जन्म लेते हैं। यदि पंचेन्द्रिय में जन्म ले, तो गर्भज पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय संख्यात वर्ष की आयुवाले में ही जन्म लेते हैं। यदि देवों में जन्म ले, तो नव ग्रेवेयक देवों तक ही जन्म लेते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी मनुष्य इसी गुणस्थान में मृत्यु को प्राप्त नहीं करते हैं, अतः यहाँ इनकी गतियों का विचार नहीं किया गया है । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती मनुष्य, मनुष्य पर्याय से मृत्यु को प्राप्त करके एक मात्र देव गति को ही प्राप्त होते हैं। देवगति में भी वे सौधर्म देवलोक से सर्वार्थसिद्ध विमानवासी देवों तक जन्म लेते हैं। इसी प्रकार असंख्यात वर्ष के आयुवाले मनुष्य, चाहे वे मिथ्यादष्टि गणस्थान में हो. चाहें वे सासादनसम्यग्दष्टि गणस्थान में अथवा अविरतसमयग्दृष्टि गुणस्थान में, वे मरकर नियम से देवगति को ही प्राप्त होते हैं। मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव इन गुणस्थानों में मृत्यु को प्राप्त करके तिर्यंच या मनुष्य गति को ही प्राप्त करते हैं। यदि तिर्यंच गति को प्राप्त करते हैं, तो वे एकेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ही होते हैं, विकलेन्द्रिय नहीं होते हैं। एकेन्द्रिय में बादर पर्याप्त पृथ्वीकाय, अप्काय और प्रत्येक वनस्पतिकाय में जन्म लेते हैं। यदि पंचेन्द्रिय तिर्यच होते हैं. तो संजी. गर्भज. पर्याप्त और संख्यात वर्ष की आयुवाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच होते हैं। इसी प्रकार यदि वे मनुष्यगति में जन्म लेते हैं, तो वे गर्भज, पर्याप्त, संज्ञी एवं संख्यात वर्ष की आयुवाले ही होते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती देव उसी गुणस्थान में देव पर्याय से च्युत नहीं होते हैं. अतः उनकी भावी गति का विचार अपेक्षित नहीं है। जहाँ तक अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों का प्रश्न है, वे नियम से ही मनुष्यगति मे जन्म लेते हैं। मनुष्यगति में वे नियम से ही गर्भज, पर्याप्त, संज्ञी तथा संख्यात वर्ष की आयुवाले होते हैं। यहाँ विशेष इतना समझना चाहिए कि आनतकल्प से लेकर नवें ग्रैवेयक तक के मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव, देव पर्याय से च्युत होकर मनुष्यगति में ही जन्म लेते हैं । षट्खण्डागम द्वितीय खण्ड में वर्णित गुणस्थानों में बन्ध हेतु : षट्खण्डागम के क्षुद्रकबन्ध नामक द्वितीयखण्ड के सत्परूपणा में बताया गया है कि बन्ध दो प्रकार का है-साम्परायिकबन्ध और ईर्यापथबन्ध। साम्परायिक बन्ध भी दो प्रकार का हैं-सूक्ष्मसम्परायिक और बादरसाम्परायिक। ईर्यापथ बन्ध भी दो प्रकार का हैं - छद्मस्थ और केवली । चौदह मार्गणास्थान बन्धकों की प्ररूपणा के आधरभूत होने के कारण यहाँ उन्हें दर्शाया गया है - गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहार । चौदह मार्गणाओं में गतिमार्गणा में नारकी, तिर्यंच. देव नियम से बन्धक हैं तथा मनुष्य बन्धक भी है और अबन्धक भी है। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग-ये चार कर्मबन्ध के कारण हैं। अयोगी गुणस्थानवी जीवों में कर्मबन्ध के सभी कारण का अभाव होने से वे अबन्धक हैं और शेष सभी गुणस्थानवी मनुष्य बन्धक हैं, क्योंकि कर्मबन्ध के निमित्तभूत कारणों से युक्त हैं। बन्ध के चार कारणों में से मिथ्यात्व का उदय मिथ्यात्व मोहनीय, नपुंसकवेद, नरकायु, नरकगति, जाति चतुष्क, हुंडकसंस्थान, असंप्राप्तासृपाटिका संघयण, नरकागतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतप नामकर्म, स्थावर नामकर्म, सूक्ष्म नामकर्म, अपर्याप्त नामकर्म और साधारण नामकर्म-इन सोलह प्रकृतियों के बन्ध का कारण हैं। अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्ताबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद, तिर्यंचायु, तिर्यंचगति, न्यग्रोधपरिमण्डल आदि चार संस्थान, वज्रऋषभनाराच आदि १८८ षट्खण्डागम, पृ. ३४५ से ४६४, प्रकाशनः श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण Jain Education Interational Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.. तृतीय अध्याय........{157} चार संघयण, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत नामकर्म, अप्रशस्तविहायोगति नामकर्म, दुर्भग नामकर्म, दुःस्वर नामकर्म, अनादेय नामकर्म और नीचगोत्र-इन पचीस प्रकृतियों के बन्ध का कारण है। अप्रत्याख्यानीयकषाय का उदय अप्रत्याख्यानीयकषाय चतुष्क, मनुष्यायु, मनुष्यगति नामकर्म, औदारिक शरीर नामकर्म, औदारिकशरीरांगोपांग नामकर्म, वज्रऋषभनाराचसंघयण नामकर्म और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्म-इन दस प्रकृतियों के बन्ध का कारण है । प्रत्याख्यानीय कषाय का उदय प्रत्याख्यानीयकषाय चतुष्क इन चार प्रकृतियों के बन्ध का कारण है। असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर नामकर्म, अशुभनामकर्म और अयशःकीर्ति नामकर्म-इन छः प्रकृतियों के बन्ध का कारण प्रमाद है। चार संज्वलनकषायों और नौ नोकषायों के तीव्र उदय का नाम प्रमाद है। प्रमाद का कषाय में अन्तर्भाव हो जाता है। देवायु (अप्रमत्त गुणस्थान तक), निद्रा, प्रचला (अपूर्वकरण के सप्तम भाग तक), देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय, आहार, तैजस, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियशरीरांगोपांग, आहारकशरीरांगोपांग, वर्ण नामकर्म, गंध नामकर्म, रस नामकर्म, स्पर्श नामकर्म, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु नामकर्म, उपघात नामकर्म, पराघात नामकर्म, उच्छ्वास नामकर्म, प्रशस्तविहायोगति नामकर्म, स्थिर नामकर्म, शुभ नामकर्म, सुभग नामकर्म, सुस्वर नामकर्म, आदेय नामकर्म, निर्माण नामकर्म, तीर्थंकर नामकर्म अपूर्वकरण के सात भागों में से छः भाग तक; हास्य, रति, भय, जुगुप्सा (अपूर्वकरण के अन्तिम भाग तक) चार संज्वलन और पुरुषवेद अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक; इन प्रकृतियों के बन्ध का कारण भी कषाय का उदय है । पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय (सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक) - इन सोलह प्रकृतियों के बन्ध का कारण भी कषाय का उदय है । सातावेदनीय के बन्ध का कारण एकमात्र योग है। इन्द्रियमार्गणा में एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीव बन्धक हैं । पंचेन्द्रिय जीव बन्धक भी हैं और अबन्धक भी हैं। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं, क्योंकि उनमें बन्ध के कारण पाए जाते हैं । अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव अबन्धक हैं, क्योंकि उनमें बन्ध के कारणों का अभाव है । ___कायमार्गणा के अनुसार पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय के जीव बन्धक हैं । त्रसकाय के जीव बन्धक भी है और अबन्धक भी हैं । क्योंकि प्रथम गुणस्थान से लेकर तेरह-वे गुणस्थान तक त्रसकाय के जीवों में बन्ध के कारण पाए जाते हैं, किन्तु चौदहवें गुणस्थानवर्ती त्रसकाय के जीवों में उनका अभाव होता है। योगमार्गणा के अनुसार मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी जीव बन्धक हैं। अयोगी जीव अबन्धक हैं । वेदमार्गणा के अनुसार स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदवाले जीव बन्धक हैं। अपगतवेदवाले जीव बन्धक भी हैं और अबन्धक भी हैं। अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के अवेद भाग से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के गुणस्थानवर्ती अपगतवेदवाले जीव बन्धक हैं तथा अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती अपगतवेदवाले जीव अबन्धक हैं। कषायमार्गणा के अनुसार क्रोधकषाय, मानकषाय, मायाकषाय और लोभकषायवाले जीव बन्धक हैं। अकषायवाले जीव बन्धक भी हैं तथा अबन्धक भी हैं । उपशान्तमोह गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती अकषायवाले जीव बन्धक हैं तथा अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती अकषायवाले जीव अबन्धक हैं। __ ज्ञानमार्गणा के अनुसार मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनः पर्यवज्ञानी जीव बन्धक हैं। केवलज्ञानी जीव बन्धक भी हैं और अबन्धक भी हैं। सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती केवलज्ञानी जीव बन्धक हैं तथा अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती केवलज्ञानी जीव अबन्धक हैं। संयममार्गणा के अनुसार असंयत और संयतासंयत जीव बन्धक हैं। संयत जीव बन्धक भी हैं और अबन्धक भी हैं। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती असंयत जीव बन्धक हैं। देशविरति गुणस्थानवर्ती संयतासंयत जीव भी बन्धक हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती संयत जीव भी बन्धक हैं। अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती संयत जीव अबन्धक हैं। दर्शनमार्गणा के अनुसार चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शनवाले जीव अबन्धक हैं। केवलदर्शनवाले जीव बन्धक भी Jain Education Interational Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{158} हैं और अबन्धक भी हैं। केवल दर्शन वाले सयोगी केवली गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं तथा अयोगी केवली गुणस्थानवर्ती केवलज्ञानी अबन्धक हैं। ___लेश्यामार्गणा के अनुसार कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ल लेश्यावाले जीव बन्धक हैं। अलेशी अर्थात् लेश्यारहित जीव अबन्धक हैं। भव्यमार्गणा के अनुसार अभव्य जीव बन्धक हैं । भव्य जीव बन्धक भी हैं और अबन्धक भी हैं । सम्यक्त्वमार्गणा के अनुसार मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव बन्धक हैं। सम्यग्दृष्टि जीव बन्धक भी हैं तथा अबन्धक भी हैं। चतुर्थ गुणस्थान से लेकर त्रयोदश गुणस्थान तक के सम्यग्दृष्टि जीव बन्धक हैं। अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि जीव अबन्धक हैं। संज्ञीमार्गणा के अनुसार संज्ञी और असंज्ञी जीव बन्धक हैं। संज्ञित्व और असंज्ञित्व-इन दोनों संज्ञा से रहित सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं तथा अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव अबन्धक हैं। केवली में विकल्पात्मक मन का अभाव होने से, उसे संज्ञी और असंज्ञी पद से रहित माना गया है। आहारमार्गणा के अनुसार आहारक जीव बन्धक है तथा अनाहारक जीव अबन्धक हैं। षट्खण्डागम के क्षुद्रबन्धक नामक द्वितीय खण्ड में विभिन्न गुणस्थानवी जीवों में बन्ध के निर्देश के पश्चात बन्धकों की प्ररूपणा में प्रयोजनभूत निम्न ग्यारह अनुयोगद्वारों का उल्लेख हुआ है - (१) एक जीव की अपेक्षा बन्ध स्वामित्व, (२) एक जीव की अपेक्षा बन्ध काल, (३) एक जीव की अपेक्षा बन्ध अन्तर, (४) सभी जीवों की अपेक्षा बन्ध भंगविचय, (५) द्रव्यप्ररूपणानुगम, (६) क्षेत्रानुगम, (७) स्पर्शानुगम, (८) सभी जीवों की अपेक्षा काल, (६) सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर, (१०) भावा- भावानुगम, (११) अल्प-बहुत्वानुगम। हमारा विवेच्य विषय गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा हैं । अतः जहाँ-जहाँ जिस-जिस मार्गणा में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन है, उसी का उल्लेख करेंगे । जीव की अपेक्षा बंध स्वामित्व नामक प्रथम द्वार की आठवीं संयममार्गणा में यह बताया गया है कि जीव संयत सामायिक चारित्र एवं छेदोपस्थापनीय चारित्र की शुद्धि को कैसे प्राप्त होता है? औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक लब्धि से जीव संयम ग्रहण कर सामायिक एवं छेदोपस्थापनीय चारित्र रूपी विशुद्धि को प्राप्त होता है । औपशमिक लब्धि से चारित्र मोहनीय के सर्वथा उपशम के द्वारा उपशान्तकषाय गुणस्थान में तथा क्षायिक लब्धि से चारित्र मोहनीय के सर्वथा क्षय के द्वारा क्षीणकषाय गुणस्थान में जीव संयमी जीवन की विशुद्धि को प्राप्त होता है। उपशमक और क्षपक दोनों में ही सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थान में सूक्ष्मसंपराय नामक चारित्र की विशुद्धि होती है। सूक्ष्मसम्पराय रूप चारित्र की विशुद्धि औपशमिक और क्षायिक लब्धि से प्राप्त होती हैं। यथाख्यात चारित्र की पूर्ण विशुद्धि उपशान्तकषाय गुणस्थान में औपशमिक लब्धि से और क्षीणकषायादि गुणस्थानों में क्षायिक लब्धि से होती है। तत्पश्चात् चौदहवीं आहारमार्गणा की चर्चा में यह बताया गया है कि अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव अनाहारक होते हैं, यह अवस्था क्षायिक लब्धि से प्राप्त होती है, क्योंकि उनके समस्त कर्मों का क्षय हो चुका है, किन्तु विग्रहगति में जो अनाहारक अवस्था प्राप्त होती है, वह औदयिक भाव से होती है, क्योंकि विग्रहगति में कर्मों का उदय पाया जाता है। काल नामक द्वितीय द्वार की सम्यक्त्वमार्गणा में एक जीव की अपेक्षा से यह बताया गया है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव कम से कम और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक ही इस गुणस्थान में रहते हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव कम से कम एक समय और अधिक से अधिक छः आवलि तक इस गुणस्थान में रहते हैं। मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव कम से कम अन्तर्मुहूर्त काल तक और अधिक से अधिक कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन काल तक इस गुणस्थान में रहते हैं, किन्तु यह काल स्थिति उन मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा से कही गई है, जिन्होंने कम से कम एक बार क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का स्पर्श कर लिया Jain Education Interational ntermational Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा... तृतीय अध्याय.......{159) द्रव्यपरिमाणानुगम नामक पंचम द्वार की सम्यक्त्वमार्गणा में गुणस्थानों का अवतरण करते हुए कहा गया है कि सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव द्रव्यपरिणाम की अपेक्षा से पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण अल्प-बहुत्वानुगम नामक ग्यारहवें द्वार की लेश्यामार्गणा में यह बताया गया है कि शुक्ललेश्यावाले जीव सबसे अल्प हैं । उनसे पद्मलेश्यावाले जीव असंख्यातगुणा हैं । उनसे तेजोलेश्यावाले जीव संख्यातगुणा है । उनसे लेश्यारहित अर्थात् अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती त्रिकाल के जीव अनन्तगुणा है। __ अल्प-बहुत्व नामक ग्यारहवें द्वार की सम्यक्त्वमार्गणा में यह कहा गया है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव सबसे अल्प हैं। प्रकृत (इसी) मार्गणा में अन्य प्रकार से अल्प-बहुत्व की चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव सबसे अल्प हैं । उनसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणा हैं। उनसे मिथ्यादृष्टि अनन्तगुणा षट्खण्डागम के तृतीय बन्ध-स्वामित्वविचय खण्ड में गुणस्थान विचारणा : पुष्पदंत एवं भूतबली प्रणीत षट्खण्डागम के तृतीय बन्ध-स्वामित्वविचय' नामक खण्ड में कौन कौन-सी प्रकृतियों के स्वामी कौन-कौन से गुणस्थानवी जीव हैं तथा कौन-से गुणस्थान में कौन-सी प्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद होता है, इसका विवेचन किया गया है। बन्धस्वामित्वविचय का निर्देश ओघ (सामान्य) और आदेश (विशेष) की अपेक्षा से दो प्रकार का है । सामान्य की अपेक्षा बन्धस्वामित्वविचय के विषय में चौदह जीवसमास गुणस्थान जानने योग्य हैं, वे इस प्रकार हैं - मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयता संयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्त संयत, अपूर्वकरण प्रविष्ट उपशमक व क्षपक, अनिवृत्ति बादर साम्परायिक प्रविष्ट उपशमक व क्षपक, सूक्ष्मसंपराय प्रविष्ट उपशम व क्षपक, उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ, क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली । यहाँ इन चौदह जीवसमासों से सम्बन्धित प्रकृति बन्धव्युच्छेद कहा जाता है अर्थात् जिन प्रकृतियों का जिस गुणस्थान में बन्धविच्छेद होता है उसी गुणस्थान तक उनके बन्ध का स्वामी है । उससे आगे के गुणस्थानों में उनका बन्ध नहीं होता है । तदनुसार यहाँ उन्हीं चौदह गुणस्थानों के आश्रय से कर्म प्रकृतियों के बन्ध का विच्छेद कहा जाता है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय शुद्धि संयत उपशमक व क्षपक तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीव पांच ज्ञानवरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन सोलह प्रकृतियों के बन्धक हैं। सूक्ष्मसंपराय शुद्धि संयत गुणस्थान के अन्तिम समय में उनका बन्ध-विच्छेद होता है। ये सभी गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं, शेष जीव अबन्धक हैं। निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया एवं लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यंचायु, तिर्यंचगति, न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान आदि चार संस्थान व वज्रऋषभनाराच संघयण आदि चार संस्थान, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत नामकर्म, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग नामकर्म, दुःस्वर नामकर्म, अनादेय नामकर्म और नीचगोत्र-इन पच्चीस प्रकृतियों के बन्धक मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव हैं। ये दोनों गुणस्थानवी जीव इनके बन्धक हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। निद्रा और प्रचला-इन दो दर्शनावरणीय प्रकृतियों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण प्रविष्टशुद्धिसंयत उपशमक और क्षपक तक के जीव बन्धक हैं। अपूर्वकरण गुणस्थान के संख्यातवें भाग में जाकर उनका बन्ध-विच्छेद होता है, इनके ये सभी गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। सातावेदनीय के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं। सयोगीकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय में जाकर उनका बन्ध विच्छेद १८६ षटखण्डागम, पृ. ४६५ से ५०६, प्रकाशनः श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण Jain Education Intemational Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ तृतीय अध्याय ........{160} होता है । ये सभी गुणस्थानवाले जीव इसके बन्धक हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर नामकर्म, अशुभ नामकर्म और अयशः कीर्ति- इन छः प्रकृतियों के मिध्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव बन्धक हैं, शेष गुणस्थानवर्ती जीव अबन्धक हैं। मिथ्यात्व मोहनीय, नपुंसकवेद, नरकायु, नरकगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय व चतुरिन्द्रिय जाति, हुंडक संस्थान, असंप्राप्तासृपाटिका संघयण, नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वी, आतप नामकर्म, स्थावर नामकर्म, सूक्ष्मनामकर्म, अपर्याप्त नामकर्म और साधारण नामकर्म- इन सोलह प्रकृतियों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव बन्धक हैं, आगे के गुणस्थानवर्ती जीव अबन्धक हैं। अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया व लोभ, मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, वज्रऋषभनाराच संघयण और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी इन नौ प्रकृतियों का मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव बन्धक हैं, शेष सभी गुणस्थानवर्ती जीव अबन्धक हैं । प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया एवं लोभ इन चार प्रकृतियों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक के सभी गुणस्थानवर्ती जीव बन्धक हैं, शेष सभी गुणस्थानवर्ती जीव अबन्धक हैं । पुरुषवेद और संज्वलन क्रोध के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण बादर साम्परायिक प्रविष्ट उपशमक एवं क्षपक तक के सभी जीव बन्धक हैं। अनिवृत्तिबादर गुणस्थान काल के संख्यात बहुभाग में जाकर उनका बन्ध-विच्छेद होता है। ये सभी गुणस्थानवर्ती जीव इनके बन्धक हैं, शेष सभी गुणस्थानवर्ती जीव अबन्धक हैं। संज्वलन मान और माया- इन दो प्रकृतियों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण बादरसंपराय प्रविष्ट उपशामक और क्षपक तक के सभी गुणस्थानवर्ती जीव बन्धक हैं । अनिवृत्तिबादर गुणस्थान का संख्यात बहुभाग व्यतीत होने पर इनका बन्ध-विच्छेद होता है । ये सभी गुणस्थानवर्ती जीव इनके बन्धक हैं, शेष सभी गुणस्थानवर्ती जीव अबन्धक हैं। संज्वलन लोभ के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादर साम्परायिक प्रविष्ट उपशमक और क्षपक तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव बन्धक हैं। अनिवृत्तिबादर गुणस्थान के अन्तिम समय में जाकर इनका बन्ध-विच्छेद होता है, शेष सभी गुणस्थानवर्ती जीव इनके अबन्धक । हास्य, रति, भय और जुगुप्सा-इन चार प्रकृतियों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर पूर्वकरण प्रविष्ट उपशमक और क्षपक तक के सभी गुणस्थानवर्ती जीव बन्धक हैं। अपूर्वकरण के अन्तिम समय में जाकर इनका बन्ध-विच्छेद होता है, शेष सभी गुणस्थानवर्ती जीव इनके अबन्धक हैं । मनुष्यायु के बन्धक मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव है, शेष गुणस्थानवर्ती जीव इनके अबन्धक हैं । देवायु के मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती संज्ञी जीव बन्धक हैं। अप्रमत्तसंयत गुणस्थान का संख्यातवें भाग व्यतीत हो जाने पर इसका बन्ध-विच्छेद होता है । ये सभी गुणस्थानवर्ती जीव इसके बन्धक हैं, शेष गुणस्थानवर्ती जीव अबन्धक हैं। देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय, तैजस, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माण- इन सत्ताईस प्रकृतियों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण प्रविष्ट उपशमक व क्षपक तक के सभी गुणस्थानवर्ती जीव बन्धक हैं। अपूर्वकरण गुणस्थान का संख्या बहुभाग व्यतीत हो जाने पर इनका बन्ध-विच्छेद होता है । ये सभी गुणस्थानवर्ती जीव इनके बन्धक हैं, शेष सभी गुणस्थानवर्ती जीव इनके अबन्धक हैं। आहारक शरीर और आहारक शरीरांगोपांग नामकर्म के बन्धक अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण प्रविष्ट उपशमक एवं क्षपक हैं। अपूर्वकरण का संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने पर उनका बन्ध-विच्छेद हो जाता है, सभी गुणस्थानवर्ती जीव इनके बन्धक हैं और शेष सभी गुणस्थानवर्ती जीव अबन्धक हैं। तीर्थंकर नामकर्म के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान 'से लेकर अपूर्वकरण प्रविष्ट उपशमक और क्षपक तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव बन्धक हैं। अपूर्वकरण काल का संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने पर इसका बन्ध-विच्छेद हो जाता है, शेष सभी गुणस्थानवर्ती जीव इसके अबन्धक हैं। यहाँ षट्खण्डागम में कितने कारणों से जीव तीर्थंकरनामगोत्रकर्म को बांधते हैं ? तीर्थंकर प्रकृति का उच्चगोत्र के साथ अविनाभाव पाया जाता है, इसलिए यहाँ उसे 'गोत्र' नाम से भी बताया गया है । जीव मनुष्यगति में निम्न सोलह कारणों से तीर्थंकर नामकर्म 1 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{161} को बांधते हैं - (१) दर्शनविशुद्धता, (२) विनयसंपन्नता, (३) शीलव्रतों में निरतिचारिता, (४) छः आवश्यकों में अपरिहीनता, (५) क्षण-लब प्रतिबोधनता, (६) लब्धि संवेग सम्पन्नता, (७) यथाशक्ति तथा तप, (८) साधुओं की प्रासुकपरित्यागता, (६) साधुओं की समाधि संधारण, (१०) साधुओं की वैयावृत्ययोगयुक्ता, (११) अरहंतभक्ति, (१२) बहुश्रुतभक्ति, (१३) प्रवचनभक्ति, (१४) प्रवचनवत्सलता, (१५) प्रवचन प्रभावना और (१६) अभीक्ष्ण- अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्ता। जिन जीवों को तीर्थकर नाम-गोत्र-कर्म का उदय होता है, वे उसका उदय से देव, असुर और मनुष्य लोक के अर्चनीय, पूजनीय, वन्दनीय, नमस्करणीय, नेता, धर्मतीर्थ के कर्ता, जिन व केवली होते हैं । आदेश अर्थात् विशेष की अपेक्षा गति मार्गणा में नरकगति में नारकियों में पांच ज्ञानावरण, छः दर्शनावरण, सातावेदनीय, असातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, तैजस, र, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक अंगोपांग, वज्रऋषभनाराच संघयण, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, अयशः कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक के सभी गुणस्थानवर्ती नारकी जीव बन्धक हैं, अबन्धक कोई नही है । निद्रा-निद्रा. प्रचला-प्रचला. स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया व लोभ, स्त्रीवेद, तिथंचायु, तिथंचगति, न्यग्रोधपरिमण्डल आदि चार संस्थान, वजऋषभनाराच आदि चार संघयण, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र-इन कर्मों के मिथ्यादष्टि और सासादनसम्यग्दष्टि गणस्थानवर्ती नारकी सभी जीव बन्धक हैं. शेष नारकी अबन्धक हैं। मिथ्यात्व मोहनीय, नपुंसकवेद, हुंडकसंस्थान और असंप्राप्तासृपाटिका संघयण-इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी नारकी जीव बन्धक हैं. शेष नारकी अबन्धक हैं । मनुष्याय के मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी नारकी जीव बन्धक हैं. शेष नारकी अबन्धक हैं। तीर्थकर नामकर्म के असंयतसम्यग्दष्टि गणस्थान शेष नारकी अबन्धक हैं। इसके बन्ध की व्यवस्था उपरिम तीन पृथ्वियों में ही जानना चाहिए। चौथी, पांचवी, छठी तथा सातवीं पृथ्वी में तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध सम्भव नही है। सातवीं पृथ्वी के नारकियों में पांच ज्ञानावरणीय, छः असाता वेदनीय, अप्रत्याख्यानीय क्रोध आदि बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक. तैजस. कार्मण शरीर. समचतरससंस्थान. औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रऋषभनाराच संघयण, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, अयशः कीर्ति, निर्माण और पांच अन्तराय-इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकी जीव बन्धक हैं, शेष नारकी इनके अबन्धक हैं। निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान माया व लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यंचगति, न्यग्रोधपरिमण्डल आदि चार संस्थान, वज्रऋषभनाराच आदि चार संघयण, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र-इन कर्म के बन्धक मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकी हैं, शेष अबन्धक हैं । मिथ्यादृष्टि मोहनीय, नपुंसकवेद, तिथंचायु, हुंडक संस्थान और असंप्राप्तासृपाटिका संघयण-इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकी बन्धक हैं, शेष नारकी अबन्धक हैं। मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र-इन कर्मों के सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकी बन्धक हैं, शेष नारकी अबन्धक हैं। तिर्यंचगति में पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियों में पांच ज्ञानावरणीय, छ: दर्शनावरणीय, साता व असातावेदनीय, आठ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय, तैजस, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रिय शरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ तृतीय अध्याय ........{162} आदेय, यशः कीर्ति, अयशः कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत स्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती उपर्युक्त तिर्यंच बन्धक हैं, शेष तिर्यंच अबन्धक हैं। तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध सम्यग्दृष्टि जीवों को सम्भव है। निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया व लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यंचायु, मनुष्यायु, तिर्यंचगति, औदारिक शरीर, चार संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, पांच संघयण, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्त विहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र- इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंच बन्धक हैं, शेष तिर्यंच अबन्धक हैं। मिथ्यात्व मोहनीय, नपुंसक वेद, नरकायु, नरकगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय व चतुरिन्द्रिय जाति, हुंडक संस्थान, असंप्राप्तासृपाटिका संघयण, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण- इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंच बन्धक हैं, शेष तिर्यंच अबन्धक हैं । अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया और लोभ के मिध्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंच बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं। देवायु के मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानवर्ती तिर्यंच बन्धक हैं, शेष तिर्यंच अबन्धक हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तों में पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, साता व असातावेदनीय, मिथ्यात्वमोहनीय, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, तिर्यंचायु, मनुष्यायु, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, छः संस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, छः संस्थान, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, तिर्यंचगति व मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, विहायोगति द्विक, त्रस, स्थावर, बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीर, साधारण शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय, अनादेय, यशः कीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय इन कर्मों के सभी तिर्यंच बन्धक हैं, अबन्धक कोई नहीं है । मनुष्य गति, मनुष्य पर्याप्त एवं मनुष्यनियों में तीर्थंकर नामकर्म आदि के सम्बन्ध में सामान्य से जो बताया गया है, उसी के समान जानना चाहिए। विशेषता यह है कि निद्रा - निद्रा आदि द्विस्थानिक प्रकृतियों और अप्रत्याख्यानावरणीय चतुष्क की प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के समान है । मनुष्य अपर्याप्त जीवों की प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तों के समान है। देवगति में पांच ज्ञानावरणीय, छः दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रऋषभनाराच संघयण, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, अयशः कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के सभी गुणस्थानवर्ती देव बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं। निद्रा-निद्रा, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यंचायु, चार संस्थान, चार संघयण, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र-इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव बन्धक हैं, शेष देव अबन्धक हैं। मिथ्यात्व मोहनीय, नपुंसकवेद, एकेन्द्रिय जाति, हुंडक संस्थान, असंप्राप्तासृपाटिका संघयण, आतप और स्थावर - इन कर्म के मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती देव बन्धक हैं, शेष देव अबन्धक हैं। मनुष्यायु के मिध्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव बन्धक हैं, शेष देव अबन्धक हैं। तीर्थंकर नामकर्म के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव बन्धक हैं, शेष देव अबन्धक हैं । भवनवासी, वाणव्यन्तर और ज्योतिष्क देवों की प्ररूपणा सामान्य देवों के समान है। विशेष यह है कि इन देवों को तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध नहीं होता है। सौधर्म व ईशान कल्पवासी देवों की प्ररूपणा सामान्य देवों के समान है । सानत्कुमार कल्प से लेकर सहस्रार कल्पवासी देवों तक की प्ररूपणा प्रथम पृथ्वी के नारकियों के समान है । आनत कल्प से लेकर नव ग्रैवेयक तक विमानवासी देवों में पांच ज्ञानावरणीय, छः दर्शनावरणीय, साता व असातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय.......{163} औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रऋषभनाराच संघयण, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, अयशः कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती देव बन्धक हैं, अबन्धक नहीं हैं। निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया व लोभ, स्त्रीवेद, चार संस्थान, चार संघयण, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र-इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव बन्धक हैं, शेष देव अबन्धक हैं। मिथ्यात्व मोहनीय, नपुंसकवेद, हुंडक संस्थान और असंप्राप्तासृपाटिका संघयण-इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती देव बन्धक हैं, शेष देव अबन्धक हैं। मनुष्यायु के मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव बन्धक हैं, शेष देव अबन्धक हैं। तीर्थकर नामकर्म के संयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव बन्धक हैं, शेष देव अबन्धक हैं। अनुदिशों से लेकर सर्वार्थसिद्ध तक विमानवासी देवों में पांच ज्ञानावरणीय, छः दर्शनावरणीय, साता व असातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, तैजस कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रऋषभनाराच संघयण, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, निर्माण, तीर्थकर, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मो के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव बन्धक हैं। इन देवों में मात्र असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान ही होता है। इन्द्रियमार्गणा में एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा इनके पर्याप्त व अपर्याप्त और पंचेन्द्रिय अपर्याप्त-इन सभी की प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त के समान है । पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवों में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती उपशमक व क्षपक तक सभी पंचेन्द्रिय जीव बन्धक हैं, सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के अन्तिम समय में इनको बन्ध-विच्छेद होता हैं, शेष पंचेन्द्रिय जीव इनके अबन्धक हैं । निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया व लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यंचायु, तिर्यंचगति, चार संस्थान, चार संघयण, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, प्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र-इन कर्मों के बन्धक मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीव बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं। निद्रा और प्रचला-इन दो कर्मों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती उपशमक एवं क्षपक सभी जीव बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं । सातावेदनीय के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के सभी जीव बन्धक हैं। सयोगीकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय में इसका बन्ध-विच्छेद हो जाता है, शेष अर्थात् अयोगीकेवली अबन्धक हैं। असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ, और अयशः कीर्ति-इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के सभी जीव बन्धक हैं, शेष अबन्धक हैं। मिथ्यात्व मोह, नपुंसकवेद, नरकायु, नरकगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय जाति, हुंडक संस्थान, असंप्राप्तासृपाटिका संघयण, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण शरीर-इन कर्मो के बन्धक मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव हैं, शेष जीव अबन्धक हैं। अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया एवं लोभ, मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रऋषभनाराचसंघयण और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी-इन सभी कर्मों के बन्धक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीव हैं, शेष जीव इनके अबन्धक हैं। प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चार के बन्धक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीव हैं, शेष अबन्धक हैं। पुरुषवेद और संज्वलन क्रोध के बन्धक मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रविष्ट उपशमक व क्षपक तक के सभी जीव हैं। अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के अन्त में संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने पर इनका बन्ध-विच्छेद होता है, शेष सभी जीव इनके अबन्धक हैं। संज्वलन मान और माया के बन्धक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण (उपशमक व क्षपक) तक के जीव Jain Education Intemational Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{164} हैं। अनिवृत्तिबादर गुणस्थान के अन्तिम भाग का संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने पर इनका विच्छेद होता है, शेष जीव अबन्धक हैं। संज्वलन लोभ के बन्धक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान (उपशमक व क्षपक) तक के जीव होते हैं। अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय में इनका बन्ध-विच्छेद होता है, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। हास्य, रति, भय, और जुगुप्सा-इनके बन्धक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण प्रविष्ट उपशमक व क्षपक तक के जीव हैं। अपूर्वकरण के अन्तिम समय में इनका बन्ध-विच्छेद होता है, शेष सभी जीव इनके अबन्धक हैं। मनुष्यायु के बन्धक मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव हैं, शेष जीव इसके अबन्धक हैं। देवायु के बन्धक मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव हैं। अप्रमत्तसंयत गुणस्थान का संख भाग व्यतीत हो जाने पर इसका बन्ध-विच्छेद होता हैं, शेष सभी जी कार्मण शरीर, समचतुरनसंस्थान, वैक्रियशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छवास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय और निर्माण-इन क मिथ्यादष्टि गणस्थान से लेकर अपर्वकरण में प्रविष्ट उपशमक व क्षपक तक के सभी जीव हैं, अपूर्वकरण का संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने पर इनका बन्ध-विच्छेद होता है, शेष सभी इनके अबन्धक हैं। आहारक शरीर और आहारकशरीरांगोपांग नामकर्म के बन्धक अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण प्रविष्ट उपशमक व क्षपक जीव हैं, अपूर्वकरण का संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने पर इनका बन्ध-विच्छेद होता है, शेष सभी जीव इनके अबन्धक हैं। ती असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण (उपशमक और क्षपक) तक के जीव हैं। अपूर्वकरण का संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने के बाद इसका बन्ध-विच्छेद हो जाता है, शेष सभी जीव इसके अबन्धक हैं। कायमार्गणा में पृथ्वीकाय, अप्काय, वनस्पतिकाय और निगोद के जीवों के बादर एवं सूक्ष्म पर्याप्त एवं अपर्याप्त तथा बादर वनस्पतिकाय के प्रत्येक शरीरी पर्याप्त एवं अपर्याप्त जीवों की प्ररूपणा पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तों के समान है । तेजस्काय और वायुकाय के बादर एवं सूक्ष्म, पर्याप्त एवं अपर्याप्त जीवों की प्ररूपणा भी पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तों के समान है। विशेष यह है कि मनुष्यायु, मनुष्यगति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र-इन प्रकृतियाँ का बन्ध इनके लिए सम्भव नहीं है । त्रसकाय त्रसकाय पर्याप्तों में तीर्थंकर प्रकति तक की प्रकति प्ररूपणा सामान्य से जैसी कही गई है. वैसी ही है। योगमार्गणा में पांच मनोयोगी. पांच वचनयोगी और काययोगियों में तीर्थंकर प्रकति तक के बन्ध की सामान्य से जो प्ररूपणा की गई है, उसी के समान है । सातावेदनीय का बन्ध मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों को होता है, शेष अर्थात् अयोगीकेवली अबन्धक हैं। औदारिककाययोगियों की प्ररूपणा मनुष्यगति के समान है । विशेष यह है कि सातावेदनीय की प्ररूपणा मनोयोगियों के समान है । औदारिकमिश्रकाययोगियों में पांच ज्ञानावरणीय, छः दर्शनावरणीय, असातावेदनीय, बारहकषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पंचेन्द्रिय जाति, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरनसंस्थान, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन सभी कर्मों के बन्धक मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव हैं, शेष अबन्धक हैं। निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, अन्नतानुबन्धी क्रोध, मान, माया व लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, औदारिक शरीर, चार संस्थान, औदारिक शरीरांगोपांग, पांच संघयण, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र-इन कर्मों के बन्धक मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव हैं, शेष सभी अबन्धक हैं। सातावेदनीय के बन्धक मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव हैं, शेष अबन्धक हैं। मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, तिथंचायु, मनुष्यायु, चार जातियों, हुंडक संस्थान, असंप्राप्तासृपाटिका संघयण, आतप, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण शरीर-इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं, शेष सभी Jain Education Intemational Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय.......{165} जीव अबन्धक हैं। देवगति, वैक्रियशरीर, वैक्रियशरीरांगोपांग, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी और तीर्थकर नामकर्म के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानदर्ती जीव बन्धक है, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। वैक्रियमिश्रकाययोगियों की प्ररूपणा देवगति के समान है। विशेष यह है कि द्विस्थानिक प्रकृतियों में तिर्यंचायु और मनुष्यायु भी नहीं हैं। आहारक काययोगी और आहारक मिश्रकाययोगियों में पांच ज्ञानावरणीय, छः दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय, तैजस, कार्मण, समचतुरनसंस्थान, वैक्रियशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहाययोगति, त्रस, बादर, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, निर्माण, तीर्थंकर, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के प्रमत्तसंयत गणस्थानवी जीव बन्धक हैं .शेष सभी अबन्धक हैं। कार्मणकाययोगियों में पांच ज्ञानावरणीय, छः दर्शनावरणीय असातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जगप्सा, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, तैजस, कार्मण, समचतरनसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रऋषभनाराच संघयण, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, अयशः कीर्ति, निर्माण. उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के मिथ्यावृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं, शेष सभी अबन्धक हैं। निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया व लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यंचगति, चार संस्थान, चार संघयण, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और नीचगोत्र-इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। सातावेदनीय के मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। मिथ्यात्व, नपंसकवेद, चार जातियाँ, हंडक संस्थान, असंप्राप्तासपाटिका संघयण, आतप, स्थावर, सक्ष्म, अपर्याप्त और साधारण शरीर नामकर्म-इन कर्मों के बन्धक मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। देवगति, वैक्रियशरीर, वैक्रियशरीरांगोपांग, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी और तीर्थंकर नामकर्म-इन कर्मों के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। वेदमार्गणा में स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदवालों में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, चार संज्वलन, परुषवेद, अयशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के मिथ्यादष्टि गणस्थान से लेकर अनिवत्तिकरण उपशमक और क्षपक तक के जीव बन्धक हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। द्विस्थानिक प्रकतियों की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है । द्विस्थानिक पद से यहाँ मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यगदृष्टि गुणस्थानों में बन्ध की योग्यतावाली अवस्थित प्रकतियों को ग्रहण किया गया है। निद्रा और प्रचला प्रकतियों की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है । असातावेदनीय की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान हैं। एक स्थानिक प्रकृतियों की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है। एक मात्र मिथ्यादष्टि गणस्थान में जो प्रकतियाँ बन्धयोग्य होकर स्थित हैं, उनकी एकस्थानिक संज्ञा है। उन एकस्थानिकों की प्ररूपणा ओघ के समान जानना चाहिए। अप्रत्याख्यानावरणीय और प्रत्याख्यानावरणीय की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान हैं। हास्य व रति से लेकर तीर्थंकर प्रकति तक जो प्रकतियाँ हैं, इनकी प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है। अपगतवेदवालों में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के बन्धक अनिवृत्तिकरण से लेकर सूक्ष्मसंपराय उपशमक व क्षपक गुणस्थानवी जीव बन्धक है । सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के अन्तिम समय में इनका बन्धविच्छेद होता है. शेष सभी जीव इनके अबन्धक हैं। सातावेदनीय के अनिवृत्तिकरण गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं । सयोगीकेवली गुणस्थान के अन्त में इसका बन्धविच्छेद होता हैं, शेष सभी अबन्धक हैं। संज्वलन क्रोध के अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती उपशमक एवं क्षपक जीव बन्धक हैं । अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के संख्यात बहुभाग व्यतीत होने पर इसका बन्धविच्छेद होता है, शेष अग्रिम गुणस्थानवर्ती जीव इसके अबन्धक हैं। संज्वलन मान और माया Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{166} के अनिवृत्तिकरणवर्ती उपशमक व क्षपक जीव बन्धक हैं। अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के अन्तिम भाग का संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने पर इसका बन्धविच्छेद होता है, शेष गुणस्थानवी जीव अबन्धक हैं। संज्वलन लोभ के अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती उपशमक व क्षपक बन्धक हैं। अनिवृत्तिकरण के अन्तिम समय में बन्धविच्छेद होता हैं, शेष अग्रिम गुणस्थानवी जीव इसके अबन्धक हैं। कषायमार्गणा में क्रोध कषायवाले जीवों में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, चार संज्वलन, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय इन कर्मों के बन्धक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक के उपशमक और क्षपक जीव हैं, शेष सभी अबन्धक हैं। स्त्यानगृद्धि आदि द्विस्थानिक प्रकृतियों की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है । प्रत्याख्यानावरणीय तक सभी प्रकृतियों की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है। पुरुषवेद की प्ररूपणा भी सामान्य की प्ररूपणा के समान है । हास्य व रति से लेकर तीर्थंकर प्रकृति तक की प्रत्येक कर्मप्रकृति की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है। मानकषाय वाले जीव में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, सातावेदनीय मान आदि तीन संज्वलन, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्म के बन्धक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती तक के उपशमक व क्षपक जीव हैं, शेष सभी अबन्धक हैं। द्विस्थानिक प्रकृतियों से लेकर पुरुषवेद और संज्वलन क्रोध तक की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है। हास्य व रति से लेकर तीर्थंकर प्रकति तक के सभी कर्मों की प्ररूपणा भी सामान्य की प्ररूपणा के समान हैं। मायाकषायवाले जीवों में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, माया व लोभ, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के बन्धक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण तक के उपशमक व क्षपक जीव हैं, शेष सभी अबन्धक हैं। द्विस्थानिक प्रकतियों से लेकर संज्वलन मान तक की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है। हास्य व रति से लेकर तीर्थंकर प्रकृति तक की प्ररूपणा भी सामान्य की प्ररूपणा के समान है । लोभकषायवाले जीवों में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय - इन कर्मों के बन्धक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सक्ष्मसंपराय गणस्थान तक के उपशमक व क्षपक जीव हैं. शेष सभी अबन्धक हैं। तीर्थंकर प्रकति तक शेष प्रकतियों की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है । अकषायवाले जीवों में सातावेदनीय के बन्धक उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ, क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ और सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती सभी जीव हैं। सयोगीकेवली गुणस्थान के अन्तिम भाग में इसका बन्धविच्छेद होता है, शेष सभी अबन्धक हैं। ज्ञानमार्गणा में मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी जीवों में पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, साता व असाता वेदनीय, सोलह कषाय, आठ नोकषाय, तिर्यंचायु, मनुष्यायु, देवायु, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, वैक्रिय, तैजस व कार्मण शरीर, पांच संस्थान, औदारिक अंगोपांग, वैक्रिय अंगोपांग, पांच संघयण, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, उद्योत, दो विहायोगतियाँ, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय और अनादेय, यशः कीर्ति, अयशः कीर्ति. निर्माण.नीचगोत्र एवं उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। एकस्थानिक प्रकृतियों की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के बन्धक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती उपशमक व क्षपक जीव हैं। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के अन्तिम समय में इनका बन्धविच्छेद होता है। निद्रा और प्रचला की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है । साता वेदनीय के बन्धक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीव हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। असातावेदनीय आदि से लेकर तीर्थंकर प्रकृति तक की शेष प्रकृतियों की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान हैं। विशेष यह है कि उनके बन्धकों की प्ररूपणा में असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान आवश्यक हैं, ऐसा जानना चाहिए, Jain Education Intemational Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ तृतीय अध्याय ........{167} क्योंकि आभिनिबोधक आदि तीन ज्ञान असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से निम्न गुणस्थानों में नहीं पाए जाते हैं । मनः पर्यवज्ञानियों में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के बन्धक प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय तक के उपशमक व क्षपक जीव हैं। सूक्ष्मसंपराय के अन्तिम समय में इनका बन्धविच्छेद हो जाता है, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। निद्रा और प्रचला के बन्धक प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण- प्रविष्ट, उपशमक व क्षपक जीव हैं। पूर्वकरण के अन्त का असंख्यातवाँ भाग व्यतीत हो जाने पर इनका बन्धविच्छेद हो जाता है, शेष सभी अबन्धक हैं। सातावेदनीय के बन्धक प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव हैं, शेष सभी जीव अन्धक हैं। तीर्थंकर प्रकृति तक की शेष प्रकृतियों के बन्धाबन्ध की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है, विशेष यह है कि उनकी प्ररूपणा प्रमत्तसंयत गुणस्थान से आरंभ होती है, ऐसा कहना चाहिए, क्योंकि मनः पर्यवज्ञान प्रमत्तसंयत गुणस्थान से नीचे सम्भव नहीं है । केवलज्ञानियों में सातावेदनीय के बन्धक सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव हैं। सयोगीकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय में इसका बन्धविच्छेद हो जाता है, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। संयममार्गणा में संयत जीवों में प्रकृत प्ररूपणा मनः पर्यवज्ञानियों के समान है । सातावेदनीय के बन्धक प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव हैं । सयोगीकेवली गुणस्थान के अन्त में इसका बन्धविच्छेद हो जाता है, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। सामायिक और छेदोपस्थापनीय शुद्धि संयतों में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, संज्वलन लोभ, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के बन्धक प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती उपशमक व क्षपक जीव होते हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। शेष प्रकृतियों की प्ररूपणा मनः पर्यवज्ञानियों के समान है । परिहारशुद्धि संयतों में पांच ज्ञानावरणीय, छः दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, चार संज्वलन, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रिय, तैजस व कार्मणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रिय शरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, निर्माण, तीर्थंकर नामकर्म, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के बन्धक प्रमत्त और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं । असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशः कीर्ति नामकर्म के बन्धक प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव हैं, शेष सभी अबन्धक हैं। देवायु के प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव बन्धक हैं । अप्रमत्तसंयत गुणस्थान का संख्यात भाग व्यतीत हो जाने पर इनका बन्ध विच्छेद हो जाता है, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। आहारक शरीर और आहारक शरीरांगोपांग नामकर्म के अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव अबन्धक हैं, शेष सभी जीव बन्धक हैं। सूक्ष्मसम्परायशुद्धि संयतों में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय - इन कर्मों के सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानवर्ती उपशामक और क्षपक जीव बन्धक होते हैं। यथाख्यातविहारशुद्धि संयतों में सातावेदनीय कर्मों के बन्धक उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ, क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ और सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव हैं। सयोगीकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय में इसका बन्धविच्छेद हो जाता हैं, शेष जीव अबन्धक हैं। संयतासंयतों में पांच ज्ञानावरणीय, छः दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, असातावेदनीय, आठ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, देवायु, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्र संस्थान, वैक्रिय शरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, अयशः कीर्ति, निर्माण, तीर्थंकर, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय - इन कर्मों के बन्धक संयतासंयत गुणस्थानवर्ती जीव हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। असंयतों में पांच ज्ञानावरणीय, छः दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, असातावेदनीय, बारह कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, मनुष्यगति, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक, वैक्रिय, तैजस, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिक एवं वैक्रियशरीरांगोपांग, वज्रऋषभनाराच संघयण, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{168} अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, अयशः कीर्ति, निर्माण, तीर्थंकर, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन सभी कर्मों के बन्धक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यगदृष्टि गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीव हैं, शेष गुणस्थानवी जीव अबन्धक हैं। विस्थानिक प्रकृतियों की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है । एक स्थानिक प्रकतियों की प्ररूप की प्ररूपणा के समान है। मनुष्यायु और देवायु के मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यगदृष्टि गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। तीर्थकर नामकर्म के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं, शेष जीव अबन्धक दर्शनमार्गणा में चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शनवाले जीवों की प्ररूपणा तीर्थंकर प्रकृति तक सामान्य की प्ररूपणा के समान है। विशेष यह है कि सातावेदनीय के बन्धक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय वीतरागछद्मस्थ गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीव हैं, शेष अबन्धक हैं । अवधिदर्शनवाले जीवों की प्ररूपणा अवधिज्ञानियों के समान हैं । केवलदर्शनवाले जीवों की प्ररूपणा केवलज्ञानियों के समान है। ___ लेश्यामार्गणा में कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवों की प्ररूपणा असंयतों के समान है। तेजो और पद्मलेश्यावाले जीवों में पांच ज्ञानावरणीय, छः दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, संज्वलन चतुष्क, पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय, तैजस, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियशरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, निर्माण, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के बन्धक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव हैं, शेष सभी अबन्धक हैं। विस्थानिक प्रकृतियों की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है । असातावेदनीय की प्ररूपणा भी सामान्य की प्ररूपणा के समान है । मिथ्यादृष्टि मोहनीय, नपुंसकवेद, एकेन्द्रिय जाति, हुंडकसंस्थान, असंप्राप्तासृपाटिका संघयण, आतप और स्थावर नामकर्म के मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव बन्धक हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। अप्रत्याख्यानीय चतुष्क और प्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है । मनुष्यायु और देवायु की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है । आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग नामकर्म के अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। तीर्थंकर नामकर्म के बन्धक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं, शेष सभी अबन्धक हैं। पद्मलेश्यावाले जीवों में मिथ्यादृष्टि की प्ररूपणा नारकी के समान है । शुक्ललेश्यावाले जीवों में तीर्थंकर प्रकृति तक की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है । विशेष यह है कि सातावेदनीय की प्ररूपणा मनोयोगियों के समान है । द्विस्थानिक और एकस्थानिक प्रकृतियों की प्ररूपणा नवग्रैवेयक विमानवासी देवों के समान हैं ।। भव्यमार्गणा में भव्यसिद्धिक जीवों की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है। अभव्यसिद्धिक जीव पांच ज्ञानावरणीय, नौ दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, असातावेदनीय, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नौकषाय, चार आयुष्य, चार गतियाँ, पांच जातियाँ, औदारिक, वैक्रिय, तैजस व कार्मण शरीर, छः संस्थान, औदारिक व वैक्रिय अंगोपांग, छः संघयण, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, चार आनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, दो विहायोगतियाँ, त्रस, बादर, स्थावर, सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीर, साधारण शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर, दुःस्वर, आदेय, अनादेय, यशः कीर्ति, अयशः कीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन सभी कर्मों के जीव बन्धक हैं। ये नियम से मिथ्यादृष्टि सम्यक्त्वमार्गणा में सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों में प्रकृत प्ररूपणा आभिनिबोधिक ज्ञानियों के समान है, विशेष यह है कि सातावेदनीय के बन्धक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती Jain Education Intemational cation Intermational Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... तृतीय अध्याय........{169) जीव हैं । सयोगीकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय में इनका बन्धविच्छेद होता है, शेष सभी जीव अबन्धक हैं । वेदकसम्यग्दृष्टियों में पांच ज्ञानावरणीय, छः दर्शनावरणीय, सातावेदनीय, संज्वलन चतुष्क, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय, तैजस, कार्मण शरीर, समचतुरनसंस्थान, वैक्रिय शरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी , अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, आदेय, यशः कीर्ति, निर्माण, तीर्थंकर , उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के बन्धक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीव हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशः कीर्ति नामकर्म के बन्धक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीव हैं, शेष सभी जीव अबन्धक हैं। अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोध, मान, माया, लोभ, मनुष्यायु, मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक शरीरांगोपांग, वज्रऋषभनाराच संघयण और मनुष्यानुपूर्वी नामकर्म के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव बन्धक हैं, शेष सभी अबन्धक हैं। प्रत्याख्यानावरणीय कषाय चतुष्क के बन्धक असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानवी जीव हैं, शेष सभी गुणस्थानवी जीव अबन्धक हैं। देवायु कर्म के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं। अप्रमत्त गुणस्थान का संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने के बाद इनका बन्धविच्छेद होता है, शेष सभी गुणस्थानवी जीव अबन्धक हैं। आहारक शरीर और आहारकअंगोपांग नामकर्म के अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं, शेष सभी गुणस्थानवी जीव अबन्धक हैं। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय-इन कर्मों के बन्धक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक के जीव हैं। सूक्ष्मसंपराय के उपशमकाल के अन्तिम समय में इनका बन्धविच्छेद होता है, शेष सभी गुणस्थानवर्ती जीव अबन्धक हैं। निद्रा और प्रचला के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती उपशमक तक के सभी जीव बन्धक हैं। अपूर्वकरण के उपशमकाल का संख्यातवाँ भाग व्यतीत हो जाने पर इनका बन्धविच्छेद होता है, शेष सभी गुणस्थानवी जीव अबन्धक हैं। सातावेदनीय के बन्धक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान जीव हैं, शेष सभी गुणस्थानवी जीव अबन्धक हैं । असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर, अशुभ और अयशः कीर्ति नामकर्म के बन्धक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर प्रमत्तसंयत तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीव हैं, शेष सभी गुणस्थानवर्ती जीव अबन्धक हैं। अप्रत्याख्यानावरणीय कषाय चतुष्क आदि की प्ररूपणा अवधिज्ञानियों के समान है, विशेष यह है कि के आयु कर्म का बन्ध सम्भव नहीं है । प्रत्याख्यानावरणीय कषाय चतुष्क के असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानवी जीव बन्धक हैं, शेष सभी गुणस्थानवी जीव अबन्धक हैं। पुरुषवेद और संज्वलन क्रोध के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण तक के उपशमक सभी जीव बन्धक हैं। अनिवृत्तिकरण के उपशमकाल का संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने पर इनका बन्धविच्छेद होता है, शेष सभी गुणस्थानवी जीव अबन्धक हैं। संज्वलन मान और माया के बन्धक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण उपशमक तक के सभी जीव हैं। अनिवृत्तिकरण के उपशमकाल का संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने पर इनका बन्धविच्छेद होता है, शेष सभी गुणस्थानवी जीव अबन्धक हैं। संज्वलन लोभ के बन्धक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण के उपशमक जीवों तक के सभी जीव हैं। अनिवृत्तिकरण के उपशमकाल के अन्तिम समय में इसका बन्धविच्छेद होता हैं, शेष सभी गुणस्थानवी जीव अबन्धक है। हास्य, रति, भय और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण तक के जीव का उपशमक तक के सभी जीव बन्धक हैं। अपूर्वकरण के उपशमकाल के अन्तिम समय को प्राप्त होकर बन्धविच्छेद होता हैं। शेष सभी गुणस्थानवर्ती जीव अबन्धक हैं। देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय, तैजस व कार्मण शरीर, समचतुरनसंस्थान, वैक्रिय शरीरांगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, निर्माण और तीर्थकर नामकर्म के बन्धक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण उपशमक तक के सभी जीव हैं। अपूर्वकरण के उपशमकाल का संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने पर इनका Jain Education Intemational Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{170} बन्धविच्छेद होता है, शेष सभी गुणस्थानवी जीव इनके अबन्धक है। आहारक शरीर और आहारक शरीरांगोपांग के बन्धक अप्रमत्तसंयत गुणस्थान और अपूर्वकरण गुणस्थान के उपशमक जीव हैं। अपूर्वकरण (उपशमक) का संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने पर इनका बन्धविच्छेद होता हैं, शेष सभी गुणस्थानवी जीव इनके अबन्धक हैं। सासादनसम्यग्दृष्टियों की प्ररूपणा मति-अज्ञानियों के समान है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों की प्ररूपणा असंयतों के समान है । मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों की प्ररूपणा अभव्यसिद्धिक जीवों समान है। संज्ञीमार्गणा में संज्ञी जीवों में तीर्थंकर प्रकृति तक की प्रकृत प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है। विशेष यह है कि सातावेदनीय की प्ररूपणा चक्षुदर्शनियों के समान है। असंज्ञी जीवों में प्रकृत प्ररूपणा अभव्यसिद्धिक जीवों के समान है। ___आहारमार्गणा में आहारक जीवों की प्ररूपणा सामान्य की प्ररूपणा के समान है । अनाहारकों की प्ररूपणा कार्मण काययोगियों के समान है। षट्खण्डागम के वेदना'६० नामक चतुर्थ खण्ड में कर्मविपाक की अनुभूति को ही वेदना शब्द से अभिव्यक्त किया गया है। इस प्रकरण में सोलह अनुयोगद्वारों के माध्यम से वेदना के स्वरूप का विवेचन किया गया है। सामान्यतया प्रस्तुत प्रसंग में गुणस्थानों का क्रमबद्ध रूप से विशेष उल्लेख नहीं हुआ है । प्रसंगवश कहीं-कहीं गुणस्थानों की विविध प्राप्त हो जाता हैं। वेदनाखण्ड के चतुर्थ वेदन महाधिकार में कहा गया है कि चरम समयवर्ती छद्मस्थ अर्थात् क्षीणकषाय गुणस्थान के अन्तिम समय को प्राप्त जीव को ज्ञानावरणीय कर्म का सबसे कम वेदन होता है। यद्यपि यहाँ मूल में गुणस्थान शब्द का उल्लेख नहीं है, किन्तु चरम समयवर्ती छद्मस्थ से यहाँ क्षीणकषाय गुणस्थान के अन्तिम समय को ग्रहण किया गया है, किन्तु यहाँ यह समझना चाहिए कि वह वेदन द्रव्य की अपेक्षा कहा गया है, भाव की अपेक्षा से तो क्षीणकषाय, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानों में वेदनीय कर्म की वेदना अर्थात निर्जरा सर्वोत्कष्ट मानी गई है, यहाँ अन्य कर्मों की अपेक्षा से चर्चा तो है, किन्त उसमें गुणस्थानों का कहीं अवतरण नहीं किया गया है, केवल टीकाकारों ने कहीं-कहीं गुणस्थानों का नाम-निर्देश कर दिया है, अतः गुणस्थानों की विवेचना की अपेक्षा से यह खण्ड उतना अधिक महत्व नहीं रखता है । इस खण्ड में सबसे महत्वपूर्ण बात यही है कि इसकी वेदनाभावविधान नामक प्रथम चूलिका में दस गुणश्रेणियों की चर्चा है-सम्यक्त्वोत्पत्ति, देशव्रती, विरत अर्थात् महाव्रती, अनन्तानुबन्धी कषाय का विसंयोजन करनेवाला, दर्शनमोह की क्षपणा करने वाला, चारित्रमोह का उपशम करनेवाला उपशान्तकषाय, क्षपक, क्षीणमोह और जिन। साथ ही यहाँ इन गुणश्रेणियों में काल आदि की अपेक्षा से इनके अल्प-बहुत्व की चर्चा की गई है । इसमें यह बताया गया है कि इन गुणश्रेणियों में किस प्रकार क्रमशः असंख्यातगुणित अधिक कर्मों की निर्जरा होती है । गुणश्रेणियों के सम्बन्ध में हम विस्तृत चर्चा पंचसंग्रह में करेंगें । यहाँ षट्खण्डागमकार ने मात्र निर्जरा और काल की अपेक्षा से उनमें अल्प-बहुत्व का उल्लेख किया है । यह बताया गया है कि प्रत्येक गुणश्रेणी में उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा कर्मों की निर्जरा होती है, किन्तु काल की अपेक्षा से प्रत्येक गुणश्रेणी अल्प-अल्पकालीन होती है । इस प्रकार सिद्धान्त यह है कि अल्पकाल में ही कर्मों की बहुत अधिक निर्जरा होती है। षट्खण्डागम के वर्गणा' नामक पंचम खण्ड के बन्धनीय अनुयोगद्वार में बन्धनीय वर्गणाओं के नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव-ऐसे छः विभाग किए गए हैं। आगे इस प्रसंग में शरीरों की अपेक्षा से विभिन्न मार्गणाओं का निर्देश किया गया है । इस प्रसंग में संयममार्गणा की चर्चा करते हुए यह कहा गया है कि संयतासंयत और संयत गुणस्थानवर्ती जीव तीन शरीर वाले होते हैं और कोई चार शरीर वाले भी होते हैं, किन्तु परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसंपरायवाले संयत और यथाख्यात चारित्रधारी जीव तीन शरीरवाले ही होते हैं। जहाँ तक असंयत अर्थात् मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के जीवों का प्रश्न है, वे सामान्यतः दो, तीन या चार शरीर वाले भी हो सकते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव तीन १६० षट्खण्डागम, पृ. ५१० से ६७७, प्रकाशनः श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण १६१ षट्खण्डागम, पृ. ६८८ से ७८८, प्रकाशनः श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{171} या चार शरीरवाले ही होते है, क्योंकि इस गुणस्थान में मृत्यु नहीं होती है, अतः दो शरीर की संभावना नहीं होती है। अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव भी अधिकतम चार शरीर वाले होते हैं। यहाँ यह जानना चाहिए कि वे आहारक और वैक्रिय शरीर की रचना तो छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान में ही करते हैं। अतः इसे रचना की दृष्टि से नहीं सत्ता की दृष्टि से ही स्वीकार करना चाहिए। अपूर्वकरण गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक के गुणस्थानवर्ती जीव तीन शरीरवाले ही होते हैं-औदारिक, तैजस और कार्मण । अयोगीकेवली गुणस्थान के अन्त में योगनिरोध के साथ देह का त्याग हो जाता है। षट्खण्डागम के पंचम खण्ड के कर्म नामक चतुर्थ अनुयोगद्वार में कर्म शब्द की व्याख्या सोलह अनुयोगद्वारों के माध्यम से की गई है । यहाँ सर्वप्रथम कर्म शब्द के निक्षेप बताये गए हैं - (१) नामकर्म, (२) स्थापनाकर्म, (३) द्रव्यकर्म, (४) प्रयोगकर्म, (५) समवदानकर्म, (६) अधःकर्म, (७) ईर्यापथकर्म, (८) तपःकर्म, (६) क्रियाकर्म और (१०) भावकर्म ।। __ कर्मशब्द के इन दस निक्षेपों से चतुर्थ निक्षेप प्रयोगकर्म का विवेचन करते हुए यहाँ बताया गया है कि प्रयोगकर्म तीन प्रकार के होते हैं-मनःप्रयोगकर्म, वचन प्रयोगकर्म और कायप्रयोगकर्म। ये तीन प्रकार के प्रयोगकर्म संसार में स्थित मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती सभी जीवों को होते हैं। इस प्रकार यहाँ प्रयोगकर्म के सन्दर्भ में गुणस्थानों का अवतरण हुआ है ।। पुनः इसी क्रम में सातवें ईर्यापथकर्म के अर्थनिक्षेप को स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि मात्र योग के निमित्त से जो कर्म होता है, वह ईर्यापथकर्म हैं । ऐसा ईर्यापथकर्म छद्मस्थवीतराग अर्थात् उपशान्तकषाय एवं क्षीणकषाय गुणस्थानवी जीवों को तथा सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों को होता है, क्योंकि इन जीवों में योग के अतिरिक्त कर्मों के आश्रव का अन्य कोई कारण नहीं होता । इन कर्मों का प्रथम समय में आश्रव होता है, दूसरे समय में प्रदेशोदय होकर तीसरे समय में ये कर्म निर्जरित हो जाते हैं। उपर्युक्त गुणस्थानों में कषाय का अभाव होने के कारण मात्र योग निमित्त से ईर्यापथकर्म ही होते हैं । षट्खण्डागम के पंचम वर्गणा नामक खण्ड के बन्ध अनुयोगद्वार में कर्मबन्ध की स्थितियों का स्पष्टीकरण करते हुए उनके चार प्रकार बताये गए हैं-बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान । इसी प्रसंग में बन्ध के चार प्रकारों का उल्लेख हैं- नामबन्ध, स्थापनाबन्ध, द्रव्यबन्ध और भावबन्ध । आगे भावबन्ध की चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि यह भावबन्ध भी तीन प्रकार का हैं-विपाकप्रत्ययिक भावबन्ध, अविपाकप्रत्ययिक भावबन्ध और तदुभयप्रत्ययिक भावबन्ध । इसी क्रम में आगे अविपाकप्रत्ययिक भावबन्ध के औपशमिक और क्षायिक-ऐसे दो विभाग किए गए है। इसी चर्चा में गुणस्थानों का अवतरण करते हुए कहा गया हैं कि उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ अर्थात् ग्यारहवें गुणस्थानवी जीवों को औपशमिकप्रत्ययिकभावबन्ध होता है, किन्तु क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ अर्थात् बारहवें गुणस्थानवी जीवों को क्षायिक अविपाकप्रत्ययिकमावबन्ध होता है। इनके अतिरिक्त भी अन्त में किन-किन जीवों को अविपाकप्रत्ययिक क्षायिक भावबन्ध होता है, इसकी विस्तृत चर्चा इस प्रसंग में मिलती है, किन्तु उनका सीधा सम्बन्ध गुणस्थानों से न होने के कारण, यहाँ वे सभी विवेचनाएं अपेक्षित नहीं है । | उपसंहार इस प्रकार हम देखते हैं कि षट्खण्डागम के प्रथम जीवस्थान नामक खण्ड के सत्प्ररूपणा नामक प्रथम द्वार में चौदह गुणस्थानों का न केवल नामोल्लेख मिलता है अपितु उनके स्वरूप का भी निर्देश किया गया है । साथ ही चौदह मार्गणाओं में चौदह गुणस्थानों का अवतरण भी किया गया है। केवल इतना ही नहीं कि षट्खण्डागम का यह जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड चौदह गुणस्थानों और चौदह मार्गणाओं के सहसम्बन्ध को स्पष्ट करता है, अपितु आठ अनुयोगद्वारों में भी मार्गणास्थानों और गुणस्थानों के सहसम्बन्ध की चर्चा करता है। मार्गणाओं और गुणस्थानों का पारस्परिक सम्बन्ध स्पष्ट करने वाला यदि कोई प्रथम ग्रन्थ है, तो वह षट्खण्डागम ही है । यह भी निश्चित है कि षट्खण्डागम के प्रथम जीवस्थान नामक खण्ड में गुणस्थानों का जितना विस्तत विवरण दिया गया है, उतना विस्तृत विवरण इसके अन्य खण्डों में नहीं मिलता है। जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड Jain Education Intemational ducation Interational Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ नौ चूलिकाओं में से दूसरी, आठवीं और नवीं चूलिका में भी गुणस्थान सम्बन्धी कुछ निर्देश उपलब्ध होते हैं । षट्खण्डागम के क्षुद्रबन्धक नामक द्वितीय खण्ड में किस गुणस्थानवर्ती जीव किन कर्म प्रकृतियों का बन्ध करता है, इसका उल्लेख किया गया है । इसी प्रकार बन्धस्वामित्वविचय नामक तृतीय खण्ड में भी किस गुणस्थान में जीव किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है और किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध नहीं करता है तथा किस गुणस्थानवर्ती जीव में किन कर्मप्रकृतियों का क्षय या विच्छेद हो जाता है, इसकी चर्चा की गई है। इस प्रकार षट्खण्डागम के द्वितीय एवं तृतीय खण्ड में भी गुणस्थान की विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है । वेदना नामक चतुर्थ खण्ड में मुख्यतया इस बात की चर्चा है कि किस गुणस्थान में किन कर्मप्रकृतियों का उदय रहता है । इस प्रकार से इस खण्ड में भी कर्मों के वेदन या उदय की अपेक्षा से गुणस्थानों की चर्चा उपलब्ध हो जाती है। इस खण्ड की विशेषता यह है कि वेदनभावविधान नामक प्रथम चूलिका में दस गुणश्रेणियों की चर्चा उपलब्ध होती है । दस गुणश्रेणियों की इस चर्चा को विद्वानों ने गुणस्थान सिद्धान्त के विकास का आधर माना है । १६२ ये गुणश्रेणियाँ गुणस्थान सिद्धान्त से निकट रूप से सम्बन्धित हैं । इस चतुर्थ खण्ड की प्रथम चूलिका में इन गुणश्रेणियों की चर्चा के पूर्व जो दो गाथाएं दी गई हैं, वे आचारांगनिर्युक्ति में किंचित् पाठभेद के साथ यथावत् रूप में दी हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि षट्खण्डागमकार ने इन गाथाओं को सामने रखकर ही गुणश्रेणियों का विवेचन किया है । ज्ञातव्य है कि षट्खण्डागम मूलतः शौरसेनी प्राकृत में रचित एक गद्य ग्रन्थ है । पद्य रूप में गाथाओं का अवतरण चतुर्थ वेदना खण्ड और पंचम वर्गणा खण्ड में मिलता है। इससे विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि षट्खण्डागम में जो गाथाएं अवतरित की गई हैं, वे ग्रन्थकार ने अन्यत्र से यथावत् ग्रहण की है। षट्खण्डागम के पांचवें वर्गणा नामक खण्ड में सामान्यतया गुणस्थान सिद्धान्त का कोई विवरण उपलब्ध नहीं होता हैं । प्रसंगोपात कहीं-कहीं गुणस्थानों के नाम मात्र मिलते हैं । गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा की दृष्टि से षट्खण्डागम के प्रथम तीन खण्ड और गुणश्रेणियों की चर्चा की अपेक्षा षट्खण्डागम का चतुर्थ खण्ड के चूलिका भाग को महत्वपूर्ण माना जा सकता है। तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम यह पाते हैं कि उपलब्ध ग्रन्थों में " षट्खण्डागम" गुणस्थान सिद्धान्त की विस्तृत चर्चा करनेवाला प्रथम ग्रन्थ है। श्वेताम्बर परम्परा में समवायांग सूत्र में जो गुणस्थान सम्बन्धी नामनिर्देश हैं, उनमें गुणस्थान शब्द का प्रयोग नहीं मिलता है, जबकि षट्खण्डागम में यद्यपि प्रारंभ में तो गुणस्थानों के लिए जीवसमास शब्द का प्रयोग किया गया है, किन्तु बाद में इसमें गुणस्थान शब्द का भी स्पष्ट निर्देश मिलने लगता है। इस आधार पर डॉ. सागरमल जैन आदि ने यह माना है कि समवायांग की अपेक्षा षट्खण्डागम के उल्लेख परवर्ती हैं । १६३ यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जहाँ समवायांग में गुणस्थानों के लिए जीवस्थान ( जीवठाण) शब्द का प्रयोग है, वहीं षट्खण्डागम में जीवसमास शब्द का प्रयोग है । यह एक विलक्षण तथ्य है कि जीवसमास नामक ग्रन्थ में भी गुणस्थानों को सर्वप्रथम जीवसमास ही कहा गया है । जिस प्रकार षट्खण्डागम में बाद में उनके लिए गुणस्थान शब्द का प्रयोग हुआ है, वैसे ही जीवसमास में भी आगे गुणस्थान (गुणठाण) शब्द प्रयोग हुआ है । इन कुछ आधारों पर पण्डित हीरालाल शास्त्री और डॉ. सागरमल जैन ने यह माना कि षट्खण्डागम की अपेक्षा जीवसमास किंचित् प्राचीन है, दोनों की समरूपता भी विशेष रूप से दृष्टव्य है। १६४ फिर भी इतना तो निश्चित है कि यदि श्वेताम्बर परम्परा में चौदह गुणस्थानों की चर्चा करनेवाला प्रथम ग्रन्थ जीवसमास है, तो दिगम्बर परम्परा में चौदह गुणस्थानों की चर्चा करने वाला सर्वप्रथम ग्रन्थ षट्खण्डागम है । जहाँ श्वेताम्बर परम्परा में परवर्ती आचार्यों के द्वारा की गई गुणस्थान की चर्चा जीवसमास से प्रभावित रही हो, वहीं दिगम्बर परम्परा में पूज्यपाद देवनन्दी से प्रारंभ करके जो गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा उपलब्ध होती है, उसका आधार षट्खण्डागम है। इस प्रकार षट्खण्डागम को गुणस्थान सिद्धान्त की विवेचना की दृष्टि से प्राचीन और महत्वपूर्ण ग्रन्थ १६२ देखें - गुणस्थानसिद्धान्तः एक विश्लेषण, डॉ. सागरमल जैन, अध्याय ३ एवं ४, पृ. २०-४१ १६३ देखें - गुणस्थानसिद्धान्तः एक विश्लेषण, पृ. ४० १६४ जीवसमास भूमिका, पृ. ११-१५ तृतीय अध्याय........{172} Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{173} माना जा सकता है और यह भी माना जा सकता है कि दिगम्बर परम्परा में गुणस्थान सिद्धान्त का जो विवेचन उपलब्ध होता है, उसका उपजीव्य या आधारभूत ग्रन्थ षट्खण्डागम है। त्रभगवती आराधना में गुणस्थान सिद्धान्त भगवतीआराधना का परिचय - दिगम्बर परम्परा में भगवतीआराधना को आगम तुल्य एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता है। यद्यपि डॉ. सागरमल जैन ने अपने ग्रन्थ 'जैनधर्म का यापनीय संप्रदाय' में इसको यापनीय परम्परा का ग्रन्थ माना हैं |१६५ यापनीय परम्परा आगमों और स्त्री-मुक्ति की संपोषक होते हुए भी मुनि की अचेलता की ही पक्ष धर रही है, इस दृष्टि से वह दिगम्बर परम्परा का ही एक रूप मानी जाती है । इस ग्रन्थ के रचयिता पाणीतलभोजी शिवार्य है। इससे भी यही सिद्ध हो जाता है कि वे अचेलता के पक्षधर रहे है। यद्यपि ग्रन्थ में ऐसे अनेक सन्दर्भ है, जो वर्तमान दिगम्बर परम्परा की मान्यताओं से भिन्न हैं। इस सम्बन्ध में डॉ. सागरमल जैन ने अपने ग्रन्थ 'जैनधर्म का यापनीय संप्रदाय' में विस्तारपूर्वक परिमाण प्रस्तुत किए है, फिर भी हम यहाँ इस विवाद में पड़ना नहीं चाहते हैं, क्योंकि हमारी शोध का विषय गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा तक सीमित है। इतना तो निर्विवाद सत्य है कि यह ग्रन्थ अचेल परम्परा का ही ग्रन्थ है, क्योंकि इस ग्रन्थ में अनेक स्थानों पर साधक को उत्कृष्ट लिंग अर्थात् अचेलकत्व स्वीकार करने को कहा गया है। ग्रन्थ का मूल नाम आराधना है, किन्तु आदरवश इसे भगवती आराधना या मूल आराधना कहा जाता है । इस ग्रन्थ के लेखक शिवार्य है । उन्होंने स्वयं ही ग्रन्थ के अन्त में अपने को पाणीतलभोजी शिवार्य के नाम से उल्लेख किया है । ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति में शिवार्य ने, न केवल अपने नाम का उल्लेख किया है, अपितु अपनी गुरु परम्परा का भी उल्लेख किया है। अपनी गुरु परम्परा में उन्होंने आर्य जिननन्दीगणि, आर्य सर्वगुप्तगणि और आर्य मित्रनन्दी का उल्लेख किया है। भगवतीआराधना के रचनाकार शिवार्य को कहीं-कहीं शिवकोटि के नाम से ही उल्लेखित किया जाता है। तक भगवती आराधना के रचनाकाल का प्रश्न है, इस पर लिखी गई अपराजितसरि की टीका से और जिनसेन के आदि पुराण में शिवकोटि के उल्लेख से इतना तो सिद्ध हो जाता है कि वह नवीं-दसवीं शताब्दी के पूर्व लिखा गया है। ग्रन्थकार और उनके गुरुओं के साथ लगे हुए आर्य विशेषण से यह प्रतीत होता है कि उनका सम्बन्ध आर्यकुल से रहा होगा। यद्यपि कल्पसत्र और नन्दीसत्र की स्थविरावली में मनियों के नामों के पूर्व आर्य शब्द लगाने की परम्परा रही है, किन्तु भगवती आराधना के रचनाकार शिवार्य के नाम के साथ लगे आर्य शब्द का सम्बन्ध विदिशा के उदयगिरि के गुप्त संवत् १०६ अर्थात् विक्रम संवत् ४२६ में उल्लेखित भद्रान्वय के आर्यकुल से लगता है । शिवार्य ने अपने को पाणीतलभोजी कहा है । विदिशा की उसी काल की ही एक अन्य प्रतिमा पर पाणीपात्रिक आर्यचंद्र का भी उल्लेख मिलता है । इससे ऐसा लगता है कि शि सम्बन्धित रहे हुए है । अतः उनका काल विक्रम की पांचवीं शताब्दी के पश्चात् ही मानना होगा। भगवती आराधनाकार शिवार्य गणस्थान सिद्धान्त से परिचित प्रतीत होते हैं और गणस्थान के विकसित स्वरूप की चर्चा पांचवीं शताब्दी के पूर्व के ग्रन्थों में नहीं मिलती है । गुणस्थान सिद्धान्त की यह चर्चा तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य के बाद ही विकसित हुई है, अतः भगवती आराधना और उसके लेखक का काल पांचवीं शताब्दी के पश्चात ही कहीं मानना होगा। इसी क्रम में आगे हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि भगवती आराधना में गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा किस रूप में मिलती है। भगवती आराधना में गुणस्थान : भगवतीआराधना की प्रथम गाथा की अपराजितसूरि विरचित टीका में बताया गया है कि असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव आराधक होते हैं ।१६६ यद्यपि मूल गाथा में इनके साथ गुणस्थान शब्द का उल्लेख नहीं है, किन्तु ये अवस्थाएँ गुणस्थानों से अभिन्न ही हैं । १६५ जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय, लेखकः डॉ. सागरमल जैन, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, १६६६ पृ. १२०-१३० १६६ भगवती आराधना, अपराजितसूरि की टीका सहित - सं.पं. कैलाशचंदजी, प्रकाशक : गाथा क्रमांक १ और उसकी टीका । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा... तृतीय अध्याय........{174} भगवतीआराधना में उनतीसवीं गाथा के मूल में तथा इस गाथा की अपराजितसूरि रचित विजयोदया टीका में यह प्रश्न उठाया गया है कि बालमरण और बालबालमरण के स्वामी कौन हैं ? बालमरण का स्वामी अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव तथा बालबालमरण का स्वामी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव है। भगवती आराधना की सैतालीसवीं गाथा में बताया गया है कि सम्यग्दर्शन की आराधना करने वाला मरण के समय असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती होता है । सुविशुद्धि तीव्र लेश्यावाला अल्प संसारी अर्थात् संसार में बहुत अल्प समय रहने वाला होता है। भगवतीआराधना की पचासवीं गाथा में और उसकी टीका में आराधना के तीन प्रकार बताए गए हैं-जघन्य आराधना, मध्यम आराधना और उत्कृष्ट आराधना । यहाँ कौन-सी आराधना किन-किन गुणस्थानवी जीव को होती है, इस विवेचन है । उत्कष्ट आराधना केवली अर्थात सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गणस्थानवर्ती जीव को होती है। देशविरतसम्यग्दृष्टि गणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक-इन सभी गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि जीवों को मध्यम आराधना होती है । जघन्य आराधना संक्लेश के परिणाम वाले अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव को होती है। भगवती आराधना की तिरपनवीं गाथा में बताया गया है कि मिथ्यादृष्टि में सम्यग्दर्शन का अभाव होता है, उसी कारण से वह किसी का आराधक नहीं होता है, किन्तु उसमें ज्ञान और चरित्र तो है, अतः वह उनका आराघक तो हो सकता है । इस शंका का समाधान करने के लिए चौवनवीं गाथा में बताया है कि जो पुनः मिथ्यादृष्टि है, वह दृढ़ चारित्रवाला हो या अदृढ़ चारित्रवाला, वैसा जीव मरण करे तो वह किसी का आराधक नहीं होता है । तत्वार्थ श्रद्धान रूपी सम्यक्त्व के बिना सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र नहीं होते, इसलिए मिथ्यादृष्टि रत्नत्रयी में से वह किसी का भी आराधक नहीं हो सकता। भगवतीआराधना की १८७१ वीं गाथा में बताया गया है कि शुक्लध्यान करने में कौन समर्थ है? साधक जब धर्मध्यान को पूर्ण कर लेता है, तब भी अतिविशुद्ध लेश्या के साथ शुक्लध्यान को ध्याता है, क्योंकि वह परिणामों की उत्तरोत्तर निर्मलता को प्राप्त होता है। जिसने पहली सीढ़ी पर पैर नहीं रखा है, वह दूसरी सीढ़ी पर चढ़ नहीं सकता। अतः धर्मध्यान से परिपूर्ण अप्रमत्तसंयत गणस्थानवर्ती आत्मा ही शक्लध्यान करने में समर्थ होती है। भगवती आराधना में १९७३ से लेकर १९७६ तक की गाथाओं में शक्लध्यान के स्वामी की चर्चा की गई है। वह इस प्रकार है :- (१) पृथक्त्वसवितर्क सविचार शुक्लध्यान, (२) एकत्वअवितर्क अविचार शुक्ल ध्यान, (३) सूक्ष्मक्रिया शुक्लध्यान और (४) समुच्छिन्नक्रिया शुक्लध्यान । १८७३ वीं गाथा में कहा है कि जिन अर्थात् सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव क्रमशः तृतीय सूक्ष्मक्रिया और चतुर्थ समुच्छिन्नक्रिया नामक शुक्लध्यान के स्वामी हैं। १८७४ वीं गाथा में शुक्ल ध्यान के प्रथम भेद का नाम पृथक्त्व सवितर्क है। यह प्रथम शक्लध्यान उपशान्तमोह गणस्थानवर्ती संयत जीव को होता है । इसे पथक्त्व सवितर्क शक्लध्यान कहा है, क्योंकि इसमें तीनों योगों के परिवर्तन के साथ ध्येय का भी परिवर्तन होता है, इसीलिए इसे पृथक्त्व सवितर्क कहते हैं। धर्मध्यान और शुक्लध्यान के स्वामियों के सम्बन्ध में मतभेद पाया जाता है । तत्त्वार्थसत्र में कहा है कि श्रेणी प्रारंभ करने के पर्व धर्म ध्यान और श्रेणी में शुक्लध्यान होता है। श्रेणी आठवें अपूर्वकरण नामक गुणस्थान से प्रारंभ होती है, अतः आठवें गुणस्थान से ही पृथक्त्व सवितर्क शुक्लध्यान होता है, किन्तु यहाँ तो ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थान में पृथक्त्व सवितर्क शुक्लध्यान कहा है। श्वेताम्बर परम्परा में ऐसा माना गया है, किन्तु वीरसेनस्वामी ने धवला टीका'६७ में भी लिखा है कि कषायसहित जीवों को धर्मध्यान और कषायरहित जीवों को शुक्लध्यान होता है । कषाय के उदय का अभाव होने से उसको शुक्ल ध्यान कहा गया है। उपशान्तमोह गुणस्थान में कषायों का सर्वथा उपशम होने से उस गुणस्थानवी जीव को शुक्लध्यान होता है। १८७६ वीं गाथा में प्रथम और द्वितीय शुक्लध्यान के स्वामी का विवेचन किया है । योगों के परिवर्तन को विचार कहते हैं। 'अत्थाण वंजणाण य' १६७ षट्खण्डागम, धवला टीका-समन्वित, खण्ड ५ पुस्तक १३ पृ.७४ ernational Jain Education Intemational Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा... तृतीय अध्याय.......{175} का तात्पर्य अर्थों के और व्यंजनों के परिवर्तन को विचार कहते हैं। परंतु समुच्चयरूप न लेकर पृथक्त्व शब्द से इसके अर्थ का पृथक्त्व ग्रहण करना चाहिए। विचार के होने से इसे सविचार कहा है । वितर्क अर्थात् श्रुतज्ञान। 'अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः' इत्यादि परिमित अनेक द्रव्यों का ज्ञान कराने में समर्थ श्रुतवचनों से उत्पन्न हुआ पृथक्त्व सवितर्क सविचार शुक्लध्यान भिन्न-भिन्न द्रव्यों को आलम्बन करता है, अतः एक ही द्रव्य का आलम्बन करनेवाला एकत्ववितर्क शुक्लध्यान से भिन्न होता है । पृथक्त्व वितर्क शुक्ल ध्यान तीनों योगों की सहायता से होता है और एकत्व वितर्क शुक्लध्यान एक ही योग की सहायता से होता है। इसी कारण दोनों में भिन्नता पाई जाती है । पृथक्त्ववितर्क शुक्लध्यान का स्वामी उपशान्तमोह गुणस्थानवर्ती और एकत्ववितर्क शुक्लध्यान का स्वामी क्षीणकषाय गुणस्थानवी जीव होते हैं। महापुराण के इक्कीसवें पर्व में ध्यान का वर्णन करते हुए कहा है कि अनेकपन को पृथक्त्व और श्रुत को वितर्क कहते हैं। अर्थ, व्यंजन और योगों के परिवर्तन को विचार कहते हैं। इस ध्यान का ध्याता एक अर्थ से दूसरे अर्थ को, एक वाक्य से दूसरे वाक्य को और एक योग से दूसरे योग को प्राप्त होता हुआ इस ध्यान को ध्याता है, क्योंकि तीनों योगों के धारक और चौदह पूर्वो के ज्ञाता मुनिराज इस ध्यान को करते हैं। अतः प्रथम शुक्लध्यान सवितर्क और सविचार होता है । श्रुतस्कन्ध रुपी समुद्र में जितना वचन और अर्थ का विस्तार है, वे सब इस शुक्लध्यान में ध्येय होता है और इसका फल मोहनीयकर्म का उपशम या क्षय है। १८७७ वीं गाथा में द्वितीय शुक्लध्यान का नाम एकत्ववितर्क है, क्योंकि इसमें एक ही द्रव्य का आलम्बन लेकर एक ही द्रव्य का ध्यान किया जाता है । एक द्रव्य का आलम्बन लेने से इसे एकत्व कहते हैं। यह ध्यान किसी एक योग में स्थित आत्मा को ही होता है। एकत्ववितर्क नामक द्वितीय शुक्लध्यान का स्वामी क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती मुनि होता है । सोमदेवउपासकाध्ययन में कहा है कि मन में किसी प्रकार का विचार न होते हुए जब व्यक्ति आत्मा में लीन हो जाता है, उसे निर्बीजध्यान कहते हैं। यह निर्बीजध्यान एकत्ववितर्क ही है। १८७८ और १८७६वीं गाथा में श्रुत को वितर्क कहते हैं और चौदह पूर्वगत अर्थ में कुशल मुनि ही इस ध्यान को ध्याता है, इसीलिए दूसरा शुक्लध्यान सवितर्क है। अर्थ, व्यंजन और योगों के वर्तन को विचार कहते हैं । उसके न होने से दूसरा शुक्लध्यान अविचार कहा गया है। प्रथम शुक्लध्यान परिमित अनेक द्रव्यों और पर्यायों का आलम्बन लेता है तथा तीसरे और चौथे शुक्लध्यान का विषय समस्त वस्तु है, क्योंकि केवलज्ञान का विषय सभी द्रव्य और सभी पर्याय हैं। भगवती आराधना में १८८१ वीं गाथा में बताया है कि सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती केवली सूक्ष्म काययोग का रोध करने के लिए तृतीय शुक्ल ध्यान को ध्याता है । भगवती आराधना में १८८२ वीं गाथा की टीका के विशेषार्थ में बताया गया है कि ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवी जीवों के भाव को शैलेशी नहीं कहा है। तीसरा शुक्लध्यान वितर्क और विचार से रहित होने से अवितर्क और अविचार होता है । यह सभी कर्मों का क्षय किए बिना नहीं होता है, इसलिए अनिवर्ति हैं। इसमें प्राण, अपान, श्वास-उच्छ्वास तथा समस्त काययोग, वचनयोग एवं मनोयोगरूप हलन-चलन क्रिया का ऐच्छिक व्यापार समाप्त हो जाता है, इसीलिए अक्रिय है । शीलों के स्वामी के भाव को शैलेशीभाव कहते हैं, वह यथाख्यात चारित्र है । उसके साथ होनेवाले शैलशी ध्यान से सभी कर्मों का आनव रुक जाता है, अतः इसे निरूद्धयोग कहा है। इसके अनन्तर अन्य कोई ध्यान नहीं होने से इसे अपश्चिम कहा है। यह परम शुक्लध्यान है। यहाँ शैलेशीभाव से तात्पर्य यथाख्यातचारित्र है, किन्तु यथाख्यातचारित्र तो उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें ओर क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थानवर्ती आत्मा को होता है, लेकिन उसे शैलेशीभाव नहीं कहा है। भगवती आराधना में १८८३ वीं गाथा में कहा गया है कि काययोग का निरोध करके अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती केवली औदारिक, तैजस और कार्मण शरीर का क्षय करता हुआ अन्तिम शुक्लध्यान को ध्याता है। सूक्ष्मकाययोग रूप आत्मपरिणामवाला सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती तृतीय शुक्लध्यान को और अयोग रूप आत्मपरिणामवाला अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती चतुर्थ शुक्लध्यान को ध्याता है। यह तीसरे और चौथे शुक्ल ध्यान में भेद है। महापुराण में कहा है कि तीसरे ध्यान के पश्चात् योग का निरोध करके आसव से रहित होकर अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती समुच्छिन्नक्रियाअनिवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्लध्यान को ध्याता १६८ उपासकाध्ययन, सोमदेव, ६२३ Jain Education Interational Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{176} - है। एक अन्तर्मुहूर्त काल तक चतुर्थ शुक्लध्यान को ध्याकर चार अघातीकर्मों का क्षय कर मोक्ष को प्राप्त होता है। अयोगीकेवली गुणस्थान के उपान्त्य समय में बासठ और अन्तिम समय में तेरह प्रकृतियों का क्षय करती है। तत्पश्चात् आत्मा उर्ध्वगमन के स्वभाव के कारण एक ही समय में लोकान्त तक जाकर सिद्धालय में बिराजमान हो जाती है। भगवती आराधना में १८८४ वीं गाथा की टीका में कहा है कि क्षपक अर्थात् साधक आत्मा एकाग्रचित्त से ध्यान कर उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ आदि गुणस्थानों की श्रेणी पर आरूढ़ होकर विपुल कर्मनिर्जरा करती है। भगवतीआराधना की गाथा क्रमांक १६६३ में बताया गया है कि साधक क्षायिकसम्यग्दर्शन, यथाख्यातचारित्र और क्षायोपशमिकज्ञान की आराधना करके क्षीणमोह होता है और क्षीणमोह के बाद अरहंत होता है। ___ इस प्रकार भगवती आराधना के अध्ययन से यह तो ज्ञात होता है कि उसमें कुछ स्थलों पर गुणस्थानों के उल्लेख भी हैं, किन्तु सम्पूर्ण चौदह गुणस्थानों का सुव्यवस्थित उल्लेख भगवतीआराधना में प्राप्त नहीं होता है। भगवतीआराधना मूलतः संलेखना ग्रहण करने की विधि और उसकी साधना का विवेचन करती है, अतः उसके कर्ता के लिए गुणस्थानों का विवेचन अधिक महत्वपूर्ण नहीं रहा है। फिर भी उसमें यत्र-तत्र गुणस्थान सम्बन्धी विवरण उपलब्ध होते हैं। भगवतीआराधना में गुणस्थान सम्बन्धी यह चर्चा हमें दो रूपों में उपलब्ध होती हैं। प्रथम तो मूलगाथाओं में कहीं-कहीं गुणस्थान सम्बन्धी निर्देश मिलते हैं और कहीं-कहीं अपराजितसूरि की टीका में भी गुण स्थान सम्बन्धी विवरण प्राप्त होते हैं। यह सत्य है कि मूल ग्रन्थकार शिवार्य की अपेक्षा अपराजितसूरि ने गुणस्थानों का विशेष विवरण प्रस्तुत किया है । यहाँ हम इन दोनों को ही आधार बनाकर गुणस्थान की चर्चा करेंगे। भगवतीआराधना में प्रथम गाथा की टीका में अपराजितसूरि ने असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत-इन चार गुणस्थानों का उल्लेख करते हुए यह कहा है कि इन चारों गुणस्थानों के धारक, आराधक माने गए हैं। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि चार गुणस्थानों का उल्लेख टीकाकार ने ही किया है । मूलगाथा में यह उल्लेख उपलब्ध नहीं होता हैं। भगवती आराधना की गाथा क्रमांक २६ में मरण के निम्न पांच प्रकार उल्लेखित हैं- (9) पण्डित-पण्डित मरण, (२) पण्डित मरण, (३) बालपण्डितमरण, (४) बालमरण और (५) बालबालमरण । इन पांच प्रकार के मरणों में गुणस्थानों का अवतरण करते हुए कहा गया है कि क्षीणकषाय गुणस्थानवी जीव और केवली पण्डित-पण्डित मरण को प्राप्त होते हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थान तक के सभी गुणस्थानवी जीव पण्डितमरण को प्राप्त होते हैं। विरत अर्थात् पंचम गुणस्थानवी जीव बालपण्डितमरण को प्राप्त होते हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव बालमरण को प्राप्त होते हैं और मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव बालबालमरण को प्राप्त होते हैं। यद्यपि यहाँ मूलगाथा में गुणस्थान शब्द का उल्लेख तो नहीं है, किन्तु केवली, क्षीणकषाय, विरताविरत, अविरतसम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि जैसे गुणस्थानों से सम्बन्धित नाम अवश्य उपलब्ध होते हैं। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि इन गाथाओं की टीका में अपराजितसूरि ने सयोगीकेवली और अयोगीकेवली का भी उल्लेख किया है । मात्र यही नहीं, उन्होंने यहाँ 'गुणस्थान अपेक्षायाम्' कहकर यह भी स्पष्ट किया है कि यह चर्चा गुणस्थानों की अपेक्षा से करते हैं। भगवतीआराधना की ४७ वीं गाथा में कहा गया है कि यदि सम्यग्दर्शन का आराधक और सुविशुद्ध तीव्र लेश्यावाला यदि मृत्यु के समय आराधक होता है, तो वह परित संसारी होता है, अर्थात् उसका संसार अत्यन्त अल्प रह जाता है । इसी क्रम में आगे अविरतसम्यग्दृष्टि को संक्लिष्ट भावों में रहने के कारण जघन्य आराधना होती है और केवली (अयोगीकेवली) को उत्कृष्ट आराधना होती है, जब कि अवशिष्ट सम्यग्दृष्टियों की आराधना मध्यम कही गई है। इसप्रकार यहाँ आराधना के तीन भेद करते हुए उनमें गुणस्थानों का अवतरण किया गया है । अतः भगवतीआराधना के प्रारंभ में चाहे मूलगाथाओं में स्पष्ट रूप से गुणस्थानों का उल्लेख न हुआ हो, किन्तु उनमें जिन अवस्थाओं का चित्रण मिलता है, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवतीआराधना के रचयिता शिवार्य और उसके टीकाकार अपराजितसूरि गुणस्थान की अवधारणा से परिचित रहे हैं। इन प्रारंभिक गाथाओं के पश्चात् लगभग भगवतीआराधना की अठारह सौ गाथाओं में हमें गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा परिलक्षित नहीं होती है, किन्तु गाथाओं में क्षपक का उल्लेख अनेक बार हुआ है । (देखें - Jain Education Interational Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{177} गाथा क्रमांक - १४७२, १४७५, १४८४, १४६७, १४६४, १४६८ और १४६६ आदि)क्षपक शब्द का सामान्य अर्थ है-जो कर्मों के क्षय करने के लिए तत्पर है, उसे क्षपक कहा जाता है । भगवतीआराधना के अनुसार जो आत्मा समाधिमरण की आराधना में लगी हुई है, वह वस्तुतः क्षपक ही है, किन्तु गुणस्थान सिद्धान्त के अनुसार क्षायिक शरीर से आरोहण करनेवाले आठवें गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थानवर्ती आत्माओं को क्षपक कहा गया है, किन्तु भगवतीआराधना में सामान्यतया क्षपक शब्द का प्रयोग आठवें गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थानवर्ती आत्माओं के लिए न होकर समाधिमरण के आराधक के लिए ही हुआ है। इसीलिए भगवतीआराधना में प्रयुक्त क्षपक शब्द को गुणस्थान का वाचक नहीं माना जा सकता है, किन्तु एकांत रूप से यह कथन भी उपयुक्त नहीं लगता है। गाथा क्रमांक १८७१ से १८८१ तक में शुक्लध्यान की चर्चा में यह बताया गया है कि क्षपक ही शुक्लध्यान का अधिकारी होता है। यहाँ क्षपक शब्द निश्चित ही गुणस्थानों का सूचक है। शुक्लध्यान के चारों प्रकार की चर्चा करते हुए भगवतीआराधना में स्पष्ट रूप से यह बताया गया है कि उपशान्तमोह गुणस्थानवर्ती आत्मा पृथक्त्वसवितर्कविचार नामक शुक्लध्यान के प्रथम चरण की स्वामी होती है। क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती आत्मा शुक्लध्यान के द्वितीय चरण की स्वामी होती है । सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती आत्मा शुक्लध्यान के तृतीय चरण की और अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती आत्मा शुक्लध्यान के चतुर्थ चरण की स्वामी होती है। इस प्रकार भगवतीआराधना में शुक्लध्यान के चारों चरणों के स्वामियों की चर्चा में गुणस्थान सिद्धान्त का अवतरण किया गया है । इसी क्रम में आगे गाथा क्रमांक १६६३ में यह बताया गया है कि क्षायिक सम्यक्त्व यथाख्यातचारित्र और क्षायोपशमिक ज्ञान की आराधना करके साधक क्षीणमोह अवस्था (गुणस्थान) को प्राप्त होता है और तदन्तर वह अरहन्त होता है । इसी प्रकार यहाँ भी हमें क्षीणमोह गुणस्थान और सयोगीकेवली गुणस्थान का निर्देश उपलब्ध होता भगवतीआराधना की गाथा २०८२ से लेकर २११८ तक क्षपकश्रेणी का विवेचन हुआ है । इस चर्चा में भगवतीआराधनाकार ने गाथा क्रमांक २०८८ में स्पष्ट रूप से 'अणियट्टिकरणणामं णवमं गुणठाणमधिगम्म'-ऐसा उल्लेख किया है । इससे यह सिद्ध होता है कि भगवतीआराघनाकार शिवार्य गुणस्थान सिद्धान्त से सुपरिचित थे, क्योंकि इस सम्पूर्ण विवेचन में, वे न केवल क्षपकश्रेणी आरोहण की चर्चा करते हैं, अपितु यह भी बताते हैं कि क्षपकश्रेणी में अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से प्रारंभ करके अयोगी केवली गुणस्थान तक आत्मा किन-किन कर्म प्रकृतियों का क्षय करती है । क्षपकश्रेणी के माध्यम से आरो विभिन्न स्थितियों की चर्चा करते हुए वे लिखते है कि क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होने की इच्छा से अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती साधक धर्मध्यान में प्रवेश करता है। वह इस ध्यान के माध्यम से अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क तथा मिथ्यात्व मोहनीय, मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्व मोहनीय-ऐसी सात कर्मप्रकृतियों का क्षय करके सप्तम गुणस्थान के अन्त में क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त करके क्षपकश्रेणी पर आरोहण करता है। क्षपकश्रेणी पर आरोहण करते हुए प्रथम अपूर्वकरण (अष्टम गुणस्थान) को प्राप्त होता है । उसके पश्चात् अनिवृत्तिकरण नामक नवम गुणस्थान को प्राप्त करके निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, नरकगत्यानुपूर्वी, नरकगति, स्थावर नामकर्म, सूक्ष्म नामकर्म, साधारण नामकर्म, आतप नामकर्म, उद्योत नामकर्म, तिर्यंचानुपूर्वी, जाति चतुष्क, तिर्यंचगति, अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क और प्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क का क्षय करता है । फिर न गुणस्थान में ही नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, संज्वलन मान और संज्वलन माया का क्षय करता है। अन्त में सूक्ष्मसंपराय नामक संयम को प्राप्त होता है । दसवें गुणस्थान के अन्त में सूक्ष्मलोभ की कृष्टि का क्षय करके क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान को प्राप्त होता है । वहाँ यथाख्यातचारित्र और शुक्लध्यान के द्वितीय चरण को प्राप्त करता है । क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान के उपान्त्य समय में सर्वप्रथम निद्रा और प्रचला का क्षय करता है । उसके बाद पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तराय का इस गुणस्थान में अन्तिम समय में क्षय करके केवलज्ञान को प्राप्त होता है। केवलज्ञान की प्राप्ति के अनन्तर तक अनुभूयमान मनुष्यायु की समाप्ति नहीं होती है, तब तक वह केवलज्ञानी होकर विहार करता है । अन्त में चारों अघाती कर्मों को क्षय करने के लिए काययोग का निग्रह करता है । आवश्यक होने पर कभी केवली Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{178} समुद्घात करता है, कभी नहीं भी करता है । फिर शैलेशी अवस्था को प्राप्त होकर अयोगीकेवली होता है । अयोगीकेवली अवस्था में वह मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, पर्याप्त नामकर्म, आदेय नामकर्म, सुभग नामकर्म, यशः कीर्ति नामकर्म, साता या असाता में से कोई एक वेदनीय, त्रसनामकर्म, बादर नामकर्म, उच्चगोत्र और मनुष्यायु तथा तीर्थकर हो तो, तीर्थकर नामकर्म का अनुभव करते हुए अन्त में समुच्छिन्नक्रियाअप्रतिपाति नामक चतुर्थ शुक्लध्यान करता है और उस अन्तिम ध्यान के द्वारा अयोगीकेवली गुणस्थान के उपान्त्य समय में बिना उदीरणा के ही अघाती बहत्तर कर्मप्रकृतियों का क्षय करता है और फिर अन्तिम समय में शेष ग्यारह अथवा बारह कर्मप्रकृतियों का क्षय करके मुक्ति को प्राप्त करता हैं। इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि भगवती आराधना के लेखक शिवार्य गुणस्थान सिद्धान्त और उसकी सूक्ष्मताओं से पूर्ण परिचित रहे हैं, फिर भी गुणस्थान सिद्धान्त का एक सुव्यवस्थित समग्र विवेचन इस ग्रन्थ में हमें उपलब्ध होता है। गुणस्थान सम्बन्धी जो भी स्पष्ट निर्देश यत्र-तत्र उपलब्ध है, उनमें ग्रन्थ के अन्तिम भाग में गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों के क्षय की चर्चा ही है। इस ग्रन्थ में न तो गुणस्थानों का जीवस्थानों या मार्गणास्थानों से कोई सम्बन्ध स्पष्ट किया गया है और न गुणस्थानों में बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता की कोई चर्चा है, मात्र सातवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक किन-किन कर्मप्रकृतियों का क्षय होता है, इसका ही उल्लेख है । यह इस तथ्य का परिमाण है कि मूल ग्रन्थकार शिवार्य और टीकाकार अपराजितसूरि दोनों की ही गुणस्थान सिद्धान्त के समग्र विवेचन में कोई रुचि नहीं रही है। इस अभाव का कि ग्रन्थ का वर्ण्य विषय केवल समाधिमरण की आराधना तक ही सीमित है, इसीलिए ग्रन्थकार ने केवल इतना ही सचित किय है कि अन्तिम समय में आराधक किस प्रकार क्षपकश्रेणी आरोहण करता हुआ, कर्मप्रकृतियों को क्षय करते हुए विभिन्न गुणस्थानों को प्राप्त कर, अन्त में सिद्ध अवस्था का वरण कर लेता है। नमूलाचार में गुणस्थान सम्बन्धी परिचय : मूलाचार का परिचय-मूलाचार दिगम्बर परम्परा में मुनि आचार से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। भगवतीआराधना के समान ही, इस ग्रन्थ की मूल परम्परा दिगम्बर यापनीय है, इसे लेकर विद्वानों में मतभेद हैं। पण्डित नाथूरामजी प्रेमी, डॉ. सागरमल जैन आदि कुछ विद्वानों की मान्यता है कि यह ग्रन्थ यापनीय परम्परा का है । ६६ किन्तु यदि हम समन्वय की दृष्टि से कहना चाहे तो इतना निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि यह ग्रन्थ मुख्यतः अचेल परम्परा का संपोषक है तथा यापनीय और दिगम्बर दोनों की परम्परायें अचेलता की संपोषक रही हैं । यहाँ हम इस विवाद में पड़ना उचित नहीं समझते है कि यह दिगम्बर परम्परा का ग्रन्थ है या यापनीय परम्परा का ग्रन्थ है। सामान्यतया इस ग्रन्थ का वर्ण्य विषय मुनि आचार रहा है, किन्तु प्रसंगोपात इसमें जैन धर्म-दर्शन के विभिन्न पक्षों पर प्रकाश डाला गया है । सम्पूर्ण ग्रन्थ निम्न बारह अधिकार में विभक्त है - (१) मूलगुणाधिकार, (२) बृहत्प्रत्याख्यान संस्तार स्तवाधिकार, (३) संक्षेपप्रत्याख्यानाधिकार, (४) समाचाराधिकार, (५) पंचाचाराधिकार, (६)पिंडशुद्धि-अधिकार, (७) षडावश्यकाधिकार, (८) द्वादशानुप्रेक्षाधिकार, (E) अनगारभावनाधिकार, (१०) समयसाराधिकार, (११) शीलगुणाधिकार, (१२) पर्याप्ताधिकार । इन बारह अधिकारों की विषयवस्तु को देखते हुए यह तो स्पष्ट हो जाता है कि इस ग्रन्थ का मुख्य विषय जैनधर्म की और विशेष रूप से मुनि आचार की व्यवस्था ही है । यह ग्रन्थ मूलतः शौरसेनी प्राकृत में रचित है, फिर भी इस पर अर्द्धमागधी और महा राष्ट्रीय प्राकृत का प्रभाव भी यत्र-तत्र देखा जाता है। ग्रन्थ में बारह सौ उनपचास गाथाएं हैं। इस पर आचार्य वसुनन्दि की बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी की संस्कृत टीका भी उपलब्ध होती है। जहाँ तक ग्रन्थकार का प्रश्न है, विद्वानों में इस सम्बन्ध में भी मतभेद हैं। कुछ हस्तलिखित प्रतिलिपियों में उसके कर्ता के रूप में कुंदकुंद आचार्य का उल्लेख मिलता है । किन्तु अधिकांश विद्वान इस सम्बन्ध में एकमत हैं कि इसके रचयिता आचार्य वट्टकेरि हैं । यहाँ हम इस विवाद में भी उतरना उचित नहीं समझते १६६ देखें - जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय, डॉ. सागरमल जैन, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी १६६६ पृ. १३०-१४२ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{179} हैं कि आचार्य कुंदकुंद और आचार्य वट्टकेरि में से कौन इस ग्रन्थ का वास्तविक रचनाकार है, फिर भी हमारी दृष्टि में इसके रचनाकार के रूप में आचार्य वट्टकेरि का नाम ही अधिक युक्तिसंगत होता है। इस ग्रन्थ का वैशिष्ट्य यह है कि इसमें सैंकड़ों गाथाएं श्वेताम्बर आगम साहित्य से विशेषरूप से उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, मरणविभक्ति, आवश्यकनियुक्ति आदि से आंशिक पाठभेद के साथ उपलब्ध होती है । यहाँ हम इस विवाद में भी उतरना आवश्यक नहीं समझते हैं कि ये गाथाएं किससे किसने ली है, फिर भी तुलनात्मक अध्ययन के लिए ग्रन्थ का यह वैशिष्ट्य दृष्टव्य अवश्य है। जहाँ तक इस ग्रंथ के रचनाकाल का प्रश्न है, मूलग्रन्थ और उसकी टीका से कोई भी स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। इतना निश्चित है कि भगवतीआराधना की अपराजितसूरि की टीका में, तिलोयपन्नती में तथा षट्खण्डागम की धवला टीका में मूलाचार के उल्लेख अथवा उसकी गाथाएं प्राप्त होती हैं। इन आधारों पर हम इसका काल लगभग पांचवी-छठी शताब्दी के आसपास निर्धारित कर सकते हैं, क्योंकि इस ग्रन्थ में गुणस्थान सिद्धान्त का चाहे विस्तृत विवेचन न हो, किन्तु इसके कर्ता गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा से परिचित रहे हैं। गुणस्थान की अवधारणा उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र के बाद ही विकसित हुई है, ऐसी विद्वानों की मान्यता है । अतः इस ग्रन्थ को तत्त्वार्थसूत्र से तो परवर्ती ही मानना होगा। विद्वानों ने तत्त्वार्थसूत्र का काल लगभग तीसरी-चौथी शताब्दी माना है, अतः यह ग्रन्थ पांचवीं-छठी शताब्दी के आसपास का होना चाहिए। आगे हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि मूलाचार और उसकी वसुनन्दि की टीका में गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा किस रूप में प्रस्तुत है । मूलाचार में गुणस्थान सम्बन्धी विचारणा : आचार्य वट्टकेर विरचित मूलाचार२०० के पूर्वार्द्धभाग के मूलगुण नामक प्रथम अधिकार की प्रथम गाथा में संयत शब्द आया है । उस प्रथम गाथा में आचार्य वट्टकेर मंगलाचरण के द्वारा मूलगुणों के परिपालन में विशुद्ध सभी संयतों को नमस्कार करते हैं। मूलग्रन्थ में इतना ही वर्णित है, परन्तु टीकाकार वसुनन्दि और अनुवादिका आर्यिकारत्न ज्ञानमतीजी ने संयत शब्द से प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक के सभी संयतों को नमस्कार करके ग्रन्थ में उल्लेख योग्य मूलगुणों का वर्णन करूँगा-ऐसा अर्थ किया है। मूलाचार ग्रन्थ के प्रथम मूलगुण अधिकार की पंचम गाथा में बताया गया है कि काय, इन्द्रिय, गुणस्थान, मार्गणा, कुल, आयु और योनि इनमें सभी जीवों को जानकर कायोत्सर्ग आदि में हिंसा आदि का त्याग करना अहिंसा महाव्रत है । यहाँ टीकाकार ने गुण शब्द से मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक के चौदह ही गुणस्थानों को ग्रहण किया है । मूलाचार ग्रन्थ के द्वितीय अधिकार की ५६वीं गाथा में आचार्य वट्टकेर ने तीन प्रकार के मरण का उल्लेख किया है । गाथा में तो मात्र "केवलिनः" शब्द से केवली भगवान को ग्रहण किया है, परन्तु टीका में तीन प्रकार के मरणों में गुणस्थान का अवतरण किया गया है। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव बाल कहलाते हैं, इसीलिए उनके मरण को बालमरण कहते हैं। संयतासंयत गुणस्थानवी जीव बाल पण्डित मरण कहलाते है, इसीलिए उनके मरण को बालपण्डित कहते हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती संयतों का जो मरण है, उन्हें पण्डित-मरण कहते हैं। मूलाचार के द्वितीय अधिकार की १०७ वीं गाथा में ग्रन्थकार प्रार्थना करते है कि हे भगवान्, जो गति अरिहंतों की हुई, सिद्धों की जो गति हुई तथा मोहरहित जीवों की जो गति हुई है, वही गति सदा के लिए मेरी हो । इस गाथा में 'वीदमोहाणं' शब्द से जिनका मोह क्षय हो चुका है-ऐसे क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती जीवों का ग्रहण किया है। मूलाचार के संक्षेपप्रत्याख्यान नामक तृतीय अधिकार में आचार्य वट्टकेर १०८ वी गाथा में कहते हैं कि जिनवर में प्रधान-ऐसे वर्धमान स्वामी को नमस्कार करता हूँ। इस गाथा में गुणस्थान शब्द या गुणस्थान के नाम का उल्लेख नहीं है, परन्तु २०० मूलाचार भाग १ एवं २ लेखक : आ. वट्टेकर, सम्पादक : ज्ञानमतिजी, प्रकाशक - भारतीय ज्ञानपीठ, देहली, तृतीय संस्करण सन् ६६८ Jain Education Intemational Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{180) टीकाकार ने 'जिणवर' शब्द से प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती संयत को वहाँ जिनवर कहा है। उसमें भी वृषभ समान श्रेष्ठ, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती को जिन कहा है। मूलाचार के चतुर्थ अधिकार की २४४ वीं गाथा में मूल में तो गुणस्थानों का उल्लेख नहीं है, परन्तु टीका में बन्ध के विषय में गुणस्थानों का उल्लेख किया गया है । जीव योग से प्रकृति और प्रदेशबन्ध तथा कषाय से स्थिति और अनुभाग बन्ध करता है। कषायों के अपरिणत और उच्छिन्न हो जाने पर स्थितिबन्ध के कारण नहीं रहते । मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव कषाय और योग होने के कारण चारों प्रकार के बन्ध करते हैं, किन्तु उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव कषायों का उपशम या क्षय हो जाने के कारण मात्र प्रकृति और प्रदेश बन्ध करते हैं। अयोगीकेवली गुणस्थान में कषाय और योग दोनों का अभाव होने से जीव अबन्धक होता है । मूलाचार के चतुर्थ अधिकार में ३४६ वीं गाथा के मूल में तथा संस्कृत टीका में तो गुणस्थान का उल्लेख नहीं किया गया है, परन्तु हिन्दी अनुवाद में बताया गया है कि जो अपने और पर के उपकार की अपेक्षा रखते हैं, ऐसे मुनि का जीवन पर्यन्त आहार का त्याग भक्त प्रत्याख्यान नाम का समाधिमरण है । जो अपने उपकार की अपेक्षा सहित और पर के उपकार से निरपेक्ष है, वह इंगिनीमरण है । जिस मरण में अपने और पर के उपकार की अपेक्षा नहीं है, वह प्रायोपगमन मरण है । ये तीन प्रकार के मरण हैं, अर्थात् छठे गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गणस्थान तक के जीवों का मरण पण्डितमरण है। मूलाचार के चतुर्थ अधिकार में ४०४ वीं गाथा में आचार्य वट्टकेर ने बताया है कि उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुण मुनि पृथक्त्वविचार शुक्लध्यान को और क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनि एकत्ववितर्कअविचार नामक शुक्लध्यान को करते हैं। जीवादि द्रव्य अनेक भेदों वाले हैं। मनि इनको मन, वचन और काय-इन तीन योगों द्वारा ध्याते हैं. इसीलिए इस ध्यान को पृथक्त्व कहते हैं। श्रुत को वितर्क कहते हैं। नवपूर्वधारी, दशपूर्वधारी और चौदहपूर्वधारी के द्वारा किया जाता है, इसीलिए वितर्क कहलाता है। अर्थ. व्यंजन और योगों के संक्रमण को विचार कहते हैं, जो एक अर्थ-पदार्थ को छोड़कर भिन्न अर्थ का ध्यान करता है. मन से चिंतन करने के बाद वचन से करता है. पनः काययोग से ध्याता है । इस तरह परम्परा से योगों का संक्रमण होता है । यहाँ द्रव्यों का संक्रमण होता है और व्यंजन अर्थात् पर्यायों का भी संक्रमण होता है। पर्यायों में व्यंजन पर्याय स्थूल पर्याय हैं और जो वचन के अगोचर सूक्ष्म पर्याय हैं, वे अर्थ पर्याय कहलाती हैं। इनका संक्रमण इस ध्यान में होता है, इसीलिए यह ध्यान विचार सहित है, अतः इस ध्यान का नाम पृथक्त्ववितर्कविचार शुक्लध्यान है । इस ध्यान के स्वामी उपशान्तकषाय गुणस्थानवर्ती मुनि हैं । क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती मुनि एकत्ववितर्कअविचार ध्यान को ध्याते हैं। वे एक द्रव्य को अथवा एक अर्थपर्याय को या एक व्यंजन पर्याय को किसी एक योग के द्वारा ध्याते हैं, अतः यह ध्यान एकत्व कहलाता है । इसमें वितर्क-श्रत पर्वकथित ही हैं. अर्थात् नौ, दस या चतुर्दशपूर्वो के वेत्ता मुनि ही ध्याते हैं। अर्थ, व्यंजन और योगों की संक्रांति से रहित होने से यह ध्यान अविचार हैं। इस ध्यान के स्वामी क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती मुनि ही है। पृथक्त्ववितर्कविचार ध्यान उपशान्तमोह गुणस्थानवर्ती मुनि और एकत्ववितर्कअविचार ध्यान क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती मुनि ही करते हैं। मलाचार के चतर्थ अधिकार की ४०५ वीं गाथा में आचार्य वट्टकेर बता रहे है कि सूक्ष्मक्रिया नामक तृतीय शुक्लध्यान को सयोगीकेवली गणस्थानवर्ती मुनि और समुच्छिन्नक्रिया नामक चतुर्थ शुक्लध्यान को अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती मुनि ही ध्याते हैं। जिन में काययोग की क्रिया भी सक्ष्म हो चकी है. वह सक्ष्मक्रिया ध्यान है। यह अवितर्क और अविचार है अर्थात् श्रुत के अवलम्बन से रहित है, अतः अवितर्क है और इसमें अर्थ, व्यंजन तथा योगों का संक्रमण नहीं है, अतः अविचार है । ऐसे सूक्ष्मक्रिया नामक तृतीय शुक्लध्यान के स्वामी सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती मुनि ही हैं। समुच्छिन्न नामक चतुर्थ शुक्लध्यान को अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती मुनि ध्याते हैं। वह अविचार, अनिवृत्तिनिरूद्ध योग, अनुत्तर, शुक्ल और अविचल है । इस समुच्छिन्न ध्यान में श्रुत का अवलम्बन न होने से अवितर्क हैं। अर्थ, व्यंजन और योग की संक्रान्ति न होने से अविचार है । सम्पूर्ण योगों Jain Education Intemational Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{181} का सूक्ष्मकाययोग का भी निरोध हो जाने से अनिवृत्तिनिरोध योग है । सभी ध्यानों में अन्तिम है अतः उत्कृष्ट है । शेष कोई ध्यान नहीं है अतः अनुत्तर है । परिपूर्णतया स्वच्छ उज्जवल होने से शुक्लध्यान है । मणि के प्रकाश की शिखा के समान अविचल है । समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाति चतुर्थ शुक्लध्यान के स्वामी चौदहवें अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती मुनि ही हैं । यद्यपि तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में मन का व्यापार नहीं होता है, फिर भी उपचार से पूर्व के शुक्लध्यान की अपेक्षा ध्यान कहा गया है । जैसा कि पहले किसी घड़े में घी रखा जाता था, किन्तु बाद में उस घड़े में घी नहीं रखने पर भी उसे घी का घड़ा कहा जाता है। पुरुषवेद का उदय नवें गुणस्थान में विच्छेद हो जाता है, फिर भी पूर्व की अपेक्षा पुरुषवेद से मोक्ष की प्राप्ति कही जाती है। सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थान में मन का व्यापार न होने से इनमें 'एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम्' यह ध्यान का लक्षण नहीं पाया जाता है, फिर भी ध्यान से कर्मों का नाश होता है, अतः इन्हें उपचार से ध्यान माना गया है। आचार्य वट्टकर विरचित मूलाचार के उत्तरार्द्ध भाग के अनगारभावनाधिकार नामक नवें अधिकार की ८८५ वीं गाथा में कहा है कि कौन-से ध्यानवाले साधक को कषायें पीड़ा नहीं देती हैं। कषायों का उन्मूलन करने के लिए आर्तध्यान और रौद्रध्यान का परिहार करके धर्म ध्यान और शुक्लध्यान करना चाहिए। शुक्ल लेश्यावाले मुनि को अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्राप्त होने वाली कषायें पीड़ा नहीं देती हैं। तात्पर्य यह है कि धर्म-शुक्ल ध्यान में प्रवेश करने वाले मुनि को परीषह पीड़ित नहीं कर सकते हैं, क्योंकि वहाँ तो संज्वलन कषाय चतुष्क और पुरुषवेद ही होता है। मूलाचार के दसवें समयसार नामक अधिकार की ६११ वी गाथा में श्रमण के दस कल्पों का वर्णन किया गया है । इसमें सातवाँ ज्येष्ठ नामक कल्प है, ज्येष्ठ अर्थात् बड़प्पन। मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयत गुणस्थान में ज्येष्ठ होता है । परम्परा में अधिक समय की दीक्षित आर्यिका से आज का दीक्षित मुनि ज्येष्ठ है। इन दस कल्पों में से ज्येष्ठ कल्प में ही गुणस्थान का वर्णन है, अन्य किसी में नहीं है। मूलाचार के समयसार नामक दशम अधिकार की ६४२ वीं गाथा में गुणस्थान की अपेक्षा चारित्र के माहात्म्य का वर्णन उपलब्ध होता हैं। मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों की तो बात ही छोड़िए, सम्यग्दृष्टि भी यदि संयम रहित है, असंयमी है, तो उसका तप भी महागुणकारी नहीं होता है। गुण शब्द के अनेक अर्थ यहाँ बताए गए है और कुछ दृष्टान्त भी हमें प्राप्त होते हैं। 'रूपादयों गुणाः'-इस सूत्र में रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, पृथक्त्व और परिणाम आदि गुण शब्द से कहे जाते हैं। 'गुणभूतावयमत्रनगरे' अर्थात् इस नगर में हम गौण हैं, यहाँ पर गुण शब्द अप्रधानवाची है । 'यस्य गुणस्य भावात्' यहाँ पर विशेषण अर्थ में गुण शब्द है । 'गुणोऽनेन कृतः'-इसने उपकार किया है-यहाँ पर गुण शब्द उपकार अर्थ में है । इस गाथा में भी गुण शब्द को उपकार अर्थ में लेना चाहिए। अतः अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का तप उपकार करने वाला नहीं है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि होते हुए भी असंयत आत्मा का तप कर्मों के निर्मूलन में समर्थ नहीं है। वह तो हस्तिस्नान ही है । जैसे हाथी स्नान करके स्वच्छता को धारण करता है किन्तु वह पुनः सूंड से धूली को लेकर अपने ऊपर डाल लेता है, उसी प्रकार से तप के द्वारा कर्मों के निर्जीर्ण हो जाने पर भी असंयत आत्मा के असंयम के कारण बहुत से कर्मो का आस्रव होता रहता है। दूसरा दृष्टान्त चुंदच्छिद का है। चुंद-काष्ठ, उस को छेदनेवाला चुंदच्छिद । जैसे काष्ठ को छेदनेवाले बरमों की रस्सी होती रहती है, अर्थात जैसे लकडी में छेद करने वाले बरमें की रस्सी उसमें छेद करते समय एक तरफ से खलती और दूसरी तरफ से बन्धती रहती है, उसी प्रकार से असंयत आत्मा का तप एक तरफ से कर्मो का क्षय करता है और असंयम द्वारा दूसरी तरफ से कर्मो का आसव कर लेता है अथवा चुंदच्युतकमिव अर्थात् मंथन चर्मपालिका के समान वह तप संयमहीन होता है । तात्पर्य यह है कि प्रमत्तसंयत गुणस्थान से ऊपर के सभी गुणस्थानवी जीव संयत होते हैं। उनके चारित्र का माहात्म्य यह है कि ये जीव कर्मबन्धन में सतत जागृत-सावधान रहते हैं। _मूलाचार के समयसार नामक दशम अधिकार की ६८७ वीं गाथा में बताया गया है कि प्रत्यय कारण है । कारणों के नष्ट हो जाने पर कार्य भी नष्ट हो जाते हैं, इसीलिए सभी साधुओं को चाहिए कि वे कारण का विनाश करें। तात्पर्य यह है कि क्रोध, Jain Education Interational Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{182} मान, माया और लोभ-ये कषाय हेतु हैं। इन कषायों से परिग्रह आदि कार्य होते हैं, अतः इन हेतुओं के क्षय हो जाने पर परिग्रह आदि संज्ञाएँ भी क्षय हो जाती हैं। प्रमत्तसंयत नामक षष्ठ गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक के सभी गुणस्थानवर्ती साधुओं को इन हेतुओं का क्षय करना चाहिए, क्योंकि इन हेतुओं को नहीं रहने से परिग्रह आदि की इच्छा नहीं रहती है। हेतु-कारण प्रत्यय है, क्योंकि कारण के अभाव में कार्य का अभाव अवश्यम्भावी है, इसीलिए कारणों का क्षय करना चाहिए। मूलाचार के पर्याप्ति नामक बारहवें अधिकार की ११५६वीं गाथा में स्थानाधिकार का प्रतिपादन करते हुए बताया गया है कि जीवों में चौदह जीवस्थान, चौदह गुणस्थान और चौदह ही मार्गणाएँ होती हैं । जीव जिन में स्थिरता को धारण करते हैं, उन्हें जीवस्थान कहते हैं, मिथ्यादृष्टि आदि गुणों का जिन में निरूपण किया जाता है, वे गुणस्थान कहलाते हैं, जिन में अथवा जिनके द्वारा जीव खोजे जाते हैं, उनको मार्गणास्थान कहते हैं। पुनः इसी द्वादश अधिकार की ११६०वीं गाथा में जीवस्थान, गुणस्थान और मार्गणास्थान कितने हैं, इस बात को बताया गया है कि जीवस्थान चौदह हैं, मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थान चौदह तथा गति आदि मार्गणास्थान चौदह होते हैं। मूलाचार के पर्याप्ति नामक बारहवें अधिकार की ११६७ और ११६८ वी गाथा में चौदह गुणस्थानों के नामों का निरूपण किया गया है तथा टीका में चौदह गुणस्थानों के स्वरूप का उल्लेख किया गया है । चौदह गुणस्थानों के नाम निम्न प्रकार से हैं :- (१) मिथ्यादृष्टि, (२) सासादन, (३) मिश्र, (४) असंयत, (५) देशविरत, (६) प्रमत्तसंयत, (७) अप्रमत्तसंयत, (८) अपूर्वकरण, (६) अनिवृत्तिकरण, (१०) सूक्ष्मसंपराय, (११) उपशान्तमोह, (१२) क्षीणमोह, (१३) सयोगी जिन और (१४) अयोगी जिन। पुनः मूलाचार के पर्याप्त नामक बारहवें अधिकार की १२०२ वीं गाथा में मार्गणास्थानों में गुणस्थानों का निरूपण करते हुए कहा है कि देव और नारकियों में चार गुणस्थान होते हैं। तिर्यंचों में पांच गुणस्थान होते हैं तथा मनुष्यों में चौदह गुणस्थान होते हैं। देव ओर नारकियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक के प्रथम चार गुणस्थान होते हैं। तिर्यंचों में उपर्युक्त चार गुणस्थानों के साथ-साथ संयतासंयत गुणस्थान भी होता है। मनुष्यों में मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोगीकेवली पर्यन्त चौदह गुणस्थान होते हैं। एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय-इन सभी में एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। संज्ञी पंचेन्द्रियों में चौदह गुणस्थान होते हैं । पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय इन पांच स्थावर कायों में मात्र एक मिथ्यादृष्टि नामक प्रथम गुणस्थान होता है । द्वीन्द्रिय से असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त त्रसकाय में भी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। संज्ञी पंचेन्द्रिय त्रसकाय में चौदह गुणस्थान होते हैं । सत्यमनोयोग और असत्यमृषामनोयोग (अनुभय) में, उसी प्रकार सत्यवचनयोग और असत्यमृषावचनयोग (अनुभय)-इन चारों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली तक के तेरह गुणस्थान होते हैं। असत्यमनोयोग और सत्यमृषामनोयोग (उभय) में तथा असत्यवचनयोग और सत्यमृषामनोयोग (उभय) में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय तक के बारह गुणस्थान होते हैं। औदारिककाययोग में मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगीकेवली तक के तेरह गुणस्थान होते हैं। औदारिकमिश्र और कार्मणकाययोग में मिथ्यादृष्टि, सासादन, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगीकेवली-ये चार गुणस्थान होते हैं। वैक्रियकाययोग में प्रथम के चार गुणस्थान होते हैं। वैक्रियमिश्रकाययोग में मिथ्यादृष्टि, सासादन और असंयतसम्यग्दृष्टि-ये तीन गुणस्थान होते हैं। आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग में प्रमत्तसंयत गुणस्थान ही होता है । पुरुषवेद में तथा भाववेद की अपेक्षा स्त्रीवेद और नपुंसकवेद में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण तक के नौ गुणस्थान होते है । द्रव्य की अपेक्षा से स्त्रीवेद और नपुंसकवेद में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत तक के पांच गुणस्थान होते हैं। पुरुषवेद में सभी गुणस्थान होते हैं। क्रोध, मान और माया-इन तीन कषायों में प्रथम से लेकर अनिवृत्तिबादर तक के नौ गुणस्थान होते हैं। लोभ कषाय में प्रथम के दस गुणस्थान होते हैं। मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंगज्ञान में मिथ्यादृष्टि और सासादन-ये दो ही गुणस्थान होते हैं। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय तक के नौ गुणस्थान होते हैं । मनः Jain Education Interational Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय.......{183} पर्यवज्ञान में प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणकषाय तक के सात गुणस्थान होते हैं । केवलज्ञान में सयोगीकेवली और अयोगीकेवली ये दो गुणस्थान होते हैं। सामायिक और छेदोपस्थापनीय संयम में प्रमत्तसंयत से लेकर अनिवृत्तिकरण तक के चार गुणस्थान होते हैं। परिहारविशुद्धिसंयम में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत-ये दो गुणस्थान होते हैं। सूक्ष्मसंपरायसंयम में सूक्ष्मसंपराय नामक एक ही गुणस्थान होता है। यथाख्यातसंयम में उपशान्तमोह गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली तक के चार गुणस्थान होते हैं। संयमासंयम में संयतासंयत नामक गुणस्थान होता है । असंयम में मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के चार गुणस्थान होते हैं। चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन में प्रथम से लेकर क्षीणकषाय तक बारह गुणस्थान होते हैं। अवधिदर्शन में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय तक नौ गुणस्थान होते हैं। केवलदर्शन में सयोगीकेवली ओर अयोगीकेवली ऐसे दो गणस्थान होते कृष्ण, नील और कापोत-इन तीन अशुभ लेश्याओं में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से असंयतसम्यग्दृष्टि तक के चार गुणस्थान होते हैं। पीतलेश्या और पद्मलेश्या में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत तक के सात गुणस्थान होते हैं। शुक्ललेश्या में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली तक के तेरह गुणस्थान होते हैं। भव्य जीवों में चौदह गुणस्थान होते हैं। अभव्य जीवों में मात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है । औपशमिक सम्यक्व में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर उपशान्तकषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थान तक आठ गुणस्थान होते हैं । वेदक सम्यक्त्व में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के चार गुणस्थान होते हैं। क्षायिक सम्यक्त्व में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक के ग्यारह गुणस्थान होते हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि में सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान होता है। सम्यग्मिथ्यात्व सम्यक्त्व में सम्यग्मिथ्यादृष्टि नामक तृतीय गुणस्थान होता है। संज्ञी जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक के बारह गुणस्थान होते हैं। असंज्ञी जीवों में मिथ्यादृष्टि नामक एक ही गुणस्थान होता है। आहारमार्गणा में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के तेरह गुणस्थान होते हैं। यह आहार मार्गणा की चर्चा नोकर्म आहार की अपेक्षा से है, कवलाहार की अपेक्षा से नहीं, क्योंकि केवलियों में कवलाहार का अभाव है । अनाहारी जीवों में मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली-ये पांच गुणस्थान होते हैं। प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ गुणस्थान विग्रहगति की अपेक्षा से है तथा सयोगीकेवली गुणस्थान प्रतर और लोकपूरण समुद्घात की अपेक्षा से है। 'मूलाचार के पर्याप्त नामक बारहवें अधिकार की १२२४ वीं गाथा में बताया गया है कि नौ अनुदिश और पांच अनुत्तरविमानवासी देव निश्चय से सम्यग्दृष्टि ही होते हैं अर्थात् अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती होते हैं। इनसे नीचे के वैमानिक, व्यंतर और भवनपति देव मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती होते हैं। नारकी में चार गुणस्थान, तिर्यंच में पांच गुणस्थान और मनुष्य में चौदह गुणस्थान पाए जाते हैं। __ मूलाचार के पर्याप्ति नामक बारहवें अधिकार की १२४१ और १२४२ वीं गाथाओं में तथा उनकी वसुनन्दीकृत टीका में कौन-से गुणस्थानवी जीव कितनी प्रकृतियों का बन्ध करते हैं, इस बात का विवेचन किया गया है। आठ कर्मों की एक सौ अड़तालीस प्रकृतियों में से एक सौ बीस प्रकृतियाँ बन्ध योग्य मानी गई हैं। अट्ठाईस प्रकृतियाँ अबन्ध हैं। पांच शरीरबन्धन, पांच संघातन, चार वर्ण, चार रस, एक गंध, सात स्पर्श, सम्यक्त्व मोहनीय और सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र) मोहनीय-इस प्रकार ये अट्ठाईस प्रकतियाँ बन्ध योग्य नहीं है। बन्ध योग्य एक सौ बीस प्रकृतियों में से आहारकद्विक और तीर्थकर नामकर्म को छोड़कर मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव Jain Education Intemational Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा. तृतीय अध्याय........{184} एक सौ सत्रह प्रकृतियाँ बांधता है, अर्थात् मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव इन कर्मप्रकृतियों के स्वामी हैं। तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध सम्यक्त्व से और आहारकद्विक का बन्ध संयम से होता है, इसीलिए मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव इन्हें नहीं बांधता हैं। मिथ्यात्व, नपुंसकवेद, नरकायु, नरकगति, जाति चतुष्क, हुंडक संस्थान, असंप्राप्तासृपाटिका संघयण, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतप नामकर्म, स्थावर नामकर्म, सूक्ष्म नामकर्म, अपर्याप्त नामकर्म और साधारण शरीर-इन सोलह प्रकृतियों को छोड़कर शेष एक सौ एक प्रकृतियों को सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव बांधते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव स्त्यानगृद्धि त्रिक, अनन्तानुबन्धी चतुष्क, स्त्रीवेद तिर्यंचायु, तिर्यंचगति, मध्य के चार संस्थान, मध्य के चार संघयण, तिर्यंचानुपूर्वी, उद्योत नामकर्म, अप्रशस्तविहायोगति नामकर्म, दुर्भग नामकर्म, दुस्वर नामकर्म, अनादेय नामकर्म और नीचगोत्र-इन पच्चीस प्रकृतियों को छोड़कर तथा देवायु और मनुष्यायु को छोड़कर शेष चोहत्तर प्रकृतियों का बन्ध करते हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव तीर्थकर नामकर्म, देवायु और मनुष्यायु सहित सतहत्तर प्रकृतियों को बांधते हैं। संयतासंयत गुणस्थानवी जीव अप्रत्याख्यानीय चतुष्क, मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, मनुष्यायु, वज्रऋषभनाराच संघयण और मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी-इन दस प्रकृतियों को छोड़कर तथा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव की बन्ध प्रकृतियों को अर्थात् तीर्थंकर नामकर्म और आहारकद्विक से सहित सड़सठ प्रकृतियों का पंचम गुणस्थानवी जीव बन्ध करते हैं। प्रत्याख्यानीय चतुष्क को छोड़कर शेष संयतासंयत गुणस्थानवी जीव की बन्ध प्रकृतियों को अथवा पचपन प्रकृति रहित मिथ्यादृष्टि प्रकृतियों में तीर्थंकर और आहारकद्विक-ये तीन सहित पैंसठ प्रकृतियों को प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव बांधते है। असातावेदनीय, अरति, शोक, अस्थिर नामकर्म, अशुभ नामकर्म और अयशः कीर्ति नामकर्म-इन छः प्रकृतियों को कम करने से शेष उनसठ प्रकृतियों का बन्ध अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव करते हैं। देवायु को कम करने से शेष अट्ठावन प्रकृतियों को अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती संयत बांधता हैं। निद्रा और प्रचला से रहित छप्पन प्रकृतियों को अपूर्वकरण गुणस्थान के संख्यात भाग जाने पर अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती संयत बांधते हैं। पुनः इस गुणस्थान के संख्यात भाग जाने पर पंचेन्द्रियजाति, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियशरीरांगोपांग, आहारकशरीरांगोपांग, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, देवगति, देवगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु नामकर्म, उपघात नामकर्म, पराघात नामकर्म, उच्छ्वास नामकर्म, विहायोगति नामकर्म, त्रस नामकर्म, बादर नामकर्म, पर्याप्त नामकर्म, प्रत्येक शरीर नामकर्म, स्थिर नामकर्म, (शुभ नामकर्म) सुभग नामकर्म, सुस्वर नामकर्म, आदेय नामकर्म, निर्माण नामकर्म और तीर्थंकर नामकर्म-इन तीस प्रकृतियों को छोड़कर, शेष छब्बीस प्रकृतियों को अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती संयत ही बांघते हैं, अर्थात् अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम भाग में अट्ठावन का, संख्यात भाग के बाद छप्पन का और पुनः संख्यातवें भाग के बाद छब्बीस का बन्ध होता है । अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के प्रथम भाग में हास्य, रति, भय, और जुगुप्सा रहित बाईस प्रकृतियों को अनिवृत्तिबादर गुणस्थानवर्ती संयत बांधते हैं। अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के द्वितीय भाग में पुरुषवेद रहित इक्कीस प्रकृतियों का बन्ध करते हैं। तृतीय भाग में संज्वलन क्रोध रहित बीस प्रकृतियों का, चतुर्थ भाग में संज्वलन मान रहित उन्नीस प्रकृतियों का और पंचम भाग में संज्वलन माया रहित अठारह प्रकृतियों का बन्ध, अनिवृत्तिबादर गुणस्थानवर्ती संयत करते हैं। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती मुनि संज्वलन लोभ रहित सत्रह प्रकृतियों का बन्ध करते हैं। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती मुनि इस गुणस्थान के द्वितीय भाग में पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, पांच अन्तराय, उच्चगोत्र और यशः कीर्ति नामकर्म-इन सोलह प्रकृतियों को छोड़कर मात्र एक सातावेदनीय का ही बन्ध करते हैं। उपशान्तकषाय गुणस्थानवर्ती संयत, क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती संयत और सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जिन मात्र सातावेदनीय का ही बन्ध करते हैं। अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जिन अबन्धक हैं, वे किंचित् मात्र भी कर्म का बन्ध नहीं करते हैं । मूलाचार की गाथा क्रमांक १२४८ में केवलज्ञान की प्राप्ति किस प्रकार होती है, इसकी चर्चा है । उसमें कहा गया है कि मोहनीय कर्म के क्षय हो जाने से तथा उसके पश्चात् आवरण रूप ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय तथा अन्तराय कर्म का क्षय हो जाने पर सर्व भावों का प्रकाशक केवलज्ञान उत्पन्न होता है । इसके पश्चात् केवली भगवान् युगपत् रूप से नाम, गोत्र, आयुष्य और Jain Education Intemational Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{185} वेदनीय-इन चारों अघाती कर्मों को क्षय करके औदारिक शरीर का त्याग करके नीरज, सिद्ध अवस्था को प्राप्त करते हैं। यद्यपि यहाँ मूल गाथा में गुणस्थान शब्द का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, फिर भी ये दोनों गाथायें सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थान की परिचायक मानी जाती हैं। वसुनन्दि ने इन गाथाओं की टीका में विस्तार से इस बात की चर्चा की है कि श्रेणी आरोहण करता हुआ जीव किन-किन कर्म प्रकृतियों का क्षय करते हुए इन अवस्थाओं को प्राप्त होता है। इस प्रकार ग्रन्थ के प्रारंभ में प्रयुक्त सर्वसंयत पद को टीकाकार ने गुणस्थान का वाचक माना है, किन्तु यह मान्यता उचित नहीं है । इस गाथा की टीका में वसुनन्दि ने संयत पद से प्रमत्तंसयत गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती सभी साधकों को गृहीत किया है, फिर भी मूल गाथा में मात्र सर्वसंयत (सव्वसंजदे) पद होने से इसे सामान्यरूप से मुनियों का ही वाचक माना जा सकता है, गुणस्थान का सूचक नहीं। मूलाचार की पांचवीं गाथा में भी जीवों का वर्गीकरण करते हुए कायस्थान, इन्द्रियस्थान, गुणस्थान, मार्गणास्थान, कुलस्थान, आयुस्थान और योनिस्थान की अपेक्षा से जीवों के वर्गीकरण का संकेत दिया गया है। इसमें गुणस्थान और मार्गणास्थान का स्पष्ट उल्लेख होने से यह माना जा सकता है कि मूलाचार के कर्ता आचार्य वट्टकेर न केवल गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा से परिचित थे, अपितु उन्हें गुणस्थान और मार्गणास्थानों का सहसम्बन्ध भी ज्ञात था। मूलाचार के टीकाकार ने भी यहाँ गुण से गुणस्थान और मग्गं से मार्गणास्थान ग्रहण किया है । मात्र यही नहीं उन्होंने टीका में चौदह गुणस्थानों के नाम भी दिए हैं । इस प्रकार ग्रन्थ के प्रारंभ में ही गुणस्थान शब्द के उल्लेख से यह सुनिश्चित हो जाता है कि ग्रन्थकार गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा से सुपरिचित रहे हैं। चाहे वर्ण्य विषय की भिन्नता के कारण उन्होंने अपने इस ग्रन्थ में गुणस्थान सिद्धान्त की सूक्ष्म विवेचना न की हो, फिर भी ग्रन्थ में प्रकीर्ण रूप से गुणस्थान सम्बन्धी उल्लेख मिलते है, जिसकी चर्चा हमने की है । गाथा क्रमांक ५६ में बालमरण, बालपण्डितमरण एवं पण्डितमरण का उल्लेख हुआ है । मूल गाथा में तो यहाँ भी गुणस्थान की कोई चर्चा नहीं है, किन्तु आचार्य वसुनन्दि ने इसकी टीका में यह स्पष्ट किया है कि अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के जीव बाल कहलाते हैं। संयतासंयत गुणस्थानवर्ती जीव बालपण्डित कहलाते हैं और संयत गुणस्थानवी जीव पण्डित कहलाते हैं। उन्होंने यहाँ संयतों में छठे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक के सभी जीवों को गृहीत किया है । इसी क्रम में गाथा क्रमांक १०७ में अरहन्त और वीतमोह शब्दों का उल्लेख है। किन्तु ये शब्द गुणस्थान के सूचक हो ऐसा नहीं माना जा सकता है । गाथा क्रमांक २०४ में संसारी और सिद्ध जीवों का उल्लेख है, किन्तु हमारी दृष्टि में इस गाथा का सम्बन्ध भी गुणस्थान की अवधारणा से नहीं हैं। पुनः गाथा क्रमांक ४०४ एवं ४०५ में उपशान्त, क्षीणकषाय, सूक्ष्मक्रिया सयोगीकेवली और अयोगीकेवली-ऐसी चार अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है । यहाँ यह बताया है कि उपशान्तकषाय गुणस्थानवर्ती मुनि शुक्लध्यान के प्रथम चरण पृथक्त्वसवितर्कविचार का ध्यान करते हैं। क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती मुनि शुक्लध्यान के एकत्ववितर्कअविचार नामक द्वितीय चरण का ध्यान करते हैं। सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती मुनि सूक्ष्मक्रिया नामक शुक्लध्यान के तृतीय चरण का और अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती मुनि समुच्छिन्नक्रिया नामक शुक्लध्यान के चतुर्थ चरण का ध्यान करते हैं। इस चर्चा से पुनः यह स्पष्ट हो जाता है कि मूलाचार के कर्ता आचार्य वट्टकेर न केवल गुणस्थान की अवधारणा से परिचित रहे हैं, अपितु उन्होंने शुक्लध्यान के चारों चरणों में क्रमशः उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती आत्माओं का उल्लेख भी किया है। मूलाचार के गाथा क्रमांक ८८५ में ध्यान की चर्चा के प्रसंग में यह कहा गया है कि आर्त और रौद्रध्यान का परिहार करके धर्म और शुक्लध्यान में लीन, शुक्लध्यान से युक्त मुनि को अनिवृत्ति कषायें विचलित नहीं कर सकती हैं। मूल गाथा में तो केवल 'अनियट्टि' पद ही मिलता है । जिसका अर्थ अनिवृत्त कषायें होता है, किन्तु यहाँ टीकाकार वसुनन्दि ने अनिवृत्तिकरण गुणस्थान का सूचन किया है । अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में मात्र संज्वलन कषायों की ही सत्ता होती है, इसीलिए वे व्यक्ति के चारित्र का विध्वंस करने में समर्थ नहीं हैं। टीकाकार की दृष्टि में यहाँ ध्यान के सन्दर्भ में गुणस्थान के अवतरण का प्रयत्न देखा जा सकता है, फिर भी इस सम्बन्ध में कोई विस्तृत चर्चा उपलब्ध नहीं होती है । आगे मूलाचार की गाथा क्रमांक ६११ में दस कल्पों का विवेचन है । यहाँ मूल गाथा में गुणस्थान का कोई निर्देश नहीं है, किन्तु टीकाकार वसुनन्दि ने ज्येष्ठ कल्प की चर्चा के प्रसंग में Jain Education Intemational Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{186} एक गुणस्थान की अपेक्षा दूसरे गुणस्थानवर्ती आत्मा को ज्येष्ठ माना है । हमें तो ऐसा लगता है कि यहाँ वसुनन्दि बिना किसी प्रसंग के ही गुणस्थानों की इस चर्चा को उठा रहे है, क्योंकि ज्येष्ठ कल्प का सम्बन्ध छेदोपस्थापनीय चारित्र में दीक्षापर्याय की ज्येष्ठता से ही है, न कि गुणस्थानों से। मूलाचार की गाथा क्रमांक ६४२ में कहा गया है कि व्रत रहित सम्यग्दृष्टि का तप भी महागुणकारी नहीं है, क्योंकि वह तो हाथी के स्नान के समान है। हमारी दृष्टि में यहाँ भी मूल गाथा में गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा नहीं है, किन्तु टीकाकार वसुनन्दि ने 'गुण' शब्द को देखकर यह कह दिया है कि यहाँ गुणस्थानों की अपेक्षा से चारित्र के महत्व की चर्चा है। इसी क्रम में आगे गाथा क्रमांक ६८७ में कहा गया है कि कारणों के नष्ट होने पर कार्य स्वयं ही नष्ट हो जाता है, इसीलिए कारण का ही विनाश करना चाहिए। यहाँ भी मूल गाथा में गुणस्थान सम्बन्धी कोई भी संकेत नहीं है, फिर भी इसकी टीका में वसुनन्दि लिखते है कि प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थानवर्ती सभी मुनियों को इन हेतुओं का विनाश करना चाहिए । हमारी दृष्टि में यहाँ वसुनन्दि अपेक्षा न होते हुए भी गुणस्थान की अवधारणा को प्रस्तुत कर रहे हैं । इस प्रकार वसनन्दि ने गाथा क्रमांक ८८५.६११,६४२ और ६१७ में गुणस्थान सम्बन्धी जिस चर्चा को उठाया है, वह वहाँ प्रासंगिक नहीं लगती है, क्योंकि मूल ग्रन्थ कर्ता गुणस्थानों की अपेक्षा से कोई चर्चा प्रस्तुत नहीं करते हैं। व्याख्याओं में जो गुणस्थान सम्बन्धी निर्देश है, वे टीकाकार के अपने दृष्टिकोण पर अवतरित हैं। इस प्रकार देखते हैं कि मूलाचार में लगभग ग्यारह सौ अठासी गाथाओं तक गुणस्थान सम्बन्धी प्रकीर्ण निर्देशों को छोड़कर उनकी कोई विस्तृत चर्चा उपलब्ध नहीं होती है, किन्तु सर्वप्रथम गाथा क्रमांक ११८६ में स्पष्टरूप से चौदह जीवस्थानों, चौदह मार्गणास्थानों और चौदह गुणस्थानों का निर्देश हुआ है।२०१ । इसके पश्चात् गाथा क्रमांक ११६७-११६८ में चौदह गुणस्थानों के नाम प्रतिपादित किए गए हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि मूलाचार के कर्ता आचार्य वट्टकेर न केवल चौदह गुणस्थानों की अवधारणा से सुपरिचित रहे हैं, अपितु वे गुणस्थानों के जीवस्थानों और मार्गणास्थानों से सहसम्बन्ध की अवधारणा से भी सुपरिचित रहे हैं। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि मूलाचार के टीकाकार वसुनन्दि ने गाथा क्रमांक ११६७-११६८ की टीका में चौदह गुणस्थानों के स्वरूप पर विस्तार से प्रकाश डाला है । आगे . गाथा क्रमांक १२०२ में, चार गतियों में कौन-कौन से गुणस्थान होते हैं, इसकी चर्चा की गई है । यहाँ कहा गया है कि देव और नारक गतियों में प्रथम के चार गुणस्थान होते हैं। तिर्यंचों में प्रथम के पांच तथा मनुष्यों में चौदह ही गुणस्थान होते हैं। इस गाथा की टीका में वसुनन्दि ने चौदह मार्गणाओं की अवधारणा को प्रस्तुत किया है । वसुनन्दि द्वारा विवेचित विभिन्न मार्गणाओं में गुणस्थानों की यह चर्चा पूज्यपाद देवनन्दी के द्वारा रचित सर्वार्थसिद्ध टीका में की गई चर्चा के समरूप ही है। यहाँ विशेष रूप से यह ज्ञातव्य है कि फलटण से प्रकाशित मूलाचार में पन्द्रह गाथाएं अधिक मिलती हैं। ये गाथाएं भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित मूलाचार की गाथा २०३ के बाद दी गई हैं। इन गाथाओं में चौदह मार्गणाओं में गुणस्थानों को घटित किया गया है । यह एक विवाद का प्रश्न है कि ये गाथाएं मूलाचार की मूल गाथाएं हैं, अथवा कालान्तर में उसमें प्रक्षिप्त की गई है। वसुनन्दि कृत टीका में मूल में यह गाथाएं नहीं दी गई हैं। यद्यपि उन्होंने अपनी टीका में मार्गणाओं में गुणस्थानों का अवतरण अवश्य किया है, जिसका निर्देश हम पूर्व में कर चुके हैं। यदि हम इन पन्द्रह गाथाओं को मूलाचार की मूल गाथाएं माने, तो यह कह सकते हैं कि मूलाचार में मार्गणाओं में गुणस्थानों का अवतरण निम्न प्रकार से हुआ है२०२ - एगविगलिदियाणं मिच्छादिहिस्स होइ गुणठाणं । आसादणस्स केहि वि भणियं चोद्दस सयलिंदियाणं तु ।। अर्थ-एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान हैं। कोई आचार्य एकेन्द्रिय में तेज और वायु को छोड़कर, शेष तीन में सासादन भी कहते हैं। पंचेन्द्रियों में चौदह गुणस्थान हैं। २०१ एइंदियादि पाणा चोद्यस दु हवंति जीवठाणाणि । गुणठाणाणि व चोद्यस मग्गणठाणाणिवि तहैवा ।। मूलाचार, लेखक : आ. वट्टकेर, सम्पादक : ज्ञानमतिजी, प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, देहली, तृतीय संस्करण, ई.सन् १९६६ २०२ मूलाचार, सं. आर्यिकाज्ञानमतिजी, भारतीय ज्ञानपीठ, देहली, चतुर्थ संस्करण १६६६ ई. उत्तरार्द्ध पृ. ३२७-३२६ Jain Education Intemational Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ पुढवीकायादीणं पंचसु जाणाहि मिच्छगुणठाणं । तसकायिएसु चोद्दस भणिया गुणणामधेयाणि ।। अर्थ-पृथ्वीकाय आदि पांच में मिथ्यात्व गुणस्थान हैं । त्रसकाय में चौदह गुणस्थान हैं। सच्चे मणवचिजोगे असच्चमोस य तह य दोन्हं पि । मिच्छादिट्ठिप्पहुदी जोगंता तेरसा होंति ।। अर्थ - सत्य - मन-वचनयोग में और असत्यमृषा - मन-वचनयोग में मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगीकेवली पर्यन्त, तेरह गुणस्थान होते हैं। शेष दो मनोयोग और दो वचनयोग में प्रथम से क्षीणकषाय तक बारह गुणस्थान होते हैं । वेउव्वकायजोगे चत्तारि हवंति तिण्णि मिस्सिम्हि । आहारदुगस्सेगं पमत्तठाणं विजाणाहि ।। अर्थ - वैक्रिय काययोग में आदि के चार एवं वैक्रियमिश्र में तृतीय को छोड़कर, ये तीन गुणस्थान होते हैं। आहार-द्वय में एक प्रमत्तसंयत गुणस्थान ही होता है। कम्मइयस्स य चउरो तिण्हं वेदाण होंति णव चेव । वेदे व कसायाणं लोभस्स वियाण दस ठाणं ।। अर्थ- कार्मणकाययोग में मिथ्यात्व, सासादन, असंयत और सयोगकेवली- ये चार गुणस्थान होते हैं। तीन वेदों में भाववेद की अपेक्षा नौ गुणस्थान होते हैं । वेद के समान ही तीनों कषायों में नौ गुणस्थान एवं लोभकषाय में दस गुणस्थान होते हैं । तिण्णं अण्णाणाणं मिच्छादिट्ठी सासणो होदि । मदिसुदओहीणाणे चउत्थादो जाव खीणंता ।। अर्थ-तीन कुज्ञान में मिथ्यात्व और सासादन- ये दो गुणस्थान होते हैं। मति, श्रुत और अवधिज्ञान में चौथे से लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त होते हैं । तृतीय अध्याय........{187} पज्जवहिणियमा सत्तेव व संजदा समुद्दिट्ठा । केवलिणाणे णियमा जोगी अजोगी य दोण्णि मदे || अर्थ - मनः पर्यवज्ञान में प्रमत्त से लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त सात ही गुणस्थान हैं । केवलज्ञान में नियम से सयोगीकेवली और अयोगकेवली- ये दो ही गुणस्थान माने गए हैं । सामायियछेदणदो जाव णियत्ते ति परिहारमप्पमत्तोत्ति । सुहुमं सुहुमसरागे उपसंतादी जहाखादं ।। अर्थ- सामायिक-छेदोपस्थापनीय में छठे से अनिवृत्तिकरण पर्यन्त चार गुणस्थान हैं। परिहारसंयम में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत- ऐसे दो ही गुणस्थान होते हैं। सूक्ष्मसरागसंयम में सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान ही है और उपशान्त से लेकर अयोगी पर्यन्त चार गुणस्थान यथाख्यात संयम में होते हैं। विरदाविरदं एक्कं संजममिस्सस्स होदि गुणठाणं। हेट्ठिमगा चउरो खलु असंजमे होंति णादव्वा ।। अर्थ-संयमासंयम में विरताविरत नामक एक गुणस्थान है और असंयम में आदि के चार गुणस्थान होते हैं। मिच्छादिट्टिप्पहूदी चक्खु अचक्खुस्स होंति खीणंता । ओधिस्स अविरद पहुदि केवल तह दंसणे दोण्णि । । अर्थ-चक्षु और अचक्षुदर्शन में मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त, अवधिदर्शन में अविरत से लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त एवं केवलज्ञान में मात्र दो गुणस्थान हैं । मिच्छादिट्ठिप्पहुदी चउरो सत्तेव तेरसंतंतं । तियदुग एक्कस्सेवं किण्हादीहीणलेस्साणं ।। अर्थ- कृष्ण आदि तीन लेश्याओं में मिथ्यादृष्टि से लेकर चार गुणस्थान पर्यन्त, आगे की दो लेश्याओं में पहले से सात पर्यन्त एवं शुक्ल लेश्या में पहले से लेकर तेरहवें पर्यन्त गुणस्थान हैं। भवसिद्धिगस्स चोद्दस एक्कं इयरस्स मिच्छगुणठाणं । उवसमसम्मत्तेसु य अविरदपहुदिं च अट्ठेव ।। अर्थ-भव्यसिद्धिक जीवों में चौदह गुणस्थान हैं। अभव्यसिद्धिक में एक मिथ्यात्व गुणस्थान है । उपशम सम्यक्त्व में अविरत से लेकर उपशान्तकषाय तक आठ गुणस्थान होते हैं। तह वेदयस्स भणिया चउरो खलु होंति अप्पमत्ताणं । खाइयसम्मत्तम्हि य एयारस जिणवरुदिट्ठा ।। अर्थ-वेदक सम्यक्त्व में चौथे से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान पर्यन्त चार गुणस्थान होते हैं एवं क्षायिक सम्यक्त्व में चौथे से लेकर अयोगीकेवली तक ग्यारह गुणस्थान होते हैं, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ तृतीय अध्याय ........{188} मिस्से सासणसम्मे मिच्छादिट्ठिम्हि होइ एक्केक्कं । सण्णिस्स बारस खलु हवदि असण्णीसु मिच्छत्तं ॥ अर्थ-मिश्र, सासादन और मिथ्यादृष्टि में अपने-अपने एक-एक गुणस्थान हैं । संज्ञी के बारह गुणस्थान हैं एवं असंज्ञी में मिथ्यात्व नाम का एक गुणस्थान है । I आहारस्स य तेरस पंचेव हवंति जाण इयरस्स । मिच्छासासण अविरद सजोगी अजोगी य बोद्धव्वा ।। अर्थ- आहार मार्गणा में तेरह गुणस्थान हैं। अनाहार मार्गणा में मिथ्यात्व, सासादन, अविरति, सयोगी और अयोगी-ये पांच गुणस्थान होते हैं । इसके पश्चात् गाथा क्रमांक १२२४ की वसुनन्दि की टीका में चौदह गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या की अपेक्षा अल्प- बहुत्व की निम्न चर्चा है-सबसे कम अयोगीकेवली है । चारों उपशमक उन अयोगियों से संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातगुणे सयोगकेवली हैं । इससे संख्यातगुणे अप्रमत्त मुनि हैं। इनसे असंख्यातगुणे संयतासंयत तिर्यंच और मनुष्य हैं। ये पल्योपम के असंख्यातवें भाग मात्र है जिनकी संदृष्टि ५६६६६ है । इनसे असंख्यातगुणे चारों गतियों के सासादनसम्यग्दृष्टि हैं, इनकी संदृष्टि ५० है । इनसे संख्यातगुणे. चारों गतियों के सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव हैं, जिनकी संदृष्टि पल्य ६० है । इनसे असंख्यातगुणे चारों गतियों से असंयतसम्यग्दृष्टि जीव हैं। इनसे अनन्तगुणे सिद्ध हैं। सभी मिथ्यादृष्टि जीव इन सिद्धों से भी अनन्तानन्तगुणे हैं । किन्तु यह चर्चा भी केवल टीका में ही है, मूल गाथा में नहीं है । इसके पश्चात् मूलाचार की गाथा क्रमांक १२४१-१२४२ में किस गुणस्थानवर्ती जीव किन-किन कर्मप्रकृत्तियों का बन्ध करते हैं, इसकी संक्षिप्त चर्चा उपलब्ध होती हैं। इसी प्रकार गाथा क्रमांक १२४८-१२४६ में बारहवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक आत्मा किस प्रकार अघातीकर्मों का क्षय करती है, इसकी चर्चा है। मूल गाथाओं में तो यह चर्चा अत्यन्त संक्षिप्त ही है । मूलाचार की गाथा क्रमांक १२४१ एवं १२४२ में यह उल्लेख है कि एक सौ अड़तालीस कर्मप्रकृतियों में से एक सौ बीस कर्मप्रकृतियाँ बन्ध योग्य मानी गई हैं। मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव आहारकद्विक और तीर्थंकर नामकर्म को छोड़कर शेष ( ११७ ) कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं । सम्यग्दृष्टि जीव तैंतालीस कर्मप्रकृतियों को छोड़कर सतहत्तर कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं। श्रावक तिरपन कर्मप्रकृतियों को छोड़कर शेष सड़सठ कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं। संयत अर्थात् प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती मुनि पचपन कर्मप्रकृतियों को छोड़कर, शेष पैंसठ कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं। मूल गाथाओं में इस संक्षिप्त चर्चा के अतिरिक्त, किन गुणस्थानों में किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है, इसकी चर्चा नहीं हैं, किन्तु जैसा कि हमने पूर्व में सूचित किया है कि वसुनन्दि अपनी टीका में किन गुणस्थानों में किन-किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है, इसकी चर्चा करते हैं । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि फलटण से प्रकाशित पत्राकार मूलाचार में कुछ गाथाएं अधिक हैं, जिनमें किन गुणस्थानों में किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है, इसका उल्लेख है । उनके अनुसार सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव उन्नीस कर्मप्रकृतियों को छोड़कर शेष एक सौ एक कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं। मिश्र गुणस्थानवर्ती जीव छियालीस कर्मप्रकृतियों को छोड़कर शेष चौहत्तर कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं। अन्य दो गाथाओं में कहा गया है कि अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव इकसठ कर्मप्रकृतियों को छोड़कर शेष उनसठ कर्म आकृतियों का बन्ध करते हैं। अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती जीव बासठ कर्म आकृतियों को छोड़कर शेष अट्ठावन कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं । अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती जीव अट्ठानवें कर्मप्रकृतियों को छोड़कर बाईस कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती जीव एक सौ तीन कर्मप्रकृतियों को छोड़कर शेष सत्रह कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं । उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगी केवली - इन तीन स्थावर्ती जीव एक सौ उन्नीस कर्मप्रकृतियों को छोड़कर, मात्र एक सातावेदनीय का बन्ध करते हैं। अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव अबन्धक होते हैं, अर्थात् उन्हें किसी भी कर्मप्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है । इस प्रकार फलटण की प्रति के 'अनुसार मूलाचार की मूल गाथाओं में किस गुणस्थानवर्ती जीव किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं, इसकी चर्चा उपलब्ध हो रही है। मूल गाथाओं में केवल बन्धनेवाली और नहीं बन्धनेवाली कर्मप्रकृतियों की संख्या का ही उल्लेख है, किन्तु वसुनन्दि ने अपनी टीका में इस बात का विस्तार से उल्लेख किया है कि बन्धने योग्य कर्मप्रकृतियां कौन-सी हैं और नहीं बन्धने योग्य कर्मप्रकृतियां कौन-सी Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{189) हैं। किस गुणस्थान में किन-किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है और किन-किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है, इसकी विस्तृत चर्चा कर्मग्रन्थों में भी उपलब्ध है । वसुनन्दि का यह विवेचन भी उनके समान ही है, अतः हम यहाँ इस सम्बन्ध में अधिक विस्तृत चर्चा करना आवश्यक नहीं समझते हैं। फिर भी इस समस्त चर्चा से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि मूलाचार के कर्ता आचार्य वट्टकेर गुणस्थान सिद्धान्त की सूक्ष्मताओं से अवश्य परिचित रहे हैं। जहाँ तक मूलाचार के टीकाकार वसुनन्दि का प्रश्न , वे तो अपनी टीका में गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा के विभिन्न पक्षों की चर्चा कर रहे हैं। मूलाचार की अन्तिम गाथाओं की चर्चा में उन्होंने न केवल विभिन्न गुणस्थानों में किन-किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है और किन-किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है, इसकी चर्चा की है, अपितु किस गुणस्थान में किन कर्मप्रकृतियों का क्षय होता है और किस क्रम से होता है, इसकी भी विस्तृत चर्चा की है तथा यह भी बताया है कि सातवें गुणस्थान के अन्त में श्रेणी प्रारंभ करके जीव किस प्रकार कर्मो का क्षय करता हुआ मुक्ति को प्राप्त होता है । इसप्रकार आचार्य वट्टकेर विरचित मूलाचार की मूल गाथाओं में गुणस्थान का संक्षिप्त निर्देश प्राप्त होता है, किन्तु उसकी वसुनन्दि कृत टीका में उसका विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है, अतः मूल ग्रन्थकार और उसके टीकाकार दोनों ही गुणस्थान सिद्धान्त से परिचित रहे हैं और आवश्यकतानुसार उन्होंने अपने ग्रन्थ में अथवा उसकी टीका में गुणस्थानों का अवतरण भी किया है। आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में गुणस्थान की अवधारणा आचार्य कुन्दकुन्द दिगम्बर परम्परा के एक मूर्धन्य आचार्य है । उनके ग्रन्थों में आध्यात्मिक दृष्टि से तत्वों का गहन विश्लेषण हुआ है । यह सत्य है कि उन्होंने तत्व के शुद्ध स्वरूप पर विशेष बल दिया है । उनकी दृष्टि निश्चयनय प्रधान है, किन्तु उन्होंने व्यवहार की कहीं उपेक्षा नहीं की । वे आत्मा के शुद्ध स्वरूप पर इसीलिए विशेष बल देते हैं कि इसे जानकर साधक विभावदशा से मुक्त हो सके । उनकी रचनाओं में प्रवचनसार, पंचास्तिकायसार, समयसार, नियमसार और अष्टपाहुड प्रमुख है। इनके अतिरिक्त बारसअनुवेक्खा, दशभक्ति, रयणसार को भी आपकी रचनाएँ माना जाता है । यद्यपि इस सम्बन्ध में विद्वानों के विभिन्न मत है । कुछ विद्वानों ने तो अष्टपाहुड को भी कुन्दकुन्दकृत मानने में प्रश्नचिन्ह उपस्थित किए हैं; किन्तु हम यहाँ इन मतभेदों में उलझना नहीं चाहते, क्योंकि हमारा मुख्य प्रयोजन तो कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा की उपस्थिति को देखना ही है। जहाँ आचार्य कुन्दकुन्द के काल का प्रश्न है, यह भी विवादों के घेरे में है । कुन्दकुन्द के काल के सम्बन्ध में जो विभिन्न मत हैं, उनका संक्षिप्त उल्लेख प्रवचनसार की भूमिका में प्रो.ए.एन. उपाध्याय ने किया है । परम्परागत मान्यता के अनुसार उनका जन्म ईस्वी पूर्व प्रथम शताब्दी के उनसाठवें वर्ष में हुआ और स्वर्गवास ८५ वर्ष की आयु में ईस्वी सन् ४४ में हुआ। प्रो. ए.सी. चक्रवर्ती ने पंचास्तिकाय की भूमिका में कुन्दकुन्द के ईस्वी पूर्व की परम्परागत तिथि का समर्थन किया है। पंडित जुगलकिशोरजी मुक्तार ने उनका जन्म ईस्वी सन् ८१ और स्वर्गवास ईस्वी सन् १६५ माना है । हार्नले एक अन्य पट्टावलि के उल्लेख के आधार पर उनका काल विक्रम संवत् १४६ तदनुसार ईस्वी सन् ६२ माना है । विद्वज्जन बोधक नामक पट्टावलि में उनका काल वीरनिर्वाण संवत् ७७० तदनुसार ईस्वी सन् २४३ ए.डी. उल्लेखित है । पंडित नाथुलालजी प्रेमी ने उन्हें ईस्वी सन् १६५ के बाद माना है, किन्तु किसी निश्चित तिथि का उल्लेख नहीं किया है। प्रो. पाठक ने अभिलेखों के आधार पर उन्हें शिवमृगेश वर्मन का समकालीन मानते हुए उनका काल ईस्वी सन् ५२८ के लगभग माना है । डॉ सागरमल जैन और मधुसूदन ढाकी ने भी इसी तिथि को प्रमाणित माना है । इस प्रकार विद्वानों ने कुन्दकुन्द का काल ईस्वी पूर्व प्रथम शती से लेकर ईसा की छठी शताब्दी तक माना है । परम्परावादी दिगम्बर विद्वान् इनका काल ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी मानते हैं, वहीं श्री मधुसूदन ढाकी ने इनका काल ईसा की छठी शताब्दी के आसपास सिद्ध किया है । डॉ. सागरमल जैन ने भी विशेषरूप से गुणस्थान सिद्धान्त के विकास के आधार पर इनका काल पांचवीं-छठी शताब्दी के लगभग निर्धारित किया है । यहाँ हम इस काल सम्बन्धी विवाद में भी विशेषरूप से उलझना नहीं चाहते हैं । यद्यपि हम यह अवश्य देखने का प्रयत्न करेंगे कि विद्वानों न सिद्धान्त के विकास का जो क्रम माना है Jain Education Intemational Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ उसमें आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की क्या स्थिति है ? आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में हमें कहीं भी चौदह गुणस्थानों का सुव्यवस्थित व्याख्यात्मक उल्लेख प्राप्त नहीं होता है । मात्र गुणस्थानों से सम्बन्धित कुछ अवस्थाओं के उल्लेख प्राप्त होते हैं । इस आधार पर कुन्दकुन्द की स्थिति भी अर्द्धमागधी आगम साहित्य के समरूप ही दिखाई देती है । अनेक स्थलों पर जहाँ गुणस्थानों के नामों के समरूप जिन नामों या अवस्थाओं का उल्लेख है, वहाँ भी यह कहना अत्यन्त कठिन है कि यह उल्लेख गुणस्थान से सम्बन्धित है या नहीं ? मिथ्यादृष्टि २०३, सम्यग्दृष्टि२०४, असंयत२०५, प्रमत्त २०६, अप्रमत्त२०७, उपशान्तमोह ०८, क्षीणमोह २०६, सयोगी आदि गुणस्थानों के नामों के समरूप शब्द कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में उपलब्ध होते है, किन्तु इन शब्दों के साथ गुणस्थान शब्द के उल्लेख का अभाव होने से यह निर्णय करना कठिन है कि यहाँ आचार्य कुन्दकुन्द गुणस्थान सिद्धान्त की किसी अवस्था की चर्चा कर रहे हैं अथवा सामान्य रूप से ही इन अवस्थाओं मात्र का उल्लेख कर रहे है । इस आधार पर यदि देखें तो कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की स्थिति अर्द्धमागधी आगमों से भिन्न प्रतीत नहीं होती है । यह भी सत्य है कि कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में चौदह गुणस्थानों का क्रमशः एवं विवेचनात्मक कोई प्रतिपादन नहीं मिलता है, किन्तु इस आधार पर कुन्दकुन्द के ग्रन्थों की कालिक स्थिति श्वेताम्बर आगम साहित्य के समरूप मानने में * कुछ कठिनाई है। उसका प्रमुख आधार यह है कि जहाँ अर्द्धमागधी आगम साहित्य में एक भी स्थान पर गुणस्थान शब्द का उल्लेख नहीं मिलता है, वहीं आचार्य कुन्दकुन्द ने अनेक स्थलों पर जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान का स्पष्टरूप उल्लेख किया है । इसी आधार पर डॉ. सागरमल जैन ने यह निष्कर्ष निकालने का प्रयत्न किया है कि आचार्य कुन्दकुन्द न केवल गुणस्थानों की अवधारणा से सुपरिचित थे; अपितु जीवस्थान, मार्गणास्थान, गुणस्थान की अवधारणा से ही नहीं बल्कि उनके पारस्परिक सम्बन्ध से भी सुपरिचित थे । गुणस्थानों का मार्गणास्थान और जीवस्थानों से किस प्रकार सहसम्बन्ध है, इसकी चर्चा हमें पूज्यपाद देवनन्दी की टीका सवार्थसिद्धि में तथा षट्खण्डागम में विस्तार से मिलती है । इसी आधार पर उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला है कि आचार्य कुन्दकुन्द षट्खण्डागम एवं पूज्यपाद की सवार्थसिद्धि टीका से या तो परवर्ती है या समकालीन है । J आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में गुणस्थान शब्द का उल्लेख समयसार और नियमसार में विशेषरूप से मिलता है । यहाँ हम उस सम्बन्ध में थोड़ी विस्तार से चर्चा करना चाहेंगे । समयसार की गाथा क्रमांक- ६८ में यह उल्लेखित है कि जो गुणस्थान है, वे मोहनीय कर्म के उदय से होते हैं । २" यह उल्लेख इस बात को सिद्ध करता है कि आचार्य कुन्दकुन्द न केवल गुणस्थान की अवधारणा से सुपरिचित थे, अपितु वे इस तथ्य से भी सहमत थे कि गुणस्थान की अवधारणा मोहनीय कर्म के उदय या क्षयोपशम पर आधारित है । समयसार की गाथा क्रमांक ५४-५५ में न केवल यह उल्लेख है कि गुणस्थान और जीवस्थान- ये जीव के स्वलक्षण नहीं है, अपितु यह भी कहा गया है कि ये पुद्गल द्रव्य का परिणाम है । २१२ आचार्य कुन्दकुन्द तो यहाँ तक भी कहते हैं २०३ आ. कुन्दकुन्द विरचित समयसारः आत्म ख्याति, तात्पर्यवृति, आत्म ख्याति भाषा वचनिका इति टीकात्रयोपेतः - द्वितीय अधिकार, गाथा ८६ २०४ वहीं २/११० २०४ प्रवचनसार, चारित्राधिकार ३, गाथा क्रमांक २१ ( कुन्दकुन्दाचार्य, परमश्रुत, प्रभावक मण्डल, अगास, संस्करण चतुर्थ - १६८४ ) २०६ समयसार - गाथा क्रमांक ६, प्रवचनस्तर - १, ज्ञानाधिकार गाथा क्रमांक- ६ २०७ समयसार - गाथा क्रमांक ६, / नियमसार, ग्यारहवाँ निश्चयपरमावश्यकाधिकार गाथा क्रमांक - १५८ ( कुन्दकुन्द, साहित्य प्रकाशन एवं प्रचार विभाग, जयपुर, संस्करण, पंचम - १६८४ ) २०८ पंचास्तिकाय संग्रह, गाथा क्रमांक ७० (कुन्दकुन्द, साहित्य प्रकाशन एवं प्रचार विभाग, जयपुर, पंचम संस्करण - १६६०) २०६ समयसार गाथा क्रमांक - ३३ / पंचास्तिकाय संग्रह, गाथा क्रमांक- ७० २१० समयसार, गाथा क्रमांक - ११० २११ मोहणकम्मस्सुदया दु वाणिण्या जे इमे गुणट्ठाणा || २१२ णो द्विदिबन्धट्ठाणा जीवस्स ण संकिलेसठाणा वा । तृतीय अध्याय .......{190} समयसार गाथा - ६८ व विसोहिद्वाणा णो संजमलद्धिट्ठाणा वा । वय जीवद्वाणा ण गुणट्ठाणा य अत्थि जीवस्स । जे दु एदे सव्वे पुग्गलदवस्स परिणामा ।। समयसार गाथा- ५५ समयसार गाथा - ५४ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{191) कि ये गुणस्थान, जो जीव की विशुद्धि की अवस्था कहे जाते है, वे वस्तुतः इसी तथ्य के सूचक हैं कि जीव से पुद्गल द्रव्य का वियोग किस रूप में है । शुद्ध आत्म-स्वरूप के विवरण में गुणस्थान की चर्चा प्रासंगिक नहीं है, इसीलिए उन्होंने कहा है कि जीवस्थान और गुणस्थान पुद्गल द्रव्यों के ही परिणमन हैं । आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में, जीव के सन्दर्भ में, जीवस्थान और गुणस्थान का विधान और निषेध दोनों किया ; वहाँ वे नियमसार में आत्मा के शुद्ध स्वरूप का चिन्तन करते हुए स्पष्टरूप से कहते हैं कि मैं अर्थात् आत्मा जीवस्थान, गुणस्थान और मार्गणास्थान नहीं है । निश्चयनय की अपेक्षा से तो आत्मा इन तीनों की न तो कर्ता है और न करवाने वाला है और न अनुमन्ता है । वस्तुतः आचार्य कुन्दकुन्द की रुचि आत्मा के शुद्ध स्वरूप का विवेचन करने की रही है । उनकी दृष्टि में गुणस्थान, जीवस्थान और मार्गणास्थान ये सभी जीव की वैभाविक दशा के ही वर्णन करते हैं। यही कारण रहा है कि उन्होंने गुणस्थानों के सन्दर्भ में विशेष चर्चा नहीं की। आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में गुणस्थान सम्बन्धी विशेष विवरण न मिलने का कारण यह नहीं है कि वे गुणस्थान सिद्धान्त से अपरिचित थे, अपितु इसका कारण यह है कि वे गुणस्थान की अवधारणा को आत्मा की वैभाविक दशा से सम्बन्धित करते थे ; इसीलिए उन्होंने उनके विवेचन की उपेक्षा की । गुणस्थानों में यदि हम अन्तिम तीन गुणस्थानों को छोड़ दें, तो शेष सभी गुणस्थान किसी ने किसी रूप में आत्मा की विभावदशा का चित्रण करते हैं। यही कारण रहा होगा कि आचार्य कुन्दकुन्द ने गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन को अपने ग्रन्थों में अधिक महत्व नहीं दिया । आचार्य कुन्दकुन्द ने चाहे गुणस्थानों का विवरण प्रस्तुत नहीं किया हो, किन्तु वे गुणस्थानों से सुपरिचित थे उसका एक अन्य प्रमाण बोधपाहुड़ में मिलता है। बोधपाहुड़ की गाथा-३१ में वे लिखते हैं कि गुणस्थान, मार्गणा, पर्याप्ति, प्राण, जीवस्थान के आधार पर अर्हन्त भगवान की स्थापना करना चाहिए ।२१३ आगे वे लिखते हैं कि तेरहवें गणस्थान में योग सहित केवलज्ञानी अरहन्त कहे जाते हैं।२१४ आगे गाथा क्रमांक-३६ में कहा गया है कि पंचेन्द्रिय नामक जो चौदहवाँ जीवसमास है उसमें गुणों के समूह से युक्त होकर तेरहवें गुणस्थान में आरूढ़ अरहन्त भगवान होते हैं। यह सब इस तथ्य के प्रमाण है कि चाहे आचार्य कुन्दकुन्द ने गुणस्थानों का विशेष उल्लेख नहीं किया हो, किन्तु वे गुणस्थानों से और गुणस्थानों के जीवस्थान तथा मार्गणास्थान के सहसम्बन्ध से सुपरिचित थे। ___ यहाँ हम संक्षेप में यह चर्चा करना चाहेंगे कि आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों में गुणस्थान के समरूप अवस्थाओं का उल्लेख कहाँ और किस रूप में है ? समयसार की गाथा क्रमांक-५५ और ६८ में गुणस्थान और जीवस्थान का मात्र नाम-निर्देश किया गया है और यह बताया गया है कि जीवस्थान और गुणस्थान आत्मा का स्वलक्षण नहीं है, वे पुद्गल द्रव्यों के परिणाम हैं तथा मोहनीय कर्म के उदय के आधार पर वर्णित किए जाते हैं । गुणस्थानों के नामों के समरूप जिन अवस्थाओं का उल्लेख है वे इस प्रकार से हैं। गाथा क्रमांक-८६ में मिथ्यादृष्टि का उल्लेख करते हुए यह कहा गया है कि आत्मभाव और पुद्गलभाव दोनों को एक ही मानने वाला मिथ्यादृष्टि होता है ।२१६ समयसार के गाथा क्रमांक-६ में यह बताया गया है कि निश्चयनय की अपेक्षा से तो आत्मा २१३ गुणट्ठाणमग्गणेहिं य पज्जत्तीपाणजीवट्ठाणेहिं । ट्ठावण पंचविहेहिं पणयब्वा अरहपुरिसस्स ।। अष्टप्रामृत, चौथे बोधप्रामृत गाथा क्रमांक-३१ (कुन्दकुन्द परमश्रुत प्रभावक मण्डल, अगास) संस्करण वि.स. २०२६ २१४ तेरहमे गुणट्ठाणे सजोइकेवलिय होइ अरहंतो । चउतीस अइसयगुणा होति हु तस्सट्ठ पडिहारा । अष्टप्रामृत, चौथा बोधप्रामृत गाथा क्रमांक-३२ २१५ मणुयभवे पंचिदिय जीवट्ठाणेसु होइ चउदसमे। एदे गुणगणजुत्तो गुणमारूढो हवइ अरहो ।। ___अष्टप्रामृत, चौथा बोधपाहुड गाथा क्रमांक-३६ २१६ जम्हा दु अत्तभावं पुग्गलभावं च दोवि कुष्पंति । तेण दु मिच्छादिट्ठी दो किरियावादिणो हुँति ।। समयसार, द्वितीयाधिकार, गाथा क्रमांक-८६ Jain Education Intemational Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ तृतीय अध्याय ........{192} को प्रमत्त और अप्रमत्त नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि ये दोनों ही सापेक्षभाव है । २१७ शुद्धनय अर्थात् निश्चयनय की अपेक्षा से तो जो आत्मा है, वहीं है । यहाँ इस विवरण को हम गुणस्थान से सम्बन्धित नहीं कह सकते हैं। इसी क्रम में आगे गाथा क्रमांक-३३ में क्षीणमोह अवस्था का उल्लेख है। वहाँ कहा गया है कि जिस मुनि ने मोहकर्म को जीत लिया है, इसे क्षीणमोह कहा जाता है । २१८ इसी प्रकार गाथा क्रमांक - ११० में सयोगी अवस्था का उल्लेख है । २१६ इसी प्रकार हम देखते हैं कि समयसार में मिथ्यादृष्टि, प्रमत्त, अप्रमत्त, क्षीणमोह और सयोगी ऐसी पांच अवस्थाओं का ही उल्लेख है; किन्तु इससे यह निर्णय नहीं किया जा सकता है कि आचार्य कुन्दकुन्द चौदह गुणस्थानों से सुपरिचित नहीं थे । क्योंकि समयसार की गाथा क्रमांक १०६-११० में सर्वप्रथम मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग- ऐसे चार बन्धहेतुओं की चर्चा करते हुए, गाथा क्रमांक- ११० में ये बन्ध के विकल्पों के चर्चा के प्रसंग में स्पष्टरूप से यह कहते हैं कि मिथ्यादृष्टि से लेकर अन्तिम सयोगी तक बन्ध के तेरह विकल्प होते है ।२२० आचार्य कुन्दकुन्द ने चाहे यहाँ स्पष्टरूप से गुणस्थान शब्द का उल्लेख नहीं किया है, किन्तु वे मिध्यादृष्टि से लेकर सयोगी केवली तक के तेरह गुणस्थानों का ही यहाँ निर्देश कर रहे हैं। प्रश्न हो सकता है कि गुणस्थान तो चौदह होते हैं, फिर भी यहाँ आचार्य 'कुन्दकुन्द ने तेरह का ही उल्लेख क्यों किया है ? इसका कारण यह है कि कर्मबन्ध तेरह गुणस्थानों तक ही होता है । ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में बन्ध के चार हेतुओं में से मात्र योग के निमित्त से बन्ध कहा गया है । चौदहवें गुणस्थान में अयोगी अवस्था होने के कारण बन्ध का कोई हेतु शेष नहीं रहता है । यही कारण है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने बन्ध की अपेक्षा से मात्र तेरह अवस्थाओं का उल्लेख किया है । यहाँ एक और विशेष बात ज्ञातव्य है कि डॉ. सागरमल जैन ने के गुण शब्द का अर्थ, कर्म किया है । उसकी पुष्टि भी आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार की गाथा - ११२ से होती है । उसमें कहा है कि जीव तो अकर्ता है, गुण ही कर्म के कर्ता हैं । २२१ इस प्रकार हम देखते हैं कि समयसार में चाहे आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्ट रूप से चौदह गुणस्थानों का उल्लेख न किया हो, किन्तु वे चौदह गुणस्थानों से सुपरिचित रहे हैं, इसका निर्देश गाथा क्रमांक- ११० में कर दिया गया है । T गुणस्थान आचार्य कुन्दकुन्द के दूसरे ग्रन्थ नियमसार में जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया है कि वे केवल यही कहते हैं कि आत्मा जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान से परे है । २२२ ( गाथा - ७८ ) जहाँ तक गुणस्थान से सम्बन्धित अवस्थाओं का प्रश्न है, २१७ णवि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणओ दु जो भावो । एवं भांति सुद्धं ओ जो सोउ सो चेव ।। समयसार, प्रथमाधिकार, गाथा क्रमांक- ६ २१८ जिदमोहस्स दुजइया खीणो मोहो हविज्ज साहुस्स । तइया हु खीणमोहो भण्णदि सो णिच्छयविदूहि || समयसार, प्रथमाधिकार, गाथा क्रमांक- ३३ २१६ तेसिं पुणोवि य इमो भणिदो भेदो हु तेरसवियप्पो । मिच्छादि द्विआदी जाव सजोगिस्स चरमंतं ॥ समयसार, द्वितीयाधिकार, गाथा क्रमांक- ११० २२० सामण्णपच्चया खत्मु चउरो भण्णंति बन्धकत्तारो । मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य बोद्धव्वा ।। १०६ ।। सिं पुणोवि य इमो भणिदो भेदो हु तेरसवियप्पो । मिच्छादिट्ठीआदि जाव सजोगिस्स चरमंतं 11११० ।। समयसार, द्वितीयाधिकार, गाथा क्रमांक- १०६-११० २२१ गुणसण्णिदा दु एदे कम्म कुष्षंति पच्चया जम्हा । तम्हा जीव कत्ता गुणाय कुष्वंति कम्माणि ।। समयसार, द्वितीयाधिकार, गाथा क्रमांक - ११२ २२२ णाहं मग्गणट्ठाणो णाहं गुणट्ठाण जीवट्ठणो ण । कत्ता हि कारइदा अणुमंता णेव कत्तीणं ।। नियमसार, पांचवाँ परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार, गाथा क्रमांक- ७८ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{193} उन्होंने गाथा क्रमांक-१५८ में अप्रमत्त से लेकर केवली अवस्था का मात्र संकेत ही किया है । वहीं वे गाथा क्रमांक-१५८ में कहते हैं कि सभी पुराण-पुरुष आवश्यक रूप को करके, अप्रमत्त आदि स्थानों को प्राप्त करते हुए, केवली होते हैं ।२२३ यहाँ मूल गाथा में तो गुणस्थान शब्द का उल्लेख नहीं हुआ है, किन्तु श्री पद्मप्रभ मलधारी देव की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में अप्रमत्त से लेकर केवली अवस्था तक को गुणस्थान से अभिहित किया है । नियमसार में इसके अतिरिक्त गुणस्थान सम्बन्धी कोई विस्तृत विवरण उपलब्ध नहीं है। पंचास्तिकाय में आचार्य कुन्दकुन्द ने संसारी जीवों के स्वरूप का चित्रण करते हुए उन्हें मिथ्यादर्शन, कषाय और योग से युक्त बताया है। २२४ (पंचास्तिकाय गाथा-३२) पंचास्तिकाय की गाथा क्रमांक ७० में उपशान्तमोह और क्षीणमोह का उल्लेख करते हुए यह कहा गया है कि धीरपुरुष उपशान्तमोह और क्षीणमोह के मार्ग का अनुसरण करता हुआ निर्वाण को प्राप्त होता है । २२५ इस प्रकार पंचास्तिकाय में गुणस्थानों का तो स्पष्ट कोई निर्देश नहीं है; परन्तु मिथ्यादर्शन, उपशान्तमोह और क्षीणमोह-इन तीन अवस्थाओं का निर्देश अवश्य है । आचार्य कुन्दकुन्द के प्रवचनसार नामक ग्रन्थ में असंयत, प्रमत्तसंयत अवस्थाओं के ही निर्देश हैं । इसके अतिरिक्त इस ग्रन्थ में गुणस्थान को लेकर कोई विशेष चर्चा प्राप्त नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द के अष्टपाहुड नामक ग्रन्थ में अर्हन्त के स्वरूप का निर्वचन करते हुए यह कहा गया है कि वे जीवस्थानों की अपेक्षा से चौदहवें जीवस्थान में और गुणस्थानों की अपेक्षा से तेरहवें गुणस्थान में होते हैं । इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द ने बोधपाहुड में गाथा क्रमांक-३१ में गुणस्थान, मार्गणास्थान और जीवस्थान-तीनों का ही स्पष्ट उल्लेख किया है । फिर गाथा क्रमांक-३२ में यह भी कहा है कि तेरहवें गुणस्थान में स्थित सयोगी केवली अर्हन्त होते हैं । इसी के आगे गाथा क्रमांक-३६ में जीवस्थान की अपेक्षा से अर्हन्त को चौदहवें जीवस्थान का स्वामी कहा गया है। उपसंहार के रूप में हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि चाहे आचार्य कुन्दकुन्द ने चौदह गुणस्थानों का स्पष्ट विवरण अपने ग्रन्थों में न किया हो, फिर भी उनके ग्रन्थों में ऐसे संकेत अवश्य उपलब्ध हैं, जिससे हम इस निर्णय पर पहुँच सकते हैं कि आचार्य कुन्दकुन्द गुणस्थानों की अवधारणा से सुपरिचित रहे हैं और संकेत रूप से उन्होंने इस तथ्य का उल्लेख भी किया | ज्ञानार्णव । दिगम्बर परम्परा के आध्यात्मिक साधनापरक ग्रन्थों में ज्ञानार्णव का महत्वपूर्ण स्थान है । ज्ञानार्णव का मुख्य प्रतिपाद्य विषय तो ध्यानसाधना ही है । किन्तु प्रसंगानुसार उसमें द्वादश अनुप्रेक्षा, पंचमहाव्रत, पंचसमिति, त्रिगुप्ति, इन्द्रिय और कषायजय आदि का भी उल्लेख हुआ है । इस ग्रन्थ के कर्ता आचार्य शुभचंद्र माने गए हैं । आचार्य शुभचंद्र ने ज्ञानार्णव में अपने सम्बन्ध में कहीं कोई परिचय नहीं दिया है। किन्तु ग्रन्थ के प्रारम्भ में तीर्थंकरों की स्तुति के पश्चात् उन्होंने अपने पूर्वाचार्यों का निर्देश दिया है । इसमें समन्तभद्र, देवनन्दी, अकलंक और जिनसेन का उल्लेख है । जिनसेन का काल ईस्वी सन् ८६८ माना जाता है । अतः यह निश्चित है कि शुभचंद्र का समय ईसा की नवीं शताब्दी के पश्चात् ही कहीं हो सकता है । विद्वानों ने इनका काल ईसा की दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी के आसपास निर्धारित किया है । ज्ञानार्णव में ध्यान सम्बन्धी जो चर्चा है उसमें पिंडस्थ, आदि ध्यानों की तथा पृथ्वी आदि भावनाओं की जो चर्चा है, वह शुभचंद्र के पूर्व जैनग्रन्थों में कहीं उपलब्ध नहीं होती है, किन्तु आचार्य हेमचंद्रने अपने योगशास्त्र में इनका उल्लेख किया है । हेमचंद्र का काल ईसा की बारहवीं शताब्दी है। अतः शुभचंद्र उनसे पूर्व ही हुए हैं । इस सम्बन्ध में अधिक विस्तार में न जाकर हम केवल यह देखने का प्रयास करें कि शुभचंद्र के ज्ञानार्णव में गुणस्थान सिद्धान्त की क्या स्थिति है ? यह तो स्पष्ट है कि शुभचंद्र के काल तक गुणस्थान सिद्धान्त अपने पूर्ण विकसित स्वरूप में उपलब्ध था और वे उससे सुपरिचित भी रहे हैं । क्योंकि उन्होंने ज्ञानार्णव के छठे सर्ग के २५ वें श्लोक में २२३ सव्वे पुराणपुरिसा एवं आवासयं च काऊण । ___ अपमत्तपहुदिट्ठाणं पडिवज्ज य केवली जादा ।। नियमसार, ग्यारहवाँ निश्चयपरमावश्यकाधिकार, गाथा क्रमांक-१५८ २२४ केचित्तु अणावण्णा मिच्छादसणकसायजोगजुदा। विजुदि य तेहिं बहुगा सिद्धा संसारिणो जीवा ।। पंचास्तिकायसंग्रह, गाथा क्रमांक-३२ २२५ उवसंतखीणमोहो मग्गं जिणभासिदेण समुवगदो । णाणाणुमग्गचारी णिव्वाणपुरं वजदि धीरो ।। पंचास्तिकाय संग्रह, गाथा क्रमांक-७० . Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{194} स्पष्टरूप से चौदह जीवसमासों, चौदह मार्गणाओं और चौदह गुणस्थानों का रूपष्टरूप से उल्लेख किया है२२६ और यह कहा है कि सम्यग्दृष्टि जीवों को चौदह जीवसमासों, चौदह मार्गणा स्थानों और चौदह गुणस्थानों में पूर्णतया श्रद्धा रखना चाहिए। इससे दो बात स्पष्ट हो जाती है कि शभचंद्र न केवल गणस्थान की अवधारणाओं से सपरिचित थे अपित मार्गणास्थान जीवस्थानों के पारस्परिक सम्बन्धों को भी वे जानते थे । ज्ञानार्णव में समभाव के स्वरूप का चित्रण करते हुए उन्होंने उपशान्तमोह और क्षीणमोह इन दो अवस्थाओं का चित्रण किया है जो गुणस्थानों से ही सम्बन्धित है।२२७ इसीप्रकार आर्तध्यान के स्वामी की चर्चा करते हुए उन्होंने स्पष्टरूप से यह कहा है कि प्रथम गुणस्थान से लेकर छठे गुणस्थान तक सम्भव है । मात्र यही नहीं २५ वें सर्ग के ३८ और ३६वें श्लोक में वे यह भी कहते हैं कि प्रथम गुणस्थान से लेकर संयतासंयत नामक पांचवें गुणस्थान में आर्तध्यान के चारों ही भेद सम्भव होते हैं । किन्तु छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान में निदान को छोड़कर शेष तीन प्रकार ही सम्भव होते हैं।२२८ इसी प्रकार रौद्रध्यान की चर्चा में भी यह बताया गया है कि रौद्रध्यान मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर पांचवें देशविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक सम्भव होता है ।२२६ इसी क्रम में आगे धर्मध्यान के स्वामी का उल्लेख करते हुए यह कहा गया है कि प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनि धर्मध्यान के अधिकारी होते हैं ।२३० इसी प्रसंग में अन्य आचार्यों के मन्तव्यों के साथ यह भी कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि से लेकर देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत भी धर्मध्यान के अधिकारी होते हैं।२३१ धर्मध्यान के अधिकारी उपर्युक्त चारों गुणस्थानों के जीव हैं । अतः उनके भेद के आधार पर धर्मध्यान का फल भिन्न-भिन्न कहा गया है । यद्यपि इन श्लोकों में स्पष्टरूप गुणस्थान या गुण शब्द का उल्लेख नहीं है, फिर भी इतना निश्चित है कि यहाँ शुभचंद्र इन नामों से उन गुणस्थानों का ही उल्लेख कर रहे हैं । पुनः आचार्य शुभचंद्र ने ज्ञानार्णव के सर्ग ४१ में धर्मध्यान के फल की चर्चा करते हुए यह कहा है कि सम्यग्दृष्टि नामक चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान पर्यन्त अनुक्रम से असंख्यात-असंख्यातगुणा कर्मों का क्षय या उपशम करता है।२३२ आगे ४२ वें सर्ग में शुक्लध्यान के अधिकारी की चर्चा करते हुए यह कहा है कि शुक्लध्यान के प्रथम चरण और द्वितीय चरण के अधिकारी ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवर्ती छद्मस्थ होते हैं, जबकि शुक्लध्यान के तृतीय और चतुर्थ चरण के अधिकारी तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवर्ती केवलज्ञानी होते हैं ।२३३ इसी सर्ग २२६ चतुर्दशसमासेषु मार्गणासुः गुणेषु च ।। ज्ञात्वा संसारिणो जीवाः श्रद्धेयाः शुद्धदृष्टिमः ।। ज्ञानार्णव सर्ग १ श्लोक २५ (शुभचंद्र, परमश्रुत प्रभावकमण्डल अगास, संस्करण पंचम २०३७) २२७ सारंगी सिंहशापं स्पृशति सुतधिया नन्दिनी व्याघ्रपोतं, मार्जारी हंसपालं प्रणयपरवशा कोकिकान्ता भुजंगम् । वैराण्याजन्मजातान्यपि गलितमदाद जन्तवो त्यजन्ति, श्रित्वा साम्यैकरूढं प्रशमितकलुषं योगिनं क्षीणमोहम् ।।२६।। ज्ञानार्णव, सर्ग २३ श्लोक नं.२६ २२८ अयथ्यमपि पर्यन्ते रम्यमथ्यग्रिमक्षणे। विद्धयसद्धयनमंतद्धि षड्गुणस्थान भूमिकाम् ।।३।। संयतासंयतेष्वेतच्चतुर्भेदं प्रजायते । प्रमत्तसंयतानां तु निदानरहितं त्रिधा ।।३।। ज्ञानार्णव, सर्ग २५ श्लोक नं. ३८,३६ २२६ कृष्णलेश्याबलोपेतं श्वभ्रपातफलांकितम् ।। रौद्रमेतद्धि जीवानां स्यात्पच्च गुणभूमिकम् ।।३६।। ज्ञानार्णव, सर्ग २६ श्लोक ३६ २३० मुख्योपचारभेदेन द्वौ मुनी स्वामिनौ मतौ । अप्रमत्तप्रमत्ताख्यौ धर्मस्यैतो यथायथम् ।।२५।। अप्रमत्तः सुसंस्थानो वज्रकायो वशी स्थिरः । पूर्ववित्संवृतो धीरो ध्याता सम्पूर्ण लक्षणः ।।२६।। ज्ञानार्णव, सर्ग २८ श्लोक नं. २६, २६ २३१ असंख्येयमसंख्येयं सदृष्य्यादि गुणेऽपि च । क्षीयते क्षपकस्यैव कमजातमनुक्रमात् ।।१२।। ज्ञानार्णव, सर्ग ४१ श्लोक १२ २३२ असंख्येयमसंख्येयं सदृष्टयादिगुणेऽपि च । क्षीयते क्षपकस्यैव कमजातमनुक्रमात् ।। ज्ञानार्णव, सर्ग ४१ श्लोक १२ २३३ छेस्थयोगिनामायै द्वे तु शुक्ले प्रकीत्तिते । द्वे त्वन्त्ये क्षीणदोषाणां केवलज्ञान चक्षुषाम् ।। ज्ञानार्णव, सर्ग ४२ श्लोक नं.७ Jain Education Interational Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ Ti4 3844.........{195} के अन्त में यह कहा गया है कि अयोगी परमात्मा को समुच्छिन्न क्रिया नामक चौथा शुक्लध्यान होता है । २३४ यहाँ यह भी कहा है कि इस अवस्था में जो तेरह कर्मप्रकृतियाँ अपविष्ट थीं, वे समाप्त हो जाती हैं । २३५ इसप्रकार हम देखते हैं कि आचार्य शुभचंद्र ने चारों ध्यानों के अधिकारियों की चर्चा करते हुए स्पष्टरूप से यह बताया है कि किस गुणस्थानवर्ती जीव किस ध्यान के अधिकारी होते हैं । इसप्रकार उन्होंने चारों ध्यानों के सन्दर्भ में गुणस्थानों का अवतरण किया है । चाहे उन्होंने समग्ररूप से चौदह गुणस्थानों की चर्चा न की हो, किन्तु वे गुणस्थानों की अवधारणा से सुपरिचित रहे हैं । हमारी दृष्टि में ज्ञानार्णव का मुख्य प्रतिपाद्य चारों प्रकार के ध्यान ही रहे हैं, अतः उनके लिए यहाँ गुणस्थानों की समग्र चर्चा अपेक्षित नहीं थी । अपने प्रतिपाद्य विषय के अनुरूप ही गुणस्थानों का अवतरण किया। कार्तिकेयानुप्रेक्षा में गुणस्थान दिगम्बर परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों में कार्तिकेयानुप्रेक्षा का महत्वपूर्ण स्थान है । कार्तिकेयानुप्रेक्षा, स्वामी कार्तिकेय की रचना मानी जाती है । इनका एक अन्य नाम कुमार श्रमण भी प्रचलित रहा है । इस ग्रन्थ के अन्त में उन्होंने अपने इसी नाम का संकेत दिया है । यह ग्रन्थ बारह अनुप्रेक्षाओं या भावनाओं का चित्रण करता है । कालक्रम की दृष्टि से यह ग्रन्थ पांचवीं - छठी शताब्दी के लगभग माना जा सकता है । जहाँ तक गुणस्थान सिद्धान्त का प्रश्न है, इस ग्रन्थ में कहीं भी चौदह गुणस्थानों का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है । इस आधार पर डॉ. सागरमल जैन इसे चौथी शताब्दी के उत्तरार्द्ध और पांचवीं शताब्दी के पूवार्द्ध का ग्रन्थ मानते हैं । कार्तिकेय अनुप्रेक्षा में गुणस्थान सिद्धान्त का चाहे अभाव हो, किन्तु उसमें कर्मनिर्जरा ग्यारह गुणश्रेणियों का उल्लेख उपलब्ध होता है । जहाँ तत्त्वार्थसूत्र और षट्खण्डागम तथा आचारंग निर्युक्ति में दस अवस्थाओं का उल्लेख है, वहाँ इसमें ग्यारह अवस्थाओं का उल्लेख है । ज्ञातव्य है कि षट्खण्डागम में वेदनाखंड की भूमिका में मूलगाथाओं में दस अवस्थाओं का ही चित्रण है, किन्तु उसके सूत्रों में अन्तिम जिन अवस्था के सयोगी और अयोगी-ऐसे दो विभाग करके ग्यारह अवस्थाओं का उल्लेख किया है । स्वामी कार्तिकेय ने भी निर्जरा अनुप्रेक्षा में इन्हीं ग्यारह अवस्थाओं का उल्लेख किया है; किन्तु यहाँ तत्त्वार्थसूत्र में इन दस अवस्थाओं का चित्रण सम्यग्दृष्टि से प्रारम्भ होता है वहाँ कार्तिकेय अनुप्रेक्षा में यह कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि (अविरत) को असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है । इस प्रकार प्रकारान्तर से उन्होंने मिथ्यादृष्टि नामक अवस्था का भी संकेत किया है, क्योंकि सम्यक् की उपलब्धि के हेतु त्रिकरणवर्ती आत्मा के अपूर्वकरण करते समय असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है । इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वामी कार्तिकेय ने निर्जरा अनुप्रेक्षा की चर्चा में बारह अवस्थाओं का निर्देश किया है । वे निम्न है - (१) मिथ्यादृष्टि (२) सम्यग्दृष्टि (३) अणुव्रतधारी (४) महाव्रतधारी (५) प्रथम कषाय चतुष्क वियोजक ( ६ ) दर्शनमोहक्षपक (७) कषाय उपशमक (८) उपशान्तकषाय (६) क्षपक (१०) क्षीणमोह (११) सयोगी और (१२) अयोगी । २३६ २३४ तस्मिन्नेव क्षणे साक्षादाविर्भवति निर्मलम् । समुच्छिन्नक्रियं ध्यानमयोगिपरमेष्ठिनः ।। २३५ विलयं पीतरागस्य पुनर्यान्ति त्रयोदश । चरमे समये सद्यः पर्यन्ते या व्यवस्थिताः ।। २३६ मिच्छादो सधिट्ठी, असंखगुणकम्मणिज्जरा होदि । ज्ञानार्णव, सर्ग ४२ श्लोक नं. ५३ ज्ञानार्णव, सर्ग ४२ श्लोक नं. ५४ तत्तो अणुवयधारी, तत्तो य महव्वई णाणी ।। १०६ ।। पढमकसायचउन्हं, विजोजओ तह य खवयसीलो य । दंसणमोहतियस्स य, तत्तो उवसमग चत्तारि ।। १०७ ।। खवगो य खीणमोहो, सजोइणाहो तहा अजोईया । एदे उवरिं उवरिं, असंखगुणकम्मणिज्जरया ।। १०८ ।। कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा क्रमांक- १०६, १०७, १०८ (दुलीचंद जैन ग्रन्थमाला सोनगढ़, सौराष्ट्र, द्वितीय संस्करण वी.नि.सं. २५०० ) Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{196} इसप्रकार यहाँ मिथ्यात्व का समावेश करने तथा सयोगी और अयोगी का विभेद स्वीकार करने पर भी कुल ग्यारह अवस्थाओं का ही उल्लेख मिलता है । मूलगाथाओं में कषायउपशमक के बाद उपशान्तकषाय का उल्लेख नहीं हुआ है । यदि हम उसको समाविष्ट करते हैं तो बारह नाम उपलब्ध हो जाते हैं, किन्तु यहाँ यह ज्ञातव्य है कि इन नामों में कहीं भी सास्वादन, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसंपराय का उल्लेख नहीं है । उसके स्थान पर क्षपक और उपशमक के उल्लेख मिलते हैं। कार्तिकेय अनुप्रेक्षा में दंसणमोहतिअस्स और उवसमगचत्तारि, ऐसे शब्दों का उल्लेख हुआ है । अनुवादकों ने यहाँ दंसणमोहतिअस्स में तीन करणों का समावेश किया है, किन्तु उवसमगचत्तारि से क्या ग्रहण किया जाए यह स्पष्ट नहीं होता है । सम्भावना यह माना जा सकता है कि यहाँ अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय और उपशान्तमोह-ऐसी चार अवस्थाओं का निर्देश हो सकता है; किन्तु यह मानने पर हमें यह भी मानना होगा कि स्वामी कार्तिकेय गुणस्थान सिद्धान्त से सुपरिचित रहे हैं, लेकिन उनके इस ग्रन्थ में गुणस्थान सम्बन्धी कोई भी स्पष्ट निर्देश न मिलने से वास्तविकता क्या है, इसे कहना कठिन है । योगसार योगिन्दुदेव दिगम्बर परम्परा के एक मूर्धन्य विद्वान हैं । इनके दो ग्रन्थ अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। एक परमात्मप्रकाश और दूसरा योगसार । हमें इनके योगसार नामक ग्रन्थ में गुणस्थान की अवधारणा का संकेत उपलब्ध होता है । योगसार की १७ वीं गाथा में वे कहते हैं कि व्यवहार दृष्टि से ही मार्गणास्थान और गुणस्थान की चर्चा की जाती है । निश्चयनय से तो आत्मा ही है । यहाँ हम देखते हैं कि आत्म तत्व ही है । मार्गणास्थान और गुणस्थान ये संसारी आत्मा में ही घटित होते हैं, शुद्ध आत्मा में नहीं होते हैं । योगिन्दुदेव के इस कथन में हमें आचार्य कुन्दकुन्द के विचारों की ही झलक मिलती है । आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार में स्पष्टरूप से यह कहा है कि आत्मा न तो मार्गणास्थान है, न जीवस्थान और न ही गुणस्थान, क्योंकि मार्गणास्थान, जीवस्थान और गुणस्थान की चर्चा कर्म एवं शरीरों के आधार पर ही की जाती है । कर्म और शरीर आत्मा से भिन्न हैं । इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्द के समान ही योगिन्दुदेव ने मार्गणास्थान और गुणस्थान की अवधारणा को व्यवहारनय की अपेक्षा से ही स्वीकार किया है। योगिन्दुदेव के इस उल्लेख से इतना स्पष्ट होता है कि वे गुणस्थान और मार्गणास्थान के पारस्परिक सम्बन्धों को भी स्पष्टरूप से जानते थे । यह स्वाभाविक ही है, क्योंकि योगिन्दुदेव का काल लगभग सातवीं-आठवीं शताब्दी का माना जाता है । उनके पूर्व आचार्य पूज्यपाद देवनन्दी (लगभग छठी शताब्दी) अपनी तत्त्वार्थसूत्र की सवार्थसिद्धि टीका में मार्गणास्थानों और गुणस्थानों के सहसम्बन्धों की विस्तृत चर्चा कर चुके थे । योगिन्दुदेव ने चाहे अपने ग्रन्थों में मार्गणास्थान और गुणस्थान की विस्तृत चर्चा नहीं की है, किन्तु वे इन अवधारणाओं से सुपरिचित रहे हैं, इसमें शंका की कोई स्थिति नहीं है । इतना स्पष्ट है कि योगिन्दुदेव निश्चय दष्टि से आत्मा में गणस्थानों या मार्गणास्थानों को स्वीकार नहीं करते । यह तो स्पष्ट है कि गणस्थान का सम्बन्ध कर्मों के क्षय उपशम से है। अपने पक्ष के समर्थन में परमात्मप्रकाश में योगिन्ददेव कहते हैं कि जिसप्रकार (द्वितीय प्रकाश गाथा क्रमांक १७..पेज क्रमांक ३४६) रक्त वस्त्र को धारण करने से शरीर को रक्त नहीं कहा जा सकता है. उसीप्रकार देह आदि के वर्ण के आधार पर आत्मा को उस वर्ण का नहीं माना जा सकता है । अतः कर्मों के क्षय-उपशम आदि के निमित्त से उत्पन्न होने वाली विभिन्न अवस्थाओं को आत्मा में घटित नहीं किए जा सकते हैं । गुणस्थान शुद्ध आत्मा की अवस्थाएं नहीं है । वे संसारी आत्मा के कर्म के निमित्त से होने वाली अवस्थाएं हैं । इस प्रकार चाहे योगिन्दुदेव ने विस्तार से गुणस्थान की चर्चा नहीं की हो, फिर भी शुद्ध आत्मा में गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि के निषेध से यह तो स्पष्ट है कि वे इन अवधारणाओं से परिचित रहे हैं । उनका वैशिष्ट्य यही है कि या तो वे गुणस्थान की अवधारणा को शुद्ध आत्मा के सम्बन्ध में स्वीकार नहीं करते या गुणस्थान की सत्ता को मात्र व्यवहार के स्तर पर ही मानते हैं । Jain Education Interational atemational For Private & Personal use only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 4 तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाओं में गुणस्थान की अवधारणा तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपजभाष्य में गुणस्थान सिद्धान्त के बीजरूप गुणश्रेणी की अवधारणा। तत्त्वार्थसूत्र की सर्वाथसिद्धि टीका में गुणस्थान। तत्त्वार्थसूत्र की राजवार्तिक टीका में गुणस्थान। तत्त्वार्थसूत्र की श्लोकवार्तिक टीका और गुणस्थान। सिद्धसेनगणि की तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति और गुणस्थान। आचार्य हरिभद्र की तत्त्वार्थभाष्यटीका और गुणस्थान। Cccccccccc ww.jainelibrary.org Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ هههههههههههههههههههههه अध्याय 4 तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाओं में गुणस्थान की अवधारणा - तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य में गुणस्थान सिद्धान्त के बीजरूप गुणश्रेणी की अवधारणा तत्त्वार्थसूत्र एक ऐसा ग्रन्थ है, जिसे जैन धर्म के सभी सम्प्रदायों में समान रूप से मान्यता प्राप्त है । जैन धर्म-दर्शन के सभी पक्षों को इस ग्रन्थ में समाहित करने का प्रयास किया गया है। इस आधार पर यह जैन धर्म दर्शन का प्रति जाता है, किन्तु यह एक आश्चर्य का ही विषय है कि इसमें गुणस्थान सिद्धान्त का कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता है। मात्र इसके नवें अध्याय में आध्यात्मिक विकास की जिन दस अवस्थाओं (गुणश्रेणियों) का चित्रण है, उनमें चौदह गुणस्थानों में से कुछ के पारिभाषिक नाम उपलब्ध होते हैं, जिनके सम्बन्ध में हम आगे विचार करेगें । तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता उमास्वाति माने जाते हैं, यद्यपि दिगम्बर परम्परा में उन्हें उमास्वामी के नाम से प्रस्तुत किया है । यद्यपि कुछ विद्वानों ने उमास्वाति और उमास्वामी को भिन्न-भिन्न व्यक्ति बताने का प्रयास किया है, किन्तु यह एक भ्रान्त अवधारणा ही है। इस सम्बन्ध में डॉ. सागरमल जैन ने अपने ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा में विस्तार से स्पष्टीकरण किया है। यहाँ हम इस चर्चा में न जाकर मात्र यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि तत्त्वार्थसूत्र और उसकी श्वेताम्बर और दिगम्बर टीकाओं में गुणस्थान सिद्धान्त का विवेचन किस रूप में उपलब्ध होता है । जैसा कि हमने पूर्व में संकेत दिया कि तत्त्वार्थसूत्र के मूल पाठ में गुणस्थान सिद्धान्त का कोई उल्लेख नहीं पाया जाता है । तत्त्वार्थसूत्र के वर्तमान में दो पाठ प्रचलित है - (१) भाष्यमान पाठ, जो श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित है और (२) सवार्थसिद्धि मान्य पाठ, जो दिगम्बर परम्परा में प्रचलित है, किन्तु दोनों ही पाठों में गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा का कहीं कोई उल्लेख नहीं है । मात्र नवें अध्याय में कर्मनिर्जरा की अपेक्षा से आध्यात्मिक विकास की जिन दस अवस्थाओं (गुणश्रेणियों) का चित्रण किया गया है२३७, उनमें पारिभाषिक दृष्टि से कुछ साम्य प्रतीत होता है । वे दस अवस्थाएँ निम्न हैं- (१) सम्यग्दृष्टि (२) श्रावक अर्थात् देशविरत (३) विरत (संयत) (४) अनन्तवियोजक (५) दर्शनमोह क्षपक (६) उपशमक (७) उपशान्त (८) क्षपक (E) क्षीणमोह और (१०) जिन । इन दस अवस्थाओं में पारिभाषिक दृष्टि से सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, उपशान्तमोह, क्षीणमोह और जिन (केवली) - ये ... २३७ तत्त्वार्थसूत्र ६/४७ Jain Education Intemational Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{198} छः अवस्थाएँ गुणस्थानों में भी यथावत् रूप से प्राप्त होती हैं। इसके अतिरिक्त अनन्तवियोजक और दर्शनमोह क्षपक - ये दो अवस्थाएं किसी रूप में प्रमत्तसंयत गुणस्थान के समकक्ष मानी जा सकती हैं, क्योंकि सातवें गुणस्थान में सम्यक्त्वमोह पूरी तरह से उपशान्त या क्षय हो जाता है । यद्यपि वर्तमान में चौथे गुणस्थान में भी क्षायिक सम्यक्त्व मानने की परम्परा है, किन्तु सम्यक्त्वमोह पूर्णतः तो सातवें गुणस्थान में ही उपशमित या क्षीण होता है । सातवें गुणस्थान तक उसका उदय या सत्ता बनी रहती है । उस अपेक्षा से इन दोनों अवस्थाओं को किसी सीमा तक अप्रमत्तसंयत गुणस्थान के रूप में माना जा सकता है । इसके आगे के कर्म में उपशमक, उपशान्तमोह, क्षपक और क्षीणमोह का क्रम है । गुणस्थान सिद्धान्त में चारित्रमोह की अपेक्षा से उपशान्तमोह और क्षीणमोह का उल्लेख मिलता है, लेकिन उपशमक और क्षपक के स्पष्ट उल्लेख नहीं है । अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण बादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय इन तीनों गुणस्थानों को किसी सीमा तक चारित्रमोह उपशमक अथवा क्षपक के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, किन्तु इसमें स्पष्ट रूप से समानता परिलक्षित नहीं होती। डॉ. सागरमल जैन ने माना है कि प्राचीन परम्परा में मिथ्यात्वमोह और चारित्रमोह दोनों में ही पहले उपशमक और उपशान्त तथा बाद में क्षपक और क्षीण अवस्थाओं की क्रमिक चर्चा होती थी। इसी क्रम से यह चर्चा यहाँ भी हुई है। इन आंशिक साम्य को छोड़कर गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी बाकी चर्चा मूल ग्रन्थ में और उसके स्वोपज्ञ भाष्य में प्रायः उपलब्ध नहीं है, किन्तु यह ध्यान देने योग्य है कि तत्त्वार्थभाष्य को छोड़कर तत्त्वार्थसूत्र की प्रायः सभी श्वेताम्बर और दिगम्बर टीकाओं में गुणस्थान सिद्धान्त का विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। त्रतत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थ सिद्धि टीका में गुणस्थान दिगम्बर परम्परा में सर्वप्रथम तत्त्वार्थसूत्र की सवार्थसिद्धि नामक टीका में एवं श्वेताम्बर परम्परा में तत्त्वार्थसूत्र की सिद्धसेनगणि की टीका में गुणस्थान सिद्धान्त का विस्तृत उल्लेख हुआ है । यद्यपि तत्त्वार्थ की टीकाओं में सर्वप्रथम उमास्वाति के स्वोपज्ञभाष्य का स्थान है, किन्तु उसमें गुणस्थान सिद्धान्त का कोई विवेचन उपलब्ध नहीं होता है । तत्त्वार्थसूत्र की उपलब्ध टीकाओं में गुणस्थान सिद्धान्त का सर्वप्रथम उल्लेख पूज्यपाद देवनंदी की सवार्थसिद्धि नामक टीका में उपलब्ध होता है । यह एक सुस्पष्ट तथ्य है कि तत्त्वार्थसूत्र समग्र जैन परम्परा का प्रतिनिधि ग्रन्थ है और दिगम्बर परम्परा में वर्तमान में उपलब्ध जो तत्त्वार्थसूत्र की टीकाएं हैं, उनमें पूज्यपाद देवनन्दी की सवार्थसिद्धि टीका प्राचीनतम है। यह भी एक निर्विवाद तथ्य है कि सवार्थसिद्धि टीका के कर्ता पूज्यपाद देवनन्दी दिगम्बर परम्परा से सम्बन्धित है । उनके नाम से यह भी स्पष्ट है कि उन्होनें मुनि दीक्षा ग्रहण की थी और यह भी सम्भव है कि उनका सम्बन्ध नन्दीसंघ से रहा हो । जहाँ तक पूज्यपाद देवनन्दी के काल का प्रश्न है, उनके काल के सम्बन्ध में मतैक्य नहीं है। यद्यपि उनके व्यक्तित्व और उनकी ज्ञानगरिमा को सभी लोग एक स्वर में स्वीकार करते हैं । परवर्ती जैनाचार्यों ने उनके पर्याप्त गुणगान किए है, यह बात उनकी महत्ता को स्पष्ट कर देती है । पूज्यपाद देवनन्दी ने सवार्थसिद्धि के अतिरिक्त समाधितन्त्र, इष्टोपदेश, दशभक्ति और जैनेन्द्र व्याकरण की रचना की थी। इससे उनकी बहुश्रुत प्रतिभा का बोध हो जाता है। यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि विक्रम संवत् ५२६ में उनके शिष्य वज्रनन्दी ने द्राविड़ संघ की स्थापना की थी। शिष्य एवं गुरु समकालीन भी हो सकते हैं । अतः यह सुनिश्चित तथ्य है कि पूज्यपाद देवनन्दी विक्रम की छठी शताब्दी के लगभग हुए हैं । उनके समय में गुणस्थान सिद्धान्त सुव्यवस्थित रूप में उपस्थित था, इसमें भी कोई सन्देह नहीं है। पूज्यपाद देवनन्दी के सन्दर्भ में इससे अधिक हमें अन्य कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। पूज्यपाद देवनन्दी की सवार्थसिद्धि टीका पर तत्त्वार्थभाष्य का प्रभाव है या नहीं इसे लेकर विद्वानों में मतभेद है। जहाँ एक ओर श्वेताम्बर विद्वान सवार्थसिद्धि टीका को तत्त्वार्थभाष्य से प्रभावित मानते हैं, वहीं दिगम्बर विद्वान यह दिखाने का प्रयत्न करते हैं कि तत्त्वार्थभाष्य Jain Education Intemational - Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... चतुर्थ अध्याय .........{199} पर पूज्यपाद देवनन्दी की सवार्थसिद्धि टीका का प्रभाव है। इस सन्दर्भ में यदि हम गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा के आधार पर विचार करें तो दोनों में इस तथ्य को लेकर स्पष्ट अन्तर है । हमारी जानकारी में तत्त्वार्थभाष्य में एक भी स्थान ऐसा नहीं है, जो गुणस्थान की अवधारणा का कोई भी संकेत देता हो, जबकि सवार्थसिद्धि टीका में अनेक स्थानों पर गुणस्थान की अवधारणा का स्पष्ट निर्देश उपलब्ध है । मात्र यहीं नहीं उसमें गुणस्थान, जीवस्थान और मार्गणास्थान के पारस्परिक सम्बन्धों की भी स्पष्ट चर्चा मिलती है । इस तथ्य के आधार पर डॉ. सागरमल जैन आदि कुछ विद्वानों ने सवार्थसिद्धि को तत्त्वार्थभाष्य से परवर्ती माना है । सभी श्वेताम्बर और दिगम्बर विद्वान पूज्यपाद देवनन्दी को छठीं शताब्दी का मानते हैं और यह भी स्वीकार करते हैं कि उनके समक्ष गुणस्थान सिद्धान्त की सुस्पष्ट विवेचना उपलब्ध थी। अग्रिम पृष्ठों में हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि पूज्यपाद देवनन्दी ने अपनी सवार्थसिद्धि टीका में किन-किन प्रसंगों में किस-किस रूप में गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा की चर्चा की है । सर्वप्रथम सवार्थसिद्धि में सत्संख्या आदि आठ अनुयोगद्वारों की चर्चा करते हुए गुणस्थान की अवधारणा का उल्लेख हुआ है । यह टीका न केवल चौदह गुणस्थानों का उल्लेख करती है, अपितु चौदह गुणस्थानों और चौदह मार्गणास्थानों के सहसम्बन्ध पर विस्तार से प्रकाश डालती है । सत्प्ररूपणा नामक प्रथम अनुयोगद्वार में चौदह गुणस्थानों और चौदह मार्गणाओं का सहसम्बन्ध बताया गया है। दूसरे संख्या प्ररूपणाद्वार में चौदह गुणस्थानों की अपेक्षा से जीवों की संख्या का निरूपण किया गया है । इसी प्रकार काल प्ररूपणाद्वार में भी गुणस्थानों की अपेक्षा जीवों के काल का वर्णन उपलब्ध होता है। इसी क्रम में अन्तर प्ररूपणा, भाव प्ररूपणा और अल्प - बहुत्व प्ररूपणा में भी चौदह गुणस्थानों की अपेक्षा से अन्तराल जीवों के अल्प- बहुत्व आदि की चर्चा उपलब्ध होती है । इसीप्रकार तत्त्वार्थसूत्र के नवें अध्याय की सवार्थसिद्धि टीका में भी किस गुणस्थान में किस निमित्त से कितनी कर्मप्रकृतियों का संवर होता है, इसकी चर्चा की गई है। इसीप्रकार बादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय, छद्मस्थवीतराग आदि अवस्थाओं में कितने परिषह होते हैं, इस चर्चा का सम्बन्ध भी गुणस्थान सिद्धान्त से जोड़ा जा सकता है। इसी प्रकार दसवें अध्याय में भी क्षीणकषाय आत्मा के ज्ञानावरणादि कर्मों का क्षय किस निमित्त से होता है, इसकी चर्चा है । इन सब आधारों से यह प्रतीत होता है कि तत्त्वार्थसूत्र की सवार्थसिद्धिटीका के कर्ता पूज्यपाद देवनन्दी के सामने गुणस्थान सिद्धान्त पर्याप्त विवक्षित रूप में उपलब्ध था । आगे हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि पूज्यपाद देवनन्दी की अपनी इस कृति में चौदह गुणस्थानों की चर्चा किस रूप में की गई है । तत्त्वार्थ सूत्र की सर्वार्थसिद्धिटीका में प्रथम अध्याय के आठ अनुयोगद्वारों से सम्बन्धित सूत्र के विवेचन के प्रसंग में चौदह गुणस्थानों का उल्लेख मिलता है । २३८ प्रथम "सत्” अनुयोगद्वार में जीव द्रव्य की अपेक्षा से गुणस्थानों का विवरण दिया गया है। उसमें निम्न चौदह गुणस्थान उल्लेखित हैं- मिध्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती उपशमक और क्षपक, अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थानवर्ती उपशमक और क्षपक, सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती उपशमक और क्षपक, उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली । इन चौदह गुणस्थानों के निरूपण के पश्चात् उसमें यह कहा गया है कि इन चौदह गुणस्थानों को समझने के लिए निम्न चौदह मार्गणास्थानों को जानना चाहिए- जैसे गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संज्ञा और आहारक । सर्वार्थसिद्धि टीका में चौदह गुणस्थानों के नामों की चर्चा में यह विशिष्टता देखने को मिलती है कि उसमें अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरणबादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय- इन तीनों गुणस्थानों में उपशमक और क्षपक-ऐसे दो-दो भेद किए गए हैं । २३८ तत्त्वार्थसूत्र, सवार्थसिद्धि (भारतीय ज्ञानपीठ देहली) पृ. २१ से ६७ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{200} आत्मिक विकास की यात्रा में उपशमक और क्षपक की यह चर्चा प्राचीन स्तरीय रही है। पूज्यपाद देवनन्दी द्वारा गुणस्थानों की इस चर्चा के प्रसंग में इनका स्पष्ट उल्लेख इस तथ्य को प्रकट करता है कि वे प्राचीन परम्परा का अनुसरण कर रहे हैं। तत्त्वार्थसूत्र के नवें अध्याय में आध्यात्मिक विकास की जिन दस अवस्थाओं की चर्चा उमास्वाति ने की है, उसमें अनन्तवियोजक, दर्शनमोहक्षपक (चारित्रमोह), उपशमक (चारित्रमोह), उपशान्त (चारित्रमोह), क्षपक और क्षीणमोह का उल्लेख हुआ है। इससे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि गुणस्थानों की यह अवधारणा आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाओं से किसी न किसी रूप में सम्बन्धित रही है । इस आधार पर डॉ सागरमलजैन ने जो यह परिकल्पना की है कि आचारांगनियुक्ति, तत्त्वार्थसूत्र तथा षट्खण्डागम के चतुर्थ कृतिअनुयोगद्वार में उल्लेखित आध्यात्मिक विकास की इन दस अवस्थाओं से ही चौदह गुणस्थानों की अवधारणा का विकास हुआ है, वह तार्किक दृष्टि से सबल प्रतीत होती है।३६ सर्वार्थसिद्धि टीका में पूज्यपाद देवनन्दी ने अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरणबादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय में उपशमक और क्षपक के जो भेद दिए हैं, वे ही आगे चलकर उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी के सूचक बन जाते हैं । इसी प्रसंग में सर्वार्थसिद्धिकार ने चौदह गुणस्थानों के साथ-साथ चौदह मार्गणाओं की जो चर्चा की है, वह इस तथ्य की सूचक है कि सर्वार्थसिद्धि के रचनाकाल तक मार्गणास्थान और गुणस्थान की चर्चा विकसित हो चुकी थी और उनके पारस्परिक सम्बन्ध को भी स्पष्टतया जान लिया गया था। अग्रिम पंक्तियों में हम चौदह मार्गणाओं और चौदह गुणस्थानों के पारस्परिक सम्बन्ध को पूज्यपाद देवनन्दी ने किस प्रकार स्पष्ट किया है, इसकी चर्चा करेंगे। प्रथम सत्-अनुयोगद्वार : सत्-प्ररूपणा दो प्रकार की है-एक सामान्य और दूसरी विशेष । जीव मिथ्यादृष्टि होता है या सम्यग्दृष्टि होता है, ऐसे कथन करना सामान्य प्ररूपणा है, किन्तु विशेष प्ररूपणा की दृष्टि से गतिमार्गणा में किस गति में कौन-से गुणस्थान होते है, इसकी चर्चा की जाती है । जैसे नरकगति में सातों पृथ्वियों में प्रथम चार गुणस्थान पाए जाते हैं, तिर्यंचगति में प्रथम पाँच गुणस्थान पाए जाते हैं, मनुष्य गति में चौदह गुणस्थान हो सकते हैं, किन्तु देवगति में नारकी के समान ही प्रथम से लेकर चतुर्थ तक चार गुणस्थान ही पाए जाते हैं। इन्द्रियमार्गणा में एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों में पहला मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है, किन्तु पंचेन्द्रिय जीवों में चौदह गुणस्थान पाए जाते हैं। कायमार्गणा में पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय तक के जीवों में एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है, जबकि त्रसकाय में चौदह गुणस्थान पाए जाते हैं। __ योगमार्गणा के अनुसार मन-वचन और काय, इन तीनों योगों में प्रथम से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक तेरह गुणस्थान होते हैं। चौदहवाँ गुणस्थान अयोगी केवली गुणस्थान होने से उसमें योग सम्भव नहीं है । वेदमार्गणा में पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद, इन तीनों वेदों में पहले गुणस्थान से लेकर नवें गुणस्थान तक नौ गुणस्थान पाए जाते हैं। आगे के गुणस्थानों में वेद (कामवासना) का अभाव होता है । मात्र लिंग रहता है। अपगतवेदी अर्थात् वे जीव जिनकी कामवासना समाप्त हो चुकी है, नवें से चौदहवें तक छः गुणस्थानों में पाए जाते हैं। कषायमार्गणा में क्रोध, मान और माया इन-तीन कषायों में मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिबादरसंपराय तक नौ गुणस्थान पाए जाते हैं । लोभकषाय में मिथ्यादृष्टि से सूक्ष्मसंपराय तक दस गुणस्थान पाए जाते हैं। ग्यारहवें से लेकर चौदहवें-इन चार गुणस्थानों तक जीव अकषायी होते हैं, गुणस्थानों में कषायों की सत्ता नहीं है। २३६ गुणस्थानसिद्धान्तः एक विश्लेषण - पृ. २८ Jain Education Intemational Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... चतुर्थ अध्याय ........{201} ज्ञानमार्गणा में मति- अज्ञान, श्रुत- अज्ञान और विभंगज्ञान में पहला और दूसरा ऐसे दो गुणस्थान हो सकते हैं । मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान में चौथे से लेकर बारहवें तक नौ गुणस्थान पाए जाते हैं । मनः पर्यवज्ञान में प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान तक सात गुणस्थान पाए जाते हैं । केवलज्ञान में सयोगी केवली और अयोगी केवली - ये दो गुणस्थान पाए जाते हैं । सामान्यतया संयममार्गणा में छठे से चौदहवें तक नौ गुणस्थान पाए जाते हैं । विशेष रूप से सामायिक और छेदोपस्थापनीय चारित्रवाले संयमी मुनियों में प्रमत्तसंयत से लेकर अनिवृत्तिबादरसंपराय तक चार गुणस्थान पाए जाते हैं । परिहारविशुद्धि चारित्रवाले संयमी मुनियों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत- ये दो गुणस्थान पाए जाते हैं । सूक्ष्मसम्परायचारित्र में सूक्ष्मसम्पराय नामक गुणस्थान होता है । यथाख्यात चारित्रवाले संयमी मुनियों में उपशान्तकषाय गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली तक चार गुणस्थान पाए जाते हैं । संयतासंयत जीवों में संयतासंयत नामक पांचवाँ गुणस्थान पाया जाता है और असंयमी जीवों में प्रारम्भ के चार गुणस्थान पाए जाते हैं । दर्शनमार्गणा में चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन से युक्त जीवों में मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय तक बारह गुणस्थान पाए जाते हैं । अवधिदर्शन में असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषाय तक नौ गुणस्थान पाए जाते हैं । केवलदर्शन में सयोगी केवली और अयोगी केवली ये दो गुणस्थान पाए जाते हैं । लेश्यामार्गणा में कृष्ण, नील और कापोत लेश्या में मिथ्यादृष्टि से असंयतसम्यग्दृष्टि तक चार गुणस्थान पाए जाते हैं । पीतलेश्या और पद्मलेश्या में मिथ्यादृष्टि से सयोगी केवली तक तेरह गुणस्थान पाए जाते हैं। चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीव अशी अर्थात् लेश्या रहित होते है । - भव्यमार्गणा में भव्य जीवों में प्रथम से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक चौदह गुणस्थान पाए जाते हैं। अभव्य जीवों में मात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही पाया जाता है । सम्यक्त्वमार्गणा में क्षायिक सम्यक्त्व में असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगी केवली तक ग्यारह गुणस्थान पाए जाते हैं । क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में असंयतसम्यग्दृष्टि से अप्रमत्तसंयत तक चार गुणस्थान पाए जाते हैं । औपशमिक सम्यक्त्व में असंयतसम्यग्दृष्टि से उपशान्तकषाय तक आठ गुणस्थान पाए जाते हैं । मिध्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि में अपने-अपने नाम के अनुरूप गुणस्थान होते हैं । संज्ञीमार्गणा में संज्ञी जीवों में प्रथम से बारहवें तक बारह गुणस्थान पाए जाते हैं । असंज्ञी जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान पाया जाता है । सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव संज्ञी या असंज्ञी की कोटि में नहीं आते हैं । आहारमार्गणा में आहारक जीवों में मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगीकेवली तक तेरह गुणस्थान होते हैं। विग्रहगतिवाले अनाहारक जीवों में मिध्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि- ये तीनों गुणस्थान पाए जाते हैं । समुद्घात करनेवाले सयोगीकेवली और अयोगीकेवली जीव अनाहारक ही होते हैं । सिद्ध जीव तो गुणस्थान से परे हैं, यद्यपि वे भी अनाहारक ही हैं। द्वितीय संख्या-अनुयोगद्वार : तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धिटीका में आठ अनुयोगद्वारों को लेकर चौदह गुणस्थानों की जो चर्चा की है, उसमें द्वितीय अनुयोगद्वार संख्या है । इसमें प्रत्येक गुणस्थान में जीवों की संख्या का परिमाण निर्देशित किया गया है । संख्या की प्ररूपणा दो प्रकार से की है - सामान्य और विशेष । सामान्य की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.. चतुर्थ अध्याय.......{202} असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत - इनमें से प्रत्येक गुणस्थानवाले जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । प्रमत्तसंयत जीवों की संख्या सहस्त्रकोटि पृथक्त्व है । अप्रमत्तसंयत जीव संख्यात हैं । चारों उपशमक गुणस्थानवाले जीव प्रवेश की अपेक्षा से प्रतिसमय एक, दो या तीन होते हैं, उत्कृष्ट रूप से चौवन हो सकते हैं । अपने काल के द्वारा संचित अर्थात् उस समय विशेष में उस अवस्था में रहे हुए जीव संख्यात हैं। चारों क्षपक और अयोगी केवली प्रवेश की अपेक्षा से एक, दो या तीन होते हैं, उत्कृष्ट रूप से एक सौ आठ होते हैं और अपने काल के द्वारा संचित हुए अर्थात् समकालिक जीव संख्यात हैं । सयोगीकेवली जीव प्रवेश की अपेक्षा एक समय में एक, दो या तीन ही होते हैं, उत्कृष्ट रूप से एक सौ आठ होते हैं तथा अपने काल के द्वारा संचित हुए समकालिक जीव पृथक्त्व हैं । विशेष की अपेक्षा गतिमार्गणा में नरकगति में पहली पृथ्वी में मिथ्यादृष्टि नारकी असंख्यात जगश्रेणी२४० परिमाण हैं, वे जगश्रेणियाँ जगप्रतर" के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । दूसरी पृथ्वी से लेकर सातवीं पृथ्वी तक प्रत्येक पृथ्वी में मिथ्यादष्टि नारकी जगश्रेणी के असंख्यातवें२४२ भाग परिमाण हैं । जगश्रेणी का असंख्यातवाँ भाग असंख्यात कोडाकोड़ीयोजन परिमाण हैं। प्रथम से लेकर सातवीं नरक पृथ्वी तक में सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । तिर्यंचगति में मिथ्यादृष्टि तिर्यच अनन्तानन्त हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर संयतासंयत तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती तिर्यच पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । मनुष्यगति में मिथ्यादृष्टि मनुष्य जगश्रेणी के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । जगश्रेणी का असंख्यातवाँ भाग असंख्यात कोड़ाकोड़ी योजन परिमाण हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर संयतासंयत तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीव संख्यात है । प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानवर्ती मनुष्यों की संख्या सहस्त्रकोटि पृथक्त्व है । देवगति में मिथ्यादृष्टि देव असंख्यात जगश्रेणी परिमाण हैं । जगश्रेणियाँ जगप्रतर के असंख्यातवें भाग परिमाण होती है। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि - इनमें से प्रत्येक गुणस्थानवर्ती देव पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं। इन्द्रियमार्गणा में एकेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त हैं, विकलेन्द्रिय जीव असंख्यात जगश्रेणी परिमाण हैं, जगश्रेणियाँ जगप्रतर के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं। पंचेन्द्रियों में मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यात जगश्रेणी परिमाण हैं । जगश्रेणियाँ जगप्रतर के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । सासादन सम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगी केवली तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती पंचेन्द्रियों की संख्या वही है, जो पूर्व में गतिमार्गणा में सामान्य रूप से बताई गई है। कायमार्गणा में मिथ्यात्व गुणस्थान में पृथ्वीकाय अप्काय, अग्निकाय और वायुकाय के जीवों की संख्या असंख्यात लोक परिमाण हैं । वनस्पतिकाय के जीव अनन्तानन्त हैं और त्रसकाय के जीवों की संख्या पंचेन्द्रियों के समान ही है । यद्यपि पंचेन्द्रिय जीव त्रसकाय जीवों की अपेक्षा कम है, फिर भी दोनों ही असंख्यात कहे गए हैं। अतः इस अपेक्षा से दोनों समान हैं । योगमार्गणा में मनोयोगी और वचनयोगी मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यात जगश्रेणी परिमाण हैं, जगश्रेणियाँ जगप्रतर के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । काययोगियों में मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त हैं । तीनों योगवाले में सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवाले जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । प्रमत्तसंयत से लेकर सयोगी केवली २४० सात रज्जु लम्बी और एक प्रदेश परिमाण चौड़ी आकाश प्रदेश की पंक्ति को जगश्रेणी कहते हैं । ऐसी जगप्रतर के असंख्यातवें भाग परिमाण जगश्रेणी में जितने प्रदेश होते हैं, उतने प्रथम नारक के मिथ्यादृष्टि नारकी हैं । २४१ जगश्रेणी के वर्ग को जगप्रतर कहते हैं । २४२ जगश्रेणी में ऐसे असंख्यात का भाग दो कि जिससे असंख्यात योजन कोटाकोटि परिमाण आकाश प्रदेश प्राप्त हो, इतनी दूसरे आदि प्रत्येक नरक के नारकियों की संख्या है । वह उत्तरोत्तर हीन है । Jain Education Intemational Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.... चतुर्थ अध्याय........{203} गुणस्थान तक के तीनों योगवाले जीव प्रत्येक गुणस्थान में संख्यात हैं । अयोगी केवली की संख्या वही है, जो पूर्व में संख्या अनुयोगद्वार में कही गई है। वेदमार्गणा में स्त्रीवेद और पुरुषवेदवाले जीव असंख्यात जगश्रेणी परिमाण हैं । जगश्रेणियाँ जगप्रतर के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । नपुंसकवेदवाले मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर संयतासंयत तक स्त्रीवेदवाले और नपुंसकवेदवाले जीवों की संख्या वही है, जो पूर्व में संख्या अनुयोगद्वार में कही गई है। प्रमत्तसंयत से लेकर अनिवृत्तिबादरसंपराय तक स्त्रीवेद और नपुंसकवेदवाले जीव संख्यात हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर अनिवृत्तिबादरसंपराय तक पुरुषवेदवाले जीवों की संख्या वही है, जो पूर्व में संख्या अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से कही गई है । अपगतवेदवाले अनिवृत्तिबादरसंपराय से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान वाले जीवों की संख्या पूर्ववत् संख्या अनुयोगद्वार के आधार से समझना चाहिए। कषायमार्गणा में क्रोध, मान और माया कषाय में मिथ्यावृष्टि से लेकर संयतासंयत तक प्रत्येक गणस्थानवाले जीव संख्या उतनी होती है, जो संख्या अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से उल्लेखित है । प्रमत्तसंयत से लेकर अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान तक क्रोध, मान और माया कषायवाले जीव संख्यात हैं । यही संख्या लोभ कषायवाले जीवों की भी समझना चाहिए । इतना विशेष है कि सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थान में मात्र लोभ कषाय रहती है। इनकी संख्या सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती जीवों के तुल्य ही होती है । उपशान्तमोह से लेकर अयोगी केवली गुणस्थान तक कषाय रहित जीवों की संख्या संख्यात है । इनका विशेष विवरण तो संख्या अनुयोगद्वार के समान समझना चाहिए। __ज्ञानमार्गणा में मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों की संख्या अनन्तानन्त है । विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यात जगश्रेणी परिमाण है। जगश्रेणियाँ जगप्रतर के असंख्यातवें भाग परिमाण होती है । सासादनसम्यग्दृष्टि विभंगज्ञानी जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी जीवों की संख्या उतनी ही होती है, जितनी संख्या अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से निर्दिष्ट की गई है । असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत अवधिज्ञानी जीवों की संख्या पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण है । प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में अवधिज्ञानी जीव संख्यात होते हैं। प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में मनः पर्यवज्ञानी जीव भी संख्यात हैं । सयोगी केवली और अयोगी केवली की संख्या भी संख्यात है। यहाँ संख्यात शब्द का प्रयोग सामान्य रूप से हुआ है । संख्या की अपेक्षा उनमें कम अधिकता होती है । संयममार्गणा में प्रमत्तसंयत से लेकर अनिवृत्तिबादरसंपराय तक सामायिक संयत और छेदोस्थापनीय संयत जीवों की संख्या संख्यात हैं । प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थान में परिहारविशुद्धि संयत जीव भी संख्यात है। सूक्ष्मसंपराय संयत और यथाख्यात संयत जीव भी संख्यात हैं, किन्तु संयतासंयत जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण होते हैं । असंयत जीव तो अनन्तानन्त हैं। दर्शनमार्गणा में चक्षुदर्शनवाले मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यात जगश्रेणी परिमाण हैं, जगश्रेणियाँ जगप्रतर के असंख्यातवें भाग परिमाण होती हैं । अचक्षुदर्शनवाले मिथ्यादृष्टि जीव अनन्तानन्त है। सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषाय तक चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शनवाले जीवों की संख्या अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से कथित संख्या के समान ही होती है। अवधि दर्शन वाले जीवों की संख्या अवधि ज्ञानियों के समान पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । केवल दर्शन वाले जीवों की संख्या केवलज्ञानियों के समान है। लेश्यामार्गणा में मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवों की संख्या मिथ्यात्व गुणस्थान में अनन्तानन्त है । सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक के गुणस्थानों में पल्योपम के असंख्यातवें Jain Education Intemational Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय.......{204} भाग परिमाण हैं । मिथ्यादृष्टि से लेकर संयतासंयत तक पीत (तेजो) और पद्मलेश्यावाले जीवों की संख्या असंख्यात जगश्रेणी परिमाण है । प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवाले पीत (तेजो लेश्या) और पद्मलेश्यावाले जीव संख्यात हैं । मिथ्यादृष्टि से लेकर संयतासंयत तक शुक्ल लेश्यावाले जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं । यहाँ शुक्ल लेश्या से द्रव्य शुक्ल लेश्या को ग्रहण न कर भाव शुक्ल लेश्या ग्रहण करना चाहिए। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव संख्यात हैं । अपूर्वकरण से लेकर सयोगी केवली गुणस्थान तक शुक्ललेशी जीवों की संख्या अनुयोगद्वार में इन गुणस्थानों में उल्लेखित संख्या के समरूप होती है । लेश्यारहित जीवों की संख्या अयोगी केवली गुणस्थानवी जीवों के समान ही समझना चाहिए। . भव्यमार्गणा में भव्यों में मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोगी केवली तक सभी गुणस्थान पाए जाते हैं। प्रत्येक गुणस्थान में भव्य जीवों की संख्या अनुयोगद्वार के अनुसार समरूप से समझना चाहिए। अभव्य जीवों में मात्र प्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही होता है । इनकी संख्या अनन्त है। सम्यक्त्वमार्गणा में क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण है, संयतासंयत से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थान तक जीवों की संख्या संख्यात है । चारों क्षपक, सयोगी केवली और अयोगी केवली जीवों की संख्या भी संख्या अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से कथित संख्या के समान ही होती है । क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के जीवों की संख्या भी संख्या अनुयोगद्वार में उल्लेखित सामान्य संख्या के समान ही समझना चाहिए। औपशमिक सम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत जीव पल्योपम के असंख्यातवें । भाग परिमाण हैं । प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव संख्यात हैं। अपूर्वकरण से उपशान्तमोह गुणस्थान तक उपशमक जीवों - की संख्या भी संख्या अनुयोगद्वार के समान ही जानना चाहिए। सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों की संख्या अनुयोगद्वार के समान ही जानना चाहिए । संज्ञामार्गणा में संज्ञी में मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक के जीवों की संख्या अंसख्यात जगश्रेणी परिमाण हैं। असंज्ञी मिथ्यादृष्टि अनन्तानन्त हैं । संज्ञी, असंज्ञी और संज्ञा से रहित जीवों की संख्या अनुयोगद्वार में उल्लेखित है । उसी के आधार पर यहाँ समझना चाहिए। आहारमार्गणा में आहारकों में मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगी केवली गुणस्थान तक जीवों की संख्या संख्याअनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जिस प्रकार निर्दिष्ट है, उसी के अनुसार जानना चाहिए । अनाहारकों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती, सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों की संख्या भी संख्या अनुयोगद्वार में जिस प्रकार दर्शित है, वैसी ही समझना चाहिए । सयोगी केवली गुणस्थानवी जीव संख्यात हैं। अयोगी केवली गुणस्थानवी जीवों की संख्या, संख्या अनुयोगद्वार में जैसा दर्शाया गया है, उसी के समरूप जानना चाहिए । तृतीय क्षेत्रप्ररूपणा अनुयोगद्वार :- .. तत्त्वार्थसूत्र की सवार्थसिद्धि टीका में जिन आठ अनुयोगद्वारों में चौदह गुणस्थानों की प्ररूपणा की है, उन अनुयोगद्वारों में तृतीय द्वार क्षेत्रप्ररूपणा है। क्षेत्र यानी जीव को निवास करने का स्थान। इस अनयोगद्वार में, किस गणस्थानवर्ती जीव लोक के किस क्षेत्र में या उसके किस हिस्से में निवास करते हैं, इस बात को स्पष्ट किया गया है । क्षेत्र प्ररूपणा दो प्रकार से की गई है-सामान्य और विशेष। सामान्य की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है । सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगी केवली गुणस्थान तक के जीवों का क्षेत्र लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण हैं। सामान्यतया तो सयोगी केवली जीवों का क्षेत्र लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण है, किन्तु केवली समुद्घात की अपेक्षा लोक का असंख्यातवें भाग एवं सम्पूर्ण लोक Jain Education Intemational Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ चतुर्थ अध्याय ........{205} दोनों ही है, क्योंकि दण्ड- कपाट आदि कि स्थिति में तो लोक का असंख्यातवाँ बहुभाग परिमाण क्षेत्र होता है, किन्तु मथनी या पूरण समुद्घात की अपेक्षा सम्पूर्ण लोक होता है । विशेष की अपेक्षा से गतिमार्गणा में नरकगति में सातों पृथ्वियों में नारकी जीवों के चार गुणस्थान होते हैं । उनका क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग परिमाण होता है । तिर्यंचगति में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है, किन्तु सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर संयतासंयत तक प्रत्येक गुणस्थानवाले तिर्यंचों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग परिमाण है । मनुष्यगति में मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोगीकेवली तक प्रत्येक गुणस्थानवाले मनुष्यों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग परिमाण है । सयोगकेवली का क्षेत्र भी लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण है, किन्तु समुद्घात की अपेक्षा से लोक का असंख्यातवाँ भाग, लोक का सख्यातवाँ बहुभाग परिमाण और सम्पूर्ण लोक होता है । देवगति में देवों में चार गुणस्थान पाए जाते हैं, उनका क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग परिमाण हैं । इन्द्रियमाणा में एकेन्द्रिय जीवों का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है । विकलेन्द्रियों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग परिमाण हैं और पंचेन्द्रियों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग परिमाण हैं। ज्ञातव्य है कि पंचेन्द्रिय के अतिरिक्त एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव नियम से मिथ्यादृष्टि होते हैं । कायमार्गणा में पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय तक के मिध्यादृष्टि जीवों का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है । त्रसकाय का क्षेत्र लोक का अंसख्यातवाँ भाग परिमाण हैं । त्रसकाय के अतिरिक्त सभी कार्यों के जीव मिथ्यादृष्टि होते हैं । योगमार्गणा में मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगी केवली तक प्रत्येक गुणस्थानवाले मनोयोगी और वचनयोगी जीवों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग परिमाण है । मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगीकेवली तक प्रत्येक गुणस्थानवाले काययोगी और अयोगीकेवली जीवों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग परिमाण है । 1 वेदमार्गणा में मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिबादर गुणस्थानवर्ती प्रत्येक गुणस्थान वाले स्त्रीवेदी और पुरुषवेदी जीवों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग है । इसी प्रकार सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर अनिवृत्तिबादर तक प्रत्येक गुणस्थानवाले नपुंसकवेदी जीवों और अपगतवेदवाले जीवों का क्षेत्र सयोगी केवली असंख्यातवाँ भाग है, किन्तु नपुंसकवेदी एकेन्द्रिय जीवों का और अपगतवेदी केवली समुद्घात करनेवाले सयोगीकेवली का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है । कषायमार्गणा में मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिबादर तक प्रत्येक गुणस्थानवाले क्रोध, मान, माया व लोभकषायवाले, सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के लोभ कषायवाले और कषाय रहित जीवों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग है । ज्ञानमार्गणा में मति-अज्ञानी और श्रुत- अज्ञानी जीवों और विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टि का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है, किन्तु सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग है । असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येक गुणस्थानवाले आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों का तथा प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येक गुणस्थानवाले मनः पर्यवज्ञानी जीवों का तथा सयोगी और अयोगी गुणस्थानवाले केवलज्ञानी जीवों के लोक का क्षेत्र सामान्यतया लोक का असंख्यातवाँ भाग होता है, किन्तु केवली समुद्घात की अपेक्षा से लोक का असंख्यातवाँ भाग, लोक का बहुभाग परिमाण और सम्पूर्ण लोक भी होता है । संयममार्गणा में प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिबादरसंपराय आदि चार गुणस्थानवाले सामायिक और छेदोपस्थापनीय चारित्रवाले जीवों का तथा प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानवाले परिहारविशुद्धि संयत जीवों का, सूक्ष्मसंपराय संयत जीवों का, उपशान्तमोह आदि चार गुणस्थानवाले यथाख्यातसंयत जीवों का और संयतासंयत तथा चार गुणस्थानवाले असंयत जीवों का क्षेत्र उतना है, जितना अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से कहा गया है । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{206} दर्शनमार्गणा में मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येक गुणस्थानवाले चक्षुदर्शनवाले जीवों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग है । मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येक गुणस्थानवाले अचक्षुदर्शनवाले जीवों का क्षेत्र सामान्यतया सम्पूर्ण लोक है। अवधिदर्शन वालों का क्षेत्र केवलज्ञानियों के समान अर्थात् लोक का असंख्यातवाँ भाग, लोक का बहुभाग परिमाण और सम्पूर्ण लोक है। लेश्यामार्गणा में मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक प्रत्येक गुणस्थानवाले कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावाले जीवों का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है । मिथ्यादृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत प्रत्येक गुणस्थानवाले पीत और पद्मलेश्यावाले जीवों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग है । मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येक गुणस्थानवाले शुक्ललेश्यावाले जीवों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग है। शुक्ललेश्यावाले सयोगी केवली तथा लेश्यारहित अयोगी केवली जीवों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग, लोक का बहुभाग परिमाण तथा सम्पूर्ण लोक है । भव्यमार्गणा में चौदह गुणस्थानवाले भव्य जीवों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग है। अभव्य जीवों का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है। सम्यक्त्वमार्गणा में असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगीकेवली तक प्रत्येक गुणस्थानवाले क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों का, असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येक गुणस्थानवाले क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि जीवों का असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर उपशान्तकषाय गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवाले औपशमिक सम्यग्दृष्टि जीवों का तथा सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीवों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग, लोक के असंख्यातवें भाग का बहुभाग और सम्पूर्ण लोक है । संज्ञीमार्गणा में संज्ञी जीवों का क्षेत्र चक्षुदर्शनवाले जीवों के क्षेत्र के समान लोक का असंख्यातवाँ भाग मानना चाहिए। असंज्ञी जीवों का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है । संज्ञी और असंज्ञी -इस संज्ञा से रहित जीवों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग होता है। आहारमार्गणा में मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येक गुणस्थानवाले आहारकों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग है। आहारक सयोगीकेवली का क्षेत्र भी लोक का असंख्यातवाँ भाग है । मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और अयोगी केवली अनाहारक जीवों का क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है। सयोगी केवली अनाहारक जीवों का क्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग, लोक का बहुभाग और सम्पूर्ण लोक है। चतुर्थ स्पर्श-अनुयोगद्वार : तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में पूज्यपाद देवनन्दी ने आठ अनुयोगद्वारों के माध्यम से चौदह मार्गणास्थानों के आधार पर चौदह गुणस्थानों का विवेचन किया गया है । स्पर्श नामक चतुर्थ अनुयोगद्वार में यह बताया गया है कि चौदह रज्जु परिमाण लोक में रहे हुए चौदह गुणस्थानवी जीव लोक के कितने भाग का स्पर्श करते हैं। स्पर्शद्वार की प्ररूपणा दो प्रकार से की गई है। एक सामान्य की अपेक्षा से और दूसरी विशेष की अपेक्षा से । सामान्य की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि जीव सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि जीव लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का और त्रसनाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम आठ२४३ भाग का अथवा कुछ कम बारह२४४ भाग क्षेत्र का स्पर्श करते है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि व असंयतसम्यग्दृष्टि गणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग का और त्रसनाड़ी के चौदह २४३ मेरूपर्वत के मूल से नीचे कुछ कम दो रज्जु और ऊपर छः रज्जु । यह स्पर्श विहार वत्स्वस्थान वेदना, कषाय और वैक्रियक समुद्घात की अपेक्षा प्राप्त होता है। २४४ मेरुपर्वत के मूल से नीचे कुछ कम पाँच रज्जु और ऊपर सात रज्जु । यह स्पर्श मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा प्राप्त होता है। Jain Education Intemational Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{207} भागों में से कुछ कम आठ२४५ भाग का स्पर्श करते हैं। संयतासंयत गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग का और त्रसनाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम छ:२४६ भाग का स्पर्श करते हैं तथा प्रमत्तसंयतों से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक के जीव लोक के असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं। विशेष की अपेक्षा गतिमार्गणा में नरकगति में पहली पृथ्वी में मिथ्यादृष्टि आदि चार गुणस्थानवाले नारक लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का स्पर्श करते हैं। दूसरी से लेकर छठी पृथ्वी तक के मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि नारकी लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का और क्रमशः लोकनाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम एक रज्जु, कुछ कम दो रज्जु, कुछ कम तीन रज्जु, कुछ कम चार रज्जु और कुछ कम पाँच रज्जु क्षेत्र का स्पर्श करते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि नारकी जीव लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का स्पर्श करते हैं । सातवीं पृथ्वी में मिथ्यादृष्टि नारकी लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का और त्रसनाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम छः रज्जु क्षेत्र का स्पर्श करते हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि आदि शेष तीन गुणस्थानवर्ती नारकी लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का स्पर्श कर सकते हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यंच लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का और लोकनाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम सात४७ भाग स्पर्श करते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि तिर्यंच लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का स्पर्श करते हैं । असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत तिर्यंच लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का और त्रसनाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम छ:२४८ भाग क्षेत्र का स्पर्श करते हैं । मनुष्यगति में मिथ्यादृष्टि मनुष्य लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का और सम्पूर्ण लोक२४६ का स्पर्श कर सकते हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती मनुष्य लोक के असंख्यातवें भाग और लोकनाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम सात५० भाग क्षेत्र का स्पर्श कर सकते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोगी केवली गुणस्थान तक के मनुष्य लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का स्पर्श कर सकते हैं । देवगति में मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि देव लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का और त्रसनाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम आठ२५१ भाग और कुछ कम नौ भाग क्षेत्र स्पर्श करते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देव लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का और लोकनाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम आठ२५२ भाग क्षेत्र का स्पर्श करते हैं । इन्द्रियमार्गणा में मिथ्यादृष्टि एकेन्द्रिय जीव सम्पूर्ण लोक का स्पर्श कर रहे हुए हैं । विकलेन्द्रिय लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का और सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं । पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का और लोकनाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम आठ२५३ भाग क्षेत्र का और सम्पूर्ण२५४ लोक का स्पर्श कर सकते हैं । शेष गुणस्थानवाले २४५ मेरुपर्वत के मूल से नीचे कुछ कम दो रज्जु और ऊपर छः रज्जु यह स्पर्श विहारवत्स्थान वेदना, कषाय और वैक्रियक समुद्घात की अपेक्षा प्राप्त होता है। असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों के मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा भी यह स्पर्श बन जाता है। २४६ ऊपर अच्युत कल्प तक छः रज्जु । इसमें से चित्रा पृथ्वी का एक हजार योजन व आरण अच्युत कल्प के उपरिम विमानों के उपर का भाग छोड़ देना चाहिए। यह स्पर्श मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा प्राप्त होता है । २४७ मेरुपर्वत के मूल से ऊपर सात रज्जु । यह स्पर्श मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा है । यद्यपि तिर्यंच सासादन सम्यग्दृष्टि जीव मेरुपर्वत के मूल से नीचे भवनवासियों में मारणान्तिक समुद्घात करते हुए पाए जाते हैं, तथापि इतने मात्र से स्पर्श क्षेत्र रज्जु से अधिक न होकर कम ही रहता है। २४८ ऊपर अच्युत कल्प तक छः रज्जु । इसमें से चित्रा पृथ्वी का एक हजार योजन व आरण अच्युत कल्प के उपरिम विमानों के उपर का भाग छोड़ देना चाहिए। यह स्पर्श मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा है। २४६ मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद पद की अपेक्षा यह स्पर्श सर्वलोक परिमाण कहा है। २५० भवनवासी लोक के ऊपर लोकाग्र तक इसमें से अगम्य प्रदेश छूट जाने से कुछ कम सात रज्जु स्पर्श रह जाता है। यह स्पर्श मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा प्राप्त होता है । २५१ मेरुपर्वत तल से नीचे कुछ कम दो रज्जु और ऊपर छः रज्जु । यह स्पर्श क्षेत्र विहार, स्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियक पद की अपेक्षा प्राप्त होता २५२ मेरुतल से नीचे कुछ कम दो रज्जु और ऊपर सात रज्जु । यह स्पर्श मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा प्राप्त होता है। २५३ विकलेन्द्रिय का मारणान्तिक समुद्घात और उपपादपद की अपेक्षा यह स्पर्श सर्वलोक परिमाण कहा है। २५४ सम्पूर्ण लोक स्पर्श मारणान्तिक और उपपाद की अपेक्षा प्राप्त होता है । Jain Education Intemational Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... चतुर्थ अध्याय........{208) पंचेन्द्रिय जीव लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का स्पर्श करके रहे हुए हैं। कायमार्गणा में स्थावरकायिक जीव सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए हैं और त्रसकायिक लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का स्पर्श करके रहे हुए हैं । योगमार्गणा में मिथ्यादृष्टि वचनयोगी और मनोयोगी जीव लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का और लोकनाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम आठ५५ भाग क्षेत्र का और सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थानवाले जीवों का स्पर्शक्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग हैं । सयोगीकेवली जीवों का स्पर्शक्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग है।२५५ऐसे जीव मेरुपर्वत के मूल से नीचे एकेन्द्रियों में या नारकीयों में मारणान्तिक समुद्घात नहीं करते यह उक्त कथन का तात्पर्य है । मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के काययोगवाले और अयोगीकेवली जीवों का स्पर्शक्षेत्र सामान्य की अपेक्षा से जैसा कहा वैसा ही है, अर्थात् लोक का असंख्यातवाँ भाग है।। वेदमार्गणा में मिथ्यादृष्टि स्त्रीवेदवाले और पुरुषवेदवाले जीव लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का तथा लोकनाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम आठ२५७ रज्जु क्षेत्र का और सम्पूर्ण लोक परिमाण क्षेत्र का स्पर्श करते हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि लोक के असंख्यातवें क्षेत्र का तथा लोकनाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग का और कुछ कम नौ५६ भाग क्षेत्र का स्पर्श करते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिबादर गुणस्थान तक के जीव लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का स्पर्श कर सकते हैं । नपुंसकवेदवालों में मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों का स्पर्शक्षेत्र सामान्य६० की अपेक्षा से कहे गए के अनुसार हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का और लोकनाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम छ:२६० भाग क्षेत्र का स्पर्श करते हैं तथा प्रमत्तसंयत से लेकर अनिवृत्तिबादर गुणस्थान तक के जीव लोक के असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते कषायमार्गणा की अपेक्षा से क्रोधादि चारों कषायवाले जीवों और कषाय रहित जीवों का स्पर्शक्षेत्र स्पर्श अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से उल्लेखित क्षेत्र के समान ही है। ज्ञानमार्गणा में मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों का स्पर्शक्षेत्र स्पर्श अनुयोगद्वार में जो सामान्य रूप से कहा गया है, वही है । विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टियों का स्पर्शक्षेत्र सामान्यतया लोक का असंख्यातवाँ भाग तथा गमनागमन आदि की अपेक्षा से त्रसनाड़ी का कुछ कम आठ भाग२६२ और मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा सम्पूर्ण लोक२६३ है। २५५ मेरुतल से नीचे कुछ कम दो रज्जु और ऊपर छः रज्जु । यह स्पर्श विहार, स्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियक पद की अपेक्षा प्राप्त होता है। २५६ समुद्घात के काल में मनोयोग और वचनयोग नहीं होता है, इससे वचनयोगी और मनोयोगी सयोगी केवली का स्पर्श लोक के असंख्यातवें भाग परिमाण बताया है। २५७ मेरुतल से नीचे कुछ कम दो रज्जु और ऊपर छः रज्जु । यह स्पर्श विहार वत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियक समुद्घात की अपेक्षा प्राप्त होता है। सम्पूर्ण लोक स्पर्श मारणान्तिक और उपपाद पद की अपेक्षा प्राप्त होता है । २५८ मेरुतल से नीचे कुछ कम दो रज्जु और ऊपर छः रज्जु । यह स्पर्श विहार वत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियक समुद्घात की अपेक्षा प्राप्त होता २५६ मेरुपर्वत तल से नीचे कुछ कम दो रज्जु और ऊपर सात रज्जु । यह स्पर्श मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा प्राप्त होता है । २६० यहाँ नपुंसकवेदवाले मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीव का स्पर्श सामान्य कथन के समान है, अर्थात् यह सामान्य निर्देश है। विशेष की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि नपुंसकवेदवाले वैक्रियक समुद्घात की अपेक्षा पाँच धन रज्जु क्षेत्र का स्पर्श कर सकते हैं, क्योंकि वायुकायिक जीव इतने क्षेत्र में विक्रिया करते हुए पाए जाते हैं । नपुंसकवेदवाले सासादनसम्यग्दृष्टि स्वस्थवान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियक समुद्घात की अपेक्षा लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का स्पर्श करके रह सकते हैं। उपपाद की कुछ कम ग्यारह बटे चौदह भाग (११/१४) त्रसनाड़ी का स्पर्श करते हैं। मारणान्तिक पद की अपेक्षा कुछ कम बारह बटे चौदह भाग (१२/१४) त्रसनाड़ी का स्पर्श करते हैं । शेष कथन सामान्य कथन के समान हैं। २६१ यह स्पर्श मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा है । २६२ यह स्पर्श विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियक समुद्घात की अपेक्षा प्राप्त होता है, क्योंकि मध्यलोक से नीचे दो रज्जु और ऊपर छः रज्जु क्षेत्र में गमनागमन देखा जाता हैं । २६३ यह स्पर्शक्षेत्र मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा प्राप्त होता है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि विभंगज्ञानी जीव सम्पूर्ण लोक में मारणान्तिक समुद्घात कर सकते Jain Education Intemational Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय.......{209} सासादनसम्यग्दृष्टियों का स्पर्शक्षेत्र सामान्यतया लोक का असंख्यातवाँ भाग और विहार आदि की अपेक्षा त्रसनाड़ी के चौदह आठ भाग और मारणान्तिक समदघातकी अपेक्षा कुछ कम बारह भाग स्पर्शक्षेत्र होता है। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी जीवों का स्पर्शक्षेत्र स्पर्श-अनयोगद्वार में जो सामान्य रूप से कहा गया है, उतना ही होता है। संयममार्गणा में सभी संयतों का, संयतासंयतों का और असंयतों का स्पर्शक्षेत्र स्पर्श-अनुयोगद्वार के सामान्य कथन के समरूप है। दर्शनमार्गणा में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों, क्षीणकषाय तक के चक्षुदर्शनवाले जीवों का स्पर्शक्षेत्र पंचेन्द्रियों के समान है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक के अचक्षुदर्शनवाले जीवों का तथा अवधिदर्शन और केवलदर्शनवाले जीवों का स्पर्शक्षेत्र स्पर्श-अनुयोगद्वार में सामान्य से जो कहा गया है, उसके अनुसार ही होता है । लेश्यामार्गणा में कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीव का स्पर्शक्षेत्र सम्पूर्ण लोक है। सासादन गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का और लोकनाड़ी के चौदह भागों में से क्रमशः कुछ कम पाँच६४ भाग, कुछ कम चार भाग और कुछ कम दो भाग क्षेत्र का स्पर्श करते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श करते हैं। पीतलेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीव सामान्यतः लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का और गमनागमन आदि की अपेक्षा लोकनाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग६५ का और मारणान्तिक • समुद्घात की अपेक्षा कुछ कम नौ भाग६६ क्षेत्र का स्पर्श करते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव सामान्यतः लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का, गमनागमन आदि की अपेक्षा लोकनाड़ी के चौदह भागों में कुछ कम आठ२६७ भाग क्षेत्र का स्पर्श करते हैं । संयतासंयत जीव लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का और लोकनाड़ी के चौदह भागों में कुछ कम डेढ़ भाग६८ क्षेत्र का स्पर्श करते हैं। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का स्पर्श करते हैं । मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के पद्मलेश्यावाले जीव लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का और लोकनाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग६६ क्षेत्रका स्पर्श करते हैं। संयतासंयत लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का और लोकनाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम पाँच भाग२७० क्षेत्र का स्पर्श करते हैं । प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का स्पर्श करते हैं । मिथ्यादृष्टि से लेकर संयतासंयत तक के गुणस्थानवर्ती २६४ यह स्पर्श मारणान्तिक और उपपाद की अपेक्षा बतलाया है। कृष्ण लेश्यावाले के कुछ कम पाँच रज्जु, नील लेश्यावाले के कुछ कम चार रज्जु और कापोत लेश्यावाले के कुछ कम दो रज्जु क्षेत्र का स्पर्श करते हैं । जो नारकी सासादनसम्यग्दृष्टि तिर्यंच में उत्पन्न होते है, उन्हीं की अपेक्षा यह स्पर्श सम्भव है। २६५ यह स्पर्श क्षेत्र विहार, वेदना, कषाय और वैक्रियक समुद्घात की अपेक्षा कहा जाता है, क्योंकि पीतलेश्यावाले सासादनसम्यग्दृष्टि जीव का नीचे कुछ कम दो रज्जु और ऊपर छः रज्जु क्षेत्र में गमनागमन हो सकता है। २६६ यह स्पर्श क्षेत्र मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा कहा गया है, क्योंकि ऐसे जीव तीसरी पृथ्वी से ऊपर कुछ कम नौ रज्जु क्षेत्र में मारणान्तिक समुद्घात करते हुए पाए जाते हैं । उपपाद पद की अपेक्षा इनका स्पर्शक्षेत्र कुछ कम डेढ़ रज्जु होता है, इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए। २६७ यह स्पर्शक्षेत्र विहार, वेदना, कषाय, वैक्रियक और मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा प्राप्त होता है। इतनी विशेषता है कि मिश्र गुणस्थान में मारणान्तिक समुद्घात नहीं होता है। २६८ यह स्पर्शक्षेत्र मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा कहा गया है। इनके उपपाद पद नहीं होता है। २६६ यह स्पर्शक्षेत्र विहार, वेदना, कषाय, वैक्रियक और मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा प्राप्त होता है । इनका स्पर्शक्षेत्र उपपाद पद की अपेक्षा कुछ कम पाँच रज्जु होता है । इतनी विशेषता है कि मिश्र गुणस्थान में मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद पद (पुनर्जन्म का स्थान) नहीं होता है । २७० यह स्पर्श मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा होता है, क्योंकि पेलेश्यावाले संयतासंयत उपर कुछ कम पाँच रज्जु क्षेत्र मेंमारणान्तिक समुद्घात कर सकते हैं। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{210) जीव शुक्ल लेश्यावाले लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का और लोकनाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम छ:२७१ भाग क्षेत्र का स्पर्श करते हैं। प्रमत्तसंयत आदि से सयोगीकेवली गुणस्थान तक के शुक्ललेश्यावाले जीवों का और लेश्यारहित जीवों का स्पर्शक्षेत्र सामान्यतया स्पर्श-अनुयोगद्वार के अनुसार जानना चाहिए। भव्यमार्गणा में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगी केवली गुणस्थान तक के भव्य जीवों का स्पर्शक्षेत्र स्पर्श-अनुयोगद्वार के अनुसार जानना चाहिए। अभव्य का स्पर्शक्षेत्र सम्पूर्ण लोक है। सम्यक्त्वमार्गणा में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगी केवली गुणस्थान तक के क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवों का स्पर्शक्षेत्र स्पर्श-अनुयोगद्वार में जो सामान्य रूप से कथन किया गया है, वही है, किन्तु संयतासंयतों का स्पर्शक्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग है । क्षायोपशामिक सम्यग्दृष्टि का स्पर्शक्षेत्र स्पर्श-अनुयोगद्वार में जो सामान्य रूप से कहा गया है, उसके अनुसार है, शेष औपशमिक सम्यग्दृष्टियों का स्पर्शक्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग है । सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि का स्पर्शक्षेत्र स्पर्श-अनुयोगद्वार में जो सामान्य रूप से बताया गया है, उसके अनुरूप ही है। संज्ञीमार्गणा में संज्ञी जीवों का स्पर्शक्षेत्र चक्षुदर्शनवाले जीवों के समान होता है । असंज्ञी जीवों का स्पर्शक्षेत्र सम्पूर्ण लोक है । संज्ञा से रहित जीवों का स्पर्शक्षेत्र स्पर्श-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो कथन किया गया है, उसी अनुसार मानना चाहिए। आहारमार्गणा में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक के आहारक जीवों का स्पर्शक्षेत्र स्पर्श अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से बताया गया है, वही समझना चाहिए। सयोगी केवली गुणस्थानवी जीव का स्पर्शक्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग है। अनाहारकों में मिथ्यादृष्टि जीव सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का और लोकनाड़ी के चौदह भागों में से कुछ कम ग्यारह भाग२७२ क्षेत्र का स्पर्श करते हैं । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का स्पर्शक्षेत्र लोक का असंख्यातवाँ भाग और लोकनाड़ी के चौदह भागों में कुछ कम छः भाग२७३ है । सयोगी केवली गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग का और केवली समुद्घात की अपेक्षा से लोक के बहुभाग का और सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं । अयोगी केवली गुणस्थानवर्ती जीव लोक के असंख्यातवें भाग क्षेत्र का स्पर्श करते हैं। पंचम काल अनुयोगद्वार : तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में पूज्यपाद देवनन्दी ने आठ अनुयोगद्वारों और चौदह मार्गणाओं के सन्दर्भ में चौदह गुणस्थानों का विवरण प्रस्तुत किया है । काल नामक पंचम द्वार में सर्व जीवों की अपेक्षा और एक जीव की अपेक्षा से गुणस्थानों गया है । यह काल की प्ररूपणा भी दो प्रकार से की गई है, एक सामान्य की अपेक्षा से और दूसरी विशेष की अपेक्षा से। सामान्य की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव सभी कालों में पाए जाते हैं । एक जीव की अपेक्षा से तीन विकल्प हैं -अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि सान्त । इनमें से सादि-सान्त मिथ्यादृष्टि जीवों का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल कुछ कम अर्ध पुद्गल परावर्तन है । अभव्य मिथ्यादृष्टि जीव का काल अनादि-अनन्त है । भव्य मिथ्यादृष्टि, जो भविष्य में सम्यक्त्व प्राप्त २७१ विहार वेदना, कषाय, वैक्रियक और मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा यह स्पर्शक्षेत्र होता है। सो भी मिथ्यादृष्टि आदि चार गुणस्थानों की अपेक्षा कथन किया गया है। संयतासंयत शुक्ल लेश्यावालों को तो विहार वेदना, कषाय, वैक्रियक समुद्घात की अपेक्षा लोक का असंख्यातवाँ भाग परिमाण ही स्पर्शक्षेत्र होता है । उपपाद की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि शुक्ललेश्यावालों का स्पर्श लोक के असंख्यातवाँ भाग परिमाण है । अविरतसम्यग्दृष्टि शुक्ल लेश्यावालों का स्पर्श कुछ कम छः रज्जु है। संयतासंयतों के उपपाद नही होता। फिर भी उनके मारणान्तिक समुद्घात की अपेक्षा कुछ कम छः रज्जु बन जाता है। २७२ मेरुतल से नीचे कुछ कम पांच रज्जु और ऊपर छः रज्जु । यह स्पर्श उपपाद पद की अपेक्षा प्राप्त होता है । २७३ अच्युतकल्प तक ऊपर कुछ कम रज्जु । तिर्यंच असंयतसम्यग्दृष्टि जीव मरकर अच्युत कल्प तक उत्पन्न होते है। इसीलिए उपपाद पद की अपेक्षा यह स्पर्श बन जाता है। Jain Education Intemational Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{211} करेगा, उसका काल अनादि-सान्त है । वमित सम्यक्त्व मिथ्यादृष्टि का काल सादि और सान्त है । सासादनसम्यग्दृष्टि का नाना जीवों की अपेक्षा से जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण है, किन्तु एक जीव की अपेक्षा से जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल छः आवलिका है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि का नाना जीवों की अपेक्षा से जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है, किन्तु एक जीव की अपेक्षा से जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । असंयतसम्यग्दृष्टि का काल नाना जीवों की अपेक्षा से सम्पूर्ण काल है, किन्तु एक जीव की अपेक्षा से जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेंतीस२७४ सागरोपम है । संयतासंयत गुणस्थान का सभी जीवों की अपेक्षा से सर्व काल है, ये सभी कालों में पाए जाते हैं, किन्तु एक जीव की अपेक्षा से जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल कुछ कम एक पूर्व कोटि२७५ है । प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत का काल सभी जीवों की अपेक्षा से सर्वकाल है और एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल एक समय२७६ और उत्कष्टकाल अन्तर्महर्त है। चारों उपशमकों का सभी जीवों की अपेक्षा से और एक जीव की अपेक्षा से जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । चारों क्षपक और अयोगी केवली गुणस्थान का सभी जीवों की अपेक्षा से और एक जीव की अपेक्षा से जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त ही है । सयोगीकेवली गुणस्थान का काल सभी जीवों की अपेक्षा से सर्वकाल है, किन्तु एक जीव की अपेक्षा से जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल कुछ कम एक पूर्व को विशेष अपेक्षा से गतिमार्गणा में नरकगति में सातों पृथ्वियों में मिथ्यादृष्टि जीव सर्वकाल पाए जाते हैं । एक जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल क्रमशः एक, तीन, सात, दस, सत्रह, बाईस और तेंतीस सागरोपम है । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का काल, काल-अनुयोगद्वार में जो सामान्य रूप से बताया गया है, उसके अनुसार ही जानना चाहिए । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव सातों नरकों में सब कालों में पाए जाते हैं। एक जीव विशेष की अपेक्षा से इनका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है, और उत्कृष्ट काल कुछ कम, प्रत्येक नरक की अपनी-अपनी उत्कृष्टकाल स्थिति के समान ही होता है। तिर्यंचगति में सामान्यतः मिथ्यादृष्टि तिर्यंच जीव सर्व काल में पाए जाते हैं । किन्तु तिर्यंचगति में एक जीव की अपेक्षा से विचार करें तो मिथ्यात्व गुणस्थान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल अनन्तकाल है, जो असंख्यात७६ पुद्गल परावर्तन परिमाण है । सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानवर्ती तिर्यंच जीवों का काल सामान्य अपेक्षा से काल अनुयोगद्वार में जो कथन किया है, उसके अनुसार होता है, किन्तु एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल इन तीनों गुणस्थानों में अन्तर्मुहूर्त है। संयतासंयत गुणस्थानवर्ती तिर्यंच का उत्कृष्ट काल तीन पल्योपम है । सामान्यतः असंयतसम्यग्दृष्टि तिर्यंच जीव सभी कालों में होते हैं, किन्तु एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल तीन पल्योपम है । मनुष्यगति में मिथ्यादृष्टि मनुष्य सामान्यतः सभी कालों में पाए जाते है । मनुष्यगति में एक जीव की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का २७४ उपशमश्रेणीवाला जीव मर कर एक समय कम तेंतीस सागरोपम की आयु लेकर अनुत्तर विमान में पैदा होता है । फिर पूर्व कोटि आयुवाले मनुष्यों में पैदा होकर जीवनभर असंयम के साथ रहा है और मात्र जीवन का अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर संयम को प्राप्त होकर सिद्ध होता है । ऐसा संयत सम्यग्दृष्टि ही उत्ष्ट काल को प्राप्त होता है । यह काल अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि अधिक और एक समय कम तेंतीस सागरोपम है। २७५ पूर्व कोटि आयुवाला जो समूर्छिम तिर्यंच उत्पन्न होने के अन्तर्मुहूर्त बाद वेदक सम्यक्त्व के साथ संयमासंयम को प्राप्त करता है । इस अपेक्षा से संयमासंयम यह उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि है । २७६ जघन्यकाल एक समय मरण की अपेक्षा बतलाया है। २७७ जंघन्यकाल एक समय मरण की अपेक्षा बतलाया है। २७८ अन्तर्मुहूर्त कम इसीलिए कहा गया है कि प्रारम्भ के छः नरकों में जीव मिथ्यात्व के साथ ही उत्पन्न होते हैं, फिर अन्तर्मुहूर्त बाद सम्यक्त्व को प्राप्त जीवनभर सम्यक्त्व के साथ रहकर उत्कृष्ट काल प्राप्त करते हैं । यहाँ ज्ञातव्य है कि नरक में प्रवेश और निर्गम-दोनों ही मिथ्यात्व गुणस्थान के साथ ही होता है। २७६ यहाँ असंख्यात से आवलिका का असंख्यातवाँ भाग लिया गया है। Jain Education Intemational Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... चतुर्थ अध्याय........{212} जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल पूर्व कोटि२८० पृथक्त्व से कुछ अधिक तीन पल्योपम होता है । सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी मनुष्यों का सामान्य अपेक्षा से जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल छः आवलिका है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर में सभी जीवों की अपेक्षा और एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी मनुष्य सामान्यतः सभी कालों में होते हैं । एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल साधिक' तीन पल्योपम है। संयतासंयत आदि शेष गुणस्थानों का काल, काल-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से बताए अनुसार समझना चाहिए । देवगति में मिथ्यादृष्टि देव सामान्यतया सर्व कालों में होते हैं । एक देव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल इकतीस सागरोपम है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि का काल, काल-अनुयोगद्वार में जो सामान्य रूप से कथन किया है, वही मानना चाहिए। असंयतसम्यग्दृष्टि देव सामान्यतः सभी काल में होते हैं । देवनिकाय में एक जीव की अपेक्षा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल तेंतीस सागरोपम है। ___ काल-अनुयोगद्वार में इन्द्रियमार्गणा की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती एकेन्द्रिय जीव सामान्यतया सभी काल में पाए जाते हैं । एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल एक क्षुद्रभवग्रहण परिमाण है और उत्कृष्टकाल अनन्त है, जिसका परिमाण असंख्यात पुद्गल परावर्तन है । मिथ्यादृष्टि विकलेन्द्रिय जीव सामान्यतया सभी कालों में पाए जाते हैं । विकलेन्द्रिय एक जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का जघन्यकाल क्षुद्रभवग्रहण परिमाण है और उत्कृष्टकाल'८२ संख्यात हजार वर्ष है। पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव सामान्यतः सभी काल में होते हैं । पंचेन्द्रिय एक जीव विशेष की अपेक्षा से मिथ्यात्व गुणस्थान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल पूर्व कोटि पृथक्त्व से अधिक हजार सागरोपम है । पंचेन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में शेष गुणस्थानों का काल, काल-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा कहा है, वैसा मानना चाहिए। कायमार्गणा में पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुकाय का सभी जीवों की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का काल सम्पूर्ण काल है। .. एक जीव की अपेक्षा से जघन्यकाल क्षुद्रभवग्रहण परिमाण और उत्कृष्टकाल संख्यात लोक परिमाण है। वनस्पतिकायिक जीवों में एकेन्द्रिय के समान ही समझना चाहिए । त्रसकायिक मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव सामान्यतः सभी कालों में पाए जाते हैं । एक जीव की अपेक्षा से जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल पूर्व कोटि पृथक्त्व अधिक दो हजार सागरोपम है। शेष गुणस्थानों का काल पंचेन्द्रियों के समान मानना चाहिए। योगमार्गणा में सभी जीवों की अपेक्षा से सामान्यतः वचनयोगी और मनोयोगी मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, अप्रमत्तसंयत और सयोगी केवली गुणस्थानवी जीव सभी कालों में होते है । इन गुणस्थानों में एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल एक२८३ समय है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । चूंकि मनोयोग का उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं होता है, अतः मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का काल यहाँ उसी अपेक्षा से कहा गया है। सासादनसम्यग्दृष्टि का काल, काल-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो कथन किया है, वही मानना चाहिए। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का सभी जीवों की अपेक्षा जघन्यकाल एकर४ समय और २८० यहाँ पूर्व कोटि पृथक्त्व से सैंतालीस पूर्व कोटियाँ ग्रहण किया है । यद्यपि पृथक्त्व यह तीन से ऊपर और नौ से नीचे की संख्या का द्योतक है, तथापि यहाँ बाहुलय की अपेक्षा पृथक्त्व पद से सैंतालीस ग्रहण किया है। २८१ यहाँ साधिक पद से पूर्व कोटि का त्रिभाग लिया गया है । एक पूर्व कोटि के आयुवाले जिस मनुष्य ने त्रिभाग में मनुष्यायु का बन्ध किया, फिर अन्तर्मुहूर्त में सम्यक्त्व पूर्वक्षायिक सम्यग्दर्शन को प्राप्त किया और आयु के अन्त में मर कर तीन पल्य की आयु के साथ उत्तम भोग भूमि में पैदा हुआ उसके चौथा गुणस्थान का उत्कृष्टकाल प्राप्त होता है। २८२ लगातार दो इन्द्रिय, तेइन्द्रिय या चौरिन्द्रिय होने का उत्कृष्टकाल संख्यात हजार वर्ष है । इसलिए इनका उत्कृष्टकाल उक्त परिमाण कहा है। जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अनन्त है । जिसका परिमाण असंख्यात पुद्गल परावर्तन है। २८३ मनोयोग, वचनयोग और काययोग का जघन्यकाल एक समय योगपरावृत्ति, गुणपरावृत्ति, मरण और व्याघात इस चार के आधार पर से बन जाता है। इनमें से मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और प्रमत्तसंयत में चारों प्रकार सम्भव है । अप्रमत्तसंयत के व्याघात बिना तीन प्रकार सम्भव है, क्योंकि व्याघात और अप्रमत्त भाव का परस्पर में विरोध है और सयोगी केवली के एक योग परावृत्ति से जघन्यकाल एक समय प्राप्त होना सम्भव है। २८४ मरण के बिना शेष तीन प्रकार से जहाँ जघन्यकाल एक समय घटित कर लेना चाहिए। Jain Education Intemational Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... चतुर्थ अध्याय........{213} उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। चारों उपशमक और चारों क्षपक गुणस्थान का सभी जीवों की अपेक्षा जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती काययोगी का काल सर्व जीवों की अपेक्षा सर्व काल है । एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अनन्त काल है । जिसका परिमाण असंख्यात पुद्गल-परावर्तन है । शेष गुणस्थानों का काल मनोयोग के समान है तथा अयोगीकेवली गुणस्थान का काल, काल-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो कथन किया गया है, उसके समरूप है। वेदमार्गणा में स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टि जीव सामान्यतः सर्व कालों में होते हैं । एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल सौ पल्योपम पृथक्त्व है। स्त्रीवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर अनिवृत्तिबादरगुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान का काल, काल-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो बताया है, उसी के अनुसार समझना चाहिए। स्त्रीवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि जीव सभी कालों में होते हैं । स्त्रीवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल कुछ कम पचपन पल्योपम२८६ है । पुरुषवेदी मिथ्यादृष्टि जीव सामान्यतः सभी कालों में होते हैं । एक जीव की अपेक्षा इसका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल सौ सागरोपम२८ पृथक्त्व है । पुरुषवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर अनिवृत्तिबादर तक प्रत्येक गुणस्थान का काल, काल-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो कहा गया है, वही समझना चाहिए । नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव सामान्यतः सभी कालों में पाए जाते हैं, किन्तु एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल अनन्त है, जिसका परिमाण असंख्यात पदगल परावर्तन परिमाण है। सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर अनिवृत्तिबादर तक प्रत्येक गुणस्थान का काल, काल-अनुयोगद्वार में जो सामान्य रूप से कहा गया है, उतना ही मानना चाहिए, किन्तु असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती नपुंसकजीव सामान्यतः सभी कालों में होते हैं । एक जीव की अपेक्षा इनका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल कुछ कम तेंतीस सागरोपम८६ है । वेद रहित जीवों का काल, काल-अनुयोगद्वार में जो कथन किया गया है, उसके अनुसार समझना चाहिए। कषायमार्गणा में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक चारों कषाय का काल इन गुणस्थानों में रहे हुए मनोयोगी के समान है तथा दोनों उपशमक, दोनों क्षपक केवल लोभवाले (सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवाले) और कषाय रहित जीवों का काल, काल-अनुयोगद्वार में जो सामान्य रूप से कहा गया है, उसके अनुसार है। ज्ञानमार्गणा में मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी में मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि का काल, काल-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो कहा है, वही समझना चाहिए । विभंगज्ञानी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती का काल सभी जीवों की अपेक्षा सम्पूर्ण काल है । एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल कुछ कम तेंतीस६० सागरोपम है। सासादनसम्यग्दृष्टि का काल, काल-अनुयोगद्वार में जो कथन किया गया है, वैसा समझना चाहिए । आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी का काल, काल-अनुयोगद्वार में जो कहा है, उसके समरूप है। संयममार्गणा में सामायिक संयत, छेदोपस्थापनीय संयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसंपराय संयत, यथाख्यात संयत, संयतासंयत और चारों असंयतों का काल, काल-अनुयोगद्वार के समरूप ही जानना चाहिए। दर्शनमार्गणा में चक्षदर्शनवाले मिथ्यादृष्टि सामान्यतः सभी कालों में होते हैं, किन्तु एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल २८५ उपशमकों के व्याघात बिना तीन प्रकार से और क्षपकों के मरण और व्याघात के बिना दो प्रकार से जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है। .२८६ देवी की उत्कृष्ट आयु पचपन पल्योपम है । इसमें से प्रारम्भ का अन्तर्मुहूर्त काल कम कर देने पर स्त्रीवेद में असंयतसम्यग्दृष्टि का काल कुछ कम पचपन पल्योपम प्राप्त हुआ है। २८७ तीन सौ सागरोपम से उपर और नौ सो सागरोपम के नीचे । २८८ यह सादि-सान्त काल का निर्देश है। २८६ सातवीं नरक में असंयतसम्यग्दृष्टि का जो उत्कृष्टकाल है, वही यहाँ नपुंसकवेद में असंयतसम्यग्दृष्टि का उत्कृष्टकाल कहा गया है। २६० मिथ्यादृष्टि नारकी या देव को उत्पन्न होने के बाद पर्याप्त होने पर विभंगज्ञान प्राप्त होता है । इसी से यहाँ एक जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि के विभंगज्ञान का उत्कृष्टकाल कुछ कम तेंतीस सागरोपम कहा है। Jain Education Intemational Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{214} अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल दो हजार सागरोपम है । सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान का काल, काल-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा कहा गया है, उसके अनुरूप ही समझना चाहिए । अचक्षुदर्शनवालों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय तक प्रत्येक गुणस्थान का काल, काल-अनुयोगद्वार में जैसा बताया गया है, वैसा मानना चाहिए । अवधिदर्शन और केवलदर्शनवाले जीवों का काल अवधिज्ञानी और केवलज्ञानी जीवों के काल के समान ही जानना चाहिए। लेश्यामार्गणा में कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले मिथ्यादृष्टि जीव नाना जीवों की अपेक्षा सभी कालों में होते हैं । एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है व उत्कृष्टकाल क्रमशः साधिक तेंतीस सागरोपम , साधिक सत्रह सागरोपम और साधिक सात सागरोपम२६१ है । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि का काल, काल-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो कहा गया है, उसके अनुसार समझना चाहिए । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव, तीनों अशुभ लेश्यावाले जीव सभी कालों में होते है। एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल क्रमशः कुछ कम तेंतीस सागरोपम, कुछ कम सत्रह सागरोपम और कुछ कम सात सागरोपम है। पीत और पद्मलेश्यावालों में मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का काल सभी जीवों की अपेक्षा सर्वकाल है । एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल क्रमशः साधिक दो२६२ सागरोपम और साधिक अठारह'६३ सागरोपम है।२६४ सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि का काल, काल-अनुयोगद्वार में जो कहा गया है, वही समझना चाहिए । संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती पीत (तेजो) और पद्मलेश्यावाले जीव सभी काल में होते हैं । ये तीनों गुणस्थान तिर्यंच और मनुष्यगति में ही सम्भव है। आगम में देव और नारकों की लेश्या तो द्रव्यरूप से कथित है, जबकि मनुष्य एवं तिथंच में भाव रूप से कथित है । भाव लेश्या बदलती रहती है । इस अपेक्षा से संयतासंयत की लेश्या का उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । शुक्ललेश्यावालों में मिथ्यादृष्टि सभी जीवों की अपेक्षा सम्पूर्ण काल है । एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल साधिक इकतीस सागरोपम है । सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगी केवली तक प्रत्येक गुणस्थान का और लेश्या रहित जीवों का काल, काल अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो निर्देशित किया गया है, वह मानना चाहिए, किन्तु संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती का काल सभी जीवों की अपेक्षा सर्वकाल है । एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। शुक्ललेश्यावाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती सामान्यतः सर्व कालों में होते हैं । एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल साधिक इकतीस सागरोपम है। सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर सयोगी केवली तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती शुक्ल का और लेश्यारहित जीवों का काल, काल अनुयोगद्वार के समरूप है, किन्तु संयतासंयत गुणस्थानवी जीव सामान्यतः सर्व काल में होते हैं । एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। में भव्य मार्गणा में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा तो सर्वकाल है, अर्थात् वे सभी कालों में पाए जाते हैं । एक जीव की अपेक्षा दो विकल्प हैं- अनादि सान्त और सादि सान्त । इनमें से सादि सान्त विकल्प की अपेक्षा जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल कुछ कम अर्ध-पुद्गल-परावर्तन हैं। सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगी केवली तक प्रत्येक गुणस्थान का काल, काल अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो कथन किया गया है, उसके समरूप ही है । मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती अभव्यों का काल अनादि-अनन्त है। २६१ जो जिस लेश्या से नरक में उत्पन्न होता है, उसके मरते समय अन्तर्मुहूर्त पहले वही लेश्या आ जाती है । इसीप्रकार नरक से निकलने पर भी अन्तर्मुहूर्त तक वही लेश्या रहती है । इसलिए यहाँ मिथ्यादृष्टि की कृष्ण, नील और कापोत लेश्या का काल क्रम से साधिक तेंतीस सागरोपम, साधिक सत्रह सागरोपम और साधिक सात सागरोपम बतलाया है । २६२ मिथ्यादृष्टि के पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग अधिक दो सागरोपम या अन्तर्मुहूर्त कम ढाई सागरोपम और सम्यग्दृष्टि के अन्तर्मुहूर्त कम ढाई सागरोपम। २६३ मिथ्यादृष्टि के पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग अधिक अठारह सागरोपम और सम्यग्दृष्टि के अन्तर्मुहूर्त कम साढ़े अठारह सागरोपम। २६४ लेश्या परावृत्ति और गुण परावृत्ति से जघन्यकाल एक समय प्राप्त हो जाता है। Jain Education Interational Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ चतुर्थ अध्याय ........(215} 1 काल अनुयोगद्वार में सम्यक्त्व मार्गणा की अपेक्षा से क्षायिक सम्यग्दृष्टि में असंयत सम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगी केवली तक प्रत्येक गुणस्थान का काल, काल- अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो निर्देशित किया गया है, वही जानना चाहिए । इसी तरह चारों क्षायोपशमिक, सम्यग्दृष्टियों का काल भी काल- अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा बताया गया है, वैसा ही जानना चाहिए। औपशमिक सम्यग्दृष्टि जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा से जघन्यकाल अन्तर्मुहू और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त ही है । प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और चारों उपशमकों का काल सभी जीव और एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । सम्यक्त्व मार्गणा में सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव का काल, काल- अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा बताया गया है, उसके अनुसार ही जानना चाहिए । संज्ञीमार्गणा में संज्ञी जीवों की अपेक्षा मिध्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिबादर गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान तक का काल पुरुषवेदवाले के समान ही होता है । शेष गुणस्थानों का काल, काल- अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो बताया गया है, वैसा ही समझना चाहिए । सभी असंज्ञी मिध्यादृष्टि होते हैं । इन सभी जीवों की अपेक्षा सर्वकाल है, क्योंकि ये सर्वकालों में होते है । एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल क्षुद्रभवग्रहण परिमाण और भव्य - अभव्य की अपेक्षा अनन्त काल है और उत्कृष्ट अनन्तकाल है, जिसका परिमाण असंख्यात पुद्गल परावर्तन है । संज्ञा से रहित सयोगी और अयोगी केवली गुणस्थानवर्ती जीवों का काल, काल- अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा कथन किया है, वैसा ही समझना चाहिए । आहार मार्गणा में आहारकों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा से सर्वकाल है । एक जीव की अपेक्षा से जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल अंगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण है, जिसका परिमाण असंख्यात संख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पणी है। शेष गुणस्थानों का काल, काल - अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो बताया गया है, उसके अनुसार मानना चाहिए । अनाहारकों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव सभी कालों में पाए जाते हैं, अतः उनका काल सर्वकाल है । मिथ्यादृष्टि एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल तीन समय है । सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल आवलिका का असंख्यातवाँ भाग परिमाण एक जीव की अपेक्षा जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल तीन समय है । सयोगी केवली गुणस्थानवर्ती अनाहारक सभी जीवों की अपेक्षा जघन्यकाल तीन समय और उत्कृष्टकाल असंख्यात समय है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्टकाल तीन समय है । अयोगी केवली का काल, काल- अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो निर्देशित किया है, उसे ही समझना चाहिए । षष्ठ अन्तर- अनुयोगद्वार : तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में आठ अनुयोगद्वारों के आधार पर चौदह मार्गणाओं के सन्दर्भ में चौदह गुणस्थानों का विवेचन किया गया है। संसार के सभी जीवों को एक अवस्था को छोड़कर पुनः उसी अवस्था को प्राप्त करने में जो समय लगता है, उन विविध अन्तरालों की प्ररूपणा जिसमें की गई है, उसे अन्तरद्वार कहते हैं । जब जीव को विवक्षित गुण या पर्याय गुणान्तर या पर्यायान्तर रूप से संक्रमित होकर पुनः उसी गुण या पर्याय की प्राप्ति होती है, तो उनके मध्य में जो काल होता है, उसको अन्तराल या अन्तरकाल कहते हैं । वह सामान्य और विशेष इन दो अपेक्षाओं से जाना जाता है । सामान्यतः मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा से कोई अन्तरकाल नहीं होता है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तराल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तराल कुछ कम दो २६५ छासठ अर्थात् एक सौ बत्तीस सागरोपम का होता है । सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी २६५ यदि दर्शन मोहनीय का क्षपणाकाल सम्मिलित न किया जाय तो वेदक सम्यक्त्व का उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कम छासठ सागरोपम प्राप्त होता है । साथ ही यह भी नियम है कि ऐसा जीव मध्य में अन्तर्मुहूर्त के लिए मिश्र गुणस्थान में जाकर पुनः अन्तर्मुहूर्त कम छासठ सागरोपम तक वेदक सम्यक्त्व के साथ रह सकता है । इसके बाद वह या तो मिथ्यात्व में चला जाता है या दर्शन मोहनीय की क्षपणा करने लगता है । यहाँ मिथ्यात्व का उत्कृष्ट अन्तर जानना है, इसलिए मिथ्यादृष्टि का अन्तर कुछ कम एक सौ बत्तीस सागरोपम प्राप्त हो जाता है । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय......{216} जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तराल एक समय का और उत्कृष्ट अन्तराल पल्योपम२६७ का असंख्यातवाँ भाग है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय का और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्ध-पुद्गल-परावर्तन है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल सासादनसम्यग्दृष्टियों के समान ही होता है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्ध पुद्गल परावर्तन है। असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में रहे हुए सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नही होता है, किन्तु एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्ध पुद्गल परावर्तन है । चारों उपशमकों में सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व है । इससे अधिक अन्तर नहीं होता है, क्योंकि कोई न कोई जीव उपशमश्रेणी से आरोहण प्रारम्भ कर ही देता है। एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त६८ और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्ध-पुद्गल-परावर्तन है । चारों क्षपक और अयोगी केवली गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छः माह है। एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है । सयोगी केवली सभी जीवों की अपेक्षा और एक जीव की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। गतिमार्गणा की अपेक्षा नरकगति से सातों पृथ्वी में मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः कुछ कम एक सागरोपम, कुछ कम तीन सागरोपम, कुछ कम सात सागरोपम, कुछ कम दस सागरोपम, कुछ कम सत्रह सागरोपम, कुछ कम बाईस सागरोपम और कुछ कम तेंतीस६६ सागरोपम है । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय का है और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है, किन्तु एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर सासादनसम्यग्दृष्टि की अपेक्षा पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और सम्यग्मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त होता है । उत्कृष्ट अन्तर सातों नरकों में क्रमशः कुछ कम एक सागरोपम, कुछ कम तीन सागरोपम, कुछ कम सात सागरोपम, कुछ कम दस सागरोपम, कुछ कम सत्रह सागरोपम, कुछ कम बाईस सागरोपम और कुछ कम तेंतीस०० सागरोपम है। तिर्यंचगति में तिर्यंचों में मिथ्यादृष्टि सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है, किन्तु एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्योपमः' है। सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर संयतासंयत-इन चारों गुणस्थानों का अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो कहा है, उसके अनुसार समझना चाहिए। मनुष्यगति में मनुष्यों में मिथ्यादृष्टि का अन्तर तिर्यंचों के समान है।३०२ सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि के सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो कथन किया है, वही मानना चाहिए । एक जीव की अपेक्षा २६६ यदि सासादनसम्यग्दृष्टि न हो तो वे कम से कम एक समय तक और अधिक से अधिक पल्योपम के असंख्यातवाँ भाग काल तक नहीं होते इसी से इनका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपम के असंख्यातवाँ भाग परिमाण बतलाया है। २६७ सासादन गुणस्थान उपशम सम्यक्त्व से च्युत होने पर प्राप्त हो सकता है, किन्तु एक जीव कम से कम पल्योपम का अंसख्यातवाँ भाग परिमाण काल के जाने पर ही दूसरी बार उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त हो सकता है । इसी से यहाँ सासादनसम्यग्दृष्टि का जघन्य अन्तरकाल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग परिमाण बतलाया है। २६८ एक जीव उपशमश्रेणी से च्युत होकर पुनः अन्तर्मुहूर्त के बाद उपशमश्रेणी पर चढ़ सकता है । इसीलिए चारों उपशमकों का एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त बतलाया है। २६६ जिस नरक की जितनी उत्कृष्ट स्थिति है, उसके प्रारम्भ और अन्त में अन्तर्मुहूर्त तक मिथ्यात्व के साथ रहकर मध्य में सम्यक्त्व के साथ रहने से उस नरक में मिथ्यात्व का उत्कृष्ट अन्तर आ जाता है, जिसका निर्देश मूल में किया ही है । ३०० नरक में उत्कृष्ट स्थिति के साथ उत्पन्न होने पर अन्तर्मुहूर्त के बाद उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करवाकर सासादन और मिश्र में ले जाय । फिर मरते समय और मिश्र में ले जाय । इस प्रकार प्रत्येक नरक में मरने के अन्तर्मुहूर्त पहले सासादन और मिश्र ले जाय। ३०१ जो तीन पल्योपम की आयु के साथ कुक्कुट और मर्कट आदि पर्याय में दो माह रहा और वहाँ से निकलकर मुहुर्त पृथकत्व के भीतर वेदक सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ। फिर अन्त में मिथ्यात्व में जाकर और सम्यक्त्व को प्राप्त होकर मरकर देव हुआ, उसके मुहुर्त पृथकत्व और दो माह कम तीन पल्योपम का उत्कृष्ट अन्तर होता है। ३०२ मनुष्यगति में मिथ्यात्व का उत्कृष्ट अन्तर १० माह और १६ दिन और दो अन्तर्मुहूर्त कम तीन पल्योपम है । Jain Education Intemational Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.... चतुर्थ अध्याय........{217} जघन्य अन्तर सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त है, उत्कृष्ट अन्तर पूर्व कोटि पृथक्त्व अधिक तीन०३ पल्योपम है। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्व कोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम है। संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा कोई अन्तरकाल नहीं है। एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्व कोटि पृथक्त्व है। चारों उपशमकों में सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में जैसा कथन है, वैसा ही समझना चाहिए । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्व कोटि पृथक्त्व है। शेष गुणस्थानों का अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में जो कहा गया है, उसके अनुसार मानना चाहिए। देवगति में देवों में मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा कोई अन्तरकाल नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागरोपम०५ है । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से कथन के समरूप जानना चाहिए । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त है, उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागरोपम है । _इन्द्रियमार्गणा में एकेन्द्रिय सभी जीवों की अपेक्षा से अन्तर नहीं है, क्योंकि ये सभी कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहण परिमाण और उत्कृष्ट अन्तर पूर्व कोटि पृथक्त्व अधिक दो हजार२०६ सागरोपम है । विकलेन्द्रियों में सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहण परिमाण और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त काल है, जिसका परिमाण असंख्यात पुद्गल परावर्तन है। इस प्रकार सामान्यतः इन्द्रिय की अपेक्षा से अन्तर कहा है । एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीव मिथ्यात्व गुणस्थानवाले होते हैं, अतः गुणस्थान की अपेक्षा से अन्तर नहीं है या उत्कृष्ट और जघन्य-दोनों प्रकार से अन्तर नहीं है । पंचेन्द्रियों में मिथ्यादृष्टि जीवों का अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो कथन किया है, वही समझना चाहिए । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि के सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो कथन किया है, वैसा ही समझना चाहिए । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तर पूर्व कोटि पृथक्त्व अधिक एक२० हजार सागरोपम है । असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येक गुणस्थान के सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्व कोटि पृथक्त्व अधिक एक हजार सागरोपम है । चारों उपशमकों का सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो कथन किया गया है, वैसा ही मानना चाहिए । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्व कोटि पृथक्त्व अधिक एक हजार सागरोपम है । शेष गुणस्थानों का ३०३ सम्यग्दृष्टि मनुष्य का उत्कृष्ट अन्तर आठ वर्ष दो अन्तर्मुहूर्त कम सैतालीस पूर्व कोटि और तीन पल्योपम है। ३०४ भोग भूमि में संयमासंयम या संयम की प्राप्ति सम्भव नहीं, इसीलिए सैतालीस पूर्व कोटि के भीतर ही यह अन्तर बतलाया है। ३०५ देवों में नवें ग्रेवेयक तक ही गुणस्थान परिवर्तन सम्भव है । इसी से यहाँ मिथ्यात्व और सम्यक्त्व का उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागरोपम बतलाया है। ३०६ त्रस पर्याय में रहने का उत्कृष्ट काल पूर्व कोटि पृथक्त्व अधिक दो हजार सागरोपम है । इसी से एकेन्द्रियों का उक्त प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर बतलाया ३०७ सासादनों का उत्कृष्ट अन्तर लाते समय पूर्व कोटि पृथक्त्व अधिक एक हजार सागरोपम में से आवलिका का असंख्यातवाँ भाग और नौ अन्तर्मुहूर्त कम कर देना चाहिए । मिश्र गुणस्थानवालों का उत्कृष्ट अन्तर लाते समय बारह अन्तर्मुहूर्त कम कर देना चाहिए। असंयतसम्यग्दृष्टियों का उत्कृष्ट अन्तर लाते समय दस अन्तर्मुहूर्त कम कर देना चाहिए । प्रमत्तसंयतो और अप्रमत्तसंयतों का उत्कृष्ट अन्तर लाते समय आठ वर्ष और दस अन्तर्मुहूर्त कम कर देना चाहिए । अपूर्वकरण आदि चार उपशमकों का उत्कृष्ट अन्तर लाते समय क्रम से ३०, २८, २६ और २४ अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष कम कर देना चाहिए। Jain Education Intemational Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{218} अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से कथित अन्तर के समरूप ही होता है। काय मार्गणा में पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय, और वायुकाय के सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहण परिमाण और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है, जिसका परिमाण असंख्यात पुद्गल परावर्तन है। वनस्पतिकाय के सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहण परिमाण और उत्कृष्ट अन्तर अंसख्यात लोक परिमाण है । इस प्रकार स्थावरकाय की अपेक्षा अन्तर कहा गया है । त्रसकाय को छोड़कर उपर्युक्त पांचों स्थावरकायवाले जीव नियमतः मिथ्यादृष्टि होते हैं, अतः इस गुणस्थान की अपेक्षा विचार करने पर तो सभी जीवों की अपेक्षा और एक जीव की अपेक्षा से अन्तर नहीं है या उत्कृष्ट और जघन्य-इन दोनों अपेक्षाओं से अन्तर नहीं है। त्रसकाय में मिथ्यादृष्टि जीवों का अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार के कथन के अनुसार ही जानना चाहिए । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि सभी जीवों की अपेक्षा जैसा अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से कहा गया है, वैसा ही समझना चाहिए । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक दो हजार सागरोपम है । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येक गुणस्थान में रहे हुए सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक दो हजार सागरोपम है । चारो उपशमकों के सभी जीवों की अपेक्षा जो अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से निर्देशित किया गया है, वही जानना चाहिए । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्व कोटि पृथक्त्व अधिक दो हजार सागरोपम है । शेष गुणस्थानों का अन्तरकाल पंचेन्द्रियों के समान हैं । योगमार्गणा की अपेक्षा से काययोगी, वचनयोगी, और मनोयोगी मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि संयतासंयत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और सयोगी केवली गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा और एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवाले सभी जीवों की अपेक्षा जो अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से कहा गया है, वैसा ही समझना चाहिए । एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है । चारों उपशमकों में सभी जीवों की अपेक्षा भी जो अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से निर्दिष्ट है, वैसा ही समझना चाहिए । एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है । चारों क्षपक और अयोगी केवली गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में जैसा कथन है, वैसा ही जानना चाहिए । वेदमार्गणा की अपेक्षा से स्त्रीवेदवाले मिथ्यादृष्टि सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचपना पल्योपम है । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि सभी जीवों की अपेक्षा जो अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से निर्देशित किया गया है, वही समझना चाहिए । सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल सौ०६ पल्योपम पृथक्त्व है। असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येक गुणस्थान में रहनेवाले सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल सौ पल्योपम पृथक्त्व है। दोनों उपशमको में सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्देशित है, वैसा ही जानना चाहिए। एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल और उत्कृष्ट अन्तरकाल सौ पल्योपम पृथ्क्त्व है। दोनों क्षपकों के सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्ष पृथक्त्व१० है । एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है। ३०८ पाँच अन्तर्मुहूर्त कुछ कम पचपन पल्योपम । ३०६ स्त्रीवेद का उत्कृष्टकाल सौ पल्योपम पृथक्त्व है, उसमें से दो समय कम कर देने पर स्त्रीवेदवालों में सासादनसम्यग्दृष्टि का अन्तर आ जाता है । छ: अन्तर्मुहूर्त कम कर देने पर सम्यग्मिथ्यादृष्टि का उत्कृष्ट अन्तर आ जाता है । वेदमार्गणा में दो उपशमक और दो क्षपक का ग्रहण इसीलिए किया कि शेष दो उपशमक और क्षपक अवेदी होते हैं । ३१० साधारणतया क्षपकश्रेणी का उत्कृष्ट अन्तर छ: महीना है, पर स्त्रीवेद की अपेक्षा उसका उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व बतलाया है। Jain Education Intemational Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ चतुर्थ अध्याय ........{219} वेदमार्गणा में पुरुषवेदवाले मिथ्यादृष्टि में अन्तरकाल, अन्तर- अनुयोगद्वार के अनुरूप ही होता है । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो बताया गया है, उसके अनुरूप है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है, उत्कृष्टअन्तर सौ " सागरोपम पृथक्त्व है । दोनों उपशमकों में सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर- अनुयोगद्वार में जो सामान्य रूप से कथित है, उसके समरूप है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागरोपम पृथक्त्व है । दोनों क्षपकों का सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय का और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक १२ एक वर्ष है। एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है । वेदमार्गणा में नंपुसकवेदवालों में मिथ्यादृष्टि सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेंतीस सागरोपम है । सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर अनिवृत्तिबादर उपशमक तक प्रत्येक गुणस्थान का अन्तरकाल, अन्तर- अनुयोगद्वार में जो सामान्य रूप से कथित है, उसके समरूप है तथा दोनों क्षपकों का अन्तर स्त्रीवेदवाले के समान है । अपगतवेदवालों में अनिवृत्तिबादर उपशमक और सूक्ष्मसंपराय उपशमक के सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर- अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो निर्दिष्ट है, उसी के समरूप ही समझना चाहिए। एक जीव की अपेक्षा से जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। उपशान्तकषाय का सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर - अनुयोगद्वार में जैसा सामान्य रूप से कहा है, वैसा ही मानना चाहिए। एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है । शेष गुणस्थानों का अन्तरकाल, अन्तर- अनुयोगद्वार में जैसा कथित है, उसी के समरूप है । कषायमार्गणा की अपेक्षा क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय सहित मिथ्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिबादर उपशमक तक प्रत्येक गुणस्थान का अन्तर मनोयोगी के समान है । दोनों क्षपकों में सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष है। लोभकषाय युक्त सूक्ष्मसंपरायवाले सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर- अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो कथन किया गया है, उसी के समरूप होता है। एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है । सूक्ष्म लोभवाले क्षपक का अन्तरकाल, अन्तर - अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा कहा गया है, वैसा ही जानना चाहिए । कषायरहित जीवों में उपशान्तकषायवाले सभी जीवों की अपेक्षा जो अन्तरकाल, अन्तर- अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से बताया गया है, वही अन्तर जानना चाहिए । एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है । शेष गुणस्थानवाले जीवों में अन्तरकाल, अन्तर- अनुयोगद्वार के समान ही जानना चाहिए । अन्तर- अनुयोगद्वार में ज्ञानमार्गणा की अपेक्षा से मति - अज्ञानी, श्रुत- अज्ञानी और विभंगज्ञानी में मिथ्यादृष्टि सभी जीवों और एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है । सासादनसम्यग्दृष्टि सभी जीवों का अन्तरकाल, अन्तर- अनुयोगद्वार में जैसा बताया गया है, वैसा ही समझना चाहिए। एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है । आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी असंयतसम्यग्दृष्टि सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्व कोटि वर्ष ३१३ है । संयतासंयत सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक४ छासठ सागरोपम है। चारों क्षपकों का अन्तरकाल, अन्तर- अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्देशित किया गया है, वैसा ही जानना चाहिए, किन्तु अवधिज्ञानी सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट ३११ सासादन के दो समय कम और सम्यग्मिथ्यादृष्टि के छः अन्तर्मुहूर्त कम सौ सागरोपम पृथक्त्व यह अन्तर जानना चाहिए । ३१२ पुरुषवेदवाले में अधिक से अधिक साधिक एक वर्ष तक क्षपकश्रेणी पर नहीं चढ़ना, यह इसका भाव है। ३१३ चार अन्तर्मुहूर्त कम पूर्व कोटि । ३१४ आठ वर्ष और ग्यारह अन्तर्मुहूर्त कम तीन पूर्व कोटि अधिक छासठ सागरोपम, किन्तु अवधिज्ञानी के ग्यारह अन्तर्मुहूर्त के स्थान में १२ अन्तर्मुहूर्त कम करना चाहिए । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......... चतुर्थ अध्याय ........{220} अन्तर वर्ष पृथक्त्व है। ३" एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है । मनः पर्यवज्ञानी में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त २६ है । चारों उपशमकों में सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, जैसा अन्तर- अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से कथन किया गया है, वैसा ही समझना चाहिए। एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्व कोटि ७ है । चारों क्षपकों का अन्तर अवधिज्ञानी कै समान ही है । केवलज्ञानी सयोगी केवली और अयोगी केवली गुणस्थानवाले जीवों का अन्तरकाल, अन्तर- अनुयोगद्वार में जैसा सामान्य रूप से निर्दिष्ट किया गया है, वैसा ही मानना चाहिए । षष्ठ अन्तर अनुयोगद्वार के अनुसार संयममार्गणा की अपेक्षा सामायिक चारित्रवाले और छेदोपस्थापनीय चारित्रवाले प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । दोनों उपशमक सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर- अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो बताया गया है, वही मानना चाहिए। एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पूर्व कोटि" वर्ष होता है । सामायिक एवं छेदोपस्थापनीय चारित्रवाले दोनों क्षपकों में अन्तरकाल, अन्तर - अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा बताया गया है, उसी के अनुसार जानना चाहिए। परिहारविशुद्धि चारित्रवालों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवाले सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त ३२० है । सूक्ष्मसंपराय चारित्रवालों में सभी उपशमक जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर- अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्दिष्ट किया गया है, वैसा ही मानना चाहिए। एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है । सूक्ष्मसंपराय चारित्रवाले सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती क्षपक का अन्तरकाल, अन्तर- अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्दिष्ट किया गया है, वैसा ही समझना चाहिए । यथाख्यातचारित्रवाले जीवों का अन्तर कषाय रहित जीवों के समान ही होता है । संयतासंयत सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है। एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेंतीस २१ सागरोपम है । शेष तीन गुणस्थानवर्ती जीवों का अन्तरकाल, अन्तर- अनुयोगद्वार में जैसा सामान्य रूप से निर्दिष्ट किया गया है, वैसा ही समझना चाहिए । दर्शनमार्गणा में चक्षुदर्शनवाले मिथ्यादृष्टि जीवों का अन्तरकाल, अन्तर- अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा बताया गया . है, वैसा ही मानना चाहिए । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्देशित किया गया है, वैसा ही जानना चाहिए । उक्त दोनों गुणस्थानों में एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो हजार सागरोपम*२२ है । असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थान में सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो हजार सागरोपम२२३ । चारों उपशमकों ३१५ अवधिज्ञानी प्रायः बहुत ही कम होते है, इसलिए इतना अन्तर बन जाता है । ३१६ उपशमश्रेणी और प्रमत्त- अप्रमत्त का काल अन्तर्मुहूर्त होने से मनः पर्यवज्ञानी प्रमत्त और अप्रमत्त का जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त बन जाता है । ३१७ आठ वर्ष और १२ अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि । ३१८ प्रमत्त से अप्रमत्त में और अप्रमत्त से प्रमत्त में अन्तरित होवें तो यह अन्तर बनता है । ३१६ आठ वर्ष और ग्यारह अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि अपूर्वकरण का उत्कृष्ट अन्तर है । अनिवृत्तिकरण का समयाधिक नौ अतर्मुहुर्त और आठ वर्ष कम एक पूर्व कोटि उत्कृष्ट अन्तर है । ३२० प्रमत्त और अप्रमत्त को परस्पर अन्तरित होने पर यह अन्तर आ जाता है । ३२१ चक्षुदर्शनवालों में अविरतसम्यग्दृष्टि के १० अन्तर्मुहूर्त कम, संयतासंयत के ४८ दिन और १२ अन्तर्मुहूर्त कम, प्रमत्तसंयत के ८ वर्ष १० अन्तर्मुहुर्त कम और अप्रमत्त संयत के भी ८ वर्ष और १० अन्तर्मुहूर्त कम दो हजार सागरोपम उत्कृष्ट अन्तर है । ३२२ यह अन्तर सातवें नरक में प्राप्त होता है । ३२३ चक्षुदर्शनवालों में सासादन के नौ अन्तर्मुहूर्त और आवलिका का असंख्यातवाँ भाग कम तथा सम्यग्मिध्यादृष्टि के बारह अन्तर्मुहूर्त कम दो हजार सागरोपम उत्कृष्ट अन्तर है । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा... चतुर्थ अध्याय........{221} का सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अ नयोगद्वार में सामान्य रूप से जो निर्देशित किया गया है, वैसा ही समझना चाहिए। एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो हजार सागरोपम२२४ है । चारों क्षपकों का अन्तरकाल, अन्तर अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्दिष्ट किया गया है, वैसा ही समझना चाहिए। अवधिदर्शनवालों का अवधिज्ञानी के समान और केवलदर्शनवालों का अन्तरकाल केवलज्ञानी के समान ही होता है। लेश्यामार्गणा की अपेक्षा से कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावालों में मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः कुछ कम तेंतीस सागरोपम, कुछ कम सत्रह सागरोपम और कुछ कम सात सागरोपम है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो निर्दिष्ट है, वही मानना चाहिए। एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर सासादन गुणस्थान में पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग व सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल तीनों लेश्याओं में क्रमशः कुछ कम तेंतीस सागरोपम, कुछ कम सत्रह सागरोपम और कुछ कम सात सागरोपम है। पीत और पद्मलेश्यावाले जीवों में मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर दोनों लेश्याओं में क्रमशः साधिक दो सागरोपम और साधिक अठारह सागरोपम है । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो निर्दिष्ट है, उसी के अनुसार समझना चाहिए । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर दोनों गुणस्थानों में दोनों लेश्याओं में क्रमशः पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तर में क्रमशः साधिक दो सागरोपम और साधिक अठारह सागरोपम है । संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती सभी जीवों और एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है। शुक्ललेश्यावाले जीवों में मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं होता है। एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागरोपम है । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो निर्दिष्ट किया गया है, वही जानना चाहिए । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागरोपम है । संयतासंयत और प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल पीतलेश्या के समान होता है । अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं होता है। एक जीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त३२५ है। तीन उपशमक सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा कथन है, उतना ही समझना चाहिए। एक जीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त३२६ है। उपशान्तकषायवाले सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो निर्दिष्ट किया गया है, वैसा ही मानना चाहिए। उपशान्तकषाय गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा बताया गया है, उसके अनुसार ही जानना चाहिए तथा एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है। चारों क्षपक, सयोगी केवली और लेश्यारहित जीवों का अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में जैसा निर्दिष्ट किया गया है, वैसा ही समझना चाहिए। भव्यमार्गणा की अपेक्षा से भव्यों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगी केवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवों का अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्दिष्ट किया गया है, वैसा ही समझना चाहिए। मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती अभव्य सभी जीव और एक जीव की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । ३२४ चक्षुदर्शनवालों में चारों उपशामकों का क्रम से २६, २७, २५ और २३ अन्तर्मुहूर्त तथा आठ वर्ष कम दो हजार सागरोपम का उत्कृष्ट अन्तर है। ३२५ उपशमश्रेणी से अन्तरित करके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त करना चाहिए। ३२६ अप्रमत्तसंयत से अन्तरित करके यह अन्तर प्राप्त करना चाहिए। Jain Education Intemational Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ चतुर्थ अध्याय.........{222} अन्तर अनुयोगद्वार में सम्यक्त्वमार्गणा के अन्तर्गत क्षायिक सम्यक्त्ववाले और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्व कोटि३२७ वर्ष होता है । संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती क्षायिक सम्यग्दृष्टि सभी जीवों की अपेक्षा भी अन्तरकाल नहीं है, एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेंतीस सागरोपम होता है । चारों उपशमक क्षायिक सम्यग्दृष्टि सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर- अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो निर्दिष्ट किया गया है, उसके समरूप ही होता है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेंतीस सागरोप है । शेष गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टि जीवों का अन्तरकाल, अन्तर - अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्दिष्ट किया गया है, उसके समरूप ही होता है । क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं होता है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्व कोटि २६ वर्ष है। संयतासंयत क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ क छासठ३३० सागरोपम है । प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेंतीस ३१ सागरोपम है । औपशमिक असंयतसम्यग्दृष्टि सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय का और उत्कृष्ट अन्तर सात दिन-रात्रि का होता है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । संयतासंयत औपशमिक सम्यग्दृष्टि सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चौदह दिन-रात्रि है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पन्द्रह दिन-रात्रि है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तीनों उपशमकों का सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । उपशान्तकषाय गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर- अनुयोगद्वार में जैसा निर्दिष्ट किया गया है, उसके समरूप ही समझना चाहिए। एक जीव की अपेक्षा अन्तर ३२ नहीं है । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है । एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है। मिथ्यादृष्टि सभी जीवों की अपेक्षा और एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है । 1 अन्तर अनुयोगद्वार में संज्ञीमार्गणा के अन्तर्गत संज्ञी जीवों में मिथ्यादृष्टि का अन्तरकाल, अन्तर अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्देशित किया गया है, उसके अनुरूप ही समझना चाहिए । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि सभी संज्ञी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर- अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो निर्दिष्ट किया गया है, उसके समरूप ही होता है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर सासादन गुणस्थान में पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त है । उत्कृष्ट अन्तर सौ सागरोपम पृथक्त्व है । असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येक गुणस्थान में भी ३२७ संयतासंयत के आठ वर्ष और चौदह अन्तर्मुहूर्त कम दो पूर्व कोटि साधिक तेंतीस सागरोपम प्रमत्तसंयत को एक अन्तर्मुहूर्त और एक पूर्व कोटि अधिक तेंतीस सागरोपम अथवा साढ़े तीन अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि अधिक तें तीस सागरोपम । अप्रमत्तसंयत के साढ़े पांच अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि अधिक तेंतीस सागरोपम । ३२८ चारों उपशमकों के आठ वर्ष और क्रम से २७, २५, २३ और २१ अन्तर्मुहूर्त कम दो पूर्व कोटि अधिक तेंतीस सागरोपम । ३२६ चार अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि । ३३० तीन अन्तर्मुहूर्त कम छासठ सागरोपम । ३३१ प्रमत्त के सात अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि अधिक तेंतीस सागरोपम और अप्रमत्त आठ अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि अधिक तेंतीस सागरोपम। ३३२ क्योंकि उपशमश्रेणी से उतरकर उपशम सम्यक्त्व छूट जाता है । यदि अन्तर्मुहूर्त बाद पुनः उपशमश्रेणी पर चढ़ता है, तो वेदक सम्यक्त्वपूर्वक दूसरी बार उपशम करना पड़ता है । यही कारण है कि उपशम सम्यक्त्व में एक जीव की अपेक्षा उपशान्त कषाय का अन्तर नहीं प्राप्त होता । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{223} जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागरोपम पृथक्त्व है। चारों उपशमकों में सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में जो सामान्य रूप से निर्दिष्ट किया गया है, उसके समरूप ही जानना चाहिए । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर सौ सागरोपम पृथक्त्व है । चारों क्षपकों का अन्तरकाल. अन्तर-अनयोगद्वार में जो निर्देशित किया गया है. वही समझना चाहिए । असंजी सभी जीव और एकजीव की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । संज्ञी-असंज्ञी सभी जीव और एक जीव की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है । संज्ञी और असंज्ञी व्यवहार से रहित जीवों का अन्तरकाल, अन्तर-अनयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्देशित किया गया है, उसी के अनुरूप ही जानना चाहिए। अन्तर अनुयोगद्वार में आहारमार्गणा की अपेक्षा आहारकों में मिथ्यादृष्टि का अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में जैसा दर्शाया गया है, वैसा ही समझना चाहिए । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर सासादन गुणस्थान में पल्योपम का अंसख्यातवाँ भाग और सम्यग्मिथ्यादृष्टि में अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तर अंगुल का असंख्यातवाँ भाग है, जिसका परिणाम असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी है। असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती सभी आहारक जीवों की अपेक्षा अन्तर नहीं है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट अन्तर अंगल का असंख्यातवाँ भाग है, जिसका परिमाण असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी है । चारों उपशमक सभी आहारक जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल, अन्तर-अनयोगद्वार में सामान्य रूप से जो निर्देशित किया गया है, उसी के समरूप जानना चाहिए। एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अंगुल का असंख्यातवाँ भाग है जिसका परिमाण असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी है । चारों क्षपक और सयोगी केवली गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल, अन्तर-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो निर्दिष्ट किया गया है, उसे ही समझना चाहिए। __ अन्तर अनुयोगद्वार में आहारमार्गणा में अनाहारकों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीव और एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है। सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है। असंयत सम्यग्दृष्टि का सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर मास पृथक्त्व है । एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है। सयोगी केवली गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व है । एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है । अयोगी केवली गुणस्थानवर्ती सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छः महीना है । एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है। सप्तम भाव-अनुयोगद्वार :तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में पूज्यपाद देवनन्दी ने आठ अनुयोगद्वारों की अपेक्षा से चौदह मार्गणाओं के सन्दर्भ में चौदह गुणस्थानों का विवेचन किया है । उसमें सप्तम भाव अनुयोगद्वार में पांचों भावों की अपेक्षा चौदह गुणस्थानों का निरूपण किया गया है। भावों के पांच प्रकार बताए गए हैं। १. क्षायिक, २. औपशमिक, ३. क्षायोपशमिक, ४. औदयिक और ५. पारिणामिक। इन पांच भावों का निरूपण भी सामान्य और विशेष-ऐसी दो अपेक्षाओं से किया गया है। भाव अनुयोगद्वार में सामान्य की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थान-यह औदयिक भाव है। सासादनसम्यग्दृष्टि-यह पारिणामिक२३३ भाव है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि-यह क्षायोपशमिकरण भाव है । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान-यह औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव है, किन्तु इसमें भी असंयतता औदयिक भाव की अपेक्षा से है । संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान-यह ३३३ सासादन सम्यक्त्व-यह दर्शन मोहनीय कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम से नहीं होता, इसीलिए निष्कारण होने से पारिणामिक भाव है । ३३४ सम्यग्मिथ्यात्व कर्म का उदय होने पर श्रद्धानाश्रद्धानात्मक मिला हुआ जीव परिणाम होता है । उसमें श्रद्धानांश सम्यक्त्व अंश है। सम्यग्मिथ्यात्व कर्म का उदय उसका अभाव करने में असमर्थ है । इसीलिए सम्यग्मिथ्यात्व यह क्षायोपशमिक भाव है। Jain Education Intemational Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{224} क्षायोपशमिक भाव है । आठवें से ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती चारों उपशमकों के औपशमिक भाव हैं तथा आठवें, नवें, दसवें, और बारहवें गुणस्थानवर्ती चारों क्षपक, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली के क्षायिक भाव हैं । सर्वार्थसिद्धि टीका में भाव अनुयोगद्वार में विशेष की अपेक्षा गतिमार्गणा में नरकगति में पहली पृथ्वी में मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकी जीवों के भाव, भाव-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसे निर्देशित किए गए हैं, वैसे ही समझना चाहिए । दूसरी से लेकर सातवीं पृथ्वी तक मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि नारकी जीवों के भाव भी भाव-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसे दर्शाए गए हैं, वैसे ही समझना चाहिए । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों के औपशमिक या क्षायोपशमिक भाव है, किन्तु इसमें भी असंयतता तो औदयिक भाव की अपेक्षा ही है । तिर्यंचगति में मिथ्यादृष्टि से लेकर संयतासंयत गुणस्थानवर्ती तिर्यंच जीवों के भाव, भाव-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्दिष्ट किया गया है, उसके समरूप जानना चाहिए। देवगति में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देवों के भाव, भाव-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसे निर्दिष्ट किए गए हैं, वैसे ही समझना चाहिए । इन्द्रियमार्गणा में एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियों के औदयिक भाव हैं । पंचेन्द्रियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगी केवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों के भाव, भाव-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जो निर्देशित किया गया है, वैसे ही समझना चाहिए। कायमार्गणा में पांचों स्थावर में औदयिक भाव है, त्रसकाय के भावों के सम्बन्ध में भाव-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा बताया गया है, वैसा ही मानना चाहिए। योगमार्गणा में काययोगी, वचनयोगी और मनोयोगी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के जीवों के और अयोगी केवली गुणस्थानवी जीवों के भाव, भाव अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा बताया गया है, वैसे ही मानना चाहिए। वेदमार्गणा में स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नंपुसकवेदवाले और वेद रहित विभिन्न गुणस्थानवी जीवों के भाव, भाव-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसे निर्दिष्ट किए गए हैं, वैसे ही मानना चाहिए। कषायमार्गणा में क्रोधकषाय, मानकषाय, मायाकषाय और लोभकषायवाले और कषाय रहित विविध गुणस्थानवी जीवों के भाव, भाव-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्दिष्ट किया गया है, वैसे ही मानना चाहिए । ज्ञानमार्गणा में मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यवज्ञानी और केवलज्ञानी जीवों के भाव विविध गुणस्थानों की अपेक्षा भाव-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा दर्शाया गया है, वैसे ही समझना चाहिए। संयममार्गणा में सभी संयतों के, संयतासंयतों के और असंयतों के भाव, उनके गुणस्थानों की अपेक्षा से भाव के सम्बन्ध में भाव-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा बताया गया है, वैसे ही मानना चाहिए। दर्शनमार्गणा में चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, और केवलदर्शनवाले जीवों के भाव, उनके गुणस्थान की अपेक्षा से भाव अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जिस प्रकार निर्देशित किया गया है, वैसे ही जानना चाहिए। लेश्यामार्गणा में छहों लेश्यावाले और लेश्यारहित जीवों के भाव, उनके गुणस्थानों की अपेक्षा भाव-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा बताया गया है, वैसे ही मानना चाहिए। भव्यमार्गणा में भव्यों के मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगी केवली गुणस्थान तक के भावों के सम्बन्ध में भाव-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा बताया गया है, वैसा ही मानना चाहिए । मिथ्यादृष्टि अभव्यों के पारिणामिक भाव३३५ होते हैं । सम्यक्त्वमार्गणा में क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव का सम्यक्त्व क्षायिक भाव है, किन्तु ३३५ यों तो ये भाव दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय के उदय आदि की अपेक्षा बतलाये गए है, किन्तु अभव्यों के अभव्यत्व भाव क्या है, इसकी अपेक्षा भाव का निर्देश किया है । यद्यपि इससे क्रम भंग हो जाता है, तथापि विशेष जानकारी के लिए ऐसा किया है । उनका बन्धन सहन जी अत्रुच्युत सन्तानवाला होने से उनके पारिणामिक भाव कहा है, यह इसका तात्पर्य है । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... चतुर्थ अध्याय........{225} असंयतता औदयिक भाव है । संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों के चारित्र की अपेक्षा क्षायोपशमिक भाव है, किन्तु सम्यक्त्व क्षायिक भाव है। चारों उपशमकों के औपशमिक भाव हैं, क्योंकि उनके सम्यक्त्व एवं चारित्र दोनों की अपेक्षा से औपशमिक भाव हैं । औपशमिक सम्यग्दृष्टि जीव के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में सम्यक्त्व औपशमिक हैं, किन्तु असंयतता औदयिक भाव है । क्षायोपशमिक सम्यक्त्ववाले संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों के चारित्र की अपेक्षा क्षायोपशमिक भाव हैं और सम्यक्त्व भी क्षायोपशमिक भाव हैं । चारों उपशमकों के चारित्र की अपेक्षा औपशमिक भाव हैं, और सम्यक्त्व क्षायोपशमिक हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि के पारिणामिक भाव हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि के क्षायोपशमिक भाव हैं । मिथ्यादृष्टि के औदयिक भाव हैं। __ भाव अनुयोगद्वार में संज्ञीमार्गणा में विविध गुणस्थानवर्ती संज्ञी जीवों के भाव, भाव-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसे बताये गए हैं, वैसे ही मानना चाहिए । असंज्ञी के औदयिक भाव हैं । संज्ञी और असंज्ञी व्यवहार से रहित जीवों के भाव, भाव-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसे बताये गए हैं, वैसे ही मानना चाहिए। भाव-अनुयोगद्वार मे आहारमार्गणा में आहारक और अनाहारक जीवों के भाव, अपने गुणस्थानों की अपेक्षा भाव-अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्देशित किया गया है, वैसे ही मानना चाहिए। अष्टम अल्प-बहुत्व अनुयोगद्वार : पूज्यपाद देवनन्दी ने तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में आठ अनुयोगद्वारों के आधार पर चौदह मार्गणाओं को लेकर चौदह गुणस्थानों की चर्चा की है । अष्टम अल्प-बहुत्व अनुयोगद्वार में गुणस्थानों की अपेक्षा से जीवों की ही हीनाधिक संख्या का विवरण है । अल्प-बहुत्व का यह कथन दो प्रकार से किया गया है - सामान्य और विशेष । सामान्य की अपेक्षा से तीनों उपशमक सबसे थोड़े हैं, जो अपने-अपने गुणस्थान के कालों में प्रवेश की अपेक्षा समान२६ संख्यावाले हैं । उपशान्तकषायवाले जीव भी उतने ही हैं । इनसे अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानवर्ती क्षपक जीव संख्यातगुणा३३७ है । क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ, क्षपक जीवों के जितने ही हैं। सयोगी केवली और अयोगी केवली प्रवेश की अपेक्षा समान संख्यावाले हैं । इनसे अपने काल में समुदित हुए सयोगी केवली संख्यातगुणा हैं । इनसे अप्रमत्तसंयत संख्यातगुणा हैं । इनसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणा हैं । इनसे संयतासंयत असंख्यातगुणा हैं। इनसे सासादनसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणा हैं । इनसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि संख्यातगुणा हैं । इनसे असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणा हैं । इनसे मिथ्यादृष्टि अनन्तगुणा हैं । ___ अष्टम अल्प-बहुत्व अनुयोगद्वार में विशेष की अपेक्षा गतिमार्गणा में नरकगति में सभी पृथ्वियों में नारकी में सासादनसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं । इनसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि संख्यातगुणा है। इनसे असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणा हैं । इनसे मिथ्यादृष्टि असंख्यातगुणा हैं । तिर्यंचगति में तिर्यंच में संयतासंयत सबसे थोड़े हैं । शेष गुणस्थानवाले तिर्यंचों का अल्प-बहुत्व, अल्प-बहुत्व अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्दिष्ट किया गया है, वैसा ही मानना चाहिए । मनुष्यगति में मनुष्यों में उपशमकों से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक का अल्प-बहुत्व, अल्प-बहुत्व अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्दिष्ट किया गया है, उसके अनुसार ही जानना चाहिए । प्रमत्तसंयतों से संयतासंयत संख्यातगुणा हैं। इनसे सासादनसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणा हैं । इनसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि संख्यातगुणा हैं। इनसे असंयतसम्यग्दृष्टि संख्यातगुणा हैं । इनसे मिथ्यादृष्टि असंख्यातगुणा हैं । देवगति में देवों का अल्प-बहुत्व नारकी के समान ही है । अल्प-बहुत्व अनुयोगद्वार में इन्द्रियमार्गणा में एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रियों में गुणस्थान भेद न होने से अल्प-बहुत्व नहीं है। ३३६ कम से कम एक और अधिक से अधिक चौवन । ३३७ कम से कम एक और अधिक से अधिक एक सौ आठ । Jāin Education International Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... चतुर्थ अध्याय ........{226} ये सभी नियमतः मिथ्यादृष्टि होते हैं । पंचेन्द्रियों का अल्प- बहुत्व, अल्प - बहुत्व अनुयोगद्वार में जिसप्रकार निर्दिष्ट किया गया है, वैसा ही मानना चाहिए, किन्तु इतनी विशेषता है कि असंयतसम्यग्दृष्टि पंचेन्द्रियों से मिथ्यादृष्टि पंचेन्द्रिय असंख्यातगुणा हैं । कायमाणा में स्थावर काय में गुणस्थान भेद न होने से अल्प-बहुत्व नहीं है । त्रसकाय का अल्प- बहुत्व पंचेन्द्रियों के समान है । योगमार्गणा में वचनयोगी और मनोयोगी जीवों का अल्प-बहुत्व पंचेन्द्रियों के समान है। काययोगी का अल्प - बहुत्व, अल्प- बहुत्व अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्दिष्ट किया गया है, वैसा ही मानना चाहिए । वेदमार्गणा में स्त्रीवेद और पुरुषवेदवाले जीवों का अल्प - बहुत्व पंचेन्द्रियों के समान है। नंपुसकवेदवाले और वेद रहित जीवों का अल्प- बहुत्व, अल्प - बहुत्व अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्दिष्ट किया गया है, वैसा ही मानना चाहिए । कषायमार्गणा में क्रोधकषाय, मानकषाय और मायाकषायवाले जीवों का अल्प- बहुत्व पुरुषवेदवालों के समान है, किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें असंयतसम्यग्दृष्टि से मिथ्यादृष्टि अनन्तगुणा । लोभकषायवालों में दोनों उपशमकों की संख्या समान है । इनसे क्षपक संख्यातगुणा हैं । इनसे सूक्ष्मसंपराय उपशमक संयत विशेष अधिक हैं । इनसे सूक्ष्मसंपराय क्षपक संख्यातगुणा हैं । शेष गुणस्थानवालों का अल्प - बहुत्व, अल्प- बहुत्व अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्दिष्ट किया गया है, वैसा ही मानना चाहिए । ज्ञानमार्गणा में मति- अज्ञानी और श्रुत - अज्ञानी में सासादनसम्यग्दृष्टि सबसे अल्प हैं । मिथ्यादृष्टि अनन्तागुणा हैं I विभंगज्ञानी में सासादनसम्यग्दृष्टि सबसे अल्प हैं । मिध्यादृष्टि असंख्यात गुणा हैं । मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी में चारों उपशमक सबसे अल्प हैं । इनसे चारों क्षपक संख्यातगुणा हैं । इनसे अप्रमत्तसंयत संख्यातगुणा हैं । इनसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणा । इनसे संयतासंयत असंख्यातगुणा हैं । इनसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणा हैं । केवलज्ञानी में अयोगी केवली से सयोगी केवली संख्यातगुणा हैं । संयममार्गणा में सामायिक संयत और छेदोपस्थापनीय संयत में दोनों उपशमक समान संख्यावाले हैं। इनसे दोनों क्षपक संख्यातगुणा हैं । इनसे अप्रमत्तसंयत संख्यातगुणा हैं । इनसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणा हैं । परिहारविशुद्धि में अप्रमत्तसंयत से प्रमत्तसंयत संख्यातगुणा हैं । सूक्ष्मसंपराय संयत में उपशमकों से क्षपक संख्यातगुणा हैं । यथाख्यातसंयत में उपशान्तकषायवालों से क्षीणकषाय जीव संख्यातगुणा हैं । अयोगी केवली उतने ही हैं । सयोगी केवली उनसे संख्यातगुणा हैं । संयतासंयतों का अल्प-बहुत्व नहीं हैं । असंयतों में सासादनसम्यग्दृष्टि सबसे अल्प है । इनसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि संख्यातगुणा हैं । इनसे असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणा हैं । इनसे मिथ्यादृष्टि अनन्तगुणा हैं । दर्शनमार्गणा में चक्षुदर्शनवालों का अल्प - बहुत्व मनोयोगी के समान है । अचक्षुदर्शनवालों का अल्प - बहुत्व काययोगी के समान है । अवधिदर्शनवालों का अल्प - बहुत्व अवधिज्ञानी के समान है । केवलदर्शनवालों का अल्प - बहुत्व केवलज्ञानी के समान है । श्यामार्गणा में कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावालों का अल्प - बहुत्व असंयतों के समान है । पीत और पद्मलेश्यावालों में अप्रमत्तसंयत सबसे अल्प हैं । इनसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणा हैं। शेष गुणस्थानों का अल्प - बहुत्व पंचेन्द्रियों के समान हैं । शुक्लले श्यावालों में उपशमक सबसे अल्प हैं। इनसे क्षपक संख्यातगुणा हैं। इनसे सयोगी केवली संख्यातगुणा हैं। इनसे अप्रमत्तसंयत संख्यातगुणा हैं। इनसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणा हैं । इनसे संयतासंयत असंख्यातगुणा हैं । इनसे सासादनसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणा हैं। इनसे सम्यग्मिथ्यादृष्टि संख्यातगुणा हैं । इनसे मिथ्यादृष्टि अनन्तगुणा हैं । भव्यमार्गणा में भव्यों का अल्प- बहुत्व, अल्प - बहुत्व अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्दिष्ट किया गया है, वैसा ही मानना चाहिए । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{227} सम्यक्त्वमार्गणा में क्षायिक सम्यग्दृष्टि में चारो उपशमक सबसे अल्प हैं । प्रमत्तसंयत गुणस्थान का अल्प-बहुत्व, अल्प-बहुत्व अनुयोगद्वार में सामान्य रूप से जैसा निर्दिष्ट किया गया है, वैसा ही मानना चाहिए । प्रमत्तसंयत से संयतासंयत संख्यातगुणा हैं। इनसे असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणा हैं। क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि में अप्रमत्तसंयत सबसे अल्प है। इनसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणा हैं । इनसे संयतासंयत असंख्यातगुणा हैं। इनसे असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणा हैं । औपशमिक सम्यग्दृष्टियों में चारो उपशमक सबसे अल्प हैं। इनसे अप्रमत्तसंयत संख्यातगुणा हैं । इनसे प्रमत्तसंयत संख्यातगुणा हैं । इनसे संयतासंयत असंख्यातगुणा हैं । इनसे असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणा हैं । इस मार्गणा की अपेक्षा शेष सासादनसम्यग्दृष्टि आदि का अल्प-बहुत्व नहीं है। ___ संज्ञीमार्गणा में संज्ञी का अल्प-बहुत्व चक्षुदर्शनवालों के समान है । असंज्ञी का अल्प-बहुत्व नहीं है, क्योंकि वे सभी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती हैं । संज्ञी और असंज्ञी व्यवहार से रहित जीवों का अल्प-बहुत्व केवलज्ञानी के समान है। आहार मार्गणा में आहारकों का अल्प-बहुत्व काययोगी के समान है । अनाहारकों में केवली समुद्घात करनेवाले सयोगी केवली सबसे अल्प हैं । इनसे अयोगी केवली संख्यातगुणा हैं। इनसे सासादनसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणा हैं। इनसे असंयतसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणा हैं। इनसे मिथ्यादृष्टि अनन्तगुणा हैं। सर्वार्थसिद्धि टीका में विभिन्न गुणस्थानों में कर्म प्रकृतियों के संवर (बन्ध-विच्छेद) का विवेचन . _ प्रथम मिथ्यात्व नामक गुणस्थान में सम्यक्त्व का सद्भाव नहीं होता है, अतः सम्यक्त्व के निमित्त से बन्धनेवाली तीन प्रकृतियों का इसमें संवर या बन्ध-विच्छेद होता है । वे तीन प्रकृतियाँ हैं - १ तीर्थकरनामकर्म, २ आहारकशरीर और ३ आहारकअंगोपांग। द्वितीय सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में मिथ्यात्व के उदय का अभाव होने से इसमें मिथ्यात्व के निमित्त से बन्ध को प्राप्त होनेवाली निम्न कर्मप्रकृतियों का बन्ध विच्छेद (संवर) होता है - मिथ्यात्वमोह और नपुंसकवेद - ये दो मोहनीय कर्म की तथा आयुष्य कर्म की - नरकायु तथा नामकर्म की १३ प्रकृतियाँ नरकगति, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, हुंडकसंस्थान, सटिक संघयण, नरकानुपूर्वी, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतपनाम, स्थावर नामकर्म, सूक्ष्मनामकर्म, अपर्याप्तनामकर्म और साधारणनामकर्म-ऐसी सोलह प्रकृतियाँ और पूर्वोक्त तीन-इसप्रकार उन्नीस कर्मप्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद या संवर होता है । तृतीय सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में मिथ्यात्व मोहनीय के साथ-साथ अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय का अभाव होता है । इन दोनों के उदय के अभाव के कारण दर्शनावरणीय कर्म की तीन प्रकृतियाँ स्त्यानगृद्धित्रिक (निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि) मोहनीय कर्म की सात कर्मप्रकृतियाँ - अनन्तानुबन्धी चतुष्क, मिथ्यात्व मोहनीय, नपुंसकवेद और स्त्रीवेद-ये सात कर्मप्रकृतियाँ, गोत्र कर्म की नीच गोत्र, आयुष्य कर्म की चारों ही आयु (देवायु, नरकायु, मनुष्यायु और तिर्यंचायु) और नाम कर्म की पूर्वोक्त सोलह के साथ तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी, दुर्भगत्रिक (दुर्भग, अनादेय, अपयश) मध्यमसंस्थान चतुष्क (न्यग्रोधपरिमंडल, सादि, वामन और कुब्ज) मध्यम संघयण चतुष्क (ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच और कीलिका) उद्योतनाम, अशुभविहायोगति- इस तरह नामकर्म की इकतीस कर्मप्रकृतियों और कुल ४६ कर्मप्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद अर्थात् संवर होता चतुर्थ अविरतसम्यग्दृष्टि नामक गुणस्थान में दर्शनावरणीय की पूर्वोक्त तीन, मोहनीय की सात, गोत्र की एक, आयुष्य की दो और नामकर्म की तीस कर्मप्रकृतियों-कुल ४३ कर्मप्रकृतियों काबन्ध-विच्छेद अर्थात् संवर होता है। पंचम संयतासंयत नामक गुणस्थान में दर्शनावरणीय कर्म की पूर्वोक्त तीन, मोहनीय कर्म की पूर्वोक्त ७ + ४ (अप्रत्याख्यानी, चतुष्क) = ११ नाम कर्म की पूर्वोक्त ३० और व्रजऋषभनाराच संघयण, मनुष्यद्विक (मनुष्यगति, मनुष्यप्रायोग्यानुपूर्वी) औदारिकद्विक (औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग)-ये पांच सभी मिलकर ३५, आयुष्य कर्म की पूर्वोक्त दो और मनुष्य आयुष्य-इस तरह तीन, गोत्र कर्म की एक-इस प्रकार कुल ५३ कर्मप्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद या संवर होता है । Jain Education Interational Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{228} .. षष्ठ प्रमत्तसंयत गुणस्थान में उपर्युक्त ५३ कर्मप्रकृतियों के साथ मोहनीय कर्म की प्रत्याख्यानीय चतुष्क (क्रोध, मान, माया, लोभ) मिलकर ५७ कर्मप्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद अर्थात् संवर होता है । सप्तम अप्रमत्तसंयत नामक गुणस्थान में वेदनीय कर्म की एक, मोहनीय कर्म की पूर्वोक्त १५ तथा अरति एवं शोक-इस तरह १७, नाम कर्म की पूर्वोक्त ३५ तथा अस्थिरनाम कर्म, अशुभनामकर्म, अपयशनामकर्म - इस तरह ३८ कर्मप्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद अर्थात् संवर होता है, किन्तु सप्तम अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में आहारकद्विक का बन्ध सम्भव होने से प्रारम्भ में ३६ कर्मप्रकृतियों का ही बन्ध-विच्छेद यानी संवर मानना चाहिए, किन्तु सप्तम गुणस्थान के अन्त में आहारकद्विक का भी संवर अर्थात् बन्ध-विच्छेद हो जाता है, अतः सप्तम गुणस्थान की अपेक्षा से ३८ कर्मप्रकृतियों का संवर अर्थात् बन्ध-विच्छेद माना जा सकता है । अष्टम अपूर्वकरण नामक गुणस्थान के प्रारंभिक संख्यात भाग में निद्रा और प्रचला ये दो कर्मप्रकृतियाँ बन्ध को प्राप्त होती हैं । आगे के संख्यात भाग में इसका बन्ध-विच्छेद अर्थात् संवर हो जाता है । इस प्रकार अपूर्वकरण गुणस्थान में दर्शनावरणीय कर्म की ५ कर्मप्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद अर्थात् संवर कहा गया है । दर्शनावरणीय कर्म की शेष चार (चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन) कर्मप्रकृतियाँ बन्ध को प्राप्त होती रहती हैं। अपूर्वकरण गुणस्थान में वेदनीय कर्म से असातावेदनीय कर्म का पूर्ववत् ही बन्ध-विच्छेद या संवर रहता है । अपूर्वकरण गुणस्थान में मोहनीय कर्म की अपेक्षा अनन्तानुबन्धी चतुष्क, अप्रत्याख्यानीय चतुष्क, प्रत्याख्यानीय चतुष्क, नपुंसक वेद, अरति, शोक, स्त्रीवेद और मिथ्यात्व मोहनीय-इन १७ कर्मप्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद या संवर हो जाता है । इस गुणस्थान के अन्तिम छठे भाग में, हास्य, रति, जुगुत्सा, और भय इन चारों का बन्ध-विच्छेद या संवर हो जाने से इस गुणस्थान में मोहनीय कर्म की २१ कर्मप्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद या संवर बताया गया है। अपूर्वकरण गुणस्थान में प्रमाद का अभाव होने से आयुष्य कर्म की चारों ही कर्मप्रकृतियों का संवर या बन्ध-विच्छेद हो जाता है। इसी प्रकार गोत्रकर्म में पूर्ववत् नीच गोत्र के बन्ध का बन्ध-विच्छेद या संवर जानना चाहिए । जहाँ तक अपूर्वकरण गुणस्थान में नामकर्म की कर्मप्रकृतियों के बन्ध-विच्छेद या संवर का प्रश्न है, पूर्ववर्ती सातवें गुणस्थान में कथित ३६ कर्मप्रकृतियों का पूर्ववत् अभाव होता ही है, किन्तु उसके साथ ही (१) देवगति (२) पंचेन्द्रिय जाति (३) वैक्रिय शरीर (४) आहारक शरीर (५) तैजस शरीर (६) कार्मण शरीर (७) समचतुरस्त्र संस्थान (५) वैक्रिय अंगोपांग (६) आहारक अंगोपांग (१०) वर्ण (११) गंध (१२) रस (१३) स्पर्श (१४) देवगति (१५) आनुपूर्वी (१६) अगुरुलघु (१७) पराघात (१८) उच्छ्वास (१६) प्रशस्त विहायोगति (२०) त्रसनाम (२१) बादरनाम (२२) अपर्याप्तनाम (२३) प्रत्येक शरीर (२४) स्थिरनाम (२५) शुभनाम (२६) सुभगनाम (२७) सुस्वरनाम (२८) आदेयनाम (२६) निर्माणनाम और (३०) तीर्थंकर नाम-इन ३० कर्मप्रकृतियों का भी बन्ध-विच्छेद या संवर हो जाता है । इसप्रकार अपूर्वकरण गुणस्थान में दर्शनावरणीय की ५, वेदनीय की १, मोहनीय की १७, नाम कर्म की ६६, गोत्रकर्म की १, आयुष्य कर्म की ४-इस प्रकार ६८ कर्मप्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद या संवर बताया गया है। नवें अनिवृत्तिकरणबादर नामक गुणस्थान में पूर्ववर्ती अपूर्वकरण गुणस्थान में बन्ध-विच्छेद को प्राप्त हुई कर्मप्रकृतियों के अतिरिक्त मोहनीय कर्म की पाँच कर्मप्रकृतियाँ अर्थात् पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, संज्वलन मान, संज्वलन माया और संज्वलन लोभ-इन पांच का क्रमशः बन्ध-विच्छेद अथवा संवर हो जाता है । इस प्रकार इस गुणस्थान के अन्त में १०३ कर्मप्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद या संवर कहा जाता है । दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के प्रारम्भ में मन्द कषाय अर्थात् सूक्ष्म लोभ का उदय रहने पर ज्ञानावरणीय की पांचो अर्थात् मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्यवज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण कर्मप्रकृतियाँ; दर्शनावरण की चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन-इन चार कर्मप्रकृतियों; नामकर्म की यशनाम कर्म; गोत्रकर्म की उच्चगोत्र तथा अन्तराय कर्म की दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यांतराय-इन पांचो कर्मप्रकृतियों का बन्ध रहता है, किन्तु Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... चतुर्थ अध्याय........{229) इस गुणस्थान के अन्त में मन्द कषाय (सूक्ष्म लोभ) का भी अभाव हो जाने से उपर्युक्त १६ कर्मप्रकृतियों का संवर या बन्ध-विच्छेद हो जाता है । इसप्रकार नवें गुणस्थान की १०३ तथा इस गुणस्थान के अन्त में बन्ध-विच्छेद को प्राप्त हुई १६ कर्मप्रकृतियाँ-इस प्रकार कुल ११६ कर्मप्रकृतियों का संवर अथवा बन्ध-विच्छेद दसवें गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाता है । ___ ग्यारहवें उपशान्तमोह, बारहवें क्षीणमोह और तेरहवें सयोगीकेवली गुणस्थान में योग के रहने से मात्र सातावेदनीय का बन्ध रहता है । शेष ११६ कर्मप्रकृतियों का संवर या बन्ध-विच्छेद इन गुणस्थानों में रहता है । चौदहवें अयोगी केवली गुणस्थान में योग का अभाव होने से साता वेदनीय के बन्ध का भी बन्ध-विच्छेद अर्थात् संवर हो जाता है । इस प्रकार अन्तिम चौदहवें गुणस्थान में १२० कर्मप्रकृतियों का संवर अर्थात् बन्ध-विच्छेद बताया गया है। सर्वार्थसिद्धि टीका के अनुसार विभिन्न गुणस्थानों में परिषहों की संख्या : तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि नामक टीका में पूज्यपाद देवनन्दी ने नवें अध्याय के ग्यारहवें से लेकर सत्रहवें सूत्र तक की टीका में गुणस्थानों के सन्दर्भ में परिषहों की चर्चा की है । सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रयी रूप मोक्षमार्ग से पतित न होने के लिए और कर्मों की निर्जरा के लिए सहन करने योग्य आपदाएँ परिषह कही गई हैं - परिषह बाईस है - (१) क्षुधा (२) पिपासा (३) शीत (४) उष्ण (५) दंशमशक (६) नग्नत्व (७) अरति (८) स्त्री (६) चर्या (१०८) निषद्या (११) शय्या (१२) आक्रोश (१३) वध (१४) याचना (१५) अलाम (१६) रोग (१७) तृणस्पर्श (१८) मल (१६) सत्कार-पुरस्कार (२०) प्रज्ञा (२१) अज्ञान और (२२) अदर्शन। चार कर्मों के उदय से बाईस परिषह होते हैं । ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से प्रज्ञा और अज्ञान-दो परिषह होते हैं । वेदनीय कर्म के उदय से ग्यारह परिषह होते हैं । यथा - (१) क्षुधा (२) पिपासा (३) शीत (४) उष्ण (५) दंशमशक (६) चर्या (७) शय्या (८) वध (६) रोग (१०) तृणस्पर्श और (११) मल । मोहनीय कर्म के उदय से आठ परिषह होते हैं । दर्शन मोहनीय के उदय से अदर्शन परिषह और चारित्र मोहनीय के उदय से सात परिषह होते हैं - (१) नग्नत्व (२) अरति (३) स्त्री (४) निषद्या (५) आक्रोश (६) याचना और (७) सत्कार-पुरस्कार । अन्तराय कर्म में लाभान्तराय कर्म के उदय से अलाभ परिषह होता है । पहले गुणस्थान से लेकर नवें गुणस्थानवी जीवों को सभी बाईस परिषह होते हैं । दसवें, ग्यारहवें, बारहवें, गुणस्थान में चौदह परिषह होते हैं, यथा - (१) क्षुधा (२) पिपासा (३) शीत (४) उष्ण (५) दंशमशक (६) चर्या (७) प्रज्ञा (८) अज्ञान (६) अलाभ (१०) शय्या (११) वध (१२) रोग (१३) तृणस्पर्श और (१४) मल । तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में वेदनीय कर्म के उदय से होनेवाले ग्यारह परिषह होते हैं । एक साथ एक जीव को १६ परिषह होते हैं, क्योंकि जीव जब शीत परिषह का वेदन करता है, तब उष्ण का नहीं करता है तथा जब उष्ण का वेदन करता है, तब शीत का नहीं करता । इसी प्रकार निषद्या, शय्या और चर्या-इन तीनों परिषहों में से किसी एक परिषह का जीव एक समय में वेदन करता है। सर्वार्थसिद्धि टीका के अनुसार विभिन्न गुणस्थानों में बन्धहेतु : तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि नामक टीका में पूज्यपाद देवनन्दी ने आठवें अध्याय के पहले सूत्र की टीका में कर्म बन्ध के हेतु का वर्णन करते हुए, किन-किन गुणस्थानों में कौन-कौन से बन्धहेतु होते हैं, इस बात की चर्चा की गई है। कर्मबन्ध के पांच हेतु हैं-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग। मिथ्यात्व गुणस्थानवी जीवों को पांचों ही बन्द हेतुओं के द्वारा कर्मबन्ध होता है । सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों को कर्मबन्ध में अविरति आदि चार बन्धहेतु होते हैं । विरताविरत गुणस्थानवी जीवों को देश अविरति के साथ-साथ प्रमाद, कषाय और योग-ये चार बन्धहेतु होते हैं । अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवी जीवों को प्रमाद Jain Education Intemational Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय......{230} भी नहीं होता है, अतः उन्हें सिर्फ कषाय और योग दो ही बन्ध हेतु हैं । उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगी केवली-इन तीन गुणस्थानवी जीवों को कर्मबन्ध का हेतु मात्र योग ही होता है । अयोगी केवली गुणस्थानवी जीवों को योग भी नहीं रहता है, इसीलिए इस गुणस्थान में बन्धहेतु का अभाव हो जाता है । सर्वार्थसिद्धि के अनुसार विभिन्न गुणस्थानों में लेश्या : पूज्यपाद देवनन्दी ने सर्वार्थसिद्धि टीका में दूसरे अध्याय के छठे सूत्र की व्याख्या करते हुए यह शंका उपस्थित की है कि आगमिक परम्परा में उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगी केवली गुणस्थानों में शुक्ल लेश्या का सद्भाव माना है, किन्तु लेश्या को तो कषाय से अनुरंजित माना जाता है, अतः यह शंका उपस्थित होती है कि यदि इन गुणस्थानों में कषायों का उदय नहीं, तो फिर उनसे अनुरंजित शुक्ल लेश्या का सद्भाव इन गुणस्थानों में कैसे सम्भव हो सकता है ? पूज्यपाद देवनन्दी स्वयं इस शंका का समाधान करते हुए कहते हैं कि यहाँ कोई दोष नहीं आता है, क्योंकि पूर्व काल में कषाय के उदय से अनुरंजित योग प्रवृत्ति परवर्ती काल में भी होती है । अतः पूर्व भाव प्रज्ञापन नय की अपेक्षा उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगी केवली गुणस्थानों में योग प्रवृत्ति के सद्भाव के कारण लेश्या का सद्भाव भी माना जा सकता है । अयोगी केवली गुणस्थान की अवस्था में योग प्रवृत्ति नहीं होती है, इसीलिए वह अवस्था लेश्या से रहित होती है । सिद्धान्ततः लेश्याएं कषाय और योग के निमित्त से होती हैं। यह भी सत्य है कि कषाय के निमित्त से योग प्रवृत्ति होती है और उस योग प्रवृत्ति से अनुरंजित लेश्या भी होती है, किन्तु कषायों के उपशान्त या क्षीण हो जाने पर भी उन निमित्त से प्रारम्भ हुई योग प्रवृत्ति परवर्ती काल में जारी रहती है । जिस प्रकार बन्दूक से निकली हुई गोली की गति गोली चलाने का प्रयत्न समाप्त हो जाने के बाद भी बनी रहती है अथवा कुम्भकार का चाक एक बार चला देने पर कुछ काल चलता ही रहता है, उसी प्रकार से कषायों का अभाव हो जाने पर भी उनसे प्रेरित जो योग प्रवृत्ति होती है, वह बनी रहती है । इस प्रकार उपर्युक्त तीनों गुणस्थानों में योग प्रवृत्ति के कारण शुक्ल लेश्या के सद्भाव को स्वीकार किया जा सकता है । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि कषाय का अभाव हो जाने पर योग प्रवृत्ति के रूप में जो शुक्ल लेश्या बनी रहती है, वह कर्मो का बन्ध नहीं करती है । वह तो लोकमंगल प्रवृति रूप होती है । सर्वार्थसिद्धि में चारों ध्यानों में गुणस्थानों का अवतरण : पूज्यपाद देवनन्दी ने तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि नामक टीका में नवें अध्याय के ३४ वें, ३५ वें एवं ३६३ सूत्र की व्याख्या करते हुए किस ध्यान का स्वामी किस गुणस्थानवी जीव होता है, इसकी चर्चा की है। चौतीसवें सूत्र की टीका में, आर्तध्यान का स्वामी कौन होता है ? इस बात का निर्देश किया गया है, ३५ वें सूत्र की टीका में रौद्र ध्यान की चर्चा है । ३६वें सूत्र की टीका में धर्मध्यान के प्रकारों की चर्चा की है और उनके स्वामी कौन-कौन से गुणस्थानवी जीव होते है, इसका निर्देश किया गया है । अड़तीसवें सूत्र की टीका में अन्तिम दो शुक्ल ध्यानों के स्वामी कौन-से गुणस्थानवी जीव होते हैं, इसकी चर्चा है । (अ) आर्तध्यान - : सर्वार्थसिद्धि में २६वें अध्याय के ३४वें सूत्र की टीका में आर्तध्यान के चार प्रकार बताये गए हैं । इन चार प्रकारों के आर्तध्यान के स्वामियों का निर्देश करते हुए कहा गया है कि अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के चार गुणस्थानों के जीव अविरत कहलाते हैं । संयतासंयत जीव देशविरत कहे जाते हैं तथा पन्द्रह प्रकार के प्रमाद से युक्त क्रिया करने वाले जीव प्रमत्तसंयत कहलाते हैं । इनमें से अविरत और देशविरत जीवों को चारों प्रकार के आर्तध्यान होते हैं, क्योंकि वे असंयमरूप परिणामवाले होते हैं । प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों को तो निदान आर्तध्यान को छोड़कर शेष तीन आर्तध्यान प्रमाद के उदय की तीव्रता के Jain Education Intemational Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय.......{231} कारण क्वचित् ही होते हैं। (ब) रौद्रध्यान : पूज्यपाद देवनन्दी ने तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका के नवें अध्याय के पैतीसवें सूत्र में रौद्रध्यान की व्याख्या करके कौन से गुणस्थानवी जीवों को रौद्रध्यान होता है, इस बात की चर्चा की है । ___ हिंसा, असत्य, चोरी और विषय सेवन के लिए असद् चिंतन करना रौद्रध्यान कहलाता है। रौद्रध्यान मिथ्यादृष्टि से लेकर देशविरत गुणस्थानवर्ती तक के जीवों को होता है । स्वयं पूज्यपाद देवनन्दी ही शंका करते है कि अविरतसम्यग्दृष्टि को तो रौद्रध्यान हो सकता है, परन्तु देशविरत को कैसे हो सकता है ? इस शंका का समाधान करते हुए कहते हैं कि हिंसादि के आवेश से अथवा वित्तादि के संरक्षण के कारण कदाचित् देशविरत को भी रौद्रध्यान हो सकता है, किन्तु देशविरत को होनेवाला रौद्रध्यान नरक आदि दुर्गतियों का कारण नहीं बनता है, क्योंकि सम्यग्दर्शन की ऐसी ही सामर्थ्यता है, परन्तु संयत को तो रौद्रध्यान होता ही नहीं है, क्योंकि इसका आरम्भ होने पर जीव संयम से पतित हो जाता है । निदान की अपेक्षा से संयमी में जो रौद्र या आर्तध्यान माना गया है, वह मात्र द्रव्य संयमी की दृष्टि से ही समझना चाहिए। (स) धर्मध्यान : सर्वार्थसिद्धि के नवें अध्याय के छत्तीसवें सत्र की टीका में धर्मध्यान की व्याख्या की गई है। धर्मध्यान के चार प्रकार होते हैं । संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होने के लिए या विरक्त होने पर उस भाव को स्थिर बनाए रखने के लिए सम्यग्दृष्टि का जो प्रणिधान होता है, उसे धर्मध्यान कहते हैं। उसके निम्न चार प्रकार हैं - (१) आज्ञाविचय धर्मध्यान (२) अपायविचय धर्मध्यान (३) विपाकविचय धर्मध्यान और (४) संस्थानविचय धर्मध्यान । आज्ञाविचय धर्मध्यान तत्वनिष्ठा में सहायक होता है। अपायविचय धर्मध्यान संसार, शरीर और भोगों से विरक्ति उत्पन्न करता है । विपाकविचय धर्मध्यान से कर्मफल और उस सम्बन्धित कारणों की विचित्रता का ज्ञान दृढ़ होता है । संस्थानविचय धर्मध्यान से लोकस्वरूप का ज्ञान दृढ़ होता है । इन चारों प्रकार के धर्मध्यान अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों में होते हैं। (द) शुक्लध्यान : पूज्यपाद देवनन्दी की तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि नामक टीका में नवें अध्याय के अड़तीसवें सूत्र की टीका के अनुसार सूक्ष्मक्रियापतिपाती और व्युपरतक्रियानिवृत्ति-ये दो शुक्ल ध्यान, जिनका समस्त ज्ञानावरण का नाश हो जाता है, ऐसे सयोगी केवली और अयोगी केवली गुणस्थानवी जीवों को होते हैं । मिथ्यात्वमोह का उदय और उदीरणा दोनों ही मिथ्यात्व गुणस्थान में होती है । इतना विशेष है कि सम्यक्त्व के अभिमुख जीव को अन्तिम आवलि काल शेष रहने पर मिथ्यात्व की उदीरणा नहीं होती है, मात्र उदय ही होता है। जातिचतुष्क, आतपनामकर्म, स्थावरनामकर्म, सूक्ष्मनामकर्म, पर्याप्तनामकर्म और साधारणनामकर्म-इन नौ कर्मप्रकृतियों का उदय और उदीरणा मिथ्यात्व गुणस्थान में ही होती है, आगे के गुणस्थानों में नहीं होती है । अनन्तानुबन्धी चतुष्क का उदय और उदीरणा भी मिथ्यात्व गुणस्थान में ही होती है, अग्रिम गुणस्थानों में नहीं होती है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्र मोहनीय) का उदय और उदीरणा तीसरे गुणस्थान में ही होती है, अन्य किसी भी गुणस्थान में नहीं होती है । अप्रत्याख्यान चतुष्क, नरकगति, देवगति, वैक्रियद्विक, दुर्भगनामकर्म, अनादेयनामकर्म और अयशःकीर्ति नामकर्म-इन ग्यारह कर्मप्रकृतियों का उदय और उदीरणा चतुर्थ गुणस्थान तक ही होती है, अग्रिम गुणस्थानों में नहीं होती है। नरकायु ओर Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... चतुर्थ अध्याय........{232} देवायु का उदय और उदीरणा भी चतुर्थ गुणस्थान तक ही होती है, आगे के गुणस्थानों में नहीं । मरण के समय अन्तिम आवलि काल में देवायु और नरकायु का उदय और उदीरणा नहीं होती है । चार आनुपूर्वियों का उदय और उदीरणा प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ गुणस्थान में होती है, अन्य किसी गुणस्थान में नहीं होती है । प्रत्याख्यानावरण चतुष्क, तिर्यंचगति, उद्योतनामकर्म और नीचगोत्र-इन सात कर्मप्रकृतियों का उदय और उदीरणा संयतासंयत गुणस्थान तक होती है, आगे के गुणस्थान में नहीं होती है। तिर्यंच आयुष्य का उदय और उदीरणा पांचवें गुणस्थान तक ही होती है, किन्तु मरण के समय अन्तिम आवलि काल के शेष रहने पर उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है । निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, सातावेदनीय और असातावेदनीय इन पांचों कर्मप्रकृतियों की उदीरणा छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती है, आगे के गुणस्थानों में नहीं होती है । निद्रा-निद्रा आदि तीन की उदीरणा जिसने इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण कर ली है, वही करता है । ऐसा जीव यदि उत्तर शरीर की विकुर्वना करता है अथवा आहारक समुद्घात करता है, तो इन्हें करने के एक आवलिकाल पूर्व से लेकर मूल शरीर में प्रवेश होने तक इन तीन की उदीरणा नहीं होती है तथा देव, नारकी और भोगभूमियाँ जीव भी इन तीन की उदीरणा नहीं करते। आहारकद्विक का उदय और उदीरणा प्रमत्तसंयत गुणस्थान में ही होती है, अन्य किसी भी गुणस्थान में नहीं । मनुष्य आयुष्य की उदीरणा छठे गुणस्थान तक तथा उदय चौदहवें गुणस्थान तक होता है । मरण के समय अन्तिम आवलिकाल शेष रहने पर उदीरणा नहीं होती है । सम्यक्त्वमोह का उदय और उदीरणा चौथे से सातवें गुणस्थान तक वेदक सम्यग्दृष्टि को होती है । कृतकृत्य वेदक के काल में और उपशम सम्यक्त्व के उत्पत्तिकाल में एक आवलि शेष रहने पर उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है । अन्तिम तीन संघयण की उदीरणा और उदय सातवें गुणस्थान तक ही होता है । हास्यादिषट्क का उदय और उदीरणा आठवें गुणस्थान तक ही होती है । विशेष यह है कि तिर्यच, मनुष्य एवं देव योनि में उत्पत्ति समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक हास्य और रति की उदीरणा नियम से होती है । आगे भजनीय है तथा नारकी के उत्पत्ति समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक अरति और शोक की उदीरणा नियम से होती है, इनका उदय नवे गुणस्थान के उपान्त्य भाग तक ही होता है । विशेष यह है कि जो जिस वेद के उदय से श्रेणी चढ़ता है, उसके प्रथम स्थिति में एक आवलि काल शेष रहने पर उदीरणा नहीं होती है। संज्वलन लोभ का उदय और उदीरणा दसवें गुणस्थान तक होती है । दसवें गुणस्थान के अन्तिम आवलि काल शेष रहने पर उदय होता है, उदीरणा नहीं होती है । वज्रऋषभनाराच और नाराच संघयण का उदय और उदीरणा ग्यारहवें गुणस्थान तक तथा निद्रा और प्रचला का उदय और उदीरणा दोनों बारहवें गुणस्थान में एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहने पर होती है। बारहवें गुणस्थान के उपान्त्य समय तक इन दोनों का उदय ही होता है । पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अन्तराय इन चौदह प्रकृतियों का उदय तो बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक होता है और उदीरणा बारहवें गुणस्थान में एक आवलि काल शेष रहने तक होती है । मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिक, तैजस और कार्मण शरीर, छः संस्थान, औदारिक आंगोपांग, वज्रऋषभनाराच संघयण, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुनामकर्म, उपघातनामकर्म, उच्छ्वास नामकर्म, दोनों विहायोगति, त्रसनामकर्म, बादरनामकर्म, पर्याप्तनामकर्म, प्रत्येक शरीर नामकर्म, स्थिरनामकर्म, अस्थिरंनामकर्म, शुभनामकर्म, अशुभनामकर्म, सुभगनामकर्म, सुस्वरनामकर्म, दुःस्वरनामकर्म, आदेयनामकर्म, यशःकीर्तिनामकर्म, निर्माणनामकर्म और उच्चगोत्र-इन अड़तीस कर्मप्रकृतियों का उदय और उदीरणा तेरहवें गुणस्थान तक ही होती है । आगे चौदहवें गुणस्थान में इनकी उदीरणा नहीं होती है। तीर्थंकर नामकर्म का उदय और उदीरणा तेरहवें गुणस्थान में ही होती है। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... चतुर्थ अध्याय........{233} सर्वार्थसिद्धि में विभिन्न गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एवं जघन्य स्थितिबन्ध : पूज्यपाद देवनन्दी ने सर्वार्थसिद्धि टीका में आठवें अध्याय के सत्रहवें सूत्र और बीसवें सूत्र की हिन्दी व्याख्या के अनुसार आयुष्यकर्म की स्थिति तेंतीस सागरोपम की है । इस उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का स्वामी मिथ्यादृष्टि होता है, क्योंकि मिध्यादृष्टि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव के उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम होने के कारण वह नरक आयुष्य का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है, इससे यह नहीं समझना चाहिए कि अन्य गुणस्थानों में आयुकर्म का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध नहीं होता है । बीसवें सूत्र के विशेषार्थ में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, आयुष्य और अन्तराय कर्मों का जघन्य स्थितिबन्ध सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में होता है । मोहनीय कर्म का जघन्य स्थितिबन्ध अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान में और आयुष्य कर्म की जघन्य स्थिति का बन्ध संख्यात वर्ष की आयुवाले तिर्यंचों और मनुष्यों को होता है । आठवें अध्याय के तेईसवें सूत्र के विशेषार्थ में निर्जरा की चर्चा करते हुए यह बताया गया अनुभावबन्ध अलग-अलग है । प्रकृतिबन्ध सकषाय होता है और अनुभावबन्ध मात्र योग निमित्त होता है। तेरहवें गुणस्थान में योग प्रक्रिया होती है, अतः वहाँ मात्र सातावेदनीय का बन्ध हो सकता है । इस प्रकार हम देखते है कि सर्वार्थसिद्धि का हिन्दी अनुवाद करते हुए विशेषार्थ में गुणस्थानों के सम्बन्ध में वे प्रश्न भी उठाए हैं, जो मूल में अनुपस्थित रहे है । कि प्रकृतिबन्ध और ग्यारहवें, बारहवे और सर्वार्थसिद्धि के अनुसार केवलज्ञान एवं मोक्ष की प्राप्ति में कर्मक्षय की चर्चा : पूज्यपाद देवनन्दी ने तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि नामक टीका में दसवें अध्याय के प्रथम सूत्र में केवलज्ञान की उत्पत्ति कैसे होती है, यह बताया है । मोह कर्म का क्षय होने पर ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म का क्षय हो जाने से केवलज्ञान होता है । मोह का क्षय कर अन्तर्मुहूर्त काल तक क्षीणकषाय गुणस्थान को प्राप्त कर ज्ञानावरण, दर्शनावरण, और अन्तराय का एक साथ क्षय कर आत्मा केवलज्ञान को प्राप्त करती है । परिणामों की विशुद्धि में वृद्धि को प्राप्त होती हुई असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासयंत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत- इन चार गुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थान में दर्शन सप्तक अर्थात् अनन्तानुबन्ध 'चतुष्क, मिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक्त्वमोह का क्षय कर क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर क्षपक श्रेणी आरोहण करने के लिए सन्मुख होकर, अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में अधःप्रवृत्तकरण को प्राप्त कर अपूर्वकरण के द्वारा अपूर्वकरण गुणस्थान को प्राप्त कर, वहाँ नूतन परिणामों की विशुद्धि से अनिवृत्तिकरण के द्वारा अनिवृत्तिबादरसंपराय क्षपक गुणस्थान को प्राप्त कर, वहाँ पर आठ कषायों का क्षय कर तथा नंपुसकवेद और स्त्रीवेद का क्रम से क्षय कर छः नोकषायों का पुरुषवेद में संक्रमण द्वारा क्षय कर पुरुषवेद का संज्वलन क्रोध में, संज्वलन क्रोध का संज्वलन मान संज्वलन मान का संज्वलन माया में और संज्वलन माया का संज्वलन लोभ में क्रम से बादर कृष्टि विभाग के द्वारा संक्रमण कर तथा संज्वलन लोभ को कृश कर सूक्ष्मसंपराय क्षपक गुणस्थान प्राप्त कर, मोहनीय की अठाईस प्रकृतियों का क्षय कर क्षीणकषाय गुणस्थान प्राप्त कर, उपान्त्य समय में निद्रा और प्रचला का क्षय करके अन्तिम समय में पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तराय कर्मों का क्षय कर केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त करती है । इसी दसवें अध्याय के द्वितीय सूत्र की व्याख्या में यह स्पष्ट किया गया है कि बन्धहेतुओं के अभाव से नूतन कर्मों के आश्रव का अभाव हो जाता है और निर्जरा से में अर्जित कर्मों का क्षय हो जाता है, अन्त में आयुष्य कर्म के समान शेष कर्मों की स्थिति को कर लेने पर आयुष्य का क्षय होते ही उसका मोक्ष हो जाता है 1 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{234} कर्म का अभाव दो प्रकार से होता है - यत्नसाध्य और अयत्नसाध्य । इनमें चरमशरीरी अर्थात् उसी भव में मोक्ष प्राप्त करनेवाले जीव को नारक, तिर्यंच और देव आयुष्य का अभाव अयत्न साध्य होता है, क्योंकि चरमशरीरी को उनकी सत्ता प्राप्त नहीं होती है । अब यत्नसाध्य अभाव (क्षय) बता रहे हैं। असंयतसम्यग्दृष्टि आदि चौथे से सातवें तक चार गुणस्थानों में से किसी एक गुणस्थान में सात प्रकृतियाँ (दर्शन सप्तक) का क्षय करता है । पुनः अग्रिम आठवें गुणस्थान में क्षपकश्रेणी में आरुढ़ हो नवम गुणस्थान में निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, नरकगति, तिर्यंचगति, जातिचतुष्क, नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, आतपनामकर्म, उद्योतनामकर्म, स्थावरनामकर्म, सूक्ष्मनामकर्म और साधारणनामकर्म-इन सोलह कर्मप्रकृतियों का क्षय करता है । इसके पश्चात् उसी नवें अनिवृत्तिबादर गुणस्थान में सत्ता में रही हुई अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण-इन आठ कषायों का क्षय कर, नपुंसकवेद, और स्त्रीवेद का क्रम से क्षय करता है, फिर छः नोकषायों का एक ही झटके में क्षय कर देता है । तदन्तर पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध, संज्वलन मान और संज्वलन माया का क्रम से अत्यन्त क्षय करता है । संज्वलन लोभ का सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थान के अन्त में क्षय करता है, इसके पश्चात् सीधा बारहवें गुणस्थान में प्रवेश करता है । निद्रा और प्रचला का क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ नामक बारहवें गुणस्थान के उपान्त्य समय में क्षय होता है । पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तराय कर्मों का भी बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में क्षय हो जाता है । कोई एक वेदनीय, देवगति, औदारिकद्विक, वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, तैजसशरीर, कार्मणशरीर, पाँच बन्धन, पाँच संघातन, छः संस्थान, पाँच प्रशस्तवर्ण, पाँच अप्रशस्तवर्ण, दो गन्ध, पाँच प्रशस्त रस, पाँच अप्रशस्त रस, आठ स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघुनामकर्म, उपघातनामकर्म, पराघातनामकर्म, उच्छ्वासनामकर्म, विहायोगतिद्विक, अपर्याप्तनामकर्म, प्रत्येकशरीरनामकर्म, स्थिरनामकर्म, अस्थिरनामकर्म, शुभनामकर्म, अशुभनामकर्म, दुर्भगनामकर्म, दुःस्वरनामकर्म, अनादेयनामकर्म, अयशःकीर्तिनामकर्म, निर्माणनामकर्म, और नीचगोत्र - इन बहत्तर कर्म प्रकृतियों का तेरहवें सयोगी केवली गुणस्थान के उपान्त्य समय में क्षय होता है । शेष कोई एक वेदनीय, मनुष्य आयुष्य, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, त्रसनामकर्म, बादरनामकर्म, पर्याप्तनामकर्म, सुभगनामकर्म, आदेयनामकर्म, यशःकीर्तिनामकर्म, तीर्थंकर नामकर्म और उच्च गोत्र - इन तेरह कर्मप्रकृतियों का चौदहवें अयोगी केवली गुणस्थान के अन्तिम समय में क्षय होता है । ज्ञातव्य है कि पूज्यपाद देवनन्दी ने दसवें अध्याय में केवलज्ञान और मोक्ष की अपेक्षा से दो बार गुणस्थानों के सन्दर्भ में कर्मप्रकृतियों के क्षय की चर्चा की है । सर्वार्थसिद्धि की टीका में दस गुणश्रेणियाँ : पूज्यपाद देवनन्दी ने सर्वार्थसिद्धि टीका में तत्त्वार्थसूत्र में प्रतिपादित कर्म निर्जरा के आधार पर आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाओं की चर्चा की है (१) सम्यग्दृष्टि (२) श्रावक (३) विरत (४) अनन्तानुबन्धी वियोजक (५) दर्शनमोह क्षपक (६) उपशमक (७) उपशान्तमोह (८) क्षपक (E) क्षीणमोह और (१०) जिन । डॉ. सागरमल जैन आदि कुछ विद्वान इन्हे गुणस्थान सिद्धान्त का मूल स्रोत मानते हैं। __अतः यह विचारणीय है कि इन दस अवस्थाओं का गुणस्थान सिद्धान्त से कहाँ तक सम्बन्ध है ? गुणस्थान सिद्धान्त की चौदह अवस्थाओं में से मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि का यहाँ कोई उल्लेख नहीं है । प्रथम सम्यग्दृष्टि अवस्था औपशमिक सम्यग्दृष्टि के समान है । द्वितीय श्रावक अवस्था पांचवाँ देशविरति गुणस्थान और तृतीय विरत छठे संयत गुणस्थान के समान है, क्योंकि इस अवस्था में क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए यथाप्रवृत्तिकरण आदि तीन करण करता है, किन्तु इसकी पांचवीं अवस्था दर्शनमोह क्षपक की तुलना अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान से नहीं की जा सकती । क्षपक और क्षीणमोह-इन दो अवस्थाओं में क्षपक का गुणस्थान सिद्धान्त में कोई उल्लेख नहीं मिलता है । यद्यपि क्षीणमोह, बारहवें क्षीणमोह Jain Education Intemational Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{235} गुणस्थान के समान ही है । दसवीं जिन अवस्था सयोगी केवली गुणस्थान के समान है । गुणस्थान सिद्धान्त में उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी को जो आ णस्थान से समानान्तर माना जाता है, इस बात का इन दस अवस्थाओं में अभाव है । वस्तुतः इन दस अवस्थाओं में उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी को अलग न मानकर उपशम के बाद ही क्षपक श्रेणी प्रारम्भ होती है, ऐसा माना गया है । सम्यग्दृष्टि, श्रावक और विरत ये तीनों अवस्थाएं औपशमिक सम्यग्दर्शन और व्यवहार चारित्र की सूचक है। हम इन्हें दर्शनमोह उपशमक और दर्शनमोह उपशान्त की अवस्था कह सकते हैं । अनन्तवियोजक और दर्शनमोह क्षपक को क्षायिक सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति और दर्शनमोह के क्षीण होने की अवस्था कह सकते हैं । अग्रिम चार अवस्थाएं चारित्रमोह के उपशम और क्षय की सूचक हैं । कषाय-उपशान्त, कषाय-उपशमक, कषाय-क्षपक, और क्षीणमोह - इन चारों अवस्थाओं का सम्बन्ध अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क को छोड़कर अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन कषाय और नोकषायों के पहले उपशम फिर क्षय से है । इनका स्पष्ट और अलग-अलग उल्लेख होने से यह विदित होता है कि आत्म विकास की चर्चा में पहले उपशमश्रेणी से कर्मों का उपशम कर और फिर क्षपक श्रेणी से क्षय की चर्चा की गई है। इन दस अवस्थाओं का ही विकसित रूप गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा है । इन अवस्थाओं को श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में गुणश्रेणी के नाम से जाना जाता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि पंचसंग्रह की टीका में उपशमक को उपशमश्रेणी के वें से लेकर ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थान का धारक माना गया है । इसी प्रकार क्षपक को क्षपकश्रेणी के ८ वें अपूर्वकरण गुणस्थान से लेकर १० वें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक और बारहवें क्षीणकषाय गुणस्थान का धारक माना गया है। गस्थान सिद्धान्त के सन्दर्भ में सवार्थसिद्धि टीका के इस समग्र अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सवार्थसिद्धिकार पूज्यपाद देवनन्दी के समक्ष गुणस्थानों की स्पष्ट अवधारणा उपस्थित थी । यही कारण है कि उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के आठवें सूत्र में न केवल गुणस्थानों का उल्लेख किया है, अपितु सत्संख्या आदि आठ अनुयोगद्वारों और चौदह मार्गणाओं के सन्दर्भ में गुणस्थानों का विस्तृत विवेचन भी किया है । इसी प्रकार दूसरे अध्याय के छठे सूत्र में लेश्याओं की चर्चा करते हुए यह बताया है कि उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगी केवली गुणस्थानों में जो शुक्ललेश्या का सद्भाव माना गया है, वह किस अपेक्षा विशेष से है ? पुनः अध्याय आठवें के सूत्र एक, सत्रह और बीस में बन्धहेतु, उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एवं जघन्य स्थितिबन्ध की चर्चा करते हुए गुणस्थानों का उल्लेख किया है । विशेष रूप से इस चर्चा में यह बताया गया है कि मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-ये पांच बन्ध के हेतु है, उनमें से किस गुणस्थान में कितने बन्धहेतु रहते हैं और कितने बन्धहेतुओं का विच्छेद हो जाता है । संक्षिप्त में कहे तो मिथ्यात्व गुणस्थान में पांचों बन्धहेतु रहते हैं, सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक मिथ्यात्व का अभाव होकर शेष चार बन्धहेतु रहते हैं । संयतासंयत में भी अविरति की अपेक्षा से चार और आंशिक विरति की अपेक्षा से तीन और सामान्यतः चार बन्धहेतु रहते हैं । प्रमत्तसंयत गुणस्थान में तीन ही बन्धहेतु रहते हैं । आगे अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक कषाय और योग-दो बन्धहेतु रहते हैं, परन्तु उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगीकेवली में योग नामक एक ही बन्धहेतु रहता है । अयोगीकेवली गुणस्थान में कोई भी बन्ध हेतु नहीं रहता है । इसके आगे नवें अध्याय के सूत्र एक, दस, चौतीस, पैंतीस, छत्तीस, अड़तीस और पैंतालीस (१, १०, ३४, ३५, ३६, ३८ और ४५)-ऐसे सात सूत्रों में गुणस्थान सम्बन्धी निर्देश प्राप्त होते हैं। सूत्र एक में यह बताया गया है कि किस गुणस्थान में किन कर्मप्रकृतियों का संवर या बन्ध-विच्छेद होता है। साथ ही यहाँ आचार्य पूज्यपाद देवनन्दी ने चौदह गुणस्थानों के स्वरूप का भी सुंदर ढंग से विवेचन किया है । नवें अध्याय के दसवें सूत्र में परिषहों की चर्चा करते हुए यह बताया है कि किस ternational For Private & Personal use only www.jainelibrary Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{236} - गुणस्थान में कितने परिषह सम्भव होते हैं। आगे सूत्र संख्या ३४, ३५, ३६ एवं ३८ में क्रमशः आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान की चर्चा है, किन्तु ध्यान की इस चर्चा में यह भी उल्लेख किया गया है कि किस गुणस्थान में किन ध्यानों की सम्भावना होती है । नवें अध्याय के ४५ वें सूत्र में मुख्य रूप से निर्जरा की चर्चा की गई है । यद्यपि यहाँ गुणस्थानों का स्पष्ट उल्लेख न तो मूलसूत्र में है और न ही है और न ही पूज्यपाद देवनन्दी की टीका में है, किन्तु निर्जरा की अपेक्षा से जिन दस अवस्थाओं की चर्चा है, उनमें अधिकांश अवस्थाएं गुणस्थान की अवधारणा के साथ मेल खाती है । विशेष रूप से सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, उपशान्तमोह, क्षीणमोह और जिन (सयोगीकेवली)-इन छः अवस्थाओं का यहाँ स्पष्ट निर्देश है। इसके अतिरिक्त अप्रमत्तसंयत के स्थान पर अनन्तवियोजक, ऐसा उल्लेख हुआ है। यद्यपि यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि पूज्यपाद देवनन्दी ने इस सूत्र की व्याख्या में कहीं भी गुणस्थानों की चर्चा नहीं की है। पुनः दसवें अध्याय के सूत्र एक और दो में अविरतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत (श्रावक), प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत-ऐसे चार गुणस्थानों का स्पष्टतया उल्लेख किया है। मात्र इतना ही नहीं इसके आगे अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसम्पराय, सूक्ष्मसम्पराय, क्षीणकषाय और सयोगीकेवली अवस्थाओं का भी उल्लेख है और यह भी बताया है कि जीव किन गुणस्थानों में किन-किन कर्मप्रकृतियों का क्षय करता हुआ अपनी आत्मविशुद्धि करता है । पुनः इसी अध्याय के दूसरे सूत्र की टीका में किस गुणस्थान में कितनी कर्मप्रकृतियों का क्षय हो जाता है, इसका भी स्पष्ट विवरण हमें उपलब्ध होता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि पूज्यपाद देवनन्दी ने अध्याय एक, दो, आठ, नौ और दस - ऐसे पांच अध्यायों की टीका में गुणस्थान सिद्धान्त का विवेचन प्रस्तुत किया है । अतः स्पष्ट रूप से यह माना जा सकता है कि सवार्थसिद्धि के कर्ता पूज्यपाद देवनन्दी के समक्ष चौदह गुणस्थानों की अवधारणा उपस्थित थी। तत्त्वार्थसूत्र की श्वेताम्बर, दिगम्बर जो भी उपलब्ध टीकाएं हैं, उसमें उमास्वाति के स्वोपज्ञभाष्य को छोड़कर सवार्थसिद्धि ही प्राचीन है। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि गुणस्थान सिद्धान्त का एक संतुलित विवेचन सर्वप्रथम पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका में ही मिलता है, किन्तु उनके द्वारा प्रस्तुत इस विवरण से यह भी ज्ञात होता है कि उनके समय में गुणस्थान सिद्धान्त अपने विकसित रूप में उपस्थित रहा है । पूज्यपाद देवनन्दी ने तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में मार्गणाओं के सन्दर्भ में गुणस्थानों की चर्चा करते हुए यह कहा है कि प्रमत्तसंयत से लेकर अनिवृत्तिबादर गुणस्थान तक स्त्रीवेद और नपुंसकवेदवाले जीव संख्यात होते हैं । यहाँ यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है कि क्या उस स्त्री पर्याय में प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों की प्राप्ति सम्भव है, जो परम्परा स्त्री में यथार्थ रूप से पंच महाव्रतों की उपस्थापना को ही सम्भव न मानती हो और स्त्री को उपचार से महाव्रत मानती हो, उसमें स्त्री में प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिबादरसम्पराय गुणस्थान कैसे सम्भव होंगे ? यदि हम स्त्री में इन चारों गुणस्थानों की सम्भावना को स्वीकार करें तो फिर उसकी मुक्ति मानने में कौन-सी बाधा आएगी ? यद्यपि इस प्रश्न के उत्तर में दिगम्बर परम्परा के द्वारा यह तर्क किया जा सकता है कि हम इन गुणस्थानों की स्त्रीवेद (स्त्रैण कामवासना) की संभावना मानते हैं, स्त्रीलिंग रूप स्त्री पर्याय की नहीं; तो अगला प्रश्न यह खड़ा होगा कि क्या पुरुष पर्याय में स्त्रीवेद और स्त्रीपर्याय में पुरुषवेद का उदय सम्भव है ? यदि उसकी संभावना को स्वीकार करते हैं, तो यह बात शरीर विज्ञान एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टि से असंगत सिद्ध होती है। तब तो वेदोदय लिंग अर्थात् शरीर पर्याय के अभाव में सम्भव मानना होगा । ऐसा मानने पर एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों में भी, जो स्वरूपतः नपुंसक माने गए हैं, पुरुषवेद और स्त्रीवेद का उदय मानना होगा, किन्तु यह बात सिद्धान्त के विरुद्ध जाती है । प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादर गुणस्थान तक तीनों वेदों की सत्ता पाई जाती है, लेकिन यह बात उन लोगों के विरोध में जाती है, जो स्त्री मुक्ति (तद्जन्य वासना) स्वीकार नहीं करते हैं । लिंग और वेद अन्योन्याश्रित हैं, Jain Education Intemational ducation International Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{237} उसमें भी यह विशेषता है कि वेद के अभाव में लिंग (शरीर पर्याय) रह सकता है, किन्तु लिंग के अभाव में वेदोदय (कामवासना) सम्भव नहीं है। अतः पूज्यपाद देवनंदी का उपर्युक्त कथन एक पुर्नचिन्तन की अपेक्षा रखता है । सर्वार्थसिद्धि में कुछ प्रसंगों में दिगम्बर परम्परा से विरोध देखा जाता है, जिसका उल्लेख स्वयं पंडित फूलचन्दजी सिद्धान्त शास्त्री ने किया है । क्या पूज्यपाद देवनन्दी यापनीय नन्दीगण से सम्बन्धित तो नहीं रहे हैं; जो स्त्री मुक्ति मानता था। पूज्यपाद देवनन्दी ने तत्त्वार्थसूत्र का जो मूलपाठ गृहीत किया है, वह यापनीय परम्परा से किया है; ऐसी सम्भावना डॉ. सागरमल जैन ने अभिव्यक्त की है । अतः इस पर गहराई से पुनर्विचार अपेक्षित है । तत्त्वार्थसूत्र की राजवार्तिक टीका में गुणस्थान अकलंकदेव राजवार्तिक टीका का सामान्य परिचय : जैन परम्परा में तत्त्वार्थसूत्र एक ऐसा ग्रन्थ है जिसे श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय-तीनों परम्पराएं कुछ पाठान्तर के साथ स्वीकार करती है । तत्त्वार्थसूत्र के स्वोपज्ञभाष्य को छोड़कर, श्वेताम्बर और दिगम्बर-दोनों ही परम्पराओं में उस पर लिखी गई टीकाओं में, गुणस्थान सिद्धान्त का विवरण हमें उपलब्ध होता है । दिगम्बर परम्परा में तत्त्वार्थसूत्र की पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका के पश्चात् आचार्य अकलंकदेव की तत्त्वार्थवार्तिक नामक टीका का क्रम आता है । यह स्पष्ट है कि आचार्य अकलंकदेव जैन परम्परा के एक समर्थ विद्वान रहे हैं । जैन न्याय के क्षेत्र में आचार्य अकलंकदेव का योगदान अति महत्वपूर्ण है। आचार्य अकलंकदेव की रचनाएं दो भागों में विभक्त की जा सकती है । प्रथम भाग में वे रचनाएं आती हैं, जो उन्होंने अपने पूर्वजों के ग्रन्थों की टीका के रूप में लिखीं, इनके अन्तर्गत तत्त्वार्थवार्तिक और अष्टशती ये मुख्य ग्रन्थ आते हैं । दूसरे प्रकार की रचनाओं में प्रमाणशास्त्र पर उनके द्वारा स्वतन्त्र रूप से लिखित ग्रन्थ आते हैं। इनके अन्तर्गत सभाष्य, लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय और प्रमाण संग्रह आदि प्रमुख हैं। अकलंकदेव के ये सभी ग्रन्थ उनकी तार्किक मनीषा को स्पष्ट करते हैं । ये अपने काल के एक समर्थ दार्शनिक विद्वान हैं। आचार्य अकलंकदेव के काल को लेकर विद्वानों में मतभेद है। अकलंक-चरित्र में जो श्लोक इस सम्बन्ध में प्रचलित है, वह इस प्रकार है विक्रमार्कशकाब्दीय शत-सप्त-प्रमाजुषि । कालेऽकलङ्कयतिनो, बौद्धेवादो महानभूत ।। इस श्लोक के कारण ही उनके काल को लेकर भ्रान्ति उत्पन्न होती है, क्योंकि श्लोक के प्रारम्भ में विक्रमार्क शकाब्दीय-ऐसा उल्लेख है । विक्रमार्क शब्द को प्रमुख मानने पर उनका काल विक्रम संवत् ७०० मानना होगा, किन्तु यदि हम शकाब्दीय शब्द पर ध्यान दें, तो उससे ऐसा प्रतीत होता है कि उनका सत्ता काल शक संवत् ७०० होगा। इस आधार पर उन्हें विक्रम संवत् ८३५ के लगभग का विद्वान मानना होगा। डॉ.हीरालालजी और पंडित कैलाशचन्द्रजी शास्त्री धवलाटीका एवं हरीभद्रसूरि के ग्रन्थों में उनके उल्लेख के आधार पर विद्वान उन्हें विक्रम संवत् ७०० का मानते हैं, किन्तु कुछ विद्वान शकाब्दीय के स्पष्ट उल्लेख के आधार पर उनका काल विक्रम संवत् ८३५ लेते हैं । स्थिति जो भी हो, यह स्पष्ट है कि अकलंकदेव का काल लगभग ईसा की आठवीं शताब्दी रहा है । यह स्पष्ट है कि आचार्य अकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक में अनेक स्थलों पर पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि का उपयोग किया है, किन्तु जहाँ तक गुणस्थान सिद्धान्त की विवेचना का प्रश्न है, यह स्पष्ट है कि पूज्यपाद देवनन्दी Jain Education Intemational Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ चतुर्थ अध्याय ........{238} ने गुणस्थान सिद्धान्त का विस्तृत विवेचन सर्वार्थसिद्धि टीका के प्रथम अध्याय के आठवें सूत्र की व्याख्या में किया है, वही आचार्य अकलंकदेव ने मुख्य रूप से तत्त्वार्थसूत्र के चौथे, छठे और नवें अध्याय में ही गुणस्थान की अवधारणा का विवेचन किया है । आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि पूज्यपाद देवनन्दी ने सर्वार्थसिद्धि में गुणस्थान सिद्धान्त का आठ अनुयोगद्वारों और चौदह मार्गणाओं को लेकर जो विस्तृत विवेचन किया है, उतना विस्तृत विवेचन अकलंक के तत्त्वार्थराजवार्तिक में उपलब्ध नहीं है । दूसरे यह भी एक आश्चर्यजनक बात है कि जहाँ तत्त्वार्थसूत्र के ६ वें अध्याय के ४५ वें सूत्र में आत्म-विशुद्धि की दस अवस्थाओं श्रेणियों को लेकर गुणस्थानों की जो विवेचना होना चाहिए थी, वहीं पर कोई भी आचार्य गुणस्थानों का उल्लेख नहीं करता है । वहाँ न तो तत्त्वार्थसूत्र की पूज्यपाद देवनन्दी की टीका में गुणस्थानों का कोई उल्लेख मिलता है और न अकलंकदेव के तत्त्वार्थवार्तिक में ही, जब कि मूलसूत्र में गुणस्थानों से सम्बन्धित अनेक नाम उपलब्ध हैं । यदि हम सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक में जिन-जिन स्थानों पर गुणस्थानों का विवेचन हुआ है, उनकी तुलना करें तो ऐसा लगता है कि जहाँ तत्त्वार्थवार्तिक में जिन-जिन स्थानों पर गुणस्थानों का विवेचन हुआ है वे तो कुछ प्रासंगिक लगते हैं, वहीं सर्वार्थसिद्धि टीका के प्रथम अध्याय गुणस्थान सिद्धान्त की जो चर्चा है, उसे देखकर ऐसा लगता है कि गुणस्थानों सम्बन्धी यह विवेचन निरूद्देश्य है । उसकी यहाँ प्रासंगिकता सिद्ध नहीं होती है । दूसरे यह कि सर्वार्थसिद्धि में गुणस्थानों के विवेचन में जो विस्तार है, वैसा विस्तार तत्त्वार्थवार्तिक में नहीं है, जब कि होना यह चाहिए था कि तत्त्वार्थवार्तिक के परवर्ती ग्रन्थ होने के कारण उसे अधिक विस्तार से इसकी चर्चा करनी चाहिए थी । पुनः यह भी प्रश्न उत्पन्न होता कि यदि अकलंकदेव ने अपनी तत्त्वार्थवार्तिक की टीका में पूज्यपाद देवनन्दी का अनुसरण किया तो उन्होंने प्रथम अध्याय के सत्संख्या आदि की टीका में गुणस्थानों का निर्देश क्यों नहीं किया ? इसके कारण विद्वानों के मन 'यह शंका उपस्थित होती है कि सर्वार्थसिद्धि में यह विवेचन बाद में तो नहीं डाला गया हो । यद्यपि सर्वार्थसिद्धि की जो भी उपलब्ध पाण्डुलिपि है अथवा उसके जो भी प्रकाशित संस्करण हैं, वे सभी प्रथम अध्याय के सत्संख्यादि सूत्र की टीका में भी गुणस्थानों का विवेचन करते हैं, अतः इस शंका के लिए कोई प्रामाणिक आधार प्रस्तुत नहीं किया जा सकता । एक तार्किक सम्भावना के अतिरिक्त इसका अन्य कोई महत्व नही है। आगे हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि आचार्य अकलंकदेव ने तत्त्वार्थराजवार्तिक में कहाँ-कहाँ, किस-किस रूप में गुणस्थान सिद्धान्त का उल्लेख किया है । वार्तिक टीका में मार्गणाओं के सन्दर्भ में गुणस्थानों का विवेचन मार्गणाओं में जीवस्थान : तत्त्वार्थवार्तिककार अकलंकदेव ने अपने इस टीका ग्रन्थ में मार्गणाओं के सन्दर्भ में चौदह जीवस्थानों और चौदह गुणस्थानों का निरूपण किया है। गुणस्थानों में जीवस्थान तो होते ही हैं, अतः यहाँ प्रथम जीवस्थानों की चर्चा की जाती है । तिर्यंचगति में चौदह ही जीवस्थान होते हैं । मनुष्यगति, नरकगति और देवगति में संज्ञी पर्याप्त और असंज्ञी अपर्याप्त-दो ही जीवस्थान होते हैं। एकेन्द्रियजाति में सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त ये चार जीवस्थान ही होते हैं। विकलेन्द्रिय में अपने-अपने पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो जीवस्थान तथा पंचेन्द्रियों में संज्ञी पर्याप्त, संज्ञी अपर्याप्त, असंज्ञी पर्याप्त और असंज्ञी अपर्याप्त ये चार जीवस्थान होते हैं । पृथ्वीकाय, अप्काय, अग्निकाय और वायुकाय में सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त तथा अपर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त तथा अपर्याप्त ये चार जीवस्थान होते हैं । वनस्पतिकाय में अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय और अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय-ये चार जीवस्थान होते हैं । अकलंकदेव ने वनस्पतिकाय में छः जीवस्थान बताए हैं, ये किस दृष्टि से कहे हैं, स्पष्ट नहीं है । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय......{239) त्रसकाय में तीनों विकलेन्द्रियों के पर्याप्त और अपर्याप्त-ऐसे छः भेद, असंज्ञी पंचेन्द्रिय के पर्याप्त और अपर्याप्त, संज्ञी पंचेन्द्रिय के पर्याप्त और अपर्याप्त-ये चार, इस प्रकार दस जीवस्थान होते हैं । मनोयोग में एक संज्ञी पर्याप्त जीवस्थान होता है। वचनयोग में तीनों पर्याप्त विकलेन्द्रिय, पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय और पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय-ये पांच जीवस्थान होते हैं । काययोग में चौदह जीवस्थान होते हैं । स्त्रीवेद और पुरुषवेद में पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय, पर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय, अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय, अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय-ये चार जीवस्थान होते हैं । नपुंसकवेद में चौदह जीवस्थान होते हैं । अवेद में अर्थात् वेदरहित जीवों में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान होता है । चारों कषायों में चौदह ही जीवस्थान और अकषाय अर्थात् कषायरहित जीवों में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान होता है । मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान में चौदह जीवस्थान; विभंगज्ञान और मनःपर्यवज्ञान में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त नामक एक ही जीवस्थान; मति-ज्ञान, श्रुतज्ञान तथा अवधिज्ञान में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त-ये दो जीवस्थान तथा केवलज्ञान में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त नामक एक ही जीवस्थान होता है । सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय तथा यथाख्यात में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त नामक एक ही जीवस्थान होता है । असंयत में चौदह ही जीवस्थान होते हैं । अचक्षुदर्शनो में चौदह, चक्षुदर्शन में चतुरिन्द्रिय पर्याप्त, संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त, असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त-ये तीन जीवस्थान होते हैं । अवधिदर्शन में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त-ये दो जीवस्थान होते हैं । कृष्ण, नील, कापोत प्रथम की तीन लेश्या में चौदह जीवस्थान; तेजो, पद्म, शुक्ललेश्या में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त-दो ही जीवस्थान होते हैं। लेश्यारहित जीवों में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त नामक एक ही जीवस्थान होता है । भव्य जीवों और अभव्य जीवों में चौदह जीवस्थान होते हैं । औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और सास्वादन सम्यक्त्व में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान और मिथ्यात्व में चौदह ही जीवस्थान होते हैं। संज्ञी में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त-ये दो जीवस्थान और अंसज्ञी में शेष बारह जीवस्थान होते हैं। संज्ञी-असंज्ञी व्यवहार से रहित जीवों में पर्याप्त पंचेन्द्रिय नामक एक जीवस्थान होता है । आहार मार्गणा में चौदह ही जीवस्थान होते हैं । अनाहार मार्गणा में सातों अपर्याप्त तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त-ऐसे आठ जीवस्थान होते हैं। मार्गणाओं में गुणस्थान : ___ नरकगति में पर्याप्त नारकी में प्रथम के चार गुणस्थान होते हैं । प्रथम नरक में अपर्याप्त को पहला और चौथा गुणस्थान तथा अन्य पृथ्वियों में अपर्याप्त में एक मिथ्यात्व गुणस्थान होता है । तिर्यंचगति में पर्याप्त को प्रथम के पांच गुणस्थान, अपर्याप्त को मिथ्यादृष्टि, सासादन और असंयतसम्यग्दृष्टि-ये तीन गुणस्थान होते हैं । पर्याप्त तिर्यंची में प्रथम के पांच गुणस्थान और अपर्याप्त तिर्यची में मिथ्यादृष्टि और सासादन-ये दो गुणस्थान होते हैं । स्त्रीतिर्यंच में सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होती है, अतः अपर्याप्तदशा में सम्यग्दृष्टि गुणस्थान नहीं होता है । मनुष्यगति में पर्याप्त मनुष्यों में चौदह ही गुणस्थान होते हैं तथा अपर्याप्त मनुष्यों में मिथ्यादृष्टि, सासादन और असंयतसम्यग्दृष्टि-ये तीन गुणस्थान होते हैं । पर्याप्त मनुष्य, स्त्री में भावलिंग की अपेक्षा चौदह गुणस्थान होते हैं । यहाँ यह प्रश्न उठता है कि भाव क्या स्त्रीलिंग होता है ? लिंग तो द्रव्य होता है और यदि वेद अपेक्षा भावलिंग माने तो स्त्रीवेद का उदय तो दसवें के प्रारम्भ तक ही है, फिर उसमें चौदह गुणस्थान कैसे होंगे? द्रव्यलिंग की अपेक्षा तो प्रथम के पांच गुणस्थान होते हैं। अपर्याप्त स्त्री में मिथ्यात्व और सासादन-ये दो गुणस्थान होते हैं, क्योंकि सम्यग्दृष्टि स्त्री पर्याय में उत्पन्न ही नहीं होता है। अपर्याप्त तिर्यंच और मनुष्य में एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है । देवगति में पर्याप्त भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में प्रथम के चार गुणस्थान, किन्तु अपर्याप्त में मिथ्यादृष्टि और सास्वादन गुणस्थान-ये दो गुणस्थान ही होते हैं। इनकी देवियों और सौधर्म एवं ईशान देवलोक की देवियों में भी अपर्याप्तदशा में मिथ्यात्व और सास्वादनसम्यक्त्व गुणस्थान ही होते हैं । सौधर्म-ईशान आदि से अन्तिम ग्रैवेयक तक के पर्याप्त दशा में, देवी में प्रथम के चार Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय.......{240} गुणस्थान होते हैं । अनुदिश, अनुत्तरवासी पर्याप्त और अपर्याप्त में एक असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान ही होता है । एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय में एक ही मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है । संज्ञी पंचेन्द्रिय में चौदह ही गुणस्थान होते हैं । पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय पर्यन्त, स्थावरकाय में एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है । त्रसकाय में चौदह गुणस्थान होते हैं। सत्य मनोयोग और अनुमय मनोयोग में संज्ञी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगी केवली गुणस्थान तक तेरह गुणस्थान होते हैं । सत्य मनोयोग और उभय मनोयोग में संज्ञी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक बारह गुणस्थान होते हैं । अनुभय वचनयोग में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक तेरह गुणस्थान होते हैं । सत्य वचनयोग में संज्ञी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगी केवली गुणस्थान पर्यन्त तेरह गुणस्थान, मृषा वचनयोग और उभय वचनयोग में संज्ञी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से क्षीणकषाय गुणस्थान तक बारह गुणस्थान होते हैं । औदारिक मिश्र काययोग में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, असंयतसम्यगदृष्टि गुणस्थान और सयोगी केवली गुणस्थान-ये चार गुणस्थान होते हैं । वैक्रिय काययोग में प्रथम चार गुणस्थान, वैक्रिय मिश्र काययोग में मिश्र गुणस्थान को छोड़कर शेष तीन ही गुणस्थान होते हैं। आहारक और आहारकमिश्र काययोग में एक प्रमत्तसंयत गुणस्थान ही होता है । कार्मण काययोग में पहला, दूसरा, चौथा और तेरहवाँ गणस्थान होता है। अयोग में एक अयोगी केवली गुणस्थान होता है । स्त्रीवेद और पुरुषवेद में असंज्ञी पंचेन्द्रिय में मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादरसम्पराय तक नौ गुणस्थान होते हैं । नपुंसकवेद में नारकी में चार गुणस्थान, एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के प्राणियों में मात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है । असंज्ञी पंचेन्द्रिय आदि संयतासंयत गुणस्थानवर्ती तिर्यच तीनों वेदवाले होते हैं । मनुष्य में तीनों वेदों में अनिवृत्तिबादर गुणस्थान तक नौ गुणस्थान होते हैं । इसके आगे मनुष्य अपगतवेदी होते हैं । देव चारों गुणस्थानों में स्त्रीवेद और पुरुषवेदवाले होते हैं । क्रोध, मान, माया कषाय में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादर गुणस्थान तक नौ गुणस्थान तथा लोभकषाय में उपर्युक्त नौ और सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान-ऐसे दस गुणस्थान होते हैं । इससे आगे के गुणस्थानों में जीव कषाय रहित होते हैं । मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान में मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यगदृष्टि गुणस्थान होते हैं । विभंगज्ञान में मिथ्यादृष्टि या सासादनसम्यग्दृष्टि पर्याप्त ही होते हैं, अपर्याप्त नहीं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि अज्ञान में होता है, क्योंकि कारण सदृश कार्य होता है । मति, श्रुत और अवधिज्ञान में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय तक के आठ गुणस्थान, मनःपर्यवज्ञान में प्रमत्तसयंत से लेकर क्षीणकषाय तक सात गुणस्थान तथा केवलज्ञान में सयोगी केवली गुणस्थान और अयोगी केवली गुणस्थान होते हैं। सामायिक तथा छेदोपस्थापनीय चारित्र में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादरसम्पराय गुणस्थान तक चार गुणस्थान, परिहारविशुद्धि में प्रमत्तसंयत गुणस्थान और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान, सूक्ष्मसंपराय में सूक्ष्मसंपराय, यथाख्यात में उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, सयोगीकेवली गुणस्थान और अयोगीकेवली गुणस्थान-ये चार गुणस्थान होते हैं । सयंमासंयम में एक संयतासंयत गुणस्थान होता है । असंयम में प्रथम के चार गुणस्थान होते हैं । चक्षुदर्शन में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर बारहवें क्षीणमोह तक बारह गुणस्थान, अचक्षुदर्शन में मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय तक बारह गुणस्थान, अवधिदर्शन में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक और केवलदर्शन में सयोगी केवली तथा अयोगी केवली-ये दो गुणस्थान होते है । प्रथम की तीन लेश्याओं में प्रथम के चार गुणस्थान, तेजो तथा पद्मलेश्या में संज्ञी जीवों को प्रथम के आठ गुणस्थान, शुक्ललेश्या में संज्ञी प्राणियों में प्रथम के तेरह गुणस्थान होते हैं। अयोगी केवली गुणस्थान अलेशी होता है। भव्यों में चौदह गुणस्थान तथा अभव्यों में एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है । क्षायिकसम्यक्त्व में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगी केवली गुणस्थान तक, वेदक सम्यक्त्व में चौथे से आठवें तक पांच गुणस्थान, औपशमिक सम्यक्त्व में चौथे से ग्यारहवें गुणस्थान, सासादनसम्यक्त्व में सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान और मिथ्यात्व में एक अपना-अपना गुणस्थान होता है । नरक में प्रथम पृथ्वी में क्षायिक, वेदक और औपशमिक सम्यग्दृष्टि तथा अन्य पृथ्वी में वेदक Jain Education Intemational Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{241} और औपशमिक सम्यग्दृष्टि होते हैं । तिर्यंच में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिक, वेदक और औपशमिक- ये तीन सम्यक्त्व होते हैं । संयतासंयत गुणस्थान में क्षायिक के अतिरिक्त शेष दो सम्यक्त्व हैं, क्योंकि क्षायिकसम्यक्त्व के साथ पूर्वबद्ध तिर्यंचायुवाले प्राणी भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं । कर्मभूमि के तिर्यंच में क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता, क्योंकि क्षपणा को आरम्भ करनेवाला पुरुष वेदवाला मनुष्य ही होता है । मनुष्यों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, संयतासंयत गुणस्थान और प्रमत्तसंयत गुणस्थान में क्षायिक, वेदक और औपशमिक सम्यक्त्व- ये तीनों सम्यक्त्व होते हैं । भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषीदेव और उनकी देवियों में तथा सौधर्म एवं ईशान कल्पवासिनी देवियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिक सम्यक्त्व नही होता है, वेदक और औपशमिक सम्यक्त्व होते हैं । सौधर्म देवलोक से लेकर ग्रैवेयक तक क्षायिक, वेदक और औपशमिक सम्यक्त्व होते हैं । अनुदिश और अनुत्तरविमानवासी देवों में क्षायिक और वेदक सम्यक्त्व होते हैं । औपशमिक भी उपशम श्रेणी में मरनेवालों की अपेक्षा हो सकता है । संज्ञी मार्गणा में संज्ञी जीव मिथ्याग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक होते हैं । असंज्ञी मार्गणा में एकेन्द्रिय आदि से असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक के जीव होते हैं, इनमें मात्र मिथ्यात्व गुणस्थान होता है । सयोगी केवली गुणस्थान तथा अयोगी केवली गुणस्थान- ये दो गुणस्थान ऐसे होते हैं, जिनमें संज्ञी - असंज्ञी का व्यवहार नहीं है । आहार मार्गणा में एकेन्द्रिय आदि से लेकर सयोगी केवली गुणस्थान पर्यन्त तथा अनाहार में विग्रहगति में मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, प्रतर और लोकपूरण अवस्था में सयोगी केवली गुणस्थान और अयोगी केवली गुणस्थान- ये पांच गुणस्थान होते हैं । ध्यानों में गुणस्थान : तत्त्वार्थसूत्र की तत्त्वार्थवार्तिक टीका में अकलंकदेव ने नवें अध्याय के सैंतीसवें सूत्र में धर्मध्यान के चार प्रकार बताए हैं । आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय । सर्वज्ञ प्रणीत आगम को प्रमाण मानकर पदार्थों के स्वरूप का निश्चय कर उन पर श्रद्धा न करना आज्ञाविचय धर्मध्यान है । मिथ्यादर्शन से जिनके ज्ञान नेत्र अंधकार से आच्छादित हो रहे हैं, सर्वज्ञ प्रणीत आज्ञा से विमुख मोक्षार्थी सम्यक् पथ का ज्ञान न होने से सन्मार्ग दूर से ही भटक जाते हैं, इस प्रकार सन्मार्ग के अपाय का विचार करना - चिन्तन करना अपायविचय धर्मध्यान है । प्राणी पापकारी वचन और पापकारी वासनाओं से किस प्रकार निवृत्त होकर सुपथगामी बनें, इसप्रकार अपायचिन्तन अपायविचय धर्मध्यान है । ज्ञानावरणीय आदि आठों कर्मों के फल का विचार करना विपाकविचय धर्मध्यान है । लोक के स्वभाव, संस्थान तथा द्वीप, नदी आदि के स्वरूप का विचार करना संस्थानविचय धर्मध्यान है । विपाकविचय धर्मध्यान में आचार्य अकलंकदेव ने विभिन्न गुणस्थानों में कर्मों के उदय उदीरणा का वर्णन किया है । मिथ्यात्व-मोहनीय, एकेन्द्रियजाति, विकलेन्द्रियजाति, आतपनामकर्म, स्थावरनामकर्म, सूक्ष्मनामकर्म, अपर्याप्त नामकर्म और साधारण नामकर्म-इन दस प्रकृतियों का प्रथम गुणस्थान में उदय रहता है । अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क का पहले और दूसरे गुणस्थान में उदय रहता है । मिश्रमोहनीय का उदय तीसरे गुणस्थान में होता है, अन्य गुणस्थानों में नहीं होता है । अप्रत्याख्यानीय चतुष्क, नरकायु, देवायु, नरकगति, देवगति, वैक्रियशरीर, वैक्रिय अंगोपांग, चारों आनुपूर्वी, दुर्भगनामकर्म, अनादेयनामकर्म और अयशकीर्तिनामकर्म-इन सत्रह प्रकृतियों का उदय पहले से चौथे गुणस्थान तक ही रहता है । चारों आनुपूर्वी का उदय मिश्र गुणस्थान में नहीं होता है । प्रत्याख्यानीय चतुष्क, तिर्यंचगति, तिर्यंच आयुष्य, उद्योतनामकर्म और नीचगोत्र- इन आठ कर्म प्रकृतियों का उदय देशविरति गुणस्थान तक रहता है। थीणद्धित्रिक कर्मप्रकृतियों का उदय आहारक शरीर की निवृत्ति न करनेवाले प्रमत्तसंयत को होता है । आहारकद्विक का उदय अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में ही होता है, अन्य किसी भी गुणस्थान में नहीं होता है। सम्यक्त्व मोहनीय का उदय असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक रहता है । अर्धनाराच, कीलिका Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.... चतुर्थ अध्याय........{242} और सेवार्त्त संहनन-इन तीन प्रकृतियों का उदय अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होता है, आगे के गुणस्थान में नहीं होता है । हास्यषट्क की छः प्रकृतियों का उदय मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान के चरम समय तक रहता है । वेदत्रिक और संज्वलन क्रोध, मान, माया का उदय प्रथम गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादरसम्पराय गुणस्थान तक रहता है । इनका उदयविच्छेद अनिवृत्तिबादरसम्पराय गुणस्थान के सात भागों में से एक-एक भाग में क्रमशः होता है। संज्वलन लोभ का उदय सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान तक होता है । वज्रऋषभनाराच संघयण तथा नाराच संघयण का उदय उपशान्तमोह गुणस्थान तक होता है। निद्रा और प्रचला का उदय क्षीणमोह गुणस्थान तक अन्तिम समय तक रहता है। पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तराय का उदय क्षीणमोह गुणस्थान के चरम समय तक होता है । कोई एक वेदनीय, औदारिक शरीर नामकर्म, तैजस शरीर नामकर्म, कार्मणशरीर नामकर्म, छःसंस्थान, औदारिक अंगोपांग नामकर्म, वज्रऋषभनाराच संघयण, वर्ण नामकर्म, गन्ध नामकर्म, रस नामकर्म, स्पर्श नामकर्म, अगुरुलघु नामकर्म, उपघात नामकर्म, स्थिर नामकर्म, अस्थिर नामकर्म, शुभ नामकर्म, अशुभ नामकर्म, सुस्वर नामकर्म, दुःस्वर नामकर्म और निर्माण नामकर्म-इन तीस प्रकृतियों का उदय सयोगी केवली गुणस्थान के चरम समय तक है । कोई एक वेदनीय, मनुष्यद्विक, पंचेन्द्रियजाति, वसनामकर्म, बादर नामकर्म, पर्याप्त नामकर्म, सुभगनामकर्म, आदेयनामकर्म, यशकीर्ति नामकर्म और उच्चगोत्र-इन ग्यारह प्रकृतियों का उदय अयोगी केवली गुणस्थान के चरम समय तक रहता है । तीर्थकर नामकर्म का उदय सयोगी केवली गुणस्थान में और अयोगी केवली गुणस्थान में रहता है । अन्य किसी गुणस्थान में नहीं होता है । इसप्रकार गुणस्थानों में आठों कर्म की एक सौ अट्ठावन कर्मप्रकृतियों का उदय बताया गया है। गुणस्थानों में उदीरणाविचार : कर्म का उदयकाल परिपक्व न हुआ हो, फिर भी उस कर्म को उदयावलिका में लाकर उसका भोग करना, उदीरणा कहलाती है । मिथ्यात्व मोहनीय की उदीरणा उपशम सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टि के चरमावलि को छोड़कर अन्यत्र होती है । एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति और चतुरिन्द्रियजाति, आतप नामकर्म, स्थावर नामकर्म, सूक्ष्म नामकर्म, अपर्याप्त नामकर्म और साधारण नामकर्म-इन नौ प्रकृतियों की उदीरणा मिथ्यात्व गुणस्थान में होती है । अनन्तानुबन्धी चतुष्क की उदीरणा मिथ्यात्व गुणस्थान तथा सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में होती है। मिश्र मोहनीय की उदीरणा मिश्र गुणस्थान में होती है, अन्य गुणस्थानों में नहीं होती है । अप्रत्याख्यानीय चतुष्क, नरकगति, देवगति, वैक्रियद्विक, दुर्भग नामकर्म, अनादेय नामकर्म और अयशः कीर्तिनामकर्म-इन ग्यारह प्रकृतियों की उदीरणा, प्रथम गुणस्थान से चौथे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होती है । नरकायु और देवायु की मरणकाल में चरमावली को छोड़कर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होती है, अन्य किसी गुणस्थान में नहीं होती है । चारों आनुपूर्वी की उदीरणा मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में विग्रहगति करते समय होती है । प्रत्याख्यानीय चतुष्क, तिर्यंचगति, उद्योतनाम और नीचगोत्र-इन सात प्रकृतियों की उदीरणा देशविरति गुणस्थान तक होती है । थीणाद्धित्रिक, शाता-अशाता वेदनीय की उदीरणा प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक ही होती है। आहारक शरीरवालों में,चरमावली में उदीरणा नहीं होती है। आहारकद्विक की उदीरणा प्रमत्तसंयत में ही होती है। मनुष्यायु की उदीरणा मरणकाल में चरमावलि को छोड़कर मिश्र गुणस्थान के अलावा प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती है । वेदक सम्यक्त्व की उदीरणा असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती है । अर्धनाराच, कीलिका और सेवार्त संहनन की उदीरणा अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती है । हास्यषट्क की छः प्रकृतियों की उदीरणा अपूर्वकरण गुणस्थान के चरम समय तक होती है। तीन वेद और संज्वलन क्रोध, मान और माया की उदीरणा अनिवृत्तिबादर संपराय गुणस्थान तक होती है। उसके छः भागों में, प्रत्येक में, एक-एक उदीरणा का विच्छेद होता है । सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान की चरमावली को छोड़कर, शेष प्रथम से लेकर दसवें गुणस्थानवी जीवों के संज्वलन लोभ की उदीरणा होती है । ऋषभनाराच संघयण तथा नाराच संघयण की Jain Education Intemational Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{243} उदीरणा उपशान्तमोह गुणस्थान में ही होती है । क्षीणमोह गुणस्थान की एक समय अधिक चरमावलि को छोड़कर क्षीणकषाय गुणस्थानवी जीवों को निद्रा और प्रचला की उदीरणा होती है। पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पांच अन्तराय की उदीरणा चरमावलि रहित क्षीणकषाय गुणस्थानवी जीवों को होती है। मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तेजस शरीर, कार्मणशरीर, छः संस्थान, औदारिक अंगोपांग, ऋषभनाराच संघयण, वर्ण नामकर्म, गन्ध नामकर्म, रस नामकर्म, स्पर्श नामकर्म, अगुरुलघु नामकर्म, उपघात नामकर्म, उच्छ्वास नामकर्म, विहायोगतिद्विक, त्रसनामकर्म, बादरनामकर्म, पर्याप्त नामकर्म, प्रत्येक शरीर, स्थिर नामकर्म, अस्थिर नामकर्म, शुभ नामकर्म, अशुभ नामकर्म, सुस्वर नामकर्म, दुःस्वर नामकर्म, आदेय नामकर्म, यशः कीर्तिनामकर्म, निर्माण नामकर्म और उच्चगोत्र-इन अड़तीस कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सयोगी केवली गुणस्थानवर्ती जीव को चरम समय तक होती है । तीर्थंकर नामकर्म की प्रकृतियों की उदीरणा सयोगी केवली गुणस्थान में होती है । अयोगी केवली गुणस्थानवी जीव अनुदीरक होता है । चार गतियों में गुणस्थानों का अवतरण : तत्त्वार्थवार्तिककार अकलंकदेव ने तत्त्वार्थसूत्र के चौथे अध्याय के २१ वें सूत्र की टीका में, देवगति में उत्पन्न होनेवाले जीवों की चर्चा के प्रसंग में मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्दृष्टि और श्रावक-इन चार गुणस्थानों का नाम निर्देश किया है। यहाँ चर्चा का मुख्य विवेच्य विषय तो यह है कि किस गुणस्थानवर्ती संज्ञी तिर्यंच और मनुष्य, किस देवलोक में उत्पन्न होते हैं । इसी चर्चा में यह बताया गया है कि मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती संज्ञी तिर्यंच सहस्रार स्वर्ग तक उत्पन्न हो सकता है, जबकि सम्यग्दृष्टि तिर्यंच अच्युत देवलोक पर्यन्त किसी भी देवलोक में उत्पन्न हो सकता है । इसी क्रम में आगे यह भी बताया है कि मिथ्यादृष्टि तथा सासादन गुणस्थानवी मनुष्य असंख्यात वर्ष की आयुवाले तिर्यंच और अन्य लिंगी तापस आदि ज्योतिष्क देवों तक उत्पन्न हो सकते हैं, किन्तु यदि ये ही सम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती हो तो सौधर्म और इशान स्वर्ग तक उत्पन्न हो सकते हैं । संख्यात वर्ष की आयुवाले मनुष्य, यदि वे मिथ्यादृष्टि अथवा सासादन गुणस्थानवर्ती हैं, तो भवनपति से लेकर उपरिम ग्रैवेयक तक उत्पन्न हो सकते हैं । मिथ्यादृष्टि संज्ञी मनुष्य, यदि वह निग्रंथ लिंग को धारण करता है और उत्कृष्ट तप करता है, तो वह भी अन्तिम ग्रैवेयक तक उत्पन्न हो सकता है, किन्तु इसके आगे अनुत्तर विमान में तो सिर्फ सम्यग्दृष्टि मनुष्य ही उत्पन्न हो सकते हैं । इसी चर्चा के प्रसंग में यह भी बताया गया है कि मिथ्यादृष्टि या सासादन गुणस्थानवर्ती तपस्वी परिव्राजक ब्रह्म स्वर्ग तक, आजीवक सहस्रार स्वर्ग तक तथा व्रतधारी श्रावक अच्युत स्वर्ग तक उत्पन्न हो सकता है । यहाँ एक प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जहाँ मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों को जब ग्रैवेयक तक उत्पन्न होने की संभावना को स्वीकार किया गया है, तो फिर व्रतधारी श्रावक का अच्युत स्वर्ग पर्यन्त ही उत्पात क्यों माना गया है ? हमारी दृष्टि में यहाँ अकलंकदेव का तात्पर्य यह हो सकता है कि मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी मनुष्य यदि निग्रंथ लिंगो को धारण करके तप आदि करता है, तो उस लिंग के कारण ग्रैवेयक तक उत्पन्न हो सकता है । चूँकि इन गुणस्थानों में रहा हुआ व्रतधारी श्रावक निग्रंथ लिंग को धारण नहीं करता, अतः उसका उत्पात अच्युत स्वर्ग तक ही माना गया है । इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ आचार्य अकलंकदेव ने मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि और विरताविरतसम्यग्दृष्टि-ऐसे पांच गुणस्थानों में से मिश्र गुणस्थान को छोड़कर शेष चार का उल्लेख किया है । चूंकि मिश्र गुणस्थान में मृत्यु की संभावना ही नहीं है, अतः देवगति के सन्दर्भ में उसकी चर्चा यहाँ अपेक्षित नहीं थी, इसीलिए नहीं की गई है । इससे इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि तत्त्वार्थसूत्र की वार्तिक नामक यह टीका लिखते समय आचार्य अकलंकदेव गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा से सुपरिचित थे । आगे छठे एवं नवें अध्याय में भी उन्होंने विविध गुणस्थानों, कर्मों के आश्रव, संवर, उदय, उदीरणा आदि जो चर्चा की है, उससे भी यह बात पुष्ट होती है। Jain Education Intemational Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ तत्त्वार्थराज वार्तिक में गुणस्थान में कर्म प्रकृतियों के आसव का विवेचन : तत्त्वार्थसूत्र की तत्त्वार्थवार्तिक नामक टीका में अकलंकदेव ने छठें अध्याय के चौथे सूत्र में आस्रव की व्याख्या करते हुए, कौन-से गुणस्थान में, कितने कर्मों का आस्रव होता है, इस बात का निर्देश किया है। आस्रव के अनन्त भेद हैं, परन्तु यहाँ अकलंकदेव ने जीव (स्वामी) की अपेक्षा आस्रव के दो भेद बताए हैं । साम्परायिक आस्रव और ईर्यापथ-आस्रव । गुणस्थान की अपेक्षा जीव के, सकषाय जीव और अकषाय जीव- ऐसे दो भेद बताए गए हैं । कषायसहित जीवों को साम्परायिक-आस्रव होता है और कषायरहित जीवों को ईर्यापथ-आस्रव होता है, जिससे संसारभाव की वृद्धि होती है, इसे कषाय कहते हैं । क्रोधादि चार कषाय कहलाते हैं । सम्पराय, संसार का पर्यायवाची नाम है। जो कर्म संसार के प्रायोजक है और जो कर्म कषायजनित है, उनके आस्रव को साम्परायिक-आस्रव कहा जाता है । ईर्या की व्युत्पत्ति 'ईरणं' होगी । ईर्या अर्थात् योगगति, जो कर्म योग अर्थात् मानसिक, वाचिक एवं कायिक प्रवृत्तियों के निमित्त आते हैं; उनका आस्रव ईर्यापथ-आस्रव कहलाता है । कषायसहित जीवों को साम्परायिक आस्रव और कषायरहित जीवों को ईर्यापथ-आस्रव होता है । प्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक जीव को कषाय रहता है । कषाय के कारण जो कर्म आते हैं तथा वे तेलादि से लिप्त कपड़े पर पड़ी धूल की तरह आत्मप्रदेशों से चिपक जाते हैं, इसमें स्थितिबन्ध होता है; अतः कषाय-भाव के निमित्त कर्म वर्गणाओं का आना साम्परायिक- आस्रव है । उपशान्तमोह गुणस्थान, क्षीणमोह गुणस्थान और सयोगी केवली गुणस्थानवर्ती जीवों को कषाय नहीं होता, मात्र योग होते हैं। योग के कारण जो कर्म आता है वह, जिस प्रकार • शुष्क कपड़े पर लगी हुई धूल शीघ्र ही निर्जरित हो जाती है, उनका स्थितिबन्ध नहीं होता, ऐसा कषायरहित मात्र योग के निमित्त से होने वाला आसव ईर्यापथिक- आस्रव होता है । तत्त्वार्थ सूत्र की तत्त्वार्थवार्तिक नामक टीका के कर्ता अकलंकदेव ने तत्त्वार्थसूत्र के नवें अध्याय के दसवें सूत्र के वार्तिक (टीका) में कौन-से गुणस्थान में कितने परिषह होते हैं, इस बात का उल्लेख किया है। जो सहन किया जाता है, वह परिषह कहलाता है । प्रश्न यह है कि परिषह विजेता बनने से जीव को क्या लाभ होता है ? कर्म के आस्रव द्वार को रोकनेवाले जिनेन्द्र प्रोक्त मार्ग से व्यक्तिच्युत न हो जाए, इसीलिए परिषह पर विजय पाई जाती है। परिषह पर विजय पानेवाली आत्मा, क्षपक श्रेणी पर चढ़ने के सामर्थ्य को प्राप्त कर उत्तरोत्तर उत्साह को बढ़ाती हुई, सम्पूर्ण कषायों की बन्धक बनानेवाली शक्ति को नष्ट कर कर्मों की जड़ को काटकर, वैसे ही मुक्ति को प्राप्त कर लेती है, जैसे पक्षी पंखों पर जमी हुई धूल को झाड़कर मुक्त गगन में ऊपर उड़ जाते हैं अतः कर्मों के संवर और निर्जरा के लिए परिषहों को सहन करना चाहिए । चतुर्थ अध्याय........{244} तत्त्वार्थवार्तिककार ने बताया है कि दसवें, ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में चौदह परिषह होते हैं। मोहनीय कर्म का उदय-विच्छेद हो जाने से इन तीन गुणस्थानों में मोहनीय सम्बन्धी आठ परिषह नहीं होते हैं । दसवें में संज्वलन लोभ का उदय होता है, परन्तु अत्यन्त सूक्ष्म होने से उसका कोई फल नहीं होता है, उसका मात्र सद्भाव ही है, उसी कारण से उपशान्तकषायछद्मस्थवीतराग गुणस्थान और क्षीणकषायछद्मस्थवीतराग गुणस्थान की तरह सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान में भी चौदह परिषह होते हैं और जिन भगवान अर्थात् सयोगी केवली और अयोगी केवली गुणस्थान में ग्यारह परिषह होते हैं । प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के बादरसम्पराय अर्थात् कषाय के निमित्तों के विद्यमान रहने से इन थानों में सभी परिषह होते हैं । तत्त्वार्थराजवार्तिक में संवर के स्वरूप विवेचन में गुणस्थानों का अवतरण : आचार्य अकलंकदेव ने तत्त्वार्थसूत्र की तत्त्वार्थवार्तिक नामक टीका में नवें अध्याय के प्रथम सूत्र की टीका करते हुए संवर Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... चतुर्थ अध्याय.......{245} के स्वरूप का विशेष परिज्ञान कराने के उद्देश्य से चौदह गुणस्थानों का विवेचन किया है। यहाँ उन्होंने सर्वप्रथम चौदह गुणस्थानों के नामों का निर्देश किया है। वे इस प्रकार हैं १. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान २. सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान ३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ४. असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान ५. संयतासंयत गुणस्थान ६. प्रमत्तसंयत गुणस्थान ७. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान ८. अपूर्वकरण उपशमक-क्षपक गुणस्थान ६. अनिवृत्तिबादर उपशमक-क्षपक गुणस्थान १०. सूक्ष्मसंपराय उपशमक-क्षपक गुणस्थान ११. उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान १२. क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान १३. सयोगी केवली गुणस्थान और १४. अयोगी केवली गुणस्थान। इन नामों के निर्देश के पश्चात् उन्होंने उपर्युक्त चौदह गुणस्थानों के स्वरूप का विवेचन किया है, जो इस प्रकार है - १. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान : __ जिस व्यक्ति को मिथ्यादर्शन अथवा मिश्रमोह का उदय हो, वह मिथ्यादृष्टि है । इसके कारण जीवों का तत्त्वार्थ श्रद्धान नहीं होता है, साथ ही ज्ञानावरण के क्षयोपशम से होनेवाले तीनों ज्ञान भी मिथ्याज्ञान माने जाते हैं । यहाँ आचार्य अकलंकदेव ने यह स्पष्ट किया है कि मिथ्यादृष्टि जीव भी मुख्यतया दो प्रकार के होते हैं । प्रथम वे, जिनमें अपने हिताहित को समझने की शक्ति नहीं होती । दूसरे वे, जो अपने हिताहित को समझने की शक्ति रखते हैं । एकेन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव अपने हिताहित को समझने में असमर्थ होते हैं, जबकि पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में अपने हिताहित को समझने की विकल्प से शक्ति होती है, अर्थात् कुछ संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव अपने हिताहित को समझते हैं और उनमें कुछ ऐसे भी होते हैं, जिनमें अपने हिताहित की समझ नहीं होती। अपने हिताहित का अभाव ही मिथ्यादर्शन है । मिथ्यात्वमोह का उदय होने के कारण ये जीव, पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव होते हुए भी अपने हिताहित के विवेक से रहित होते हैं । व्यक्ति में अपने हिताहित को समझने का अभाव ही मिथ्यादर्शन है। २. सासादनसम्यग्दृष्टि : जिन जीवों को मिथ्यात्वमोह का उदय नहीं होने पर भी अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क का उदय बना रहता है, वे सासादनसम्यग्दृष्टि कहे जाते हैं । यहाँ, यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क का उदय होने पर जीव सम्यक्त्व से पतित होता है, किन्तु सम्यक्त्व से पतित होकर भी जब तक उसमें मिथ्यात्व का उदय नहीं होता तब तक सासादनसम्यग्दृष्टि कहा जाता है । यह गुणस्थान, सर्वप्रथम सम्यक्त्व को प्राप्त करके, फिर उससे पतित होने की अवस्था में ही प्राप्त होता है । मिथ्यात्व से सम्यक्त्व की ओर जीव किस प्रकार से आगे बढ़ता है, उस विकास यात्रा के तीन करण ये हैं - यथाप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण । गुणस्थान सिद्धान्त में हम इन तीनों करणों को किसी सीमा तक सातवें, आठवें और नवें गुणस्थान के समतुल्य कह सकते हैं । आचार्य अकलंकदेव लिखते हैं कि अनादि मिथ्यादृष्टि भव्य जीव में मोहनीय कर्म की २६ प्रकृतियों की सत्ता रहती है, क्योंकि अनादि मिथ्यादृष्टि जीव ने अभी तक सम्यक्त्व का स्पर्श नहीं किया है, इसीलिए उसे मात्र दर्शनमोह से ही युक्त माना गया है। उसमें सम्यक्त्वमोह और मिश्रमोह का अभाव रहता है, जबकि सारे मिथ्यादृष्टि जीव अर्थात जिसने एक बार सम्यक्त्व का स्पर्श कर लिया है, ऐसे जीव में विकल्प से मोहनीय कर्म की २६, २७ और २८ प्रकृतियों की सत्ता सम्भव होती है । जब कोई मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होता है, तब वह अनन्तगुणी आत्मविशुद्धि करते हुए शुभ परिणामों से युक्त होता है । उस समय वह चार मनोयोगों में से एक मनोयोग, चार वचनयोगों में से एक वचनयोग और औदारिक एवं वैक्रिय काययोगों में से कोई भी एक काययोग प्राप्त होता है । साथ ही उसकी कषाय भी हीन हो जाती है । यद्यपि यह सम्भव है कि चारों कषायों में से एक कषाय अत्यन्त हीन हो । इसी प्रकार वह साकारोपयोग, तीनों वेदों में से एक वेद से युक्त होता है । वह संक्लेश रहित होकर वर्धमान शुभ परिणामों के द्वारा अशुभ कर्मप्रकृतियों के अनुभाग एवं Jain Education Intemational Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{246} स्थिति को कम करता हुआ, शुभ कर्मप्रकृतियों के अनुभाग या इसमें वृद्धि करता हुआ, वह तीन करण करता है । वे तीन करण इसप्रकार हैं - यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण । इन तीनों ही करणों का काल अन्तर्मुहूर्त माना गया है। काल लब्धि पकने पर जब मिथ्यात्वमोह के कर्म दलिकों की स्थिति अन्तः कोटाकोटी सागरोपम जितनी रह जाती है, तब वह यथाप्रवृत्तकरण करता है। यथाप्रवृत्तकरण करते हुए, प्रथम समय में जीव की विशुद्धि अल्प होती है, किन्तु द्वितीय समय में उसकी अपेक्षा अनन्तगुणी आत्मविशुद्धि, तृतीय समय में उसकी अपेक्षा अनन्तानन्तगुणी आत्मविशुद्धि होती है । इस प्रकार क्रमशः आत्मविशुद्धि के परिणाम होने से वह उस दिशा में आगे बढ़ता जाता है और दूसरा अपूर्वकरण करता है । इसे अपूर्वकरण इसीलिए कहा जाता है कि आत्मविशुद्धि के परिणामस्वरूप वह जिस प्रकार की शान्ति का अनुभव करता है, वैसी शान्ति उस जीव ने कभी पूर्व में प्राप्त नहीं की है, इसीलिए यह अवस्था अपूर्वकरण कही जाती है । अपूर्वकरण के पश्चात् साधक अनिवृत्तिकरण करता है। अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में अपूर्वकरण की अपेक्षा आत्मविशुद्धि अधिक होती है। जहाँ समकाल में अपूर्वकरण करनेवाले साधकों की प्रतिसमय आत्म विशुद्धि बढ़ती जाती है, किन्तु फिर भी समकाल में अपूर्वकरण करनेवाले साधकों में आत्मविशुद्धि सम्बन्धी परिणाम एकरूप नहीं होते, जबकि अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के समकाल में अनिवृत्तिकरण करते हुए विभिन्न साधकों के आत्म-विशुद्धि के परिणामों में एकरूपता रहती है । इनके विशुद्धि के आत्म-परिणामों में परस्पर भेद न होने के कारण इसे अनिवृत्तिकरण कहा गया है । यथाप्रवृत्तिकरण में स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी और गुणसंक्रमण नहीं होता है, जबकि अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण में साधक; कर्मों की स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी और गुणसंक्रमण करता है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि मिथ्यात्व दर्शन के उदयघात की अपेक्षा से ये तीनों करण चौथे गुणस्थान के पूर्व होते हैं । यहाँ पर साधक अनिवृत्तिकरण के अन्त में मिथ्यादर्शन की कर्मप्रकृतियों के पुद्गलों के तीन विभाग करता है - मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण की यह प्रक्रिया चारित्रमोह के उदयघात के समय भी की जाती है । गुणस्थान सिद्धान्त में जो अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नाम मिलते हैं, उनका सम्बन्ध चारित्रमोह कर्म की प्रकृति के क्षय या उपशम से है, जबकि मिथ्यात्व गुणस्थान के अन्त में सम्यग्दर्शन को प्राप्त करने के पूर्व जो यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण की प्रक्रिया की जाती है, उसका सम्बन्ध दर्शनमोह के उदयघात से है । यहाँ साधक सर्वप्रथम क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, किन्तु अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय के परिणामस्वरूप वह जब सम्यक्त्व गुणस्थान से च्युत होता है, तब वह सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान को प्राप्त करता है । अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क में से किसी एक का भी उदय होने पर साधक सम्यक्त्व से च्युत होता है; किन्तु जब तक वह मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक के छः आवलि के मध्यकाल में सासादनसम्यग्दृष्टि कहा जाता है । ३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान : सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का विवेचन करते हुए आचार्य अकलंकदेव ने उन कोदों का उदाहरण दिया है, जिनकी मादक शक्ति आंशिक रूप से क्षीण हुई हैं और आंशिक रूप से बनी हुई है । इसी तरह सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के अन्दर आंशिक रूप से तत्त्वार्थश्रद्धान और आंशिक रूप से तत्त्वार्थ अश्रद्धान रूप मिश्रित परिणाम होता है । उसके तत्त्वार्थ श्रद्धान में एक विचलन की अवस्था होती है । वह न तो मिथ्यात्व को पूरी तरह से छोड़ पाता है और न ही सम्यक्त्व में दृढ़ आस्था जमा पाता है। मिथ्यात्व गुणस्थान के समान ही इस गुणस्थान में भी साधक के मति, श्रुत और अवधि-ये तीनों ज्ञान भी अज्ञान रूप माने गए Jain Education Intemational Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{247} ४. अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान :___ औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक-इनमें से किसी भी सम्यग्दर्शन से युक्त होकर जो साधक चारित्रमोह के उदय के कारण विरति को स्वीकार करने में असमर्थ होता है, वह असंयतसम्यग्दृष्टि कहा जाता है । ऐसे व्यक्ति के तीनों ज्ञान सम्यग्ज्ञान होते हैं । जो साधक चतुर्थ गुणस्थान से आगे आत्मविशुद्धि परिणाम रूप किसी भी गुणस्थान को प्राप्त करता है, तो वहाँ उसमें नियम से सम्यक्त्व तो होता ही है। ५. संयतासंयत गुणस्थान : __चतुर्थ गुणस्थान के आगे के सभी गुणस्थानों का सम्बन्ध चारित्रमोह की कर्मप्रकृतियों के उपशम, क्षायोपशम और क्षय से है । जिसप्रकार अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय की स्थिति में सम्यक्त्व नहीं होता, उसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण कषायों की उपस्थिति में चारित्र का उदय नहीं होता है, अतः इन्हें सर्वघाती कहा गया है । किसी भी साधक में अनन्तानुबन्धी कषाय और अप्रत्याख्यानावरणकषाय के उदय का क्षय या उपशम होने पर ही प्रत्याख्यानी कषाय चतुष्क के उदय से संयम ग्रहण करने की शक्ति का अभाव होता है, किन्तु उसके साथ ही उसमें देशघाती संज्वलन कषाय और नौ कषायों का उदय रहने से उसमें संयमासंयम नामक पांचवाँ गुणस्थान होता है । ६. प्रमत्तसंयत गुणस्थान :___अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी और प्रत्याख्यानी कषाय चतुष्क के उदय का क्षय या उपशम होने पर तथा संज्वलन और नौ कषायों के उदय की स्थिति रहने पर साधक प्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त होता है । आचार्य अकलंकदेव के अनुसार ऐसा साधक पन्द्रह प्रकारों के प्रमादों के उदय के कारण अपने चारित्र परिणामों से कभी-कभी स्खलित होता रहता है, अतः इसे प्रमत्तसंयत गुणस्थान कहते हैं । इस गुणस्थान में देशघाती, संज्वलन कषाय और नौ कषायों का उदय सम्भव रहता है और उसके परिमाणस्वरूप प्रमाद की स्थिति भी बनी रहती है, अतः इसे प्रमत्तसंयत गुणस्थान कहा जाता है । ७. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान : इस गुणस्थान में साधक संज्वलन कषाय चतुष्क और नौ कषायों के उदय की संभावना होते हुए भी वह सजग रहता है । प्रमाद का अभाव होने के कारण वह संयम से विचलित नहीं होता है, अतः इसे अप्रमत्तसंयत गुणस्थान कहा जाता है । इसके आगे गुणस्थानों में साधक अपनी विकास यात्रा को दो श्रेणियों में विभाजित कर देता है - उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी। जो साधक मोहनीय कर्म का उपशम करता हुआ आगे बढ़ता है, वह उपशमश्रेणी प्राप्त करता है, किन्तु ऐसा साधक नियम से ही ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थान से नीचे गिरता ही है; किन्तु जो साधक क्षपकश्रेणी से आगे बढ़ता है, वह नियम से मोहनीय कर्म को क्षीणकर सयोगी केवली अवस्था प्राप्त करता है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि श्रेणी का आरोहण सातवें गुणस्थान के अन्त में और आठवें गुणस्थान के प्रारम्भ में निश्चित होता है । ८. अपूर्वकरण गुणस्थान : सातवें गुणस्थान के अन्त में प्रारम्भ की गई श्रेणी को चढ़नेवाला साधक आगे अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान में प्रवेश करता है । ज्ञातव्य है कि इस गुणस्थान में कर्मप्रकृतियों का न तो क्षय होता है, न ही उपशम होता है; किन्तु स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी और गुणसंक्रमण की अवस्थाएं घटित होती हैं । इस गुणस्थान में प्रारम्भ की गई उपशम या क्षपकश्रेणी के आधार पर साधक उपशमक या क्षपक कहा जाता है। आचार्य अकलंकदेव के अनुसार इस गुणस्थान में उपशमक या क्षपक शब्द का व्यवहार घी के घड़े की तरह मात्र उपचार से ही किया जाता है। sonal Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{248} ९. अनिवृत्तिकरण गुणस्थान : आत्म-परिणामों की विशुद्धि के कारण संज्वलन, क्रोध, मान और माया का उपशम या क्षय करनेवाला साधक इस गुणस्थान को प्राप्त होता है । जैसा कि पूर्व में इंगित किया है, इस गुणस्थान में समकाल में श्रेणी आरोहण करनेवाले साधक को प्रतिसमय होनेवाली आत्म-विशुद्धि के परिणामों में एकरूपता होती है । अतः यह गुणस्थान अनिवृत्तिकरण कहा जाता है । १०. सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान : सूक्ष्म रूप से रहे हुए संज्वलन लोभ का उदय इस अवस्था में बना रहता है, किन्तु इस गुणस्थान के अन्त में साधक इसका भी उपशम या क्षय कर अग्रिम गुणस्थान को प्राप्त कर लेता है । लोभकषाय की सूक्ष्म रूप से रही हुई सत्ता के कारण भी इसे सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान कहा जाता है । ११. उपशान्तमोह गुणस्थान : मोहनीय कर्म की समस्त प्रकृतियों का उपशम करनेवाला उपशान्तकषाय कहा जाता है । इस अवस्था में मोहनीय कर्म की कर्मप्रकृतियाँ सत्ता में तो रहती हैं, किन्तु इनके उदय का पूर्ण अभाव रहता है, इसी कारण इसे उपशान्तमोह कहा जाता है । १२. क्षीणमोह गुणस्थान : जो साधक की मोहनीय कर्म की समस्त प्रकृतियों का क्षय कर देता है, वह क्षीणमोह नामक गुणस्थान को प्राप्त होता है । १३. सयोगी केवली गुणस्थान : जिस साधक का मोहनीय कर्म के साथ-साथ दर्शनावरण, ज्ञानावरण और अन्तराय कर्म भी पूर्णतया क्षय हो जाता है, वह सयोगी केवली कहा जाता है । १४. अयोगी केवली गुणस्थान : जिन केवली भगवान में मन-वचन काया की प्रवृत्ति भी नहीं रहती है, वह अयोगी केवली कहा जाता है । इस गुणस्थान को प्राप्त कर जीव नियम से मोक्ष को प्राप्त करता है । इस प्रकार आचार्य अकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक में गुणस्थानों के स्वरूप का विवेचन किया है । इस चर्चा के पश्चात् उन्होंने किन गुणस्थानों में, किन-किन कर्मप्रकृतियों का संवर अर्थात् बन्ध-विच्छेद हो जाता है, इसकी चर्चा की है। तत्त्वार्थराजवार्तिक के अनुसार गुणस्थानों में कर्म प्रकृतियों का संवर (बन्ध-विच्छेद) मिथ्यात्व की प्रधानता से कर्मों का आस्रव होता है, मिथ्यात्व का निरोध हो जाने से उन कर्मों का सासादनसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानों में संवर होता है । मिथ्यात्वमोह, नपुंसकवेद, नरकायु, नरकगति, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय ये जातिचतुष्क, हुंडक संस्थान, असंप्राप्तासृपाटिका संहनन, नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वी, आतपनामकर्म, स्थावरनामकर्म, सूक्ष्मनामकर्म, अपर्याप्तनामकर्म और साधारण शरीर-ये सोलह प्रकृतियाँ मिथ्यात्व के निमित्त से आनेवाली हैं । ___ असंयम के तीन भेद बताए गए हैं । अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान-ये तीन भेद हैं; अतः इन कषाय निमित्त से आनेवाले कर्मों का इन कषाय के अभाव में संवर अर्थात् बन्ध-विच्छेद होता है । निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानगृद्धि, अनन्तानुबन्धी चतुष्क, क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्रीवेद, तिर्यंच आयुष्य, तिर्यंचगति, मध्यम चार संस्थान, मध्यम चार संघयण (संहनन), तिर्यंचगति प्रायोग्यानुपूर्वी, उद्योत नामकर्म, अप्रशस्तविहायोगति नामकर्म, दुर्भग नामकर्म, दुःस्वर नामकर्म, अनादेय in international Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{249} नामकर्म और नीचगोत्र-इन अनन्तानुबन्धी निमित्त से आनेवाली २५ प्रकृतियों का एकेन्द्रिय आदि सासादनसम्यग्दृष्टि तक जीव बन्धक होते हैं । अनन्तानुबन्धी के अभाव में आगे के गुणस्थानों में इनका संवर हो जाता है । अप्रत्याख्यानीय क्रोध, मान, माया, लोभ, मनुष्यायु, मनुष्यगति, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, वज्रऋषभनाराच संहनन, मनुष्यगति प्रायोग्यानुपूर्वी-इन अप्रत्याख्यानीय कषाय हेतुक दस प्रकृतियों के एकेन्द्रिय आदि असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान पर्यन्त बन्धक होते हैं । उसके अभाव में संयतासंयत आदि गुणस्थानों में उनका संवर होता है । सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में आयुष्य का बन्ध नहीं होता है । प्रत्याख्यानीय क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चार कर्मप्रकृतियों के प्रत्याख्यानावरण के निमित्त से एकेन्द्रियादि संयतासंयत गुणस्थान पर्यन्त बन्धक होते हैं । उसके अभाव में अग्रिम गुणस्थानों में इनका संवर अर्थात् बन्ध-विच्छेद हो जाता है। अशाता वेदनीय, अरति, शोक, अस्थिरनामकर्म, अशुभनामकर्म और अयशस्कीर्तिनामकर्म-इन कर्मप्रकृतियों का आनव प्रमाद के निमित्त से होता है । प्रमाद के अभाव में अग्रिम गुणस्थानों में इनका संवर अर्थात् बन्ध-विच्छेद हो जाता है । देवायु के बन्ध का आरम्भ प्रमाद ही कारण होता है और उसके समीपवाला अप्रमाद भी होता है, अतः अप्रमत्त के अभाव में अग्रिम गुणस्थानों में इनका संवर अर्थात् बन्ध-विच्छेद हो जाता है। कषाय मात्र से कर्मप्रप्रकृतियों का आस्रव होता है । कषाय के अभाव में इनका संवर अर्थात् बन्ध-विच्छेद होता है । प्रमाद और अप्रमाद से रहित कषाय आठवाँ, नवाँ और दसवाँ-इन तीन गुणस्थानों में तीव्र, मध्यम और जघन्य रूप में विद्यमान रहता है । अपूर्वकरण गुणस्थान के आदि संख्येय भाग में निद्रा और प्रचला-इन दो कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है । उससे आगे संख्यात भाग में देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय, आहारक, तेजस और कार्मण शरीर, समचतुरस्त्रसंस्थान, वैक्रिय अंगोपांग, आहारक अंगोपांग, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुलघु नामकर्म, उपघात नामकर्म, पराघात नामकर्म, उच्छ्वास नामकर्म, प्रशस्तविहायोगति नामकर्म, त्रस नामकर्म, बादरनामकर्म, पर्याप्त नामकर्म, प्रत्येक शरीर, स्थिरनामकर्म, शुभनामकर्म, सुभगनामकर्म, सुस्वरनामकर्म, आदेयनामकर्म, तीर्थकरनामकर्म, और निर्माणनामकर्म-इन तीस कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है । इसी गुणस्थान के चरम समय में हास्य, रति, भय और जुगुप्सा-इन चार कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है । ये तीव्र कषाय के उदय से बन्ध होनेवाली कर्मप्रकृतियाँ उसके अभाव में निर्दिष्ट भाग से आगे संवर अर्थात् बन्ध-विच्छेद को प्राप्त हो जाती हैं । अनिवृत्तिबादरसम्पराय गुणस्थान के प्रथम भाग से लेकर संख्यात भागों में पुरुषवेद और संज्वलन क्रोध का बन्ध अर्थात् आस्रव होता है । इसके आगे शेष संख्येय भागों में संज्वलन मान और संज्वलन माया का बन्ध अर्थात् आम्रव होता है । अन्तिम भाग में संज्वलन लोभ बन्ध अर्थात् आसव को प्राप्त होती है । मध्यम कषाय के कारण इन कर्मप्रकृतियों का आस्रव होता है । अतः निर्दिष्ट भागों से अग्रिम स्थान में इनका संवर अर्थात् बन्ध-विच्छेद हो जाता है । पांच ज्ञानावरण, चारदर्शनावरण, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और पांच अन्तराय मन्दकषाय के कारण इन कर्मप्रकृतियों का आस्रव अर्थात् बन्ध होता है, उससे आगे मन्दकषाय के अभाव के कारण इनका संवर अर्थात् बन्ध-विच्छेद हो जाता है । सातावेदनीय का उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगी केवली गुणस्थान में योग होने के कारण बन्ध अर्थात् आस्रव होता है । योग के अभाव में आगे उसका बन्ध-विच्छेद अर्थात् संवर हो जाता है । अतः अयोगी केवली गुणस्थानवाले जीव को संवर हो जाता है । | उपसंहार । इस प्रकार हम देखते है कि आचार्य अकलंकदेव ने तत्त्वार्थवार्तिक में चौथें अध्याय के इक्कीसवें सूत्र, छठे अध्याय के चौथे सूत्र, नवें अध्याय के पहले, सातवें, दसवें और छत्तीसवें सूत्र की टीका में गुणस्थानों की अवधारणा का उल्लेख किया है। चौथे अध्याय के इक्कीसवें सूत्र की टीका में मात्र गतियों की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और विरताविरत (श्रावक)- इन चार गुणस्थानवी जीव देवलोक में कहाँ तक उत्पन्न हो सकते हैं; इसकी चर्चा की गई है । गुणस्थानों Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.. चतुर्थ अध्याय........{250) के सन्दर्भ में अन्य कोई विस्तृत विवरण यहाँ उपलब्ध नहीं है । छठे अध्याय के चौथे सूत्र की टीका में विभिन्न गुणस्थानों में किस प्रकार का आस्रव होता है, इसकी चर्चा की गई है । इस चर्चा में यह बताया गया है कि प्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक जीव में कषाय का उदय रहता है, अतः कषाय के निमित्त से इन जीवों को साम्परायिक आस्रव होता है । उपशान्तमोह गुणस्थान, क्षीणमोह गुणस्थान और सयोगी केवली गुणस्थानवी जीवों के योग प्रवृत्ति होने से कर्मों का आसव तो होता है, किन्तु कषाय के अभाव में स्थिति एवं अनुभाग बन्ध नहीं होने के कारण उनको मात्र ईर्यापथिक आमव होता है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि साम्परायिक आस्रव में ही कर्मों का स्थितिबन्ध होता है और ईर्यापथिक आस्रव में स्थितिबन्ध नहीं होता है । इस प्रकार आध्यात्मिक विकास के मार्ग में साम्परायिक आस्रव भी बाधक होता है, ईर्यापथिक आस्रव बाधक नही होता है । यहाँ हम यह देखते है कि अकलंकदेव ने चौथे अध्याय के इक्कीसवें सूत्र की टीका में और छठे अध्याय के चौथे सूत्र की टीका में मात्र का उल्लेख किया है। उनके सम्बन्ध में विस्तार से विवेचन नहीं है। गणस्थानों के सन्दर्भ में विस्तृत विवरण उन्होंने नवें अध्याय की टीका में लिया है । तत्त्वार्थराजवार्तिक में नवें अध्याय के पहले, सातवें, दसवें और छत्तीसवें सूत्र की टीका में गुणस्थानों का विवरण विस्तृत रूप से उपलब्ध होता है । जैसा कि हम जानते है कि नवें अध्याय के प्रथम सूत्र | अध्याय के प्रथम सूत्र की टीका में चौदह गुणस्थानों के नामों के साथ-साथ उनके स्वरूप का भी विवेचन किया गया है और यह बताया है कि किस गुणस्थान में कितनी कर्मप्रकृतियों का संवर अर्थात् बन्ध-विच्छेद होता है । बन्ध-विच्छेद की इस चर्चा में यह भी स्पष्ट रूप से बताया है कि गुणस्थान में किन-किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध रहता है और किन-किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद हो जाता है। इसी प्रकार तत्त्वार्थसूत्र की राजवार्तिक टीका में आचार्य अकलंकदेव ने नवें अध्याय के सातवें सूत्र में विभिन्न मार्गणाओं में गुणस्थानों की क्या स्थिति होती है, इसका विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया है । वार्तिक का यह अंश मार्गणाओं के प्रसंग में गुणस्थानों की विस्तृत चर्चा प्रस्तुत करता है, फिर भी यह चर्चा सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा अल्प ही है । मार्गणाओं के प्रसंग में गुणस्थानों की यह चर्चा पूज्यपाद देवनन्दी ने तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के आठवें सूत्र की टीका में की है । ज्ञातव्य है कि मार्गणाओं और गुणस्थानों के पारस्परिक सम्बन्ध की चर्चा करते हुए पूज्यपाद देवनन्दी जिस गहराई में गए, उस गहराई में जाने का प्रयत्न आचार्य अकलंकदेव ने नहीं किया । वे मात्र इतनी चर्चा करते हैं कि किन मार्गणाओं में कौन-कौन से गुणस्थान सम्भव हैं; जबकि पूज्यपाद देवनन्दी ने वहाँ पर सत्संख्यादि आठ अनुयोगद्वारों में, प्रत्येक में चौदह मार्गणाओं की और उन मार्गणाओं में गुणस्थानों की चर्चा की है । यह विवरण निश्चित ही अकलंकदेव की अपेक्षा अधिक गम्भीर और विस्तृत है । आगे नवें अध्याय के दसवें सूत्र की टीका में आचार्य अकंलकदेव ने, किस गुणस्थान में, कितने परिषह सम्भव है, इसकी चर्चा की है । यहाँ पर मात्र यही बताया गया है कि पहले से नवें गुणस्थान तक बाईस परिषह सम्भव होते हैं । ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में मोहनीय कर्म सम्बन्धी आठ परिषह का अभाव होने से चौदह परिषह होते हैं, किन्तु इससे अग्रिम सूत्र की टीका में उन्होने सयोगी केवली गुणस्थानवर्ती, जिनको ग्यारह परिषह उपचार से होते हैं, ऐसा प्रतिपादन किया है । इसी प्रसंग में उन्होंने यथाशक्य दिगम्बर परम्परा की मान्यताओं को सुरक्षित रखने के उद्देश्य से अपने तर्क भी प्रस्तुत किए है और यह बताया है कि जिनों में (सयोगी केवली में) उपचार से ही ग्यारह परिषह का सम्भाव्य मानना चाहिए, वास्तविक रूप में नहीं । इससे आगे नवें अध्याय के ध्यान सम्बन्धी छत्तीसवें सूत्र की व्याख्या करते हुए उन्होंने, किस गुणस्थान में किन कर्मप्रकृतियों का उदय और उदीरणा सम्भव है, इसकी विस्तृत चर्चा की है। ये सभी चर्चाएं हम पूर्व में कर आए हैं, इसलिए यहाँ तो केवल विषय का उपसंहार करने की दृष्टि से ही निर्देश किया जा रहा है । आचार्य अकलंकदेव ने तत्त्वार्थराजवार्तिक में गुणस्थानों का जो उल्लेख किया है, वह इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि अकलंकदेव के समक्ष न केवल गुणस्थानों की अवधारणा थी, अपितु गुणस्थानों में कर्मों के उदय, उदीरणा, बन्ध, बन्धविच्छेद और सत्ता आदि को लेकर भी विस्तृत चर्चाएं हो रही थी और आचार्य ने उन सब चर्चाओं को अपनी Jain Education Intemational Interational Ww Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... तत्त्वार्थसूत्र की तत्त्वार्थवार्तिक नामक टीका में समाहित करने का प्रयत्न किया । तत्त्वार्थसूत्र की श्लोकवार्तिक टीका और गुणस्थान दिगम्बर पम्परा में तत्त्वार्थसूत्र पर जो महत्वपूर्ण टीकाएं उपलब्ध हैं, उनमें पूज्यपाद देवनन्दी कृत सर्वार्थसिद्धि, अकलंकदेव विरचित तत्त्वार्थराजवार्तिक के पश्चात् विद्यानन्द स्वामी विरचित श्लोकवार्तिक है। यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र पर गंधहस्ति महाभाष्य का भी निर्देश मिलता है, किन्तु वर्तमान में यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है । विद्यानन्दजी कृत तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक को, श्लोकवार्तिक- ऐसा नाम इस आधार पर दिया गया है कि इस टीका में मुख्यतया श्लोकों की प्रधानता है; यद्यपि बीच-बीच में गद्य भाग उपलब्ध हैं, फिर भी पदों की प्रधानता के कारण ही इसे श्लोकवार्तिक नाम से ही जाना जाता है । प्रस्तुत ग्रन्थ में यद्यपि पूर्ववर्ती ग्रन्थ की अपेक्षा गुणस्थानों का विवेचन अल्प ही है, किन्तु ग्रन्थकार को जहाँ-जहाँ प्रासंगिक लगा है, वहाँ उन्होंने गुणस्थानों का उल्लेख किया है। प्रथम अध्याय के प्रथम सूत्र की व्याख्या करते हुए श्लोक संख्या ६० के अनन्तर गद्य भाग में असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक ज्ञानावरण और दर्शनावरण की कर्मप्रकृतियों के क्षय - उपशम का निर्देश किया है । यद्यपि यहाँ यह भी बताया है कि ज्ञानावरण की पांच और दर्शनावरण की नौ कुल चौदह कर्मप्रकृतियों का पूर्णतः क्षय तो सयोगी केवली गुणस्थान के पूर्व क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में ही होता है । क्षीणकषाय गुणस्थान के प्रथम समय से साधक इनके क्षय का प्रयत्न करता है और अन्त में उन्हें क्षय कर देता है । आगे यह भी बताया गया है कि क्षीणकषाय, गुणस्थान में ज्ञानावरण और दर्शनावरण का और अन्त में अन्तराय कर्म का क्षय कर देता है । सयोगी केवली अवस्था के अन्दर जो नाम आदि चार कर्म अवशिष्ट हैं, उनका पूर्णतः क्षय तो अयोगी केवली गुणस्थान के अन्त में ही होता है । इसी आधार पर यह भी बताया गया है कि अयोगी केवली गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग कारणभाव में ही रहता है । अयोगी केवली गुणस्थान के पश्चात् जब आत्मा मोक्ष को प्राप्त कर लेती है, तो फिर उसके सम्यक् दर्शन ज्ञान - चारित्र स्वभाव रूप में वर्तते हैं । विद्यानंदजी ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक के द्वितीय अध्याय के छठे सूत्र की व्याख्या में श्लोक संख्या छः, सात और आठ में मिथ्यात्व, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व - ऐसे चार गुणस्थानों का नाम निर्देश किया है, यद्यपि यहाँ नाम निर्देश के अतिरिक्त अन्य कोई उल्लेख नही किया है । पुनः आठवें अध्याय के बीसवें सूत्र की व्याख्या में अनिवृत्तिबादरसम्पराय और सूक्ष्मसम्पराय इन दो गुणस्थानों के नाम मात्र निर्देश किए है और यह बताया है कि इन गुणस्थानों की समयावधि अन्तर्मुहूर्त होती है । विद्यानंदजी ने गुणस्थानों की अवधारणा का विशेष स्पष्ट निर्देश तो नवें अध्याय में ही दिया है। नवें अध्याय के प्रथम सूत्र की विवेचना करते हुए सर्वप्रथम उन्होने मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोगी केवली तक चौदह ही गुणस्थानों का न केवल नाम-निर्देश किया है, अपितु चौदह ही गुणस्थानों के स्वरूप को भी स्पष्ट करने का प्रयास किया है । विद्यानंदजी ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक के नवें अध्याय के प्रथम सूत्र के तीसरे श्लोक की व्याख्या में चौदह गुणस्थानों का नाम-निर्देश करते हुए उनके नामों का और उनके लक्षणों का उल्लेख किया है । ये हैं - १. मिथ्यादृष्टि गुणस्थान २. सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान ३. सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ४. असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान ५. संयतासंयत गुणस्थान ६. प्रमत्तसंयत गुणस्थान ७. अप्रमत्तसंयत गुणस्थान ८. अपूर्वकरण गुणस्थान ६ अनिवृत्तिबादरसम्पराय गुणस्थान १०. सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान ११. उपशान्तमोह गुणस्थान १२. क्षीणकषाय गुणस्थान १३. सयोगी केवली गुणस्थान १४. अयोगी केवली गुणस्थान । मिथ्यात्व के उदय से जिसकी दृष्टि सम्यक् नहीं है और जो मिथ्यादर्शन के उदय के कारण उसके वशीभूत है, वह मिथ्यादृष्टि कहा जाता है । अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय और मिथ्यात्व के उदय के अभाव के परिणामस्वरूप जो अवस्था बनती है, उसे सासादनसम्यग्दृष्टि कहा जाता है। जो साधक सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के बीच यथार्थ निर्णय लेने की क्षमता नहीं रखता चतुर्थ अध्याय........{251} Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{252} है अर्थात् जो न तो सम्यक्त्व को ग्रहण करता है और न ही मिथ्यात्व को, ऐसा साधक सम्यग्मिथ्यादृष्टि कहा जाता है । सम्यक्त्व । युक्त होकर भी चारित्र मोहनीय के उदय से जो आंशिक विरति को स्वीकार नहीं कर पाता है, वह असंयतसम्यग्दृष्टि या अविरतसम्यग्दृष्टि कहा जाता है। आंशिक रूप से जिसने विषय भोगों से विरक्ति ली है, किन्तु आंशिक रूप से जुड़ा हुआ भी है, ऐसा साधक संयतासंयत कहा जाता है । संयम या चारित्र को प्राप्त करके भी जो प्रमादवान है, वह प्रमत्तसंयत कहा जाता है । पूर्व की अपेक्षा जिसके आत्म-विशुद्धि के परिणाम अपूर्व होते हैं, ऐसा उपशमक या क्षपक अपूर्वकरण, गुणस्थानवर्ती माना जाता है। स्थूल भावों की अपेक्षा जिन उपशमक या क्षपकों के परिणाम में समरूपता होती है, वे अनिवृत्तिबादरसम्पराय गुणस्थानवर्ती कहे जाते हैं। जिसमें सूक्ष्मभावों का उपशम या क्षपण कर दिया है, वह सूक्ष्मसम्पराय है अथवा उपशम या क्षपण के द्वारा जिसके कषाय भाव सूक्ष्ममात्र रहे है, वह सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान है। कषायों के सर्वथा उपशम के आधार पर उपशान्तमोह गुणस्थान और कषायों के सर्वथा क्षय के आधार पर क्षीणमोह गुणस्थान होता है । घातीकर्मों का सर्वथा क्षय होने पर केवलज्ञान और केवलदर्शन न होने पर सयोगीकेवली कहा जाता है । योग के सद्भाव और अभाव के आधार पर केवलियों के दो भाग होते हैं । जिनमें योगों का सद्भाव है, वह सयोगी केवली गुणस्थान कहा जाता है और जिनमें योगों का असद्भाव है, वह अयोगी केवली गुणस्थान कहा जाता है । सयोगी केवली गुणस्थान तक योग के निमित्त से आस्रव बना रहता है, अतः उक्त गुणस्थान तक देशसंवर ही कहा गया है, किन्तु योग का अभाव हो जाने पर सम्पूर्ण रूप से संवर को प्राप्त अयोगी केवली कहा जाता है । इसी अध्याय के सातवें सूत्र की टीका में उन्होंने जीवस्थान, गुणस्थान और मार्गणास्थान-तीनों का निर्देश किया है । इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वे न केवल गुणस्थान की अवधारणा से परिचित थे, अपितु गुणस्थानों का जीवस्थान और मार्गणास्थान से क्या और कैसा सम्बन्ध है, इसकी उन्हें जानकारी रही है । यद्यपि इस सम्बन्ध में नाम-निर्देश के अतिरिक्त विशेष जानकारी प्रस्तुत कृति में उपलब्ध नहीं है । नवें अध्याय के आठवें सूत्र से लेकर बारहवें सूत्र तक किस गुणस्थान में कितने परिषह होते हैं, इसकी चर्चा है । अकलंकदेव के समान ही विद्यानन्दजी ने भी बादरसम्पराय तक बाईसों परिषहों की सत्ता को स्वीकार किया है । सूक्ष्मसंपराय और छद्मस्थवीतराग अर्थात् बारहवें गुणस्थान में चौदह परिषह की सत्ता को माना है, किन्तु बादरसम्पराय गुणस्थान तक सभी परिषहों की सत्ता स्वीकार की है । उसके पश्चात् चारों ध्यानों की चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि किस गुणस्थानवी जीव को किस प्रकार के ध्यान की सम्भावना रहती है । प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक आर्तध्यान की सम्भावना मानी जाती है। इसी प्रकार देशविरत गुणस्थान तक रौद्रध्यान की सम्भावना को स्वीकार किया गया है । धर्मध्यान अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक सम्भव हो सकता है । इसीप्रकार शुक्लध्यान की सम्भावना भी उपशान्तमोह से लेकर अयोगी केवली अवस्था तक रहती है । ज्ञातव्य है कि यहाँ पर भी विद्यानन्दजी ने गुणस्थानों का कोई विस्तृत विवरण नहीं किया है, किन्तु मूल टीका में गुणस्थानों के नाम निर्देश होने से हम इतना तो अवश्य ही कह सकते है कि विद्यानन्दजी गुणस्थान की अवधारणा से स्पष्ट रूप से परिचित थे । यद्यपि श्लोकवार्तिक में उन्होंने यत्र-तत्र गुणस्थान सिद्वान्त का निर्देश किया है, किन्तु कहीं भी उसकी विस्तृत विवेचना नहीं की । मात्र नवें अध्याय के प्रारम्भ में ही उन्होंने चौदह गुणस्थानों और उनके लक्षणों का निर्देश किया है । हम यह तो कह सकते है कि तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में गुणस्थान सिद्धान्त की अपेक्षित विवेचना नहीं हो पाई है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं लगाया जा सकता है कि उनके सामने गुणस्थान सिद्धान्त अनुपस्थित था । तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में उपलब्ध गुणस्थानों के विवरण से केवल इतना ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि विद्यानन्दजी की रुचि इस सिद्धान्त के प्रति अल्प रही है। Jain Education Intemational Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{253} सिद्धसेनगणि की तत्वार्थभाष्यवृत्ति और गुणस्थान श्वेताम्बर परम्परा में तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं में उमास्वाति के स्वोपज्ञभाष्य के पश्चात् सिद्धसेनगणि की टीका का क्रम आता है । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि सिद्धसेनगणि ने अपनी यह टीका उमास्वाति के स्वोपज्ञभाष्य को सामने रखकर लिखी है। अतः यह टीका न केवल तत्त्वार्थसूत्र पर है, अपितु उसके स्वोपज्ञभाष्य पर भी है । श्वेताम्बर परम्परा में सिद्धसेन नामक अनेक आचार्य हुए हैं; उसमें सर्वप्रथम स्थान सिद्धसेन दिवाकर का है, किन्तु प्रस्तुत टीका के कर्ता सिद्धसेनगणि, सिद्धसेन दिवाकर से भिन्न है और अपने काल की अपेक्षा भी उनसे परवर्ती हैं । प्रस्तुत टीका के कर्ता सिद्धसेनगणि, दिन्नगणि क्षमाश्रमण के शिष्य श्री सिंहसूरि के प्रशिष्य एवं भास्वामी के शिष्य थे । यह तथ्य प्रस्तुत टीका की प्रशस्ति से स्पष्ट हो जाता है । इनके प्रगरूप सिंहसूरि के गुरु दिन्नगणि के नाम के साथ क्षमाश्रमण शब्द का प्रयोग हुआ है। श्वेताम्बर परम्परा में छठी-सातवीं शताब्दी में आचार्यों के नाम के साथ क्षमाश्रमण शब्द का प्रयोग प्रचलित था । इस आधार पर यह माना जा सकता है कि सिद्धसेनगणि का काल लगभग सातवीं शताब्दी के आसपास होना चाहिए। पंडित सुखलालजी का मानना है कि सिद्धसेनगणि. गंधहस्ति के नाम से भी जाने जाते थे । गंधहस्ति का उल्लेख शीलांग की आचारांग टीका में और अभयदेवसूरि की सन्मति तर्क प्रकरण की टीका में मिलता है । इस आधार पर उनका काल नवीं शताब्दी से पूर्व ही मानना होगा । पंडित हीरालाल रसिकलाल कापड़िया के अनुसार सिद्धसेनगणि कृत इस टीका में धर्मकीर्ति के प्रमाण विनिश्चय का उल्लेख हुआ है । धर्मकीर्ति का काल विक्रम की सातवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध सुनिश्चित है, अतः सिद्धसेनगणि का काल सातवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से पूर्व नहीं हो सकता है । आचार्य हरिभद्र की नन्दीसूत्र की टीका में तथा उनकी तत्त्वार्थ की टीका में सिद्धसेनगणि की इस टीका का प्रभाव देखा जाता है । इस आधार पर इतना सुनिश्चित है कि सिद्धसेनगणि का काल विक्रम की छठी शताब्दी के पश्चात् और आठवीं शताब्दी के पूर्व अर्थात् लगभग सातवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध रहा है । सिद्धसेनगणि की प्रस्तुत टीका में गुणस्थान की अवधारणा के अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं । इस आधार पर भी यह माना जा सकता है कि उनका काल छठी शताब्दी के पश्चात् ही रहा होगा । सिद्धसेनगणि के अतिरिक्त बप्पभट्टसूरि के गुरु सिद्धसेनसूरि (लगभग नवीं शताब्दी), विलासवती कथा के लेखक यशोदेवसूरि के शिष्य सिद्धसेन सूरि (लगभग ग्यारहवीं शताब्दी), प्रवचनसारोद्धार की वृत्ति के कर्ता चंद्रगच्छीय प्रद्युम्नसूरि की परम्परा में देवभद्रसूरि के शिष्य सिद्धसेनसूरि (लगभग बारहवीं शताब्दी) बृहत्क्षेत्रसमास के टीकाकार उपकेशगच्छीय देवगुप्तसूरि के शिष्य सिद्धसेनसूरि (लगभग बारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध) आदि अन्य सिद्धसेनसूरि ही श्वेताम्बर परम्परा में हुए, किन्तु वे इस टीका के कर्ता नहीं माने जाते हैं, क्योकि सिद्धसेनगणि ने तत्त्वार्थसूत्र की टीका की अन्तिम प्रशस्ति में अपनी जो गुरु परम्परा दी है, वह इन सबसे भिन्न है और सिद्धसेनसूरि नामक ये सभी विद्वान परवर्तीकालीन हैं । इन सामान्य सूचनाओं के अतिरिक्त तत्त्वार्थसूत्र की प्रस्तुत टीका के टीकाकार सिद्धसेनगणि के सन्दर्भ में विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। आगे यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि सिद्वसेनगणि कृत तत्त्वार्थसूत्र की इस टीका में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विवेचन किस रूप में हुआ है । सिद्धसेनगणि ने तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के तृतीय सूत्र की टीका में सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण का उल्लेख किया है । अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण को अष्टम और नवम गुणस्थान के रूप में भी जाना जाता है, किन्तु यहाँ उनका जो उल्लेख हुआ है वह सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए की गई ग्रन्थिभेद की प्रक्रिया के सम्बन्ध में है । अतः प्रस्तुत सन्दर्भ में गुणस्थानों की कोई विवेचना है, ऐसा माना जा सकता है। पुनः प्रथम अध्याय के छब्बीसवें सूत्र की टीका में अवधिज्ञान और मनः पर्यवज्ञान के विवेचन में यह बताया गया है कि अवधिज्ञान, संयत और असंयत सभी जीवों को, सभी गति में होता है; किन्तु मनः पर्यवज्ञान मनुष्यगति में केवल संयत जीवों को Jain Education Intemational Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा... चतुर्थ अध्याय........{254) ही होता है । इस चर्चा में यद्यपि मिथ्यादृष्टि, असंयत या अविरत तथा संयत शब्द का उल्लेख हुआ है; किन्तु इन शब्दों के उल्लेख से हम उन्हें गुणस्थानों का वाचक माने, यह उचित नहीं होगा । गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा से अलग हटकर भी इन शब्दों का प्रयोग जैन परम्परा में होता रहा है । यह चर्चा वस्तुतः ज्ञानों की उत्पत्ति के सन्दर्भ में है। मात्र यही नहीं, तत्त्वार्थसूत्र के दशम अध्याय में यह कहा गया है कि मोह का क्षय होने के पश्चात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय का क्षय होने से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है, किन्तु यह जैन कर्म सिद्धान्त की एक सामान्य अवधारणा है । इसे गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा के साथ योजित नहीं किया जा सकता है । इसी क्रम में द्वितीय अध्याय के पांचवें सूत्र के भाष्य और टीका में अठारह प्रकार के क्षायोपशमिक भावों की चर्चा में, ये भाव किन जीवों को होते है, इसका निर्देश करते हुए संयमासंयम शब्द का प्रयोग किया गया है; किन्तु यहाँ भी यह शब्द गुणस्थान का वाचक नहीं माना जा सकता है । इसी प्रकार द्वितीय अध्याय के नवें सूत्र में उपयोग के भेदों का उल्लेख है । उसकी टीका में मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है, किन्तु इस विवेचन में भी गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा का कोई संकेत प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि इस चर्चा में केवल यह बताया गया है कि मिथ्यादृष्टि जीवों को जो तीन ज्ञान होते हैं, वे अज्ञानरूप होते हैं और अविरतसम्यग्दृष्टि जीवों को जो मति, श्रुत और अवधि-ये तीन ज्ञान होते हैं, वे ज्ञानरूप होते हैं। तत्त्वार्थसूत्र के ही द्वितीय अध्याय के छब्बीसवें सूत्र में विग्रहगति में होनेवाले योगों की चर्चा है । इस सूत्र की टीका में मिथ्यादृष्टि, उपशान्तकषाय, क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ, सयोगी केवली आदि पदों का उल्लेख हुआ है; यद्यपि मिथ्यादृष्टि, उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ, क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ और सयोगी केवली-ऐसी चार अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है । ये अवस्थाएं गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा में भी उल्लेखित हैं, किन्तु सिद्धसेनगणि ने यहाँ जो विवेचन प्रस्तुत किया है, उससे यह फलित नहीं होता है कि वे गुणस्थान सिद्धान्त की कोई चर्चा प्रस्तुत कर रहे हैं । उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ, क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ और सयोगी केवली ऐसे शब्द है, जिनका सम्बन्ध गुणस्थानों के साथ माना जा सकता है। फिर भी इन सभी व्याख्याओं में इन शब्दों के उल्लेख के अतिरिक्त ऐसी भी चर्चा नहीं है, जिसे हम गणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित कर सकें। इसी क्रम में तत्त्वार्थसूत्र के द्वितीय अध्याय के सैंतीसवें सूत्र में पांच प्रकार के शरीरों की चर्चा है । इसी चर्चा के प्रसंग में यह कहा गया है कि 'अनिवृत्तिस्थाने ही विनिवर्तते बन्ध कार्मणस्य' अर्थात् अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में कार्मण शरीर का बन्ध नही होता है । गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों के बन्ध की जो चर्चा मिलती है, उस चर्चा में यह कहा गया है कि आठवें गुणस्थान के अन्त में कार्मण शरीर नामकर्मप्रकृति का बन्ध समाप्त हो जाता है। इससे ऐसा लगता है कि यहाँ गुणस्थान सिद्धान्त का कोई संकेत अवश्य है । यहाँ स्थान शब्द सम्भवतः गुणस्थान का वाचक माना जा सकता है । पुनः द्वितीय अध्याय के चवालीसवें सूत्र में, एक साथ कितने शरीर हो सकते हैं, इसकी चर्चा की गई है । इस चर्चा में यह कहा गया है कि संयत जब भी वैक्रिय या आहारक शरीर करता है, तो वह प्रमत्त अवस्था में ही करता है, किन्तु उसके निष्पत्ति के उत्तरकाल में वह अवस्था भी हो सकती है । यहाँ इस चर्चा का मुख्य उद्देश्य यह बताना है कि वैक्रियलब्धि और आहारकलब्धि का स्वामी कौन होता है ? अतः इस चर्चा के प्रसंग में स्पष्टतः गुणस्थानों की अवधारणा रही हुई है, ऐसा नहीं माना जा सकता है । विद्वानों का यह मानना है कि गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा के पूर्व भी ये अवस्थाएं जैनदर्शन में प्रचलित थीं। तत्त्वार्थसूत्र के द्वितीय अध्याय के इक्यावनवें सूत्र में, चारों निकायों के देव नपुंसक नहीं होते हैं, ऐसा उल्लेख है । इसकी टीका में सिद्धसेनगणि ने स्पष्ट रूप से यह कहा है कि सम्यग्मिथ्यादृष्टि (गुणस्थान) को छोड़कर मिथ्यादृष्टि से प्रारम्भ करके अप्रमत्तसंयत (गुणस्थान) अर्थात् इन छः स्थानों में नियमतः आयुष्य, कर्म का बन्ध करते हैं । इसमें भी नारक, देव और असंख्यात वर्ष की आयुवाले प्राणी वर्तमान आयुष्य के छः मास अवशेष रहने पर निश्चय ही आयुष्य कर्म का बन्ध कर लेते हैं । प्रस्तुत विवेचन में 'षट्सु स्थानेषु' शब्द की उपस्थिति निश्चय ही यह सूचित करती है कि यहाँ टीकाकार का तात्पर्य सम्यग्मिथ्यादृष्टि Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा. चतुर्थ अध्याय........{255} गुणस्थान को छोड़कर शेष छः गुणस्थानों से है। पूर्व में द्वितीय अध्याय के सैंतीसवें सूत्र की टीका में तथा प्रस्तुत सूत्र की टीका में जो स्थान शब्द का प्रयोग हुआ है, वह निश्चित ही गुणस्थान का सूचक है; यह माना जा सकता है । यद्यपि यह विचारणीय है कि सिद्धसेनगणि ने यहाँ गुणस्थानों की चर्चा करते हुए भी गुणस्थान शब्द का प्रयोग न करते हुए मात्र स्थान शब्द का प्रयोग किया है, फिर भी द्वितीय अध्याय के सूत्र ३७ और सूत्र ५१ में गुणस्थानों की अवधारणा का निर्देश उपलब्ध होता है । तत्त्वार्थसूत्र के तृतीय अध्याय के प्रथम सूत्र में मूलतः तो सप्त नरक पृथ्वियों का वर्णन है, किन्तु टीकाकार सिद्धसेनगणि ने यहाँ टीका में तत्त्वार्थसूत्र के नवें अध्याय के सैंतीसवें सूत्र को उद्धृत करते हुए यह कहा है कि आज्ञा अपाय, विपाक और संस्थानविचय धर्म ध्यान अप्रमत्तसंयत को होता है । यद्यपि यहाँ सप्तम गुणस्थान का सूचक अप्रमत्तसंयत शब्द आया है, किन्तु यह विवेचन धर्मध्यान के स्वामी के सम्बन्ध में है; अतः इसका गुणस्थान के सिद्धान्त से स्पष्टतः कोई सम्बन्ध सिद्ध नहीं होता है । इस प्रकार हम देखते है कि तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम पांच अध्यायों की टीका में दूसरे अध्याय के सैंतीसवें और इक्यावनवें सूत्र की टीका को छोड़कर अन्यत्र कहीं गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा का उल्लेख सिद्धसेनगणि ने नहीं किया है । दूसरे अध्याय के इक्यावन सूत्र की टीका में भी मात्र प्रथम सात गुणस्थानों का निर्देश हुआ है, किन्तु इस आधार पर यह तो अवश्य मानना होगा कि तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकार सिद्धसेनगणि के सामने गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा उपस्थित थी । गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा का किंचित् विस्तृत विवरण हमें छठे अध्याय से लेकर दसवें अध्याय तक की सिद्धसेनगणि की टीका में मिलता है । आगे हम यह देखने का प्रयत्न करेगें कि इन अध्यायों की टीका में सिद्धसेनगणि ने गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा का निर्देश किस रूप में किया है। तत्त्वार्थसूत्र के छठे अध्याय के पांचवें सूत्र में साम्परायिक और ईर्यापथिक आसवों का विवेचन है । वहाँ यह भी बताया गया है कि ईर्यापथिक आसव, कषायों से रहित वीतराग को होता है । इसी विवेचना के प्रसंग में वीतराग के तीन भेदों उपशान्तमोह, क्षीणमोह और केवली का उल्लेख हुआ है । इसके साथ-साथ यह भी कहा गया है कि संज्वलन कषाय में भी कषायों का उदय अत्यन्त मन्द होने के कारण अनुदश कन्या के समान कषायों के उदय का अभाव कहा गया है । यहाँ पर उपशान्तमोह, क्षीणमोह और केवली-ऐसी तीन, गुणस्थानों से सम्बन्धित अवस्थाओं का उल्लेख है; किन्तु नामोल्लेख के अतिरिक्त यहाँ इन अवस्थाओं से सम्बन्धित विशेष विवरण उपलब्ध नहीं है । विवेचन का मुख्य विषय तो केवल साम्परायिक और ईर्यापथिक का स्वरूप ही है। इसी क्रम में छठे अध्याय के पन्द्रहवें सत्र की टीका में देशविरति का उल्लेख हआ है, किन्तु यहाँ भी गुणस्थान सम्बन्धी कोई विशेष चर्चा प्राप्त नहीं होती है । पुनः इसी क्रम में संयमासंयम और सर्वविरति-इन दो अवस्थाओं का निर्देश है। संयमासंयम को क्वचित् निवृत्ति और क्वचित् प्रवृत्ति रूप कहा गया है । हमारी दृष्टि में इस विवरण को भी गुणस्थान से सम्बन्धित नहीं माना जा सकता है, क्योंकि देशविरति और सर्वविरति जैन धर्मदर्शन की सामान्य अवधारणा है, जिसका यहाँ उल्लेख हुआ है । इसप्रकार सिद्धसेनगणि ने छठे अध्याय की टीका में भी गुणस्थान शब्द का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है । आगे सातवें अध्याय के ग्यारहवें सूत्र की टीका में प्रमत्त (संयत), अप्रमत्त (संयत) का उल्लेख है । यहाँ यह भी कहा गया है कि प्रमत्तसंयत को कर्मबन्ध होता है । हमारी दृष्टि में यह चर्चा भी स्पष्ट रूप से गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा से सम्बन्धित नहीं है । इसी सातवें अध्याय के सोलहवें सूत्र में श्रावक के सात शिक्षाव्रतों का उल्लेख है । इसकी टीका में सिद्धसेनगणि ने श्रावक के लिए संयतासंयत शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु इस संयतासंयत शब्द के उल्लेख को गुणस्थान से सम्बन्धित नहीं माना जा सकता है। सामान्यतया प्राचीनकाल से ही गृहस्थ को संयतासंयत कहा जा रहा है । सिद्धसेनगणि की तत्त्वार्थसूत्र की इस टीका में गुणस्थान सिद्वांत की अवधारणा का सर्वप्रथम सुस्पष्ट विवेचन आठवें अध्याय के प्रथम सूत्र की टीका में मिलता है । तत्त्वार्थसूत्र के आठवें अध्याय के इस प्रथम सूत्र में मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग-ऐसे पांच बन्धहेतुओं का उल्लेख है । सिद्धसेनगणि Jain Education Intemational Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.. चतुर्थ अध्याय........{256} ने यहाँ सर्वप्रथम इन बन्ध हेतुओं में चतुर्दश गुणस्थानों का स्पष्ट रूप से अवतरण किया है । वे लिखते है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में आहारकद्विक को छोड़कर सभी कर्मप्रकृतियां और सभी बन्धहेतु सम्भव होते हैं । पुनः सास्वादन गुणस्थान, सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान-इन तीन गुणस्थानों में मिथ्यादर्शन को छोड़कर शेष चार बन्धहेतु सम्भव होते हैं । कर्मप्रकृतियों के बन्ध का निर्देश करते हुए यह भी कहा गया है कि इन सभी गुणस्थानों में आहारकद्विक और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में मिश्र एवं कार्मण योग सम्भव नहीं होते हैं । पुनः आगे वे लिखते है कि अविरतसम्यग्दृष्टि तथा विरताविरतसम्यग्दृष्टि-इन दो गुणस्थानों में अनन्तानुबन्धी कषाय का बन्ध नहीं होता है । पांचवें विरताविरतसम्यग्दृष्टि में संयमासंयम के अतिरिक्त प्रमाद, कषाय और योग-ये तीन बन्धस्थान होते हैं । इस अवस्था में अप्रत्याख्यानीयकषाय चतुष्क, औदारिकमिश्र, कार्मणयोग तथा आहारकद्विक कर्मप्रकृतियों का उदय नहीं होता है, अतः इनका बन्ध भी नहीं होगा । पुनः प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसम्पराय और सूक्ष्मसम्पराय-इन पांच गुणस्थानों में; अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसम्पराय और सूक्ष्मसम्पराय-इन तीन गुणस्थानों में; उपशमक और क्षपक इन दोनों श्रेणियों में, कषाय और योग-ये दो ही बन्धहेतु रहते हैं । प्रमत्तसंयत गुणस्थान में संज्वलनकषाय चतुष्क और नव नोकषाय होते हैं । साथ ही पूर्वोक्त तीनों योग भी होते हैं । (प्रमत्तसंयत गुणस्थान में कषाय और योग के अतिरिक्त प्रमाद की भी सत्ता बनी रहती है, अतः वहाँ तीन बन्ध हेतु मानना चाहिए।) प्रमत्तसंयत गुणस्थान में तेरह कषाय और तेरह ही योग बन्धहेतु माने गए हैं । अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में वैक्रियमिश्र, आहारकमिश्र-इन दो योगों को छोड़कर शेष ग्यारह योग बन्धहेतु के रूप में स्वीकार किए गए हैं । अपूर्वकरण में प्रविष्ट आत्मा को आहारकद्विक का वर्णन करके शेष नौ योग, कषाय की अपेक्षा से तेरह कषाय बन्धहेतु के रूप में माने जाते हैं। अनिवृत्तिबादरसम्पराय गुणस्थान में नौ योग, संज्वलनकषाय चतुष्क और वेदत्रिक-ये बन्ध के हेतु होते हैं । सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान में नौ योग और संज्वलनलोभ बन्धहेतु रहते हैं । उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगी केवली में केवल योग ही बन्ध हेतु के रूप में माना जाता है । उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय-इन दोनों गुणस्थानों में नौ-नौ योग बन्धहेतु माने गए हैं। सयोगी केवली गुणस्थान में केवल सात योग ही बन्धहेतु के रूप में होते हैं। _सिद्धसेनगणि ने तत्त्वार्थसूत्र के नवें अध्याय के दसवें सूत्र की टीका में स्पष्ट रूप से गुणस्थान शब्द का उल्लेख किया है। प्रस्तुत सूत्र परिषहों से सम्बन्धित है । मूल सूत्र में यह कहा गया है कि सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानवी जीवों को चौदह परिषह होते हैं । इसकी टीका में सिद्धसेनगणि लिखते हैं कि नवें गुणस्थान में लोभादि स्थूल कषायों का क्षय या उपशम करके दसवें गुणस्थान में आत्मा सूक्ष्म लोभ के परमाणु का अनुभव या वेदन करती है । सूक्ष्म लोभ को ही सूक्ष्मसम्पराय कहा गया है । इस गुणस्थानवर्ती उपशमक या क्षपक आत्मा चतुर्दश परिषहों का अनुभव करती है । सिद्धसेनगणि का यह भी कहना है कि मूल सूत्र में जो छद्मस्थवीतराग शब्द आया है, उससे दसवें गुणस्थानवर्ती संयत का ग्रहण करना चाहिए । पुनः नवें अध्याय के ही ग्यारहवें सूत्र में जिन शब्द की टीका में अन्त्य और उपान्त्य गुणस्थानवर्ती-ऐसा उल्लेख किया है । इससे स्पष्ट है कि सिद्धसेनगणि का संकेत क्रमशः तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान से है । इसी क्रम में नवें अध्याय के बारहवें सूत्र की टीका में बादरसम्पराय अवस्था में बाईस परिषह होते हैं, यह कहकर अन्त में वे लिखते हैं कि यह गुणस्थानों में संभावित परिषहों का उल्लेख हुआ। (उक्ता गुणस्थानेषु यथासम्भव परिषहाः) उनके इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ भी गुणस्थानों के सन्दर्भ में परिषहों की चर्चा है । इसी नवें अध्याय के अठारहवें सूत्र में पांच प्रकार के चारित्रों की चर्चा है । इस सूत्र की टीका में सिद्धसेनगणि ने पांचों प्रकार के चारित्रों की तथा औपशमिक और क्षपक श्रेणियों की विस्तृत चर्चा की है । इस चर्चा के प्रसंग में अविरत, देशविरत, प्रमत्तविरत और अप्रमत्तविरत-इन चार गुणस्थानों का उल्लेख किया है । यह बताया गया है कि अप्रमत्तसंयत अवस्था में श्रेणी को प्रारम्भ करके सर्वप्रथम अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क और दर्शनत्रिक का क्षय करके, क्रमपूर्वक कर्मप्रकृतियों का क्षय करते हुए, Jain Education Intemational Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{257} सूक्ष्मसम्पराय नामक दसवें गुणस्थान को प्राप्त होता है । यहाँ सूक्ष्मसम्पराय संयमी को दसवें गुणस्थानवर्ती कहना इस बात को स्पष्ट सिद्ध करता है कि सिद्धसेनगणि गुणस्थान की अवधारणा से पूर्णतः परिचित थे । इसी क्रम में आगे उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय को क्रमशः एकादश और द्वादश गुणस्थानवर्ती कहा गया है । इससे भी यह सिद्ध होता है कि उन्होंने पांच प्रकार के चारित्रों में गुणस्थानों का अवतरण किया है । तत्त्वार्थसूत्र के नवें अध्याय का बाईसवाँ सूत्र तौ प्रकार के प्रायश्चितों से सम्बन्धित है । इस सूत्र की टीका में अप्रमत्त शब्द का उल्लेख आया है, किन्तु इस शब्द के उल्लेख मात्र से यह निर्णय करना कठिन है कि यहाँ सिद्धसेनगणिगणस्थान विशेष की चर्चा कर रहे हैं । इसके पश्चात तत्त्वार्थसत्र के नवें अध्याय के उनतीसवें सत्र से लेकर छयालीसवें सूत्र तक चार ध्यानों का विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है। इन सूत्रों की टीका में सिद्धसेनगणि ने गुणस्थानों की अपेक्षा से विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है । पैंतीसवें सूत्र की टीका में आर्तध्यान के स्वामी की चर्चा करते हुए मूल सूत्र में तो केवल अविरत, देशविरत और प्रमत्तसंयत-इन तीन अवस्थाओं का उल्लेख है, किन्तु सिद्धसेनगणि ने इन्हें क्रमशः चतुर्थ, पंचम और षष्ठ गुणस्थानवर्ती कहा है । मात्र यही नहीं उन्होंने इन तीनों अवस्थाओं का भी विस्तृत विवरण प्रस्तुत किया है । इसी क्रम में आगे सैंतीसवें सूत्र धर्मध्यान के स्वामी की चर्चा के प्रसंग में अप्रमत्तसंयत का उल्लेख हुआ है । यद्यपि यहाँ अप्रमत्तसंयत अवस्था के निर्देश में गुणस्थान शब्द का स्पष्ट उल्लेख नहीं है, फिर भी यहाँ सप्तम गुणस्थान का निर्देश स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं है । इसी सूत्र की टीका में अविरत, देशविरत और प्रमत्तसंयत का भी उल्लेख आया है, तथा इन तीनों अवस्थाओं में रौद्रध्यान की अवस्था को भी स्वीकार किया गया है । इसी विवेचन के प्रसंग में अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत; उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणी के अभिमुख होकर धर्मध्यान के स्वामी माने गए हैं । इसके पश्चात् तत्त्वार्थसूत्र के नवें अध्याय के अड़तीसवें सूत्र में उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय को ध्यान होता है, इसका उल्लेख है । इसकी टीका में सिद्धसेनगणि ने स्पष्ट रूप से उपशान्तकषाय को एकादश गुणस्थानवर्ती और क्षीणकषाय को द्वादश गुणस्थानवर्ती कहा है । मात्र यही नहीं; इस चर्चा में उसके पूर्व के गुणस्थानों का भी उल्लेख हुआ है । कहा गया है कि अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में कर्मों की विशुद्धि करती हुई आत्मा अपूर्वकरण गुणस्थान में प्रवेश करती है । वहाँ स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी, गुणसंक्रमण आदि को करती हुई अनिवृत्तिकरण गुणस्थान को प्राप्त होती है। इस गुणस्थान में बादरसम्परायकषाय की सत्ता होने से इसे अनिवृत्तिबादरकषाय नाम भी दिया गया है । इसके पश्चात् सूक्ष्म लोभ की सत्ता अवशिष्ट रहने पर साधक को सूक्ष्मसम्पराय संयत कहा जाता है । इसी सूत्र की टीका के अन्त में यह बताया गया है कि उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ और क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ को शुक्लध्यान की प्राप्ति होती है । अग्रिम सूत्र में शुक्लध्यान के चार चरणों का उल्लेख करते हुए क्रमशः उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ पृथकत्ववितर्कसविचार नामक शुक्लध्यान के प्रथम चरण की प्राप्ति होती है । इसी क्रम में गुणस्थानवर्ती आत्मा को एकत्वअवितर्कअविचार नामक शुक्लध्यान के द्वितीय चरण की प्राप्ति होती है । शुक्लध्यान के अग्रिम दो चरण केवली को होते हैं, छद्मस्थ को नहीं, ऐसा मूलसूत्र एवं भाष्य में उल्लेख है; किन्तु सिद्धसेनगणि ने यहाँ केवली शब्द की टीका में क्रमशः तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवर्ती कहा है और इस क्रम में यह माना है कि त्रयोदश गुणस्थानवर्ती सयोगी केवली को सूक्ष्मक्रिया नामक शुक्लध्यान के तृतीय चरण की और चतुर्दश गुणस्थानवर्ती अयोगी केवली को व्युपरतक्रिया नामक शुक्लध्यान के चतुर्थ चरण की प्राप्ति होती है। इसप्रकार हम देखते हैं कि सिद्धसेनगणि ने तत्त्वार्थसूत्र में प्रस्तुत ध्यान सम्बन्धी विचारणा का टीका में स्पष्ट रूप से गुणस्थानों का अवतरण किया तत्त्वार्थसूत्र के नवें अध्याय के सैंतालीसवें सूत्र में सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनन्तानुबन्धी वियोजक (चारित्र) दर्शनमोह क्षपक, चारित्रमोह उपशमक, मोहनीय उपशमक, उपशान्तमोह (चारित्र) मोहनीय क्षपक, क्षीणमोह एवं जिन ऐसी दस गुणश्रेणियों या आध्यात्मिक विकास की स्थितियों की चर्चा है । यह स्पष्ट है कि इसमें सम्यग्दृष्टि श्रावक (देशविरत), विरत (प्रमत्तसंयत), Jain Education Intemational ucation International For Private & Personal use only www.jain Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{258} उपशान्तमोह, क्षीणमोह, और जिन (केवली) शब्दों का उल्लेख है; इस उल्लेख में गुणस्थान से सम्बन्धित नामों का उल्लेख हुआ है, किन्तु यह सूत्र जिन अवस्थाओं का उल्लेख करता है, वे गुणस्थान की अवधारणा से आंशिक रूप से भिन्न हैं । इस सूत्र में मिथ्यादृष्टि, सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि का कोई उल्लेख नहीं है । इसी प्रकार इस सूत्र में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत के ऐसे दो विभाग भी नहीं किए गए हैं । यद्यपि अनन्तानुबन्धी वियोजक को अप्रमत्तसंयत नामक गुणस्थान से जोड़ा जाता है, किन्तु मूलग्रन्थ और भाष्य में इस सन्दर्भ में कोई उल्लेख नही हैं । इसी प्रकार उपशमक और क्षपक के उल्लेख में अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसम्पराय का समावेश किया जा सकता है, किन्तु न तो मूलसूत्र में और न ही भाष्य में और न ही सिद्धसेनगणि की प्रस्तुत सत्र की टीका में इनका कहीं निर्देश है । सिद्धसेनगणि ने इस चर्चा में मात्र यही बताया है कि सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा श्रावक, श्रावक की अपेक्षा विरत, विरत की अपेक्षा अनन्तानुबन्धी वियोजक आदि अवस्थाओं में अनन्तगुणा निर्जरा अधिक होती है । इसी क्रम में नवें अध्याय के अड़तालीसवें सूत्र की टीका में पांच प्रकार के निग्रंथों का उल्लेख है । पुलाक, बकुश, कुशील, निग्रंथ और स्नातक-ऐसे पांच प्रकार हैं । मूल सूत्र एवं भाष्य में तो इस प्रसंग में गुणस्थानों का कहीं कोई निर्देश नहीं है, किन्तु निर्ग्रन्थ शब्द की टीका में सिद्धसेनगणि ने एकादश और द्वादश गुणस्थानवर्ती-ऐसा स्पष्ट उल्लेख किया है। इसी क्रम में आगे स्नातक शब्द की टीका में त्रयोदश गुणस्थानवर्ती सयोगी केवली तथा शैलेशी अवस्था को प्राप्त अयोगी केवली का उल्लेख किया है । यहाँ गुणस्थान शब्द के प्रयोग से यह स्पष्ट हो जाता है कि सिद्धसेनगणि ने पाँच प्रकार के निर्ग्रन्थों में गुणस्थान की अवधारणा को अवतरित करने का प्रयास किया है । इसी क्रम में, किस प्रकार के निर्ग्रन्थ में कौनसी लेश्या होती है, इसकी चर्चा है। इस चर्चा में यह बताया गया है कि पुलाक में तीन शुभ लेश्याएँ होती है । बकुश में छहों लेश्याएँ होती हैं । बकुश और प्रतिसेवना कुशील में छहों लेश्याएँ होती हैं। सूक्ष्मसंपराय निर्ग्रन्थ और स्नातक में मात्र शुक्ललेश्या होती है । इसमें भी अयोगी केवली अवस्था में लेश्या का अभाव होता है । यहाँ यद्यपि सूक्ष्मसंपराय, केवली, अयोगी केवली का उल्लेख हुआ है, किन्तु यह उल्लेख गुणस्थानों से सम्बन्धित है अथवा एक सामान्य निर्देश है, यह कहना कठिन है । तत्त्वार्थसूत्र के दसवें अध्याय में मोक्ष के स्वरूप का विवेचन है । इस दसवें अध्याय के तीसरे सूत्र में यह कहा गया है कि सम्पूर्ण कर्मों का क्षय होने पर मोक्ष की प्राप्ति होती है । यहाँ मूलसूत्र और भाष्य में तो गुणस्थानों की कोई चर्चा नहीं है, किन्तु इस सूत्र की टीका में सिद्धसेनगणि ने, किस गुणस्थान में कितनी कर्मप्रकृतियों का क्षय होता है, इसकी विस्तार से चर्चा की है । वे लिखते हैं कि अविरतसम्यग्दृष्टि, देशयति (देशविरत), प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों में अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क, मिथ्यात्वमोह, मिश्रमोह, और सम्यक्त्वमोह-इन सात कर्मप्रकृतियों का क्षय होता है । अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में मोहनीय कर्म की बीस, नामकर्म की तेरह और दर्शनावरणीय की तीन कर्मप्रकृतियों का क्षय हो जाता है । सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान में सूक्ष्म लोभ, हास्यषट्क और तीन वेद का क्षय हो जाता है । क्षीणकषाय गुणस्थान में, दर्शनावरणीय कर्म की, निद्रा और प्रचला नामक दो प्रकृतियों का क्षय हो जाता है । इसके अन्तिम समय में ज्ञानावरणीय की पाँच, दर्शनावरणीय की चार और अन्तराय की पाँच-इन चौदह प्रकृतियों का क्षय होता है। अयोगी केवली गुणस्थान के द्विचरम समय में नामकर्म की पैंतालीस कर्मप्रकृतियों का क्षय होता है तथा अयोगी केवली गुणस्थान के चरम समय में सम्पूर्ण कर्मप्रकृतियों का क्षय हो जाता है । इस चर्चा में यद्यपि मिथ्यात्व गुणस्थान, सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, अपूर्वकरण गुणस्थान और उपशान्तमोह गुणस्थान की कोई चर्चा हमें दृष्टिगत नहीं होती है, फिर भी कौनसी प्रकृति किस गुणस्थान में क्षय होती है, इसकी विस्तृत चर्चा से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सिद्धसेनगणि ने दसवें अध्याय के इस तृतीय सूत्र की टीका में कर्मप्रकृतियों के क्षय की अपेक्षा से गुणस्थानों की चर्चा की है । पुनः तत्त्वार्थसूत्र के दसवें अध्याय के सातवें सूत्र में सिद्धों के अनुयोगद्वारों की चर्चा करते हुए अविरतसम्यग्दृष्टि, सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत (देशविरत), प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, छद्मस्थवीतराग और केवली अवस्थाओं का निर्देश हुआ है । यहाँ Jain Education Intemational Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... चतुर्थ अध्याय.......{259} 'सम्यग्दृष्ट्यादि गुणस्थानानाम्'-ऐसा स्पष्ट उल्लेख होने से हम यह मान सकते हैं कि सिद्धसेनगणि यहाँ पर गुणस्थानों का निर्देश कर रहे हैं । यद्यपि इन नामों के निर्देश के अलावा इन गुणस्थानों के सन्दर्भ में उन्होंने कोई विशेष चर्चा प्रस्तुत नहीं की है। ___ तत्त्वार्थसूत्र की भाष्य आधारित सिद्धसेनगणि की इस टीका में गुणस्थानों की अवधारणा का यत्र-तत्र प्रसंगोपात निर्देश हुआ है । जैनदर्शन की विभिन्न अवधारणाओं के सम्बन्ध जहाँ उन्हें योग्य प्रतीत हुए, वहाँ गुणस्थानों का अवतरण भी किया है। इस अध्ययन से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि सिद्धसेनगणि गुणस्थान की अवधारणा और उसकी सूक्ष्मताओं से सुपरिचित रहे हैं । स्थान-स्थान पर उन्होंने गुणस्थान के लिए स्थान या गुणस्थान शब्द का भी प्रयोग किया है, फिर भी इस सम्पूर्ण टीका में एक भी स्थल हमें ऐसा नहीं मिला है, जहाँ उन्होंने एक साथ चौदह गुणस्थानों का नामनिर्देश करके उनके स्वरूप को स्पष्ट किया है। गुणस्थानों के सन्दर्भ में किस गुणस्थान में किन कर्मप्रकृतियों का क्षय होता है, इसकी कोई चर्चा सिद्धसेनगणि ने की है, तो वह सामान्यतः कर्मग्रन्थों पर आधारित प्रतीत होती है । इस समग्र चर्चा में हमें जो सामान्य अवधारणाएं प्रचलित रही हैं, उससे कोई भी प्रतिपत्ति परिलक्षित नहीं होती है। आचार्य हरिभद्र की तत्त्वार्थ भाष्यटीका और गुणस्थान आचार्य हरिभद्रसूरि जैन धर्म की श्वेताम्बर शाखा के एक प्रतिभा सम्पन्न बहुश्रुत आचार्य हैं । अनुश्रुति से यह माना जाता है कि उन्होंने १४४४ ग्रन्थों की रचना की; किन्तु वर्तमान में उपलब्ध लगभग ७५ ग्रन्थ ऐसे हैं, जिन्हें सामान्यतया आचार्य हरिभद्र की रचना माना जाता है । ज्ञातव्य है कि जैन परम्परा में हरिभद्र नाम के अनेक आचार्य हुए हैं । अतः ये सभी ग्रन्थ 'याकिनीसूनु' के नाम से प्रसिद्ध आचार्य हरिभद्र की ही रचना है, यह कहना कठिन है। फिर भी उपलब्ध ग्रन्थों में ४५ ग्रन्थ ऐसे हैं, जिन्हें विद्वानों ने निर्विवाद रूप से याकिनीसूनु आचार्य हरिभद्र की रचना स्वीकार किया है । आचार्य हरिभद्र द्वारा रचित ग्रन्थों में मुख्यतया दो प्रकार के ग्रन्थ हैं। एक आगम ग्रन्थों और पूर्वाचार्यों र्की प्रकृतियों पर उनकी टीकाएं और दूसरे उनके स्वरचित ग्रन्थ और उनकी स्वोपज्ञ टीकाएं । आचार्य हरिभद्र द्वारा रचित ग्रन्थों में विषय वैविध्य ही बहुत है । जहाँ उन्होंने एक और समराइच्चकहा, धूर्ताख्यान आदि अनेक कथाग्रन्थ लिखे, वहीं दूसरी और उन्होंने जैन धर्म और दर्शन पर अनेक गम्भीर ग्रन्थ भी रचे हैं । यहाँ उनके द्वारा रचित विशाल साहित्य के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा करना सम्भव नही है। चूँकि हमारा विवेच्य विषय गुणस्थान सिद्धान्त है, अतः हम यहाँ उन्हीं ग्रन्थों की चर्चा करना आवश्यक समझते हैं, जिनका सम्बन्ध गुणस्थान विवेचन से रहा है । प्रस्तुत प्रसंग में हम जिन आचार्य हरिभद्र का संकेत कर रहे हैं, उन्हें हरिभद्र नामक अन्य आचार्यों से पृथक् करने के लिए विद्वानों ने दो आधार माने हैं । प्रथम तो यह कि आचार्य हरिभद्र को जैन धर्म के प्रति आकर्षित करनेवाली जैन साध्वी महत्तरा याकिनी थी। आचार्य हरिभद्र ने उन्हें धर्ममाता के रूप में स्वीकार किया है और अपनी रचनाओं में अनेक स्थलों पर 'याकिनीसूनु' अर्थात् याकिनी का धर्मपुत्र-ऐसा कहा । दूसरे उन्होंने अपनी रचनाओं में अपने उपनाम 'भवविरह' का भी उपयोग किया है । इन दो विशेषणों की उपलब्धि के आधार पर आचार्य हरिभद्र की रचनाओं को अन्य हरिभद्र नामक आचार्यों से पृथक करने में काफी सुविधा हो जाती है । आचार्य हरिभद्र की यह विशेषता रही है कि उन्होंने अपनी रचनाओं में अन्य धर्मों के दर्शन के प्रति जैसा उदार भाव प्रदर्शित किया है, वैसा अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता है । यही कारण है कि याकिनीसूनु आचार्य हरिभद्र को समदर्शी हरिभद्र के नाम से भी जाना जाता है । जहाँ तक समदर्शी आचार्य हरिभद्र के काल का प्रश्न है, विचारश्रेणी नामक ग्रन्थ में आचार्य मेरुतुंग ने उनका समय विक्रम संवत् ५८५ माना है । यदि इसे विक्रम संवत् के स्थान पर शक् संवत् माना जाए, तो ऐसी स्थिति में ५८५+१३५ अर्थात् विक्रम संवत् ७२० हो सकता है, क्योंकि अनेक स्थलों पर शक संवत् का भी विक्रम के रूप Jain Education Intemational Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{260} में उल्लेख किया गया है । हरिभद्र के समय को लेकर मुनि जिनविजयजी ने 'पर्याप्त उवापोह किया है। डॉ. सागरमल जैन ने भी अपने लेख 'समदर्शी आचार्य हरिभद्र' में विस्तार से इस पर विचार किया और हरिभद्र को विक्रम की आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ का आचार्य माना है । आचार्य हरिभद्र सिद्धसेनगणि क्षमाश्रमण से परवर्ती हैं; क्योंकि आचार्य हरिभद्र ने तत्त्वार्थसूत्र और स्वोपज्ञभाष्य पर जो टीका लिखी है, उस पर सिद्धसेनगणि की टीका का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। सिद्धसेनगणि का काल विक्रम की सातवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध है, अतः आचार्य हरिभद्र का काल विक्रम की आठवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध समुचित लगता है । श्वेताम्बर परम्परा में उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र और स्वोपज्ञभाष्य पर जो टीकाएँ उपलब्ध होती हैं, उसमें सिद्धसेनगणि और आचार्य हरिभद्र की टीकाएँ महत्वपूर्ण हैं । ये दोनों टीकाएँ मुख्यतः उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र के स्वोपज्ञभाष्य को ही अपना आधार बनाती हैं । तत्त्वार्थसूत्र की स्वोपज्ञभाष्य पर हरिभद्रसूरि के नाम से उपलब्ध यह टीका याकिनीसूनु हरिभद्र की है या अन्य किसी हरिभद्र नामक आचार्य की, यह एक विवादास्पद विषय है । जैन परम्परा में हरिभद्र नामक अनेक आचार्य हुए, अतः यह टीका किस हरिभद्र की है, इसे निश्चित करना कठिन है । इसका मुख्य कारण यह है कि तत्त्वार्थभाष्य पर उपलब्ध यह टीका अपूर्ण रूप से ही उपलब्ध है । आचार्य हरिभद्र, तत्त्वार्थसूत्र के सातवें अध्याय के मध्य तक की यह टीका लिख पाए थे । उसके पश्चात् यशोभद्रसूरि ने दसवें अध्याय के अन्तिम सूत्र तक टीका लिखकर इसे पूर्ण किया । इस प्रकार यह टीका आचार्य हरिभद्रसूरि से प्रारम्भ होकर आचार्य यशोभद्रसूरि द्वारा समाप्त हुई । यहाँ यह निर्णय करना भी कठिन है कि यह यशोभद्रसूरि आचार्य हरिभद्र के साक्षात् शिष्य थे या परम्परा से शिष्य थे, फिर भी यशोभद्र नाम से ऐसा लगता है कि वे उनके साक्षात् शिष्य रहे होंगे । प्रस्तुत कृति के संपादक आचार्य आनंदसागरजी का यह मन्तव्य है कि यह कृति निश्चित रूप से 'भवविरह' उपनामधारी याकिनीसूनु आचार्य हरिभद्र की ही टीका है। यह एक भिन्न बात है कि वे अपने जीवनकाल में इसे पूर्ण नहीं कर पाए और उनके यशोभद्र नामक शिष्य ने ही इसे पूर्ण किया । आचार्य आनंदसागरजी ने इसी प्रसंग में यह भी सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि हरिभद्रसूरि कृत यह वृत्ति सिद्धसेनगणि कृत वृत्ति से भी प्राचीन है । यद्यपि उन्होंने इसकी पुष्टि में कुछ प्रमाण भी प्रस्तुत किए हैं, किन्तु वे सभी प्रमाण दोनों की समरूपता पर ही अधिक बल देते हैं; अतः कौन किससे प्रभावित है, यह निर्णय कर पाना कठिन है । जहाँ तक जैन विद्वानों के मत का प्रसंग है, वे सिद्धसेनगणि कृत वृत्ति को ही प्राचीन मानते हैं । आचार्य आनंदसागरजी ने अपना जो मन्तव्य प्रस्तुत किया है, उसका आधार परम्परागत पट्टावली ही है, जिसमें हरिभद्रसूरि का समय विक्रम संवत् ५८५ माना गया है; किन्तु हरिभद्र के ग्रन्थों में जिनदासगणि कृत नन्दीचूर्णि, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण कृत विशेषावश्यकभाष्य की गाथाएं उपलब्ध होती हैं । इससे यही मानना होगा कि हरिभद्रसूरि का सत्ता- समय सिद्धसेनगणि के पश्चात् ही है । गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी जो चर्चाएं प्रस्तुत कृति में उपलब्ध होती हैं, उससे भी यह लगता है कि यह कृति याकिनीसूनु हरिभद्र और उनके शिष्य यशोभद्रसूरि की ही है । जब तक इसके विरूद्ध अन्य कोई प्रमाण उपलब्ध न हो, तब तक हमें इसी अवधारणा को स्वीकार करके चलना होगा। अग्रिम पृष्ठों में हम यह देखने का प्रयत्न करेगे कि आचार्य हरिभद्र की तत्त्वार्थसूत्र स्वोपज्ञभाष्य की इस टीका में • गुणस्थान सिद्धान्त किस रूप में उपलब्ध होता है । तत्त्वार्थसूत्र की हरिभद्रीय टीका में गुणस्थान : उमास्वाति की तत्त्वार्थसूत्र पर स्वोपज्ञभाष्य के पश्चात् श्वेताम्बर परम्परा में जो टीकाएं उपलब्ध होती हैं, उनमें सिद्धसेनगणि की टीका के पश्चात् याकिनीसुनू आचार्य हरिभद्र की टीका का स्थान आता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि आचार्य सिद्धसेन गणि और आचार्य हरिभद्रसूरि दोनों ने ही तत्त्वार्थसूत्र मूल की अपेक्षा अपनी टीका का आधार उमास्वाति के स्वोपज्ञभाष्य को बनाया है । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{261} चूँकि न तो तत्त्वार्थसूत्र के मूलसूत्रों में और न ही उसके स्वोपज्ञभाष्य में गुणस्थानों का कोई उल्लेख है, अतः इन दोनों टीकाकारों ने ही गुणस्थानों के सन्दर्भ में अपनी टीकाओं में विस्तृत चर्चा नहीं की है । सिद्धसेनगणि ने मात्र एक स्थान पर गुणस्थानों का संक्षिप्त विवेचन किया है। जहाँ तक आचार्य हरिभद्र का प्रश्न है, उन्होंने भी अपनी तत्त्वार्थसूत्र के स्वोपज्ञभाष्य की इस टीका में गुणस्थानों की अवधारणा का कोई सुस्पष्ट उल्लेख नहीं किया है । आचार्य हरिभद्र की इस टीका में गुणस्थान सम्बन्धी जो प्रकीर्ण उल्लेख हैं, वे मुख्य रूप से केवल नवें और दसवें अध्याय में ही हैं । अध्याय एक, छः और आठ में मात्र प्रसंग आधारित कुछ संकेत ही मिलते हैं। अग्रिम पष्ठों में हम इसकी विस्तत चर्चा करेंगे। सर्वप्रथम निर्देश स्वामित्व आदि सूत्र की टीका (पृष्ठ-४६) में मात्र सयोगी केवली और शैलेशी अवस्था को प्राप्त निरूद्धयोगी (अयोगी) गुणस्थानों से सम्बन्धित इन दो शब्दों का उल्लेख मिलता है। यद्यपि इसकी व्याख्या में भी गुणस्थान शब्द का स्पष्ट प्रयोग नहीं किया गया है, अतः इसे एक सामान्य उल्लेख ही माना जा सकता है । इसके पश्चात् प्रथम अध्याय में ही अवधि ज्ञान एवं मनःपर्यवज्ञान की चर्चा करते हुए अविरत, संयतासंयत और संयत-ऐसे तीन शब्दों का उल्लेख मिलता है, जिन्हें गुणस्थानों से सम्बन्धित माना जा सकता है, किन्तु यहाँ भी इन अवस्थाओं का विशेष विवेचन उपलब्ध नहीं होता है । अतः, मात्र यही कहा जा सकता है कि यद्यपि आचार्य हरिभद्र गुणस्थान सिद्वांत से अवश्य परिचित रहे होंगे, किन्तु उस सिद्धान्त को आधार बनाकर प्रस्तुत प्रसंग में उन्होंने कोई विस्तृत विवेचना नहीं की है। पुनः आचार्य हरिभद्र ने तत्त्वार्थसूत्र के स्वोपज्ञभाष्य के छठे अध्याय के बीसवें सूत्र की टीका में सरागसयंम, संयमासंयम, देशविरत और सर्वविरत अवस्थाओं का चित्रण करते हुए उनका संक्षिप्त विवरण दिया है । यद्यपि देशविरत और सर्वविरत-ये दोनों अवस्थाएं क्रमशः पांचवें और छठे गुणस्थान के रूप में स्वीकृत रही है, किन्तु यदि हम इस सूत्र की सम्पूर्ण टीका को देखें तो उसमें आचार्य हरिभद्र ने कहीं भी न तो गुणस्थान शब्द का कोई उल्लेख किया है और न ही इनके स्वरूप की विस्तृत विवेचना की है । प्रस्तुत प्रसंग में देव आयुष्य के बन्ध के कारणों के रूप में इन अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है, अतः इस प्रसंग में भी हम ऐसा नहीं कह सकते कि आचार्य हरिभद्र ने यहाँ गुणस्थानों की कोई चर्चा की है। पुनः तत्त्वार्थसूत्र के स्वोपज्ञभाष्य के आठवें अध्याय के दसवें सूत्र की टीका में आचार्य हरिभद्र ने चारित्रमोह कर्मप्रकृतियों की चर्चा के प्रसंग में मिथ्यादृष्टि, देशविरत, सर्वविरत आदि अवस्थाओं का उल्लेख किया है । इसमें यह भी बतलाया है कि अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से सम्यग्दर्शन सम्भव नहीं है। अप्रत्याख्यानीय कषाय के सद्भाव में देशविरति सम्भव नहीं है। प्रत्याख्यानीय कषाय की उपस्थिति में सर्वविरति का लाभ नहीं होता है । इस प्रकार यहाँ मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, देशविरत और सर्वविरत-इन चार अवस्थाओं का कषाय के प्रसंग में उल्लेख किया गया है, किन्तु यहाँ भी कषायों के स्वरूप की ही चर्चा विशेष रूप से मिलती है। यह समस्त चर्चा मुख्य रूप से मोहनीय कर्म के बन्ध और क्षयोपशम से सम्बन्धित है और निश्चित है कि मोहनीय कर्म की प्रकृतियों के क्षयोपशम का सम्बन्ध गुणस्थान सिद्धान्त से रहा हुआ है, किन्तु सात-आठ पृष्ठ के विस्तृत विवेचन में आचार्य हरिभद्र ने कहीं भी गुणस्थान शब्द का प्रयोग नहीं किया है । अतः यह कहना कठिन है कि इस सम्पूर्ण विवेचन में गुणस्थान सिद्धान्त की दृष्टि से कोई विचार किया गया हो। इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र के स्वोपज्ञभाष्य की आचार्य हरिभद्र की टीका में अध्याय एक से लेकर आठ तक की सम्पूर्ण विवेचना में चाहे गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित कुछ अवस्थाओं का नाम मिलता हो; किन्तु उसे गुणस्थान सिद्धान्त की विवेचना के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि इस सम्पूर्ण विवेचन में हमें कहीं भी गुणस्थान शब्द का उल्लेख नहीं मिला । मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि, देशविरत, सर्वविरत आदि के उल्लेख जैन दर्शन में गुणस्थान सिद्धान्त के अतिरिक्त उपलब्ध होते हैं, क्योंकि ये अवस्थाएं जैनदर्शन में सामान्य रूप से स्वीकृत रही हैं । गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित जो थोड़ा-बहुत विवेचन प्रस्तुत टीका में पाया जाता है, वह नवें अध्याय से सम्बन्धित है । नवें अध्याय Jain Education Intemational Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{262} में परिषहों की चर्चा के प्रसंग में, दसवें सूत्र की टीका प्रारम्भ करने के पूर्व उन सूत्रों की टीका के अन्त में, आचार्य हरिभद्र ने स्पष्ट रूप से गुणस्थान शब्द का प्रयोग किया है । वहाँ प्रारम्भ में ये लिखते हैं कि 'गुणस्थानेषु क्वेत्यहि' । पुनः बारहवें सूत्र की टीका के अन्त में लिखते हैं कि 'उक्ता गुणस्थानेषु यथा सम्भव परिषहाः । (अध्याय-६ सूत्र-१२ पृष्ठ-६६) इस प्रकार प्रस्तुत विवेचना में किस गुणस्थानवी जीव को कितने परिषह होते हैं, इसकी स्पष्ट चर्चा है। यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र के मूलसूत्रों में तो मात्र इतना कहा गया है कि जिन को ग्यारह परिषह, सूक्ष्मसम्परायछद्मस्थवीतराग को चौदह और बादरसम्पराय युक्त मुनि को बाईसों परिषह होते हैं, किन्तु आचार्य हरिभद्र ने चर्चा के पूर्व और अन्त में गुणस्थान शब्द का प्रयोग करके यह स्पष्ट कर दिया है कि यहाँ ये परिषह, इस चर्चा के सन्दर्भ में 'गुणस्थानों' का अवतरण कर रहे हैं। परिषह की इस चर्चा में आचार्य हरिभद्र ने यह स्पष्ट किया है कि बाईस परिषहों में प्रज्ञा परिषह और अज्ञान परिषह-ये दो परिषह ज्ञानावरण कर्म के कारण होते हैं । दर्शनमोह के कारण दर्शन परिषह और लाभांतराय के कारण अलाभ परिषह होता है। नाग्न्य, निषद्या, याचना, आक्रोश, अरति, स्त्री, सत्कार आदि सप्त परिषह चारित्र मोहनीय के कारण होते हैं । इनमें भी जुगुप्सा के कारण नाग्न्य परिषह होता है । अरति के उदय के कारण अरति परिषह होता है । वेद के उदय के कारण स्त्री परिषह होता हैं। निषद्या परिषह का कारण भय है । क्रोध के उदय में आक्रोश परिषह होता है। मान के उदय में याचना परिषह होता है । लोभ के उदय में सत्कार परिषह होता है । इस प्रकार ये सातों परिषह चारित्रमोहनीय की कर्मप्रकृतियों के उदय के कारण होते हैं, शेष ग्यारह परिषह वेदनीय कर्म के उदय के कारण होते हैं, जो क्रमशः क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, तृण, स्पर्श और मल परिषह हैं। चूंकि बादरसम्पराय नामक नवें गुणस्थान तक मोहनीय आदि आठों कर्मो का उदय रहता है, अतः इस गुणस्थान में सभी परिषहों की संभावना को स्वीकार किया गया है । सूक्ष्मसम्पराय नामक दसवें गुणस्थान में यद्यपि सूक्ष्म लोभ की सत्ता रही हुई है, फिर भी वह इतना सूक्ष्म होता है कि इस गुणस्थान में दर्शनमोहनीय के निमित्त से होने वाला एक और चारित्रमोहनीय के निमित्त से होनेवाले सात-ऐसे आठ परिषह समाप्त होकर शेष चौदह परिषह होते हैं । जिन या केवली को मोह के साथ-साथ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मक्षय हो जाता है; अतः मोहनीयजन्य आठ ज्ञानावरणजन्य दो और अन्तरायजन्य एक-ऐसे ग्यारह परिषहों का अभाव होता है और वेदनीयजन्य शेष ग्यारह परिषह ही रहते हैं । आचार्य हरिभद्र ने परिषहों में गुणस्थानों का अवतरण करते हुए इस चर्चा के प्रांरभ में और अन्त में गुणस्थान शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु इसके अतिरिक्त (६/१०) नवें अध्याय के दसवें सूत्र की व्याख्या में 'नवमें गुणस्थाने दसमे सूक्ष्मलोभ परमाणवो विद्यन्ते'-ऐसा स्पष्ट उल्लेख किया है । इससे यह सुनिश्चित हो जाता है कि आचार्य हरिभद्र के समक्ष चौदह गुणस्थानों की एक सुस्पष्ट विचारणा उपस्थित थी। पुनः आचार्य हरिभद्र ने तत्त्वार्थसूत्र की इस टीका में नवें अध्याय में चार ध्यानों की चर्चा करते हुए भी गुणस्थान की अवधारणा का स्पष्ट उल्लेख किया है। नवें अध्याय के पैंतीसवें सूत्र 'तद्विरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम्' की व्याख्या करते हुए उन्होंने यह बताया है कि आर्तध्यान चतुर्थ, पंचम और षष्ठ गुणस्थानवर्ती को होता है । यहाँ भी उन्होंने स्पष्ट रूप से गुणस्थान शब्द का उल्लेख किया है। 'अस्यत्रयस्वामिश्चितुर्थपंचमषष्ठगुणस्थानवर्तिन' (पृ ४६०) इसी प्रसंग में रौद्रध्यान के कर्ता रूप में अविरतसम्यग्दृष्टि और देशविरत इन दो गुणस्थानों का उल्लेख हुआ है । यद्यपि यहाँ आचार्य हरिभद्र ने स्पष्ट रूप से गुणस्थान शब्द का निर्देश तो नहीं किया है, किन्तु अविरत और देशविरत-इन दोनों शब्द की व्याख्या इसी अर्थ में की गई है। इसी क्रम में धर्मध्यान के अधिकारी के रूप में अप्रमत्तसंयत का उल्लेख हुआ है । इसी प्रसंग में सम्यग्दृष्टि, अप्रमत्तसंयत आदि का भी उल्लेख किया है । पुनः सूत्र ‘उपशान्तक्षीणकषाययोश्च' ६/३८ की टीका में उपशान्तकषाय को स्पष्ट रूप से एकादश गुणस्थानवर्ती Jain Education Intemational International For Private & Personal use only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... चतुर्थ अध्याय........{263} कहा गया है । इसी सूत्र की टीका में आगे अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसम्पराय, उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय का उल्लेख हुआ है । यद्यपि यहाँ सूक्ष्मसम्पराय का स्पष्ट उल्लेख तो नहीं है, किन्तु अपूर्वकरण के पश्चात् 'ततः परम स्थानम्' के आधार पर इस गुणस्थान का भी उल्लेख माना जा सकता है । इसके पश्चात् नवें अध्याय के चालीसवें सूत्र ‘परेकेवलिनः' की टीका में शुक्लध्यान की चर्चा में 'केवलिन एव त्रयोदशचतुर्दशगुणस्थानक्रमेणैव भवतः', कहकर तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान का भी स्पष्ट उल्लेख किया है । इस प्रकार चारों ध्यानों और उनके अधिकारियों की चर्चा के प्रसंग में अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगी केवली तक सभी गुणस्थानों का प्रायः निर्देश हुआ है । इसमें यह बताया गया है कि चतुर्थ, पंचम और षष्ठ गुणस्थानवर्ती जीवों में आर्तध्यान सम्भव होता है । अविरतसम्यग्दृष्टि और देशविरतसम्यग्दृष्टि-इन दो गुणस्थानों में रौद्रध्यान की संभावना होती है । इसके पश्चात् सम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक धर्मध्यान की संभावना होती है । उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगी केवली और अयोगी केवली-इन चार गुणस्थानों में शुक्लध्यान की संभावना स्वीकार की गई है। तत्त्वार्थसूत्र के नवें अध्याय के सूत्र अड़तालीस में आध्यात्मिक विशुद्धि की दस अवस्थाओं का चित्रण है, क्योंकि आध्यात्मिक विशुद्धि की ये दस अवस्थाएं गुणस्थान सिद्धान्त के विकास की दृष्टि से बीजरूप मानी गई है। डॉ. सागरमल जैन का मानना है कि गुणस्थान सिद्धान्त के विकास में आध्यात्मिक विकास की ये दस अवस्थाएं ही आधारभूत रही हैं, किन्तु अधिकांश जैनाचार्यों ने इन दस अवस्थाओं को दस गुणश्रेणियों के रूप में स्वीकार किया है, क्योंकि इनका स्पष्ट सम्बन्ध कर्मो की अनन्त-अनन्तगुणा निर्जरा से रहा है। आचार्य हरिभद्र की इस टीका में इन अवस्थाओं का चित्रण करते हुए कहीं भी गुणस्थान शब्द का प्रयोग नही किया है। यहाँ मात्र यही बताया गया है कि सम्यक्त्व, श्रावक (देशविरत), विरत (सर्वविरत), अनन्तवियोजक, दर्शनमोह क्षपक, चारित्र मोह उपशमक, उपशान्त चारित्र मोहक्षपक, क्षीणमोह तथा जिन इन दस अवस्थाओं में क्रमशः असंख्येयगुणा कर्म निर्जरा होती है । इस प्रकार आचार्य हरिभद्र ने इस सूत्र की टीका में कहीं भी गुणस्थान शब्द का प्रयोग नहीं करके इन्हें गुणश्रेणी से ही सम्बन्धित माना है। तत्त्वार्थसूत्र के नवें अध्याय के उनपचासवें सूत्र में पांच प्रकार के निर्ग्रन्थों की चर्चा है। इस सूत्रकी टीका में वीतरागछद्मस्थ की व्याख्या करते हुए उन्हें स्पष्ट रूप से 'एकादशद्वादशगुणस्थानवर्तिनः' कहा है । पुनः सयोगी केवली का उल्लेख करते हुए उन्हें त्रयोदशगुणस्थानवर्ती कहा है। इसी प्रकार शैलेशी अवस्था को प्राप्त आत्मा को अयोगी केवली कहा गया है । इस प्रकार सूत्र क्रमांक/४६-५० में उपशान्तकषाय.क्षीणकषाय.सयोगी केवली और अयोगी केवली ऐसे चार गणस्थानों से सम्बन्धित चित्रण उपलब्ध होता है। पुनः तत्त्वार्थसूत्र के दशम अध्याय के सूत्र क्रमांक सात की टीका में सम्यग्दृष्टि, देशविरति (संयतासंयत) प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थान सूचक अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है । विशेषता यह है कि इस टीका में आचार्य हरिभद्र ने सम्यग्दृष्टि आदि को स्पष्ट रूप से गुणस्थान कहकर सम्बोधित किया है। वे लिखते हैं कि 'सम्यग्दृष्ट्यादि गुणस्थानानां केवली पर्यन्तानाम संख्येयगुणोत्कर्ष प्राप्त्या' अर्थात् सम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थान से लेकर केवली पर्यन्त गुणस्थान तक असंख्येय गुणोत्कर्ष की प्राप्ति होती है । इस कथन से यह फलित होता है कि नवें अध्याय के सूत्र ४८ में, जो आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाओं का चित्रण करके उनमें 'असंख्येय गुणनिर्जरा' की बात कही गई है, उसी को आचार्य हरिभद्र ने यहाँ गुणोत्कर्ष कहकर गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित करने का प्रयत्न किया है । जैसा कि हमने पूर्व में उल्लेख किया है, इन दस अवस्थाओं को पूर्वाचार्यों ने गुणश्रेणी के रूप में व्याख्यायित किया है । यहाँ गुणश्रेणियाँ आगे चलकर गुणोत्कर्ष के रूप में गुणस्थान की वाचक बनीं । इस प्रकार आचार्य हरिभद्र ने गुणश्रेणी और गुणस्थान (गुणोत्कर्ष) को सम्बन्धित करने का प्रयत्न अवश्य किया है, क्योकि उन्होंने स्पष्ट रूप से यह भी कहा है कि पूर्वोपार्जित्त कर्म की निर्जरा से ही गुणोत्कर्ष रूप गुणस्थानों की प्राप्ति होती है । आचार्य हरिभद्र के इस स्पष्ट संकेत Jain Education Intemational Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ चतुर्थ अध्याय........{264} के आधार पर यह माना जा सकता है कि 'असंख्येयगुणकर्मनिर्जरा' के रूप में वर्णित इन दस अवस्थाओं से ही गुणस्थान सिद्धान्त का विकास हुआ होगा । इस प्रकार हम देखते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य की हरिभद्रीय टीका में गुणस्थान सिद्धान्त का स्पष्ट एवं विस्तृत विवेचन तो कहीं प्राप्त नहीं होता है; किन्तु यत्र-तत्र जो संकेत उन्होंने दिए हैं, उससे इतना अवश्य फलित होता है कि आचार्य हरिभद्र गुणस्थान की अवधारणा से सुपरिचित थे और जहाँ उन्हें आवश्यक लगा, वहाँ सम्बन्धित सूत्रों की व्याख्या में उन्होंने गुणस्थानों की विविध अवस्थाओं का निर्देश ही दिया । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्याय 5 श्वेताम्बर एवं दिगम्बर कर्मसाहित्य में गुणस्थान कर्मप्रकृति और गुणस्थान सिद्धान्त । चन्द्रर्षिकृत पंचसंग्रह और गुणस्थान । प्राचीन कर्मग्रन्थ और गुणस्थान । नवीन पंचम कर्मग्रन्थ और गुणस्थान सिद्धान्त । दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह और गुणस्थान सिद्धान्त । दिगम्बर संस्कृत पंचसंग्रह और गुणस्थान। गोम्मटसार और गुणस्थान सिद्धान्त। CCCCC CCCCC JalyEducation international For Private & ale Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ هههههههههههههههههمههم अध्याय 5 שששששששששששששששששששששש श्वेताम्बर एवं दिगम्बर कर्मसाहित्य में गुणस्थान कर्मप्रकृति और गुणस्थान सिद्धान्त श्वेताम्बर जैन कर्मसाहित्य के उपलब्ध प्राचीनतम ग्रन्थों में शिवशर्मसूरि प्रणीत कर्मप्रकृति का प्रथम स्थान है ।३३८ शिवशर्मसूरि एवं उनकी कर्मप्रकृति का काल लगभग छठी शताब्दी माना जाता है। इसकी द्वितीय गाथा में बन्धकरण, संक्रमणकरण, उद्वर्तनकरण, अपवर्तनकरण, उदीरणाकरण, उपशमनाकरण, निधतिकरण और निकाचनाकरण-ऐसे आठ करणों की विभिन्न द्वारों के आधार पर चर्चा करता है । वस्तुतः प्रस्तुत ग्रन्थ कर्मप्रकृतियों के आठ करणों एवं उनके उदय की तथा सत्ता की चर्चा करता है । उसमें सर्वप्रथम बन्धनकरण की चर्चा के प्रसंग में प्रकृति, प्रदेश, अनुभाग और स्थिति बन्ध का विवेचन है । उसके पश्चात् संक्रमणकरण की चर्चा की गई है, संक्रमणकरण में भी प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग के संक्रमण पर विस्तार से विचार किया गया है । उसके पश्चात् उद्वर्तनाकरण और अपवर्तनाकरण की संक्षिप्त चर्चा की गई है । पुनः पांचवें उदीरणाकरण में भी प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग की उदीरणा को लेकर विस्तार से विवेचन उपलब्ध होता है । छठा उपशमनाकरण मुख्य रूप से दर्शनमोह और चारित्रमोह की उपशमना से सम्बन्धित है । सातवें में निधत्तिकरण का और आठवें में निकाचनाकरण का विवेचन अत्यन्त संक्षिप्त में मात्र तीन गाथाओं में दिया गया है । उसके बाद कर्मप्रकृतियों के उदय और सत्ता के सम्बन्ध में पुनः विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है । इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ आठ करणों तथा उदय और सत्ता के सन्दर्भ में कर्मप्रकृतियों की विस्तृत चर्चा करता है। ___ जैसा कि ग्रन्थ के नाम से ही स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ कर्मप्रकृतियों की ही मुख्य रूप से चर्चा करता है । गुणस्थान सम्बन्धी स्पष्ट एवं विस्तृत विवेचना का इसमें अभाव ही है, फिर भी कहीं-कहीं यथा प्रसंग गुणस्थान सम्बन्धी उल्लेख इसमें मिल जाता है। उदाहरण के रूप में संक्रमणकरण की गाथा क्रमांक ३६, ४० में सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि (मिश्र) छद्मस्थ आदि अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है। इसी क्रम में गाथा क्रमांक ४३ में अनिवृत्तिबादर, क्षपक और सयोगीकेवली अवस्थाओं का उल्लेख है । पुनः इसी संक्रमणकरण की गाथा क्रमांक ६६ में अपूर्वकरण का और गाथा क्रमांक ८० में सूक्ष्मराग अथवा सूक्ष्मसंपराय और अनिवृत्तिबादर का उल्लेख हुआ है । यहाँ यह बताया गया है कि इन गुणस्थानों में कितनी कर्मप्रकृतियों का संक्रमण किस प्रकार से होता है । ३३८ कर्मप्रकृति - शिवशर्मसूरि, गुजराती अनुवादक मुनि वल्लभविजय, प्रकाशन - माणेकलाल, चुनीलाल मागजी भूधरजी की पोल, अहमदाबाद ई.स. १६३८ (प्रस्तुत विवेचन में गाथा संख्या इसी संस्करण के आधार पर दी गई है)। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{266} इसी क्रम में जघन्य और उत्कृष्ट प्रदेश संक्रमण की चर्चा के प्रसंग में गाथा क्रमांक ६५ में देशविरति और विरति का उल्लेख पाया जाता है। इसी प्रकार उदीरणाकरण के अर्न्तगत गाथा क्रमांक १८ में क्षीणराग क्षपक गाथा क्रमांक १६ में अप्रमत्त, गाथा क्रमांक २० में प्रमत्त और अपूर्वकरण आदि अवस्थाओं में कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्बन्धी चर्चा उपलब्ध होती है । इसी प्रसंग में २२, २३ और २४ वीं गाथा में मिथ्यात्व, सास्वादन, मिश्र, अविरत, विरत एवं अनिवृत्तिकरण में उदीरणा सम्बन्धी चर्चा उपलब्ध होती है। आगे गाथा क्रमांक ५२ में यह बताया गया है कि देशविरत और सर्वविरत में सौभाग्य आदेय, यशःकीर्ति और उच्चगोत्र की उदीरणा सम्भव होती है । पुनः इसी उदीरणाकरण की ८५वीं गाथा में देशविरत तिर्यंच प्रायोग्य प्रकतियों की चर्चा की गई है और गाथा क्रमांक ८७ में केवली का उल्लेख हुआ है। अग्रिम उपशमनाकरण की ३४ वीं गाथा में यह बताया गया है कि प्रमत्त और अप्रमत्त हजारों बार चारित्रमोह की उपशमना करने के लिए तीन करण करते हैं । पुनः इसी उपशमनाकरण की गाथा क्रमांक ६१ में क्षपक और उपशमक किस प्रकार से स्थितिबन्ध करते हैं, इसका उल्लेख है । उपशमनाकरण में निम्न आठ द्वार है :- (१) सम्यक्त्व की उत्पत्ति (२) देशविरति (३) सर्वविरति की प्राप्ति (४) अनन्तानुबन्धी कषाय की वियोजना (५) दर्शनमोह की देशोपशमना (६) दर्शनमोह की उपशमना (७) चारित्रमोह की उपशमना और (८) चारित्रमोह की देशोपशमना । इन आठ द्वारों से हमें गुणश्रेणी अथवा गुणस्थानों की अपेक्षा से विशेष सूचनाएं प्राप्त होती हैं। यद्यपि इन सूचनाओं को गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित माना जाय अथवा गुणश्रेणी से सम्बन्धित माना जाय यह अविचारणीय अवश्य है । इन आठ द्वारों के नामकरण से ऐसा लगता है कि इन अवस्थाओं का सम्बन्ध गुणस्थान की अपेक्षा गुणश्रेणियों से अधिक निकट रहा है । उपशमनाकरण की चार गाथाएं (क्रमांक - २४ से २६) कषायप्राभृत की चार गाथाओं (क्रमांक - १००, १०३, १०४ एवं १०५) से मिलती हैं । जैसा कि हमने पूर्व में चर्चा की है कि कषायप्राभृत गुणस्थान सिद्धान्त की पूर्व भूमिका के रूप में ही है । वह गुणश्रेणियों से गुणस्थान सिद्धान्त के विकास की एक मध्यवर्ती अवस्था से सम्बन्धित प्रतीत होता है । यही स्थिति लगभग कर्मप्रकृति के उपशमनाकरण की है । किन्तु इस ग्रन्थ के अन्त में उपर्युक्त आठ करणों की विवेचना के पश्चात् कर्मप्रकृतियों की उदय अवस्था और सत्ता अवस्था की चर्चा हुई है। आठ करणों की चर्चा के पश्चात् कर्मप्रकृतियों के उदय की चर्चा के प्रसंग में निम्न ग्यारह गुणश्रेणियों का उल्लेख हुआ है - (१) सम्यक्त्व की उत्पत्ति (२) श्रावक (३) विरत (४) विसंयोजना (५) दर्शनमोह क्षपक (६) कषाय उपशमक (७) कषाय उपशान्त (८) क्षपक (E) क्षीणमोह तथा द्विविधजिन अर्थात् (१०) सयोगीकेवली (११) अयोगीकेवली इन ग्यारह गुणश्रेणियों की चर्चा है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि गुणश्रेणियों की इस चर्चा को विद्वानों ने गुणस्थान की अवधारणा के विकास की पूर्व अवस्था माना है। कर्मप्रकृति की यह विशेषता है कि इसमें ग्यारह गुणश्रेणियों की चर्चा है, जबकि तत्त्वार्थ और आचारांग नियुक्ति में मात्र दस गुणश्रेणियों का उल्लेख है । सत्ता की चर्चा के प्रसंग में आचार्य ने विविध गुणस्थानों में सत्ता में अवस्थित कर्मप्रकृतियों का विवेचन किया है। सत्ता सम्बन्धी गाथा क्रमांक एक से लेकर उनपचास तक विभिन्न गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों की सत्ता को लेकर जो विवेचन उपलब्ध होता है वह विवेचन देवेन्द्रसूरि के नवीन कर्मग्रन्थों में इसीप्रकार मिलता है । अतः इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा हम नवीन कर्मग्रन्थों के सन्दर्भ में ही करेंगे । किन्तु इन उल्लेखों से यह स्पष्ट हो जाता है कि आचार्य शिवशर्मसूरि का कर्मप्रकृति नामक यह ग्रन्थ इन तथ्यों को सुस्पष्ट कर देता है कि उनके समक्ष गुणश्रेणी और गुणस्थान दोनों ही अवधारणाएं स्पष्ट रूप से उपस्थित थीं। इस प्रकार शिवशर्मसूरि प्रणीत कर्मप्रकृति नामक इस ग्रन्थ में जहाँ ग्यारह गुणश्रेणियों का एकसाथ उल्लेख उपलब्ध है । वहाँ चौदह गुणस्थानों के एक साथ सुव्यवस्थित विवेचन का प्रायः अभाव है। किन्तु इसमें यथाप्रसंग मिथ्यात्व एवं सास्वादन गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक की सभी चौदह अवस्थाओं का निर्देश उपलब्ध होता है । गुणस्थान सम्बन्धी सभी अवस्थाओं का निर्देश उपलब्ध होने पर हम यह स्वीकार करने के लिए बाध्य हैं कि कर्मप्रकृति के कर्ता शिवशर्मसूरि ने चाहे Jain Education Intemational Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{267} इस ग्रन्थ में स्पष्ट रूप से गुणस्थान शब्द का प्रयोग न किया हो और चाहे गुणस्थान सम्बन्धी चौदह अवस्थाओं का यथाक्रम एक पान पर उल्लेख न किया हो, किन्तु वे गुणस्थान सिद्धान्त से सुपरिचित अवश्य रहे है और उन्होंने यथास्थान गुणस्थान सम्बन्धी अवस्थाओं का उल्लेख किया है । श्वेताम्बर आगम साहित्य में हमें सास्वादन को छोड़कर गुणस्थानों के समरूप सभी अवस्थाओं के उल्लेख मिल जाते हैं, किन्तु उनमें गुणस्थान शब्द तथा सास्वादन अवस्था की कोई चर्चा उपलब्ध नहीं होती है, जबकि कर्मप्रकृति में चाहे गुणस्थान शब्द का स्पष्ट उल्लेख न हो, किन्तु सास्वादन का उल्लेख होने से कर्मप्रकृति के कर्ता शिवशर्मसूरि गुणस्थान सिद्धान्त से सुपरिचित रहे हैं, इस सम्बन्ध में किसी प्रकार की शंका सम्भव नहीं है । कर्मप्रकृति पर जो व्याख्या साहित्य उपलब्ध है उनमें एक चूर्णि और दो संस्कृत टीकाएं हैं । चूर्णिकार का नाम स्पष्टरूप से तो उल्लेखित नहीं है, किन्तु संभावना है कि कर्मप्रकृति के चूर्णिकार जिनदासगणि रहे हैं । उनका काल लगभग सातवीं शताब्दी है। इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि शिवशर्मसूरि की कर्मप्रकृति का रचनाकाल पांचवीं और छठी शताब्दी के मध्य ही होना चाहिए, क्योंकि पांचवीं शताब्दी के पूर्व गुणस्थानों का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त नहीं होता है, जबकि शिवशर्मसूरि की इस कृति में गुणस्थान का स्पष्ट उल्लेख है । अतः इसका रचनाकाल पांचवीं शती के उत्तरार्द्ध या छठी शताब्दी के पूवार्द्ध के लगभग ही मानना होगा । कर्मप्रकृति पर जो संस्कृत टीकाएं उपलब्ध हैं, उनमें मलयगिरि कृत वृत्ति है और दूसरी यशोविजयगणि कृत टीका । मलयगिरि कृत वृत्ति का काल लगभग तेरहवीं शताब्दी है । यशोविजयगणि कृत टीका का काल अठारहवीं शताब्दी है । यह स्पष्ट है कि चूर्णिकार, वृत्तिकार और टीकाकार के समय गुणस्थान की सुस्पष्ट अवधारणा उपस्थित थी । अतः उनके द्वारा किए गए गुणस्थान सम्बन्धी निर्देश अस्वाभाविक नहीं है, लेकिन उन्होंने इस सम्बन्ध में जो विवेचनाएं प्रस्तत की हैं, वे अध्यायों में पूर्व उल्लेखित विवेचन से आगे कोई नवीन तथ्यों को प्रस्तुत नहीं करती है। अतः यहाँ इस चर्चा को विराम देना ही उचित होगा।। उपसंहार के रूप में हम केवल यही कहना चाहेंगे कि शिवशर्मसूरि कृत कर्मप्रकृति में कर्म सम्बन्धी आठ करण और उदय एवं सत्ता इन दो अवस्थाओं का उल्लेख उपलब्ध होता है । उनमें उपशमनाकरण तथा सत्ता के सम्बन्ध में गुणस्थान सम्बन्धी प्रारंभिक चर्चा अवश्य उपलब्ध होती है। श्वेताम्बर कर्मसाहित्य में शिवशर्मसूरि कृत कर्मप्रकृति के पश्चात् अन्य जो महत्वपूर्ण कर्म विषयक ग्रन्थ उपलब्ध हैं, वह आचार्य चन्द्रर्षि महत्तर कृत पंचसंग्रह हैं । अग्रिम पृष्ठों में हम पंचसंग्रह में गुणस्थान सिद्धान्त का विवेचन किस रूप में उपलब्ध है, इसकी चर्चा करेंगे। त्रचन्द्रर्षिकृत पंचसंग्रह और गुणस्थान पंचसंग्रह का सामान्य परिचय पंचसंग्रह आचार्य चन्द्रर्षि महत्तर कृत जैन कर्मसाहित्य का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। यहाँ सर्वप्रथम यह प्रश्न उपस्थित होता है कि इस ग्रन्थ का नाम पंचसंग्रह क्यों दिया गया है? पंचसंग्रह नाम से यह तो स्पष्ट होता है कि इसमें किन्हीं पांच ग्रन्थों का संकलन किया गया होगा। ये पाँच ग्रन्थ कौन-से थे? इस सम्बन्ध में मूल ग्रन्थ से पूरी जानकारी तो नहीं मिलती है, किन्तु पंचसंग्रह के प्रारम्भ की दूसरी गाथा से यह स्पष्ट हो जाता है कि इसमें शतकादि पाँच ग्रन्थों का संक्षेप में यथायोग्य समावेश किया गया है, किन्तु इसके साथ ही साथ इस गाथा से यह भी स्पष्ट होता है कि ग्रन्थकार ने उन पाँच ग्रन्थों को संक्षिप्त करके पाँच द्वारों में इस ग्रन्थ की रचना की है । इसी कारण इस ग्रन्थ का नाम पंचसंग्रह रखा गया है । ज्ञातव्य है कि पंचसंग्रह के नाम से श्वेताम्बर और दिगम्बर, दोनों ही परम्परा में ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। दिगम्बर परम्परा में पंचसंग्रह के नाम से अज्ञात आचार्य कृत प्राकृत भाषा में निबद्ध एक ग्रन्थ का उल्लेख मिलता है, जिसकी गाथा संख्या १३२४ है। इसी प्राकृत पंचसंग्रह के आधार पर निर्मित दिगम्बर आचार्य अमितगति का पंचसंग्रह नामक ग्रन्थ उपलब्ध होता है। इसका रचना काल संवत् १०७३ तक है। इसमें १४५६ श्लोक हैं। इसके अतिरिक्त दिगम्बर परम्परा में लगभग विक्रम की १७ वीं शताब्दी में निर्मित 'श्रीपालसुतड्डा' का भी संस्कृत भाषा में निर्मित एक पंचसंग्रह नामक ग्रन्थ उपलब्ध है, किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में चन्द्रर्षि महत्तर के अतिरिक्त पंचसंग्रह नाम का कोई अन्य ग्रन्थ Jain Education Intemational Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{268} उपलब्ध नहीं है। चन्द्रर्षि के इस पंचसंग्रह की दूसरी गाथा से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि इसमें शतकादि पाँच ग्रन्थों का समावेश हुआ है । गाथा से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि चन्द्रर्षि महत्तर ने शतकादि जिन पाँच ग्रन्थों का संग्रह इनमें किया है, उनका यथावत् अवतरण नहीं किया, बल्कि उन्हें संक्षिप्त करके पाँच द्वारों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है, अतः पंचसंग्रह की द्वितीय गाथा के आधार पर हम इतना ही कह सकते है कि पंचसंग्रह शतकादि पाँच ग्रन्थों के आधार पर बना हुआ एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है, फिर भी यह प्रश्न तो बना ही रहता है कि शतक के अतिरिक्त अन्य चार ग्रन्थ कौन-से थे? इन ग्रन्थों के सन्दर्भ में पंचसंग्रह की स्वोपज्ञ वृत्ति से भी कोई स्पष्ट प्रकाश नहीं पड़ता है। सर्वप्रथम आचार्य मलयगिरि ने अपनी टीका में इन पाँच ग्रन्थों के नाम का स्पष्ट उल्लेख किया है। उनके अनुसार ये पाँच ग्रन्थ है - (१) शतक (२) सप्ततिका (३) कषायप्रामृत (४) सत्कर्म और (५) कर्मप्रकृति। पंचसंग्रह की प्रथम गाथा से यह स्पष्ट हो जाता है कि इसकी मंगलाचरण की शैली कर्मप्रकृति के अनुरूप है। कर्मसिद्धान्त का विवेचन करने के कारण इस ग्रन्थ का आधार कर्म सम्बन्धी साहित्य ही रहा होगा, अतः आचार्य मलयगिरि के इस कथन में अविश्वास करने का कोई कारण प्रतीत नहीं होता है कि पंचसंग्रह के आधारभूत ग्रन्थ शतक, सप्ततिका, कषायप्राभृत, सत्कर्म और कर्मप्रकृति रहे हैं। आचार्य मलयगिरि ने अपनी टीका में कषायप्राभृत को छोड़कर शेष चार ग्रन्थों का प्रमाण रूप में उल्लेख भी किया है। इसमें ऐसा लगता है कि आचार्य मलयगिरि के समक्ष कषायप्राभृत नाम का ग्रन्थ नहीं रहा होगा, किन्तु शेष चार ग्रन्थ उनके काल में रहे होंगे। इन चार ग्रंथों में भी वर्तमान में शतक, सप्ततिका और कर्मप्रकृति - ये तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं और इनकी विषयवस्तु को देखकर यह भी स्पष्ट हो जाता है कि ये तीनों ग्रन्थ पंचसंग्रह के आधारभूत रहे हों। दिगम्बर परम्परा में जो प्राकृत पंचसंग्रह पाया जाता है, उसमें कषायप्राभृत का उल्लेख भी हैं । दिगम्बर परम्परा में कषायप्राभृत के नाम से दो ग्रन्थ उपलब्ध होते है। एक कषायप्राभृत के नाम से स्वतन्त्र ग्रन्थ है, दूसरा प्राकृत पंचसंग्रह के अधीन कषायप्राभूत ग्रन्थ है । दोनों की गाथा आदि में बहुत अन्तर है। आज यह कहना कठिन है कि आचार्य चन्द्रर्षि महत्तर ने किस कषायप्रामृत को आधार बनाया होगा। डॉ. सागरमल जैन ने दिगम्बर परम्परा के प्राचीन कषायप्रामृत को यापनीय ग्रन्थ माना है। यह स्पष्ट है कि श्वेताम्बर और यापनीय परम्परा में अनेक ग्रन्थ समान रूप से प्रचलित हैं, अतः यह सम्भावना हो सकती है कि चन्द्रर्षि महत्तर ने दिगम्बर परम्परा में उपलब्ध दोनों कषायप्राभृत में से किसी एक को ही आधार बनाया होगा। दूसरा जो अनुपलब्ध ग्रन्थ सत्कर्म है, उस सम्बन्ध में डॉ. सागरमल जैन की यह कल्पना है कि वह सत्कर्म ग्रन्थ या तो यापनीय परम्परा के षट्खण्डागम का प्रथम खण्ड रहा हो अथवा उसी के आधारभूत जीवसमास का सत्पद्प्ररूपणा नामक प्रथम द्वार रहा हो। तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर साध्वी विद्युत्प्रभाश्रीजी एवं डॉ. सागरमल जैन ने जीवसमास और पंचसंग्रह की अनेक गाथाओं की समरूपता को अपनी जीवसमास की भूमिका में स्पष्ट किया है। इस गाथा साम्य से यह सिद्ध होता है कि चन्द्रर्षि महत्तर के सामने सत्कर्म नामक ग्रन्थ रहा होगा; जिसकी विषयवस्तु या तो यापनीय ग्रन्थ षटखण्डागम के प्रथम खण्ड या जीवसमास के प्रथम द्वार के समरूप होगी। विशेष प्रमाणों के अभाव में कुछ अधिक कहना सम्भव नहीं है, फिर भी मलयगिरि का यह कथन कि पंचसंग्रह के आधार पर शतक, सप्ततिका, कषायप्रामृत, सत्कर्म और कर्मप्रकृति - ये पाँच ग्रन्थ रहे हैं, समीचीन लगता है। ___ पंचसंग्रह के कर्ता पंचसंग्रह के कर्ता चन्द्रर्षि महत्तर माने गए हैं। उन्होंने पंचसंग्रह की अन्तिम प्रशस्ति गाथा में केवल इतना कहा है कि श्रुतदेवी की कृपा से चन्द्रर्षि ने अपनी स्वबुद्धि से संक्षेप में इस प्रकरण ग्रन्थ की रचना की। सुयदेविपसायओ पगरणमेयं समासओ भणियं। __समयाओं चंदरिसिणा समइविभवाणुसारेण ।। इसमें इतना तो निश्चित हो जाता है कि पंचसंग्रह के कर्ता चन्द्रर्षि हैं। मूल ग्रंथ में उनके इस नामोल्लेख के अतिरिक्त अन्य कोई सूचना नहीं है। पंचसंग्रह की स्वोपज्ञ वृत्ति में उन्होंने अपने नाम के अतिरिक्त केवल अपने गुरु के नाम का उल्लेख किया है। उसमें मात्र यह बताया है कि वे पार्श्वर्षि के शिष्य हैं। इसप्रकार मूल ग्रन्थ और उसकी स्वोपज्ञ वृत्ति, दोनों से केवल इतना ही Jain Education Intemational Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{269) ज्ञात होता है कि पार्श्वर्षि के शिष्य चन्द्रर्षि इस ग्रन्थ और उसकी स्वोपज्ञ टीका के कर्ता है। इसके अतिरिक्त उनके सम्बन्ध में अन्य चना प्राप्त नहीं होती कि वे किस गण, कुल, शाखा या गच्छ के थे। आचार्य मलयगिरि ने भी 'चन्द्रर्षिनाम्नासाधुना' - ऐसा उल्लेख किया है, इससे यह भी ज्ञात होता है कि वे मुनि थे । वर्तमान में उनके नाम के साथ प्रचलित महत्तर पद के सम्बन्ध में भी हमें कोई आधारभूत जानकारी प्राप्त नहीं होती है। उनके नाम के साथ ऋषि नामान्त पद होने से हम इतना ही कह सकते हैं कि गर्गर्षि, सिद्धर्षि आदि की परम्परा से उनका कोई सम्बन्ध रहा होगा, फिर भी निर्णायक प्रमाण के अभाव में अधिक कुछ कहना सम्भव नहीं है। ग्रन्थ के विषय को देखते हुए और जिन ग्रन्थों के आधार पर इस ग्रन्थ की रचना हुई, उन ग्रन्थों की विषयवस्तु का ध्यान रखते हुए, हम केवल इतना ही कह सकते हैं कि वे कर्मसाहित्य के गम्भीर ज्ञाता थे। मूल ग्रन्थ और उसकी स्वोपज्ञ वृत्ति से यह भी निश्चित हो जाता है कि वे प्राकत और संस्कृत भाषा के गम्भीर विद्वान रहे होंगे। इन सूचनाओं के अतिरिक्त हम उनके सम्बन्ध में विस्तार से कुछ कहने में असमर्थ हैं। ग्रन्थ का रचनाकाल - ग्रन्थकार ने न तो मूल ग्रंथ में और न उसकी टीका में ग्रन्थ के रचनाकाल का कोई उल्लेख किया है, अतः ग्रन्थ के रचनाकाल के सम्बन्ध में हम उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर केवल अनुमान ही कर सकते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में गर्ग ऋषि, सिद्ध ऋषि आदि नामान्त पद नवीं शताब्दी में प्रचलित रहे हैं। सिद्धर्षि का काल विक्रम की नवीं शताब्दी माना जाता है। इस आधार पर हम यह कल्पना कर सकते है कि पार्श्वर्षि के शिष्य चन्द्रर्षि भी इसी काल के आसपास अर्थात् विक्रम की नवीं-दसवीं शताब्दी में कभी हुए हैं। पंचसंग्रह और उसकी स्वोपज्ञ टीका के अतिरिक्त चन्द्रर्षि की अन्य कोई कृति भी उपलब्ध नहीं होती है, जिसके आधार पर हम उनके काल का निर्णय कर सके। पंचसंग्रह, शतकादि जिन पाँच ग्रन्थों के आधार पर निर्मित हुआ है, उससे इतना निश्चित हो जाता है कि इस ग्रन्थ की रचना शतक, सप्ततिका, कषायप्राभृत, सत्कर्म और कर्मप्रकृति के बाद हुई है । शिवशर्मसूरि का काल विद्वानों ने विक्रम की पाँचवीं-छठी शताब्दी के आसपास माना है, अतः इतना तो निश्चित है कि यह ग्रन्थ पाँचवीं शताब्दी के पश्चात् बना होगा। पंचसंग्रह में गुणस्थान सिद्धान्त का जितना विकसित स्वरूप उपलब्ध होता है उससे भी हम इस निर्णय पर पहुँच सकते है कि यह ग्रन्थ पाँचवीं शताब्दी के बाद ही बना होगा। गुणस्थान सिद्धान्त की विकसित चर्चा हमें सर्वप्रथम जीवसमास, षट्खण्डागम और पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका में मिलती है। डॉ. सागरमल जैन ने इन ग्रन्थों का काल लगभग पाँचवीं-छठी शताब्दी माना है। इससे इतना तो निश्चित हो जाता है कि पंचसंग्रह की रचना छठी शताब्दी के बाद ही हुई होगी। कुछ विद्वानों ने सप्ततिका और उसकी प्राकृत वृत्ति का कर्ता चन्द्रर्षि महत्तर को बताया है। वृत्तियाँ प्रायः भाष्य और चूर्णि के बाद ही लिखी गई हैं। भाष्यों और चूर्णियों का काल क्रमशः छठी और सातवीं शताब्दी माना जा सकता है, अतः पंचसंग्रह की रचना सातवीं शताब्दी के बाद हुई है, ऐसा माना जाता है। यह पंचसंग्रह के रचना की उत्तर सीमा है। पंचसंग्रह पर स्वोपज्ञ वृत्ति के अतिरिक्त मलयगिरि की वृत्ति भी मिलती है। मलयगिरि का काल विक्रम की बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी माना गया है, अतः पंचसंग्रह के रचना काल को विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी से आगे नहीं ले जा सकते हैं । इन आधारों पर हम इतना ही कह सकते है कि पंचसंग्रह, विक्रम की नवीं-दसवीं शताब्दी में कभी निर्मित हुआ होगा। कर्म-सिद्धान्त और गुणस्थान सिद्धान्त की जो गम्भीर विवेचना हमें पंचसंग्रह में मिलती है, वह दिगम्बर परम्परा के पंचसंग्रह और गोम्मटसार की स्मृति करा देती है। ये ग्रन्थ भी लगभग दसवीं शताब्दी के पश्चात् के हैं, अतः पंचसंग्रह का काल नवीं-दसवीं शताब्दी मानने में कोई बाधा नहीं जाती पंचसंग्रह की विषयवस्तु - जैसा कि हमने पूर्व में बताया पंचसंग्रह सामान्य रूप से श्वेताम्बर परम्परा में विकसित कर्मसाहित्य का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में (१) योगोपयोग मार्गणा (२) बन्धक (३) बन्धव्य (४) बन्धहेतु और (५) बन्धविधि, ऐसे पाँच विभाग है जिनका सम्बन्ध कर्मसिद्धान्त से रहा हुआ है। कर्म-सिद्धान्त और गुणस्थान सिद्धान्त परस्पर सापेक्ष है, अतः इस ग्रन्थ में गुणस्थानों का भी गम्भीर विवेचन उपलब्ध होता है। इसमें अनेक द्वारों में गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा की गई है, अतः गुणस्थान सिद्धान्त के समीक्षात्मक अध्ययन के लिए यह एक आधारभूत ग्रन्थ है। अग्रिम पृष्ठों में यह देखने का प्रयास करेंगे कि पंचसंग्रह में गुणस्थानों की किस रूप में चर्चा हुई है। . Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{270} पंचसंग्रह मूलतः कर्मसिद्धान्त का ग्रन्थ है । इसके निम्न पाँच विभाग हैं (१) योगोपयोग मार्गणा (२) बन्धक (३) बन्धव्य (४) बन्धहेतु और (५) बन्धविधि। इन विभागों का मुख्य सम्बन्ध तो कर्मसिद्धान्त के साथ ही है, किन्तु कर्मसिद्धान्त का विवेचन गुणस्थानों के विवेचन का सहगामी है, अतः प्रस्तुत कृति में प्रत्येक प्रकरण में कहीं न कहीं गुणस्थानों की चर्चा है। श्वेताम्बर परम्परा के कर्मसाहित्य में गुणस्थानों की जितनी गम्भीर चर्चा पंचसंग्रह में मिलती है, उतनी गम्भीर चर्चा हमारी जानकारी में अन्यत्र नहीं है। पंचसंग्रह के प्रथम योगोपयोग द्वार में सर्वप्रथम पन्द्रह योगों की चर्चा करते हुए, किस गुणस्थान में कितने योग होते हैं, इसका उल्लेख प्रथम द्वार की १६ वीं गाथा में किया गया है। वहाँ कहा गया है कि मिथ्यात्व, सास्वादन और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में आहारक द्विक को छोड़कर शेष तेरह योग होते हैं। मिश्र गुणस्थान में दस योग, देशविरति गुणस्थान, प्रमत्तसंयत गुणस्थान और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में ग्यारह योग, अपूर्वकरण गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक के पाँच गुणस्थान में नौ योग, सयोगीकेवली गुणस्थान में सात योग होते हैं तथा अयोगीकेवली गुणस्थान में योग का अभाव होता है, इसप्रकार यहाँ चौदह गुणस्थानों में योग का अवतरण किया गया है। उसके पश्चात् उपयोग की चर्चा करते हुए कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि और सास्वादनसम्यग्दृष्टि जीव को पाँच उपयोग होते हैं । अविरतसम्यग्दृष्टि और देशविरतसम्यग्दृष्टि जीव को छः उपयोग होते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव को तीन ज्ञान और तीन दर्शन के मिश्र रूप छः उपयोग होते हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक तीन ज्ञान और तीन दर्शन ऐसे छः उपयोग होते हैं, किन्तु मनःपर्यवज्ञान होने पर किसी को सात उपयोग भी हो सकते हैं । सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव को केवलज्ञान और केवलदर्शन-ये दो ही उपयोग होते हैं । इसप्रकार प्रथम द्वार में योग और उपयोग की अपेक्षा से गुणस्थानों पर चिन्तन किया गया है । पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार में अनेक अपेक्षाओं से गुणस्थानों की चर्चा की है । सर्वप्रथम गाथा क्रमांक - ६ में कालिक अस्तित्व की अपेक्षा से गुणस्थानों की चर्चा की है। उसमें बताया गया है कि मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरतिसम्यग्दृष्टि, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, सयोगीकेवली - ये छः गुणस्थान सभी कालों में होते हैं, किन्तु शेष सास्वादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह और अयोगीकेवली-ऐसे कुल आठ गुणस्थान होते हैं और कभी नहीं होते हैं। ___गाथा क्रमांक - ६ में विभिन्न गुणस्थानों में जीवों की संख्या को लेकर विचार किया गया है । इसमें बताया गया है कि मिथ्यादृष्टि जीव अनन्त है। उसके पश्चात् सास्वादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरतिसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण अर्थात् असंख्यात होते हैं । शेष प्रमत्तसंयत से लेकर अयोगीकेवली तक के गुणस्थानवी जीव संख्यात ही होते हैं।' इसी द्वितीय द्वार में क्षेत्र की अपेक्षा से भी गुणस्थानों का अवतरण किया है। उसमें कहा गया है कि सास्वादन गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक के जीव, लोक के असंख्यातवें भाग में ही होते हैं, किन्तु मिथ्यादृष्टि और समुद्घात की अपेक्षा से सयोगीकेवली सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं। पुनः इसी द्वितीय द्वार की २६ से लेकर ३३ तक की गाथाओं में इस बात का विवेचन उपलब्ध हुआ है कि किस गुणस्थानवी जीव, लोक के कितने क्षेत्र का स्पर्शन करता है। यहाँ सर्व जीवों की अपेक्षा से चर्चा करते हुए मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव और अयोगीकेवली, समुद्घात की अपेक्षा सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं। इसे पूर्व में भी स्पष्ट किया गया है। सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव यदि छठी नरक से आयुष्य पूर्ण कर मनुष्य रूप में उत्पन्न होते हैं, तो वे चौदह रज्जु लोक में से पाँच रज्जु क्षेत्र की स्पर्शना करते हैं। यदि वे लोकान्त के निष्कुटों में तिथंच रूप से उत्पन्न होते हैं, तो कुल बारह रज्जु की स्पर्शना करते हैं। मिश्र गुणस्थानवी जीव मरण को प्राप्त नहीं होते हैं, इसीलिए वे स्वक्षेत्र का स्पर्श करके ही रहे हुए हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव बारह रज्जु क्षेत्र की स्पर्शना कर सकता है, क्योंकि वह पूर्व बद्धायु की अपेक्षा से छठी नरक तक और ऊपर में अनुत्तर विमान तक उत्पन्न हो सकता है। देशविरत मनुष्य बारहवें देवलोक तक उत्पन्न Jain Education Intemational nternational Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{271} होते हैं, अतः वे छः रज्जु की स्पर्शना करते हैं। प्रमत्तसंयत से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थानवर्ती उपशामक और उपशान्त जीव उर्ध्वगति ही करते हैं, अतः वे अधिकतम सात रज्जु क्षेत्र की स्पर्शना करते हैं । क्षीणमोह गणस्थानवर्ती जीव भी मरण को प्राप्त नहीं होते हैं, इसीलिए वे भी मात्र स्वक्षेत्र का स्पर्श करते हैं । अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव सिद्धि को ही प्राप्त होते हैं, किन्तु सिद्ध अवस्था का विचार गुणस्थानों में नहीं किया होने से वे भी स्वक्षेत्र का स्पर्श करके रहे हुए हैं, ऐसा माना जाता है। पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की इकतालीस से लेकर पैंतालीस तक की गाथाओं में एक जीव की अपेक्षा से गुणस्थानों में काल की विचारणा की गई है। इसमें यह बताया गया है कि एक जीव की अपेक्षा से किस गुणस्थान का कितना काल होता है। मिथ्यात्व गुणस्थान का एक जीव की अपेक्षा से जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, भव्य की अपेक्षा से अनादि सांत और अभव्य की अपेक्षा से अनादि अनन्त काल है। सास्वादन गुणस्थान का काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट से छः आवलिका है। मिश्र गुणस्थान का काल जघन्य और उत्कृष्ट दोनों ही अन्तर्मुहूर्त है। औपशमिक सम्यक्त्व का काल जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त ही माना है। क्षायिक सम्यग्दृष्टि गुणस्थान का काल अनन्त माना गया है, क्योंकि क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त होने के बाद जाता नहीं है। वेदक सम्यक्त्व का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और अधिकतम कुछ अधिक, तेंतीस सागरोपम होता है। देशविरति गुणस्थान का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और अधिकतम कुछ कम, एक पूर्वकोटि वर्ष माना गया है। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान का काल सामान्य की अपेक्षा से अन्तर्मुहूर्त माना गया है, किन्तु अगर दोनों गुणस्थानों का एक साथ ग्रहण करें, तो अधिकतम देशोन पूर्व कोटि वर्ष हो जाता है। अपूर्वकरण गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक सभी गुणस्थानों का काल अन्तर्मुहूर्त माना गया है। सयोगीकेवली गुणस्थान का काल भी कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष का माना गया है, किन्तु अयोगीकेवली गुणस्थान का काल पाँच हृस्व स्वरों के उच्चारणकाल के समरूप माना गया है। पुनः अनेक जीवों की अपेक्षा से काल की चर्चा करते हुए पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की बावनवीं और तिरपनवीं गाथा में कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान सर्व जीवों की अपेक्षा से विचार करें, तो वे सभी कालों में पाए जाते हैं। सास्वादन गुणस्थान, मिश्र गुणस्थान और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का काल पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समरूप होता है। यह काल इन गुणस्थानों की निरंतरता की अपेक्षा से समझना चाहिए। उसके बाद विरह अवश्य होता है। अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरति, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत- ये चार गुणस्थान सर्व जीवों की अपेक्षा से सभी कालों में होते हैं। अपूर्वकरण से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल सात समय अधिक अन्तर्मुहूर्त होता है। इसके पश्चात् इन गुणस्थानवी जीवों का विरह अवश्य माना गया है। सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव सभी कालों में होते हैं। अयोगीकेवली गणस्थानवी जीव अवश्य ही मोक्ष को प्राप्त होते हैं। अतः इनका अधिकतम निरन्तर काल सर्व जीव की अपेक्षा से छः मास तक हो सकता है। पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की गाथा क्रमांक ६१, ६२ तथा ६३ में यह बताया गया है कि किन गुणस्थानों में कितने समय का अन्तराल होता है। मिथ्यात्व गुणस्थान का सर्व जीव आश्रयी कोई अन्तरकाल नहीं है, किन्तु एक जीव आश्रयी मिथ्यात्व का उत्कृष्ट अन्तरकाल एक सौ बत्तीस सागरोपम होता है, अर्थात् कोई जीव मिथ्यात्व गुणस्थान से क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन को प्राप्त करता है और वहाँ वह अधिकतम छासठ सागरोपम तक सम्यक्त्व दशा में रहकर मिश्रदृष्टि गुणस्थान का स्पर्श कर पुनः छासठ सागरोपम तक सम्यक्त्व में रहता है। इसके पश्चात् या तो मुक्त होता है या फिर मिथ्यात्व को प्राप्त करता है। इसी अपेक्षा से यह कहा गया है कि मिथ्यात्व गुणस्थान का अधिकतम अन्तरकाल १३२ सागरोपम है। सास्वादन गुणस्थान का अन्तरकाल सर्वजीवों की अपेक्षा से जघन्य से पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग बताया गया है। शेष गुणस्थानों का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त होता है। मिथ्यात्व गुणस्थान का उत्कृष्ट अन्तरकाल एक सौ बत्तीस सागरोपम और अन्य गुणस्थानों का कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन माना गया है। अनेक जीवों की अपेक्षा से सास्वादन और मिश्र गुणस्थान का काल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग ही माना गया है। उपशमक अर्थात् उपशमश्रेणी से चढ़नेवाले अपूर्वकरण से लेकर उपशान्तमोह तक के गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्ष Jain Education Intemational Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... पंचम अध्याय ........ ...{272} पृथक्त्व और क्षपकश्रेणी से चढ़नेवाले अपूर्वकरण से लेकर क्षीणमोह तक के गुणस्थानों का उत्कृष्ट अन्तरकाल छः मास माना गया है । इसी प्रकार अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरति और प्रमत्तसंयत- इन गुणस्थानों का अन्तरकाल क्रमशः सात, चौदह और पन्द्रह दिन माना गया है। अयोगीकेवली गुणस्थान का अन्तरकाल छः मास माना गया है । पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की चौसठवीं गाथा में गुणस्थानों की अपेक्षा भावों का अवतरण किया गया है। इसमें बताया गया है कि मिथ्यादृष्टि, सास्वादनसम्यग्दृष्टि और मिश्र गुणस्थानवर्ती जीवों में सामान्यतया क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिकऐसे तीन भाव पाए जाते है। अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरति, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत- इन चार गुणस्थानों में सामान्यतया तीन और अधिक हो, तो चार भाव पाए जाते हैं। तीन भाव हों तो औदयिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक होते हैं । चार भाव होने पर औदयिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक और क्षायिक अथवा औदयिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक और औपशमिक - ऐसे चार भाव होते हैं। ज्ञातव्य है कि क्षायिक और औपशमिक दोनों में से एक समय में एक ही भाव होता है, दोनों नहीं । उपशमक में अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय और उपशान्तमोह- इन चार गुणस्थानों में उपशमश्रेणी से आरोहण करने पर चार भाव ही होते हैं । अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय, और क्षीणमोह - इन चार गुणस्थानों में क्षपकश्रेणी से आरोहण करने वाले में चार ही भाव होते हैं, किन्तु दोनों श्रेणियों को मिलाकर सामान्य रूप से कथन करने पर पाँच भाव माने जा सकते हैं । यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि जो क्षपक श्रेणी से आरोहण करेगा उसे औपशमिक भाव और जो उपशम श्रेणी से आरोहण करेगा उसे क्षायिक भाव नहीं होगा, किन्तु षट्खण्डागम में यह माना गया है कि उपशमश्रेणी से आरोहण करने वाले में चारित्र की अपेक्षा औपशमिक भाव होता है। सम्यक्त्व की अपेक्षा क्षायिक भाव भी रह सकता है । क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव भी उपशम श्रेणी से आरोहण कर सकता है। उसकी अपेक्षा भी उपशम श्रेणी से आरोहण करने वालों में पाँच भाव हो सकते हैं। शेष सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानों में औदयिक, क्षायिक और पारिणामिक ऐसे तीन भाव ही होते हैं, क्योंकि सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थान में क्षायोपशमिक और औपशमिक भाव नहीं होते हैं । पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की गाथा क्रमांक ८० और ८१ में गुणस्थानों में अल्प - बहुत्व का विवेचन किया गया है। उसमें कहा गया है कि उपशामक अर्थात् उपशमश्रेणी से आरोहण करने वाले अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय और उपशान्तमोह गुणस्थानवर्ती जीवों की अपेक्षा क्षपक श्रेणी से आरोहण करनेवाले अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादर, सूक्ष्मसंपराय और क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या संख्यातगुणा अधिक होती है। पुनः क्षपकश्रेणी से क्षीणमोह गुणस्थान को प्राप्त करनेवाले जीवों की अपेक्षा अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या संख्यात गुणा अधिक होती है । सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या संख्यातगुणा अधिक होती है । सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों की अपेक्षा अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या संख्यातगुणा अधिक होती है । अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीवों की अपेक्षा प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या संख्यातगुणा अधिक होती है । प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीवों की अपेक्षा देशविरति गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या असंख्यातगुणा अधिक होती है। उनकी अपेक्षा सास्वादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या असंख्यातगुणा अधिक होती है। सास्वादन गुणस्थानवर्ती जीवों की अपेक्षा मिश्रगुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या असंख्यातगुणा अधिक होती है। मिश्र गुणस्थानवर्ती जीवों की अपेक्षा अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या असंख्यातगुणा अधिक होती है। अविरतसम्यग्दृष्टि जीवों की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या अनन्तगुणा अधिक होती है। इसके पश्चात् पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की ८३ वीं गाथा में मात्र गुणस्थानों के नामों का विवेचन किया गया है। पंचसंग्रह के तृतीय द्वार में बन्धनेवाली कर्म प्रकृतियों के रसबन्ध आदि का विवेचन किया गया है। इस द्वार में गुणस्थानों का अवतरण प्रायः अल्प ही देखा जाता है। हमारी जानकारी में पंचसंग्रह के तृतीय द्वार की पचासवीं गाथा में किन गुणस्थानों में एक स्थानीय रसबन्ध नहीं होता है, इसकी चर्चा उपलब्ध होती है। उसमें कहा गया है कि सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती जीव को केवलीद्विक अर्थात् केवल ज्ञानावरण और केवल दर्शनावरण का एक स्थानीय रसबन्ध नहीं होता है। अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती - Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{273} जीवों को हास्य रति भय और जुगुप्सा - इन चार पाप प्रकृतियों का रसबन्ध नहीं होता है। इसी प्रकार क्लिष्ट परिणामी मिथ्यादृष्टि जीव को सुभगादि पुण्य प्रकृतियों का एक स्थानीय रसबन्ध नहीं होता है। ऐसा क्यों नहीं होता है, इस प्रश्न का उत्तर इक्यावनवीं गाथा में दिया गया है। उसमें कहा गया है कि सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में कषाय की स्थिति जल में खींची गई रेखा के समान अत्यल्प होती है। इस गुणस्थानवी जीव को केवलीद्विक अर्थात् केवल ज्ञानावरण और केवल दर्शनावरण का एक स्थानीय रसबन्ध सम्भव नहीं होता है, क्योंकि केवली द्विक अर्थात् केवल ज्ञानावरण और केवल दर्शनावरण-ये दोनों सर्वघाती कर्मों की प्रकृतियाँ हैं, अतः इनका एक स्थानीय रसबन्ध सम्भव नहीं होता है । इसीप्रकार अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीव को अपने अतिविशुद्ध आत्म-परिणामों के कारण हास्य रति भय और जुगुप्सा इन चार पाप प्रकृतियों का रसबन्ध नहीं होता है । इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव के परिणाम अति संक्लिष्ट होने के कारण उनको सुभग आदि पुण्य प्रकृतियों का रसबन्ध सम्भव नहीं होता है । बन्ध हेतुओं का गुणस्थानों में अवतरण : पंचसंग्रह के चतुर्थ द्वार में गाथा क्रमांक १, ४ एवं ५ में बन्धहेतुओं की चर्चा की गई है । इसकी प्रथम गाथा में मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग - ऐसे चार बन्धहेतुओं का उल्लेख किया है। ज्ञातव्य है कि तत्त्वार्थसूत्र आदि ग्रन्थों में पाँच बन्धहेतुओं की चर्चा वहाँ मिलती है । वहाँ प्रमाद को अलग से बन्धहेतु के रूप में उल्लेखित किया गया है । इसप्रकार बन्धहेतुओं की संख्या को लेकर पंचसंग्रह का दृष्टिकोण तत्त्वार्थसूत्र से भिन्न है। दिगम्बर परम्परा में आचार्य कुंदकुंद ने भी चार बन्धहेतुओं का उल्लेख किया है। लगता है कि चार बन्धहेतु मानने की कोई प्राचीन आगमिक परम्परा रही होगी। जिसका अनुसरण पंचसंग्रह में किया गया है। पंचसंग्रह में इन चार बन्धहेतुओं के प्रकारों का भी उल्लेख हुआ है। मिथ्यात्व के पाँच, अविरति के बारह, कषाय के पच्चीस और योग के पन्द्रह भेदों की चर्चा की गई है। यहाँ पंचसंग्रहकार ने इन बन्धहेतुओं का गुणस्थानों में अवतरण किया है । पंचसंग्रह के अनुसार मूल बन्धहेतु चार और उत्तर बन्धहेतु सत्तावन माने गए हैं । मूल चार बन्धहेतुओं का गुणस्थानों में अवतरण करते हुए कहा गया है कि मिथ्यात्व गुणस्थान में चारों ही बन्धहेतु होते हैं। सास्वादन गुणस्थान, मिश्र गुणस्थान, अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान और देशविरति गुणस्थान में तीन बन्धहेतु होते हैं। प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय-इन पाँच गुणस्थानों में दो बन्धहेतु होते हैं । शेष उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगीकेवली -इन गुणस्थानों में एक बन्धहेतु अर्थात् योग होता है । अयोगीकेवली गुणस्थान में कोई भी बन्ध हेतु नहीं होता है । पुनः बन्धहेतुओं के उत्तरभेदों की अपेक्षा से चर्चा करते हुए मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में आहारकद्विक छोड़कर शेष पचपन बन्धहेतु बताए गए हैं । सास्वादन गुणस्थान में आहारकद्विक और मिथ्यात्व के पाँच प्रकारों को छोड़कर शेष पचास बन्धहेतु माने गए हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में उपर्युक्त पचास में से औदारिक मिश्र, वैक्रियमिश्र, कार्मण काययोग और अनन्तानुबन्धी चतुष्क ऐसे सात बन्धहेतुओं का अभाव हो जाने से तेंतालीस बन्धहेतु होते हैं । तृतीय गुणस्थान में मरण न होने के कारण ही कार्मण, औदारिक मिश्र और वैक्रियमिश्र-इन तीन काययोगों का अभाव कहा गया है। चतुर्थ अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में इन तीनों सहित छियालीस बन्धहेतु माने गए हैं। देशविरति नामक पंचम गुणस्थान में उनचालीस ही बन्धहेतु माने गए हैं। इस गुणस्थान में मृत्यु नहीं होती है, क्योंकि मृत्यु होने पर यह गुणस्थान नहीं रहता है, अतः सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के तेंतालीस बन्धहेतुओं में से अप्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क का अभाव होने पर उनचालीस बन्धहेतु होते हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थान में अविरति के ग्यारह भेद और प्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क-ऐसे पन्द्रह भेद कम करने पर कुल चौबीस बन्धहेतु होते हैं, किन्तु इस गुणस्थान में आहारक द्विक की संभावना होती है। चौबीस और दो, ऐसे छब्बीस बन्धहेतु माने गए हैं। अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थान में पुनः आहारक द्विक का अभाव होने से चौबीस बन्धहेतु होते हैं। अपूर्वकरण गुणस्थान में आहारक काययोग और वैक्रिय काययोग का अभाव होने पर बाईस बन्धहेतु होते हैं। अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान में हास्यादि षट्क का उदय-विच्छेद रहता है, अतः बाईस में से छः कम करने पर सोलह बन्धहेतु रहते हैं। सूक्ष्मसंपराय नामक गुणस्थान में संज्वलन कषाय त्रिक और Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.. पंचम अध्याय........{274) वेदत्रिक का व्यच्छेद हो जाने से मात्र दस बन्धहेतु रहते हैं। उपशान्तमोह गुणस्थान में संज्वलन लोभ का अभाव हो जाने पर मात्र नौ बन्ध हेतु रहते हैं। क्षीणमोह गुणस्थान में भी नौ बन्धहेतु ही माने गए हैं। यहाँ विचारणीय प्रश्न यह है कि सामान्य तथा उपशान्तमोह और क्षीणमोह गुणस्थान में असत्यमनोयोग और मिश्र मनोयोग तथा असत्य वचनयोग और मिश्र वचनयोग का अभाव माना गया है, किन्तु मूल ग्रन्थ में इन चार योगों के अभाव का कोई उल्लेख नहीं है। यह तथ्य तो केवलीगम्य है। सयोगीकेवली गुणस्थान में सात बन्धहेतु माने गए हैं। उन्हें सत्य मनोयोग, असत्य अमृषा मनोयोग, सत्य वचनयोग, असत्य अमृषा वचनयोग तथा कार्मणकाययोग, औदारिक काययोग और समुद्घात की अपेक्षा से औदारिक मिश्र काययोग - ऐसे सात बन्धहेतु होते हैं । अयोगीकेवली गुणस्थान में योग का ही सर्वथा अभाव हो जाने से कोई भी बन्धहेतु नहीं होता है। इसी चर्चा के प्रसंग में यह भी कहा गया है कि एक जीव में एक समय में अधिकतम कितने बन्धहेतु हो सकते हैं। विस्तार भय से यहाँ हम उसकी चर्चा नहीं करेंगे। इस सम्बन्ध में इच्छुक व्यक्ति पंचसंग्रह के चतुर्थ द्वार की आठवीं और नवीं गाथा की मलधारी हेमचन्द्र की टीका में देख सकते हैं, क्योंकि इन बन्धहेतुओं के करोड़ो की संख्या में विकल्प बनते हैं, अतः यहाँ उन सब की चर्चा करना सम्भव नहीं है, फिर भी इस सम्बन्ध में किंचित विस्तृत विवेचन नवीन चतुर्थ कर्मग्रन्थ की अठावनवीं गाथा की व्याख्या में किया पंचसंग्रह के चतुर्थ द्वार की इक्कीस से तेईस तक की गाथाओं में किस गुणस्थान में कितने परिषह सम्भव होते हैं, इसकी चर्चा की गई है। गाथा क्रमांक इक्कीस में बताया गया है कि सयोगीकेवली गुणस्थान में क्षुधा, पिपासा, उष्ण, शीत, शय्या, रोग, बन्ध मल. तण-स्पर्श.चर्या और दंशमसक-ये ग्यारह परिषह वेदनीय कर्म के उदय से होते है और सयोगीकेवली को वेदनीय कर्म का उदय है, इसीलिए उसे ग्यारह परिषहों की संभावना होती है। पुनः बारहवें क्षीणमोह गुणस्थानवी जीवों में चौदह परिषह सम्भव होते हैं, क्योंकि उनमें वेदनीयजन्य उपर्युक्त ग्यारह परिषहों के अतिरिक्त ज्ञानावरणीयजन्य प्रज्ञा और अज्ञान तथा लाभ परिषह भी होते हैं, क्योंकि उनमें वेदनीय के साथ-साथ ज्ञानावरण का और अन्तराय कर्म का उदय रहा हुआ है । निषद्या, याचना, आक्रोश, अरति, स्त्री, नग्नता, सत्कार और दर्शन - ये आठ परिषह मोहनीय कर्म के उदय से होते हैं, अतः सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक के सभी जीवों में बाईस परिषहों की संभावना होती है । ज्ञातव्य है कि गणस्थानों में परिषहों की यह संख्या तत्त्वार्थसूत्र और उसकी श्वेताम्बर मान्य टीकाओं में भी बताई गई है । दिगम्बर परम्परा में तत्त्वार्थसूत्र की पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका में एवं परवर्ती अकलंकदेव और विद्यानंदस्वामी की टीकाओं में यह प्रश्न उठाया गया है कि केवली में ग्यारह परिषहों की संभावना मानी गई है, वह उचित नहीं है, किन्तु श्वेताम्बर परम्परा में तो सभी विचारक गुणस्थानों में परिषहों का अवतरण इसी रूप में करते हैं । पंचसंग्रह के चतुर्थ द्वार में इससे अधिक गुणस्थानों के सम्बन्ध में कोई उल्लेख हमें उपलब्ध नहीं होता है, किन्तु पंचसंग्रह के पंचम द्वार में पुनः विविध अपेक्षाओं से गुणस्थानों की विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है। पंचसंग्रह के पंचम द्वार की दूसरी गाथा में यह बताया गया है कि किस गुणस्थानवी जीव कितने कर्मों का बन्ध करता है। मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के सभी जीव सामान्यतया सात या आठ कर्मों का बन्ध करते हैं । आयुष्य कर्म का बन्ध जीवन में एक ही बार होता है । जब आयुष्य कर्म का बन्ध होता है, तब आठ और जब आयुष्य कर्म का बन्ध न हो, तब सात कर्मों का बन्ध माना गया है । सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवी जीव छः कर्मों का बन्ध करते हैं, क्योंकि उनमें मोहनीय और आयुष्य-इन दो कर्मों का बन्ध नहीं होता है । उपशान्तमोह, क्षीणमोह, और सयोगीकेवली - इन तीन गुणस्थानों में रहनेवाले जीव मात्र वेदनीय कर्म का बन्ध करते हैं। शेष अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसंपराय, मिश्र गुणस्थानवी जीव आयुष्य को छोड़कर सात कर्मों का बन्ध करते हैं। पंचसंग्रह के पंचमद्वार की तीसरी गाथा में गुणस्थानों की अपेक्षा कर्मों के उदय और सत्ता की अपेक्षा से चर्चा की गई है। मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक आठों ही कर्म का उदय और सत्ता सम्भव होती है । उपशान्तमोह गुणस्थान में सात कर्मों का उदय और आठ कर्म की सत्ता होती है । क्षीणमोह गुणस्थान में सात का उदय और सात की सत्ता होती है । शेष सयोगीकेवली और अयोगीकेवली में चार का उदय और चार की सत्ता होती है । Jain Education Intemational Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{275} पंचसंग्रह के पंचमद्वार की पाँचवीं गाथा में किस गुणस्थानवी जीव को कितने कर्म की उदीरणा होती है, इसकी चर्चा की गई है । मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के सभी जीव आठों ही कर्मों की उदीरणा करते हैं । अप्रमत्तसंयत से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक के सभी जीव वेदनीय और आयुष्य को छोड़कर, छः कर्मों की उदीरणा करते हैं। क्षीणमोह गुणस्थान में मोहनीय कर्म को छोड़कर शेष पांच कर्मों की उदीरणा करते हैं। सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव नाम और गोत्र-दो कर्मों की उदीरणा करते हैं। कर्म के उदय और उदीरणा में मुख्य अन्तर यह है कि कर्मों का उदय स्वाभाविक रूप से होता है, जबकि उदीरणा में सत्ता में रहे हुए कर्मवर्गणाओं को प्रयास पूर्वक उदय में लाकर उनका क्षय किया जाता है। उदीरणा के सम्बन्ध में सामान्य नियम यह है कि वेदनीय और आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष छः कर्मों का जब तक उदय होता है, तब तक उनकी उदीरणा भी सम्भव होती है, किन्तु यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि जिस कर्म की सत्ता की स्थिति एक आवलिका मात्र हो उनकी उदीरणा सम्भव नहीं होती है, मात्र उदय ही होता है, क्योंकि उन्हीं कर्मों की उदीरणा सम्भव होती है, जिनकी सत्ता एक आवलिका से अधिक हो । आवलिका के बाद ऐसा कोई काल नहीं होता है जिसमें सत्ता में रहे हुए कर्मदलिकों को खींचकर उदयावलिका में प्रवेश कराया जा सके । आगे यह भी बताया गया है कि सातावेदनीय, असातावेदनीय और मनुष्यायु की उदीरणा प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक ही सम्भव होती है। इन तीन को छोड़कर शेष जिन कर्मप्रकृतियों का उदय अयोगीकेवली गुणस्थान तक होता है, उनकी उदीरणा सयोगीकेवली गुणस्थान तक सम्भव होती है । सामान्यतया जिन कर्मप्रकृतियों का उदय नहीं है, उनकी उदीरणा भी सम्भव नहीं है । गुणस्थान सिद्धान्त की आधारभूमि-गुणश्रेणी :___ गुणश्रेणी शब्द मूलतः गुण और श्रेणी शब्दों से मिलकर बना है। इसमें 'गुण' शब्द का अर्थ अध्यवसायों की विशुद्धि लिया जाता है। इस आधार पर यह माना जाता है कि अध्यवसायों की विशुद्धि रूप विशिष्ट गुणों की प्राप्ति के लिए, पूर्वबद्ध एवं नवीन बन्ध को प्राप्त हुए कर्मप्रदेशों को शीघ्रता से क्षय करने की प्रक्रिया या पद्धति गुणश्रेणी कही जाती है। इसप्रकार गुणश्रेणी में 'गुण' शब्द का अर्थ अध्यवसायों की विशुद्धि रूप 'गुण' और 'श्रेणी' का अर्थ कर्मप्रदेशों के क्षय के द्वारा उन गुणों को प्राप्त करने की प्रक्रिया, ऐसा होता है। सामान्यतया जैनाचार्यों ने इसी अर्थ में गुणश्रेणी शब्द का ग्रहण किया है, किन्तु डॉ. सागरमल जैन ने 'गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण' में गुण शब्द का अर्थ बन्धक तत्व अर्थात् कर्म किया है। संस्कृत भाषा में गुण शब्द रस्सी के अर्थ में आता है, जो बांधने का काम करता है। सांख्यदर्शन में गुण शब्द का प्रयोग प्रकृति के लिए हुआ है। वहाँ प्रकृति को त्रिगुणात्मक कहा गया है। उसमें सत् , रज् और तम् - ऐसे तीन गुणों का उल्लेख मिलता है और इन गुणों को ही बन्धन का कारण माना गया है। आचारांगसूत्र में 'गुण' शब्द का प्रयोग इन्द्रियों के विषय या संसार के अर्थ में हुआ है। उसमें कहा गया है कि “जे गुणे से आवट्टे, जे आवट्टे से गुणे (१/१/५/६२)" प्रकारान्तर से यहाँ गुण को आसव के रूप में व्याख्यायित किया गया है। आस्रव को कर्मबन्ध का कारण माना गया है। पारिभाषिक दृष्टि से कर्मवर्गणाओं का आत्मा की ओर आना आस्रव कहा जाता है। इन आधारों को ध्यान में रखते हुए डॉ. सागरमल जैन ने गुण शब्द को कर्मबन्ध के रूप में ग्रहण किया है और गुणस्थान को कर्म के विविध स्थानों के रूप में विवेचित किया है। तत्त्वार्थसूत्र में नवम अध्याय के पैंतालीसवें सूत्र में कर्म-निर्जरा की दस अवस्थाओं की चर्चा करते हुए 'असंख्येयगुणनिर्जरा' ऐसा शब्द आया है । इस प्रकार वहाँ भी गुण शब्द कर्म अथवा गुणित ही माना गया है । इस सूत्र में 'गुण' शब्द के दो ही अर्थ फलित होते हैं । यदि हम ‘गुण-निर्जरा' - ऐसे सम्पूर्ण शब्द का ग्रहण करते हैं, तो वहाँ गुण का अर्थ कर्म ही होता है । यदि 'असंख्येयगुणनिर्जरा'-ऐसे सम्पूर्ण शब्द को ग्रहण करते हैं, तो वहाँ गुण शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं, एक गुणित और दूसरा कर्म। इसप्रकार इस सम्पूर्ण पद के अर्थ होंगे । (१) असंख्यात गुण-निर्जरा या (२) असंख्यातकर्मों की निर्जरा । इसी आधार पर गुणश्रेणी शब्द में गुण शब्द का अर्थ, कर्म-ऐसा किया जा सकता है, क्योंकि गुणश्रेणी में कर्मदलिकों की इस प्रकार से संरचना की जाती है कि प्रति समय क्रमशः अधिक से अधिक कर्मप्रदेशों की निर्जरा हो Jain Education Interational Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ पंचम अध्याय.....{276} सके। गुणश्रेणी शब्द वस्तुतः कर्म- निर्जरा की एक प्रक्रिया या पद्धति का ही सूचक बनता है । गुणश्रेणी का तात्पर्य है कि कर्मदलिकों को इस प्रकार से नियोजित करना कि प्रति समय उनकी अधिक से अधिक निर्जरा हो सके। इससे यह सिद्ध होता है कि गुणश्रेणी कर्म - निर्जरा की एक प्रक्रिया या पद्धति है । 'गुण' यानी प्रति समय असंख्यगुणा- असंख्यगुणा कर्मप्रदेशों को सत्ता से निकालकर प्रति समय असंख्यगुणा- असंख्यगुणा कर्मप्रदेशों का उदयावलि में स्थापित करना और प्रति समय असंख्यगुणा - असंख्यगुणा कर्मप्रदेशों को उदय में लाकर निर्जरित करने की 'श्रेणी' अर्थात् क्रमिक पद्धति गुणश्रेणी कहलाती है। इसी प्रकार सम्यक्त्वादि विशिष्ट आत्मगुणों की प्राप्ति के समय कर्मप्रदेशों को अधिक मात्रा में उदय में लाकर निर्जरित करने की प्रक्रिया ही गुणश्रेणी है। गुण शब्द का एक अर्थ बद्ध कर्म भी होता है, क्योंकि गुण रस्सी को कहते हैं और रस्सी बांधने का कार्य करती है, अतः जो आत्मा को बन्धन में डाले वह गुण है । डॉ. सागरमल जैन का मानना है कि आचारांग में गुण शब्द का प्रयोग ऐन्द्रिक विषय, आश्रव द्वार, संसार परिभ्रमण के कारणभूत आदि अर्थों में हुआ है, अतः गुण को बद्ध कर्म मानें, तो उनके क्षय के लिए की गई प्रक्रिया विशेष को गुणश्रेणी कहा जा सकता है । सम्यक्त्वादि विशिष्ट गुणों की प्राप्ति के लिए तथा उन्हें प्राप्त होने के बाद अध्यवसायों की बढ़ती विशुद्धि के द्वारा क्रमशः अग्रिम अग्रिम गुणों की शीघ्र प्राप्ति के लिए गुणश्रेणी में कर्मदलिकों को एक ऐसे क्रम में योजित किया जाता है कि अग्रिम अग्रिम समयों में उनका अनेक गुण निर्जरण या क्षय अथवा उपशम होता रहे, यह पद्धति गुणश्रेणी कही जाती है । कर्मप्रदेशों का उदयकाल प्रारम्भ होने के बाद के समयों में असंख्य - असंख्यगुणा कर्मप्रदेशों की दलरचना करके उनको उदयावलि में लाकर क्षय करना ही गुणश्रेणी है । पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ सातवीं और एक सौ आठवीं गाथा में ये गुणश्रेणियाँ कौन-कौन से गुणों की प्राप्ति के समय होती है, इसका विवेचन किया गया है। ये गुणश्रेणियाँ ग्यारह हैं, जिन्हें निम्न प्रकार से निर्देशित किया गया है - (१) सम्यक्त्व निमित्त से होनेवाली प्रथम गुणश्रेणी (२) देशविरति के निमित्त से होनेवाली द्वितीय गुणश्रेणी (३) सर्वविरति के निमित्त से होने वाली तृतीय गुणश्रेणी (४) अप्रमत्त गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करते अपूर्व- अनिवृत्तिकरण में होनेवाली चतुर्थ गुणश्रेणी । (५) सातवें गुणस्थान में सम्यक्त्वमोह, मिश्रमोह और मिथ्यात्वमोह- ये तीन दर्शन मोहनीय का क्षय करने से अपूर्व अनिवृत्तिकरण में होनेवाली पंचम गुणश्रेणी (६) चारित्र उपशमन से होनेवाली षष्ठ गुणश्रेणी (७) उपशान्तमोह गुणस्थान में होनेवाली सप्तम गुणश्रेणी (८) चारित्र मोहनीय का क्षय करने से जो गुणश्रेणी होती है, वह अष्टम गुणश्रेणी (६) क्षीणमोह गुणस्थान में होनेवाली नवम गुणश्रेणी (१०) सयोगीकेवली गुणस्थान में होनेवाली दशम गुणश्रेणी (११) अयोगीकेवली गुणस्थान में होनेवाली एकादश गुणश्रेणी । से (१) सम्यक्त्व गुणश्रेणी : सम्यक्त्व प्राप्त होने से पहले जो यथाप्रवृत्तादि तीन करण होते हैं, उसमें दूसरे अपूर्वकरण के प्रथम समय आयुष्य रहित सात कर्मों की गुणश्रेणी प्रारम्भ होती है। वे सम्यक्त्व प्राप्त होने से पहले प्रारम्भ होकर तथा सम्यक्त्व प्राप्त होने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त के बाद समाप्त होती है। इस गुणश्रेणी का समाप्ति स्थान अनियत है । (२) देशविरति गुणश्रेणी : देशविरति के सन्मुख हुआ अविरतसम्यग्दृष्टि जीव स्वयं के चौथे गुणस्थान में देशविरति की प्राप्ति के लिए यथाप्रवृत्तिकरण और अपूर्वकरण को (अनिवृत्तिकरण) नहीं करता है, वहाँ यह गुणश्रेणी होती है, परन्तु अपूर्वकरण के अन्त में जब देशविरति प्राप्त करता है तब प्रथम समय से लेकर एक अन्तर्मुहूर्त तक यह गुणश्रेणी जारी रहती है, क्योंकि देशविरति (तथा सर्वविरति) की प्राप्ति के समय अन्तर्मुहूर्त काल तक जीव अवश्य वृद्धि को प्राप्त विशुद्धिवाला होता है। उसके पश्चात् वर्धमान, हीयमान अथवा अवस्थित परिणाम वाला भी हो सकता है, इसीलिए उस काल के पश्चात् परिणाम के अनुसार भी वर्धमान, हीयमान अथवा अवस्थित गुणश्रेणी होती है, जिससे देशविरति जितने समय तक रहती है, उतने समय तक गुणश्रेणी भी अनियत रूप से जारी रहती है । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{277} (३) सर्वविरति गुणश्रेणी : इस गुणश्रेणी की व्यवस्था ऊपर देशविरति गुणश्रेणी तुल्य यथावत् जानना चाहिए । (४) अनन्तानुबन्धी विसंयोजना गुणश्रेणी : उपशमश्रेणी अथवा क्षपकश्रेणी के सम्मुख हुआ जीव चौथे, पांचवें, छठवें तथा सातवें गुणस्थानों में से किसी भी गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी कषाय की विसंयोजना करने अर्थात् उनका क्षय करने में तत्पर हुआ हो, तो उस समय तीन करण में से दूसरे अपूर्वकरण के प्रथम समय से अनन्तानुबन्धी कषाय एवं मिथ्यात्वमोह-मिश्रमोह और सम्यक्त्वमोह सहित सात कर्मप्रकृतियों के क्षय करने हेतु गुणश्रेणी प्रारम्भ होती है, और तीसरे अनिवृत्तिकरण के समाप्त होते ही अनन्तानुबन्धी चतुष्क एवं दर्शनमोह त्रिक का सर्वथा क्षय हो जाता है। उनके क्षय होते ही इन सात कर्मों की गुणश्रेणी भी समाप्त हो जाती है । अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना होने के बाद तुरंत जीव वर्धमान या हीयमान परिणाम वाला नहीं होता है, परंतु स्वभावस्थ (अवस्थित परिणाम वाला) होता है, अतः उसके पश्चात् गुणश्रेणी समाप्त हो जाती है। (५) दर्शनमोह क्षपक गुणश्रेणी : चतुर्थ से लेकर सातवें गुणस्थान तक किसी भी गुणस्थान में तीनों दर्शनमोहनीय कर्म की प्रकृतियों का क्षय करने के लिए यथाप्रवृत्तकरणादि तीन करण होते हैं । उस समय दूसरे अपूर्वकरण के प्रथम समय से सात कर्म की गुणश्रेणी प्रारम्भ होती है, जो तीसरे अनिवृत्तिकरण के अन्तिम भाग में समाप्त होती है। पुनः सम्यक्त्व मोहनीय की गुणश्रेणी अनिवृत्तिकरण का किंचित् काल शेष रहते उपान्त्य स्थितिखण्ड का घात होने तक होती है । मिथ्यात्वमोह तथा मिश्रमोह की गुणश्रेणी यहाँ प्रारम्भ नहीं होती है, क्योंकि इन दोनों में मिथ्यात्व मोह कर्म के प्रदेशों का मिश्रमोह तथा सम्यक्त्व मोह में और मिश्रमोह कर्म के प्रदेशों का सम्यक्त्व मोह में प्रक्षेपण किया जाता है, किन्तु गुणश्रेणी तो स्वस्थान के कर्मप्रदेशों के प्रक्षेपणावाली होती है। (६) चारित्रमोहोपशम गुणश्रेणी : चारित्र मोहनीय कर्म का सर्वथा उपशम करने के लिए यथाप्रवृत्तादि तीन करण में से दूसरे अपूर्वकरण रूप आठवें गुणस्थान के प्रथम समय के सात कर्मों की गुणश्रेणी प्रारम्भ होती है, किन्तु मोहनीय कर्म की उत्तरप्रकृतियों की गुणश्रेणियाँ तो नवें गुणस्थान में ही अलग-अलग समय में समाप्त होती है । ज्ञानावरणीयादि छः कर्मों की गुणश्रेणी दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के पर्यन्त समय में ही समाप्त होती है। (७) उपशान्तमोह गुणश्रेणी : यह गुणश्रेणी ज्ञानावरणीयादि छः कर्मों की होती है । यह उपशान्तमोह के प्रथम समय से पर्यन्त समय तक प्रवर्तमान रहती है और उसके पश्चात् पतित अवस्था में भी गुणश्रेणी (असंख्यगुणा कर्म प्रदेशों की निर्जरा की अपेक्षा से) अवश्य जारी रहती है । आयुष्य का क्षय होने के कारण से यदि यह गुणस्थान चला जाए, तो गुणश्रेणी भी सर्वथा समाप्त हो जाती है । (८) मोहक्षपक गुणश्रेणी : क्षपक श्रेणी में आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम समय से सात कर्मों के क्षय की गुणश्रेणी प्रारम्भ होती है और इसकी समाप्ति दसवें गुणस्थान के पर्यन्त समय में होती है, परंतु मोहनीय कर्म की उत्तर-प्रकृतियों की गुणश्रेणियाँ अपनी-अपनी अन्तिम आवलिका शेष रहने तक अलग-अलग समयों में अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में ही समाप्त हो जाती है। (E) क्षीणमोह गुणश्रेणी : यह गुणश्रेणी ज्ञानावरणीयादि छः कर्मों की होती है । यह क्षीणमोह गुणस्थान में प्रथम समय से प्रारम्भ होती है और क्षीणमोह गुणस्थान के पर्यन्त समय में नाम, गोत्र और वेदनीय-इन कर्मों की गुणश्रेणी समाप्त हो जाती है; तथा ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय-इन तीन कर्मों की गुणश्रेणी क्षीणमोह गुणस्थान का संख्याता भाग व्यतीत होकर अन्तिम संख्यातवाँ भाग शेष रहने पर, जब सर्व अपवर्तना का प्रसंग आता है, तब समाप्त होती है । (१०) सयोगी गुणश्रेणी : सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती आत्मा को केवली समुद्घात के प्रथम समय से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान के पर्यन्त समय तक नाम, गोत्र और वेदनीय- इन तीन कर्मों की (स्थिति घात सहित) गुणश्रेणी प्रवर्तमान होती है और उसके पश्चात् सयोगीकेवली गुणस्थान के पर्यन्त समय में समाप्त हो जाती है । (११) अयोगी गुणश्रेणी : अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती आत्मा को प्रदेश रचनारूप गुणश्रेणी नहीं होती है, परंतु प्रदेश Jain Education Intemational Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{278} निर्जरारूप गुणश्रेणी होती है, अर्थात् प्रथम समय में अल्पप्रदेश निर्जरा, दूसरे समय में असंख्यगुणकर्मप्रदेशों की निर्जरा, तीसरे समय में उससे भी अधिक असंख्यगुण कर्मप्रदेशों की निर्जरा, इस तरह कर्म दलिकों के प्रक्षेप रहित केवल उदय द्वारा कर्मप्रदेशों की निर्जरा रूप गुणश्रेणी होती है। समकालिक गुणश्रेणियाँ : मनुष्य भव में जो गुणश्रेणियाँ होती है, उनमें सम्यक्त्व की, देशविरति की और सर्वविरति की - पुणश्रेणियाँ समकालिक भी हो सकती है । इसी प्रकार देशविरति की, सर्वविरति की और अनन्तानुबन्धी विसंयोजना की-ये तीन गुणश्रेणियाँ भी समकालिक हो सकती है, किन्तु परभव में तो सम्यक्त्व, देशविरति, सर्वविरति-ये तीन गुणश्रेणियाँ ही समकालिक होती है । देशविरति की और अनन्तानुबन्धी विसंयोजना की-ये गुणश्रेणियाँ भी मनुष्यभव में समकालिक हो सकती है। सम्यक्त्व, देशविरति- इन दो गुणश्रेणियों का भी समकालिक होना सम्भव है। क्षपक, क्षीणमोह, सयोगी और अयोगी-इन चार गुणश्रेणियों के अतिरिक्त शेष सात गुणश्रेणियाँ देवभव में साथ जा सकती है। गुणश्रेणी और कर्मप्रदेश निर्जरा : सम्यक्त्व गुणश्रेणी में जितने कर्मप्रदेशों की निर्जरा होती है, उससे असंख्यगुणा कर्मप्रदेशों की देशविरति गुणश्रेणी में निर्जरा होती हैं । इनसे भी असंख्यगुणा-असंख्यगुणा कर्मप्रदेश सर्वविरति गुणश्रेणी में निर्जरित होते हैं । इसप्रकार ग्यारह गुणश्रेणियों में अनुक्रम से असंख्य-असंख्य गुणा कर्मप्रदेशों की निर्जरा होती है । गुणश्रेणी का काल : अयोगीकेवली गुणश्रेणी का अन्तर्मुहूर्त रूप प्रवृत्ति काल शेष दस गुणश्रेणियों में प्रत्येक के काल से अल्प है। उससे सयोगी गुणश्रेणी का काल संख्यातगुणा है, उससे क्षीणमोह गुणश्रेणी का काल संख्यातगुणा अधिक है। इसी प्रकार उलटे क्रम से यावत् सम्यक्त्व गुणश्रेणी का काल देशविरति गुणश्रेणी के काल से संख्यातगुणा अधिक है कि अन्तर्मुहूर्त जितना ही है। ज्ञातव्य है कि अन्तर्मुहूर्त काल में अनेकानेक वर्ग होते हैं । इसप्रकार जैसे-जैसे सम्यक्त्वादि आत्म गुण की प्राप्ति के समय कर्मनिर्जरा का काल क्रमशः अल्प होता जाता है, तो भी क्रमशः अल्प होते हुए उस काल में कर्मनिर्जरा तो अधिकाधिक होती है। भवान्तर में होनेवाली तीन गुणश्रेणियाँ : सामान्यतया कोई भी गुणश्रेणी अर्थात् प्रति समय कर्मों को अधिकाधिक क्षय करने की प्रक्रिया उसी भव में प्रारम्भ होकर उसी भव में समाप्त हो जाती है, किन्तु सम्यक्त्व देशविरति और सर्वविरति-ये तीन गुणश्रेणियाँ ऐसी है, जो इस भव में प्रारम्भ होकर भवांतर में भी पूर्ण होती है । दूसरे शब्दों में इन गुणश्रेणियों की रचना तो वर्तमान भव में होती है, किन्तु उनकी निर्जरा की पूर्णता अग्रिम भव में भी होती है। उदाहरण के रूप में यदि कोई जीव सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए गुणश्रेणी प्रारम्भ करता है, किन्तु उस गुणश्रेणी को पूर्ण करने के पूर्व ही मिथ्यात्व के उदय से अशुभ मरण को प्राप्त करके नरक, तिर्यंच या मनुष्य-गति में जन्म ग्रहण करता है, तो उसकी वह गुणश्रेणी मध्य में ही समाप्त हो जाती है। परंतु यदि कोई नारक अथवा तिर्यच सम्यक्त्व की प्राप्ति के निमित्त गुणश्रेणी प्राप्त करके मध्य में ही शुभ मरण अर्थात् मनुष्य या देवगति को प्राप्त होता है, तो उसके द्वारा वह प्रारम्भ की गई गुणश्रेणी अग्रिम भव में पुनः प्रारम्भ होकर समाप्त होती है। ग्यारह गुणश्रेणियों में केवल सम्यक्त्व, देशविरति और सर्वविरति-ये तीन गुणश्रेणियाँ ऐसी है जो परभव में साथ जाती है, अर्थात् वे इस भव में प्रारम्भ होकर अग्रिम भव में पूर्णता को प्राप्त होती है। यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि ये गुणश्रेणियाँ शुभ मरण की स्थिति में ही परभव में साथ जाती हैं, अशुभ मरण की स्थिति में नहीं । यहाँ शुभ मरण से तात्पर्य यह है कि वर्तमान योनि की अपेक्षा श्रेष्ठ योनि को प्राप्त होना । किसी नारक का मनुष्य बनना, यह शुभ मरण है अथवा किसी तिर्यंच का मनुष्य या देव बनना शुभ मरण है । किसी मनुष्य का देव बनना शुभ मरण है, किन्तु इसके विपरीत किसी मनुष्य का तिर्यंच या नारक बनना अथवा तिर्यंच का नारक बनना अशुभ मरण है। सम्यक्त्व की गुणश्रेणी कोई नारक भी प्रारम्भ कर सकता है। सम्यक्त्व और देशविरति की गुणश्रेणियाँ तिर्यंच के भव में ही सम्भव है, किन्तु सर्वविरति की सम्भव नहीं है । सम्यक्त्व, देशविरति और सर्वविरति-ये तीनों गुणश्रेणियाँ मनुष्य भव में ही सम्भव है । ये तीनों गुणश्रेणियाँ पृथक्-पृथक् भी होती हैं और युगपत्, एक साथ भी हो सकती हैं, किन्तु इन तीनों गुणश्रेणियों का युगपत् रूप से होना मनुष्य भव में ही सम्भव है । तिर्यच में सम्यक्त्व और देशविरति में दो गुणश्रेणियाँ एक साथ हो सकती है, किन्तु नारक में मात्र सम्यक्त्व गुणश्रेणी ही होती है। Jain Education Intemational Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{279) गुणस्थान और गुणश्रेणी : __ पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ सातवीं और एक सौ आठवीं गाथा में गुणश्रेणियों की चर्चा है। इन गाथाओं में कहा गया है कि सम्यक्त्व, देशविरति और सर्वविरति गुणस्थानों को प्राप्त करने के पूर्व, अनन्तानुबन्धी कषाय की विसंयोजना करते समय, दर्शनमोह का क्षय करते समय, चारित्रमोह का उपशमन करते समय, उपशान्तमोह गुणस्थान की प्राप्ति के समय, चारित्रमोह का क्षय करते समय, गुणस्थानों में क्षीणमोह गुणस्थान को प्राप्त करते समय तथा सयोगीकेवली और अयोगीकेवली में साधक आत्मा गुणश्रेणी प्राप्त करता है। गुणश्रेणी वह अवस्था है जिसमें साधक सत्ता में रहे हुए कर्मदलिकों को इस क्रम से योजित करता है कि प्रत्येक अगले समय में पूर्व समय की अपेक्षा अनन्तगुणी कर्म निर्जरा हो सके । सामान्यतया कर्मों के स्थितिघात, रसघात, गुणसंक्रमण आदि की दृष्टि से उनको विशेष क्रम में योजित करके प्रतिसमय अधिक से अधिक उनका क्षय करते हुए आध्यात्मिक विशुद्धि के मार्ग में आगे बढ़ने की प्रक्रियाओं को भी गुणश्रेणी कहते हैं। आचारांगनियुक्ति में षट्खण्डागम के वेदना खण्ड की चलिका में तत्त्वार्थसत्र में और उसकी दिगम्बर टीकाओं में दस गणश्रेणियों की चर्चा है । शिवशर्मसरि ने अपनी कर्मप्रकति में 'जिने यदुविहे' कहकर ग्यारह गुणश्रेणियों का उल्लेख किया है। पंचसंग्रहकार ने भी उसी प्रकार ग्यारह गुणश्रेणियों की चर्चा की है। जिन ग्रन्थों में दस गणश्रेणियों की चर्चा है, उनमें दसवीं गणश्रेणी को जिन के नाम से ही उल्लेखित किया गया है, किन्त जो ग्यारह गुणश्रेणियों की चर्चा करते हैं, वे जिन नामक गणश्रेणियों के दो विभाग करते हैं-सयोगीकेवली और अयोगीकेवली। इसप्रकार ये एकादश गुणश्रेणियाँ केवली के सयोगी और अयोगी- ऐसे दो विभाग करने पर ही बनती है। डॉ. सागरमल जैन का कथन है कि (पृष्ठ २५) सम्भवतः पाँचवीं-छठी शताब्दी के पश्चात् गुणस्थान सिद्धान्त में सयोगीकेवली और अयोगीकेवली की अवधारणा के आने पर ही जिन नामक दसवीं गुणश्रेणी के विभाजन से गुणश्रेणियों की संख्या ग्यारह हो गई। श्वेताम्बर परम्परा में इन ग्यारह गुणश्रेणियों का अन्तिम उल्लेख देवेन्द्रसूरि कृत अर्वाचीन कर्मग्रन्थों में शतक नामक पाँचवें कर्मग्रन्थ की बयासीवीं गाथा में मिलता है । देवेन्द्रसूरि की विशेषता यह है कि उन्होंने अपनी स्वोपज्ञ टीका में न केवल इन ग्यारह गुणश्रेणियों का स्पष्टीकरण प्रस्तुत किया है, अपितु इन गुणश्रेणियों की गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा से निकटता भी सूचित की है। जहाँ तक दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है, उसमें षट्झण्डागम को छोड़कर कार्तिकेयानुप्रेक्षा आदि में हमें ग्यारह गुणश्रेणियों की चर्चा मिलती है। षट्खण्डागम में आचारांगनियुक्ति के समान ही अन्तिम अवस्था में जिन का ही उल्लेख है। वहाँ सयोगी और अयोगी-ऐसा विभाजन नहीं मिलता है । तत्त्वार्थसूत्र के मूल पाठ में भी केवल 'जिन' शब्द का ही उल्लेख मिलता है । इसके आधार पर ऐसा लगता है कि प्रारम्भ में तो श्वेताम्बर और दिगम्बर-दोनों ही परम्परा में दस गुणश्रेणियों की चर्चा थी, किन्तु आगे चलकर दोनों ही परम्परा में जिन के दो विभाग करके ग्यारह गुणश्रेणियों की चर्चा प्रारम्भ की गई । दिगम्बर परम्परा में सर्वप्रथम कार्तिकेयानुप्रेक्षा में तथा श्वेताम्बर परम्परा में सर्वप्रथम शिवशर्मसूरि की कर्मप्रकृति में हमें इन ग्यारह गुणश्रेणियों की चर्चा मिलती है। दिगम्बर परम्परा में षट्खण्डागम के यतिवृषभकृत चूर्णिसूत्रों में भी ग्यारह गुणश्रेणियों की चर्चा मिलती है, किन्तु यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि दिगम्बर परम्परा में गोम्मटसार के जीवकाण्ड की गाथा क्रमांक - ६६ और ६७ में ग्यारह गुणश्रेणियों की चर्चा न करते हुए दस ही गुणश्रेणियों का उल्लेख किया है । गोम्मटसार की ये दोनों गाथाएं आचारांगनियुक्ति और षट्खण्डागम के कुछ पाठान्तरों को छोड़कर साम्यता रखती है । इससे ऐसा लगता है कि षटखण्डागमकार ने आचारांगनियुक्ति का और गोम्मटसार के कर्ता ने षट्खण्डागम का आधार लेकर इन गाथाओं को अवतरित किया है, किन्तु इतना निश्चित है कि दिगम्बर परम्परा में कार्तिकेयानुप्रेक्षा और यतिवृषभकृत षट्खण्डागम की चूर्णिसूत्र के काल से ग्यारह गुणश्रेणियों की चर्चा प्रारम्भ हो गई थी । पंचसंग्रहकार ने भी ग्यारह गुणश्रेणियों की चर्चा की है, जो निम्नानुसार हैं - (१) सम्यक्त्वदर्शन प्राप्त करते समय जो तीन करण होते हैं, उनमें अपूर्वकरण तथा अनिवृत्तिकरण की अवस्था में गुणश्रेणी होती हैं । यह गुणश्रेणी सम्यक्त्व प्राप्त हो जाने के पश्चात् ही अन्तर्मुहूर्त काल तक चलती रहती है। यह सम्यक्त्व की प्राप्ति के निमित्त होने वाली प्रथम गुणश्रेणी है । (२-३) Jain Education Intemational Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{280) देशविरति और सर्वविरति ग्रहण करते समय अन्तर्मुहूर्त काल तक आत्मा के परिणाम विशुद्ध रहते हैं । उन विशुद्ध परिणामों के फलस्वरूप देशविरति और सर्वविरति के निमित्त से दूसरी और तीसरी गुणश्रेणी होती है। ज्ञातव्य है कि इन दोनों गुणश्रेणियों में न्तर्मुहूर्त काल तक वर्धमान विशुद्ध आत्म-परिणामों के कारण गुणश्रेणी होती है। ये क्रमशः द्वितीय और तृतीय गणश्रेणी कही गई है । (४) चतुर्थ गुणश्रेणी तब होती है जब अप्रमत्त गुणस्थान में स्थित आत्मा अनन्तानुबन्धी कषाय की विसंयोजना करती है। (५) पाँचवीं गुणश्रेणी भी सप्तम गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी कषाय की विसंयोजना के पश्चात् जब आत्मा मिथ्यात्वमोह, मिश्रमोह और सम्यक्त्वमोह का क्षय करती है तब होती है । (६) षष्ठ गुणश्रेणी चारित्रमोह कर्म का उपशमन करते हुए अनिवृत्तिबादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती उपशमश्रेणी से आरोहण करने वाली आत्माओं को होती है । (७) सप्तम गुणश्रेणी उपशान्तमोह गुणस्थान में रहे हुए जीवात्मा के जब तक प्रवर्धमान विशुद्ध परिणाम होते हैं, तब तक होती है । (८) अष्टम गुणश्रेणी क्षपक श्रेणी से आरोहण करने वाली आत्मा को चारित्रमोह कर्म का क्षपण करते समय अनिवृत्तिबादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानों में होती है। (E) नवम गुणश्रेणी क्षीणमोह गुणस्थान में दर्शनावरणीय, ज्ञानावरणीय और अन्तराय कर्मों का क्षय करते समय क्षीणमोह नामक गुणस्थान में होती है । (१०) सयोगीकेवली गुणस्थान में जो गुणश्रेणी होती है, उसे सयोगीकेवली गुणश्रेणी कहते हैं। यह गुणश्रेणी दसवीं है । यद्यपि केवलज्ञान की उत्पत्ति के साथ सभी घाती कर्म निर्जरित हो जाते हैं; अतः सयोगीकेवली गुणस्थान में जो गुणश्रेणी की जाती है, वह अघाती कर्मों की विशेष रूप से वेदनीय कर्म की होती है । हमारी दृष्टि में यह गुणश्रेणी तब होती है, जब आत्मा केवली समुद्घात करती है और केवली समुद्घात करके वेदनीय और आयुष्य कर्म को समतुल्य बना देती है। (११) अयोगीकेवली गुणस्थान में ग्यारहवीं गुणश्रेणी होती है, क्योंकि इस गुणस्थान में आत्मा योग निरोध के माध्यम से अवशिष्ट चारों अघाती कर्मों को क्षय कर देती है । गुणश्रेणियों की इस चर्चा में यह ज्ञातव्य है कि कौन-सी आत्मा गुणश्रेणी करते समय शीर्ष भाग पर अवस्थित कर्मदलिको का उत्कृष्ट प्रदेशोदय करती है और कौन-सी आत्मा जघन्य प्रदेशोदय करती है ? इसके उत्तर में यह कहा गया है कि गुणश्रेणी करते समय गुणित कर्माश आत्मा अर्थात् वह आत्मा जिसके कर्मदलिक बहुत अधिक संख्या में रहे हैं, उत्कृष्ट अर्थात् सर्वाधिक प्रदेशोदय करती है। इसके विपरीत क्षपितकर्माश आत्मा जघन्य अर्थात् सबसे कम प्रदेशोदय करती है, क्योंकि उसके कर्मदलिक अत्यन्त अल्प मात्रा में ही शेष रहे हुए हैं । पंचसंग्रह के पंचमद्वार की अग्रिम गाथाओं में इस बात पर विस्तार से विचार किया गया है कि विभिन्न गुणश्रेणियों में किस प्रकार के कर्मों का और किस आत्मा को उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है, किस आत्मा को जघन्य प्रदेशोदय होता है । मूलगाथाओं की अपेक्षा ही पंचसंग्रह की मलधारी हेमचन्द्र की टीका में इस सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा की गई है, अतः हम यहाँ संकेत करके ही इस चर्चा को विराम देंगे। पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ चौंतीसवीं और एक सौ पैंतीसवीं गाथाओं में विभिन्न गुणस्थानों में किन कर्मप्रकृतियों की सत्ता होती है, इसकी चर्चा की गई है। इसमें बताया गया है कि मिथ्यात्व, सास्वादन और सम्यग्मिथ्यात्व-इन तीन गुणस्थानों में, नियम से, मिथ्यात्व की सत्ता होती है। उसके पश्चात् अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरति, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय और उपशान्तमोह-इन आठ गुणस्थानों में मिथ्यात्व की सत्ता विकल्प से होती है, अर्थात् कभी होती है, कभी नहीं होती है । जो क्षपक श्रेणी से आरोहण करते हैं, उनमें आठवें गुणस्थान से आगे मिथ्यात्व की सत्ता नहीं होती है, किन्तु जो उपशमश्रेणी से आरोहण करते हैं, उनमें ग्यारहवें गुणस्थान तक मिथ्यात्व की सत्ता अवश्य ही होती है। सास्वादन और मिश्र गुणस्थान में मिश्रमोहनीय की सत्ता अवश्यमेव होती है, किन्तु आगे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थानों तक, नौ गुणस्थानों में मिश्रमोहनीय की सत्ता विकल्प से होती है; अर्थात् कभी होती है और कभी नहीं होती है । पुनः मध्यवर्ती आठ कषाय अर्थात् अप्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क और प्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क की सत्ता क्षपकश्रेणी से आरोहण करने वाले में अनिवृत्तिकरण नामक नवें गुणस्थान तक होती है और उससे आगे इनका क्षय या उच्छेद हो जाता है, किन्तु उपशमश्रेणी वाली आत्मा में इनकी सत्ता ग्यारहवें गुणस्थान तक बनी रहती है । स्थावरनामकर्म, सूक्ष्मनामकर्म, तिर्यंचगति, Jain Education Intemational Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{281) तियंचानुपूर्वी, आतपनामकर्म, जातिचतुष्क, साधारणनामकर्म, नरकगति, नरकानुपूर्वी, उद्योतनामकर्म-इन तेरह कर्मप्रकृतियों की सत्ता क्षपक श्रेणी से आरोहण करने वाली आत्मा में नवें गुणस्थान के द्वितीय भाग तक होती है, किन्तु उपशमश्रेणी से आरोहण करने वाली आत्मा में इनकी ग्यारहवें गुणस्थान तक भी सत्ता रहती है । जो साधक पुरुषवेद के उदय में श्रेणी प्रारम्भ करता है, वह अनिवृत्तिबादरसंपराय नामक नवें गुणस्थान में सर्वप्रथम सत्ता में रहे हुए नपुंसकवेद, स्त्रीवेद और हास्यषट्क का अनुक्रम से क्षय करता है और उसके पश्चात् अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान का एक समय न्यून दो आवलिका काल शेष रहने पर पुरुषवेद का क्षय करता है। जो साधक नपुंसकवेद के उदय में क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होता है, वह स्त्रीवेद और नपुंसकवेद दोनों का एक साथ ही क्षय करता है, किन्तु यह स्थिति भी क्षपक श्रेणी से आरोहण करने वाले जीवों के सम्बन्ध में ही समझना चाहिए। उपशमश्रेणी से आरोहण करने वाले जीवों में तो इनकी सत्ता उपशान्तमोह गुणस्थान तक रहती है। जो स्त्रीवेद के उदय में क्षपकश्रेणी पर आरोहण करते है, वे जीव प्रथम सत्ता में रहे नपुंसकवेद का क्षय करते हैं एवं उसके पश्चात् स्त्रीवेद का क्षय करते है और उसके पश्चात् हास्यषट्क तथा पुरुषवेद का एक ही साथ क्षय करते हैं । जब तक इनका क्षय नहीं होता है, तब तक इनकी सत्ता रहती है, किन्तु उपशमश्रेणी से आरोहण करने वाले में तो इनकी सत्ता उपशान्तमोह गुणस्थान तक रहती है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि उपशमश्रेणी से आरोहण करने वाले केवल उदय में रही हुई या उदय होने वाली कर्मप्रकृतियों के उदय को उपशान्त करते हैं, सत्ता में रही हुई कर्मप्रकृतियों का क्षय नहीं करते हैं। सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थानवी जीव यदि क्षपकश्रेणी से आरोहण करते हैं, तो वे संज्वलन लोभ का सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के चरम समय में क्षय करते हैं, किन्तु जो उपशमश्रेणी से आरोहण करते हैं, उनमें तो संज्वलन लोभादि कर्मप्रकृतियों की सत्ता ग्यारहवें गुणस्थान तक बनी रहती है। जहाँ तक आहारक-सप्तक और तीर्थंकर-नामकर्म की सत्ता का प्रश्न है, सभी गुणस्थानवी जीवों में आहारक सप्तक की सत्ता विकल्प से होती है, अर्थात् कभी होती है और कभी नहीं होती है। यदि कोई जीव सातवें और आठवें गुणस्थान में आहारकनामकर्म का बन्ध करता है, तो ऊपर के गुणस्थानों में जाने पर सभी गुणस्थानों में उसकी सत्ता पम्भव हो सकती है। जहाँ तक तीर्थकरनामकर्म की सत्ता का प्रश्न है, सास्वादन और मिश्र गुणस्थान को छोड़कर अन्य सभी गुणस्थानों में तीर्थकरनामकर्म के सत्ता विकल्प से सम्भव होती है। तीर्थंकरनामकर्म का बन्ध मिथ्यात्व गुणस्थान में नहीं होता है । इतना निश्चय है कि सास्वादन और मिश्र गुणस्थान में नियम से तीर्थकरनामकर्म की सत्ता नहीं होती है । मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में तीर्थंकरनामकर्म की सत्ता अन्तर्मुहूर्त मात्र सम्भव होती है, क्योंकि जिसने पूर्व में नरकायु का बन्ध कर दिया हो, वह नरक में उत्पन्न होते समय अन्तर्मुहूर्त के लिए मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में जाता है। वेदनीय कर्म की कोई एक प्रकृति, उच्चगोत्र, नामकर्म की मृत्यु पर्यन्त या देहत्याग तक उदय में रहनेवाली सभी प्रकृतियां, मनुष्यायु, अयोगीकेवली गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त सत्ता में रहती है । शेष प्रकृतियों की सत्ता द्विचरमसमय पर्यन्त ही होती है । जो प्रकृतियाँ द्विचरमसमय पर्यन्त सत्ता में रहती हैं, वे निम्न हैं- वेदनीय, देवद्विक, औदारिक सप्तक, वैक्रिय सप्तक, आहारक सप्तक, तेजसकार्मण सप्तक, प्रत्येकनामकर्म, संस्थानषट्क, संघयणषट्क, वर्णादि वीश, विहायोगतिद्विक, अगुरुलघुनामकर्म, पराघात, उपघात, उच्छ्वास, स्थिरनामकर्म, अस्थिरनामकर्म, शुभनामकर्म, अशुभनामकर्म, सुभगनामकर्म, दुर्भगनामकर्म, सुस्वरनामकर्म, दुःस्वरनामकर्म, अनादेयनामकर्म, अपयशकीर्तिनामकर्म, मनुष्यानुपूर्वी, निर्माणनामकर्म, अपर्याप्तनामकर्म और नीचगोत्र - ये ८३ कर्मप्रकृतियाँ अयोगीकेवली गुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त सत्ता में हो सकती हैं, किन्तु द्विचरम समय अर्थात् चरम समय के दो समय पूर्व इन कर्मप्रकृतियों की सत्ता क्षय हो जाती है । इस प्रकार पंचसंग्रह के पंचम द्वार में, किस गुणस्थान में, किन कर्मप्रकृतियों की सत्ता रहती है और किन कर्मप्रकृतियों की सत्ता क्षय हो जाती है, इसका विस्तृत विवेचन हमें मिलता है। पंचसंग्रह के पंचम द्वार की सोलहवीं गाथा में कहा गया है कि जो साधक चार बार मोहनीय कर्म का उपशम करके प्रयत्नवान Jain Education Intemational Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{282) होता हुआ अन्त में जब क्षपकश्रेणी से आरोहण करता है, तब सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के चरम समय में यशःकीर्ति, उच्चगोत्र और सातावेदनीय के उत्कृष्ट प्रदेश सत्ता में रहते हैं, क्योंकि वह अशुभ प्रकृतियों के दलिकों को इन कर्मप्रकृतियों में संक्रमित कर देता है। कर्मदलिकों की सत्ता की चर्चा करते हुए १७६ वीं गाथा में यह भी कहा गया है कि अयोगीकेवली गुणस्थान में जिन कर्मप्रकृतियों की सत्ता होती है, उन सत्तावाली कर्मप्रकृतियों के कर्मस्पर्द्धक अयोगीकेवली गुणस्थान के काल के तुल्य स्पर्द्धकों से एक स्पर्द्धक न्यून होते हैं और जिन कर्मप्रकृतियों का उदय रहता है, उनके स्पर्द्धक अयोगीकेवली गुणस्थान के काल के स्पर्द्धकों के समतुल्य होते हैं । सत्तावाली कर्मप्रकृतियाँ द्विचरम समय तक रहती हैं और उदयवाली कर्मप्रकृतियाँ चरम समय तक रहती है, क्योंकि सत्ता में रही हुई कर्मप्रकृतियाँ एक समय पूर्व ही क्षय को प्राप्त हो जाती हैं । विभिन्न गुणस्थानों में योग : ___ गुणस्थान सिद्धान्त की विभिन्न द्वारों के माध्यम से विस्तृत चर्चा पंचसंग्रह नामक ग्रन्थ में उपलब्ध होती है। अभिधान राजेन्द्र कोष में भी जीवस्थानों और गुणस्थानों की चर्चा करते हुए, परमपूज्य श्री राजेन्द्रसूरिजी ने पंचसंग्रह की अनेक गाथाओं को उद्धृत किया है। यहाँ हम पंचसंग्रह की किन-किन गाथाओं में गुणस्थान की अवधारणा का किस रूप में प्रतिपादन किया गया है, इसका विवेचन करेंगे। पंचसंग्रह के प्रथम द्वार की गाथा क्रमांक-४ में किस गुणस्थान में कितने योग सम्भव है, इसकी चर्चा की गई है। जैन-दर्शन में मन-वचन और काया की प्रवृत्तियों को योग कहा गया है, अतः मूल में तो योग तीन ही होते हैं - मनोयोग, वचनयोग और काययोग । पुनः मनोयोग के चार, वचनयोग के चार और काययोग के सात-ऐसे पन्द्रह भेद किए गए हैं,जो निम्न प्रकार से हैं - (१) सत्य मनोयोग (२) असत्य मनोयोग (३) सत्यासत्य (मिश्र) मनोयोग (४) असत्य अमृषा मनोयोग (५) सत्य वचनयोग (६) असत्य वचनयोग (७) सत्यासत्य (मिश्र) वचनयोग (८) असत्य-अमृषा वचनयोग (E) औदारिक काययोग (१०) औदारिक मिश्र काययोग (११) वैक्रिय काययोग (१२) वैक्रिय मिश्र काययोग (१३) आहारक काययोग (१४) आहारक मिश्र काययोग (१५) कार्मण काययोग । यहाँ सर्वप्रथम यह समझ लेना चाहिए कि अयोगीकेवली गुणस्थान को छोड़कर शेष सभी गुणस्थानों में योग संभावनाएँ रही हुई हैं । आगे हम यह देखेंगे कि किस गुणस्थान में कितने योग सम्भव हो सकते हैं। पंचसंग्रह के प्रथम द्वार के गाथा क्रमांक -१६,१७ और १८ में हमें इस सम्बन्ध में चर्चा उपलब्ध होती है कि किस गुणस्थान में कितने योग होते हैं ? मिथ्यात्व गुणस्थान, सास्वादन गुणस्थान और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान इन तीनों गुणस्थानों में आहारक द्विक अर्थात् आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग- इन दो योगों को छोड़कर शेष सभी तेरह योग पाए जाते हैं। मिथ्यात्व गुणस्थान में पूर्वो के ज्ञान का अभाव होता है और पूर्वो के ज्ञान के अभाव में आहारक द्विक काययोग सम्भव नहीं है, अतः इन तीनों गुणस्थानों में तेरह योग ही सम्भव होते हैं। यह तेरह की संख्या संभावना की अपेक्षा से ही समझना चाहिए। एक साथ और एक व्यक्ति में तो इससे कम योग ही होते हैं। मिश्र गुणस्थान में चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिक काययोग तथा वैक्रिय काययोग-ऐसे कुल दस योग सम्भव होते हैं। मिश्र गुणस्थान की संभावना नारकी, तिर्यंच, मनुष्य और देव चारों गतियों में होती है। यदि देव और नारक गति में हो, तो वैक्रिय काययोग होगा और मनुष्य तथा तिर्यंच गति में हो, तो औदारिक काययोग होगा । शेष निम्न पांच योग इस गुणस्थान में सम्भव नहीं होते हैं - आहारक काययोग, आहारक मिश्र काययोग, कार्मण काययोग, औदारिक मिश्र काययोग, एवं वैक्रिय मिश्र काययोग । चूंकि आहारक द्विक केवल छठे गुणस्थान में ही सम्भव होता है और कार्मण काययोग, औदारिक मिश्र काययोग, वैक्रिय मिश्र काययोग-ये तीन काययोग विग्रहगति और अपर्याप्त अवस्था में ही सम्भव होते हैं । मिश्र गुणस्थान में मृत्यु नहीं होती है, अतः इस गुणस्थान में विग्रहगति और अपर्याप्त अवस्था भी सम्भव नहीं है। इस गणस्थान में संभावना की अपेक्षा से दस योग ही सम्भव हैं । पांचवें देशविरति गुणस्थान में सामान्यतया चार मनोयोग, चार वचनयोग और औदारिक काययोग-ये नौ योग सामान्यतया पाए जाते हैं, किन्तु वैक्रिय लब्धि वाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य वैक्रिय शरीर की रचना कर सकते हैं, अतः Jain Education Intemational Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{283} प्रारम्भ में वैक्रिय मिश्र और बाद में वैक्रिय काययोग सम्भव हो सकते हैं। इसप्रकार पांचवें देशविरति गुणस्थान में कुल ग्यारह योग सम्भव होते हैं। आहारक द्विक, औदारिक मिश्र काययोग और कार्मण काययोग तो इस गुणस्थान में सम्भव नहीं होते हैं, चूंकि सर्वविरति या देशविरति मृत्यु के बाद सम्भव नहीं होती है, अतः इस अवस्था में उपर्युक्त ग्यारह योग की सम्भावना है। छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान में आहारक द्विक की सम्भावना होने से पूर्वोक्त ग्यारह के साथ कुल तेरह योग सम्भव होते हैं। कार्मण काययोग और औदारिक मिश्र काययोग अपर्याप्त अवस्था में ही सम्भव होते हैं। मृत्यु के पश्चात् संयम नहीं रहता है, अतः वे दोनों योग सम्भव नहीं होने से कुल तेरह योग सम्भव होते हैं। अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव आहारक शरीर और वैक्रिय शरीर बनाने का प्रयत्न नहीं करता है, अतः उसमें पूर्वोक्त तेरह योगों में से वैक्रिय मिश्र और आहारक मिश्र-दो कम करने पर कुल ग्यारह योग ही पाए जाते हैं। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि यदि मुनि अपनी वैक्रिय-आहारक आदि लब्धियों का उपयोग करे, तो प्रमत्त ही कहलाता है, अप्रमत्त नहीं । अतः वैक्रिय मिश्र और आहारक मिश्र ही इस गुणस्थान में असम्भव होते हैं, किन्तु आहारक काययोग और वैक्रिय काययोग सम्भव है, क्योंकि लब्धि का उपयोग करने के पश्चात् पुनः अप्रमत्त अवस्था में आ सकता है। कार्मण काययोग और औदारिक मिश्र काययोग सम्भव नहीं होते हैं, क्योंकि इसका सम्बन्ध मृत्यु के पश्चात् अपर्याप्त अवस्था से है और अपर्याप्त अवस्था में सातवाँ गुणस्थान सम्भव है ही नहीं । अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्तमोह और क्षीणमोह गुणस्थान इन पांच गुणस्थानों में चार मनोयोग, चार वचनयोग और औदारिक काययोग-ऐसे नौ योग ही सम्भव होते हैं । यद्यपि यह एक विचारणीय प्रश्न है कि ये गुणस्थान आत्मविशुद्धि के सूचक है, अतः इन गुणस्थानों में असत्य मनोयोग, असत्य वचनयोग, मिश्र मनोयोग, मिश्र वचनयोग कैसे सम्भव होगा? हमारी दृष्टि में यहाँ केवल सत्यमनोयोग, असत्य अमृषा मनोयोग, सत्य वचनयोग, असत्य-अमृषा वचनयोग तो सम्भव हो सकते हैं । असत्य और मिश्र मनोयोग एवं असत्य और मिश्र वचनयोग कैसे सम्भव नहीं होगा? तत्व केवली गम्य है। सयोगीकेवली गुणस्थान में सत्य मनोयोग, असत्य अमृषा मनोयोग, सत्य वचनयोग, असत्य अमृषा वचनयोग, औदारिक काययोग, औदारिक मिश्र काययोग और कार्मण काययोग-ऐसे कुल सात योग सम्भव होते हैं। इनमें भी कार्मण काययोग और औदारिक मिश्र काययोग-ये दो काययोग केवली समुद्घात की अवस्था में ही सम्भव होते हैं । अतः इन सात योगों की संभावना भी केवली समुद्घात की दृष्टि से समझना चाहिए । सामान्य अवस्था में तो पांच ही योग होते हैं । दोनों मनोयोग मनः पर्यवज्ञानी और अनुत्तर विमानवासी देवों के मन में उठी शंकाओं के समाधान की दृष्टि से और दोनों वचनयोग धर्म की देशना की दृष्टि से सम्भव माने गए हैं। अन्तिम अयोगीकेवली गुणस्थान में योग का पूर्णतया अभाव होता है। विभिन्न गुणस्थानों में उपयोग : पंचसंग्रह में प्रथमद्वार की उन्नीसवीं एवं बीसवीं गाथा में चौदह गुणस्थानों में बारह उपयोग का अवतरण किया गया है। उपयोग बारह प्रकार के हैं- (१) मति-अज्ञान (२) श्रुत-अज्ञान (३) विभंगज्ञान (४) मतिज्ञान (५) श्रुतज्ञान (६) अवधिज्ञान (७) मनःपर्यवज्ञान (८) केवलज्ञान (६) चक्षुदर्शन (१०) अचक्षुदर्शन (११) अवधिदर्शन और (१२) केवलदर्शन। मिथ्यात्व गुणस्थान और सास्वादन गुणस्थान में निम्न पांच उपयोग होते हैं। मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान, विभंगज्ञान, चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन। इन गुणस्थानों में संयम और क्षायिकभाव न होने से मतिज्ञानादि शेष उपयोग नहीं होते हैं । मिश्र गुणस्थान में छः उपयोग होते हैं । इस गुणस्थानवी जीवों में सम्यक् और मिथ्या- इन दोनों दृष्टियों की मिश्र अवस्था होती है । अतः इस गुणस्थान में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मत्यज्ञान-श्रुताज्ञान, विभंग ज्ञान, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन-ये उपयोग हो सकते हैं, ऐसा आगमिक परम्परा मानती है । कर्मग्रन्थकार उसे स्वीकार नहीं करते हैं, अतः उनके अनुसार छः उपयोग होते हैं; अवधिज्ञान, विभंगज्ञान और अवधिदर्शन ये तीन उपयोग नहीं होते हैं । अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान और देशविरति गुणस्थान में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन-ये छः उपयोग होते हैं । सम्यक्त्व होने से अज्ञान नहीं होता है तथा सर्वविरति संयम का अभाव होने से मनःपर्यवज्ञान Jain Education Intemational Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{284} नहीं होता है । ज्ञानावरणीयादि कर्म का पूर्णतः क्षय नहीं होने से केवलज्ञान और केवलदर्शन नहीं होता है । प्रमत्तसंयत गुणस्थान से क्षीणमोह गुणस्थान तक के सात गुणस्थानों में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और मनःपर्यवज्ञान-ऐसे सात उपयोग हो सकते हैं, परंतु ज्ञानावरणीयादि के पूर्णतः क्षय नहीं होने से केवलज्ञान और केवलदर्शन नहीं होते हैं। सयोगीकेवली और अयोगीकेवली-इन दोनों गुणस्थानों में मात्र केवलज्ञान और केवलदर्शन ही होते हैं,शेष उपयोग सम्भव नहीं होते हैं। गति मार्गणा में गुणस्थान : पंचसंग्रह के प्रथम द्वार की सत्ताईसवीं गाथा में गतियों एवं जातियों के आधार पर गुणस्थानों की चर्चा हुई है। जैनदर्शन में गतियाँ चार मानी गई हैं- नारकगति, तिथंचगति, मनुष्यगति और देवगति। इन चारों गतियों में गुणस्थानों की चर्चा करते हुए कहा गया है कि देवगति और नारकगति- इन दो गतियों में अधिकतम प्रथम के चार गुणस्थान अर्थात् मिथ्यात्व गुणस्थान, सास्वादन गुणस्थान, सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र) गुणस्थान और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान सम्भव होते हैं। देवता और नारक दोनों ही भोग योनियाँ हैं, अतः वहाँ व्रत-प्रत्याख्यान आदि सम्भव नहीं होते हैं, इसीलिए चतुर्थ गुणस्थान के आगे किसी भी गुणस्थान की वहाँ संभावना नहीं है। तिर्यंचगति में विशेष रूप से संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच की अपेक्षा से प्रथम के पाँच गुणस्थान सम्भव हैं। चूंकि जैन दर्शन में विवेकी पशुओं में देशविरति की संभावना मानी है, अतः उनमें मिथ्यात्व गुणस्थान, सास्वादन गुणस्थान, सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान, (मिश्र) अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान और देशविरति गुणस्थान- ऐसे पाँच गुणस्थान सम्भव हैं। जहाँ तक मनुष्यगति का प्रश्न है, मनुष्य गति में चौदह ही गुणस्थान सम्भव हैं । जैनदर्शन मुक्ति की संभावना केवल मनुष्यगति में ही स्वीकार करता है, अतः आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से मनुष्य में चौदह ही गुणस्थान हो सकते हैं । इसप्रकार गति मार्गणा की अपेक्षा से नारक और देवता में चार गुणस्थान एवं तिर्यंचगति में पाँच गुणस्थान, और मनुष्य में चौदह गुणस्थान पाए जाते हैं। पंचसंग्रह की टीका में यह भी स्पष्ट किया गया है कि भोगभूमि के युगलिक मनुष्यों और तिर्यंचों में चार ही गुणस्थान सम्भव होते हैं । उसमें भी जो संख्यात वर्ष की आयुवाले तिर्यच होते हैं, उनमें क्षायिक सम्यक्त्व को छोड़कर, औपशमिक या क्षायोपशमिक-दो ही सम्यक्त्व सम्भव हैं । शेष में औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक; तीनों ही सम्यक्त्व सम्भव हो सकते जाति मार्गणा में गुणस्थान : __पंचसंग्रह के प्रथम द्वार की सत्ताईसवीं गाथा में जातियों की अपेक्षा से भी गुणस्थान की चर्चा हुई है। जैनदर्शन में जातियाँ पाँच मानी गई हैं - एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय को विकलेन्द्रिय कहा गया है । यहाँ बताया गया है कि एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय अर्थात् द्वीन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक में, प्रथम के दो गुणस्थान अर्थात् मिथ्यादृष्टि और सास्वादन गुणस्थान ही सम्भव होते हैं । सास्वादन गुणस्थान भी अपर्याप्त अवस्था में ही सम्भव होता है। पर्याप्त अवस्था में तो मात्र मिथ्यात्व गुणस्थान ही रहता है। पंचेन्द्रिय में मनुष्य का भी समावेश होता है, अतः उनकी अपेक्षा से यह कहा गया है कि पंचेन्द्रियों में चौदह ही गुणस्थान सम्भव होते हैं, किन्तु यह बात कर्मभूमि के संज्ञी पर्याप्त मनुष्य की दृष्टि से ही समझना चाहिए, शेष पंचेन्द्रिय जीवों की अपेक्षा से नहीं । वेद मार्गणा में गुणस्थान : जैनदर्शन में वेद शब्द का प्रयोग कामवासना के अर्थ में हुआ है। इस आधार पर वेद तीन माने गए हैं- स्त्रीवेद, पुरुषवेद Jain Education Intemational Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{285) और नपुंसक वेद । वेद मार्गणा की अपेक्षा से पंचसंग्रह के प्रथम द्वार की उनतीसवीं गाथा में कहा गया है कि तीनों वेदों में प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर नवें अनिवृत्तिबादर सम्पराय गुणस्थान तक के सभी नौ गुणस्थान सम्भव होते हैं। शेष दसवें सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान से लेकर चौदहवें अयोगीकेवली गुणस्थान तक वेद या कामवासना का अभाव माना गया है। यहाँ यह समझना आवश्यक है कि जैन परम्परा में वेद और लिंग दोनों को अलग-अलग माना गया है। कामवासना को वेद और यौन अंगों की शारीरिक संरचना को लिंग कहा गया है । लिंग की अपेक्षा से स्त्री, पुरुष और नपुंसक-तीनों लिंगों में सभी गुणस्थानों की संभावना मानी गई है । यद्यपि कुछ जैनाचार्यों ने विशेष रूप से दिगम्बर जैनाचार्यों ने वेद के भी द्रव्यवेद और भाववेद-ऐसे दो विभाग किए हैं। यहाँ द्रव्यवेद, लिंग या शारीरिक रचना ही है। इसी आधार पर पंचसंग्रह के गुजराती अनुवादक पंडित हीरालाल देवचंद वढवाण वालों ने टिप्पण में यह प्रश्न उठाया है कि तीनों वेदों में जो नौ गुणस्थानों की संभावना बताई गई है, वह द्रव्यवेद के आश्रय से या भाववेद के आश्रय से है ? उत्तर में वे लिखते हैं कि यह कथन द्रव्यवेद के आश्रय से नहीं है, क्योंकि द्रव्यवेद में तो इसके ऊपर के गुणस्थान भी सम्भव होते हैं। यदि हम यह माने कि यह भाववेद की अपेक्षा से कही गई है, तो प्रश्न यह उठता है कि भाववेद अर्थात् कामवासना बनी रहने पर सर्वविरति चारित्र कैसे सम्भव हो सकता है ? इसके उत्तर में पंडितजी का कहना यह है कि वेद ये देशघाती कषायों के उदय से होते हैं । देशघाती नोकषाय सर्वघाती कषायों के क्षयोपशम से प्राप्त सर्वविरति चारित्र को नष्ट करने में समर्थ नहीं है। चारित्र का हनन सर्वघाती कषायों के उदय से होता है । पुनः वेद (कामवासना) के तीव्र-मन्द आदि अनेक भेद होते हैं । ऊपर के गुणस्थानों में अत्यन्त मन्द कामवासना होने से वह चारित्र की बाधक नहीं होती है। जिस प्रकार पित्त आदि दोष सभी जीवों में होते हैं, किन्तु जब तक वे तीव्र नहीं होते, तब तक बाधक नहीं होते हैं । इसीप्रकार सर्वविरति आदि ऊपर के गुणस्थानों में वेद (कामवासना) अत्यन्त मन्द होने से वह चारित्र का घात नहीं करते हैं । कषाय मार्गणा में गुणस्थान : पंचसंग्रह के प्रथम द्वार की उपर्युक्त उनतीसवीं गाथा में कषायों की अपेक्षा गुणस्थानों की चर्चा की गई है। कषाय चार हैं - क्रोध, मान, माया और लोभ। सामान्य अपेक्षा से क्रोध, मान और माया- इन तीन कषायों में प्रथम गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादर सम्पराय तक नौ गुणस्थान सम्भव होते हैं, किन्तु लोभ कषाय में प्रथम गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय तक दसों गुणस्थान सम्भव हैं। इससे आगे के गुणस्थानों में कषाय का उदय नहीं होता है। ज्ञातव्य है कि यहाँ कषायों की जो बात कही गई है, वह सामान्य रूप से ही कही गई है। वैसे जैनदर्शन में प्रत्येक कषाय के अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानीय, प्रत्याख्यानीय, संज्वलन- ऐसे चार भेद किए गए हैं। इस अपेक्षा से यदि विचार करना हो, तो अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क के उदय में प्रथम और द्वितीय, दो गुणस्थान ही सम्भव होते हैं। अनन्तानुबन्धी कषाय का उपशम या क्षय होने पर अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान होता है। अप्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क के उदय का विच्छेद होने पर देशविरति गणस्थान सम्भव होता है। प्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क के उदय-विच्छेद होने पर ही सर्वविरति नामक छठा गुणस्थान सम्भव होता है, अतः यह माना जा सकता है कि छठे गुणस्थान से लेकर नवें गुणस्थान तक केवल संज्वलन कषाय चतुष्क का उदय रहता है, जबकि दसवें सूक्ष्मसंपराय नामक गुणस्थान में मात्र सूक्ष्म लोभ का ही उदय रहता है। सूक्ष्म लोभ का उदय-विच्छेद अर्थात् उपशम या क्षय होने पर साधक ग्यारहवें उपशान्तकषाय या बारहवें क्षीणकषाय गुणस्थान में आरोहण कर जाता है। कषायों की अपेक्षा से गुणस्थानों की यह व्यवस्था है। क्षीणमोह, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली- इन तीन गुणस्थानों में कषायों का सर्वथा अभाव होता है। लेश्या मार्गणा में गुणस्थान : पंचसंग्रह के प्रथम द्वार की उनतीसवीं एवं तीसवीं गाथाओं में लेश्या मार्गणा की अपेक्षा से गुणस्थानों की चर्चा की गई है । जैनदर्शन में प्रशस्त और अप्रशस्त मनोभावों को लेश्या कहा गया है। इसमें लेश्या छः हैं । कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत Jain Education Intemational Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{286} लेश्या, तेजो लेश्या, पद्म लेश्या और शुक्ल लेश्या । कृष्ण, नील और कापोत- ये तीन लेश्याएँ अशुभ या अप्रशस्त हैं तथा तेजो, पद्म और शुक्ल - ये तीन लेश्याएँ शुभ या प्रशस्त हैं । यहाँ यह कहा गया है कि प्रथम से लेकर चतुर्थ अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक सभी छः लेश्याओं की संभावना है । देशविरति गुणस्थान, प्रमत्तसंयत गुणस्थान और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान-इन तीन गुणस्थानों में तेजो, पद्म, शुक्ल-ये तीन शुभ लेश्याएँ ही होती हैं । आगे अपूर्वकरण से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक मात्र शुक्ल लेश्या ही होती है। अयोगीकेवली गुणस्थान में कोई भी लेश्या नहीं होती है। लेश्या मार्गणा के सम्बन्ध में यह जानना अपेक्षित है कि सम्यक्त्व, देशविरति और सर्वविरति-इन तीन गुणस्थानों में प्रवेश के समय तो तीनों शुभ लेश्याएँ होती हैं, किन्तु उसके पश्चात् लेश्याओं में परिवर्तन हो सकता है। उस अपेक्षा से देशविरति और सर्वविरति गुणस्थानों में सभी छः लेश्याओं की संभावना स्वीकार की गई हैं । भव्य मार्गणा में गुणस्थान : जैनदर्शन में पारिणामिक भावों की चर्चा करते हुए भव्यत्व और अभव्यत्व को पारिणामिक भाव कहा गया है। जिन जीवों में स्वाभाविक रूप से मोक्ष जाने की क्षमता होती है, वे भव्य कहे जाते हैं और जिन जीवों में मोक्ष जाने की क्षमता नहीं होती है, वे अभव्य कहे जाते हैं । पंचसंग्रह के प्रथम द्वार की इकतीसवीं गाथा में बताया गया है कि अभव्य जीवों को मात्र मिथ्यात्व गुणस्थान होता है, जबकि भव्य जीवों में चौदह ही गुणस्थान सम्भव होते हैं । अभव्य जीव सर्वकाल में मिथ्यात्व गुणस्थान में ही पाए जाते हैं, जबकि भव्य जीव मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक किसी भी गुणस्थान में पाए जाते हैं । संज्ञी मार्गणा में गुणस्थान : जैनदर्शन में संज्ञी शब्द का अर्थ केवल इतना नहीं हैं कि जिसमें कोई भी संज्ञा पाई जाए, वह संज्ञी है। यहाँ संज्ञी से तात्पर्य विवेकशील मन से है। असंज्ञी जीवों में प्रथम के दो गुणस्थान सम्भव हो सकते हैं, जबकि संज्ञी जीवों में, प्रथम से लेकर क्षीणकषाय तक, बारह गुणस्थान सम्भव होते हैं। केवली को संज्ञी और असंज्ञी वर्ग से ऊपर माना गया है। इसी कारण संज्ञी जीवों में प्रथम से लेकर बारहवें तक बारह गुणस्थान पाए जाते हैं। तेरहवें सयोगीकेवली और चौदहवें अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव न संज्ञी होते हैं और न असंज्ञी । इस विषय में पंचसंग्रह के प्रथम द्वार की गाथा क्रमांक इकतीस में विवेचन है। सम्यक्व मार्गणा में गुणस्थान :___सामान्यतया दृष्टिकोण की विशुद्धता को सम्यक्त्व कहा गया है। अपेक्षा भेद से नवतत्व के सम्यक् श्रद्धान को अथवा देव-गुरु-धर्म के प्रति सम्यक् श्रद्धान को भी सम्यक्त्व कहा गया है । सम्यक्त्व मार्गणा में पहला और तीसरा गुणस्थान छोड़कर शेष सभी गणस्थान सम्भव होते हैं। मिश्र सम्यक्त्व मार्गणा में मात्र एक मिश्र गणस्थान होता है । मिथ्यात्व मार्गणा में भी मात्र एक प्रथम गुणस्थान होता है। सम्यक्त्व मार्गणा को आगे स्पष्ट करते हुए पंचसंग्रह के प्रथम द्वार की बत्तीसवीं गाथा में यह बताया गया है कि अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरति, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान-इन चारों गुणस्थानों में वेदक सम्यक्त्व सम्भव होता है। पुनः अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थान तक के आठ गुणस्थानों में उपशम सम्यक्त्व की भी संभावना होती है। विशेष रूप से जो साधक उपशमश्रेणी से यात्रा करते हैं, उनमें इन आठ गुणस्थानों में उपशम सम्यक्त्व की संभावना समझना चाहिए। पुनः अविरतसम्यग्दृष्टि से प्रारम्भ करके अयोगीकेवली तक के ग्यारह गुणस्थानों में क्षायिक सम्यक्त्व होता है। मिथ्यात्व गुणस्थान, सास्वादन गुणस्थान और मिश्र गुणस्थानों में अपने-अपने नाम के अनुरूप मिथ्यात्व, सास्वादन सम्यक्त्व और मिश्र सम्यक्त्व होते हैं। आहार मार्गणा में गुणस्थान : आहार मार्गणा की अपेक्षा से जीवों के दो विभाग किए गए हैं। जो आहार ग्रहण करते हैं, वे आहारक कहलाते है और जो Jain Education Intemational Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... पंचम अध्याय........{287} किसी भी प्रकार का आहार ग्रहण नहीं करते, वे अनाहारक कहलाते है। पंचसंग्रह के प्रथम द्वार की तैंतीसवीं गाथा में यह बताया गया है कि आहारक मार्गणा में, प्रथम गुणस्थान से लेकर तेरहवें सयोगीकेवली गुणस्थान तक, सभी तेरह गुणस्थान सम्भव होते हैं। दसरे शब्दों में आहारक जीवों में तेरह गणस्थानों की संभावना है। इस गाथा में आगे यह भी बताया गया है कि अनाहारक जीवों में पाँच गुणस्थान सम्भव होते हैं। टीका में इन पाँच गुणस्थानों को स्पष्ट करते हुए बताया गया है कि अनाहारक अवस्था में मिथ्यात्व, सास्वादन, अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, सयोगीकेवली गुणस्थान और अयोगीकेवली गुणस्थान- ये पाँच गुणस्थान सम्भव होते हैं। इनमें मिथ्यात्व गणस्थान, सास्वादन और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान अनाहारक दशा में जब इन गुणस्थानों से युक्त जीव अपने औदारिक या वैक्रिय शरीर का परित्याग करके विग्रह गति करता हुआ बीच के समय में अनाहारक होता है। सयोगीकेवली जब केवली समुद्घात करते हैं, उसके बीच के समय में अनाहारक दशा में रहते हैं। अयोगीकेवली जब सूक्ष्म काययोग का भी निरोध कर लेते है, तब वे अनाहारक अवस्था को प्राप्त होते हैं । गुणस्थानों में जीवस्थान ___ पंचसंग्रह के प्रथम द्वार की अट्ठाइसवीं गाथा में जीवस्थानों के सन्दर्भ में गुणस्थानों का विवेचन किया गया है। उसमें बताया गया है कि मिथ्यादष्टि गणस्थान सभी चौदह जीवस्थानों में होता है। सास्वादन गुणस्थान अग्निकाय, वायकाय तथा सूक्ष्मनामकर्म के उदयवाले अपर्याप्तनामकर्म के साधारणनामकर्म के उदय वाले जीवों को छोड़कर के शेष सभी लब्धि पर्याप्त किन्तु करण अपर्याप्त सभी जीवस्थानों में सम्भव होता है। संज्ञी पर्याप्त और संज्ञी अपर्याप्त जीवों में अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान सम्भव होता है। शेष तीसरा सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान तथा पंचम देशविरति गुणस्थान से लेकर चौदहवें अयोगीकेवली गुणस्थान तक दस गणस्थान - ऐसे कल ग्यारह गुणस्थान संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में ही सम्भव होते हैं । विभिन्न गुणस्थानों में जीवों की संख्या : पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की नवीं गाथा की टीका में विभिन्न गुणस्थानों में जीवों की संख्या कितनी होती है, इसका विचार किया है। उसमें कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव अनन्त है। इस अनन्त की संख्या को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार लोकाकाश में प्रदेश अनन्त है, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव भी अनन्त है। पुनः मिथ्यादृष्टि जीवों में केवल निगोद में ही अनन्त जीव है और वे सभी मिथ्यादृष्टि हैं। अतः मिथ्यादृष्टि जीवों की संख्या अनन्त कही गई है। उसके पश्चात् सास्वादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरतसम्यग्दृष्टि- इन चार गुणस्थानवी जीवों की संख्या क्षेत्र पल्योपम के असंख्यातवें भाग के समान बताई गई हैं। क्षेत्र पल्योपम के असंख्यातवें भाग में जितने प्रदेश होते हैं, उतनी इन चार गुणस्थानवी जीवों की संख्या समझनी चाहिए। सामान्य रूप से इन चार गुणस्थानवी जीवों की संख्या तो असंख्यात कही जाती हैं। इस असंख्यात का अर्थ समझाने के लिए जहाँ क्षेत्र पल्योपम के असंख्यातवें भाग के आकाश प्रदेशों से इसकी तुलना बताई गई है, वहीं अप्रमत्तसंयत से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक के गुणस्थानों में जीवों की संख्या संख्यात या परिमित कही गई है। यहाँ पर ज्ञातव्य है कि असंख्यात और संख्यात दोनों ही परिमित होते हैं, फिर भी असंख्यात ऐसा परिमित है, जिसकी गणना किसी भी स्थिति में सम्भव नहीं हैं, जबकि संख्यात ऐसा परिमित है, जिसकी गणना सम्भव होती है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक अधिकतम संख्या सहस्त्र-कोटि पृथकत्व अर्थात् दो हजार करोड़ से नौ हजार करोड़ मानी गई है। इसका स्पष्टीकरण पंच संग्रह के ही द्वितीय द्वार की बाईसवीं गाथा में किया गया है। पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की गाथा क्रमांक बाईस में पुनः गुणस्थानों की अपेक्षा जीवों की संख्या का विचार करते हुए कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में जीवों की संख्या अनन्त होती है। सास्वादन गुणस्थान, मिश्र गुणस्थान, अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान और देशविरतिसम्यग्दृष्टि गुणस्थान-इन चार गुणस्थानों में जीवों की संख्या असंख्यात होती है, किन्तु प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर आगे के सभी गुणस्थानों की संख्या सहस्त्र कोटि पृथकत्व अर्थात् अधिकतम नौ हजार करोड़ और न्यूनतम Jain Education Intemational Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ पंचम अध्याय.......{288} दो हजार करोड़ होती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि इस गाथा में पूर्व में, गुणस्थान के सन्दर्भ में, जो जीवों की संख्या बताई गई थी; उसे अति संक्षिप्त करने का प्रयास किया गया है । विभिन्न गुणस्थानों में क्षेत्र स्पर्शना : लोक में व्यापकता की अपेक्षा से चर्चा करते हुए पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की छब्बीसवीं गाथा में कहा गया है कि सास्वादन से लेकर अयोगी केवली गुणस्थान तक के जीव, लोक के असंख्यातवें भाग (परिमाण) क्षेत्र में ही निवास करते हैं, किन्तु मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव सम्पूर्ण लोक में व्याप्त माने गए हैं। इस प्रकार से सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव केवली समुद्घात की अपेक्षा से लोकव्यापी माने जाते हैं। दूसरे शब्दों में, मिथ्यादृष्टि जीव सर्वलोक में व्याप्त होकर रहे हुए हैं। इसी तरह सयोगकेवली भी जब केवली समुद्घात करता है तो उसके भी आत्मप्रदेश सर्वलोक में व्याप्त होते हैं। इस प्रकार मिथ्यात्व और केवली समुद्घात करता हुआ सयोगीकेवली जीव लोकव्यापी होता है, शेष सभी जीव लोक के एक भाग में ही निवास करते हैं । पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की गाथा क्रमांक ३०, ३१, ३२, ३३ में यह प्रश्न उठाया गया है कि किस गुणस्थानवर्ती जीव, लोक के कितने क्षेत्र का स्पर्श करके रहे हुए हैं ? इसका उत्तर देते हुए बताया है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करते हैं, अर्थात् चौदह रज्जु परिमाण लोक का स्पर्श करते हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव बारह रज्जु परिमाण क्षेत्र का स्पर्श करते हैं। इसे अधिक स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि छठी नारकी का कोई जीव अन्त समय में सम्यक्त्व का वमन करते हुए सास्वादन सम्यक्त्व को प्राप्त करके, वहाँ से मृत्यु को प्राप्त कर, तिर्यंच अथवा मनुष्यगति में उत्पन्न होता है। इ अपेक्षा से वह पाँच रज्जु क्षेत्र की स्पर्शना करता है । पुनः कोई तिर्यंच या मनुष्य सास्वादन गुणस्थान को प्राप्त करके लोकांत के निष्कुटों में सनाड़ी के अन्तिम छोर सूक्ष्म वनस्पतिकाय आदि में उत्पन्न होता है। इस अपेक्षा से वह सात रज्जु की स्पर्शना करता है । इन दोनों को मिलाकर सामान्य रूप से यह कहा गया है कि सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव बारह रज्जु क्षेत्र की स्पर्शना करता है । यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव अधोगति में नहीं जाता है, अतः सास्वादन गुणस्थान में जो क्षेत्र स्पर्शना कही गई है, उसे एक जीव की अपेक्षा से नहीं, अपितु अनेक जीवों की अपेक्षा से समझना चाहिए। मिश्र गुणस्थानवर्ती जीव, लोक के आठ रज्जु प्रमाण क्षेत्र का स्पर्श करके रहे हुए हैं। इसमें एक जीव ही आठ रज्जु क्षेत्र का स्पर्श करता है। जब कोई अच्युतदेवलोकवासी मिश्रदृष्टि जीव अपने भवनपति मित्र को स्नेह से अच्युत देवलोक ले जाए, तब उसे छः रज्जु की स्पर्शना होती है। इसी प्रकार जब कोई मिश्रदृष्टि सहस्रार देवलोक का देव अपने मित्र नारकी की वेदना शान्त करने हेतु अर्थात् वेदना बढ़ाने हेतु तीसरी नरक में जाता है, तब दो रज्जु की स्पर्शना होती है, तो इसप्रकार मिश्रगुणस्थानवर्ती जीव आठ रज्जु क्षेत्र का स्पर्श कर सकते हैं। पंचसंग्रहकार ने अविरतसम्यग्दृष्टि जीव उसी अवस्था में मृत्यु प्राप्त करने वाले होने पर भी, उनकी क्षेत्र स्पर्शना मिश्रगुणस्थानवर्ती जीवों की तरह उसी भव की अपेक्षा से की है। अगर ऐसा न हो, तो अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव को नौ रज्जुक्षेत्र की स्पर्शना सम्भव मानी जा सकती है। कोई जीव अनुत्तर विमान में से च्युत होकर मनुष्य में उत्पन्न हो, तो सात रज्जु की स्पर्शना होती है तथा सहस्रार आदि कोई सम्यग्दृष्टि देव नारकी जीव की वेदना को बढ़ाने या शांत करने तीसरी नरक में जाता है, तो मनुष्य लोक या तिर्यक् लोक के पश्चात् पहली और दूसरी नारक का एक-एक, ऐसे दो रज्जुक्षेत्र की स्पर्शना करता है । इसतरह नौ रज्जु क्षेत्र की स्पर्शना करता है। देशविरति गुणस्थानवर्ती जीव बारहवें देवलोक में उत्पन्न हो सकता है। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव तथा उपशमश्रेणी से आरोहण करनेवाले अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय और उपशान्तमोह गुणस्थानवर्ती जीव सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हो सकते हैं। इसी अपेक्षा से तिर्यक् लोक से प्रारम्भ करके सर्वार्थसिद्ध विमान तक वे सात रज्जु क्षेत्र की स्पर्शना करते हैं । क्षपक अर्थात् क्षपक श्रेणी आरोहण करने वाले अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादर, सूक्ष्मसंपराय, क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती जीव मृत्यु को प्राप्त नहीं करते हैं तथा मरण समुद्घात भी नहीं करते हैं, इसीलिए उन्हें लोक के असंख्यातवें भाग की क्षेत्र स्पर्शना मानी गई है । सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव जब केवली समुद्घात करते हैं, तब सम्पूर्ण चौदह रज्जु लोक की स्पर्शना करते हैं, अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{289) जीव भी लोक के असंख्यातवें भाग का स्पर्श करते हैं । यद्यपि ये सिद्धशिला तक जाते हैं, किन्तु अयोगीकेवली गुणस्थान तो देहत्याग के साथ ही समाप्त हो जाता है । क्षेत्र स्पर्शना में जीवों के स्थानान्तरण की गति : जीवों की गति दो प्रकार की मानी गई है । एक कुंदुंक गति और दूसरी इलिका गति । कुंदुक गति में आत्मा आत्मप्रदेशों का पिण्ड बनाकर उत्क्षेप से अन्य योनि में उत्पन्न होती है, किन्तु इलिका गति में पूर्व स्थान का त्याग किए बिना, आत्मप्रदेशों को उस स्थान तक ले जाकर, फिर वहाँ शरीर रचना कर आत्मप्रदेशों को समेट देती है। यहाँ जो क्षेत्र स्पर्शना की बात कही गई है, वह इलिका गति के आधार पर ही समझना चाहिए । जैसे इलिका अपने पूर्वस्थान को छोड़े बिना अपने अग्रभाग से अगले स्थान को ग्रहण करती है और पीछे के भाग को समेट लेती है, उसीप्रकार आत्मा भी अपने पूर्व शरीर से सम्बन्ध रखती हुई, नए शरीर को ग्रहण करके, वहाँ से आत्मप्रदेशों को समेट लेती है। इसी अपेक्षा से अप्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानों में क्षेत्र की स्पर्शना की योजना करनी चाहिए। यदि हम कुंदुंक गति मानेंगे, तो क्षेत्र स्पर्शना घटित नहीं होगी। पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की तीसवीं गाथा से लेकर तेंतीसवीं गाथा तक, जो विभिन्न गुणस्थानों में स्पर्शना क्षेत्र का विचार किया गया है, वह सब इलिका गति के आधार पर ही किया गया है। विभिन्न गुणस्थानों की काल स्थिति : पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की छत्तीसवीं गाथा में गुणस्थानों की कालावधि का चित्रण हुआ है। सर्वप्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान की कालावधि का चित्रण करते हुए कहा गया है कि मिथ्यात्व गुणस्थान तीन प्रकार का होता है। अनादि-अनन्त, अनादिसांत और सादि-सान्त। अभव्य जीवों की अपेक्षा से विचार करें, तो उनका मिथ्यात्व गुणस्थान अनादि और अनन्त कहा गया है। मात्र यही नहीं, जो भव्य जीव सम्यक्त्व प्राप्त नहीं कर सकेंगे, उनका भी मिथ्यात्व गुणस्थान अनादि अनन्तकालीन होता है। जिन जीवों ने एक बार सम्यक्त्व का स्पर्श करके उसका वमन किया है, उन जीवों की अपेक्षा से उनका मिथ्यात्व गुणस्थान अनादि और सान्त कहा गया है। जो जीव सम्यक्त्व को एक बार प्राप्त करके पुनः उसका वमन कर मिथ्यात्व अवस्था में चले जाते हैं, किन्तु कालान्तर में पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त करते हैं, उनकी अपेक्षा से मिथ्यात्व की कालावधि सादि और सान्त होती है। सादि और सान्त कालावधि में सर्वाधिक अर्थात् उत्कृष्ट दृष्टि से विचार करे तो कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन काल तक वे मिथ्यात्व में रहते हैं। न्यूनतम या जघन्य अपेक्षा से सादि और सान्त मिथ्यात्व गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त भी हो सकता है। सास्वादन गुणस्थान का काल छः आवलि और मिश्र गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त माना गया है। पुनः अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का काल अन्तर्मुहूर्त से लेकर कुछ अधिक तेंतीस सागरोपम हो सकता है । वेदक सम्यक्त्व का काल कुछ अधिक तेंतीस सागरोपम इस अपेक्षा से कहा गया है कि प्रथम संघयण के धारक कोई भव्य आत्मा सम्यक प्रकार से चारित्र का परिपालन करके अनुत्तर विमान में उत्पन्न हो और वहाँ से कालधर्म को प्राप्त करके पुनः मनुष्य गति में जन्म लेता है, किन्तु जब तक वह चारित्र का ग्रहण नहीं करता है, तब तक वह अविरतसम्यग्दृष्टि में रहता है। इस अपेक्षा से यह कहा गया है कि वेदक सम्यक्त्व का काल तेंतीस सागरोपम से कुछ अधिक होता है । अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का न्यूनतम काल अन्तर्मुहूर्त भी हो सकता है । यद्यपि यहाँ गाथा में देशविरति के काल की कोई चर्चा नहीं की गई है, परन्तु टीका में बताया गया है कि देशविरति गुणस्थान का न्यूनतम काल अन्तर्मुहूर्त, अधिकतम काल कुछ कम पूर्वकोटि पर्यन्त माना जाता है। प्रमत्तसंयत गुणस्थान और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान का काल एक समय से प्रारम्भ करके अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त माना गया है, क्योंकि मुनिजन प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों के बीच संक्रमण करते रहते हैं, यद्यपि छठे और सातवें गुणस्थान में वर्तन करते हुए कुछ कम, एक पूर्वकोटि वर्ष तक रह सकते हैं। अपूर्वकरण गुणस्थान से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान का काल जघन्य एक समय और अधिकतम अन्तर्मुहूर्त माना गया है। क्षीणमोह गुणस्थान का काल और अयोगीकेवली गुणस्थान का काल भी अधिकतम अन्तर्मुहूर्त माना गया Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{290} है, किन्तु सयोगीकेवली गुणस्थान का काल उतना ही है, जितना देशविरति सम्यग्दृष्टि का है, अर्थात् कुछ कम, एक पूर्वकोटि वर्ष तक हो सकता है। इसी तरह अयोगीकेवली गुणस्थान का काल टीका में तथा अन्य ग्रन्थों में पाँच हृस्व व्यंजनों या स्वरों के उच्चारण काल के समरूप माना गया है। गुणस्थानों के सन्दर्भ काल का विचार करते हुए पंचसंग्रह में सामान्य रूप से विवेचन उपलब्ध होता है। द्वितीय द्वार की छठी गाथा में कहा गया है कि मिथ्यात्व गुणस्थान, अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, देशविरतिसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, प्रमत्तसंयत गुणस्थान, अप्रमत्तसंयत गुणस्थान अनेक जीवों की अपेक्षा से सर्वकाल में पाए जाते हैं, किन्तु इन गुणस्थानों के अतिरिक्त सास्वादन गुणस्थान, मिश्र गुणस्थान, अपूर्वकरण गुणस्थान, अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान, सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान, उपशान्तमोह गुणस्थान, क्षीणमोह गुणस्थान और अयोगीकेवली गुणस्थान अनेक जीवों की अपेक्षा से सर्वकाल में नहीं होते हैं, अर्थात् कभी होते हैं या कभी नहीं होते हैं। इस चर्चा के प्रसंग में मलधारी हेमचन्द्र ने टीका में यह भी बताया है कि मिथ्यात्व गुणस्थान में पूर्व में उत्पन्न जीव तो निरन्तर रहते ही हैं, किन्तु साथ ही साथ इस गुणस्थान में निरंतर जीवों की उत्पत्ति होती रहती है। अन्य अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरतिसम्यग्दृष्टि, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का अस्तित्व तो सर्वकाल में होता है, किन्तु सर्वकाल में इन गुणस्थानों में जीवों का आगमन नहीं होता है, क्योंकि इनमें विरहकाल की संभावना होती है। जहाँ तक सर्वकाल में नहीं होनेवाले आठ गुणस्थानों का प्रश्न है, इनमें अनेक विकल्प सम्भव होते हैं। इस पर पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की गाथा संख्या सात और उसकी टीका में विस्तार से चर्चा की गई है। गुणस्थानों में एक जीव और अनेक जीवों की अपेक्षा काल विचारणा : पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की गाथा क्रमांक ४१, ४२, ४३, ४४, ४५, ५२ तथा ५३-इन सात गाथाओं में एक जीव आश्रयी और अनेक जीव आश्रयी, प्रत्येक गुणस्थान के काल का विवेचन किया गया है । अनेक जीवों की अपेक्षा मिथ्यात्व गुणस्थान का काल अनन्त है। मिथ्यात्व गुणस्थानवी जीवों की जन्म-मरण की धारा सतत् रूप से चलती रहती है, अतः अनेक जीवों की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण अनन्त काल माना गया है। एक जीव की अपेक्षा सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का काल जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से छः आवलिका होता है, किन्तु यदि अनेक जीवों की अपेक्षा से विचार करें, तो इनका काल पल्योपम का असंख्यात भाग अर्थात् असंख्यात उत्सर्पिणी -अवसर्पिणी बताया गया है। इसके पश्चात् अवश्य ही विरहकाल आता है। मिश्रगुणस्थान का एक जीव आश्रित काल जघन्य और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त है। यदि अनेक जीवों की अपेक्षा से विचार करें तो पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग माना गया है। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का एक जीव आश्रयी काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से कुछ अधिक, तेंतीस सागरोपम होता है। देशविरति नामक पंचम गुणस्थान का काल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से कुछ कम, पूर्वकोटि वर्ष पर्यन्त होता है। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान का काल एक जीव की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त होता है। उपशमक और उपशान्त अर्थात् उपशमश्रेणी वाले से अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय और उपशान्तमोह- इन चार गुणस्थानों का काल एक जीव की अपेक्षा से जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त ही माना गया है, किन्तु अनेक जीवों की अपेक्षा से भी इसका काल अन्तर्मुहूर्त ही माना गया है, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् इन गुणस्थानों को प्राप्त करने वालों में अन्तरकाल या विरहकाल अवश्य होता है। क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवाले जीवों की अपेक्षा अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय और क्षीणमोह गुणस्थानों का काल जघन्य और उत्कृष्ट दोनों से अन्तर्मुहूर्त माना गया है । अनेक जीवों की अपेक्षा से सात समय अधिक अन्तर्मुहुर्त कहा गया है । यहाँ यह जानना आवश्यक है कि उपशमश्रेणी अथवा क्षपकश्रेणी से इन गुणस्थानों को प्राप्त करनेवाले जीवों को निरंतरता 3 । अधिक नहीं होती है, तत्पश्चात् अवश्य ही अन्तर या विरहकाल आता है। सयोगीकेवली गुणस्थान का काल जघन्य से अन्तकृत केवली की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से देशोन पूर्वकोटि पर्यन्त होता है । अयोगीकेवली गुणस्थान का काल पांच हृस्वाक्षर के उच्चारण काल के समरूप होता है। Jain Education Intemational Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{291} गुणस्थानों में अन्तरकाल : पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की बासठवीं और तिरसठवीं गाथाओं में गुणस्थानों में अन्तरकाल का विवेचन किया है। मिथ्यादृष्टि जीवों में उत्पत्ति सदैव बनी रहती है, अतः मिथ्यात्व गुणस्थान में कोई विरहकाल या अन्तरकाल नहीं होता है। सास्वादन और मिश्र गुणस्थान में अन्तरकाल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग माना गया है। अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरतसम्यग्दृष्टि और प्रमत्तसंयत- इन तीन गुणस्थानों का अन्तरकाल क्रमशः सात दिन, चौदह दिन और पन्द्रह दिन माना गया है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि सत्ता की अपेक्षा से तो उपर्युक्त चौथा, पाँचवाँ और छठा- ये तीन गुणस्थान सदैव ही होते हैं, अतः यहाँ इनका अन्तरकाल या विरहकाल केवल उनकी प्राप्ति की अपेक्षा से बताया गया है, सत्ता की अपेक्षा से नहीं। अप्रमत्तसंयत गुणस्थान सदैव होता है। इसमें अन्तरकाल नहीं होता है। उपशमश्रेणी से आरोहण करनेवाले अनेक जीवों की अपेक्षा अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय और उपशान्तमोह- इन चार गुणस्थानों का अन्तरकाल वर्ष पृथकत्व है। क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवाले अनेक जीवों की अपेक्षा अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय और क्षीणमोह- इन चार गुणस्थानों में अन्तरकाल नहीं माना गया है। अयोगीकेवली गुणस्थान का अन्तरकाल छः मास माना गया है, परन्तु यह स्मरण रखना चाहिए कि मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरति, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और सयोगीकेवली-इन गुणस्थानों में जीवों की सत्ता हमेशा रहती है, इसीलिए इनमें सत्ता की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं होता है। विभिन्न गुणस्थानों में भाव : पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की चौंसठवीं गाथा में जीवों के भावों का विवेचन किया गया है। मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती, सास्वादन गुणस्थानवर्ती एवं मिश्रगुणस्थानवी जीवों में औदयिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक- ये तीन भाव होते हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरति सम्यग्दृष्टि एवं प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत- इन चार गुणस्थानों में तीन या चार भाव होते हैं। यदि तीन भाव हों, तो औदयिक-क्षायोपशमिक और पारिणामिक भाव होते हैं। यदि चार भाव हों, तो क्षायिक और औपशमिक दोनों में से कोई एक भाव होता है, दोनों भाव एकसाथ नहीं होते हैं । अतः जहाँ चार भावों की विवक्षा की गई है, वहाँ क्षायिक या औपशमिक भाव में से एक भाव होता है। ये चार भाव क्षायिक या औपशमिक सम्यग्दर्शन की अपेक्षा ग्रहण करना चाहिए। उपशमक में अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय और उपशान्तमोह- इन चार गुणस्थानों में औपशमिक भाव होता है, तथा क्षपक में अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय और क्षीणमोह इन चार गुणस्थानों में क्षायिक भाव होता है। औपशमिक अथवा क्षायिक भाव तो केवल अपूर्वकरण से लेकर उपशान्तमोह और क्षीणमोह गुणस्थान तक होते हैं। सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों में और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में औदयिक, पारिणामिक और क्षायिक भाव होते हैं। सिद्ध के जीवों में क्षायिक और पारिणामिक भाव होते हैं। विभिन्न गुणस्थानवी जीवों का अल्प बहुत्व : पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की गाथा क्रमांक ८० और ११ में गुणस्थानों में अल्प-बहुत्व का विवेचन किया गया है। उपशमश्रेणी से मोहनीय कर्म का उपशम करनेवाले आठवें, नवें, दसवें और ग्यारहवें- इन चार गुणस्थानवी जीव क्रमशः उत्तरोत्तर एक दूसरे से संख्यातगुणा अधिक होते हैं। उनकी अपेक्षा क्षपकश्रेणी से आरोहण करने वाले आठवें, नवें, दसवें और बारहवें थानवी जीव उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा अधिक होते हैं। इसप्रकार क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवालों की अपेक्षा क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवाले जीवों की संख्या अधिक होती है, फिर भी इसे सामान्य कथन समझना चाहिए, क्योंकि कभी-कभी दोनों ही श्रेणियों से आरोहण करनेवाले जीव नहीं भी होते हैं, कभी दोनों ही श्रेणियों से आरोहण करनेवाले जीव समान संख्या में होते हैं और कभी उपशमक कम और क्षपक जीव अधिक होते हैं, तो कभी क्षपक कम और उपशमक जीव अधिक Jain Education Interational Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{292} होते हैं, अतः इसमें अल्प-बहत्व को लेकर अनिश्चितता होती है, फिर भी सामान्यतया सम्पूर्ण काल की पर उपशमक और उपशान्त जीवों की अपेक्षा क्षपक और क्षीणमोह जीवों की संख्या अधिक ही होती है, क्योंकि श्रेणी के सम्पूर्ण काल की अपेक्षा जहाँ उपशमक और उपशान्त जीव एक, दो, तीन आदि नियत संख्या में होते हैं, वहाँ क्षपक और क्षीणमोह गुणस्थानवी जीव की उत्कृष्ट संख्या शत पृथक्त्व मानी गई है। क्षपक जीवों की अपेक्षा सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों की संख्या संख्यातगुणा अधिक होती है, क्योंकि जहाँ क्षपक जीवों की संख्या शत पृथक्त्व मानी गई है, वहीं सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या कोटिपृथक्त्व अर्थात् दो से नौ करोड़ तक होती है। उनकी अपेक्षा अप्रमत्त मुनियों की संख्या संख्यातगुणा अधिक होती है, क्योंकि उनकी संख्या दो हजार करोड़ से नौ हजार करोड़ तक हो सकती है। पुनः अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों की अपेक्षा प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों की संख्या संख्यातगुणा अधिक कही गई है, क्योंकि ये जीव दो हजार से लेकर नौ हजार करोड़ हो सकते हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों की अपेक्षा देशविरति गुणस्थानवी जीवों की संख्या असंख्यातगुणा अधिक होती है, क्योंकि देशविरति गुणस्थान न केवल मनुष्यों में अपितु तिर्यंच-पंचेन्द्रियों में भी पाया जाता है। देशविरति गुणस्थानवर्ती जीवों की अपेक्षा सास्वादन गुणस्थानवी जीवों की संख्या असंख्यातगुणा अधिक होती है, किन्तु स्मरण रखना चाहिए कि इस गुणस्थान का यह अल्प-बहुत्व सर्वकाल की अपेक्षा से ही है, क्योंकि कभी-कभी सास्वादन गुणस्थानवी जीवों की संख्या जघन्य से एक या दो भी हो सकती है और कभी-कभी नहीं भी होती है। इनकी अपेक्षा मिश्र गुणस्थानवी जीवों की संख्या असंख्यातगुणा अधिक होती है, किन्तु स्मरण रहे मिश्र गुणस्थान में जब जीवों की उत्कृष्ट संख्या होती है, तभी यह अल्प-बहुत्व घटित होता है। मिश्र गुणस्थानवी जीवों की अपेक्षा अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों की संख्या तीन गतियों अर्थात् मनुष्य, देव, नारक की अपेक्षा असंख्यातगुणा अधिक होती है, किन्तु तिर्यंच जीवों की अपेक्षा से अनन्तगुणा अधिक होती है, क्योंकि तिर्यच जीव अनन्त हैं। मिश्र गुणस्थान में वे ही जीव होते हैं जो अविरतसम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान से पतित होते हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों की अपेक्षा नारक, देव और मनुष्य गति में रहे हुए मिथ्यादृष्टि जीवों की संख्या उत्कृष्ट स्थिति में असंख्यगुणा अधिक होती है, किन्तु तिथंच गति में सम्यग्दृष्टि जीवों की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीवों की संख्या अनन्तगुणा अधिक होती है, क्योंकि निगोद के जीव नियम से मिथ्यात्वी ही होते हैं, उनकी संख्या अनन्तानन्त है। जहाँ तक गर्भज मनुष्यों का प्रश्न है कि अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी मनुष्यों की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी मनुष्यों की संख्या संख्यात गुणा अधिक होती है, क्योंकि गर्भज मनुष्यों की संख्या संख्यात ही है। भवस्थ अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों की संख्या क्षपक श्रेणी से आरोहण करनेवाले आठवें, नवें, दसवें और बारहवें गुणस्थानवी जीवों के समतुल्य ही होती है, क्योंकि उनकी संख्या उत्कृष्ट रूप से शत पृथक्त्व अर्थात् दो सौ से नौ सौ तक मानी गई है। अभवस्थ अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों की संख्या सर्वकाल की अपेक्षा अनन्तगुणा है, क्योंकि सिद्ध अनन्त हैं। इस अल्प-बहुत्व की चर्चा के पश्चात् पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की गाथा क्रमांक-८३ में चौदह गुणस्थानों के नाम का भी स्पष्ट रूप से उल्लेख हुआ है। अनुभाग और रस की अपेक्षा कर्मबन्ध की चर्चा में गुणस्थान :___ पंचसंग्रह के तृतीय द्वार की पचासवीं गाथा में अनुभाग या रस की अपेक्षा से कर्मबन्ध की चर्चा करते हुए गुणस्थानों का निर्देश हुआ है। इसमें कहा गया है कि सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवी जीव केवल ज्ञानावरण और केवल दर्शनावरण का बन्ध क्यों नहीं करता? इसका कारण यह है कि केवल ज्ञानावरण और केवल दर्शनावरण, दोनों ही, घाती कर्म होने से अशुभ (पाप) प्रकृति माने गए हैं, और क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवाली सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती आत्मा अति विशुद्ध परिणाम वाली होती है, अतः वह केवल ज्ञानावरण और केवल दर्शनावरण अर्थात् केवली द्विक का बन्ध नहीं करती है । इसी प्रकार अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती जीव हास्य रति भय और जुगुप्सा, इन चार कर्मप्रकृतियों का रसबन्ध नहीं करता है, क्योंकि ये चारों ही अशुभ (पाप) प्रकृतियाँ हैं और शुभ अध्यवसाय वाला जीव अशुभ कर्म-प्रकृति का बन्ध नहीं कर सकता है। जहाँ तक सुभग आदि एक स्थानक रस Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुणस्थान की अवधारणा........ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में पंचम अध्याय .......{293} अर्थात् मन्द कषायवाली पुण्य - प्रकृतियों का प्रश्न है, संक्लिष्ट परिणाम वाला मिथ्यादृष्टि जीव इनको नहीं बांध सकता है, क्योंकि संक्लिष्ट परिणामों में दो-तीन या चार स्थानक रस का ही बन्ध कहा गया है। जैन दर्शन में कषायों की चार स्थितियाँ मानी गई हैं - (१) मंद कषाय (२) तीव्रकषाय (३) तीव्रतर कषाय ( ४ ) तीव्रतम कषाय । अपेक्षा भेद से इन्हें क्रमशः संज्वलन, प्रत्याख्यानीय, अप्रत्याख्यानीय और अनन्तानुबन्धी कहा गया है। कर्मबन्ध की प्रक्रिया में कषाय का सम्बन्ध अनुभाग या रस से होता है । कषायों के आधार पर ही कर्मों के रस और स्थिति का बन्ध होता है, अतः कषायों की इन चार अवस्थाओं के आधार पर ही रस या अनुभाग बन्ध की चार अवस्थाएं मानी गई हैं, जो क्रमशः एक स्थानीय, दो स्थानीय, तीन स्थानीय और चार स्थानीय है। संज्वलन (मन्द) कषाय की स्थिति में एक स्थानीय रस या अनुभाग बन्ध होता है। प्रत्याख्यानीय (तीव्र) कषाय की स्थिति में द्विस्थानीय रस या अनुभाग बन्ध होता है। अप्रत्याख्यानीय (तीव्रतर ) कषाय की स्थिति में तीन स्थानीय रस या अनुभाग बन्ध होता है। अनन्तानुबन्धी (तीव्रतम) कषाय की स्थिति में चार स्थानीय रस या अनुभाग बन्ध होता है। चूंकि मिध्यादृष्टि जीव संक्लिष्ट परिणामवाला अर्थात् अनन्तानुबन्धी कषाय के उदयवाला होता है, अतः उसके द्वारा सुभग आदि पुण्य प्रकृतियों का बन्ध सम्भव नहीं है । सुभग आदि पुण्य - प्रकृतियाँ केवल एक स्थानीय रस या अनुभाग बन्धवाली होती हैं, जबकि पाप-प्रकृतियाँ, जो संख्या में सत्रह होती है, वे दो-तीन या चार स्थानीय रस में ही बन्धती हैं। इस विषय को और अधिक स्पष्ट करते हुए पंचसंग्रह के तृतीय द्वार की गाथा क्रमांक ५१-५२ और ५३ में कहा गया है कि संज्वलन कषाय, जो जल में खींची गई रेखा के समान होती है, उसमें ही केवलद्विक अर्थात् केवल ज्ञानावरण और केवल दर्शनावरण का बन्ध सम्भव नहीं होता है, क्योंकि केवल ज्ञानावरण और केवल दर्शनावरण घातीकर्म की प्रकृति होने से एक स्थानीय रस बन्ध वाली संज्वलन कषाय की स्थिति में उनका बन्ध नहीं होता है। घातीकर्मों की कर्मप्रकृतियाँ दो-तीन और चार स्थानीय रसवाली होती हैं। चूंकि केवल ज्ञानावरणीय और केवल दर्शनावरणीय कर्म-प्रकृतियाँ एक स्थानीय रसबन्ध वाली नहीं है, अतः अपूर्वकरण आदि गुणस्थानों में इनका बन्ध सम्भव नहीं है । अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसंपराय - इन तीन गुणस्थानों में संज्वलन कषाय की ही सत्ता है । संज्वलन कषाय के उदय की स्थिति में मात्र एक स्थानीय रसबन्ध ही हो सकता है, अतः इस गुणस्थान में संक्लिष्ट परिणाम वाली पाप प्रकृतियों का बन्ध सम्भव नहीं होता है। यहाँ यह प्रश्न भी उत्पन्न होता है कि उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध उत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणामों के आधार पर ही होता है, अतः शुभ कर्मप्रकृतियों का भी उत्कृष्ट स्थितिबन्ध उत्कृष्ट संक्लिष्ट परिणामों पर निर्भर होगा। स्थितिबन्ध योग्य अध्यवसायों से रसबन्ध योग्य अध्यवसाय असंख्यातगुणा अधिक होते हैं, अतः उत्कृष्ट स्थितिवाली पुण्यप्रकृतियों के बन्ध के सम्बन्ध में यह समझना चाहिए कि उनके स्थितिबन्ध योग्य कर्म - स्पर्धकों की अपेक्षा रसबन्ध योग्य कर्मस्पर्धक असंख्यातगुणा अधिक होंगे। अतः उत्कृष्ट स्थितिवाली पुण्य प्रकृतियों का रसबन्ध या अनुभाग बन्ध भी द्वि-स्थानीय ही होता है । विभिन्न गुणस्थानों में बन्धहेतु : पंचसंग्रह के तृतीय द्वार में गुणस्थानों में रस की तीव्रता के अतिरिक्त और कोई चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। पंचसंग्रह के बन्धहेतु नामक चतुर्थ द्वार में पुनः गुणस्थानों की विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है । इस द्वार में बन्ध हेतुओं की सामान्य चर्चा के पश्चात् चतुर्थ गाथा से गुणस्थानों में बन्धहेतु सम्बन्धी विचार उपलब्ध होते हैं। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि पंचसंग्रह में मुख्य रूप से चार ही बन्धहेतुओं का उल्लेख है। ये चार बन्धहेतु हैं - मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग । इस विवेचन में प्रमाद को स्वतन्त्र रूप बन्ध का हेतु नहीं माना गया है, जबकि तत्त्वार्थसूत्र में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग- ये पाँच बन्धहेतु माने गए हैं। असम्भवतः प्रमाद को कषाय के अन्तर्गत मानकर ही चार बन्धहेतुओं की चर्चा हुई है। दिगम्बर परम्परा में आचार्य कुंदकुंद ने भी अपने समयसार (गाथा - १७१) ग्रन्थ में चार बन्धहेतुओं की चर्चा की है। चार और पाँच बन्धहेतुओं की चर्चा में कौन प्राचीन है ? सामान्यतया यह निर्णय करना पड़ेगा कि गुणस्थान सिद्धान्त की अपेक्षा से विचार करने पर पंचसंग्रह परवर्ती है, क्योंकि इसमें गुणस्थान की विस्तृत चर्चा है । तत्त्वार्थसूत्र इसका पूर्ववर्ती है, क्योंकि इसमें गुणस्थान सिद्धान्त की कोई चर्चा ही नहीं है। इस सम्बन्ध में गम्भीर विचारणा अपेक्षित है, किन्तु हम यहाँ मात्र दोनों परम्पराओं का उल्लेख करके पंचसंग्रह Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{294} के आधार पर ही विवेचना करेंगे, क्योंकि हम अपने शोध प्रबन्ध में ग्रन्थों के कालक्रम के आधार पर ही गुणस्थान सिद्धान्त की विकास यात्रा का विवेचन कर रहे हैं। पंचसंग्रह के चतुर्थ द्वार की चतुर्थ गाथा में किस गुणस्थान में कितने बन्धहेतु होते हैं, इसकी सामान्य चर्चा की गई है। मिथ्यात्व गुणस्थान में मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग-ये चारों ही बन्धहेतु रहते हैं, जबकि सास्वादन, मिश्र और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानों में अविरति, कषाय और योग-ये तीन ही बन्धहेतु होते हैं, क्योंकि इन गुणस्थानों में मिथ्यात्व के उदय का अभाव होता है । देशविरत सम्यग्दृष्टि में भी अविरति का अंश बाकी रहने के कारण तीन ही बन्धहेतु माने जाते हैं, किन्तु प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसंपराय-इन पाँच गुणस्थानों में कषाय और योग-ये दो बन्धहेतु होते हैं। उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगीकेवली इन तीन गुणस्थानों में कषाय का भी अनुदय अथवा क्षय हो जाने से मात्र योग नामक एक ही बन्धहेतु होता है । चौदहवें अयोगीकेवली गुणस्थान में कोई भी बन्धहेतु नहीं होता है । विभिन्न गुणस्थानों में उत्तर बन्धहेतु : पंचसंग्रह के चतुर्थद्वार की पाँचवीं गाथा में मिथ्यात्वादि चार बन्धहेतुओं के उत्तरभेद सत्तावन बताए गए हैं। यह स्पष्ट किया गया है कि कौन-से गुणस्थान में बन्धहेतुओं के कितने उत्तर भेद होते हैं ? मिथ्यात्व के पाँच उत्तरभेद हैं - (9) अभिगृहीत मिथ्यात्व (२) अनभिगृहीत मिथ्यात्व (३) आभिनिवेशिक मिथ्यात्व (४) सांशयिक मिथ्यात्व (५) अनाभोग मिथ्यात्व। अविरति रूप दूसरे बन्धहेतु के बारह प्रकार हैं। मन और पाँच बाह्य इन्द्रियों का असंयम, ये छः प्रकार तथा षड्जीवनिकाय के वध के छः प्रकार इस तरह कुल बारह प्रकार हैं । नौ नोकषाय और सोलह कषाय, सभी मिलाकर कषाय बन्धहेतु के पच्चीस भेद होते हैं। मन के चार, वचन के चार तथा काया के सात ऐसे योग के पन्द्रह भेद होते हैं । कुल मिलाकर सत्तावन उत्तर बन्धहेतु होते है। मिथ्यात्व गुणस्थानवी जीवों को आहारक और आहारक मिश्र-ये दो काययोग के बिना पचपन बन्धहेतु होते हैं । यहाँ आहारकद्विक का अभाव है, क्योंकि आहारकद्विक, आहारकलब्धि सम्पन्न चौदह पूर्वधारी सम्यग्दृष्टि षष्ठ गुणस्थानवर्ती मुनिराजों को होते हैं, मिथ्यादृष्टियों को नहीं होते हैं। सास्वादन गुणस्थानवी जीवों को पाँचों प्रकार के मिथ्यात्व का अभाव होने से पचास उत्तरबन्धहेतु होते हैं। मिश्रदृष्टि गुणस्थानवी जीवों को तेंतालीस बन्धहेतु होते हैं। उपर्युक्त पचास में से औदारिक मिश्र, वैक्रियमिश्र, कार्मण काययोग और अनन्तानुबन्धी चतुष्क-इन सात के बिना तेंतालीस बन्धहेतु होते हैं । मिश्रदृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव मृत्यु को प्राप्त नहीं होता है, अर्थात् इस गुणस्थान में मृत्यु नहीं होती है, अतः विग्रहगति और अपर्याप्तावस्था भी नहीं होती हैं । पुनः, अनन्तानुबन्धी का उदय दूसरे गुणस्थान तक ही होता है, अतः तीसरे गुणस्थान में तेंतालीस ही बन्धहेतु होते हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों को उपर्युक्त तेंतालीस सहित औदारिक मिश्र, वैक्रियमिश्र तथा कार्मण काययोग सहित छियालीस बन्धहेतु होते हैं। पाँचवें देशविरति गुणस्थानवी जीवों को उनचालीस बन्धहेतु होते हैं। पाँचवाँ गुणस्थान देश से विरतिवाला है. इसीलिए वहाँ त्रसकाय वध की विरति होती है। पाँचवें गुणस्थान में रहे हुए तिर्यंच और मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होते हैं । परन्तु विरति के पच्चखाण यावत् जीवन मात्र के होने से मृत्यु के बाद यह गुणस्थान नहीं रहता है । विग्रहगति में आते ही अविरति प्राप्त हो जाती है, इसीलिए विग्रहगति और अपर्याप्तावस्था से सम्बन्धित कार्मण और औदारिक मिश्र योग नहीं होते हैं। देव-नारकी सम्बन्धी वैक्रियमिश्र काययोग भी इस गुणस्थान में नहीं होता है। लब्धिधारी मनुष्य और तिर्यच आश्रयी वैक्रियमिश्र काययोग सम्भव होता है। अप्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क देशविरति का घातक होने से इस गुणस्थान में नहीं होता है, अतः अप्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क त्रसकाय वध और दो मिश्र काययोग ये सात कम करने पर छियालीस में से उनचालीस बन्धहेतु होते हैं। प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों को उपर्युक्त उनचालीस तथा आहारकद्विक मिलाने से इकतालीस बन्धहेतु होते हैं, किन्तु सर्वविरति होने से ग्यारह अविरति तथा प्रत्याख्यानीय चतुष्क का उदय न होने से इकतालीस में से पन्द्रह कम करने पर छब्बीस बन्धहेतु होते हैं। अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों को वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र-ये दो योग नहीं होते हैं। उसके बिना चौबीस बन्धहेतु होते हैं। आठवें गुणस्थानवी जीवों को वैक्रिय और आहारक काययोग के बिना बाईस बन्धहेतु होते हैं। Jain Education Intemational Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{295} अपूर्वकरण गुणस्थानों में जो जीव श्रेणी आरोहण करते हैं, वे श्रेणीगत जीव अति विशुद्धिवाले होने से लब्धि प्रत्ययिक शरीर की रचना नहीं करते हैं, अतः उन्हें दो काययोग नहीं होते हैं, बाईस बन्धहेतु होते हैं। अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थानवी जीवों को सोलह बन्धहेतु होते हैं, क्योंकि हास्यषट्क का उदय आठवें तक ही होता है, अतः बाईस में से छः कम करने पर सोलह बन्धहेतु ही नवें गुणस्थानवी जीवों को होते हैं। उपर्युक्त सोलह में से तीन वेद तथा संज्वलन क्रोध, मान, माया-ये तीन कषाय-कुल छः के बिना शेष दस बन्धहेतु सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवी जीवों को होते हैं । ज्ञातव्य है कि तीन वेद और संज्वलन त्रिक का उदय नवें गुणस्थान तक ही होता है। इसीलिए दसवें गुणस्थान में ये छः बन्धहेतु सम्भव नहीं है। संज्वलन लोभ के बिना नौ बन्धहेतु ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवी जीवों को होते हैं। चूंकि ग्यारहवें में लोभ का उपशम हैं और बारहवें में लोभ का क्षय होने से उदय नहीं होता है, अतः शेष नौ ही बन्धहेतु होते हैं। तेरहवें सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों को दो मनोयोग, दो वचनयोग, औदारिकद्विक और कार्मण काययोग- ऐसे कुल सात योग होते हैं। उनके बन्धहेतु सात होते हैं। केवली समुद्घात में दूसरे, छठे और सातवें समय में औदारिक मिश्र और तीसरे, चौथे तथा पाँचवें समय में कार्मण काययोग होते हैं, शेष समय में औदारिक काययोग होता है। वचनयोग उपदेश के समय मनोयोग अनुत्तरविमानवासी आदि देवों तथा अन्य क्षेत्र में रहे हुए मुनि के द्वारा मन से प्रश्न पूछते समय मन से ही उत्तर देते हैं। अयोगीकेवली भगवान में, चारों ही मूल बन्ध हेतु रहित होने से, एक भी उत्तरबन्ध हेतु नहीं होता है। यह उत्तरबन्ध हेतु सर्वजीव आश्रयी अथवा कालभेद से एक जीव आश्रयी कहा गया है। पंचसंग्रह के चतुर्थ द्वार की दसवीं गाथा में बताया है कि अनन्तानुबन्धी के उदय बिना मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव को दस योग होते है। सामान्य तथा मिथ्यादृष्टि को तेरह योग होते हैं, तो यहाँ दस योग क्यों बताया है ? अनन्तानुबन्धी के उदय बिना मिथ्यादृष्टि तथा स्वभाव से मृत्यु को प्राप्त नहीं करता है । मृत्यु न होने के कारण विग्रहगति और अपर्याप्तावस्था सम्भव नहीं होती है । विग्रहगति और अपर्याप्तावस्था में कार्मण, औदारिक मिश्र और वैक्रिय मिश्र-ये तीन काययोग होते हैं । उपर्युक्त दोनों अवस्थाओं के अभाव में औदारिक मिश्र, वैक्रिय मिश्र और कार्मण-ये तीन योग नहीं होते हैं, शेष दस योग अनन्तानुबन्धी के उदय बिना मिथ्यादृष्टि जीव को होते हैं। यहाँ यह प्रश्न होता है कि क्या मिथ्यादृष्टि जीव को अनन्तानुबन्धी के उदय का अभाव भी होता है ? तो इसके उत्तर में कहते हैं कि जिसने अनन्तानुबन्धी की उद्वलना की है, वैसा सम्यग्दृष्टि जब मिथ्यात्वमोह के उदय से पतित होकर मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होता है, तब वहाँ मिथ्यात्व रूप हेतु से अनन्तानुबन्धी बाँधता है; तब एक आवलिका काल तक उसका उदय नहीं होता है, तब मिथ्यादृष्टि को मात्र दस योग ही होते हैं । पंचसंग्रह के चतुर्थ द्वार की ग्यारहवीं गाथा में बताया गया है कि सास्वादन गुणस्थानवर्ती आत्मा को नपुंसक वेद के उदय होने पर वैक्रिय मिश्र काययोग नहीं होता है, क्योंकि यहाँ वैक्रिय मिश्र काययोग को कार्मण काययोग के साथ विवक्षित किया है। नपुंसक वेद का उदय होने पर वैक्रिय काययोग नरक गति में ही होता है, अन्यत्र कहीं पर नहीं होता है। सास्वादन गुणस्थान लेकर कोई भी आत्मा नरकगति में जाती नहीं है, इसीलिए सास्वादन गुणस्थानवर्ती आत्मा को नपुंसक वेद का उदय होने पर वैक्रियमिश्र काययोग नहीं होता है। पंचसंग्रह के चतुर्थद्वार की बारहवीं गाथा में बताया गया है कि अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती आत्मा को स्त्रीवेद का उदय होने पर वैक्रियमिश्र और कार्मण काययोग- ये दो योग नहीं होते हैं, क्योंकि स्त्रीवेदी अविरतसम्यग्दृष्टि कोई भी आत्मा भवान्तर में स्त्री पर्याय में उत्पन्न नहीं होती है। चतुर्थ गुणस्थान सहित जन्म लेने वाली आत्मा पुरुष पर्याय में ही उत्पन्न होती है, स्त्री पर्याय में उत्पन्न नहीं होती है, अतः उसे वैक्रिय मिश्र और कार्मण काययोग नहीं होता है। सप्ततिका चूर्णि में वैक्रियमिश्र काययोगी और कार्मण काययोगी- इन दोनों योगों वाले चौथे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में स्त्रीवेद नहीं होता है; क्योंकि वे स्त्रीवेद में उत्पन्न नहीं होते हैं। दूसरे शब्दों में, इन दोनों योगों से युक्त स्त्रीवेद के उदयवाले जीव को चतुर्थ गुणस्थान नहीं होता है। यह कथन सर्वजीव आश्रयी कहा गया है, अन्यथा कभी स्त्रीवेद में भी उनकी उत्पत्ति होती है। सप्ततिका चूर्णि में ही कहा है कि क्वचित् स्त्रीवेद में भी चतुर्थ गुणस्थान में वैक्रियमिश्र और कार्मण काययोग होते हैं। Jain Education Intemational Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{296} स्त्रीवेद और नपुंसक वेद का उदय होने पर औदारिकमिश्र काययोग नहीं होता है, क्योंकि स्त्रीवेद और नपुंसक वेद के उदयवाले तिर्यंच और मनुष्यों में अविरतसम्यग्दृष्टि आत्मा उत्पन्न नहीं होती है। सर्वजीव आश्रयी यह बात है । क्वचित् किसी में न हो, तो कोई दोष प्राप्त नहीं होता है। स्त्रीवेद के उदयवाले मल्लिस्वामी, ब्राह्मी, सुंदरी आदि चतुर्थ गुणस्थान को लेकर मनुष्यगति में उत्पन्न हुए हैं। उन्हें विग्रहगति में कार्मण और अपर्याप्तावस्था में औदारिकमिश्र काययोग भी होता है। फिर भी सामान्य तथा स्त्रीवेद में वैक्रियमिश्र, औदारिकमिश्र और कार्मण काययोग नहीं होता है और नपुंसक वेद में औदारिकमिश्र काययोग नहीं होता है। __पंचसंग्रह के चतुर्थ द्वार की तेरहवीं गाथा में बताया गया है कि स्त्रीवेद का उदय होने पर प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव को आहारकद्विक और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव को आहारक काययोग नहीं होता है। स्त्रीवेद के उदय होने पर आहारक काययोग और आहारक मिश्र ये दो योग नहीं होते हैं, क्योंकि स्त्रियों को चौदह पूर्व का ज्ञान होना असम्भव है। चौदह पूर्व के ज्ञान बिना किसी को भी आहारक लब्धि नहीं होती है। स्त्रियों को दृष्टिवाद के अध्ययन का निषेध किया है, इसीलिए स्त्रियों को चौदह पर्व का ज्ञान नहीं होता है। शास्त्र में कहा है कि स्त्रियों का स्वभाव तुच्छ हैं, अभिमान बहुलता वाला है, चंचल है. बिना धैर्य का है. यानी पचा नहीं सकती हैं अथवा बद्धि से मंद हैं. इसीलिए अतिशयवाला अध्ययन उस दष्टिवाद के अध्ययन का स्त्रियों को निषेध किया है। वैक्रिय और आहारक लब्धिवाला प्रमत्तसंयत मनि ही लब्धि का प्रयोग करता है, जिस कारण उसे वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र- ये दोनों योग होते है, परंतु वे लब्धि प्रमत्तसंयत विकुर्वणा करके उस-उस शरीर योग्य पर्याप्तियाँ पूर्ण करने के पश्चात अप्रमत्तसंयत गणस्थान में जाते हैं। उस कारण से अप्रमत्तसंयत गणस्थानवर्ती आत्मा को वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्र-ये दो योग नहीं होते हैं। आरंभ काल में और त्यागकाल में मिश्रता होती है। उन दोनों समय में प्रमत्तसंयत गुणस्थान ही होता है।। आहारक लब्धि से युक्त प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती आत्मा विकुर्वणा करके, शरीर योग्य पर्याप्ति पूर्ण करते ही, अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त हो जाती है। अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती आत्मा विकुर्वणा नहीं करती है, अतः वैक्रियमिश्र और आहारकमिश्रये दो योग नहीं होते है। आहारक शरीर की विकुर्वणा के समय और त्याग के समय में मिश्रता होती है, किन्तु उस समय में प्रमत्तसंयत गुणस्थान ही होता है; अप्रमत्तसंयत गुणस्थान नहीं होता है। विभिन्न गुणस्थानों में परिषह : पंचसंग्रह के चतुर्थ द्वार की इक्कीसवीं, बाईसवीं तथा तेईसवीं गाथा में बताया गया है कि कौन-से गुणस्थान में कितने परिषह होते हैं। साथ ही यह भी बताया है कि कौन से कर्म के उदय से कौन-कौन से परिषह होते हैं। ___ पंचसंग्रह के चतुर्थद्वार की इक्कीसवीं गाथा में कहा गया है कि क्षुधा परिषह, पिपासा परिषह, उष्णपरिषह, शीतपरिषह, शय्यापरिषह, रोगपरिषह, वधपरिषह, मलपरिषह, तृणस्पर्श परिषह, चर्यापरिषह और दंशपरिषह-ये ग्यारह परिषह सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती आत्मा में भी सम्भव होते हैं। कर्म के उदय के निमित्त से जब कोई परिषह प्राप्त होता है, तब मुनियों को प्रवचन में कही गई विधि अनुसार समभाव से उन्हें सहन कर उन पर विजय प्राप्त करना चाहिए । ये ग्यारह परिषह सयोगीकेवली गणस्थानवर्ती आत्मा को वेदनीय कर्म का उदय होने पर होते हैं । सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती आत्मा को जो ग्यारह परिषह होते हैं, उनके साथ-साथ ज्ञानावरणीय के उदय से प्रज्ञा एवं अज्ञानपरिषह और अन्तरायकर्म के उदय से अलाभ परिषह-ये चौदह परिषह उपशान्तमोह तथा क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती आत्मा को होते हैं। चूंकि इन दो गुणस्थानवर्ती आत्मा ने सम्पूर्ण मोहनीय कर्म का उपशम या क्षय किया है, किन्तु ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अन्तरायकर्म शेष हैं, अतः तज्जन्य परिषह उन्हें होते हैं। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती आत्मा को संज्वलन लोभ का कृष्टि रूप अनुभव होता है, फिर भी यह अत्यन्त सूक्ष्म लोभ का उदय स्वीकार्य अर्थात् बन्ध करने में असमर्थ है, इसीलिए उन्हें भी वीतराग-छद्मस्थ के समान ही १४ (चौदह) परिषह होते है। मोहनीय कर्म के उदय से होनेवाला एक भी परिषह उन्हें नहीं होता है। निषद्या, याचना, आक्रोश, अरति, स्त्री, नग्नता, सत्कार और दर्शन Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा... पंचम अध्याय........{297} परिषह-ये आठ परिषह मोहनीय कर्म के उदय से होते हैं। भय के उदय से निषद्यापरिषह, मान के उदय से याचना परिषह, क्रोध के उदय से आक्रोश परिषह, अरति के उदय से अरति परिषह, पुरुषवेद के उदय से स्त्री परिषह, जुगुप्सा मोहनीय के उदय से नग्नत्व परिषह, लोभ के उदय से सत्कार-पुरस्कार परिषह और दर्शन मोह के उदय से दर्शन परिषह होते है, अतः प्रथम गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादरसंपराय नामक नवें गुणस्थान तक के सभी रागी जीवों को बाईस ही परिषह सम्भव होते हैं। यद्यपि समकाल में एक जीव को बीस परिषह होते हैं, क्योंकि उष्ण और शीत तथा निषधा और चर्या, ये परस्पर विरुद्ध होने से एक साथ नहीं होते हैं। विभिन्न गुणस्थानों में मूल कर्मप्रकृतियों का बन्ध : पंचसंग्रह के पाँचवें द्वार की दूसरी गाथा में कौन-से गुणस्थानवी जीव कितने कर्म बांधते हैं, इसका विवेचन किया गया है। मिथ्यात्व नामक प्रथम गुणस्थानवी जीव और सास्वादन गुणस्थानवी जीव प्रतिसमय सात या आठ कर्म का बन्ध करता है। जब आयुष्य कर्म का बन्ध करते हैं, तब अन्तर्मुहूर्त तक आठ कर्मों का बन्ध करते हैं। जब आयुष्य कर्म का बन्ध नहीं करते हैं, तब शेष सात कर्मों का बन्ध करते हैं। मिश्र गुणस्थानवी जीव आयुष्य कर्म के बिना सात कर्म का बन्ध करते हैं। मिश्र गुणस्थानवी जीव को स्वभाव से ही आयुष्य कर्म का बन्ध नहीं होता है। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती से अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव प्रतिसमय सात या आठ कर्म का बन्ध करते हैं। चौथे, पाँचवें, छठे और सातवें गुणस्थानवी जीव जब आयु का बन्ध करते हैं, तब अन्तर्मुहूर्त तक आठ कर्मों का बन्ध करते हैं और जब आयुष्य कर्म का बन्ध नहीं करते हैं, तब सात कर्म का बन्ध करते हैं। अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीव और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवी जीव आयुष्य के बिना सात कर्म प्रतिसमय बांधते हैं। आठवें और नवें इन दोनों गुणस्थानवी जीव अति विशुद्ध परिणामी होने से आयुष्य कर्म का बन्ध नहीं करते हैं। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती जीव मोहनीय और आयु के बिना प्रतिसमय छः कर्म का बन्ध करते हैं। इस गुणस्थानवी जीव भी अति विशुद्ध परिणाम वाले होने से आयु का बन्ध ही नहीं करती हैं और बादरकषाय के उदय रूप बन्ध का कारण नहीं होने से, मोहनीय कर्म का भी बन्ध नहीं करती है । उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगीकेवली गणस्थानवर्ती आत्मा योग निमित्तक एक मात्र साता वेदनीय का ही बन्ध करता है। मोह निमित्तक, ज्ञानावरण, दर्शनावरण, नाम, गोत्र, आयुष्य और अन्तराय कर्म का बन्ध नहीं करता है। कषाय का उदय नहीं होने से शेष कोई भी कर्म नहीं बन्धता है। अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव अबन्धक होता विभिन्न गुणस्थानों में उदय और सत्ता : पंचसंग्रह के पंचमद्वार की तृतीय गाथा में कौन से गुणस्थान में कितने कर्मों का उदय और कितने कर्मों की सत्ता होती है, इस बात का विवेचन किया गया है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवी जीवों को- इन आठों कर्मों का उदय और आठों कर्मों की सत्ता होती है, क्योंकि इन सभी गुणस्थानों में मोहनीय कर्म का उदय और सत्ता होती है। उपशान्तमोह गुणस्थानवी जीवों को उदय में सात कर्म होते हैं । मोहनीय कर्म का सर्वथा उपशम हो जाने से उसका उदय नहीं होता है, फिर भी सत्ता में आठों कर्म रहते हैं, मोहनीय कर्म उपशम के कारण सत्ता में तो रहा हुआ है। क्षीणमोह गुणस्थानवी जीवों को सात कर्मों का उदय और सात कर्मों की सत्ता होती है, क्योंकि मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने से वह उदय में या सत्ता में नहीं रहता है। पातीकर्मों का नाश हो जाने से सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों को अघाती चार कर्म ही उदय और सत्ता में होते हैं। पंचसंग्रह के पंचम द्वार की चौथी गाथा में बताया गया है कि संज्ञी पर्याप्त पंचेन्द्रिय के बिना, शेष तेरह भेद वाले सभी जीव प्रतिसमय आठ कर्म बांधते हैं। स्वयं के आयुष्य के दो भाग जाने के बाद तीसरे भाग की शुरुआत में आयुष्य कर्म का बन्ध हो, तब अन्तर्मुहूर्त तक आठ कर्म बांधते हैं, शेष कर्म में प्रतिसमय सात कर्म बांधते हैं। तेरह भेद वाले सभी जीवों को उदय में और Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{298} सत्ता में आठ कर्म होते हैं। पर्याप्त संज्ञी जीवों में सात, आठ, छः और एक ऐसे गुणस्थान के भेद से बन्ध के चार विकल्प हैं। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से प्रारम्भ कर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक सभी संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव आयुष्यकर्म के बन्ध के समय आठ और शेष काल सात कर्म बांधते हैं। मिश्र, अपूर्वकरण, और अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थानवर्ती- सभी आयुष्यकर्म के बिना सात कर्म बांधते हैं। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवी जीव, आयुष्यकर्म और मोहनीय कर्म के बिना छः कर्म बांधते हैं। उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगीकेवली- इन तीन गुणस्थानवी जीव सातावेदनीय कर्म का बन्ध करते हैं। अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव बन्ध हेतु का अभाव होने से कर्म का बन्ध नहीं करते हैं। पंचसंग्रह के पंचम द्वार की गाथा क्रमांक -६६ और १०० में बताया गया है कि अयोगीकेवली गुणस्थान के चरम समय में, जो नामकर्म की नौ प्रकतियाँ उदय में होती हैं, वे इस प्रकार हैं- मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति. त्रसनामकर्म, बादरनामकर्म. पर्याप्तनामकर्म, सुभगनामकर्म, आदेयनामकर्म, यशःकीर्तिनामकर्म और तीर्थकरनामकर्म । इन नौ प्रकृतियों का और उच्चगोत्र का अयोगीकेवली गुणस्थान के कालपर्यन्त मात्र उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है । मनुष्यायु, सातावेदनीय और असातावेदनीय - इन तीन प्रकृतियों का अप्रमत्तसंयतादि गुणस्थानवर्ती आत्माओं को देशोनपूर्वकोटि पर्यन्त मात्र उदय होता है, उदीरणा नहीं होती है । देशोनपूर्वकोटि काल सयोगीकेवली गुणस्थान आश्रयी समझना, क्योंकि शेष सभी गुणस्थानों का काल अन्तर्मुहूर्त है । सातावेदनीय, असातावेदनीय और मनुष्यायु-इन प्रकृतियों की प्रमत्तसंयत गणस्थान के बाद उदीरणा नहीं होती है, क्योंकि इन तीन प्रकृतियों की उदीरणा जीव स्वभाव से संक्लिष्ट अध्यवसाय के कारण होती है। अप्रमत्तसंयतादि गुणस्थानवर्ती आत्माएँ तो विशुद्ध-अतिविशुद्ध अध्यवसायवाली होती हैं । इसीलिए छठे गुणस्थान से आगे के गुणस्थान में इन तीन कर्मप्रकृतियों की उदीरणा नहीं होती है। आत्मा जिस समय में शरीर पर्याप्ति से पर्याप्त होती है, उस समय से प्रारम्भ होकर, तीसरी इन्द्रिय पर्याप्ति जिस समय में पूर्ण हो, उतने कालपर्यन्त पाँच निद्रा का उदय होता है, उदीरणा नहीं होती है। शेष तेईस प्रकृतियों में से पाँच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पाँच अन्तराय- इन चौदह प्रकृतियों की क्षीणकषाय गुणस्थान की अन्तिम आवलिका में मात्र उदय होता है, उदीरणा नहीं होती है, क्योंकि उस समय में सभी प्रकृतियों की अन्तिम एक उदयआवलिका ही शेष है। उदयावलिका के ऊपर दलिक नहीं है तथा उदयावलिका में कोई करण नहीं होता है। इसीप्रकार क्षपकश्रेणी में सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान की अन्तिम आवलिका में संज्वलनलोभ का उदय ही होता है। मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद-इन प्रकृतियों में अन्तरकरण करके प्रथम स्थिति की आवलिका जब शेष रहती है, तब उदय होता है । क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करने में सम्यक्त्वमोहनीय का क्षय करते समय, जब अन्तिम आवलिका शेष रही हो, तब सम्यक्त्वमोहनीय का उदय होता है, उदीरणा नहीं होती है। नरकायु, तिर्यंचायु और देवायु - इन तीनों आयुष्य का अपने-अपने भव की अन्तिम आवलिका में उदय होता है, उदीरणा नहीं होती है, क्योंकि उदयावलिका के अन्तर्गत सभी कर्म उदीरणा के अयोग्य हैं । विभिन्न गुणस्थानों में मूल कर्मप्रकृतियों का उदय एवं उदीरणा : पंचसंग्रह के पंचमद्वार की पाँचवीं गाथा में गुणस्थान में मूल कर्मप्रकृतियों की उदीरणा का विवेचन किया गया है। उदयावलिका के बाहर के कर्मदलिकों को वहाँ से खींचकर उदयावलिका के साथ भोगने योग्य बना लेने को उदीरणा कहते हैं । मिश्र गुणस्थान को छोड़कर मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के गुणस्थानों में आत्मा को सात या आठ कर्म की उदीरणा होती है। स्वयं के आयुष्य की एक आवलिका शेष रहने पर आयु कर्म की उदीरणा नहीं होती है, तब जीव सात कर्म की उदीरणा करता है, अन्यथा आठ कर्म की उदीरणा करता है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती सभी जीवों का सदा ही आठों कर्मों के उदीरक होते हैं, क्योंकि आयुष्य कर्म की एक आवलिका शेष रहने पर मिश्रगुणस्थान नहीं होता है, क्योंकि जब अन्तर्मुहूर्त आयुष्य शेष रहे, तब मिश्र गुणस्थानवी जीव Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{299} तथास्वभाव से वहाँ से गिरकर चौथे या पहले गुणस्थान में चला जाता है, तीसरे गुणस्थान में जीव मृत्यु को प्राप्त नहीं होता है। अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवी जीवों को वेदनीय और आयुष्य कर्म के बिना छः कर्मों की उदीरणा होती है। अप्रमत्त भाव में रहता जीव, वेदनीय और आयुष्यकर्म की उदीरणा नहीं करता है। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में क्षपकश्रेणी से आरोहित आत्मा को, मोहनीय का क्षय करते समय, जब एक आवलिका काल शेष रहे, तब मोहनीय के बिना पाँच कर्म की उदीरणा होती है। उपशमश्रेणी से आरोहित आत्मा को मोह की सत्ता ज्यादा होने से इस गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त छः कर्मों की उदीरणा होती है। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान की चरमावलिका से लेकर क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती आत्मा को मोहनीय, वेदनीय और आयुष्यकर्म को छोड़कर शेष पाँच कर्मों की उदीरणा होती है। क्षीणमोह गुणस्थान की चरमावलिका में जब ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय की स्थिति आवलिका शेष रहे, तब उदीरणा नहीं होती। इसीलिए उन्हें मात्र नामकर्म और गोत्र कर्म की ही उदीरणा होती है। इसप्रकार क्षीणमोह गुणस्थान की चरम आवलिका से सयोगीकेवली गुणस्थान के चरम समय तक नाम और गोत्र-इन दो कर्मों की ही उदीरणा होती है। सूक्ष्म या बादर किसी भी प्रकार का योग नहीं होने से अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती आत्मा किसी भी कर्म की उदीरणा नहीं करते हैं। योग होने पर ही उदीरणा होती है। अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती आत्मा को योग नहीं है, अतः वहाँ उदीरणा भी नहीं है। पंचसंग्रह के पंचमद्वार की छठी गाथा में वेदनीय और आयुष्य कर्म के बिना शेष छः कर्मों की उदीरणा कब होती है, इस बात का विवेचन किया है। वेदनीय और आयुष्य के बिना शेष छः कर्मों का जब तक उदय होता है, तब तक उदीरणा होती है। कोई भी कर्म की सत्ता में एक आवलिका स्थिति शेष रहे, तब उदीरणा नहीं होती है, मात्र उदय ही होता है। वेदनीय और आयुष्य कर्म की उदीरणा प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती है। ज्ञातव्य है कि प्रमत्तसंयत गुणस्थान से आगे वेदनीयकर्म और आयुष्यकर्म की उदीरणा नहीं होती है, यद्यपि उन दोनों कर्मों का देशोनपूर्वकोटि तक मात्र उदय रहता है। यहाँ पर देशोनपूर्वकोटि काल सयोगीकेवली गुणस्थान के काल की अपेक्षा जानना चाहिए, आगे के गुणस्थानों में इनकी उदीरणा नहीं होने का कारण तद्रूप परिणामों का अभाव है। सभी कर्मों की अद्धाआवलिका शेष रहे, तब उनका उदय होने पर भी उनकी उदीरणा नहीं होती है। अद्धाआवलिका का अर्थ इस प्रकार हैं-आवलि अर्थात् पंक्ति या श्रेणी। यहाँ काल की पंक्ति, ऐसा अर्थ लेने हेतु अद्धा शब्द को ग्रहण किया गया है। अद्धाआवलिका, अर्थात् एक आवलिका जितने काल में भोगने योग्य कर्मदलिक जब शेष रहे, वह अद्धाआवलिका है। इस काल में उदय होता है, परन्तु उदीरणा नहीं होती है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अन्तराय, मोहनीय और आयुकर्म का अपनी-अपनी पर्यन्तावलिका में उदय होता है, फिर भी इनकी उदीरणा नहीं होती है, क्योंकि उदीरणा का लक्षण तो यह है कि उदय समय से आरंभ कर एक आवलिका जितने समय में उन्हें भोगा जा सके, ऐसी कर्मदलिकों की निषेक रचना करना। उदय आवलिका के समीप के स्थानों में रहे हुए कर्मदलिकों को कषाययुक्त या कषायरहित योगवाला, अपने वीर्य विशेष से खींचकर, उन्हें उदय आवलिका के कर्मदलिकों के साथ भोगने योग्य बना देता है, उसे उदीरणा कहते है। जब कोई भी कर्म की एक आवलिका सत्ता शेष रहे, तब उस आवलिका के अतिरिक्त कोई भी कर्म स्थिति स्थान नहीं होता है कि जिसमें रहे हुए कर्मदलिक खींचकर भोगने योग्य बनाया जा सके, इसीलिए किसी भी कर्म की सत्ता एक आवलिका मात्र शेष रहने पर उदीरणा नहीं होती है, परंतु उदय होता है। नाम और गोत्रकर्म का अयोगीकेवली गुणस्थान में उदय होता है, परन्तु योग के अभाव के कारण उदीरणा नहीं होती है। नामकर्म, गोत्र और वेदनीयकर्म की चरम आवलिका चौदहवें गुणस्थान में शेष रहती है, परंतु योग के अभाव के कारण वहाँ उनकी उदीरणा नहीं होती है। नाम और गोत्रकर्म की उदीरणा तेरहवें गुणस्थान के चरम समय तक और वेदनीय कर्म की उदीरणा प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती है। आयुष्यकर्म के उदय की चरम आवलिका, उपशमश्रेणी में तीसरे गुणस्थान को छोड़कर, ग्यारहवाँ उपशान्तमोह गुणस्थान तक सम्भव हो सकती है, क्योंकि तीसरे गुणस्थान में रहा हुआ जीव मृत्यु को प्राप्त नहीं करता है, किन्तु उपशान्तमोह Jain Education Intemational Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय ........{300} गुणस्थान में रहे हुए जीव मृत्यु को प्राप्त कर सकते हैं, इस अपेक्षा से यह कहा गया है। क्षपकश्रेणी में चौदहवें गुणस्थान में आयुकर्म की चरम आवलिका शेष रहती है, परंतु उसकी उदीरणा छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक रहती है। इन अवस्थाओं के अतिरिक्त अधिक आयुष्य कर्म सत्ता में हो, तो भी उसकी उदीरणा नहीं होती है, क्योंकि प्रमत्तसंयत गुणस्थान से आगे गुणस्थानों में आयुष्यकर्म की उदीरणा करने योग्य परिणाम एवं पुरुषार्थ नहीं होता है । विभिन्न गुणस्थानों में उत्तर कर्मप्रकृतियों की उदीरणा : पंचसंग्रह की पंचम द्वार की सातवीं गाथा में बताया है कि सातावेदनीय, असातावेदनीय और मनुष्यायु की उदीरणा प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती है। इन तीन कर्मप्रकृतियों के अतिरिक्त सयोगीकेवली गुणस्थान में जिन कर्मप्रकृतियों का उद होता है, उनकी उदीरणा होती है । उदीरणा का सामान्य नियम यह है कि जिन कर्मप्रकृतियों का, जिस गुणस्थान में उदय होता है, उन कर्मप्रकृतियों की उदीरणा चरम आवलिका छोड़कर उनके उदय पर्यन्त होती है। साता-असातावेदनीय और मनुष्यायु की उदीरणा प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती है, क्योंकि इन तीनों प्रकृतियों की उदीरणा में प्रमत्त दशा के परिणाम हेतु हैं, वे परिणाम छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक ही हैं, इसीलिए वहाँ तक ही उदीरणा होती है। आगे प्रमत्तादि गुणस्थानों में नहीं होती हैं। साता - असाता वेदनीय और मनुष्य आयुष्य के अतिरिक्त जिन कर्मप्रकृतियों का अयोगीकेवली गुणस्थान में उदय है, उनकी उदीरणा सयोगीकेवली गुणस्थान तक होती है। उपर्युक्त तीन प्रकृतियों के अतिरिक्त शेष त्रसनामकर्म, बादरनामकर्म, पर्याप्तनामकर्म, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, तीर्थंकरनामकर्म, सौभाग्य आदेयनामकर्म, यशःकीर्तिनामकर्म और उच्चगोत्र- इन दस प्रकृतियों का अयोगीकेवली गुणस्थान में उदय होता है, परंतु उनकी उदीरणा सयोगीकैवली गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त ही होती है। अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती आत्मा योग के अभाव के कारण किसी भी कर्मप्रकृति की उदीरणा नहीं करती है। पूर्वोक्त तेरह प्रकृतियों के बिना, शेष कर्म प्रकृतियों की उदीरणा उन कर्मप्रकृतियों का जिस गुणस्थान तक उदय होता है, उस गुणस्थान तक होती है। मात्र उनकी चरम आवलिका शेष रहने पर उदीरणा नहीं होती है । मिथ्यात्वमोहनीय तथा आतपनामकर्म, सूक्ष्मनामकर्म, साधारणनामकर्म और अपर्याप्तनामकर्म-इन पाँच कर्मप्रकृतियों की उदीरणा मिथ्यादृष्टि गुणस्थान तक होती है, क्योंकि मिथ्यात्वमोहनीय का उदय पहले गुणस्थान तक ही होता है । आतपादि उपर्युक्त कर्मप्रकृतियों के उदयवाले जीवों को पहला ही गुणस्थान होता है। अनन्तानुबन्धी चतुष्क, जातिचतुष्क, स्थावर इन नौ प्रकृतियों की उदीरणा सास्वादन गुणस्थान पर्यन्त होती है, क्योंकि अनन्तानुबन्धी का उदय दूसरे गुणस्थान तक ही हैं और एकेन्द्रियादि कर्म प्रकृतियों के उदयवाले जीवों में करण - अपर्याप्त अवस्था में दूसरा गुणस्थान होता है। करण अपर्याप्त अवस्था के बिना पहला गुणस्थान होता है । मिश्रमोहनीय कर्म का उदय तीसरे गुणस्थान तक होने से उसकी उदीरणा भी तीसरे गुणस्थान तक होती है । अप्रत्याख्यानीय चतुष्क, देवायु, नरकायु, तिर्यंचानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, देवद्विक, नरकद्विक, वैक्रियद्विक, दुर्भगनामकर्म, अनादेयनामकर्म और अपयशकीर्तिनामकर्म- इन सत्रह प्रकृतियों की उदीरणा अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होती है। अप्रत्याख्यान चौथे गुणस्थान तक ही होता है। देवत्रिक, नरकत्रिक और वैक्रियद्विक का उदय देवता और नारकी को पहले चार गुणस्थानों तक ही होता है, इसीलिए इनकी उदीरणा भी प्रथम के चार गुणस्थान तक होती है । तिर्यंचानुपूर्वी और मनुष्यानुपूर्वी का उदय भी तीसरे गुणस्थान को छोड़कर प्रथम, दूसरे और चौथे गुणस्थान तक होता है, अतः इनकी उदीरणा भी इसी का उदय तक है । दौर्भाग्यनामकर्म, अनादेयनामकर्म और अपयशकीर्तिनामकर्म का उदय देशविरति आदि ऊपर के गुणस्थानों में ही होता है, इसीलिए उपर्युक्त सत्रह प्रकृतियों की उदीरणा चौथे गुणस्थान तक होती है । प्रत्याख्यानीयचतुष्क, तिर्यंचगति, तिर्यंचायु, उद्योतनामकर्म और नीचगोत्र इन आठ प्रकृतियों की उदीरणा देशविरति गुणस्थान तक होती है, क्योंकि प्रत्याख्यानीय का उदय पाँचवें गुणस्थान तक होता है, तिर्यंचों को पाँच गुणस्थान होने से तिर्यंचगति और तिर्यंचायु का उदय भी पाँचवें गुणस्थानों तक ही होता है। उद्योतनामकर्म तिर्यंचगति का सहचारी होने से उसका Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा... पंचम अध्याय........{301) उदय भी पाँच गुणस्थान तक ही होता है । साधु जब वैक्रिय या आहारक शरीर करे, तब उद्योत का उदय होता है, परंतु वह मनुष्यगति का सहचारी नहीं है, जिससे अल्पकाल उदय होने से उसकी विवक्षा नहीं की है । नीचगोत्र का उदय भी तिर्यंच आश्रयी पाँच गुणस्थान तक ही है । इसीलिए इन आठों प्रकृतियों की उदीरणा भी पाँच गुणस्थान तक ही होती है । स्त्यानद्धित्रिक और आहारकद्विक-ये पाँच कर्मप्रकृतियों की उदीरणा प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती है। स्त्यानर्द्धि स्थूल प्रमाद रूप होने से अप्रमत्तादि गुणस्थानों में उनका उदय नहीं होता है, प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होता है, अतः इनकी उदीरणा भी वहीं तक होती है। आहारकद्विक का उदय प्रमत्तसंयत गुणस्थान में आहारक शरीर करनेवाले चौदहपूर्वधर को होता है। जो आहारक शरीर रहते हुए उद्योतनामकर्म के अतिरिक्त उनतीस कर्मप्रकृतियों और उद्योतनामकर्म सहित तीस कर्मप्रकृतियों के उदय स्थिति में अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में जाते हैं, और वहाँ आहारकद्विक का उदय सम्भव होता है, परंतु अल्पकालिक होने से उसकी विवक्षा नहीं की है, इसीलिए प्रमत्तसंयत गुणस्थान में ही उनका उदय माना है, इसीलिए पाँच प्रकतियों की उदीरणा प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती है। सातावेदनीय, असातावेदनीय और मनुष्यायु का उदय अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से चौदहवें अयोगीकेवली गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त उदय होता है, परन्तु उसकी उदीरणा नहीं होती है। इसके कारण का पूर्व में निर्देश कर दिया गया सम्यक्त्व मोहनीय, अर्धनाराच, कीलिका और सेवार्त्त संघयण की उदीरणा अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती है, क्योंकि सातवें गुणस्थान से आगे चारित्र मोहनीय के उपशमक या क्षपक जीव ही होते हैं। उन्हें क्षायिक या औपशमिक सम्यक्त्व ही होता है, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व नहीं होता है। सम्यक्त्व मोहनीय का उदय क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी को चौथे से सातवें गुणस्थान तक होता है, इसीलिए उसकी उदीरणा भी चौथे से सातवें गुणस्थान तक ही होती है । अन्तिम तीन संघयण से कोई भी जीव श्रेणी प्रारम्भ नहीं कर सकता, इसीलिए इनका उदय भी सातवें गुणस्थान तक ही होता है और उदीरणा भी सात गुणस्थान तक ही होती है। हास्यषट्क की उदीरणा अपूर्वकरण गुणस्थान तक होती है। चूंकि आगे के गुणस्थान में अत्यन्त विशुद्ध परिणाम होने से इनका उदय नहीं होता है, इसीलिए उदीरणा भी आठ गुणस्थान तक होती है। __वेदत्रिक, संज्वलनक्रोध, मान और माया-इन छः कर्मप्रकृतियों की उदीरणा अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान तक होती है। इसी गुणस्थान में उसका क्षय या उपशम हो जाने से आगे के गुणस्थान में उनकी उदीरणा नहीं होती है । ___ संज्वलन लोभ की उदीरणा सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक होती है । उपशमश्रेणी में चरम समय तक और क्षपकश्रेणी में चरम आवलिका छोड़कर शेष समय में होती है । ऋषभनाराच और नाराच संघयण की उदीरणा उपशान्तमोह गुणस्थान तक होती है। इन दो संघयणवाले जीव उपशमश्रेणी प्रारम्भ कर ग्यारहवें गुणस्थान तक ही जा सकते हैं । दर्शनावरण चतुष्क, ज्ञानावरणीय पांच और अन्तराय पांच - इन चौदह प्रकृतियों की उदय और उदीरणा क्षीणमोह गुणस्थान तक होती है। मात्र चरम आवलिका में उदीरणा नहीं होती है। कर्मस्तव के प्रणेता आचार्य देवेन्द्रसूरि ने तो क्षीणमोह गुणस्थान के द्विचरम समय तक निद्रा और प्रचला का उदय माना है। निद्रा और प्रचला का क्षीणमोह गुणस्थान के द्विचरम समय में उदय विच्छेद होता है, इसीलिए कर्मग्रन्थकार के मत से क्षीणमोह गुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त निद्राद्विक का उदय जानना चाहिए। उदीरणा, चरम आवलिका शेष रहे, तब तक होती है। पंचसंग्रहकार के मत से उपशान्तमोह गुणस्थान के चरम समय तक ही इनका उदय और उदीरणा होती है। औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, संस्थानषट्क, वज्रऋषभनाराच संघयण, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, विहायोगतिद्विक, पराघातनामकर्म, उपघातनामकर्म, अगुरुलघुनामकर्म, उच्छ्वासनामकर्म, प्रत्येकनामकर्म, स्थिरनामकर्म, अस्थिरनामकर्म, शुभनामकर्म, अशुभनामकर्म, सुस्वरनामकर्म, दुःस्वरनामकर्म और निर्माणनामकर्म-इन उनतीस कर्मप्रकृतियों का उदय एवं उदीरणा सयोगीकेवली गुणस्थान के चरम समय तक होती है। अयोगीकेवली गुणस्थान में इनका उदय नहीं होने से Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय.......{302} उदीरणा भी नहीं होती है। योग की निरोध क्रिया होने पर उच्छवास नामकर्मादि की प्रकृतियों और पुद्गल का सम्बन्ध छूट जाता है, अतः कर्मदलिकों की उदीरणा भी नहीं होती है। त्रसनामकर्म, बादरनामकर्म, पर्याप्तनामकर्म, सुभगनामकर्म, आदेयनामकर्म, यशःकीर्तिनामकर्म, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, तीर्थंकरनामकर्म और उच्च गोत्र - इन दस प्रकृतियों की उदीरणा तेरहवें गुणस्थान के चरम समय तक होती है और उदय अयोगीकेवली गुणस्थान के चरम समय तक रहता है, किन्तु योग के अभाव के कारण उदीरणा नहीं होती है। विभिन्न गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों की उदीरणा के विकल्प : पंचसंग्रह के पंचमद्वार की आठवीं गाथा में यह बताया है कि जिन इकतालीस कर्मप्रकृतियों का उदय होने पर भी उदीरणा विकल्प से होती हैं, वे निम्न हैं- ज्ञानावरण पांच, दर्शनावरणीय चतुष्क, अन्तराय पांच सातावेदनीय, असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, सम्यक्त्वमोहनीय, संज्वलन लोभ, त्रसनामकर्म, बादरनामकर्म, पर्याप्तनामकर्म, सुभगनामकर्म, आदेयनामकर्म एवं यशःकीर्तिनामकर्म, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, तीर्थंकरनाम, उच्चगोत्र, चार आयुष्य तथा मिथ्यात्व मोहनीय और पुरुषवेद - इन इकतालीस प्रकृतियों का उदय होने पर भी उदीरणा भजनीय है, अर्थात् कुछ समय अकेला उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है । पाँचों निद्राओं का शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने के पश्चात् से लेकर जब तक इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण न हो, तब तक मात्र उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती हैं । शेष समय में उदय और उदीरणा समकाल में होती है । चारो र्म का अपने-अपने भव की चरम आवलिका शेष रहे, तब तक मात्र उदय होता है, उदीरणा नहीं होती है । ज्ञानावरण पंचक, दर्शनावरण चतुष्क, अन्तराय पंचक के क्षय होने में जब एक आवलिका शेष रहे तब बारहवें गुणस्थान की चरम आवलिका में मात्र उदय होता है, उदीरणा नहीं होती है। क्षपकश्रेणी में सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में संज्वलन लोभ की एक आवलिका शेष रहे, तब उदीरणा नहीं होती है, मात्र उदय होता है । क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करते समय चरम आवलिका शेष रहे, तब सम्यक्त्व मोहनीय की उदीरणा नहीं होती है, मात्र उदय होता है । उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करते समय अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रथम स्थिति की एक आवलिका शेष रहे, तब मिथ्यात्वमोहनीय का मात्र उदय होता है, उदीरणा नहीं होती है । त्रसनामकर्म, बादरनामकर्म, पर्याप्तनामकर्म, सुभगनामकर्म, आदेयनामकर्म, यशःकीर्तिनामकर्म, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, तीर्थकरनाम और उच्चगोत्र-इन दस प्रकृतियों की अयोगीकेवली गुणस्थान में उदय होते हुए भी योग के अभाव के कारण, उदीरणा नहीं होती है। सातावेदनीय-असातावेदनीय की अप्रमत्तसंयत एवं आगे के गुणस्थानों में तथाविध अध्यवसाय के अभाव में उदीरणा नहीं होती है, मात्र उदय होता है। स्त्रीवेद के उदय में क्षपकश्रेणी आरंभ करनेवाले को स्त्रीवेद की, नपुंसकवेद के उदय से आरंभ करनेवाले को नपुंसक वेद की और पुरुषवेद के उदय से श्रेणी आरंभ करनेवाले को पुरुषवेद की अपनी-अपनी प्रथम स्थिति की एक आवलिका शेष रहे, तब उदीरणा नहीं होती है, मात्र उदय होता है । इसीलिए उपर्युक्त इकतालीस प्रकृतियों का उदय होने पर भी उदीरणा भजनीय होती है । शेष इक्यासी कर्मप्रकृतियों का उदय होने पर उदीरणा भजनीय नहीं होती है, अर्थात् शेष इक्यासी कर्मप्रकृतियों का जब तक उदय होता है, तब तक उदीरणा भी होती है, परंतु उदय के अभाव में उदीरणा नहीं होती है। कुछ स्थितियों में उदय और उदीरणा साथ होती है और कुछ स्थितियों में साथ नहीं होती है। बन्ध के तीन प्रकार : - पंचसंग्रह के पाँचवें द्वार की नवी गाथा में बन्ध के प्रकार बताए गए हैं। बन्ध तीन प्रकार के होते हैं - अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त । साम्परायिक कर्म का बन्ध अभव्य जीवों में अनादि-अनन्त है । भूतकाल में सदा बन्ध होने से अनादि और भविष्यकाल में कभी भी बन्ध का नाश नहीं होगा, सदा कर्म बन्ध होगा, इसीलिए अनन्त । भव्य जीवों में अनादि-सान्त । भूतकाल में सदा बन्ध होने से अनादि और भविष्यकाल में मोक्ष जाते समय बन्ध का विच्छेद होगा, इसीलिए सान्त । उपशान्तमोह गुणस्थान से पतित जीवों को सादि-सान्त। उपशान्तमोह गुणस्थान में बन्ध का अभाव होने से और वहाँ से Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{303} पतित होने पर फिर से बन्ध होने से सादि । तात्पर्य यह है कि उपशान्तमोह गुणस्थान में साम्परायिक कर्म का बन्ध नहीं होता है। वहाँ से पतित, दसवें आदि गुणस्थान को प्राप्त होते हैं, तब कर्म बांधते हैं, इसीलिए सादि । भविष्य में ज्यादा से ज्यादा, कुछ कम न्यून अर्धपुद्गल परावर्तकाल में मोक्ष में जाने से बन्ध का क्षय होगा, इसीलिए सान्त। उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशबन्ध : पंचसंग्रह के पंचमद्वार की गाथा क्रमांक-६१ की टीका में उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध और जघन्य प्रदेशबन्ध की चर्चा करते हुए यह बताया है कि मनोलब्धि सम्पन्न अर्थात् संज्ञी जीवों को ही उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है। इसके विपरीत असंज्ञी अर्थात् मनोलब्धि से हीन जीव उनकी अपेक्षा जघन्य प्रदेशबन्ध करते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि प्रदेशबन्ध की स्थिति में भी मनोलब्धि का महत्वपूर्ण स्थान है, किन्तु यह विवेचन सापेक्षित रूप से ही समझना चाहिए, क्योंकि मनोलब्धि से युक्त होने पर ही अप्रमत्तसंयत आदि ऊपर के गुणस्थानों में भी जघन्य प्रदेशबन्ध होता है। किस कर्मप्रकृति का जघन्य प्रदेशबन्ध होगा और किस कर्मप्रकृति का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होगा, यह तथ्य भी उन प्रकृतियों के स्वरूप पर निर्भर होता है। कुछ कर्मप्रकृतियाँ ऐसी भी होती हैं, जिनका उत्कृष्ट बन्ध असंज्ञी दशा में भी हो सकता है। कुछ कर्मप्रकृतियाँ ऐसी भी हो सकती हैं, जिनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध संज्ञी दशा में भी होता है। पंचसंग्रह के पंचमद्वार की गाथा क्रमांक - १०४ में कहा गया है कि ज्ञानावरणीय पाँच, अन्तराय पाँच, दर्शनावरणीय चार, तीन वेद, संज्वलन लोभ और सम्यक्त्व मोहनीय-इन उन्नीस प्रकृतियों का अपने-अपने अन्तकाल में उदीरणा क्षय होने के पश्चात् सत्ता में जब एक आवलिका मात्र स्थिति शेष रहे, तब उस आवलिका के चरम समय में जघन्य रस का उदय होता है । ध्रुवोदयी प्रकृतियों का अजघन्य प्रदेशोदय : पंचसंग्रह के पंचमद्वार की गाथा क्रमांक-१०६ में कहा है कि धुवोदयी प्रकृतियों का अजघन्य प्रदेशोदय चार प्रकार से होता है- १. सादि २. अनादि ३. ध्रुव और ४. अधुव । उनका अनुत्कृष्ट प्रदेशोदय तीन प्रकार से होता है- १. अनादि २. धुव और ३. अधुव। मिथ्यात्व का अजघन्य और अनुत्कृष्ट प्रदेशोदय चार प्रकार का होता है - १. सादि २. अनादि ३. ध्रुव और ४. अध्रुव। उत्कृष्ट संक्लेश में रहते हुए उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध करते समय क्षपित कर्माश कोई देव उत्कृष्ट प्रदेश की उद्वर्तना करे और बन्ध के अन्त समय में काल करके एकेन्द्रिय में उत्पन्न हो, तो एकेन्द्रिय में उत्पत्ति के प्रथम समय में सैंतालीस धुवोदयी प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदय होता है, परंतु देवताओं में अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण का बन्धावलिका के चरम समय में जघन्य प्रदेशोदय ही समझना चाहिए। वह जघन्य प्रदेशोदय एक समय का होने से सादि-सान्त है। उस जघन्य प्रदेशोदय के अतिरिक्त समस्त प्रदेशोदय अजघन्य होता है। वह जघन्य प्रदेशोदय एकेन्द्रिय में उत्पत्ति के दूसरे समय में होने से सादि होता है। क्षपित काश होकर, जो देवगति में से एकेन्द्रिय में नहीं गए हैं, उन जीवों को अनादि, अजघन्य अभव्य को अनन्त अजघन्य और भव्य को सान्त अजघन्य प्रदेशोदय होता है । सैंतालीस कर्मप्रकृतियों का अनुत्कृष्ट प्रदेशोदय अनादि, धुव और अधुव-ऐसे तीन प्रकार से होता है। गुणश्रेणी के शीर्ष भाग में रहे हुए गुणित काश आत्मा को उन-उन प्रकृतियों के उदय के अन्त में उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है, किन्तु वह एक समय का होने से सादि-सान्त होता है, इसके अतिरिक्त अन्य समस्त प्रदेशोदय अनुत्कृष्ट है। वह सदा होते रहने से अनादि, अभव्य को धुव और भव्य को अधुव है । __ मिथ्यात्व का अजघन्य और अनुत्कृष्ट प्रदेशोदय सादि, अनादि, धुव और अधुव ऐसे चार प्रकार का है। प्रथम सम्यक्त्व प्राप्त करते समय जिसने अन्तकरण किया है। ऐसा क्षपितकाश कोई आत्मा उपशम सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व में जाए और उस अन्तकरण का कुछ अधिक आवलिका शेष रहे, उस अन्तिम आवलिका में जो गोपुच्छाकार दलिक रचना होती है, उसका अन्तिम समय में जघन्य प्रदेशोदय होता है। वह प्रदेशोदय एक समय का होने से सादि और सान्त है। उस प्रदेशोदय के अतिरिक्त Jain Education Intemational Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{304} अन्य समस्त प्रदेशोदय अजघन्य है। वह उससे दूसरे समय में होने से सादि होता है, किन्तु वेदक सम्यक्त्व से गिरते भी अजघन्य प्रदेशोदय होने से सादि होता है, किन्तु जिन्होंने उस स्थिति को प्राप्त नहीं किया है, उनको अनादि, अभव्य को अनन्त और भव्य को सान्त होता है। देशविरति गुणश्रेणी में रहते हुए कोई गुणित कर्माश आत्मा सर्वविरति प्राप्त करने के निमित्त से गुणश्रेणी करे और दोनों गुणश्रेणी का शिरोभाग प्राप्त हो, उस समय वहाँ से गिरकर कोई मिथ्यात्व में जाए, तो उसे उन दोनों गुणश्रेणी के शीर्ष भाग का अनुभव करते हुए मिथ्यात्व का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। वह एक समय का होने से सादि-सान्त है। उसके अतिरिक्त अन्य समस्त प्रदेशोदय अनुत्कृष्ट है, दूसरे समय मे होने से वह सादि अथवा वेदक सम्यक्त्व से गिरते समय अनुत्कृष्ट प्रदेशोदय शुरू होने से सादि, उस स्थिति को जिन्होने प्राप्त नहीं किया है उन्हे अनादि, अभव्य को ध्रुव और भव्य को अधुव है । शेष सभी अध्रुवोदयी एक सौ दस प्रकृतियों के जघन्य अजघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट ये समस्त विकल्प सादि और सान्त - ऐसे दो प्रकार के होते हैं, क्योंकि वे सभी प्रकृतियाँ अधुवोदयी हैं। विभिन्न गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों का उदय एवं उदयविच्छेद : गुणस्थानों के विवेचन में यह पक्ष भी विशेष रूप से विचारणीय है कि किस गुणस्थान में कितनी कर्मप्रकृतियों का उदय रहता है व कितनी कर्मप्रकृतियों का उदय-विच्छेद होता है । जब कर्मप्रकृतियों के उदय की चर्चा करते हैं, तो आगम में उदय दो प्रकार का बताया गया है - विपाकोदय और प्रदेशोदय । जब कोई कर्मप्रकृति उदय में आकर अपने फल के विपाक का अनुभव कराती है, तो यह विपाकोदय कहलाती है, किन्तु जो कर्मप्रकृतियाँ अपने उदय के समय अपने फल के विपाक की अनुभूति न करवाकर उदय में आकर निर्जरित हो जाती है, तो ऐसा उदय प्रदेशोदय कहलाता है। जैसे किसी व्यक्ति को बेहोश करके जब उसका ऑपरेशन आदि किया जाता है, तो उस समय शारीरिक पीड़ा की घटना तो घटित होती है, किन्तु व्यक्ति को उसका अनुभव नहीं होता है। इस प्रकार अपना विपाक या फल दिए बिना मात्र उदय में आकर जो कर्मप्रकृतियाँ निर्जरित हो जाती है, उनका प्रदेशोदय कहलाता है। जैन कर्म-सिद्धान्त की यह मान्यता है कि सभी कर्मों का विपाकोदय हो, यह आवश्यक नहीं है। अनेक कर्म ऐसे भी होते हैं, जो मात्र प्रदेशोदय करके निर्जरित हो जाते हैं। जैन कर्म-सिद्धान्त के अनुसार जिन-जिन कर्मप्रकृतियों का बन्ध हुआ है, उनका उदय या उदीरणा आवश्यक है, किन्तु सभी कर्मप्रकृतियों के उदय या उदीरणा में विपाकोदय आवश्यक नहीं है, प्रदेशोदय होकर भी क्षय हो सकती है। पंचसंग्रह के पंचम द्वार की गाथा क्रमांक- ११०, १११, ११३, ११४ आदि में इस विषय की चर्चा हुई है कि किस गुणस्थान में कौन सी कर्मप्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है, वस्तुतः प्रदेशोदय का तात्पर्य इतना है कि कर्म के विपाक का अनुभव किए बिना (चेतना के स्तर पर) उसे उदय में लाकर समाप्त कर देना। पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की एक सौ दसवीं गाथा में कहा गया है कि सामान्यतया गुणश्रेणी के शीर्ष पर स्थित सभी कर्मप्रकृतियों का गुणित कर्माश आत्मा सर्वाधिक प्रदेशोदय करती है । इसके विपरीत क्षपित कर्माश आत्मा जघन्य प्रदेशोदय करता है। आगे कहा गया है कि सम्यक्त्व मोहनीय, तीनों वेद, संज्वलनकषाय आदि जिन कर्मप्रकृतियों का क्षीणमोह गुणस्थान में उदय-विच्छेद होता है, उन सभी कर्मप्रकृतियों का तथा सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थान में जिन कर्मप्रकृतियों का उदय-विच्छेद होता है, उन सभी कर्मप्रकृतियों का तथा लधुक्षपणा द्वारा क्षय की जानेवाली सभी कर्मप्रकृतियों का अपने उदय के अन्तिम समय में उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। इसीप्रकार जिन साधकों को अवधिज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है, उनकी अवधिद्विक की कर्मप्रकृतियों का भी उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। इसी प्रकार क्षीणमोह गुणस्थान में जिन कर्मप्रकृतियों का उदय-विच्छेद होता है, उन चौदह कर्मप्रकृतियों अर्थात् ज्ञानावरण पंचक, दर्शनावरण चतुष्क और अन्तराय पंचक का क्षपक आत्मा को क्षीणमोह गुणस्थान के चरम समय में उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। पंचसंग्रह के पाँचवे द्वार की एक सौ दसवीं गाथा में कौन-सी आत्मा उत्कष्ट प्रदेशोदय करती है और कौन-सी आत्मा जघन्य प्रदेशोदय करती है, इसका विवेचन किया गया है। सामान्यतया समस्त कर्मप्रकृतियों का गुणश्रेणी के शीर्षभाग में रहते हुए Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ पंचम अध्याय .......(305} अधिकांश गुणितकर्मांश आत्मा को सामान्यतः उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है और क्षपितकर्मांश आत्मा को प्रायः समस्त कर्मप्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदय होता है । विभिन्न गुणस्थानों में उत्कृष्ट प्रदेशोदय के स्वामी : पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ ग्यारहवीं गाथा में कर्मप्रकृतियों के भिन्न-भिन्न उत्कृष्ट प्रदेशोदय के स्वामी कौन हैं, इस बात का विवेचन किया गया है। सम्यक्त्वमोह, तीन वेद और संज्वलन चतुष्क- इन आठ प्रकृतियों को लघुक्षपणा से क्षय करने के लिए उद्यमवंत हुई गुणितकर्यांश आत्मा को उस उस प्रकृति के उदय के चरम समय में उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। 1 क्षीणमोह गुणस्थान में जिन प्रकृतियों का उदय-विच्छेद होता है, वे ज्ञानावरण पंचक, अन्तराय पंचक और दर्शनावरण चतुष्क- इन चौदह प्रकृतियों को लधुक्षपणा से खपाने के लिए उद्यमवंत हुई क्षपक आत्मा को गुणश्रेणी के शीर्ष भाग में रहते हुए क्षीणमोह गुणस्थान के चरम समय में उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण का उत्कृष्ट प्रदेशोदय जिसे अवधिज्ञान और अवधिदर्शन उत्पन्न नहीं हुआ है, उसे होता है, क्योंकि अवधिज्ञान को उत्पन्न करने हेतु अधिक कर्मपुद्गलों का तथा स्वभाव से क्षय होता है, जिससे अवधिज्ञानी को उत्कृष्ट प्रदेशोदय नहीं होता है, किन्तु अवधिलब्धि रहित आत्मा को उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है । सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती आत्मा को गुणितकर्यांश सयोगीकेवली गुणस्थान के चरम समय में जिन-जिन प्रकृतियों का उदय-विच्छेद होता है, वे औदारिक सप्तक, तैजसकार्मण सप्तक, संस्थानषट्क, प्रथम संघयण, वर्णादिवीश, पराघातनामकर्म, उपघातनामकर्म, अगुरुलघुनामकर्म, विहायोगतिद्विक, प्रत्येकनामकर्म, स्थिरनामकर्म, अस्थिरनामकर्म, शुभनामकर्म, अशुभनामकर्म और निर्माणनामकर्म इन बावन प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। सुस्वरनामकर्म और दुःस्वरनामकर्म का निरोध के समय में और उच्छ्वासनामकर्म का उच्छ्वास के निरोधकाल में उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। स्वर और उच्छ्वास का रोध करने में जिस समय में अन्तिम उदय होता है, उस समय में उत्कृष्ट प्रदेशोदय सम्भव है । अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती आत्मा को जिन कर्मप्रकृतियों का उदय-विच्छेद होता है, वे दो में से एक वेदनीय, मनुष्यगति, मनुष्यायु, पंचेन्द्रियगति, त्रसनामकर्म, बादरनामकर्म, पर्याप्तनामकर्म, सुभगनामकर्म, आदेयनामकर्म, यशः कीर्तिनामकर्म, तीर्थंकरनामकर्म और उच्च गोत्र - इन बारह प्रकृतियों का गुणितकर्यांश अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती आत्मा को चरम समय में उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ तेरहवीं गाथा में तिर्यंचगति में रहे हुए मिथ्यादृष्टि जीव को उत्कृष्ट प्रदेशोदय बताया है । उस मिथ्यादृष्टि जीव को तिर्यंचगति प्रायोग्य जातिचतुष्क, स्थावरनामकर्म, सूक्ष्मनामकर्म, साधारण नामकर्म, मिथ्यात्व मोहनीय, अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क, मिश्रमोहनीय और स्त्यानगृद्धित्रिक, अपर्याप्तनामकर्म-इन सत्रह प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय दूसरी और तीसरी गुणश्रेणी के शीर्ष भाग का योग जिस समय में होता है तब होता है । कोई आत्मा देशविरति की गुणश्रेणी और सर्वविरति की गुणश्रेणी प्राप्त करके सम्यक्त्वादि गुण से गिरकर मिथ्यात्व में जाए और वहाँ से अप्रशस्त मरण को प्राप्त कर तिर्यंच में उत्पन्न हो, तो ऐसे गुणितकर्मांश तिर्यंच को, जिस समय में दोनों गुणश्रेणी के शीर्ष भाग का योग हो, उस समय में तिर्यंचगति पूर्वोक्त सात प्रकृतियों का और अपर्याप्तनामकर्म का उदय होने पर उसका उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। मिथ्यात्व मोहनीय और अनन्तानुबन्धी चतुष्क के उदय के संयोग में तो मृत्यु प्राप्त करे तथा उस समय में यदि दूसरी और तीसरी गुणश्रेणी के शिरोभाग का योग है, कषाय गणितकर्मांश आत्मा ऐसे समय में मिथ्यात्व को प्राप्त करे, तो मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषाय का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। गुणश्रेणी के शिरोभाग में रहते हुए कोई आत्मा मिश्र गुणस्थान प्राप्त करे तो मिश्रमोहनीय का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। मिथ्यात्व गुणस्थान प्राप्त करे या न करे, तो भी गुणितकर्मांश आत्मा को दूसरी एवं तीसरी गुणश्रेणी करते हुए स्त्यानगृद्धित्रिक का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है, क्योंकि स्त्यानगृद्धित्रिक का तो प्रमत्तसंयत तक ही उदय होता है। स्त्यानगृद्धि में से किसी भी निद्रा का उदय हो, तो उसे भी उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। मिध्यात्व में जाए तो वहाँ भी उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है । पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ सत्रहवीं गाथा में कहा गया है कि तृतीय गुणश्रेणी से पतित दर्शनमोह के क्षपक को Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... पंचम अध्याय.......(306) उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। दर्शनमोहनीय त्रिक का क्षय करने के लिए उद्यमवंत अविरतसम्यग्दृष्टि आत्मा प्रथम, द्वितीय और तृतीय गुणश्रेणी करती है । वह अविरत आत्मा प्रथम तीनों गुणश्रेणियों के शिरोभाग में जिस गुणस्थान में होती हैं, उसी गुणस्थान में रहती है और उस भव में उसे उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। यदि उस आत्मा ने नरकायु का बन्ध किया हो और गुणश्रेणी का शिरोभाग प्राप्त होने से पहले ही मरकर नारकी में उत्पन्न हो, तो भी गुणश्रेणी के शिरोभाग में रहते हुए उसे पूर्वोक्त दुर्भगादि चार और नरकद्विक-इन छः प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। क्वचित् असंख्यात वर्ष के आयुवाले तिर्यंच की आयु का बन्ध किया हो और मरकर तिर्यंच हो, तो उसे तिर्यंचद्विक के साथ पूर्वोक्त चार प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। यदि उसने युगलिया मनुष्य सम्बन्धी आयु बांधी हो और मरकर मनुष्य हो, तो उसे मनुष्यानुपूर्वी सहित पूर्वोक्त प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है । पंचसंग्रह के पंचमद्वार की एक सौ अठारहवीं गाथा में अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती जीव को होनेवाले उत्कृष्ट प्रदेशोदय का विवेचन किया है। कोई भी मनुष्य दूसरी, तीसरी और चौथी गुणश्रेणी करे और गुणश्रेणी के शिरोभाग में जिस गुणस्थान में हो, उस गुणस्थान में रहते हुए, उस मनुष्य को प्रथम संघयण के अतिरिक्त पाँच संघयण में से जिसका उदय होता है, उसका उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। आहारक शरीरवाले अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव को अप्रमत्तसंयत गुणस्थान के पहले समय में जितने स्थानों में गुणश्रेणी होती है, उसी के चरम समय में आहारक सप्तक और उद्योतनामकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है । विभिन्न गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों की सत्ता : पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ तेंतीसवीं गाथा में सत्ता का और सत्ता के स्वामी का विवेचन किया गया है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान के द्विचरम समय तक निद्राद्विक की सत्ता रहती है, अर्थात् बारहवें गुणस्थान तक के सभी जीव निद्राद्विक की सत्ता के स्वामी हैं। क्षीणमोह गुणस्थान के चरम समय तक पाँच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय और पाँच अन्तराय-इन चौदह प्रकृतियों की सत्ता होती है। इन प्रकृतियों के स्वामी भी बारहवें गुणस्थान तक के सभी जीव हैं। चारों आयुष्य की सत्ता अपने - अपने भव पर्यन्त होती है। पंचसंग्रह के पंचमद्वार की एक सौ चौंतीसवीं गाथा में मिथ्यात्व मोहनीय और सम्यक्त्व मोहनीय की सत्ता का विवेचन किया है। मिथ्यादृष्टि, सास्वादन और मिश्र - इन तीन गुणस्थानों में मिथ्यात्व मोहनीय की सत्ता अवश्य होती है, किन्तु अविरतसम्यग्दृष्टि स्थान से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थान तक मिथ्यात्वमोह की सत्ता विकल्प से होती है। अविरतसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानों में क्षायिक सम्यक्त्व उपार्जन करके जिन्होंने मिथ्यात्व का क्षय किया है, उनमें मिथ्यात्वमोह की सत्ता नहीं होती है, किन्तु उपशम सम्यक्त्व वाले जीवों में मिथ्यात्वमोह की सत्ता होती है। क्षीणमोहादि गुणस्थान में मिथ्यात्वमोहनीय की सत्ता का अभाव होता है। सास्वादन गुणस्थानवर्ती आत्मा को मोहनीय की अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता होती है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थान तक मात्र सास्वादन गुणस्थान को छोड़कर दस गुणस्थानों में से किसी समय सत्ता होती है और किसी समय सत्ता नहीं होती है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में अभव्य को और जिसने आज तक सम्यक्त्व प्राप्त नहीं किया है ऐसे भव्य को सम्यक्त्व मोहनीय की सत्ता नहीं होती है किन्तु सम्यक्त्व से गिरे हुए भव्यों में, जब तक उद्वर्त्तना नहीं की है, तब तक इसकी सत्ता होती है । ऊपर गुणस्थानों से गिरकर मिश्रदशा प्राप्त करे, तो उसे भी मिश्र गुणस्थान में सम्यक्त्व मोहनीय की सत्ता अवश्य होती है । पहले गुणस्थान में सम्यक्त्व मोहनीय की उद्वर्तना कर मिश्रदशा प्राप्त करे, तो उसमें इसकी सत्ता नहीं होती है, किन्तु उपशम- क्षायोपशम सम्यक्त्वी में होती है, इसीलिए दस गुणस्थानों में सम्यक्त्व मोहनीय की सत्ता विकल्प से होती है। बारहवें से चौदहवें गुणस्थानों में नहीं होती है। पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ पैंतीसवीं गाथा में मिश्रमोहनीय और अनन्तानुबन्धी की सत्ता की विवेचना की है। सास्वादन और मिश्रगुणस्थानवर्ती आत्मा को मिश्र मोहनीय की सत्ता अवश्य होती है, क्योंकि सास्वादन गुणस्थानवर्ती आत्मा में Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{307} मोहनीय की अट्ठाईस प्रकृति की सत्ता होती है, और मिश्र गुणस्थान में निश्चय से मिश्रमोहनीय की सत्ता होती है। चौथे से ग्यारहवें गुणस्थान में मिश्रमोहनीय की सत्ता विकल्प से होती है। क्षायिक सम्यक्त्वी को मिश्रमोहनीय की सत्ता नहीं होती है, उपशम सम्यक्त्वी को मिश्रमोहनीय की सत्ता होती है। पहले गुणस्थान में अभव्य को और जिन्होंने अभी तक सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं किया है, ऐसे भव्य जीवों में मिश्रमोहनीय की सत्ता नहीं होती है और सम्यक्त्व प्राप्त कर जो मिथ्यात्व में जाकर उवर्तना करे, तब तक सत्ता होती है। सास्वादन गुणस्थान तक अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क अवश्य सत्ता में होता है । मिश्र गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के पाँच गुणस्थानों में विकल्प से सत्ता होती है, चौथे से सातवें तक में विसंयोजना की हो तो सत्ता नहीं होती है, अन्यथा होती है, अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना कर तीसरे गुणस्थान में जाए, तो भी मिश्रमोह की सत्ता नहीं होती है, अन्यथा होती है । अनन्तानुबन्धी कषाय की सत्ता मिश्रादि पाँच गुणस्थानों में विकल्प से होती है । अपूर्वकरणादि गुणस्थानों में प्रथम कषाय चतुष्क की सत्ता नहीं होती है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करके ही उपशमश्रेणी पर आरूढ़ हो सकता है, ऐसा पंचसंग्रह के टीकाकार आचार्य मलयगिरिजी महाराज साहब मानते हैं । पंच संग्रह के पंचम द्वार की एक सौ छत्तीसवीं गाथा में कहा है कि मध्यम आठ कषाय अर्थात् अप्रत्याख्यानी चतुष्क, और प्रत्याख्यानी चतुष्क क्षपक अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान के संख्यातवें भाग तक सत्ता में होते हैं। उपशमश्रेणी वाले उपशमक उपशान्तमोह गुणस्थान तक सत्ता में होते हैं। अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान के जिस समय में आठ कषाय का क्षय होता है, उस समय से लेकर संख्याता स्थितिघात होते है, उतने समय तक स्त्यानगृद्धि त्रिक सत्ता में होती है। जब तक स्त्यानगृद्धि त्रिक सत्ता में होती है, तब तक नामकर्म की तेरह प्रकृतियाँ (स्थावरनामकर्म, सूक्ष्मनामकर्म, तिर्यचद्विक, आतपनामकर्म, एकेन्द्रियजाति, विकलेन्द्रिय जाति, साधारणनामकर्म, नरकद्विक और उद्योतनामकर्म) भी सत्ता में होती है। उपशमश्रेणी से आरोहण करने पर उपशान्तमोह गुणस्थान तक इन आठ कषायों की सत्ता होती है। ___ पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ अड़तीसवीं गाथा में कहा गया है कि उपर्युक्त आठो कषायों का क्षय करने के पश्चात् न अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थानवर्ती आत्मा को संख्याता स्थिति भाग के बाद सोलह प्रकृतियों का क्षय होता है, वैसे नपुंसकवेद का जब तक क्षय नहीं होता है, तब तक वह सत्ता में रहता है। उसी तरह नपुंसकवेद का क्षय हो जाने के बाद स्त्रीवेद का क्षय होता है। नपुंसकवेद से क्षपकश्रेणी वाली आत्मा को स्त्रीवेद और नपुंसकवेद एक साथ क्षय होता है। उपशमश्रेणी से आरोहण करने वालों को उपशान्तमोह गुणस्थान तक दोनों वेद सत्ता में होते हैं। स्त्रीवेद का क्षय होने के पश्चात् हास्यादिषट्क का क्षय होता है, तत्पश्चात् दो समय न्यून आवलिका काल में पुरुषवेद की सत्ता का क्षय होता है। यह बात क्षपक श्रेणी करनेवाली आत्मा की अपेक्षा से कही गई है। ___पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ उनचालीसवीं गाथा में कहा गया है कि स्त्रीवेद का उदय होने पर क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवाला प्रथम नपुंसकवेद का क्षय करता है। उसके पश्चात् संख्याता स्थितिघात हो जाने के बाद स्त्रीवेद का क्षय करता है। फिर उसी क्रम से हास्यादिषट्क और पुरुषवेद का एक साथ क्षय करता है। नपुंसक वेद का उदय होने पर क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवाला प्रथम सत्ता में रहे स्त्रीवेद और नपुंसकवेद का एक साथ क्षय करता है । उसके पश्चात् पुरुषवेद और हास्यादिषट्क-इन सात प्रकृतियों का समकाल में ही क्षय करता है। इन सबकी क्षय के पूर्व समय तक सत्ता होती है। उपशमश्रेणी से आरोहण करनेवाले को तो ग्यारह गुणस्थान तक इन सबकी सत्ता होती है। पंचसंग्रह के पंचमद्वार की एक सौ चालीसवीं गाथा में कहा गया है कि अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान में पुरुषवेद का क्षय हो जाने के पश्चात् संज्वलन-क्रोध का क्षय होता है। इसी क्रम में संज्वलन मान-माया का क्षय होता है, फिर संज्वलन लोभ का क्षय सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के चरम समय में होता है। यह बात क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवालों के सम्बन्ध में कही गई है। उपशमश्रेणी से आरोहण करने वालों में तो ये सभी उपशान्तमोह गुणस्थान तक सत्ता में रहते हैं। पंचसंग्रह के पंचमद्वार की एक सौ इकतालीसवीं गाथा में कर्मप्रकृतियों की सत्ता सम्बन्धी चर्चा की गई है। सभी गुणस्थानवाले Jain Education Intemational Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{308} जीवों को आहारक सप्तक की विकल्प से सत्ता होती है। सास्वादन और मिश्र के बिना अन्य गुणस्थानों में तीर्थंकरनामकर्म की सत्ता विकल्प से होती है। आहारकनामकर्म और तीर्थकरनामकर्म - इन दोनों की सत्ता जिन जीवों में होती है, वे निश्चय से मिथ्यादृष्टि नहीं होते हैं। तीर्थकरनामकर्म की सत्तावाले जीव केवल पूर्वबद्ध नरकायु के कारण नरक में उत्पन्न होते समय अन्तर्मुहूर्त तक मिथ्यादृष्टि होते हैं । प्रथम से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक सभी जीवों को आहारक सप्तक की सत्ता विकल्प से होती है। यदि कोई जीव सातवें और आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक आहारकनामकर्म को बांधकर ऊपर के गुणस्थानों में आरोहित करें और गिरकर नीचे के गुणस्थान में जाए, तो सभी गुणस्थानों में आहारक सप्तक की सत्ता सम्भव होती है और उसका बन्ध नहीं करें, तो उसकी सत्ता सम्भव नहीं होती है। सास्वादन और मिश्र गुणस्थान को छोड़कर शेष सभी गुणस्थानों में तीर्थकरनामकर्म की सत्ता विकल्प से होती है। तीर्थंकरनामकर्म का जिसने बन्ध किया हो, उस जीव में उसकी सत्ता होती है और जिसने बन्ध न किया हो, उसमें उसकी सत्ता नहीं होती है, परंतु सास्वादन और मिश्रदृष्टि गुणस्थानों में निश्चय से तीर्थकरनामकर्म की सत्ता नहीं होती है, क्योंकि तीर्थकरनामकर्म की सत्तावाली आत्मा दूसरे और तीसरे गुणस्थान में नहीं जाती है। आहारकनामकर्म और तीर्थकरनामकर्म इन दोनों की समकाल में एक जीव में सत्ता हो, तो वह जीव मिथ्यात्व गुणस्थान में जाता ही नहीं हैं। साथ ही तीर्थंकरनामकर्म की सत्तावाला जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में एक अन्तर्मुहूर्त तक रहता है, उससे अधिक नहीं। __ पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ बयालीसवीं गाथा में यह बताया गया है कि अयोगी गुणस्थानवर्ती आत्मा को कितनी कर्मप्रकृतियाँ सत्ता में रहती हैं । उसमें साता और असाता वेदनीय इन दोनों में से एक वेदनीय उच्चगोत्र, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, त्रसनामकर्म, बादरनामकर्म, पर्याप्तनामकर्म, सुभगनामकर्म, आदेयनामकर्म, यशःकीर्तिनामकर्म और तीर्थकरनामकर्म इन नौ प्रकृति नामकर्म की तथा मनुष्यायु ऐसी बारह कर्मप्रकृतियों की सत्ता अयोगीकेवली गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त रहती हैं। साता और असाता में एक वेदनीय, देवद्विक, औदारिकसप्तक, वैक्रियसप्तक, आहारकसप्तक, तैजसकार्मणसप्तक, प्रत्येक शरीरनामकर्म, संस्थानषट्क, संघयणषट्क, वर्णादिवीश, विहायोगतिद्विक, अगुरुलघुनामकर्म, पराघातनामकर्म, उपघातनामकर्म, उच्छवासनामकर्म, स्थिरनामकर्म, अस्थिरनामकर्म, शुभनामकर्म, अशुभनामकर्म, सुभगनामकर्म, दुर्भगनामकर्म, सुस्वरनामकर्म, दुःस्वरनामकर्म, अनादेयनामकर्म, अपयशकीर्तिनामकर्म, मनुष्यानुपूर्वी, निर्माणनामकर्म, अपर्याप्तनामकर्म और नीचगोत्र-ये ८३ कर्मप्रकृतियों की अयोगीकेवली गुणस्थान के द्विचरम समय तक सत्ता होती है, तत्पश्चात् उनका क्षय हो जाता है। पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ पैंतालीसवीं गाथा में उदयसंक्रमोत्कृष्ट और अनुदयसंक्रमोत्कृष्ट प्रकृतियों की उत्कृष्ट कालस्थिति की सत्ता का विवेचन किया है। __ जब किसी कर्मप्रकृति का उदय काल प्रारम्भ होता है और उस समय उसके कर्मप्रदेशों की सत्ता उत्कृष्ट कालस्थिति की होती है, ऐसी कर्मप्रकृति को उदयसंक्रमोत्कृष्ट प्रकृति कहते हैं। वे इस प्रकार हैं - मनुष्यगति, सातावेदनीय, सम्यक्त्वमोहनीय, स्थिरनामकर्म, शुभनामकर्म, सुभगनामकर्म, सुस्वरनामकर्म, आदेयनामकर्म, यशः कीर्तिनामकर्म, नौ नोकषाय, प्रशस्त विहायोगतिनामकर्म, प्रथम पाँच संघयण, प्रथम पाँच संस्थान और उच्चगोत्र। इन कर्मप्रकृतियों का जब उदय हो, तब उनमें स्वजातीय अन्य कर्मप्रकृतियों की स्थिति के संक्रमण से दो आवलिका न्यून स्थिति का जो आगम संक्रमण होता है, उसमें उदय आवलिका मिलाने से जितनी कालस्थिति होती है, उतनी उत्कृष्ट कालस्थिति की सत्ता होती है। सातावेदनीय का वेदन करते हुए किसी आत्मा ने असातावेदनीय कर्म की उत्कृष्ट कालस्थिति का बन्ध कर लिया हो और तत्पश्चात् सातावेदनीय का बन्ध आरंभ किया हो, वह वेद्यमान और बध्यमान सातावेदनीय की उदय आवलिका के अतिरिक्त शेष सातावेदनीय में जिनकी बन्ध आवलिका व्यतीत हो चुकी है, ऐसी असातावेदनीय की उदय आवलिका के ऊपर की दो आवलिका न्यून तीस कोडाकोडी सागरोपम परिमाण कालस्थिति का संक्रमण करता है, इसीलिए सातावेदनीय में उसकी उदय आवलिका के अतिरिक्त संक्रमण से जो दो आवलिका Jain Education Intemational Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.. पंचम अध्याय........{309) न्यून उत्कृष्ट स्थितिवाली असातावेदनीय का संक्रमण द्वारा जो आगम हुआ उसमें उदय आवलिका मिलाने पर जितनी कालस्थिति हो, उतनी सातावेदनीय कर्म की उत्कृष्ट कालस्थिति की सत्ता जानना चाहिए। इसी प्रकार सम्यक्त्व मोहनीय के बिना शेष मोहनीय कर्म की प्रकृतियों की दो आवलिका न्यून स्वजातीय प्रकृतियों के उत्कृष्ट कालस्थिति के दलिकों के संक्रमण से जो आगम होता है, उसे उदयावलिका से योजित करने पर जो स्थिति होती है, वह सम्यक्त्व मोहनीय की उत्कष्ट स्थिति सत्ता होती है। मिथ्यात्व मोहनीय की उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कर मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त रहकर सम्यक्त्व प्राप्तकर मिथ्यात्वमोह की उदय आवलिका की अन्तर्मुहर्त न्यून सत्तर कोडाकोडी सागरोपम परिमाण उत्कष्ट स्थिति के मिथ्यात्व मोहनीय का सम्यक्त्व मोहनीय में संक्रमण करने पर सम्यक्त्व मोहनीय की उदयावलिका अन्तर्मुहूर्त न्यून उत्कृष्ट स्थिति का जो आगम हुआ उसमें उदय आवलिका का काल मिलाने पर जो परिमाण हो, वही सम्यक्त्व मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति होती है। जब किसी प्रकृति का उदय न हो, तब संक्रमण से जिन प्रकृतियों की उत्कृष्ट कालस्थिति प्राप्त हो, तो वे अनुदयसंक्रमोत्कृष्ट प्रकृतियाँ कही जाती हैं। देवद्विक, सम्यग्मिथ्यात्वमोहनीय, आहारक सप्तक, मनुष्यानुपूर्वी, विकलेन्द्रिय, सूक्ष्मनामकर्म, साधारणनामकर्म, अपर्याप्तनामकर्म और तीर्थकरनामकर्म - इन संक्रमण योग्य अठारह अनुदित कर्मप्रकृतियों का दो आवलिका न्यून स्वजातीय प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति को जो संक्रमण प्राप्त हो, उसमें एक समय न्यून आवलिका सहित करने से जो स्थिति प्राप्त हो, उतनी उत्कृष्ट कालस्थिति होती है। वे इसप्रकार हैं -कोई एक मनुष्य उत्कृष्ट संक्लेश वश से नरकगति की उत्कृष्ट स्थिति बांधकर परिणाम का परावर्तन होने से देवगति बांधना आरंभ करे, उसमें जिनकी बन्ध आवलिका व्यतीत हो चुकी है, उन्हें छोड़कर दो आवलिका न्यून बीस कोडाकोडी सागरोपम परिमाण स्थिति का संक्रमण करे, जिस समय में देवगति में नरकगति की कालस्थिति को संक्रमित करे, तब वेद्यमान मनुष्यगति में स्तिबुक संक्रमण से संक्रमण होता है। देवगति का रसोदय नहीं होता है, उस समय परिमाण स्थिति से दो आवलिका न्यून, जो नरकगति की स्थिति का आगम होता है, उस समय देवगति की उत्कृष्ट स्थितिसत्ता होती है । इसीप्रकार देवानुपूर्वी आदि सोलह प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थितिसत्ता होती है। मिश्रमोहनीय की अन्तर्मुहूर्त स्थिति में न्यून मिथ्यात्वमोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति का जो संक्रमण होता है, उसमें वह समय कम करके आवलिका का योग करने से जो परिमाण होता है, उसे मिथ्यात्वमोह की उत्कृष्ट स्थितिसत्ता कहते हैं। जो आत्मा जिन कर्मप्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध करती हैं और जो आत्मा जिन कर्मप्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति का संक्रमण करती हैं, उस आत्मा में उन कर्मप्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति होती है। विभिन्न गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों की जघन्य सत्ता : पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक-सौ सैंतालीसवीं गाथा में कर्मप्रकृतियों की जघन्य काल स्थित की सत्ता के स्वामी का निर्देश किया गया है। अनन्तानुबन्धी चतुष्क और दर्शनत्रिक की जघन्य काल स्थिति की सत्ता अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती आत्मा में होती है। नारक तिर्यंच और देवायु की जघन्य काल स्थिति की सत्ता अपने-अपने भव के चरम समय में रहनेवाले नारकी, तिथंच और देवों को होती है। अप्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क और प्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क, स्त्यानगृद्धित्रिक, नामकर्म की नवें गुणस्थान में क्षय होनेवाली तेरह प्रकृतियाँ, नौ नोकषाय और संज्वलन कषाय त्रिक- इन छत्तीस प्रकृतियों की जघन्यकाल स्थिति की सत्ता अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थानवर्ती आत्मा में होती है। संज्वलन लोभ की जघन्यकाल स्थिति की सत्ता सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती आत्मा में होती है। ज्ञानावरणीय पंचक, दर्शनावरणीय षट्क और अतंराय पंचक कर्मप्रकृतियों की जघन्य काल स्थिति की सत्ता क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती आत्मा में होती है। शेष ६५ कर्मप्रकृतियों की जघन्य काल स्थिति की सत्ता अयोगी केवली गुणस्थानवर्ती आत्मा में होती है। पंचसंग्रह के पंचम द्वार की गाथा क्रमांक १५४ एवं १५५ में कर्मप्रदेशों की सत्ता के कितने और कौन-कौन से प्रकार है, यह बताया गया है। ध्रुवबंधि शुभ प्रकृतियाँ - निर्माणनामकर्म, अगुरुलघु, शुभवर्णादि एकादश, तैजसकार्मण सप्तक, त्रसादि शतक, Jain Education Intemational Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... पंचम अध्याय.......... (310) पंचेन्द्रियजाति, समचतुरस्र संस्थान, वज्रऋषभनाराच संघयण, सातावेदनीय, संज्वलन चतुष्क, उच्छ्वास, शुभ विहायोगति, पुरुषवेद और पराघात - इन बयालीस प्रकृतियों की अनुत्कृष्ट प्रदेशसत्ता, सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव - ऐसी चार की होती है। वज्रऋषभनाराच संघयण को छोड़कर इकतालीस कर्मप्रकृतियों के कर्मप्रदेशों की उत्कृष्ट सत्ता क्षपक श्रेणी में आरोहण करने वाली गुणितकर्मांश आत्मा को इन इन कर्मप्रकृतियों के बन्ध के अन्तिम समय में होती है, किन्तु वह एक समय में होने से सादि सान्त है और इसके अतिरिक्त अन्य स्थितियों में कर्म प्रदेशसत्ता अनुत्कृष्ट होती है। अनुत्कृष्ट सत्ता, उत्कृष्ट सत्ता के बाद होने के कारण क्षपक श्रेणी वाले जीवों को सादि, जिन्हें क्षपकश्रेणी प्राप्त नहीं हुई है उन्हें अनादि, अभव्य को ध्रुव और भव्य को अध्रुव है । वज्रऋषभनाराच संघयण नामक नामकर्म की प्रकृति के उत्कृष्ट प्रदेशों की सत्ता सातवें नरक के मिथ्यात्व गुणस्थान की ओर अभिमुख गुणितकर्मांश सम्यग्दृष्टि आत्मा को होती है। यह सादि एवं सांत होती है, शेष प्रदेशसत्ता अनुत्कृष्ट है। अनुत्कृष्ट सत्ता, उत्कृष्ट सत्ता के बाद होने के कारण उस अवस्था को प्राप्त जीवों को सादि, उस अवस्था को प्राप्त नहीं करनेवाले जीवों को अनादि, भव्य को ध्रुव और भव्य को अध्रुव होती है। अनन्तानुबन्धी चतुष्क, संज्वलन लोभ और यशः कीर्ति- इन छः प्रकृतियों के अतिरिक्त शेष एक सौ चौबीस ध्रुवसत्तावाली कर्मप्रकृतियों की अजघन्य प्रदेश सत्ता अनादि, ध्रुव और अध्रुव- ऐसी तीन प्रकार की है । अनन्तानुबन्ध कषाय चतुष्क की उद्वर्तना करनेवाले क्षपित कर्मांश किसी आत्मा को जब अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क की स्थिति एक समय मात्र शेष रहे, तब उसके प्रदेशों की सत्ता जघन्य अर्थात् सबसे कम होती है। इसका काल मात्र एक समय होने से यह जघन्य प्रदेशसत्ता सादि सान्त है, शेष सभी कर्मप्रकृतियों के कर्मप्रदेशों की सत्ता अजघन्य होती है। अजघन्य सत्ता अनन्तानुबन्धी की उद्वर्तना करने के बाद मिथ्यात्व के निमित्त से, जब अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क फिर से बन्ध हो, तब तक होती है, इसीलिए सादि, किन्तु आज तक जिन्होंने अनन्तानुबन्धी की उद्वर्तना नहीं की है, उन्हें यह अजघन्य सत्ता अनादि, अभव्य को ' ध्रुव और भव्य को अध्रुव होती है। संज्वलन लोभ और यशः कीर्तिनामकर्म की अजघन्य प्रदेशसत्ता इन्हें क्षय करने के लिए उद्यमवंत क्षपितकर्मांश आत्मा को क्षपकश्रेणी से आरोहण करते समय अप्रमत्त गुणस्थान के चरम समय में होती है। यह एक समय की स्थिति की होने से सादि सांत है, अन्य स्थिति में प्रदेशसत्ता अजघन्य है । अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम समय में गुणसंक्रमण से अन्य अशुभ कर्मप्रकृतियों के अधिक दलिकों के प्राप्त होने से इस गुणस्थान में कर्म दलिकों की जो अधिक मात्रा में अवस्थिति होती है, वह सादि है । उस स्थान को प्राप्त नहीं करनेवाले को उन कर्मप्रकृतियों के प्रदेशों की सत्ता अनादि, अभव्य को 'धुव और भव्य को अध्रुव होती है, शेष कर्मप्रकृतियों के प्रदेशों की सत्ता के विकल्प सादि और सांत - ऐसे दो प्रकार से होते हैं । ध्रुवबन्धी शुभ प्रकृतियों और त्रसदशक आदि बयालीस कर्मप्रकृतियों के प्रदेशों की सत्ता जघन्य, अजघन्य और उत्कृष्ट इन तीन विकल्पों में सादि और सांत ऐसी दो प्रकार की होती हैं । सभी कर्मप्रकृतियाँ सादि और सान्त होती है । उसमें से त्रसदशक आदि शुभ ध्रुवबन्धवाली बयालीस कर्मप्रकृतियों के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसे तीन विकल्प होते हैं। वे तीनों विकल्प ही सादि और सान्त होते हैं। इसमें से उत्कृष्ट प्रदेशसत्तावाली सादि और सान्त कर्मप्रकृतियों की चर्चा पूर्व में की है। अब आगे मध्यम और जघन्य इन दो विकल्पों के सम्बन्ध में विचार करेंगे । ध्रुवसत्तावाली एक सौ चौबीस कर्मप्रकृतियों के प्रदेशों की सत्ता के जघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट- ये तीनों विकल्प सादि और सांत होते हैं। पूर्वोक्त बयालीस प्रकृतियों के अतिरिक्त शेष कर्मप्रकृतियों के प्रदेशों की सत्ता के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट-ये दो विकल्प गुणितकर्मांश मिध्यादृष्टि जीव में सम्भव होते हैं, ये सादि तथा सांत ऐसे दो प्रकार के हैं। अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क, संज्वलन लोभ और यशः कीर्तिनामकर्म के प्रदेशों की सत्ता के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट- ऐसे दो विकल्प भी होते हैं। शेष अध्रुवसत्तावाली कर्मप्रकृतियों के उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य - ऐसे चारों विकल्प, उनकी सत्ता अध्रुव होने से, सादि और सांत ही होते हैं । पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ साठवीं गाथा में कहा है कि चार बार मोहनीय कर्म का उपशमन कर शीघ्र ही कर्म का Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{311) क्षय करने के लिए प्रयत्नशील कोई गुणितकांश आत्मा प्रयत्न करे, तो ऐसे क्षपक में सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के चरम समय में यशःकीर्तिनामकर्म, उच्चगोत्र और सातावेदनीय कर्मों के प्रदेशों की उत्कृष्ट सत्ता होती है, क्योंकि इन कर्मप्रकृतियों में क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ आत्मा गुणसंक्रमण के द्वारा अशुभ प्रकृतियों के दलिकों को भी इनमें संक्रमित कर देती है। इसीलिए सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के चरम समय में इन कर्मप्रकृतियों के प्रदेशों की सत्ता सम्भव होती है। पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ चौसठवीं गाथा में कहा गया है कि तमस्तमप्रभा नामक सातवें नरक का नारकी जीव उत्पन्न होने के पश्चात् तत्काल सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर अन्तर्मुहूर्त न्यून तेतीस सागरोपम जैसी दीर्घ अवधि तक सम्यक्त्व का पालन करते हुए उस काल में मनुष्यद्विक और वज्रऋषभनाराच संघयण का बन्ध करे, तो चौथे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान के चरम समय में उस नारकी जीव को मनुष्यद्विक और वज्रऋषभनाराच संघयण के कर्मप्रदेशों की उत्कृष्ट सत्ता होती है। __पंचसंग्रह के पंचमद्वार की एक सौ पैंसठवीं गाथा में बताया गया है कि मिश्र गुणस्थान का अन्तर्मुहूर्तकाल अधिक दो छासठ यानी एक सौ बत्तीस सागरोपम तक बन्ध से और अन्य प्रकृतियों के संक्रमण से सम्यक्त्व होने पर भी जिनका अवश्य बन्ध होता है, वे पंचेन्द्रियजाति, समचतुरनसंस्थान, पराघातनामकर्म, उच्छ्वासनामकर्म, प्रशस्तविहायोगतिनामकर्म, त्रसनामकर्म, बादरनामकर्म, पर्याप्तनामकर्म, प्रत्येकनामकर्म, सुस्वरनामकर्म, सुभगनामकर्म और आदेयनामकर्म- इन बारह प्रकृतियों के प्रदेशों के चार बार मोहनीय कर्म का उपशमन करने के पश्चात् मोहनीय के क्षय के लिए प्रयत्नशील आत्मा को अपने-अपने बन्ध के अन्तिम समय में उत्कृष्ट सत्ता होती है। पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ सत्तरवी गाथा में बताया है कि जो क्षपितकांश आत्मा उपशमश्रेणी किए बिना क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ हो, तो उस क्षपितकाश आत्मा में यथाप्रवृत्तकरण के अन्तिम समय में अर्थात् अपूर्वकरण गुणस्थान में गुणसंक्रमण होने से पूर्व संज्वलन लोभ और यशःकीर्तिनामकर्म के प्रदेशों की जघन्य सत्ता होती है, किन्तु जो मोहनीय कर्म का सर्वथा उपशम करे और गुणसंक्रमण के द्वारा अबध्यमान किन्तु सत्ता में रही हुई अशुभ प्रकृतियों को उक्त प्रकृतियों में संक्रमित कर दे, तो इन प्रकृतियों के दलिक सत्ता में अधिक हो जाने से उसमें इन कर्मप्रकृतियों की जघन्य प्रदेशसत्ता सम्भव नहीं होगी, किन्तु जघन्य प्रदेशों की सत्ता में उपशमश्रेणी का कोई प्रयोजन नहीं है, इसीलिए कहा है कि उपशमश्रेणी पर आरूढ़ हुए बिना क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होने की स्थिति में अप्रमत्त गुणस्थान के चरम समय में इन कर्मप्रकृतियों के प्रदेशों की जघन्य सत्ता होती है, क्योंकि अपूर्वकरण गुणस्थान में गुणसंक्रमण प्रारम्भ हो जाने से उन कर्मप्रदेशों की जघन्य सत्ता सम्भव नहीं होगी। मिथ्यात्व को प्राप्त आत्मा को आहारक सप्तक के कर्मप्रदेशों की जघन्य सत्ता होती है, अर्थात् कोई अप्रमत्त आत्मा अल्पकाल पर्यन्त आहारकसप्तक का बन्ध कर मिथ्यात्व को प्राप्त हो और वहाँ पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितने समय में उसकी उद्वर्तना करे, उसकी सत्ता के चरम समय में स्वरूप की अपेक्षा एक समय की स्थिति शेष रहने पर और सामान्य की अपेक्षा दो समय की स्थिति शेष रहने पर आहारक सप्तक की जघन्य सत्ता होती है। शेष कर्मप्रकृतियों की क्षपितकाश आत्मा में उन प्रकृतियों के क्षय के अन्तिम समय में जघन्यप्रदेश सत्ता होती है। पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ चहत्तरवीं गाथा में आवलिका के समय समान स्पर्द्धकों का विवरण है। मोहनीयकर्म की मिथ्यात्वमोहनीय और अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क, अप्रत्याख्यानीय चतुष्क एवं प्रत्याख्यानीय चतुष्क- ऐसे बारह कषाय, ये सर्वघाती तेरह कर्मप्रकृतियाँ, नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, जातिचतुष्क, स्थावरनामकर्म, आतपनामकर्म, उद्योतनामकर्म, सूक्ष्मनामकर्म और साधारणनामकर्म- ऐसी नामकर्म की तेरह प्रकृतियाँ तथा स्त्यानगृद्धि, निद्रा-निद्रा और प्रचला-प्रचला, ये निद्रा-त्रिक; सभी मिलाकर उनतीस प्रकृतियों के सत्ताकाल की अन्तिम आवलिका में अन्य प्रकृतियों में स्तिबुक संक्रमण से संक्रमण हो किन्तु क्षय न हो, तब तक उनके एक समय न्यून एक आवलिका परिमाण स्पर्द्धक होते हैं। उस आवलिका काल में एक समय में स्तिबुक संक्रमण से संक्रमण हो तब दो समय न्यून आवलिका परिमाण स्पर्द्धक होते हैं। इसीप्रकार जैसे-जैसे एक-एक समय में स्तिबुक संक्रम हो, वैसे-वैसे एक-एक समय न्यून आवलिका परिमाण मध्यम स्पर्द्धक होते हैं । ऐसा करते हुए जब उनकी स्वरूप सत्ता की Jain Education Intemational Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{312} अपेक्षा एक समय की स्थिति शेष रहे, तब एक समय परिमाण जघन्य स्पर्धक होते हैं। इसप्रकार अनुदयवती उपर्युक्त मिथ्यात्वादि उनतीस प्रकृतियों की चरम आवलिका में एक समय न्यून आवलिका परिमाण स्पर्द्धक होते हैं और अन्य स्थितियों में एक स्पर्द्धक मिलकर आवलिकाओं के समय परिमाण स्पर्द्धक होते हैं। इसप्रकार इन उनतीस प्रकृतियों के आवलिका के समय परिमाण स्पर्द्धक होते हैं। क्षीणमोह गुणस्थान में जिनका क्षय होता है, उन उदयवती प्रकृतियों के स्पर्द्धकों की संख्या क्षीणमोह गुणस्थान का जितना काल है, उससे एक अधिक संख्यातवें भाग के समतुल्य होती है और निद्रा तथा प्रचला के स्पर्द्धक उनसे भी एक न्यून होते हैं, क्योंकि निद्रा अनुदयवती प्रकृति है। उदयवती प्रकृतियों की स्वरूपसत्ता की अपेक्षा जितनी कालस्थिति शेष रहे, उसकी अपेक्षा से अनुदयवती प्रकृतियों की कालस्थिति एक समय न्यून होती है, इसीलिए उदयवती की अपेक्षा से उनमें एक स्पर्द्धक कम होता है। क्षीणकषाय गुणस्थान में जिन कर्मप्रकृतियों की सत्ता का क्षय होता हैं, उनके स्पर्द्धक गुणस्थान के संख्यातवें भाग के समतुल्य क्यों और कैसे होते है? क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती कोई क्षपितकाश आत्मा उस गुणस्थान का जितना काल है, उसका संख्यातवाँ भाग जाए और अन्तर्मुहूर्त परिमाण संख्यातवाँ एक भाग शेष रहे, तब ज्ञानावरणीय की पाँच, दर्शनावरणीय की चार और अन्तराय की पांच ऐसे चौदह प्रकृतियों की उस समय में सत्ता में जितनी भी स्थिति हो, उसे सर्व अपवर्तना से अपवर्तित करके अर्थात् कम करके क्षीणमोह गुणस्थान का जितना काल शेष हो उतनी करते हैं और निद्रा तथा प्रचला की एक समय हीन करते हैं। चूंकि वे दोनों प्रकृतियाँ अनुदयवती होने से चरम समय में स्वस्वरूप से उनके दलिक सत्ता में नहीं होते हैं, परंतु पररूप में होते हैं। इसीलिए उन दोनों की स्थितिसत्ता स्वरूप की अपेक्षा से एक समय न्यून करते हैं। जब सर्व अपवर्तना से अपवर्तित कर क्षीणकषाय गुणस्थान के संख्यातवाँ भाग परिमाण कालस्थिति शेष रहे, तब उन प्रकृतियों में स्थितिघात, रसघात आदि नही होता है और गुणश्रेणी प्रवर्तमान नही होती है। किसी भी कर्मप्रकृति में जब तक स्थितिघात आदि हो और गुणश्रेणी प्रवर्तमान हो, तब तक उस प्रकृति की सम्पूर्ण कालस्थिति का एक स्पर्द्धक होता है और स्थितिघात तथा गुणश्रेणी समाप्त हो जाने के बाद जितनी कालस्थिति सत्ता से शेष रहती है उस स्थिति का एक स्पर्द्धक, एक समय कम जितनी स्थिति रहे उसका एक स्पर्द्धक इसी प्रकार जैसे-जैसे समय कम होता जाए वैसे-वैसे जितनी-जितनी स्थिति शेष रहे उसका एक-एक स्पर्द्धक होता है। यावत् चरमसमय शेष रहे, तब उसका एक स्पर्द्धक होता है। क्षीणमोह गुणस्थान के काल का संख्यातवाँ भाग शेष रहे और स्थितिघात तथा गुणश्रेणी समाप्त हो जाए, तब ज्ञानावरणीय आदि चौदह प्रकृतियों के स्पर्द्धक होते हैं, किन्तु जहाँ स्थितिघातादि प्रवर्तमान है, क्षीणमोह गुणस्थान उस सम्पूर्ण स्थिति का एक स्पर्द्धक इसी तरह एक अधिक संख्यातवें भाग के समयों के समतुल्य ज्ञानावरणीयादि चौदह कर्मप्रकृतियों के स्पर्द्धक होते है, निद्राद्विक में एक कम होता है। यहाँ स्मरण रखने योग्य है कि उदयवती प्रकृतियों की अपेक्षा अनुदयवती प्रकृतियों का स्पर्द्धक एक कम ही होता है। इसप्रकार क्षीणमोह गुणस्थान के संख्यातवाँ भाग परिमाण स्पर्द्धक होते है। स्पर्द्धक कैसे होते हैं ? इसे स्पष्ट करते हुए बताया है कि क्षीणकषाय गुणस्थान के काल का संख्यातवाँ भाग व्यतीत हो जाने के बाद एक भाग शेष रहे, तब कर्मों की सत्तागत स्थिति को कम करके जो संख्यातवाँ भाग परिमाण रही थी, उसे भी यथासमय उदय-उदीरणा से क्रमशः क्षय करके एक भाग स्थिति शेष रहे, तब क्षपितकांश किसी आत्मा में कम से कम जो कर्मप्रदेशों की सत्ता होती है, उसे वह चरम समयाश्रित पहला प्रदेशसत्कर्मस्थान कहा जाता है। उसमें एक परमाणु का प्रक्षेप करने से दूसरा अर्थात् अन्तिम प्रदेशसत्कर्मस्थान से एक अधिक प्रदेश की सत्तावाला क्षपितकांश किसी आत्मा को जीव आश्रयी दूसरा प्रदेशसत्कर्म स्थान, इसी तरह एक-एक परमाणु प्रदेश की निरंतर वृद्धि करते हुए प्रदेशसत्कर्मस्थानों की वहाँ तक वृद्धि करना कि चरम स्थिति में रहे हुए गुणितकाश आत्मा के सर्वोत्कृष्ट प्रदेशों की संख्या का अन्तिम प्रदेशसत्कर्मस्थान हो। ऐसे अनन्त प्रदेशी सत्कर्मस्थानों के पिंडरूप चरमस्थिति स्थान आश्रयी एक स्पर्द्धक होता है। दो स्थिति शेष रहे तब पूर्वोक्त प्रकार का दूसरा स्पर्द्धक होता है। इसी तरह सर्व अपवर्तना से क्षीणकषाय गुणस्थान के काल के तुल्य सत्तागत स्थिति के जितने समय होते हैं, उतने स्पर्द्धक होते हैं। चरम स्थितिघात के चरम प्रक्षेप से आरंभ कर पश्चानुपूर्वी के अनुक्रम से बढ़ाते-बढ़ाते अपनी सर्वोत्कृष्ट प्रदेशसत्तावाला सम्पूर्ण स्थिति का एक स्पर्द्धक होता है। ज्ञानावरणीय की पाँचों Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय.......{313} उदयवर्ती प्रकृतियों के एक-एक स्पर्द्धकों की वृद्धि करने पर जितने स्पर्द्धक होते हैं, वे क्षीणकषाय गुणस्थान के संख्यातवें भाग के चरम समय के समतुल्य होते हैं, किन्तु निद्रा और प्रचला की क्षीणकषाय गुणस्थान के चरम समय में सत्ता नहीं होने से उनके स्पर्द्धक द्विचरम समय कम की स्थिति के होते हैं, इसीलिए चरम समय में स्पर्द्धक होते हैं। उससे निद्राद्विक के स्पर्द्धक अधिक होते हैं। इन ज्ञानावरण पंचक और निद्रादिक के कुल स्पर्द्धक क्षीणकषाय गुणस्थान के संख्यातवें भाग के समय परिमाण ही होते है। पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एकसौ पचहत्तरवी गाथा में कर्मों के स्पर्द्धकों की विवेचना की है। क्षीणमोह गुणस्थान में जिनकी सत्ता का व्यवच्छेद होता है, उन ज्ञानावरणीय की पाँच, दर्शनावरणीय की चार और अन्तराय की पाँच-ऐसी चौदह प्रकृतियों के कुल स्पर्द्धकों की संख्या क्षीणकषाय गुणस्थान के संख्यातवें भाग के समतुल्य होती हैं, परंतु एक स्पर्द्धक अधिक होता है। चरम स्थितिघात के चरम प्रक्षेप से आरंभ कर अपनी-अपनी उत्कष्ट प्रदेशसत्ता को लिए हए सम्पूर्ण कालस्थिति से एक स्पर्द्धक अधिक क्षीणकषाय गुणस्थान के संख्यातवें भाग के समयों के समतुल्य स्पर्द्धकों की संख्या होती है। निद्रा और प्रचला की क्षीणकषाय गुणस्थान के चरम समय में स्वरूप सत्ता नहीं होने से चरम समय सम्बन्धी एक स्पर्द्धक हीन निद्रा और प्रचला के स्पर्द्धक होते है अर्थात् ज्ञानावरणीयादि चौदह प्रकृतियों के जितने स्पर्द्धक होते हैं, उसमें एक हीन निद्राद्विक के स्पर्द्धक होते हैं। पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ छयोत्तरवी गाथा में चौदहवें गुणस्थान में स्पर्द्धकों की संख्या बताते हुए कहा है कि अयोगीकेवली गुणस्थान में जिन कर्मप्रकतियों की सत्ता होती है, वे इसप्रकार है - मनुष्यगति, मनुष्याय, पंचेन्द्रियजाति,त्रसनामकर्म, सुभगनामकर्म, आदेयनामकर्म, पर्याप्तनामकर्म, बादरनामकर्म, तीर्थंकरनामकर्म, यशःकीर्तिनामकर्म, एक वेदनीय और उच्चगोत्रये बारह उदयवती प्रकृतियों के कुल स्पर्द्धकों की संख्या अयोगीकेवली गुणस्थान के काल के जितने समय होते हैं, उससे एक स्पर्द्धक अधिक होता है। क्षपितकांश किसी आत्मा में अयोगीकेवली गुणस्थान के चरम समय में इन कर्मप्रकतियों के प्रदेशों की सर्वजघन्य सत्ता होती है, वह पहला प्रदेशसत्कर्मस्थान हआ। उसमें एक कर्म परमाण मिलाने से दूसरा प्रदेशसत्कर्मस्थान, दो परमाण मिलाने से तीसरा प्रदेशसत्कर्मस्थान. इसी क्रम में अयोगीकेवली गणस्थान के चरम समय में रहते हए अनेक जीवों की अपेक्षा से एक-एक परमाण मिलाते हए निरंतर प्रदेशसत्कर्मस्थानों की तब तक गणना करना चाहिए. जब तक कि उसी समय में रहते हए गणितकाश आत्मा को सर्वोत्कष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थान हो । इसीप्रकार चरम स्थिति आश्रयी एक स्पर्द्धक होते हैं । दो समय की स्थिति शेष रहे तब दो स्थिति का दूसरा स्पर्द्धक, तीन समय की स्थिति शेष रहे तब तीन स्थिति का तीसरा स्पर्द्धक होता है। ऐसे निरंतर अयोगीकेवली गणस्थान के पहले समय तक जानना चाहिए तथा सयोगीकेवली गणस्थान के चरम समय में होने वाले चरम स्थितिघात के चरम प्रक्षेप से आरंभ कर पश्चानुपूर्वी के अनुक्रम से बढ़ते निरंतर प्रदेशसत्कर्मस्थानों तक अपनी-अपनी उत्कृष्ट प्रदेशसत्ता होती है। सम्पूर्ण स्थिति सम्बन्धी यथासम्भव एक स्पर्द्धक होता है, इसीलिए एक स्पर्द्धक से अधिक अयोगीकेवली गुणस्थान के समय प्रमाण उदयवती प्रकृतियों के स्पर्द्धक होते हैं। अयोगीकेवली गुणस्थान में जिनकी सत्ता होती है, उन अनुदयवती प्रकृतियों के स्पर्द्धकों की संख्या उदयवर्ती प्रकृतियों से एक स्पर्द्धक न्यून होती है, क्योंकि अयोगीकेवली गुणस्थान के चरम समय में उन अनुदयवती प्रकृतियों की स्वरूपसत्ता नहीं होती है, इसीलिए चरमस्थिति सम्बन्धी एक स्पर्द्धक न्यून होता है। पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ सतहत्तरवी गाथा में बताया गया है कि ज्ञानावरणीय कर्म की पाँच प्रकृतियों के दलिकों के अन्तिम स्थितिखण्ड का क्षीणकषाय गुणस्थान में और अयोगीकेवली में जिन प्रकृतियों की सत्ता होती है, उन प्रकृतियों के दलिकों के अन्तिम स्थितिखण्ड का सयोगीकेवली गुणस्थान में स्थितिघातादि करते समय अन्य प्रकृतियों में प्रक्षेप होता है, उसमें अन्तिम स्थितिघात के चरम समय में सबसे अल्प जो चरम प्रक्षेप होता है, वहाँ से आरंभकर पश्चानुपूर्वी के अनुक्रम से बढ़ते अपनी-अपनी सर्वोत्कृष्ट प्रदेशसत्ता पर्यन्त जो प्रदेशसत्कर्मस्थान होते हैं, उन प्रदेशसत्कर्मस्थानों के समूह रूप सम्पूर्ण स्थिति का जो एक स्पर्द्धक होता है, वहीं एक स्पर्द्धक क्षीणकषाय गुणस्थान में जिनके क्षय होते हैं, उन कर्मप्रकृतियों में तथा अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव में जिन कर्मप्रकृतियों की सत्ता होती है, उन उदयवती प्रकृतियों में अधिक होती है। चरम स्थितिघात के चरम समय प्रक्षेप से आरंभ कर सम्पूर्ण स्थिति का जो स्पर्द्धक उदयवती कर्मप्रकृतियों में होता है, वह Jain Education Interational Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... पंचम अध्याय........{314) अनुदयवती कर्मप्रकृतियों में भी होता है, परंतु उदयवती से अनुदयवती कर्मप्रकृतियों में एक कम होता है। उदयवती कर्मप्रकृतियों के चरम समय में स्वस्वरूप दलिकों का ही अनुभव होता है, इसीलिए उनका चरमसमयाश्रित स्पर्द्धक होता है, परंतु अनुदयवती प्रकृतियों का उदयवती प्रकृतियों में स्तिबुक संक्रम से संक्रमण होने से चरम समय में उनके दलिकों का स्वस्वरूप में अनुभव नहीं होता है, इसीलिए उनमें चरमसमयाश्रित एक स्पर्द्धक नहीं होता है, इसी कारण अनुदयवती कर्मप्रकृतियों के स्पर्द्धकों की संख्या एक कम होती है। पंचसंग्रह के पंचम द्वार की गाथा क्रमांक-१७६ में यशःकीर्तिनामकर्म और संज्वलन लोभ के जघन्य स्पर्द्धको का विवेचन किया गया है। अभव्य प्रायोग्य कर्मो की जघन्य स्थिति की सत्तावाली कोई भव्य आत्मा त्रसकाय में उत्पन्न होकर, वहाँ चार बार मोहनीय कर्म का सर्वथा उपशम किए बिना, शेष काश की सत्ता का क्षय करने के लिए प्रयत्नपूर्वक कर्मपुद्गलों का अत्तिक मात्रा में क्षय करते हुए और दीर्घकाल तक संयम का पालन करते हुए मोहनीय कर्म का पूर्णतः क्षय करने के लिए क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ हो, उस क्षपितकाश आत्मा को अप्रमत्त गुणस्थान के चरम समय में जितने सत्तास्थान सत्ता में होते हैं, उन सभी स्थानो में जो कम से कम प्रदेशों की सत्तावाले होते हैं, उनके समूह का पहला जघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थान होता है, तत्पश्चात वहाँ से आरंभ कर भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा से एक-एक परमाणु की वृद्धि करते हुए, यथाप्रवृत्तकरण के चरम समय में निरन्तर प्रदेशसत्कर्मस्थान होते हैं । यावत् गुणितकाश आत्मा सर्वोत्कृष्ट, प्रदेशसत्कर्मस्थान वाली होती है । इन सभी प्रदेशसत्कर्मस्थानों के समूह रूप एक स्पर्द्धक संज्वलन लोभ और यशःकीर्तिनामकर्म- इन दो प्रकृतियों में उपशमश्रेणी नहीं करनेवाले जीवों को होता है। त्रस के उस भाव को उपशम श्रेणी के बिना कहा हैं। यदि उपशमश्रेणी करें, तो अन्य कर्मप्रकृतियों के दलिक अधिक मात्रा में गुणसंक्रमण के द्वारा उक्त दोनों प्रकृतियों में संक्रमण होते है, जिससे जघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थान सम्भव नहीं होता है, इसीलिए यह कहा गया है कि जघन्य प्रदेशवाला सत्कर्मस्थान, श्रेणी नहीं करनेवाले जीवों को होता है। विशिष्ट शब्दों के अर्थ : जिस आत्मा में कर्मप्रदेशों की सत्ता कम से कम होती है, वह आत्मा क्षपितकाश कहलाती है। जिस आत्मा में कर्मप्रदेशों की सत्ता अधिक से अधिक होती है, वह आत्मा गुणितकांश कहलाती है। लघुक्षपक का तात्पर्य यह है कि जो अत्यन्त अल्प समय में ही कर्मों का क्षय कर देता है। उदाहरण के तौर पर जो साधक आठ वर्ष की आयु में सर्वविरति को स्वीकार कर अन्तर्मुहूर्त में ही क्षपकश्रेणी से आरोहण कर केवलज्ञान को प्राप्त कर लेता है, वह लघुक्षपक कहलाता है । ऐसा साधक अल्प समय में हर उत्कृष्ट प्रदेशोदय के द्वारा कर्मों का शीघ्र क्षपण करता है, अतः लघुक्षपक कहलाता है। इसके विपरीत चिरक्षपक उसे कहते हैं, जो पूर्वकोटिवर्ष आयुष्यवाला साधक पर्याप्त समय के पश्चात् संयम को स्वीकार कर दीर्घकाल तक संयम का पालन करता हुआ, जब आयुष्य का अति अल्प काल शेष रहे, तब क्षपक श्रेणी को प्राप्त करे - ऐसा साधक चिरक्षपक कहलाता है, क्योंकि उसने चिरकाल तक साधना करके अपने कर्मों का क्षय किया है । पंचसंग्रह के कर्मप्रकृति नामक द्वितीय खण्ड में प्रतिपादित गुणस्थान-विचार : पंचसंग्रह के कम्मपयडी नामक द्वितीय खंड में कर्मप्रकृतियों के बन्धनकरण, संक्रमणकरण, उद्वर्तनाकरण, उदीरणाकरण, उपशमनाकरण-इन पांच करणों की चर्चा है। इसके द्वितीय संक्रमणकरण की गाथा क्रमांक तीन में यह बताया गया है कि सास्वादन एवं सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव दर्शनमोहनीय कर्म की तीनों उत्तरप्रकृतियों में से किसी भी प्रकृति का किसी प्रकृति में संक्रमण नहीं करते हैं। मिश्रमोहनीय के उदय में सम्यक्त्व मोहनीय का संक्रमण होता ही नहीं, अतः इन दोनों गुणस्थानवी जीव मोहनीयकर्म की किसी भी कर्मप्रकृति का संक्रमण करने में असमर्थ है। संक्रमणकरण की गाथा क्रमांक नौ में यह कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के अन्तिम चरण में तीन करण करते हुए तथा सम्यग्दृष्टि आदि अग्रिम गुणस्थानों में आठों ही कर्मों की . उत्तरप्रकृतियों के अपनी-अपनी योग्यता के अनुरूप अपने वर्ग की अन्य-अन्य उत्तर प्रकृतियों में संक्रमण की संभावना होती है। Jain Education Intemational Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{315} यहां विशेष रूप से यह ज्ञातव्य है कि सास्वादन नामक द्वितीय गुणस्थान में भी चाहे दर्शनमोह का संक्रमण न हो, किन्तु नीचगोत्र का उच्चगोत्र में संक्रमण सम्भव होता है। पंचसंग्रह के द्वितीय खंड के इस दूसरे संक्रमण करण में इस सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा की गई है कि किन-किन उत्तर कर्म प्रकृतियों का किन-किन उत्तर कर्मप्रकृतियों में किन-किन गुणस्थानों में संक्रमण सम्भव होता है और किन-किन उत्तर कर्म प्रकृतियों का संक्रमण नहीं होता है, इसकी विस्तार से चर्चा की गई है। इसके साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि किस गुणस्थानवी जीव कितनी उत्तर कर्मप्रकृतियों का किस क्रम से संक्रमण करते हैं। इस चर्चा में अग्रिम-अग्रिम गुणस्थानों में आरोहण करते समय और अग्रिम गुणस्थानों से पतित होते समय तत्वत् कर्मप्रकृतियों का जो संक्रमण होता है, उसकी भी अति विस्तार से चर्चा की गई है। साथ ही अष्टमूल कर्मप्रकृतियों को लेकर उनके संक्रमण स्थान की और पतद्ग्रहस्थान की भी चर्चा है, किन्तु विस्तार भय से यहां यह सम्पूर्ण चर्चा करना सम्भव नहीं है। मात्र इतना जान लेना ही पर्याप्त है कि पंचसंग्रह के इस द्वितीय खंड के संक्रमणकरण नाम विभाग में किस गुणस्थान में आरोहण करते समय और उससे पतित होते समय किन उत्तर कर्मप्रकृतियों का किन उत्तर कर्मप्रकृतियों में संक्रमण होता है, इसकी तथा उनके संक्रमण स्थानों पर पतद्ग्रह स्थानों की चर्चा है। पंचसंग्रह के द्वितीय खंड के उद्वर्तना और अपवर्तनाकरण नामक विभाग में किन कर्मप्रकृतियों का उद्वर्तन और अपवर्तन किस रूप में होता है, इसकी चर्चा है, किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ में इस चर्चा को गुणस्थानों में अवतरित नहीं किया गया है, अतः इस सम्बन्ध में यहाँ विशेष चर्चा आवश्यक प्रतीत नहीं होती है। __पंचसंग्रह के द्वितीयखंड अपवर्तना और उद्वर्तनाकरण के पश्चात् चतुर्थ उदीरणाकरण का क्रम आता है । सत्ता में रहे हुए कर्म दलिकों को वहाँ से खींचकर उदय में लाने की प्रक्रिया को उदीरणाकरण कहते हैं। इसमें सर्वप्रथम यह बताया गया है कि वेदनीय और मोहनीय कर्म की उदीरणा सादि, अनादि, अनन्त और सांत-ऐसे चार रूपों में होती है, जो मिथ्यात्व गुणास्थान से प्रारम्भ होकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती है । वेदनीय और मोहनीय के अतिरिक्त ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, नाम, गोत्र और अन्तराय-इन पांच मूल कर्मप्रकृतियों की उदीरणा अनादि, ध्रुव और अधुव - ऐसी तीन प्रकार से होती हैं । इनमें से ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तरायकर्म की उदीरणा क्षीणमोह गुणस्थान की चरम आवलिका के पूर्व तक होती है तथा नाम और गोत्र कर्म की उदीरणा सयोगीकेवली गुणस्थान के चरम समय तक होती है। भव्य और अभव्य दोनों की अपेक्षा से यह उदीरणा अनादि है, किन्तु भव्य जीवों में क्षपकश्रेणी से आरोहण की अपेक्षा से यह उदीरणा बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में समाप्त हो जाती है, अतः अनादि सांत है, किन्तु अभव्य जीवों की अपेक्षा से तो यह अनादि-अनन्त है। पंचसंग्रह के द्वितीयखंड के इस उदीरणाकरण में इस सामान्य चर्चा के पश्चात् मूल और उत्तरकर्मप्रकृतियों की उदीरणा कौन से और किस गुणस्थान में अवस्थित जीव करता है, इसकी विस्तृत चर्चा की गई है। इसमें कहा गया है कि चारों घातीकर्मों की कर्मप्रकृतियों की उदीरणा करनेवाले प्रथम गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थानवी जीव होते हैं। पुनः वेदनीय और आयुष्यइन दो अघातीकर्मों की उदीरणा मात्र प्रमत्तसंयत गणस्थान तक ही सम्भव होती है, क्योंकि प्रमत्तसंयत से आगे के गुणस्थानवी जीवों में ऐसे परिणाम नहीं होने से वे इनकी उदीरणा नहीं करते हैं, किन्तु नाम और गोत्र - इन दो अघाती कर्मों की उदीरणा सयोगीकेवली गुणस्थान तक के जीव करते हैं। इसके पश्चात् इस उदीरणाकरण में विभिन्न कायों और विभिन्न गतियों में रहे हुए किस गुणस्थानवी जीव किन उत्तरकर्मप्रकृतियों की उदीरणा करते हैं, इसकी विस्तार से चर्चा उपलब्ध होती है, जैसे हास्यादिषट्क के उदीरक अपूर्वकरण गुणस्थान तक के जीव होते हैं। आगे अधिक गहराई में जाते हुए यह भी बताया गया है कि उच्छ्वास एवं स्वर जैसी नामकर्म की कर्मप्रकृतियों के उदीरक प्रथम गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के जीव होते हैं। इसके पश्चात् कौन से गुणस्थानवी जीव किन कर्मप्रकृतियों के जघन्य अथवा उत्कृष्ट अनुभाग की उदीरणा करते है, इसकी भी विस्तृत चर्चा इस उदीरणाकरण नामक द्वार में उपलब्ध होती है, किन्तु पूर्व अध्यायों की विषयवस्तु के पिष्ट-पेषण एवं अधिक विस्तार के भय के कारण हम इस चर्चा को यहीं सीमित करना उचित समझते है। इस सन्दर्भ में विशेष जानकारी के लिए पंचसंग्रह के द्वितीय खण्ड के उदीरणाकरण और उसकी टीका को देखा जा सकता है । Jain Education Intemational * For Private & Personal use only www.jain Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{316} पंचसंग्रह के कम्मपयडी नामक द्वितीयखण्ड में उदीरणाकरण के पश्चात् उपशमनाकरण की चर्चा है। उपशमना का तात्पर्य सत्तागत कर्मप्रकृतियों के उदय को कुछ काल के लिए स्थगित कर देना है। संक्षेप में कर्मों के विपाक को स्थगित करने को उपशमनाकरण कहते हैं। उपशमनाकरण में सत्ता में रही हुई कर्मप्रकृतियों के उदय अर्थात् उनके विपाक को रोक दिया जाता है। उपशमना दो प्रकार की होती हैं -देश उपशमना और सर्व उपशमना। देश उपशमना तो कोई भी जीव कर सकता है, किन्तु सर्वउपशमना तो अपूर्वकरण करते समय ही सम्भव होती है। यह अपूर्वकरण प्रथम गुणस्थान से चौथे गुणस्थान में जाते समय अथवा सातवें गुणस्थान के अन्त में अनन्तानुबन्धी कषाय की विसंयोजना करते समय होता है। प्रथम गुणस्थान के अन्त में चतुर्थ गुणस्थान में आरोहण करते समय तथा सातवें के अन्त में जो अपूर्वकरण होता है, वह अपूर्वकरण गुणस्थान से भिन्न है। इस उपशमना के काल का अन्त अवश्य होता है और पूर्व में जिन कर्मप्रकृतियों का विपाक या उदय स्थगित किया गया था, वे पुनः उदय में अवश्य आती हैं, क्योंकि उदय में आए बिना उनका क्षय नहीं होता है। उपशम सम्यक्त्व का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छ: आवलिका काल शेष रहने पर अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से जीव सास्वादन गुणस्थान का स्पर्श करता है। ___पंचसंग्रह के द्वितीय खण्ड के उपशमनाकरण में यह बताया गया है कि मिथ्यात्वमोहनीय की विभिन्न कर्मप्रकृतियों का उपशम करते हुए जीव उपशान्तमोह गुणस्थान तक अपना आध्यात्मिक विकास कर सकता है, किन्तु यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि उपशमन के द्वारा जो व्यक्ति अपनी आध्यात्मिक विकास यात्रा को प्रारम्भ करता है, वह अवश्य ही पुनः पतित होता है। उपशमनाकरण के द्वारा आध्यात्मिक विकास यात्रा किस प्रकार होती है, इसकी विस्तृत चर्चा इस उपशमनाकरण में की गई है। इसमें बताया गया है कि कोई जीव उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करने के साथ ही देशविरति और सर्वविरति को भी प्राप्त कर लेता है। मात्र यही नहीं, सप्तम अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त करके आगे उपशमश्रेणी से आरोहण करते हुए वह उपशान्तमोह गुणस्थान तक की यात्रा पूर्ण कर लेता है। इन अवस्थाओं में किन-किन कर्मप्रकृतियों का किस-किस रूप से और किस क्रम से उपशमन होता है और उनका उपशमक या स्वामी कौन होता है, इसकी विस्तृत चर्चा इस उपशमनाकरण में की गई है। विस्तार भय से हम उनकी गहराईयों में जाना नहीं चाहते, फिर भी जो महत्वपूर्ण तथ्य इस उपशमनाकरण में है वे यह कि यदि व्यक्ति दर्शनसप्तक का क्षय करके और चारित्रमोह की उपशमना करते हुए आगे बढ़ता है तो वह अधिक से अधिक तीसरे या चौथे भव में मुक्ति को अवश्य प्राप्त कर लेता है। दर्शनमोहनीय का क्षय करके चारित्र मोहनीय की उपशमना किस-किस रूप में होती है, इसकी विस्तृत चर्चा उपशमनाकरण में उपलब्ध है। साथ ही उसमें यह भी बताया गया है कि अग्रिम अवस्थाओं से पा समय किन-किन कर्मप्रकृतियों में किस क्रम से उदय होता है। इस प्रकरण में यह भी कहा गया है कि एक भव में चारित्र कर्म का सर्वथा उपशम कोई भी व्यक्ति दो बार से अधिक नहीं करता है। जहाँ तक देश उपशम का प्रश्न है, उसके सम्बन्ध में यह कहा गया है कि देश उपशम केवल उत्तर कर्मप्रकृतियों का ही होता है। यह देश उपशमना भी चार प्रकार की होती है -प्रकृति देश उपशमना, स्थिति देश उपशमना, अनुभाग देश उपशमना, और प्रदेश देश उपशमना। गुणस्थान सिद्धान्त की अपेक्षा देशोपशमना प्रथम से लेकर आठवें गुणस्थान के चरम समय तक ही सम्भव होती है, किन्तु सर्वोपशमना तो ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थान तक होती है। अग्रिम तीन गुणस्थानों में उपशमना सम्भव नहीं होती है, क्योंकि ये तीन गुणस्थान अर्थात् क्षीणमोह, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थान केवल क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवाली आत्मा को ही प्राप्त है। पंचसंग्रह के सप्ततिका नामक तृतीयखण्ड में प्रतिपादित गुणस्थान सम्बन्धी विचार : पंचसंग्रह के तृतीय खण्ड, सप्ततिका के अन्तर्गत मूल और उत्तर कर्मप्रकृतियों के सादि-अनादि बन्धविधान का विवेचन किया गया है। जहाँ तक गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विवेचन का प्रश्न है, इस खण्ड की आठवीं गाथा में यह बताया गया है कि नारक और देव में चार गुणस्थान, तिर्यंच में पाँच गुणस्थान और मनुष्य में चौदह गुणस्थान सम्भव हैं । -बन्धविधान के विषय में चर्चा करते हुए पंचसंग्रह के तृतीयखण्ड के प्रारम्भ में यह बताया गया है कि अष्टकर्मों में ज्ञानावरणीय कर्म और अन्तराय कर्म इन दोनों के बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्तास्थान एक ही होते हैं, क्योंकि ज्ञानावरणीय Jain Education Interational Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... पंचम अध्याय........{317} कर्म की पाँचों प्रकृतियों का बन्ध भी एक साथ होता है, उदय भी एकसाथ होता है और सत्ता भी एक साथ होती है, उसके धस्थान, उदयस्थान और सत्तास्थान एक ही हैं। इसी प्रकार अन्तराय कर्म की पाँचों प्रकृतियों का बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्तास्थान एक ही है, क्योंकि इसकी भी पाँचों प्रकृतियों का बन्ध एक साथ ही होता है, उदय भी एक साथ रहता है तथा सत्ता भी एक साथ होती है। जहाँ तक वेदनीय, आयुष्य और गोत्र कर्म का प्रश्न है, उनका बन्धस्थान और उदयस्थान एक ही होते हैं, किन्तु सत्तास्थान दो होते हैं। सत्तास्थान दो होने का कारण यह है कि वेदनीय कर्म की दोनों ही कर्मप्रकृतियाँ अयोगीकेवली गुणस्थान के भी चरम समय तक सत्ता में रहती है। द्विचरम समय में एक का क्षय हो जाता है, अतः चरम समय में एक की सत्ता होती है। इस प्रकार इसके सत्तास्थान दो प्रकृतियों की एकसाथ सत्ता और एक प्रकृति की सत्ता - ऐसे दो स्थान होते हैं। आयुष्य कर्म के सम्बन्ध में, जब तक अग्रिम भव के आयुष्य का बन्ध नहीं होता है, तब तक एक ही आयुष्य कर्म की सत्ता होती है, किन्तु अगले भव के आयुष्य का बन्ध हो जाने पर इस भव के और अगले भव के आयुष्य का बन्ध हो जाने पर इस भव की और अगले भव की आयुष्य की एक साथ सत्ता और इसी भव की आयुष्य की सत्ता ऐसे आयुष्य कर्म के दो सत्तास्थान होते हैं। इसी प्रकार सामान्यतः गोत्रकर्म की दोनों प्रकृतियाँ एक साथ सत्ता में रहती हैं, किन्तु अयोगीकेवली गुणस्थान के द्विचरम समय में नीचगोत्र का क्षय हो जाता है, तब एक मात्र उच्चगोत्र की सत्ता रहती है। इस प्रकार गोत्रकर्म के भी सत्तास्थान दो माने गए हैं, किन्तु एक समय में एक ही प्रकृति का बन्ध होता है और एक ही प्रकृति का उदय रहता है, इसकी अपेक्षा बन्धस्थान और उदयस्थान एक-एक ही होते है। बन्धस्थान आदि के स्वरूप को समझने के लिए यह जान लेना आवश्यक है कि जितनी उत्तर कर्मप्रकृतियों का बन्ध, उदय और सत्ता एक साथ होती है, उनके बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्तास्थान एक होते हैं, किन्तु जिनकी बन्ध, उदय और सत्ता भिन्न-भिन्न रूप में होती है, उनके बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्तास्थान-दो, तीन, चार आदि अलग-अलग रहते है । पंचसंग्रह के सप्ततिका नामक तृतीय खण्ड में कर्मप्रकृतियों के विभिन्न गुणस्थानों में होनेवाले बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्तास्थान की चर्चा है। आगे दसवीं गाथा में दर्शनावरणीय कर्म के बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्तास्थान की चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि दर्शनावरणीय कर्म के नौ, छः और चार-ऐसे तीन बन्धस्थान होते है। मिथ्यादृष्टि और सास्वादन गुणस्थान में दर्शनावरणीय कर्म की नौ प्रकृतियों का एक साथ बन्ध होता है। इस प्रकार प्रथम और द्वितीय गुणस्थानवी जीवों में दर्शनावरणीय कर्म का एक बन्धस्थान होता है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान तक दर्शनावरणीय कर्म की, स्त्यानगृद्धित्रिक को छोड़कर, छः प्रकृतियों का बन्ध होता है, यह दूसरा बन्धस्थान है। अपूर्वकरण गुणस्थान के द्वितीय भाग से सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक स्त्यानगृद्धित्रिक तथा निद्राद्विक का अभाव होने से केवल चार प्रकृतियों का बन्ध होता है। यह दर्शनावरणीय कर्म का तीसरा बन्धस्थान है। सत्ता की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के प्रथम भाग तक दर्शनावरणीय कर्म की नौ प्रकृतियाँ सत्ता में होती है, किन्तु यह उल्लेख क्षपकश्रेणी की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि उपशमश्रेणी की अपेक्षा से तो उपशान्तमोह गुणस्थान तक दर्शनावरणीय कर्म की सभी नौ प्रकृतियों की सत्ता होती है। नौ गुणस्थान के द्वितीय भाग से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान के द्विचरमसमय तक दर्शनावरणीय की छः प्रकृतियों की सत्ता रहती है। क्षीणमोह गुणस्थान के अन्तिम भाग के पूर्व तक दर्शनावरणीय कर्म की चार प्रकृतियों की सत्ता होती है, अतः दर्शनावरणीय कर्म के सत्तास्थान भी तीन है, किन्तु क्षीणमोह गुणस्थान के चरमसमय में उनका भी क्षय हो जाने से दर्शनावरणीय कर्म की कोई भी प्रकृति सत्ता में नहीं रहती है। उदय की अपेक्षा से प्रथम गुणस्थान से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक दर्शनावरणीय कर्म की नौ प्रकृतियों का उदय होता है। अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान के द्विचरम समय तक दर्शनावरणीय कर्म की छ: प्रकृतियों का उदय रहता है। इसके पश्चात् क्षीणमोह गुणस्थान के चरमसमय तक दर्शनावरणीय कर्म की चार प्रकृतियों का उदय रहता है, अतः दर्शनावरणीय कर्म के उदयस्थान भी तीन हैं । आगे सयोगीकेवली गुणस्थान में उनका क्षय हो जाता है। इस प्रकार पंचसंग्रह के सप्ततिका नामक तृतीय खण्ड में बन्ध, सत्ता और उदयस्थान सम्बन्धी संवेध विकल्पों की विस्तृत चर्चा है। विस्तार भय से हम उस चर्चा में जाना नहीं चाहते। इस ग्रन्थ में निम्न क्रम से आठों कर्मप्रकृतियों के बन्ध, सत्ता और Jain Education Intemational Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा... पंचम अध्याय........{318} उदय सम्बन्धी संवेध की चर्चा है। सर्वप्रथम ज्ञानावरणीय कर्म के बन्ध, सत्ता और उदय सम्बन्धी स्थान का विचार किया गया है। इसके पश्चात् आयुष्य कर्म के बन्ध, सत्ता और उदय स्थानों का उल्लेख है। इसके पश्चात् दर्शनावरणीय कर्म के बन्ध, सत्ता और उदय स्थानों का विचार किया गया है। दर्शनावरणीय के पश्चात् गोत्रकर्म के बन्ध, सत्ता और उदय स्थानों का उल्लेख है। उसके पश्चात् वेदनीयकर्म के बन्ध, सत्ता और उदय स्थानों का विचार किया गया है। इसके पश्चात् मोहनीयकर्म तथा अन्त में नामकर्म के बन्ध, सत्ता और उदय सम्बन्धी स्थानों के संवेध का विवेचन किया गया है। इस समस्त चर्चा में गुणस्थान सम्बन्धी विचार को लक्ष्य में रखा गया है और उसी अपेक्षा से यह चर्चा हुई है। इस विवेचन में बन्धस्थान, सत्तास्थान और उदयस्थानों का जो उल्लेख है, उसका तात्पर्य यही है कि किसी भी कर्म की जितनी कर्मप्रकृतियाँ एक साथ बन्ध, सत्ता और उदय में रहती हैं; उसको एक बन्धस्थान, एक सत्तास्थान और एक उदयस्थान कहते हैं। जैसे- दर्शनावरणीय कर्म की नौ प्रकृतियों में से एक साथ नौ, छ: और चार का बन्ध, उदय या सत्ता रहती है, अतः उसके तीन बन्धस्थान, तीन उदयस्थान और तीन सत्तास्थान होते हैं- ऐसा सभी कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय आदि स्थान को भी समझना चाहिए। स्थानों की अपेक्षा से यह चर्चा पंचसंग्रह के सप्ततिका नामक तृतीय खण्ड में विशेष रूप से मिलती है। विस्तार भय से सम्पूर्ण चर्चा प्रस्तुत नहीं कर पा रहे है। यहाँ केवल इस तृतीय खण्ड के वैशिष्ट्य का ही संकेत किया है। त्र प्राचीन कर्मग्रन्थ और गुणस्थान जहाँ तक श्वेताम्बर कर्मसाहित्य का प्रश्न है, कर्मप्रकृति और पंचसंग्रह के पश्चात् प्राचीन षट् कर्मग्रन्थों का उल्लेख उपलब्ध होता है । इन प्राचीन षट्कर्मग्रन्थों में कालक्रम की दृष्टि से शतक और सप्ततिका प्राचीन है । शतक अथवा बन्धशतक शिवशर्मसूरि की ही कृति मानी जाती है । इस कर्मग्रन्थ में १०० गाथाएं हैं । इस कर्मग्रन्थ पर तीन भाष्य, एक चूर्णि और तीन टीकाएं उपलब्ध होती हैं । भाष्यों में दो भाष्य तो अत्यन्त संक्षिप्त, मात्र २४-२४ गाथाओं के है । इनके कर्ता अज्ञात हैं। तृतीय भाष्य चकेरश्वरजी का है जो १४-१३ गाथाओं में लिखा गया है । चूर्णि के कर्ता अज्ञान है । तीन टीकाओं कर्ता मलधार श्री हेमचन्द्राचार्यजी है, दूसरी टीका के कर्ता श्री उदयप्रभसूरिजी है और तीसरी टीका के कर्ता श्री गुणरत्नसूरिजी है । ये तीन टीकाएं अनुक्रम से विक्रम की बारहवीं, तेरहवीं और पन्द्रहवीं सदी में लिखी गई हैं । इस ग्रन्थ में गुणस्थान सम्बन्धी निम्न उल्लेख मिलते हैं - शतक नामक इस प्राचीन कर्मग्रन्थ की नवीं गाथा में संयम मार्गणा के सम्बन्ध में यह बताया गया है कि चौदह गुणस्थानों में असंयत में पांच गुणस्थान, संयत में नौ गुणस्थान, सम्भव होते हैं । देशविरत भी आंशिक रूप से असंयत ही होता है । इसकी गणना असंयत में ही की गई है । दसवीं गाथा में गतिमार्गणा के प्रसंग में यह कहा गया है कि देव और नारकों में चार गुणस्थान तिर्यंचों में पांच गुणस्थान, मनुष्यों में चौदह गुणस्थान सम्भव है । उदीरणा सम्बन्धी चर्चा में यह बताया गया है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर प्रमत्तंसयत गुणस्थान तक उदय और उदीरणा में समरूपता होती है। आगे के गुणस्थानों में उदय और उदीरणा में अन्तर होता है । अयोगीकेवली में कोई उदीरणा नहीं होती है । यहाँ गाथा क्रमांक २६ से लेकर ३३ तक किस गुणस्थानवर्ती जीव किन कर्मों की उदीरणा करता है, उसका भी उल्लेख है । इसके पश्चात् गाथा क्रमांक ४३ से लेकर ४६ तक बन्ध सम्बन्धी चर्चा उपलब्ध होती है । किस गुणस्थानवी जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है, यह बताया गया है। इस सम्बन्ध में आगे नवीन कर्मग्रन्थों के सन्दर्भ के विस्तार में चर्चा की गई है । यहाँ हम केवल संकेत मात्र दे रहे हैं । इसी क्रम में इसकी ५६ वीं गाथा में आयुष्य बन्ध की चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि अविरतसम्यग्दृष्टि, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत आदि कितनी स्थिति के आयुष्य का बन्ध करते हैं । शतक नामक इस मूल ग्रन्थ में हमें गुणस्थान सम्बन्धी अधिक चर्चा उपलब्ध नहीं होती है, किन्तु इसकी टीका में मलधार गच्छीय हेमचन्द्राचार्यजी ने विस्तार से गुणस्थानों की चर्चा की है। कालक्रम की दृष्टि से प्राचीन कर्मग्रन्थों में दूसरा स्थान सप्ततिका का है । इस ग्रन्थ के कर्ता के सन्दर्भ में विद्वान है। कोई इसे शिवशर्मसूरि की रचना मानते हैं, तो कोई चन्द्रर्षि महत्तर की रचना मानते हैं । इस ग्रन्थ में ७० गाथाएं हैं, जिससे Jain Education Intemational Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... I पंचम अध्याय.......{319} इसका नाम सप्ततिका है । इस ग्रन्थ के कठिन विषय को सरल बनाने के लिए इस पर रचित भाष्य में से कुछ गाथाएं प्रक्षिप्त की गई हैं, जिससे वर्तमान में ६१ गाथाएं दृष्टिगत होती है । इस ग्रन्थ पर अभयदेवसूरि ने १६१ गाथावाला भाष्य बनाया है । चूर्णि के कर्ता अज्ञात है । चन्द्रर्षि महत्तर कृत प्राकृत वृत्ति है और मलयगिरिजी कृत संस्कृत टीका है तथा मेरूतुंगाचार्य की विक्रम संवत् १४४६ में रचित भाष्यवृत्ति है । श्री गुणरत्नसूरिजी की विक्रम की १५ वीं सदी में रचित अवचूरि भी है । जहाँ तक सप्ततिका के विषय का प्रश्न है, इसमें अष्ट मूल प्रकृतियों और उनकी उत्तर प्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता आदि की चर्चा के साथ-साथ गुणस्थानों की भी चर्चा उपलब्ध होती है। इसमें यह स्पष्ट रूप से बताया गया है कि किस गुणस्थान में किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है । सप्ततिका प्राचीन और नवीन दोनों कर्मग्रन्थों में समान है । अतः इससे गुणस्थान सम्बन्धी जो विवेचना उपलब्ध होती है, वह नवीन कर्मग्रन्थों के प्रसंग में की है । देवेन्द्रसूरि ने पांच ही कर्मग्रन्थ लिखे थे । सप्ततिका तो दोनों में समान ही है ! 1 प्राचीन कर्मग्रन्थों में तीसरा स्थान कर्मस्तव का है । कर्मस्तव के कर्ता का नाम अनुपलब्ध है । इसमें ५७ गाथाएं है । इस पर अज्ञात लेखकों के दो भाष्य, दो संस्कृत टीकाएं तथा तेरहवीं शताब्दी की वृत्ति और टिप्पण उपलब्ध होते हैं । टीकाओं के कर्ता क्रमशः गोविन्दाचार्य और उदयप्रभसूरिजी है । इस द्वितीय कर्मग्रन्थ का 'बन्धोदय सद् युक्त स्तव' - ऐसा दूसरा नाम भी है । प्रयत्न करने पर भी हमें यह कृति उपलब्ध नहीं हो सकी । विषय वस्तु की दृष्टि से यह माना जाता है कि नवीन कर्मस्तव और प्राचीन कर्मस्तव की विषय वस्तु समान है । अतः यह मानकर कि इसमें गुणस्थान सम्बन्धी जो विवरण है वह नवीन कर्मस्तव के समान ही होगा । यहाँ हम इस सम्बन्ध में विशेष चर्चा नहीं कर रहे हैं । इसकी गुणस्थान सम्बन्धी विषय वस्तु को नवीन देवेन्द्रसूरिकृत कर्मस्तव में देखा जा सकता है । कालक्रम की दृष्टि से प्राचीन कर्मग्रन्थों में चतुर्थ स्थान बन्धस्वामित्व का है । इसके कर्ता भी अज्ञात है । इस ग्रन्थ पर एक संस्कृत टीका है । इस टीका के कर्ता बृहद्गच्छीय श्री मानदेवसूरिजी के शिष्य हरिभद्रसूरि है, जो याकिनीमहत्तरासुनू हरिभद्र से भिन्न है । इस टीका की रचना विक्रम संवत् ११७२ में अर्थात् विक्रम की बारहवीं शताब्दी में हुई है । यह ग्रन्थ भी हमें उपलब्ध नहीं हो सका है, अतः इस सम्बन्ध में विशेष कुछ कह पाना सम्भव नही है । प्राचीन कर्मग्रन्थों में कालक्रम की दृष्टि से पांचवाँ स्थान कर्मविपाक है। इसमें १६८ गाथाएं हैं । इसके रचनाकार गर्गर्षि है । इनका काल नवीं दसवीं शताब्दी है । उदित कर्मों के फल का वर्णन होने से इस ग्रन्थ का नाम कर्मविपाक है । कर्मविपाक पर बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में लिखी हुई परमानंदसूरिजी कृत टीका और उदयप्रभसूरिजी कृत टिप्पण है । जहाँ तक प्राचीन कर्मविपाक नामक कर्मग्रन्थ की विषय वस्तु का प्रश्न है, यह मुख्यतया कर्मप्रकृतियों के विपाक की ही चर्चा करता है । यह कृति भी हमें उपलब्ध नहीं हो सकी है। नवीन कर्मग्रन्थों में कर्मविपाक का स्थान प्रथम है । उसमें भी गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा उपलब्ध नहीं होती है । अतः कृति की अनुपलब्धता और नवीन कर्मविपाक नामक ग्रन्थ से उसकी समरूपता ध्यान में रखकर यह माना जा सकता है कि इसमें गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा का अभाव ही होगा । यहाँ यह अवश्य ज्ञातव्य है कि नवीन कर्मविपाक नामक कर्मग्रन्थ में मात्र ६१ गाथाएं हैं, वहीं इसमें १६८ गाथाएं है । अतः यह तो मानना ही होगा कि नवीन कर्मविपाक नामक कर्मग्रन्थ की अपेक्षा प्राचीन कर्मविपाक नामक कर्मग्रन्थ में कर्मप्रकृतियों की चर्चा अधिक विस्तार से होगी । प्राचीन षट् कर्मग्रन्थों में षडशीति छठा कर्मग्रन्थ है । इसके कर्ता जिनेश्वरसूरि के शिष्य जिनवल्लभगणि है । जिनका काल विक्रम की बारहवीं शताब्दी है । इसमें ८६ गाथाएं हैं । इसकी संख्या के आधार पर इसका नाम षडशीति रखा गया है । इस पर अज्ञातकृत दो संक्षिप्त भाष्य, जिनमें अनुक्रम से २३ और ३८ गाथाएं है तथा तीन संस्कृत टीकाएं हैं - एक बृहद्गच्छीय हरिभद्रसूरि कृत, दूसरी मलयगिरिजी कृत तथा तीसरी यशोभद्रसूरि कृत; ये टीकाएं विक्रम की बारहवीं शताब्दी में लिखी गई हैं। जिनवल्लभगणि का स्वर्गवास विक्रम संवत् ११६७ में हुआ । प्राचीन कर्मग्रन्थों में षडशीति छठा कर्मग्रन्थ माना गया है, जबकि नवीन कर्मग्रन्थों में षडशीति का चतुर्थ स्थान है । यह Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में पंचम अध्याय.......{320} ग्रन्थ हमें प्रयत्न करने पर भी उपलब्ध नहीं हो सका है, किन्तु विद्वानों की सूचना के अनुसार प्राचीन षडशीति और नवीन षडशीति में न केवल गाथाओं का साम्य है, अपितु विषय वस्तु का भी साम्य है । अतः प्राचीन षडशीति में गुणस्थान सम्बन्धी जो विवेचन सम्भव होगा, उसे देवेन्द्रसूरि कृत नवीन षडशीति नामक चतुर्थ कर्मग्रन्थ के प्रसंग में ही समझा जा सकता है । अतः यहाँ स्वतन्त्र रूप से उसकी चर्चा न करके नवीन षडशीति कर्मग्रन्थ के प्रसंग में ही इसके गुणस्थान सम्बन्धी विवरण को देखने का अनुरोध करते हैं । सार्ध शतक : जैन कर्म साहित्य के सम्बन्ध में एक अन्य महत्वपूर्ण कृति अभयदेवसूरि के शिष्य जिनवल्लभगणि की है । यह कृति इसकी गाथा संख्या के आधार पर सार्धशतक के नाम से जानी जाती है । इसमें १५५ गाथाओं में कर्म सम्बन्धी विवरण है । यह कृति लगभग ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध या बारहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध की होना चाहिए, क्योंकि इस पर अज्ञातकृत भाष्य मुनिसुदंरसूरि कृत चूर्णि, चक्रेश्वरसूरि कृत प्राकृत वृत्ति, धनेश्वरसूरि कृत टीका एवं अज्ञानकृत टिप्पण उपलब्ध है | चूर्णि और टीका विक्रम संवत् ११७०-११७१ में लिखी गई है। इससे यह सिद्ध होता है कि मूल कृति कम से कम ग्यारहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण या बारहवीं शताब्दी के प्रथम चरण में लिखी गई है । इस ग्रन्थ की विषय वस्तु कर्मो की मूल एवं उत्तर प्रकृतियों के बन्ध, उदय आदि से सम्बन्धित है । मूल ग्रन्थ अनुपलब्ध होने से यह बता पाना कठिन है कि इसमें गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा क रूप में उपलब्ध है । 'गुणस्थान की अवधारणा........ नवीन पंच कर्मग्रन्थ और गुणस्थान सिद्धान्त श्वेताम्बर परम्परा में कर्म सिद्धान्त के अध्ययन की दृष्टि से जो ग्रन्थ सर्वाधिक प्रचलित है, वे नव्य कर्मग्रन्थों के रूप में जाने जाते हैं । नव्य कर्मग्रन्थ पांच हैं । इनके लेखक तपागच्छ के संस्थापक जगच्चंद्रसूरि के शिष्य देवेन्द्रसूरि हैं । देवेन्द्रसूरि का काल विक्रम की तेरहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और चौदहवीं शताब्दी का पूवार्द्ध माना जाता है । इनका स्वर्गवास विक्रम संवत् १३२७ तदनुसार ईस्वी सन् १२७० में हुआ था । देवेन्द्रसूरि जैनदर्शन के, विशेषरूप से कर्म सिद्धान्त के, गहन अध्येता थे । इन्होंने प्राचीन षट्कर्मग्रन्थों के आधार पर पांच कर्मग्रन्थों की न केवल रचना की, अपितु उन पर स्वोपज्ञ टीका भी लिखी । इन्होंने अपने नवीन पंच कर्मग्रन्थों के नाम भी वही रखे हैं । इनके द्वारा रचित पंच कर्मग्रन्थ हैं - (१) कर्मविपाक (२) कर्मस्तव ) बन्धस्वामित्व ( ४ ) षडशीति और (५) शतक । ये नव्य कर्मग्रन्थ भी प्राकृत भाषा एवं आर्या छन्द में रचित हैं । इन नव्य कर्मग्रन्थों में गुणस्थान सिद्धान्त का प्रतिपादन किस रूप में हुआ है, इसकी विस्तृत चर्चा करने से पूर्व एक सामान्य दृष्टि से अवलोकन कर लेना आवश्यक है । नव्य पंच कर्मग्रन्थों में प्रथम कर्मग्रन्थ कर्मविपाक है । इसमें कर्मों की मूल और उत्तर प्रकृतियों की विस्तार से चर्चा की गई है । इस प्रथम कर्मग्रन्थ में गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा परिलक्षित नहीं होती है । गुणस्थान सम्बन्धी विशिष्ट चर्चा कर्मस्तव नाम के द्वितीय कर्मग्रन्थ में मिलती है । इस ग्रन्थ में मात्र ३४ गाथाएं हैं, फिर भी इस ग्रन्थ में किस गुणस्थान में कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है, कितनी कर्मप्रकृतियों का उदय रहता है, कितनी कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव होती है तथा कितनी कर्मप्रकृतियाँ सत्ता में रहती हैं, इसकी सुव्यवस्थित चर्चा मिलती है । इसप्रकार गुणस्थान सिद्धान्त की अपेक्षा से यह द्वितीय कर्मग्रन्थ अत्यन्त महत्वपूर्ण है । इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा हम आगे करेंगे | तृतीय कर्मग्रन्थ बन्धस्वामित्व है । इसमें मार्गणास्थान और गुणस्थान दोनों की दृष्टि से कर्मबन्ध की चर्चा की गई है । जहाँ मार्गणास्थानों में जीवों के शारीरिक और ऐन्द्रिक विकास की चर्चा की जाती है, वहीं गुणस्थानों में कर्मों के क्षय-उपशम के आधार पर आध्यात्मिक विकास की चर्चा की जाती है । इस ग्रन्थ का वैशिष्ट्य यह है कि इसमें पहले विभिन्न मार्गणाओं में Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{321} गुणस्थानों को अवतरित किया गया है और फिर उस अवस्था में किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध सम्भव होता है, इसका निर्देश किया गया है । वस्तुतः यह ग्रन्थ मार्गणास्थानों में गुणस्थानों का किस प्रकार अन्तर्भाव होता है, अर्थात् किस मार्गणा में कितने गुणस्थान होते हैं, इसकी विस्तृत चर्चा करता है । इसप्रकार तृतीय कर्मबन्ध का सम्बन्ध मार्गणाओं और गुणस्थानों के सहसम्बन्ध को लेकर है । कौन-सी मार्गणा में और कौन-से गुणस्थान में रहा हुआ जीव, किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध कर सकता है, इसकी विस्तृत चर्चा इसमें उल्लेखित है । इसका बन्धस्वामित्व नाम भी यही सूचित करता है कि किन कर्मप्रकृतियों के बन्ध की योग्यता किस मार्गणा में और किस गुणस्थान में रहे हुए जीव को होती है, अर्थात् उनके बन्ध का स्वामी कौन जीव है।' नव्य चतुर्थ कर्मग्रन्थ का नाम षडशीति है । इसका यह नामकरण इसकी गाथा संख्या के आधार पर हुआ है । इसमें ८६ गाथाएँ है । इसका अन्य नाम सूक्ष्मार्थविचार भी है । इसमें मूलतः जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थानों की चर्चा है । इसमें सर्वप्रथम गुणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या, बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता-इन आठ द्वारों की अपेक्षा से जीवस्थानों की चर्चा है। इसी क्रम में आगे जीवस्थान, गुणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या और अल्प बहुत्व - इन छः द्वारों के आधार पर मार्गणास्थानों की चर्चा की गई है और अन्त में गुणस्थान सम्बन्धी विचारणा में जीवस्थान, गुणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या, बन्धहेतु, बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता और अल्प-बहुत्व-इन दस विषयों को लेकर चर्चा की गई है । इस प्रकार हम देखते हैं कि षडशीति में जीवस्थानों और मार्गणास्थानों में जहाँ गुणस्थानों को घटित किया गया है, वहीं गुणस्थानों में जीवस्थानों को घटित किया गया है । इस प्रकार गुणस्थान सिद्धान्त की दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । षडशीति में जीवस्थान और मार्गणास्थानों में गुणस्थानों का और गुणस्थानों में जीवस्थानों और मार्गणाओं का जो अन्तर्भाव किया गया है, वह बहुत कुछ रूप में पूज्यपाद देवनन्दी की सवार्थसिद्धि टीका के समरूप ही है । इसकी तीसरी गाथा में चौदह जीवस्थानों में, किस जीवस्थान में कौन-कौन से गुणस्थान सम्भव होते हैं, इसकी चर्चा है । इसके पश्चात् इसकी गाथा संख्या-१६ से लेकर-२३ तक में बासठ मार्गणाओं में, किस मार्गणा में कितने गुणस्थान सम्भव होते है, इसकी चर्चा है । गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा में सर्वप्रथम गाथा क्रमांक ४५ में यह बताया गया है कि किस गुणस्थान में कितने जीवस्थान होते है, इसका विवेचन है । इसके पश्चात् योग, उपयोग, लेश्या, बन्धहेतु, बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा और अल्प-बहुत्व की दृष्टि से चौदह गुणस्थानों की चर्चा हुई है । इसप्रकार षडशीति नामक चतुर्थ कर्मग्रन्थ में गुणस्थान सन्बन्धी विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है । इस पर हम आगे विस्तार से चर्चा करेंगे। नवीन पंचम कर्मग्रन्थ का नाम शतक है, क्योंकि इसमें १०० गाथाएँ है । गुणस्थान सिद्धान्त की दृष्टि से यह पंचम कर्मग्रन्थ विशेष महत्वपूर्ण नहीं माना जाता है, क्योंकि इसमें गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा अल्प रूप में ही देखी जाती है । इस कर्मग्रन्थ की विषयवस्तु भी प्रथम कर्मग्रन्थ वर्णित कर्मप्रकृतियों से सम्बन्धित है। विशेषता यह है कि इसमें इन बातों पर विस्तार से चर्चा की गई है कि कौन-सी कर्मप्रकृतियाँ ध्रुवबन्धवाली हैं और कौन-सी कर्मप्रकृतियाँ अध्रुवबन्धवाली हैं, किन कर्मप्रकृतियों का धुवोदय रहता है और किन कर्मप्रकृतियों का अध्रुवोदय रहता है । इसी क्रम में आगे धुवसत्तावाली और अधुवसत्तावाली कर्मप्रकृतियों की चर्चा है । इसी क्रम में आगे देशघाती, सर्वघाती, अघाती कर्मप्रकृतियों का वर्गीकरण प्रस्तुत किया गया है। पुनः इन कर्मप्रकृतियों में कौन-सी कर्मप्रकृतियाँ पुण्य की है और कौन-सी कर्मप्रकृतियाँ पाप की है, कौन-सी कर्मप्रकृतियाँ क्षेत्रविपाकी, कौन-सी कर्मप्रकृतियाँ जीवविपाकी, कौन-सी कर्मप्रकृतियाँ भवविपाकी और कौन-सी कर्मप्रकृतियाँ पुद्गलविपाकी हैं, इसका इस ग्रन्थ में सविस्तार विवेचन है । पुनः कर्मप्रकृतियों के प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध-इन चार प्रकार के बन्ध की भी विस्तृत विवेचना इस पंचम कर्मग्रन्थ में मिलती है । जहाँ तक गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा का प्रश्न है, इसकी गाथा क्रमांक १०-११-१२ में किस गुणस्थान में किन कर्मप्रकृतियों की ध्रुवसत्ता होती है, इसकी चर्चा है । इसीप्रकार इसकी गाथा क्रमांक-४ से लेकर-८ तक किन गुणस्थान में किन कर्मप्रकृतियों की धुवसत्ता अथवा धुवोदय अथवा अधुवोदय आदि होते हैं, इसकी चर्चा है। इसीप्रकार इस कर्मग्रन्थ में गुणस्थान की आधारभूत गुणश्रेणियों की भी चर्चा पाई जाती है । गुणश्रेणियों की इस चर्चा में विशेषरूप से उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी की चर्चा भी इस कर्मग्रन्थ के अन्तिम भाग में की गई है । उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी Jain Education Intemational Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{322} की चर्चा भी गुणस्थान की अवधारणा से सम्बन्धित है, क्योंकि गुणस्थान सम्बन्धी विकास यात्रा इन दोनों श्रेणियों के माध्यम से ही होती है । इस कर्मग्रन्थ में गुणस्थान सम्बन्धी जो महत्वपूर्ण सूचना उपलब्ध होती है, वह यह कि किस गुणस्थान का परित्याग करके कालान्तर में उसकी पुनः प्राप्ति में जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल कितना होता है । यह चर्चा पंचम कर्मग्रन्थ की गाथा क्रमांक-८४ में की गई है। देवेन्द्रसूरि कृत नवीन कर्मग्रन्थ पांच ही हैं । छठे कर्मग्रन्थ के रूप में चन्द्रर्षिमहत्तर कृत सप्ततिका को यथावत् स्वीकार किया गया है । सप्ततिका के सन्दर्भ में विशेष चर्चा हमने प्राचीन षट् कर्मग्रन्थों के सन्दर्भ में की है । अतः यहाँ उसकी चर्चा करना आवश्यक नहीं है। कर्मविपाक नामक प्रथम कर्मग्रन्थ में वर्णित कर्मप्रकृतियाँ : जैन कर्म साहित्य गुणस्थान सिद्धान्त की विवेचना की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है । गुणस्थानों की अवधारणा का आधार वस्तुतः कर्मप्रकृतियों के बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा, उपशम एवं क्षय से है । अतः गुणस्थान सिद्धान्त को समझने के लिए कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय आदि को समझना बहुत आवश्यक है । कर्मप्रकृतियों की सम्यक् समझ के बिना गुणस्थान सिद्धान्त को नहीं समझा जा सकता । विभिन्न गुणस्थानों के सम्यक् स्वरूप को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि उनमें कौन-कौन सी कर्मप्रकृतियों का बन्ध या बन्ध विच्छेद सम्भव होता है, कौन-कौन सी कर्मप्रकृतियों की सत्ता रहती है, किन कर्मप्रकृतियों का उदय एवं उदीरणा होती है और किनका क्षय एवं उपशम होता है । अतः कर्मप्रकृतियों के स्वरूप पश्चात् ही हम गुणस्थानों के स्वरूप को सम्यक् प्रकार से समझ सकेंगे । यही कारण रहा होगा कि कर्म साहित्य में नवीन एवं प्राचीन कर्मग्रन्थों में सर्वप्रथम कर्मप्रकृतियों की चर्चा की गई है । कर्मविपाक नामक प्रथम कर्मग्रन्थ में मूल आठ कर्मों की, १५८ कर्मप्रकृतियों का उल्लेख हुआ है। इन १५८ कर्मप्रकृतियों में बन्ध योग्य १२० कर्मप्रकृतियाँ हैं, उदय तथा उदीरणा योग्य १२२ कर्मप्रकृतियाँ तथा सत्ता योग्य १४८ या १५८ कर्मप्रकृतियाँ हैं। ये १५८ कर्मप्रकृतियाँ निम्न हैं - (१) ज्ञानावरणीय कर्म की पांच कर्मप्रकृतियाँ -(१) मतिज्ञानावरणीय (२) श्रुतज्ञानावरणीय (३) अवधिज्ञानावरणीय (४) मनःपर्यवज्ञानावरणीय (५) केवलज्ञानावरणीय । (२) दर्शनावरणीय कर्म की नौ कर्मप्रकृतियाँ -(१) चक्षुदर्शनावरणीय (२) अचक्षुदर्शनावरणीय (३) अवधिदर्शनावरणीय (४) केवलदर्शनावरणीय (५) निद्रा (६) निद्रा-निद्रा (७) प्रचला (८) प्रचला-प्रचला (E) स्त्यानर्द्धि । (३) वेदनीय कर्म की दो कर्मप्रकृतियाँ - (१) शातावेदनीय (२) अशातावेदनीय (४) मोहनीय कर्म की अट्ठाईस कर्मप्रकृतियाँ - (१) मिथ्यात्वमोहनीय (२) मिश्रमोहनीय (३) सम्यक्त्व मोहनीय (४) अनन्तानुबन्धी क्रोध (५) अनन्तानुबन्धी मान (६) अनन्तानुबन्धी माया (७) अनन्तानुबन्धी लोभ (८) अप्रत्याख्यानीय क्रोध (E) अप्रत्याख्यानीय मान (१०) अप्रत्याख्यानीय माया (११) अप्रत्याख्यानीय लोभ (१२) प्रत्याख्यानीय क्रोध (१३) प्रत्याख्यानीय मान (१४) प्रत्याख्यानीय माया (१५) प्रत्याख्यानीय लोभ (१६) संज्वलन क्रोध (१७) संज्वलन मान (१८) संज्वलन माया (१६) संज्वलन लोभ (२०) हास्य मोहनीय (२१) रति मोहनीय (२२) अरति मोहनीय (२३) शोक मोहनीय (२४) भय मोहनीय (२५) जुगुप्सा मोहनीय (२६) पुरुषवेद (२७) स्त्रीवेद और (२८) नपुंसकवेद ।। (५) आयुष्यकर्म की चार कर्मप्रकृतियाँ - (१) नरकायु (२) तिर्यंचायु (३) मनुष्यायु (४) देवायु । (६) नामकर्म की १०३ कर्मप्रकृतियाँ - (१) नरकगति नामकर्म (२) तिर्यंचगति नामकर्म (३) मनुष्यगति नामकर्म (४) देवगति नामकर्म (५) एकेन्द्रियजाति (६) द्वीन्द्रियजाति (७) त्रीन्द्रियजाति (८) चतुरिन्द्रियजाति (६) पंचेन्द्रियजाति (१०) औदारिक शरीर (११) वैक्रिय शरीर (१२) आहारक शरीर (१३) तैजस शरीर (१४) कार्मण शरीर (१५) औदारिक अंगोपांग (१६) वैक्रिय अंगोपांग (१७) आहारक अंगोपांग (१८) औदारिक औदारिक बन्धन (१६) औदारिक तैजस बन्धन (२०) औदारिक कार्मण बन्धन (२१) वैक्रिय वैक्रिय बन्धन (२२) वैक्रिय तैजस बन्धन (२३) वैक्रिय कार्मण बन्धन (२४) आहारक आहारक बन्धन (२५) आहारक तैजस बन्धन (२६) आहारक कार्मण बन्धन (२७) औदारिक तैजस कार्मण बन्धन (२८) वैक्रिय तैजस कार्मण बन्धन (२८) आहारक तैजस कार्मण बन्धन (३०) तैजस तैजस बन्धन (३१) तैजस कार्मण बन्धन (३२) कार्मण कार्मण बन्धन (३३) औदारिक संघातन (३४) वैक्रिय संघातन (३५) आहारक संघातन (३६) तैजस संघातन (३७) कार्मण संघातन (३८) वज्रऋषभनाराच Jain Education Interational Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... पंचम अध्याय.... .{323} संघयण (३६) ऋषभनाराच संघयण (४०) नाराच संघयण (४१) अर्द्धनाराच संघयण (४२) कीलिका संघयण (४३) सेवार्त संघयण (४४) समचतुरस्र संस्थान (४५) न्यग्रोधपरिमंडल संस्थान (४६) सादि संस्थान (४७) वामन संस्थान (४८) कुब्ज संस्थान (४६) हुंडक संस्थान (५०) कृष्णवर्ण (५१) नीलवर्ण (५२) लोहितवर्ण (५३) हरिद्रवर्ण (५४) शुक्लवर्ण (५५) सुरभिगन्ध ( ५६ ) दुरभिगन्ध (५७) तिक्तरस (५८) कटुकरस (५६) कषायरस (६०) अम्लरस (६१) मधुररस (६२) कर्कशस्पर्श (६३) मृदुस्पर्श (६४) लघुस्पर्श (६५) गुरुस्पर्श (६६) शीतस्पर्श (६७) ऊष्णस्पर्श (६८) स्निग्धस्पर्श (६६) रूक्षस्पर्श (७०) नरकानुपूर्वी (७१) तिर्यंचानुपूर्वी (७२) मनुष्यानुपूर्वी (७३) देवानुपूर्वी (७४) शुभविहायोगति (७५) अशुभविहायोगति (७६) पराघात नामकर्म (७७) उच्छ्वास नामकर्म (७८) आतप नामकर्म (७६) उद्योत नामकर्म (८०) अगुरुलघु नामकर्म (८१) तीर्थंकर नामकर्म (८२) निर्माण नामकर्म (८३) उपघात नामकर्म (८४) त्रसनामकर्म (८५) बादर नामकर्म (८६) पर्याप्त नामकर्म (८७) प्रत्येक नामकर्म (८८) स्थिर नामकर्म (८६) शुभ नामकर्म (६०) सौभाग्य नामकर्म (६१) सुस्वर नामकर्म (६२) आदेय नामकर्म (६३) यश नामकर्म (६४) स्थावर नामकर्म (६५) सूक्ष्म नामकर्म (६६) अपर्याप्त नामकर्म (६७) साधारण नामकर्म (६८) अस्थिर नामकर्म (६६) अशुभ नामकर्म (१००) दौर्भाग्य नामकर्म (१०१) दु:स्वर नामकर्म (१०२) अनादेय नामकर्म (१०३) अपयश नामकर्म । (७) गोत्र कर्म की दो कर्मप्रकृतियाँ - (१) उच्चगोत्र ( २ ) नीचगोत्र । (८) अन्तराय कर्म की पांच कर्मप्रकृतियाँ - ( १ ) दानान्तराय (२) लाभान्तराय (३) भोगान्तराय (४) उपभोगान्तराय और (५) वीर्यान्तराय । इन १५८ उत्तर कर्मप्रकृतियों में से बन्ध योग्य १२० कर्मप्रकृतियाँ मानी गई हैं, उदय एवं उदीरणा योग्य कर्मप्रकृतियों की संख्या १२२ है, क्योंकि मिथ्यात्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय और सम्यक्त्व मोहनीय इन तीन रूपों में होता है। मिश्र मोहनीय और सम्यक्त्व मोहनीय इन दो प्रकृतियों का बन्ध नही होता है, किन्तु उदय रहता है, इस कारण से उदय एवं उदीरणा के योग्य १२२ कर्मप्रकृतियाँ मानी गई हैं । जहाँ तक सत्ता योग्य कर्मप्रकृतियों का प्रश्न है, उनकी संख्या १४८ या १५८ मानी जाती है । इसप्रकार बन्ध योग्य कर्मप्रकृतियों की अपेक्षा इनकी संख्या ३८ अधिक है । वहीं उदय एवं उदीरणा योग्य प्रकृतियों की अपेक्षा इनकी संख्या ३६ अधिक है । ये ३६ कर्मप्रकृतियाँ मूलतः नामकर्म से सम्बन्धित है । नामकर्म की प्रकृतियों की गणना मुख्यतया चार प्रकार से की जाती है । एक वर्गीकरण के अनुसार नामकर्म की ४२ प्रकृतियाँ मानी गई । इनका वर्गीकरण इसप्रकार है- १४ पिंड प्रकृतियाँ, ८ प्रत्येक प्रकृतियाँ, १० त्रसदशक और १० स्थावरदशक की प्रकृतियाँ (१४+८+१०+ १० = ४२) बयालीस है। जब नामकर्म की संख्या ६७ माने, तो उनका वर्गीकरण इसप्रकार है - गति चार, जाति पांच, शरीर पांच, उपांग तीन, संघयण छः, संस्थान छः, वर्ण, गंध, रस और स्पर्श की चार, आनुपूर्वी चार, विहायोगति दो (४ + ५ + ५ + ३ + ६ + ६ + ४ + ४ + २ = ३६) ये ३६ पिंड प्रकृतियाँ, ८ प्रत्येक प्रकृतियाँ, १० त्रसदशक और १० स्थावरदशक प्रकृतियाँ (३६ + ८ + १० + १० = = ६७) सड़सठ होती है । पुनः जब नामकर्म प्रकृतियों की संख्या ६३ मानी जाती है, तो उसमें पांच बन्धन, पांच संघातन, वर्णादि चार के स्थान पर बीस भेद करने पर (६७ +५+५+ १६ = ६३) कर्मप्रकृतियाँ होती है । इसमें भी बन्धन के पांच भेद के स्थान पर पन्द्रह भेद करने पर नामकर्म की १०३ कर्मप्रकृतियाँ हो जाती है । इस प्रकार सत्ता की अपेक्षा से ज्ञानावरणीय-५, दर्शनावरणीय-६, वेदनीय-२, मोहनीय-२८, आयु- ४, नाम- १०३, गोत्र - २ और अन्तराय - ५, इसप्रकार कुल १५८ प्रकृतियाँ सत्ता योग्य होती है । इस प्रकार प्रथम कर्मग्रन्थ में बन्ध योग्य, उदय एवं उदीरणा तथा सत्ता योग्य कर्मप्रकृतियों की चर्चा है । इसके साथ ही उसमें कर्मों के विपाक के स्वरूप की भी चर्चा है, किन्तु यहाँ हमारा सम्बन्ध केवल गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन की अपेक्षा से कर्मप्रकृतियों का उल्लेख ही आवश्यक प्रतीत होता है । वह भी इसीलिए कि अगले कर्मग्रन्थों में गुणस्थान सम्बन्धी जो चर्चा हमें उपलब्ध होती है, वह इन्हीं कर्मप्रकृतियों के बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा, बन्ध-विच्छेद, क्षय या उपशम से सम्बन्धित है । इसीलिए कर्मविपाक नामक प्रथम कर्मग्रन्थ की चर्चा को मात्र कर्मप्रकृतियों के उल्लेख के साथ विराम देते है । 'कर्मस्तव नामक द्वितीय कर्मग्रन्थ और गुणस्थान सिद्धान्त : द्वितीय कर्मग्रन्थ का नाम कर्मस्तव है । इस कर्मग्रन्थ में विभिन्न गुणस्थानों में किन-किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध तथा बन्ध विच्छेद होता है, किन-किन कर्मप्रकृतियों का उदय एवं उदय विच्छेद होता है, किन-किन कर्मप्रकृतियों की उदीरणा एवं उदीरणा विच्छेद होता है तथा किन कर्मप्रकृतियों की सत्ता तथा क्षय होता है, इन आठ विषयों का विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है । वैसे Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{324} कुछ मतान्तरों को छोड़कर यह विवरण पूज्यपाद देवनन्दी की सवार्थसिद्धि टीका, चन्द्रर्षिमहत्तराचार्य के पंचसंग्रह के प्रथम खंड में भी मिलती है । अतः यहाँ हम इस सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा में न जाकर संकेत रूप से किस गुणस्थान में किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध, उदय, उदीरणा एवं सत्ता होती है, इसकी तालिकाएँ प्रस्तुत करेंगे। इनमें बन्ध, उदय और उदीरणा सम्बन्धी तालिकाएँ कर्मस्तव (द्वितीय कर्मग्रन्थ) गुजराती अनुवादक एवं व्याख्याकार पं. धीरजलाल डाह्यालाल मेहता से उद्धृत की गई है । इसीप्रकार बन्ध विच्छेद, उदय विच्छेद, उदीरणा विच्छेद, सत्ता और सत्ताक्षय सम्बन्धी तालिकाएँ डॉ. सागरमल जैन की पुस्तक गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण से उद्धृत की गई है। बन्ध यन्त्र नहीं क्रमांक गुणस्थान बन्धने वाली उत्तर प्रकृति अं. बन्धने वाली | ज्ञा. | द. | J. | मो. | आ. | ना. | गो. | उत्तर प्रकृति ہد ہد ہد •rm » Hu9 मिथ्यात्व सास्वादन मिश्र अविरत सम्यग्दृष्टि देशविरति प्रमत्तसंयत | अप्रमत्तसंयत ہد ہد ہد -/७ | ५/५६ | ६२/६१ है ا ہد Wwururururum-000 ہد ہد ہد अपूर्वकरण गुणस्थान प्रथम भाग द्वितीय भाग तृतीय भाग चतुर्थ भाग पंचम भाग षष्ठम भाग सप्तम भाग ० ० ० ० ० ० ० ہد ہد ہد ہد | ا oc ہو or अनिवृत्तिकरण गुणस्थान ہد प्रथम भाग | द्वितीय भाग तृतीय भाग चतुर्थ भाग पंचम भाग ० ० ० « ہد umr - « ہد ० ० ا ہد | १०३ ० ० ० ہو ० ० ه १० सूक्ष्मसंपराय ११/ उपशान्तमोह क्षीणमोह | सयोगीकेवली १४ | अयोगीकेवली ० ० ه ११E ११E ११६ १२० ० ० ० ० ० ० ه ० ० ه Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{325) उदय यंत्र गुणस्थान क्रमांक | अयोग्य | ज्ञा. | द. | वे. | मो. उदय के | उदय के । योग्य कर्म । कर्म प्रकृतियां प्रकृतियां आ. ना. | गो. | अं. ] ] २२/४ १०४ or] सामान्य | ८ | १२२ ० ५ ६ | २ | २८४ ६७ | २ |५ १ मिथ्यात्व | ८ | ११७ | ५ | ५ | ६ | २ | २६, ४.६४ | २ |५ २ |सास्वादन | ८ | १११ ११ | ५ | ६ | २ | २५] ४ | ५६ ३ मिश्रदृष्टि | ८ | १०८ १०८ २२ ५ ४ | ५१ ४ अविरत सम्यग्दृष्टि ८ २२ ५ देशविरत | ८ | ७ | ३५ ५ ६ | २ | १८ | २ | ४४ | २ |५ ६ प्रमत्तसंयत | ८ | १ | ४१ | ५ | ६ | २ | १४ | १ | ४४ | १ |५ ७ अप्रमत्तसंयत ७६ १४|१४२ ८ अपूर्वकरण ७२ । ५०५ ६ | २ | १३ | १ | ३६ ६ अनिवृत्तिकरण ७ | १ | ३६ १० सूक्ष्मसंपराय ६० | ६२ ५ ६ ११/उपशान्तमोह ७ ५६ / ६३ ५ ६ २ | 0 | १ | ३६ | १ |५ । १२] क्षीणमोह के । ६५ द्विचरम समय तक क्षीणमोह के चरम समय तक १३ सयोगीकेवली । ४ । ४२ । ८० ० ० | २ | ० १ | ३८ | १ . १४ अयोगीकेवली । ४ । १२ । ११०/ ० ० १ । ०१६ १ |००० । १ occ Jain Education Intemational Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{326} . उदीरणा यंत्र उदीरणा क्रमांक गुणस्थान उदीरणा के योग्य अयोग्य | ज्ञा. | द. | वे. | मो. उत्तर | उत्तर प्रकृतियां प्रकृतियां आ. | ना. | गो. अं. सामान्य १२२ |मिथ्यात्व ११७ | २ | २६ ४ ६४ २ |सास्वादन १११ ३ | मिश्रदृष्टि १०० | २ | २२ ४ ५१ । २ . ४ अविरत सम्यग्दृष्टि १०४ १८ ५ | देशविरत १. ६ प्रमत्तसंयत ७ |अप्रमत्तसंयत । ७३ | ४६ | ५ | ६ | 0 | १४ | ० | ४२ | १ | ५ ८ अपूर्वकरण ६ अनिवृत्तिकरण १० सूक्ष्मसंपराय | १ | ० ३६ ११ उपशान्तमोह १२ क्षीणमोह ० ० ० ३७ १३ सयोगीकेवली ० ० ०३८ १४ अयोगीकेवली ० ० ० Jain Education Intemational Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{327} सत्ता यंत्र क्रमांक गुणस्थान मूलप्रकृतियां उत्तरप्रकृतियां उपशमश्रेणी क्षपकश्रेणी ज्ञानावरणीयकर्म दर्शनावरणीयकर्म वेदनीयकर्म मोहनीयकर्म आयुष्यकर्म नामकर्म गोत्रकर्म | अन्तरायकर्म | सामान्य ८ | १४८ | २ | २८ | E३] २५ | १ | मिथ्यात्व ८ | १४८ E२२८ F २ सस्वादन १४७ ५ ६२ २८ F ३ | मिश्र १४७ ५ | E| २ | २८ | ६३] २ यग्दृष्टि ८ | १४ | १४१ १४५/१३८ ५ | ६ | २ | २८/२१ /- | E३/ २ ५ ५ | देशविरत |८ | १४८१४११४५/१३८५ | |२| २८/२१ । ६३] २५ ६ प्रमत्तसंयत ८ | १४८ | १४११४५/१३८/५ ६ २ | २८/२१ १/० ६३] २. | अप्रमत्तसंयत | ८ | १४८१४११४५/१३८/५ ६२ | २८/२१ | - ६३] २ - अपूर्वकरण - ३८२६२ २८४२ - २२ | अपूर्वकरण |५| |२| २८/२१ - | १४८ | १३६ १३८ /१४२ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{328} सत्ता यंत्र क्रमांक गुणस्थान | मूलप्रकृतियां उत्तरप्रकृतियां उपशमश्रेणी क्षपकश्रेणी ज्ञानावरणीयकर्म दर्शनावरणीयकर्म वेदनीयकर्म मोहनीयकर्म आयुष्यकर्म नामकर्म गोत्रकर्म अन्तरायकर्म १४८/१४२ १३६ | १३६ | १३८ ५ | ६ | २ | २१ | १ | ६३ | २ |५| | १४८/ १४२ १३६ | १२२ | ५ | ६ | २ | २१ | १ | |२|| १४२ १३६ | ११४ / ५ ६ | २ | १३ | १ | ८० | २ || १४८/१४२१३६ ११३ २ | १२ | १ ८० २५ १४८/ १४२, १३६ | ११२ | ५ | ६ | २ | ११ । २५ ८१४८/ १४२ १३६ | १०६ ५६२५ ८०२५ |८ १४८/ १४२ १३६ | १०५ ५६ २४ १८०२५ | | | १४५/ १४२| १३६ | १०४ | ५ | | २ | ३ | | ८० | २ || | |१४८/ १४२ १३६ | १०३ | ५ | ६ २ | २ | १ | ८० | २ |५| | १४८/१४२] १३६ | १०२ ५। ६ सूक्ष्मसंपराय अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के नौ भागों में ८० ८ | १४८/ १४२| १३६ /- | ५ | ६ | २ | ४/१६३/२५ 99/ उपशान्तमोह | ८ | १०१/ १०१/ ५ २ - १८०२५ क्षीणमोह ६६ ६६ १३/ सयोगीकेवली ।।। | १ | ८० | २ | ८५८ २॥ ८०२/१/ अयोगीकेवली Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... पंचम अध्याय........{329) बन्ध विच्छेद क्रमांक गुणस्थान ज्ञानावरणीय | दर्शनावरणीय वेदनीय मोहनीय आयुष्य अन्तराय योग | ० | १ | मिथ्यात्व 0 | 0 |० ४ |0 |9|9 | | ४३ | | २ |सास्वादन ३ मिश्र ४ अविरतसम्यग्दृष्टि ५ देशविरत ६ प्रमत्तसंयत ७ अप्रमत्तसंयत ८ अपूर्वकरण ५३ | | | ००० ०० ० ० ००००० । | ० | ३ | ० । १५ । ३ १७ ३५ ३५ । १ | | "||||||||00000०० | गोत्र | | १७ | | ६४ | | ६ |अनिवृत्तिकरण ६८ | ० | ५ | १ | १७ | ३ | | ० | ५ | १ | २१ । ३ । २६ | २६ | १०३ | |M | १०३ | २६ | ६७ ११६ | | १० सूक्ष्मसंपराय ११ उपशान्तमोह १२ क्षीणमोह १३ सयोगीकेवली १४ अयोगीकेवली २६ ६७ ११६ | | |६७ । ११६ | २६ । ४ c | । ६७ | २ |५ १२० Jain Education Intemational Jain Education Intermational Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{330) उदय विच्छेद क्रमांक गुणस्थान ज्ञानावरणीय वेदनीय मोहनीय आयुष्य नाम योग ० | अन्तराय | मिथ्यात्व ما به اسم | २ सास्वादन ० ११ | ० ००००० दर्शनावरणीय ३ मिश्र ० २२ १२ ० १८ अविरतसम्यग्दृष्टि ५ | देशविरत | | ० २३ | ० | १० | २ 000000००००० | गोत्र ६ प्रमत्तसंयत २४ ० ४१ ७|अप्रमत्तसंयत ० ४६ ० ها به اسم اسد اسد اسد اسد اسد اسد اسد २१ ० ० अपूर्वकरण ६ अनिवृत्तिकरण १० सूक्ष्मसंपराय ११ उपशान्तमोह १२ क्षीणमोह १३ सयोगीकेवली १४ अयोगीकेवली ६२ | ० | ३ | ० | १४ | ३ । | ० | ३ | ० | १५ | ३ । ३ । २८ ३ | ० । २८ | . | ३ | ० | २७ | ३ | २८ ० ३ ० | २८ ३ । २८ ० | ५ | 0 | २८ | ३ २८ | ५ ६ ० २८ । ३ । २६ | ५ | | १ | २८ । ३ ० ६३ ६५ ८० ५५ ११० Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्याय........{331} प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... उदीरणा विच्छेद यंत्र क्रमांक गुणस्थान ज्ञानावरणीय वेदनीय मोहनीय आयुष्य नाम गोत्र अन्तराय योग | | ० ।। ० ० ११ ० ० २२ १२ ० ० १८ मिथ्यात्व | ० ० ० २ ० | ३ | २ | सास्वादन ३ मिश्र | ४ | अविरतसम्यग्दृष्टि | | | ६ | | देशविरत | | | | १० | २ | २३ प्रमत्तसंयत अप्रमत्तसंयत | ० | ३ | २ | १४ । ४ । २५ अपूर्वकरण ० | ३ | २ | १५ ।। २८ अनिवृत्तिकरण २८ ० ० ०||||||||०००००० | दर्शनावरणीय २४. ० ० ४१ | ० ४६ | ० ५६ ० सूक्ष्मसंपराय २ | २७ २८ ० २ | २८ ० ० ७० ११] उपशान्तमोह | क्षीणमोह १३] सयोगीकेवली | १४| अयोगीकेवली | ० | ५ | २ | २८ | ४ | ५ | ६ | २ | २८ । ४ ० ० ० ० ० | २८ | ३० । २६ ० ०००० । ८३ ० ० ० ० बन्धस्वामित्व नामक तृतीय कर्मग्रन्थ और गुणस्थान सिद्धान्त बन्धस्वामित्व नामक तृतीय कर्मग्रन्थ में गति आदि चौदह मूल मार्गणाओं और उसके उत्तरभेद रूप बाँसठ मार्गणाओं में रहने वाले जीव किस गुणस्थान में रहते हुए, कौन-से कर्म की कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते है; इस बात का विवेचन है । मार्गणाओं में बन्ध को समझने के लिए प्रकृतियों का क्रम निम्नानुसार समझना चाहिए। (१) जिननाम (२) देवगति (३) देवानुपूर्वी (४) वैक्रिय शरीर (५) वैक्रिय अंगोपांग (६) आहारक शरीर (७) आहारक अंगोपांग (८) देवायुष्य (E) नरकगति (१०) नरकानुपूर्वी (११) नरकायुष्य (१२) सूक्ष्म (१३) अपर्याप्त (१४) साधारण (१५) द्वीन्द्रिय (१६) त्रीन्द्रिय (१७) चतुरिन्द्रिय (१८) एकेन्द्रिय (१६) स्थावर (२०) आतप (२१) नपुंसक वेद (२२) मिथ्यात्व (२३) हुंडक (२४) सेवार्त (२५-२६-२७-२८) अनन्तानुबन्धी चतुष्क (२६-३०-३१-३२) मध्यम के चार संस्थान (३३-३४-३५-३६) मध्यम के चार संघयण (३७) अशुभ विहायोगति (३८) नीचगोत्र (३६) स्त्रीवेद (४०-४१-४२) दौर्भाग्य-दुस्वर-अनादेय (४३-४४-४५) स्त्यानगृद्धि त्रिक (४६) उद्योत (४७) तिर्यंच गति (४८) तिर्यंचानुपूर्वी (४६) तिर्यंचायुष्य (५०) मनुष्यायुष्य (५१) मनुष्यगति (५२) मनुष्यानुपूर्वी (५३) औदारिक शरीर (५४) औदारिक अंगोपांग और (५५) वज्रऋषभनाराच संघयण । Jain Education Intemational Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.... पंचम अध्याय........{332} बन्धस्वामित्व नामक तृतीय कर्मग्रन्थ में गाथा क्रमांक पांच से पच्चीस तक विभिन्न मार्गणाओं में होने वाली कर्मप्रकृतियों के बन्ध का निर्देशन मिलता है । प्रथम तीन नारकी के जीव देवद्विक आदि १६ प्रकृतियों को छोड़कर सामान्यतया १०१ प्रकृतियों का बन्ध करते है । इनमें भी मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती प्रथम तीन नारकी के जीव तीर्थंकर नामकर्म के बिना १०० प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । सास्वादन गुणस्थानवर्ती प्रथम तीन नारकी के जीव नपुंसक चतुष्क के बिना ६६ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती प्रथम तीन नारकी के जीव अनन्तानुबन्धी और उसकी सहगामी २६ प्रकृतियों के बिना ७० प्रकृतियों का बन्ध करते है। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती प्रथम तीन नारकी के जीव तीर्थंकर नामकर्म और मनुष्यायु सहित ७२ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । पंकप्रभा आदि तीन नारकी के जीव का बन्ध रत्नप्रभा आदि तीन नारकी के समान ही है, परन्तु विशेष यह है कि पंकप्रभा आदि तीन नारकी के जीव तीर्थकर नामकर्म का बन्ध नहीं करते हैं । सप्तम नारकी के जीव तीर्थकर नामकर्म और मनुष्यायु के बिना सामान्य से ६६ प्रकृतियों का बन्ध करते है । मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती सप्तम नारकी के जीव मनुष्यद्विक और उच्चगोत्र के बिना E६ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । सास्वादन गुणस्थानवर्ती सप्तम नारकी के जीव तिर्यंचायुष्य तथा नपुंसक चतुष्क के बिना ६१ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । मिश्र और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती सप्तम नारकी के जीव अनन्तानुबन्धी आदि २४ के बिना तथा मनुष्यद्विक एवं उच्चगोत्र सहित ७० प्रकृतियों का बन्ध करते हैं। गतिमार्गणा में सामान्य से तथा मिथ्यात्व गुणस्थान में जिननाम और आहारकद्विक बिना पर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिय ११७ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । सास्वादन गुणस्थानवर्ती पर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिय नरकत्रिक आदि १६ प्रकृति के बिना १०१ प्रकृतियों का तथा मिश्र गुणस्थानवर्ती पर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिय अनन्तानुबन्धी आदि ३१ और देवायुष्य बिना ६६ प्रकृतियों का, अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती पर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिय देवायुष्य सहित ७० प्रकृतियों का तथा देशविरति गुणस्थानवर्ती पर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिय अप्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क बिना ६६ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । गतिमार्गणा में मनुष्य गति में प्रथम के चार गुणस्थान में बन्ध की स्थिति पर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रिय के समान ही जानना चाहिए । विशेष यह है कि चतुर्थ गुणस्थानवी मनुष्य जिननाम का भी बन्ध करते हैं । देशविरति आदि आगे के गुणस्थानों में बन्ध की स्थिति द्वितीय कर्मग्रन्थ में बताए अनुसार समझना चाहिए । अपर्याप्त तिर्यंच तथा अपर्याप्त मनुष्य तीर्थंकर नामकर्म आदि ११ प्रकृतियों के बिना शेष १०६ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं। देवगति में बन्ध नारकी के समान है, परन्तु मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती देव एकेन्द्रियत्रिक सहित बन्ध करते हैं । प्रथम के दो देवलोक में बन्ध का वर्णन करने के पश्चात् ज्योतिष, भवनपति और व्यंतर में तीर्थंकर नामकर्म के बिना समझना चाहिए। सनत्कुमारादि देव रत्नप्रभा नारकी के समान बन्ध करते हैं । आनतादि देवलोक के देव उद्योत चतुष्क रहित बन्ध करते हैं । मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती एकेन्द्रिय, पृथ्वीकाय, अप्काय, वनस्पतिकाय और विकलेन्द्रिय जीवों का बन्ध अपर्याप्त तिर्यंच के समान १०६ प्रकृतियों का बन्ध करते है । सास्वादन गुणस्थानवर्ती इन सात मार्गणा वाले जीव सूक्ष्मादि तेरह प्रकृतियों के बिना ६६ कर्मप्रकृतियों का बन्ध करते हैं । अन्य आचार्यों के मतानुसार सास्वादन गुणस्थानवर्ती इन सात मार्गणा वाले जीव तिर्यंचायुष्य और मनुष्यायुष्य के बिना ६४ प्रकृतियों का ही बन्ध करते हैं, क्योंकि सास्वादन गुणस्थान अल्पकालीन होने के कारण वे जीव शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं कर पाते हैं । शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने पर सास्वादन गुणस्थान रहता ही नहीं है । पंचेन्द्रिय जाति और त्रसकाय मार्गणा में बन्ध की स्थिति द्वितीय कर्मग्रन्थ में बताए अनुसार सामान्य कथन के अनुरूप जानना चाहिए । गतित्रस अर्थात् तेजस्काय और वायुकाय के जीव तीर्थंकर नामकर्म आदि ग्यारह, मनुष्यत्रिक और उच्चगोत्र के बिना १०५ प्रकृतियों का बन्ध करते है। मनोयोग और वचनयोग में बन्ध की स्थिति दूसरे कर्मग्रन्थ में बताए अनुसार सामान्य कथन के अनुरूप जानना चाहिए। औदारिक काययोग में बन्ध की स्थिति मनुष्य के समान ही जानना चाहिए । औदारिकमिश्र काययोग में सामान्य से आहारकषट्क बिना ११४ प्रकृतियों का बन्ध होता है । मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती औदारकमिश्र काययोग वाले जीव तीर्थंकर नामकर्मादि पाँच प्रकतियों के बिना १०६ प्रकतियों का बन्ध करते हैं । सास्वादन गुणस्थानवर्ती औदारकमिश्र काययोग वाले जीव मनुष्यायु, तिर्यंचायु तथा सूक्ष्मादि तेरह प्रकृतियों के बिना ६४ प्रकृतियों का बन्ध करते है । अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती औदारिकमिश्र काययोगवाले अनन्तानुबन्धी आदि २४ प्रकृतियों के बिना तथा तीर्थकर नामकर्मादि पाँच प्रकृतियों सहित ७५ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । सयोगी गुणस्थानवर्ती औदारिकमिश्र काययोगवाले जीव मात्र एक ही शातावेदनीय का बन्ध करते है । कार्मण काययोग में भी तिर्यंचायु और मनुष्यायु के बिना द्वितीय कर्मग्रन्थ में बताए अनुसार सामान्य कथन के अनुरूप जानना चाहिए । आहारक काययोग और आहारकमिश्र काययोग में बन्ध की स्थिति द्वितीय कर्मग्रन्थ में बताए अनुसार सामान्य कथन के अनुरूप ही है । वैक्रियकाययोग में बन्ध की स्थिति देवगति के समान ही है । वैक्रियमिश्रकाययोग में तिर्यंचायुष्य और मनुष्यायुष्य का बन्ध नहीं Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय ........{333} होता है। वेदमार्गणा में नौ गुणस्थान, प्रथम कषाय चतुष्क में प्रथम के दो गुणस्थान, द्वितीय कषाय चतुष्क में प्रथम के चार गुणस्थान, तृतीय कषाय चतुष्क में प्रथम के पाँच गुणस्थान, संज्वलनत्रिक में प्रथम के नौ गुणस्थान, संज्वलन लोभ में प्रथम के दस गुणस्थान, अज्ञानत्रिक में प्रथम के दो अथवा तीन गुणस्थान, प्रथम के तीन ज्ञानों में अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणमोहतक के नौ गुणस्थान, मनः पर्यवज्ञान में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान तक गुणस्थान, केवलज्ञान में सयोगीकेवली और अयोगीकेवली ऐसे दो गुणस्थान, चक्षु और अचक्षुदर्शन में प्रथम से लेकर बारहवें गुणस्थान तक बारह गुणस्थान, अवधिदर्शन में चौथे गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक के नौ गुणस्थान, केवलदर्शन में सयोगीकेवली और अयोगीकेवली - ऐसे दो गुणस्थान, अविरति चारित्र में प्रथम के चार गुणस्थान, देशविरति चारित्र में देशविरति गुणस्थान, सामायिक तथा छेदोपस्थापनीय चारित्र में प्रमत्तसंयतादि चार गुणस्थान, परिहारविशुद्धि चारित्र में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत-ऐसे दो गुणस्थान, सूक्ष्मसंपराय चारित्र में सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान, यथाख्यात चारित्र में अन्तिम चार गुणस्थान होते हैं । सम्यक्त्व मार्गणा में मिध्यात्व में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सास्वादन सम्यक्त्व में सास्वादन गुणस्थान, मिश्र सम्यक्त्व में मिश्र गुणस्थान, उपशम सम्यक्त्व में चौथे गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक आठ गुणस्थान, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व में चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थान तक चार गुणस्थान, क्षायिक सम्यक्त्व में चौथे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक ग्यारह गुणस्थान होते हैं । उपशम सम्यक्त्व वाले जीव परभव के आयुष्य का बन्ध नहीं करते हैं । इसी कारण से अविरतसम्यग्दृष्ट गुणस्थान में उपशम सम्यक्त्व वाले जीव देवायुष्य और मनुष्यायुष्य का बन्ध नहीं करते हैं, अतः देशविरति आदि गुणस्थानों में भी उपशम सम्यक्त्व वाले जीव देवायुष्य का बन्ध नहीं करते है । सामान्य से लेश्या मार्गणा में प्रथम की तीन लेश्यावाले जीव आहारकद्विक बिना ११८ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती प्रथम की तीन लेश्यावाले जीव तीर्थंकर नामकर्म बिना ११७ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । सास्वादनादि सभी गुणस्थानों में प्रथम के तीन लेश्यावाले जीवों की कर्मबन्ध की स्थिि सामान्य कथन के अनुसार ही है । बन्धस्वामित्व नामक तृतीय कर्मग्रन्थ के मतानुसार प्रथम की तीन लेश्या में प्रथम से लेकर चतुर्थ तक चार गुणस्थान होते हैं । षडशीति नामक चतुर्थ कर्मग्रन्थ की तेईसवीं गाथा के अनुसार प्रथम की तीन लेश्या में प्रथम से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक छः गुणस्थान होते हैं । यह मतान्तर अलग-अलग अपेक्षा से बताया गया है । तेजोलेश्या में सूक्ष्मत्रिक, विकलेन्द्रियत्रिक और नरकत्रिक-इन नौ प्रकृतियों के बिना १११ प्रकृतियों का बन्ध होता है । इनमें भी मिथ्यात्व गुणस्थान में तेजोलेश्यावाले जीव को तीर्थंकर नामकर्म और आहारकद्विक बिना १०८ का, सास्वादन गुणस्थान में दर्शनसप्तक के बिना १०१ का, मिश्र गुणस्थान में ७४ का, अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में ७७ का, देशविरति गुणस्थान में ६७ का, प्रमत्तसंयत गुणस्थान में ६३ का और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में ५८ या ५६ प्रकृतियों का बन्ध होता है । पद्मलेश्या में प्रथम के सात गुणस्थान हो है। पद्मलेश्यावाले जीवों में सामान्य से नरकादि बारह प्रकृतियों के बिना १०८ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती पद्मलेश्यावाले जीव को १०५ का, सास्वादन पद्मलेश्यावाले जीव को १०१ प्रकृतियों का बन्ध होता है। आगे के सभी गुणस्थानों में तेजोलेश्यावाले जीवों के समान कर्मबन्ध की स्थिति है । शुक्लले श्यावाले में एक से लेकर तेरह गुणस्थान होते हैं । शुक्लले श्यावाले में कर्मबन्ध की स्थिति पद्मलेश्यावालों के समान ही है, परन्तु विशेष यह है कि शुक्ललेश्या में नरकादि बारह और उद्योतचतुष्क-इन सोलह प्रकृतियों के बिना सामान्य से १०४ प्रकृतियों का बन्ध होता है । मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती शुक्ललेश्यावाले जीव १०१, सास्वादन गुणस्थानवर्ती शुक्ललेश्यावाले जीव ६७, मिश्र गुणस्थानवर्ती शुक्ललेश्यावाले जीव ७४ और अविर गुणस्थानवर्ती शुक्लले श्यावाले जीव ७७ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । देशविरति आदि अग्रिम गुणस्थान में कर्मबन्ध की स्थिति सामान्य कथन के अनुरूप ही है । भव्य और संज्ञी मार्गणा में चौदह गुणस्थान होते हैं । भव्य और संज्ञी मार्गणा मे बन्ध की स्थिति सामान्य कथन के अनुसार ही है । अभव्य मार्गणा में मात्र प्रथम गुणस्थान ही होता है । मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती अभव्य जीव तीर्थंकर नामकर्म और आहारकद्विक बिना ११७ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । असंज्ञी मार्गणा में पहला और दूसरा- ऐसे दो गुणस्थान होते हैं । मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती असंज्ञी जीव ११७ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं । सास्वादन गुणस्थानवर्ती असंज्ञी जीव, संज्ञी पंचेन्द्रिय के समान . १०१ प्रकृतियों का बन्ध करते है । आहारमार्गणा में प्रथम से लेकर तेरह गुणस्थान होते है। इन तेरह गुणस्थानों में बन्ध अपने-अपने गुणस्थान के सामान्य बन्ध के अनुसार जानना चाहिए । अनाहारी मार्गणा में बन्ध कार्मणकाययोग के अनुसार समझना चाहिए । इस प्रकार यहाँ बन्धस्वामित्व नामक तीसरे कर्मग्रन्थ का गुणस्थान सम्बन्धी विवरण समाप्त होता है । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा... पंचम अध्याय.....{334} षडशीति नामक चतुर्थ कर्मग्रन्थ में गुणस्थान सम्बन्धी उल्लेख : षडशीति नामक चतुर्थ कर्मग्रन्थ में जीवस्थान, मार्गणास्थान, गुणस्थान, उपयोग, योग, लेश्या, बन्ध, अल्प-बहुत्व, पंचभाव और संख्यात आदि की चर्चा की गई है । जहाँ तक गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा का प्रश्न है, इसमें सर्वप्रथम चौदह जीवस्थानों में गुणस्थान, उसके पश्चात् गाथा क्रमांक १६ से २५ तक बासठ मार्गणास्थानों में चौदह गुणस्थानों का अवतरण किया गया है । इसके पश्चात् क्रमशः चौदह गुणस्थानों में योग, उपयोग, लेश्या, मूल बन्धहेतु, उत्तर बन्धहेतु तथा अष्ट मूल प्रकृतियों के बन्ध, उदय और उदीरणा की चर्चा है । यह समस्त चर्चा पंचसंग्रह के प्रथम खण्ड के गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन में भी मिलती है । षडशीति नामक इस चतुर्थ कर्मग्रन्थ में जो विशेष उल्लेख हमें मिलता है, वह गुणस्थानों के अल्प बहुत्व को लेकर है । प्रथम तालिका में हमने यह बताया है कि किस गुणस्थान में कितने जीवस्थान, कितने योग, कितने उपयोग, कितनी लेश्या, कितने बन्धहेतु, कितनी कर्मप्रकृतियों के बन्ध, कितनी कर्मप्रकृतियों का उदय, कितनी कर्मप्रकृतियों की उदीरणा और कितनी कर्मप्रकृतियों की सत्ता होती है । इसके पश्चात् विभिन्न गुणस्थानों में उत्तरबन्धहेतुओं के विकल्पों के सम्बन्ध में तालिकाएँ प्रस्तुत की गई तथा अन्त में विभिन्न गुणस्थानों में जीवों के अल्प-बहुत्व को लेकर चर्चा की है । इस संबंध में सभी तालिकाएं पंडित धीरजलाल डाहयाभाई मेहता द्वारा गुजराती में अनुदित एवं व्याख्यायित षडशीति नामक चतुर्थ कर्मग्रन्थ से ली क्रमांक गुणस्थान का नाम जीवस्थान योग उपयोग लेश्या बन्धहेतु बन्ध उदय उदीरणा सत्ता मिथ्यात्व | १४| १३| ५ | ६ |८ ८ । | ७८ | ७/८ | सास्वादन com. मिश्र १० ६ ७ ७/८ ७/८ | ५५ ७/८ ५० |७/८ ४३ | ४६ ७/८ ३६ |७/८ २६ | ७/८ | २४ ७/८ । २२ | ७ | १६ | १० |E |१ |८ |८ ८ | ७/८ ६ अविरतसम्यग्दृष्टि | २ | | देशविरति ५ | प्रमत्तसंयत | अप्रमत्तसंयत १ | ७ | अपूर्वकरण | १ | ८ अनिवृत्तिकरण | १ | ६ | सूक्ष्मसंपराय | उपशान्तमोह १ | ११ | क्षीणमोह १२ सयोगीकेवली १३ | अयोगीकेवली ११| ६ | ६ ७ ७ | ३ १ १ VVVVV991 | । ६/५ | oc|6MIMIMIMIMI ६ | ७ | १ . २ | १ | ७ १ ४ ४० ० षडशीति नामक चतुर्थ कर्मग्रन्थ की गाथा क्रमांक ५४ से ५८ में किस गुणस्थान में कितने उत्तर बन्धहेतु होते हैं, इसकी सामान्य चर्चा के पश्चात् पांचों बन्धहेतुओं के भेदो का उल्लेख करते हुए, किस गुणस्थान में कितने उत्तर बन्धहेतु होंगे, इस सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा की गई है । सर्वप्रथम हमें यह जान लेना होगा कि मूल पाँच बन्धहेतु कौन-से होते हैं । इस विवेचन में मिथ्यात्व के निम्न पाँच बन्धहेतु माने गए हैं - (१) अभिगृहीत मिथ्यात्व (२) अनभिगृहीत मिथ्यात्व (३) आभिनिवेशिक मिथ्यात्व Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... पंचम अध्याय........{335} (४) सांशयिक मिथ्यात्व और (५) अनाभोग मिथ्यात्व । इसी प्रकार अविरति के निम्न बारह उत्तर बन्धहेतु माने गए है - (१) मन (२) स्पर्शेन्द्रिय (३) रसनेन्द्रिय (४) घ्राणेन्द्रिय (५) चक्षुरिन्द्रिय (६) श्रोत्रेन्द्रिय (७) पृथ्वीकाय (८) अप्काय (६) तेजस्काय (१०) वायुकाय (११) वनस्पतिकाय (१२) त्रसकाय । कषाय के निम्न पच्चीस उत्तर बन्धहेतु बताए गए हैं - (१ से ४) अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क (५ से ८) अप्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क (६ से १२) प्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क (१३ से १६) संज्वलन कषाय चतुष्क (१७) हास्य (१८) रति (१६) अरति (२०) शोक (२१) भय (२२) जुगुप्सा (२३) पुरुषवेद (२४) स्त्रीवेद और (२५) नपुंसकवेद । इसी प्रकार योग के निम्न पन्द्रह उत्तर बन्ध हेतु होते है - (१) सत्य मनोयोग (२) असत्य मनोयोग (३) सत्यासत्य मनोयोग (४) असत्यामृषा मनोयोग (५) सत्य वचनयोग (६) असत्य वचनयोग (७) सत्यासत्य वचनयोग (८) असत्यामृषा वचनयोग (E) औदारिक काययोग (१०) औदारिकमिश्र काययोग (११) वैक्रिय काययोग (१२) वैक्रियमिश्र काययोग (१३) आहारक काययोग (१४) आहारकमिश्र काययोग और (१५) कार्मण काययोग । इस प्रकार उत्तर बन्धहेतुओं की संख्या ५७ होती है । इन ५७ बन्धहेतुओं में मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक किस गुणस्थान में कितने उत्तर बन्धहेतु होते हैं, इसकी विस्तृत चर्चा षडशीति नामक चतुर्थ कर्मग्रन्थ एवं पंचसंग्रह के चतुर्थ द्वार की चार से चौदह तक की गाथा में की गई है । यहाँ हम विस्तार भय से बचने के लिए इसकी विस्तृत चर्चा न करते हुए, मात्र उसकी तालिका प्रस्तुत करते हैं । इस तालिका से यह स्पष्ट हो जाएगा कि किस गुणस्थान में मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग सम्बन्धी कितने उत्तर बन्धहेतु होते हैं। सभी जीव आश्रयी उत्तर बन्धहेतु गुणस्थान मिथ्यात्व अविरति कषाय योग विशेषता | मिथ्यात्व १३ ५५ ॐ १२ २५ । १३ २सास्वादन ३ | मिश्र आहारकद्विक बिना पाँच मिथ्यात्व बिना अनन्तानुबन्धी चतुष्क मिश्रद्विक, कार्मण बिना १२ । २१ ४६ ४ | अविरतसम्यग्दृष्टि ५ | देशविरति १२ ११ । १३ | ११ १७ प्रमत्तसंयत १३ । १३ २६ ००० ०००० । ७ |अप्रमत्तसंयत २४ मिश्रद्विक, कार्मण सहित त्रस की अविरति, अप्रत्याख्यानीया औदारिकमिश्र, और कार्मण बिना ग्यारह अविरति, प्रत्या- ख्यानीय बिना आहारक सहित दो मिश्र बिना आहारक और वैक्रिय बिना हास्यषट्क बिना तीन वेद और संज्वलन त्रिक बिना लोभ बिना ८ अपूर्वकरण ६ | अनिवृत्तिबादर |१०| सूक्ष्मसंपराय ०० ००० ० ० ० 16] ० | |११| उपशान्तमोह १२ क्षीणमोह १३ सयोगीकेवली ००० ० लोभ बिना पूर्वोक्त सात ० Jain Education Intemational Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{336} चौदह गुणस्थानों में उत्तर बन्धहेतुओं की इस सामान्य चर्चा के पश्चात् किस गुणस्थान में उत्तर बन्धहेतुओं के कितने विकल्प (भंग) सम्भव होते है, इसकी भी विस्तृत चर्चा प्रस्तुत चतुर्थ कर्मग्रन्थ षडशीति और पंचसंग्रह के चतुर्थद्वार में की गई है। यहाँ भी हम उस समग्र चर्चा के विस्तार भय से बचने के लिए प्रत्येक गुणस्थान से सम्बन्धित उत्तर बन्ध हेतुओं के विकल्प की तालिका प्रस्तुत कर रहे है । यहाँ हमें विशेष रूप से यह ज्ञातव्य है कि इन तालिकाओं में षडजीवनिकायों के वध को सम्मिलित किया गया है, साथ ही नौ कषायों में जो हास्यषट्क है, उसमें एक साथ दो ही बन्ध होते है, इसीलिए उसे युगल नाम दिया गया तथा तीनों वेदों को अलग से परिगणित किया गया है। जब विकल्पों की संख्या निश्चित करना होती है, तो उसमें षडजीवनिकाय, नोकषाय युगल और तीन वेद इनको अलग मानना ही आवश्यक होता है । आगे हम सर्वप्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में उत्तर बन्धहेतुओं के विभिन्न अपेक्षाओं से कितने विकल्प बनेंगे, इस हेतु आगे सात तालिकाएं प्रस्तुत कर रहे है । इसी क्रम से सास्वादन गुणस्थान में जो उत्तर बन्धहेतुओं के विकल्प बनते है, उसकी छः तालिकाएं प्रस्तुत की जा रही है । इसी प्रकार मिश्र गुणस्थान में उत्तर बन्धहेतुओं की भी सात तालिकाएं प्रस्तुत की जा रही है । चतुर्थ अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में तीन तालिकाएं और पंचम देशविरतिसम्यग्दृष्टि गुणस्थान की पाँच तालिकाएं प्रस्तुत की जा रही है। प्रस्तुत तालिकाएं हमने षडशीति नामक चतुर्थ कर्मग्रन्थ की धीरजलाल डाहयालाल मेहता के गुजराती विवेचन के आधार पर प्रस्तुत की है । उन्होने इन पाँच गुणस्थानों की ही तालिका प्रस्तुत की है । आगे के गुणस्थानों में बन्धहेतु की संख्या अल्प हो जाती है । अतः इस सम्बन्ध में तालिकाएं न देकर, केवल सामान्य रूप से ही चर्चा की गई है । मिथ्यात्व गुण स्थान में बन्ध हेतु क्रमांक बन्ध हेतु संख्या बन्ध हेतु संख्या EE कषाय वेद योग भय | युगल जुगुप्सा कुलभंग /विकल्प 4.अविरति ० 44.मिथ्यात्व १/१० बन्धहेतु १०x Ix ३६००० दो कायवध सहित ११ बन्धहेतु १ २ ३ २ ५४|१५x|४x |२x ६०००० x | ४६८०० ३/एक कायवध और १ अनन्तानुबन्धी | x सहित ११ बन्धहेतु ४४ | x | १३x | | १ |x | ३६००० १ १०x ६x |४x |२४ | ३x | एक काय और भय सहित ११ बन्धहेतु |एक काय और जुगुप्सा सहित ११ बन्धहेतु |१ | ३६००० १ १ ३ . ५x | ५x|६x |४x |२x १०x कुलभंग | २०८८०० Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... 9 २ ३ ४ ५ ७ बन्ध हेतु संख्या तीन कायवध में सहित १२ बन्ध हेतु दो कायवध तथा | अनन्तासहित १२ बन्ध हेतु दो कायवध तथा भय सहित १२ ध दो कायवध तथा जुगुप्सा सहित १२ बन्धहेतु एक कायवध ६ अनन्तानुबन्धी तथा जुगुप्सा सहित १२ बन्ध हेतु एक कायवध तथा भय जुगुप्सा सहित १२ बन्धहेतु एक कायवध अनन्तानुबन्धी व भय सहित १२ बन्धहेतु ५x ५x 2 3 9 ५x १ ५x 9 ५x 9 ~ 3 ५x १ ५x मिथ्यात्व गुण स्थान में बन्ध हेतु 9 ५x२०x ४x 9 २ ४ ܝ 9 ३ ३ |२ २४ ५X१५X ४x 3 १ X 2 x जै ५X१५X ४x २ ३ 3 mx ५X१५X ४x २ ३ २ RX 9 १ ५x ६x४x 20 50 ܤ ४ १ 9 ४ ५x ६ x ४x १ 9 ३ m x ५x ६ x ४x २ २x २ RX २ RX २ RX २ RX 篇 長 १ ३x १ ३x १ ३x 9 ३x 9 ३x १ ३x 9 ३x For Private Personal Use Only 9 90= १ १३ 9 १०X 9 १०X १ १३x 9 १३= १०= भय " 92 ܩ 9 '' · .. १ १ ܕ १ 9 9 9 कुलभंग पंचम अध्याय.....{337} १२०००० ११७००० ६०००० ६०००० ४६८०० ४६८०० ३६००० ५४६६०० Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ क्रमांक २ १ चार कायवध सहित १ १३ बन्ध हेतु ५x ३ ४ ५ ६ बन्ध हेतु संख्या て तीन कायवध तथा अनन्तानुबंधी सहित १३ बन्ध हे तीन कायवध तथा भय सहित १३ बन्ध हेतु तीन कायवध तथा जुगुप्सा सहित १३ दो कायवध अनन्ता तथा भय सहित १३ बन्धहेतु दो कायवध भय ७ तथा जुगुप्सा सहित १३ बन्ध हेतु दो कायवध अनन्ता तथा जुगुप्सा सहित १३ बन्ध हेतु मिथ्यात्व एक कायवध अनन्ता भय तथा जुगुप्सा सहित १३ बन्ध हेतु 9 ५x 9 ५x 9 ५x 9 ५x 9 ५x 23 १ ५x १ ५x मिथ्यात्व गुणस्थान में बन्ध हेतु कायवध * अविरति ५X१५X ४x 9 ३ ४ ५x२०x ४x ܕ 138 9 123 9 ५४ २०x ४x ३ २ 3 ५x२०x ४x ३ ३ २ RX X ३ ३ 3 9 २ ५X१५X ४x ५X१५X 9 २ ४ ५X१५X ४x 3 X S २० x 9 २ ३ m 32x ४x 9 9 ४ ५x ६ x ४x x RX २ २ RX २ RX २ २ | २x २ Rx १ ३x 9 ३X १ ३x 9 ३x १ ३x 9 ३x 9 ३x 9 ३x योग 9 १०= 9 १३ 9 १०X १ १०X 9 १३x १ १३= 9 १०X 9 १३x . 1 99 96 9 9 T ܩ · FI १ १ 9 १ 9 I 96 पंचम अध्याय......{338} ܩ ܩ ६०००० १५६००० १२०००० १ १ ११७००० १२०००० ११७००० ६०००० 9- ४६८०० कुलभंग ८,५६,८०० Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ क्रमांक हेतु संख्या १ पांच कायवध सहित १ १४ बन्धहेतु २ ३ चार कायवध तथा भय सहित १४ ध ५ ४ चारकायवध तथा जुगुप्सा सहित १४ ६ ७ चार कायवध तथा अनन्ता सहित १४ बन्धहेतु ご त्रसकायवध अनन्ता तथा भय सहित १४ बन्धहेतु मिथ्यात्व १ 9 2x 3X 3X 100 ५x ५x ६x ४x २x ३x १०= दो कायवध, अनन्ता भय तथा जुगुप्सा सहित १४ 9 ५x १ ५x 9 ५x १ ५x त्रसकायवध अनन्ता तथा जुगुप्सासहित १४ बन्धहेतु त्रसकायवध भय १ तथा जुगुप्सासहित ५x १४ बन्धहेतु 9 ५x मिथ्यात्व गुणस्थान में बन्ध हेतु १ Ex अविरति ४ ४ ५x१५x | ४x 23 12345 ४ ५x५x 9 १ ४ ३ ५X१५X ४x १ ३ ४ ५x२०x ४x 3 ३ ४x १ ३ ५x२०x४x 305 १ ३ ५x२०x४x m Xx ३ २ २४ २ २x RX २ RX २ RX २ २x २ २ ४ ५X१५X ४x २x १ ३x 9 ३x १ ३x 9 ३x १ ३x 9 ३x 9 ३x योग १ १३ 9 १०X १ १०X 9 १३x १ १३x 9 १०X १ १३x 1 9 ܩ १ १ १ - , · I पंचम अध्याय .......{339} 9 9 १ P 9 9 १ -9x 9 9 १ -9x 9 कुलभंग ३६००० ११७००० ६०००० ६०००० १५६००० १५६००० १२०००० ११७००० ८८२००० Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... १ छः कायवध सहित १५ बन्धहेतु ३ ५ ६ ७ て ध पांच कायवध तथा अनन्ता सहित १५ ध पांच कायवध तथा भय सहित १५ बन्धहेतु चार कायवध अनन्ता तथा भय सहित १५ बन्ध च अनन्ता तथा जुगुप्सासहित १५ बन्धहेतु १ ५x चार कायवध भय तथा जुगुप्सासहित १५ बन्धहेतु १ . पांच कायवध तथा 9 जुगुप्सा सहित ५x १५ बन्धहेतु ५x १ ५x १ ५x १ ५x 9 Xxx ५x त्रस कायवध, अनन्ता भय तथा 9 जुगुप्सा सहित १५ ५x बन्धहेतु मिथ्यात्व गुणस्थान में बन्ध हेतु १ ६ ३ ५ x १x ४x १ 3 ५ ५x ६x 9 煌 X ५ ३ ६x ४x ४ ४x 9 ४ ४ ४x ५X१५X ज २ २x २ RX जे २ 9 iiiiiii ३x 9 ४ ४ २ ५ x १५X ४x २x ५X१५X ४x २ २४ 9 ४ ३ २ २४ १ ३ ४ ५x२०x४x १ ३x 9 ३X १ ५ ३ २ 9 9 x x x x x 90x : २ २x ३x योग 9 xxxxx ३x 9 ३x 9 १०= 9 ३x 2 3 9 १३ 9 9 १३x 9 १३x भय 9 १०X I 9 १३x १ 9 -9 जुगुप्सा T - पंचम अध्याय ......(340} ܗ ܘ܂ 9 9 - १x १ १ १ ३६००० 2 कुलभंग / विकल्प 9 9 - १x १ ६००० १- ११७००० कुलभंग ४६८०० ३६००० ११७००० ६०००० १५६००० ६०४८०० Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{341} मिथ्यात्व गुणस्थान में बन्ध हेतु क्रमांक बन्ध हेतु संख्या | मिथ्यात्व |कायवध " | कायवध कषाय की जुगुप्सा कुलभंग । छ: कायवध तथा अनन्ता सहित १६ बन्ध हेतु । ५x9x |४x २x | ३x १३ - ७५०० छ: कायवध तथा भय सहित १६ १ ६ ३ बन्ध हेतु |x | xxxx *" | । २ | २४ x | ३ | १०x ६००० | छः कायवध तथा जुगुप्सा सहित | १६ बन्ध हेतु x | xxxx | २x | ६००० पांच कायवध अनन्ता. तथा भय सहित १६ बन्धहेत x ] x|६x |४x | २x | ३४ | १३x -१ |४६८०० पांच कायवध अनन्ता. तथा जुगुप्सा सहित १६ ५x | ५|६x |४x | Rx | ३x | १३x |- | १-४६८०० बन्धहेतु पांच कायवध भय तथा जुगुप्सा सहित | x x ६x |४x | २x | ३x | १०x |-9x १-३६००० १६ बन्धहेतु २ १ चार कायवध अनन्ता. भय तथा जुगुप्सा सहित १६ बन्ध हेतु ५x | ५x |१५x sx | २x | ३x | १३x |-१x१- ११७००० कुलभंग २६६४००० Jain Education Intemational Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{342} मिथ्यात्व गुणस्थान में बन्ध हेतु क्रमांक बन्ध हेतु संख्या मिथ्यात्व कायवध कषाय युगल वेद " अविरति याग जुगुप्सा कुलभंग /विकल्प . # x |9xxx | २x | ३x १३x - |७८०० छ: कायवध अनन्ता. तथा भया सहित १७ बन्ध हेतु छ:कायवध अनन्ता. तथा जुगुप्सा सहित १५ बन्ध हेतु " | x | ५x |१ |४x | Rx | ३x १३x १-७८०० छः कायवध भय तथा जुगुप्सा सहित १ १ १७ बन्ध हेतु | ५ | ५x/9x |४x | २x | ३x | १०x |-१x१६००० छ: कायवध अनन्ता. भय तथा १ । १ जुगुप्सा सहित १५ x | x|६x |४x | २४ | ३x | १३x |-१४ १ |४६८०० बन्ध हेतु छः कायवध अनन्ता. भय तथा १३x | -१x१-७८०० जुगुप्सा सहित १८ बन्ध हेतु Jain Education Intemational Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा... पंचम अध्याय........{343} सास्वादन गुणस्थान में बन्धहेतु का चित्र क्रमांक बन्ध हेतु संख्या | योग | वेद नपुंसकवेद में वै.मि. काययोग का अभाव युगल | कषाय कायवध अविरति | भय जुगुप्सा कुलभंग | भय गुप्तविकल्प | - एक कायवध सहित १० बन्धहेतु १३x | - ६१२० | कुल | भांगा| ६१२० ३६- १४२ | | दो कायवध सहित ११ बन्धहेतु १३x | ३= ३६-१]x२x |- |- | २२८०० | * | २एक कायवध तथा| १ भय सहित ११ | १३x बन्धहेतु | १ | ३= | ३६-१ ५४ | १= |- ६१२० एक कायवध भय तथा जुगुप्सा १ १ सहित ११ | १३x | ३% | ३६- १ बन्धहेतु ४२ | x४ | x६ | x५ |- | | ६१२० ४१०४० Jain Education Intemational Jain Education Intemational Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ 9 २ ३ ४ बन्ध हेतु संख्या तीन कायवध सहित १२ बन्धहेतु दो कायवध तथा भव सहित १२ बन्धहेतु दो कायवध तथा जुगुप्सा सहित १२ बन्यहेतु एक कायवध भय तथा जुगुप्सा सहित १२ सास्वादन गुणस्थान में बन्धहेतु का चित्र योग वेद १ १३x 9 १३x 9 १३x १ १३x 9 ३ 9 ३= ܩ ३= 9 ३= वै.मि. में नपुंसक वेद का अभाव ३६-१ ३८ ३६- १ ३८ ३६-१ ३८ ३६-१ ३८ २ XR २ XR २ XR २ x२ ४ ४X ४ x४ 30 ४ X8 ४ X8 ३ २०x २ X१५ २ X१५ १ XE 9 ५ 2 9 X4X 9 X५ 9 x५ भय जुगुप्ता 9 9= - पंचम अध्याय........{344} 9 X9 ·· 9 X9 9 X9 कुल मंग कुलभंग /विकल्प ३०४०० २२८०० २२८०० ६१२० ८५१२० Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{345} सास्वादन गुणस्थान में बन्धहेतु का चित्र क्रमांक बन्ध हेतु संख्या | योग | वेद | बन्ध हेतु संख्या योग | वेद नपुंसकवेद में वै.मि. काययोग का अभाव युगल कषाय कायवध अविरति जुगुप्सा कुलमंग /विकल्प . १ ३६-१ चार कायवध सहित १३ बन्धहेतु ३८ । २२८०० तीन कायवध तथा| १ | १ भय सहित १३ | १३४ | ३% बन्धहेतु ३६-१ | xix | ४x | २० | ५x | | ३०४०० ३ | १ तीन कायवध तथा जुगुप्सा सहित १३ बन्धहेतु | ३६-१ | ३८ ४२ | ४ | २० | - x१ ३०४०० ४ दो कायवध भय तथा जुगुप्सा | १३ | ३3 सहित १३ बन्धहेतु| ३८ ४२ | x४ | x१५ ४५ x१ |x | २२८०० । कुल मंग १०६४०० Jain Education Intemational Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{346} सास्वादन गुणस्थान में बन्धहेतु का चित्र क्रमांक बन्ध हेतु संख्या योग वेद वै.मि में नपुंसक वेद का अभाव युगल कायवध अविरति कुलभंग भय जुगुप्सा /विकल्प । || पांच कायवध सहित १४ बन्धहेतु | . ३६-१ . ६१२० चार कायवध तथा भय सहित १४ बन्धहेतु | १३x ३3 २२८०० ३चार कायवध तथा १ १ जुगुप्सा सहित १४ | १३x | ३= बन्धहेतु | ३६-१ | x४ | x१५ | x५ / २२८०० तीन कायवध भय तथा जुगुप्सा १ । सहित १४ | १३x | ३% बन्धहेतु x२० | x५ |x१ ३०४०० कुल भंग |८५१२० nternational Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.... पंचम अध्याय........{347} सास्वादन गुणस्थान में बन्धहेतु का चित्र बन्ध हेतु संख्या | योग | वेद क्रमांक वै.मि.में नपुंसक वेद का अभाव कुलमंग युगल कषाय कायवध अविरति भय /विकल्प | १छः कायवध सहित १ १५ बन्धहेतु | १३x ३६-१]x२ । १५२० २ । पांच कायवध तथा भय सहित | १३x १५ बन्धहेतु | x२ | ४४ | x६ | ४५ | १= |- | ८१२० ३] पांच कायवध तथा जुगुप्सा | १३x सहित १५ बन्धहेतु ३3 | x२ | x४ | x६ | XY x१ १२० १ चार कायवध भय तथा जुगुप्सा सहित १५ बन्धहेतु ३६-१]x२ | ४ x४ | x१५ १ x५ x x१ | २८०० कुल भंग ४२५६० Jain Education Intemational Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... पंचम अध्याय........{348} सास्वादन गुणस्थान में बन्धहेतु का चित्र क्रमांक बन्ध हेतु संख्या योग | वेद वै.मि.में नपुंसक वेद का अभाव युगल कषाय भय जुगुप्सा अविरति कायवध कुलभंग /विकल्प छः कायवध सहित, १६ बन्धहेतु | १३x | ३% ३= | ३६-१ Ix२ । x0 १५२० २ २/छः कायवध तथा|१ जुगुप्सा सहित १६/ १३x बन्धहेतु १ ३% | ३६-१]x२ | १५२० 19 | १३x | ३% | ३६-१]x२ | x४ | ४६ | x५ x |३| पांच कायवध भय तथा जुगुप्सा सहित १६ बन्धहेतु x१ | १२० कुल भंग १२१६० छः कायवध भय | तथा जुगुप्सा सहित १७ |१३x | ३3 | ३६-१]x२ | बन्धहेतु x४ | x१ | x४ १ १x१ | | १५२० Jain Education Intemational Jain Education Intermational Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... पंचम अध्याय........{349) मिश्र गुणस्थान में बन्धहेतु भंग/विकल्प क्रमांक बन्ध हेतु अविरति कायवध कषाय युगल योग भय जुगुप्सा कुलभंग विकल्प १ एक कायवध सहित ६ बन्धहेतु १ | १० x ७२०० मिश्र गुणस्थान में बन्धहेतु भंग/विकल्प बन्ध हेतु संख्या क्रमांक कुल बन्ध हेतु विकल्प अविरति कायवध कषाय युगल भय योग जुगुप्सा कुलभंग /विकल्प दो कायवध १५४ ४x २४ | ३ | १० | - १८००० एक कायवध | १० | १ x | ६x| ४x | २४ | ७२०० तथा भय एक कायवध तथा जुगुप्सा १० ११ ३ | | २४ | २ | १ ३x | १० १ | १ x | ६x] ४x ७२०० ३२४०० Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ माक 9 ध हेतु संख्या तीन कायवध २ दो कायवध तथा भय ४ एक कायवध भय तथा जुगुप्सा मिश्र गुणस्थान में बन्धहेतु भंग / विकल्प १ ३ ३ 79998 ५x ४X २०x ३ दो कायवध तथा १ जुगुप्सा 99 99 99 9 ५x १५४ ४X २ ३ ५x २ ३ 9 ५x 92x 9 ६x २ ४X ३ ४X २ २x २ २x 9 २x २ RX 梽 9 ३x १ ३x १ ३X 9 ३x 9 १०X 9 १०X 90X 9 १०X 4 1 9 9 9 1 9 १ पंचम अध्याय ...... (350) · . 6 १ १ कुल भंग कुलभंग /विकल्प २४००० १८००० १८००० ७२०० ६७२०० Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{351} मिश्र गुणस्थान में बन्धहेतु भंग/विकल्प बन्ध हेतु संख्या क्रमांक कुल बन्ध अविरति hitya कायवध कषाय युगल भय वेद योग जुगुप्सा कुलभंग विकल्प . १२ । चार कायवध १८००० | १२ तीन कायवध तथा भय ५x | २०x | ४x | २x | ३x | १०x | १- |- | २४००० १ तीन कायवध | १२ | १ ३ ३ | २ | १ | १ - तथा जुगुप्सा x | २०x | ४x | २x | ३x | १०x | - १ | २४००० २ १ १ १ १ ४| दो कायवध भय | १२ | १ २ ३ तथा जुगुप्सा ५x | १५x | ४x | २४ | ३x | १०x | १- १ |१८००० कुल मंग ८४००० Jain Education Intemational nternational Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{352} मिश्र गुणस्थान में बन्धहेतुओं के भंग/विकल्प क्रमांक बन्ध हेतु कुल बन्ध हेतु विकल्प कायवध भय | अविरति जुगुप्सा कुलभंग /विकल्प पांच कायवध ७२०० | श |१३ चार कायवध तथा भय १८००० | चार कायवध तथा जुगुप्सा १८००० |१३ तीन कायवध भय तथा जुगुप्सा । २४ | ३४ | १०x | १४ |- |२४००० कुल मंग |६७२०० Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा... पंचम अध्याय........{353} मिश्र गुणस्थान में बन्धहेतुओं के भंग/विकल्प बन्ध हेतु संख्या भय क्रमांक कायवध hitya कषाय कुलभंग जुगुप्सा योग /विकल्प - | अविरति • छ: कायवध १२०० * | पांच कायवध | १४ तथा भय * ७२०० पांच कायवध तथा जुगुप्सा १४ * * ७२०० १४ * |४| चार कायवध भय तथा जुगुप्सा * | ३x | १०x | १४|१ १८००० कुल भंग | ३३६०० Jain Education Intemational iterational Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.... पंचम अध्याय........{354} मिश्र गुणस्थान में बन्धहेतुओं के भंग/विकल्प क्रमांक बन्ध हेतु संख्या कुल बन्ध अविरति हेतु विकल्प कायवध भय कषाय कुलभंग युगल योग जुगुप्सा /विकल्प छः कायवध तथा १५ | भय ३४ | १०x | १- | १२०० छः कायवध तथा | १५ | १ जुगुप्सा ३४ | १०x | - | | १२०० पांच कायवध तथा जुगुप्सा | २४ | ३x | १० | १x१ ७२०० कुल भंग ६०० १६ | छः कायवध भय तथा जुगुप्सा | ४ | १४ | ४x | २४ | ३x | १०x x १ | १२०० Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{355} अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में बन्धहेतुओं के भंग/विकल्प बन्ध हेतु संख्या क्रमाक कुल बन्य हेतु विकल्प जो न घट सके उसके बाद योग कषाय युगल कायवध अविरति भय जुगुप्सा कुलभंग /विकल्प ३ | २ | १ ।। एक कायवध | १३x| ३ =| ३६-४=३५x | xx| २x६x| ५| - |- | ८४०० | १० | १ | दो कायवध १३x| ३ =| ३६-४३५x | ४x | २x | १५x |२१००० १०।१ एक कायवध तथा भय | ३ =| ३६-४-३५x | ४x| २x६x ५१x - I ८४०० | १० | १ । ३ | २ | १ |१ १ एक कायवध तथा जुगुप्सा | १३x| ३ =| ३६-४=३५x | ४x| २x६x| ५७ - |x=| ८४०० कुल भंग |३७८०० Jain Education Intemational Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{356} क्रमांक जो न घट सके उसके बाद हेतु संख्या बन्ध कुल बन्ध हेतु विकल्प योग Ilse युगल कायवध भय अविरति जुगुप्सा कुलभंग /विकल्प तीन कायवध | १३x| ३ =| ३६-४=३५xxx| २x२०xx - - |२८००० २ दो कायवध १३x| ३% ३६-४३५x २१००० " ३ | २ | २ दो कायवध तथा जुगुप्सा | ३= ३६-४३५४४x] ५x- x=|२१००० | १३x| ३ =| ३६-४=३५x | ४x| २x६x| १ |x=| ८४०० एक कायवध तथा जुगुप्सा कुल भंग' |७८४०० Jain Education Intemational Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{357} h क्रमाका जो न घट सके उसके बाद बन्ध हेतु संख्या कुल बन्ध हेतु वेद कषाय कायवध अविरति भय जुगुप्सा कुलभंग /विकल्प - पांच कायवध |३%D| ३६-४%D३५x | ८४०० चार कायवध |१३ तथा भय |३% ३६-४%३५४ | |१३ १ । १ ३ चार कायवध तथा जुगुप्सा ३६-४=३५x | | - |x= २१००० 193 चार | १३x| ३ =| ३६-४-३५x | ४x | २x | २० | ५ | १ |x=| २८००० कायवध भय तथा जुगुप्सा कुल भंग ७८४०० Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{358} अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में बन्धहेतुओं के भंग/विकल्प क्रमाक बन्ध हेतु संख्या कुल बन्ध हेतु विकल्प योग | जो न घट सके उसके बाद कषाय युगल कायवध अविरति भय जुगुप्सा कुलभंग विकल्प |१४ । १ । ३ । २ । १ छः कायवध | १३x| ३ =| ३६-४-३५x | ४x/ २x| १ | ५x - - १४०० २॥ पांच १४ १ कायवध तथा भय । | १३x| ३ =| ३६-४-३५x | ४x/ २x६x| ५x | १ |-.. ८४०० पांच कायवध तथा जुगुप्सा | १३x ३ =| ३६-४-३५x | ४x | २x६x | ५x | - १ ८४०० चार कायवध भय तथा जुगुप्सा | १३x| ३ =| ३६-४=३५x | ४x | २x| १५x x | 9x3 | २१००० कुल भंग |३६२०० Jain Education Intemational ducation Intermational Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.... पंचम अध्याय........{359} बन्ध हेतु संख्या कुल बन्ध हेतु क्रमाक जो न घट सके उसके बाद योग वेद कषाय युगल कायवध अविरति भय जुगुप्सा कुलभंग /विकल्प १५ | १ छः कायवध तथा भय १३x| ३ =| ३६-४३५x | ४x २x| १४ | ५ | १- १४०० १५ २] छः कायवध तथा जुगुप्सा | १३x| ३ = ३६-४=३५x | ४x२x ५x - १x१४०० ३ पांच कायवध | १५ | १ ३ | २ | ५ । भय तथा जुगुप्सा १३x] ३| ३६-४%3D३५४ | ४x२x६x | ५x | १|x१८४०० | कुल भंग ३६२०० |१६ ३ । २ ६ । कायवध भय तथा जुगुप्सा ३६-४=३५x | ४x | २x | 9x | ५x १ x१=| १४०० Jain Education Intemational Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... पंचम अध्याय........{360) देशाविरति गुणस्थान मैं बन्धहेतुओं के भंग/विकल्प क्रमांक कायवध कषाय युगल बन्ध हेतु संख्या बन्ध हेतु |विकल्प योग भय जुगुप्सा कुलमंग /विकल्प । एक कायवध ६६०० कुलभंग ६६०० कायवध १३२०० एक कायवष तथा भय | ११४ १ . ६०० एक कायवध तथा १ ६६०० जुगुप्सा कुल मंग | २६४०० Jain Education Intemational Jain Education Intemational Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... पंचम अध्याय........{361} देशविरति गुणस्थान में बन्धहेतुओं के भंग/विकल्प कुल कायवध क्रमांक कषाय युगल योग भय जुगुप्सा कुलभंग /विकल्प विकल्प ७ | १० तीन कायवध | १०x | ४४ १३२०० | १० | कायवध तथा भय १३२०० ३ दो कायवध तथा १० जुगुप्सा | ११४ - १३२०० एक कायवध भय तथा | १० | १ जुगुप्सा ५x | ५x | ४x | २x | ३x | ११x x-9 |x१ ६६०० कुल भंग |४६२०० Jain Education Intemational Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ १ २ ३ ४ चार कायवध तीन कायवध तथा भय तीन कायवध तथा जुगुप्सा देशविरति गुणस्थान में बन्धहेतुओं के अंग / विकल्प दो कायवध भय तथा जुगुप्सा कुल बन्ध हेतु विकल्प 66 99 99 99 इन्द्रिय असंयम १ ५४ 9 ५x १ १ ४ ५x ५x ३ १०X ५x १०X ३ २ २ १०X ४x २ ४५ २ २ ४x २x २ RX ··· २ २ ४x 楷 २ 1 RX ३x 9 ३x २x ३x 9 9 ३x 長 १ ११X १ ११X 9 ११x 9 99X I 9 9 ' I 9 पंचम अध्याय........ (362) जुगुप्सा ■ · · 9 6 9 १x १ कुल मंग कुलभंग विकल्प ६६०० १३२०० १३२०० १३२०० ४६२०० Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में 9 ३ 'गुणस्थान पांच कायवध चार कायवध तथा भय चार कायवध तथा जुगुप्सा देशविरति गुणस्थान में बन्धहेतुओं के भंग / विकल्प ४ तीन कायवध भय तथा जुगुप्सा कुल बन्ध हेतु विकल्प १२ १२ 'की अवधारणा...... १२ १२ इन्द्रिय असंयम 9 ५x १ 9 ५ x ५x ५x १ ४ oc ४ ५x ५x ३ ५x १०X २ ४५. ४x २ ४x २ ४x २ २x २ २x २ २x २ २x M १ ३x 9 ३x 9 ३x 9 ax 長 9 99 १ ११४ 9 99X १ 1 · 9 १ I 7 9 पंचम अध्याय.........(363) I . - १ 9 9 99X -9X -9 कुल भंग कुलभंग /विकल्प १३२० ६६०० ६६०० १३२०० २७७२० Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{364} देशविरति गुणस्थान में बन्धहेतुओं के भंग/विकल्प कुल क्रमांक इन्द्रिय असंयम कायवध कषाय बन्ध हेतु विकल्प युगल कुलभंग योग वेद भय जुगुप्सा /विकल्प | १३ १] पांच कायवध तथा भय X ३x १३२० २ पांच कायवध | १३ | तथा जुगुप्सा ३x १३२० ३/चार कायवध भय | १३ तथा जुगुप्सा ३४ | ११ | १४ |१ ६६०० कुल भंग ६२४० पांच कायवध भय तथा जुगुप्सा ५४ | १४ | ४x | २४ | ३x ११४ १x -१ | १३२० कुल आठ सौ चौसठ भंग होते हैं । कषाय| युगल | वेद योग . =गुणाकार | भय ४४२४३XE=२१६ ४४२४३XEx9%D२१६ . . ५ बन्धहेतु ६ भय सहित ६ जुगुप्सा सहित ७ भय-जुगुप्सा दोनों सहित . . ४४२४३X६x१=२१६ जुगुप्सा जुगुप्सा . . | ४४२४३४६x9x१=२१६ कुल- ८६४ Jain Education Interational Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{365} प्रमत्तसंयत गुणस्थान में उत्तर बन्धहेतुओं के विकल्पों की चर्चा करते हुए तृतीय कर्मग्रन्थ में देवेन्द्रसूरि लिखते हैं कि प्रमत्तसंयत गुणस्थान में सर्वविरति होने से पूर्व गुणस्थान में अवशिष्ट पांच इन्द्रिय, मन, पांच काय का वध-ये ग्यारह अविरति भी नहीं होती है । चौदह पूर्वधर आहारक शरीर की रचना करते हैं, इसी कारण से आहारक काययोग और आहारक मिश्र काययोग होते हैं । अतः संज्वलन चतुष्क, नोकषाय ६, योग १३-ऐसे कुल २६ बन्धहेतु होते हैं । स्त्रीवेदवाले जीवों को चौदह पूर्व के अध्ययन का निषेध होने से आहारक शरीर की रचना सम्भव नहीं होती है, इसीलिए स्त्रीवेदवाले जीवों में आहारकद्विक नहीं होने से एक जीव की अपेक्षा कम से कम पांच और अधिक से अधिक सात बन्धहेतु सम्भव होते है। इनके कुल बन्ध विकल्प इस प्रकार हैं - तेरह योग के साथ तीन वेद को गुणित करने से १३ x ३ = ३६, उसमें से दो कम करने से ३७, उसको दो युगल से गुणित करने से ७४ और चार कषाय से गुणित करने पर २६६, ये पांच बन्धहेतु के विकल्प हुए। उसमें भय मिलाने से छः बन्धहेतु के भी २६६ विकल्प या भंग, जुगुप्सा मिलाने से भी छः बन्ध हेतु के भी २६६ भंग या विकल्प तथा भय और जुगुप्सा दोनों मिलाने से सात बन्धहेतु के २६६ भंग या विकल्प होते है । इस प्रकार कुल ११८४ भंग या विकल्प छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान में होते है। सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में संज्वलन चतुष्क, ६ नोकषाय होते है । परन्तु योग ११ ही होते है, क्योंकि सातवें गुणस्थान में आहारक और वैक्रिय शरीर की रचना का प्रारम्भ नहीं होता है । छठे गुणस्थान में इन दोनों शरीर की रचना प्रारम्भ की हो, तो सातवें गुणस्थान में आ सकते हैं । इस कारण से आहारकमिश्र और वैक्रियमिश्र, ये दोनों योग सम्भव नहीं होते हैं। स्त्रीवेदवाले को तो आहारककाययोग भी नहीं होता है, अतः पुरुषवेद की अपेक्षा स्त्रीवेद में एक बन्धहेतु कम होता है । ११ योग के साथ तीन वेद को गुणित करने से ११ x ३ = ३३, उसमें से एक कम करने से ३२, उसे दो युगल से गुणित करने पर ६४, उसे चार कषाय से गुणित करने पर २५६ भंग या विकल्प होते हैं । ये पांच बन्धहेतुओं के विकल्प (मंग) हुए । उसमें भय मिलाने से भी छः बन्धहेतुओं के भी २५६ विकल्प या भंग होते है । उसमें जुगुप्सा मिलाने से भी छः बन्ध हेतुओं के २५६ विकल्प या भंग और भय तथा जुगुप्सा दोनों मिलाने से भी सात बन्ध हेतुओं के २५६ विकल्प या भंग होते हैं । इसप्रकार कुल १०२४ बन्ध विकल्प सातवें गुणस्थान में होते हैं। ___आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान में आहारककाययोग और वैक्रियकाययोग भी नहीं होते हैं, क्योंकि श्रेणी का आरंभ होने से शरीर की रचना नहीं होती है, इसीलिए मन के चार, वचन के चार और औदारिककाययोग-ऐसे नौ योग होते हैं । इनमें संज्वलन कषाय चतुष्क और नौ नोकषाय मिलाने से २२ बन्धहेतु होते हैं । इन २२ बन्धहेतुओं में एक जीव को एक समय में कम से कम पांच और अधिकतम सात बन्धहेतु होते है । इनमें पांच बन्धहेतु के कुल २१६ विकल्प या भंग होते हैं । भय मिलाने से छ: बन्धहेतु के भी २१६ भंग होते हैं । जुगुप्सा मिलाने से छः बन्धहेतु के भी २१६ भंग या विकल्प होते हैं । भय और जुगुप्सा दोनों मिलाने से सात बन्धहेतु के २१६ भंग या विकल्प होते हैं । इसप्रकार आठवें गुणस्थान में कुल ८६४ भंग या विकल्प होते हैं । ____ नवें अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में हास्यषट्क बिना १६ बन्धहेतु होते हैं । संज्वलन कषाय चतुष्क, तीन वेद और नौ योग-ऐसे कुल १६ बन्धहेतु होते हैं, परन्तु तीनों वेद का उदय तो नवें गुणस्थान के प्रथम भाग तक ही रहता है । नवें गुणस्थान के दूसरे भाग में उनका उदयविच्छेद हो जाता है । वेदोदय के समय में तीन बन्धहेतुओं के ३ वेद x ४ कषाय x ६ योग = १०८ विकल्प या भंग होते है । वेदरहित अवस्था में दो बन्धहेतुओं के ४ कषाय ग ६ योग = ३६ विकल्प या भंग होते है । इसप्रकार न गुणस्थान में दोनों को मिलाकर १४४ विकल्प या भंग होते है। सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में संज्वलन लोभ और नौ योग-ऐसे दस बन्धहेतु होते है । इन दस बन्ध हेतुओं के १ x ६ = ६ विकल्प या भंग होते है। ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थान में नौ योग होते है, अतः बन्ध हेतुओं के नौ विकल्प या भंग होते हैं । तेरहवें सयोगीकेवली गुणस्थान में सात योग होते हैं, इसीलिए वहाँ बन्धहेतुओं के सात ही विकल्प होते हैं। चौदहवें अयोगीकेवली गुणस्थान में बन्ध का अभाव होने से वहाँ कोई भी बन्धहेतु या उसके विकल्प या भंग नहीं होते हैं । इस प्रकार चौदह गुणस्थानों के सभी भंग या विकल्पों का योग ४७, १३, ०१० होता है । Jain Education Intemational w Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.... पंचम अध्याय........{366} षडशीति नामक चतुर्थ कर्मग्रन्थ की ६२ वीं और ६३ वीं गाथा में चौदह गुणस्थानों में अल्प-बहुत्व का विवेचन किया गया है । उपशान्तमोह गुणस्थानवी जीव सबसे कम हैं, क्योंकि एक साथ इस गुणस्थान को प्राप्त करने वाले जीव अधिक से अधिक ५४ ही होते हैं । उपशान्तमोह गुणस्थान से क्षीणमोह गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणा अधिक है, क्योंकि बारहवें गुणस्थान में एक साथ आरोहण करनेवाले अधिकतम १०८ जीव होते हैं । ये उल्लेख दोनों गुणस्थानों में एक साथ प्रवेश करनेवाले जीवों की अपेक्षा कहा गया है । इन दोनों गुणस्थानवी जीव संसार में कभी होते है और कभी नहीं भी होते हैं । कभी ऐसा भी होता है कि क्षीणमोह गुणस्थान में एक भी जीव न हो, परन्तु उपशान्तमोह गुणस्थान में जीव होते हैं, इसीलिए ये अल्प-बहुत्व अधिक से अधिक प्रवेश करनेवाले जीवों की अपेक्षा से ही समझना चाहिए । क्षीणमोह गुणस्थानवी जीवों की अपेक्षा आठवें, नवें तथा दसवें गुणस्थानवी जीव विशेषाधिक है, क्योंकि ये तीनों गुणस्थान दोनों श्रेणियों में आते हैं । इन तीनों गुणस्थानों में प्रवेश की अपेक्षा से प्रतिसमय अधिकतम ५४ + १०८ = १६२ जीव होते हैं । इन तीनों गुणस्थानों में आपस में जीवों की संख्या समान है। दसवें, नवें और आठवें गुणस्थानवी जीवों की अपेक्षा सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणा अधिक है, क्योंकि वे कोटि पृथक्त्व अर्थात् दो से नौ करोड़ होते हैं । जगचिंतामणि के चैत्यवंदन में 'नव कोडीहिं केवलिण' - ऐसा निर्देश भी है । सयोगी केवली गुणस्थानवी जीवों से अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणा अधिक है । क्योंकि अप्रमत्तसंयत मुनियों में कोटिसहस्रपृथक्त्व अर्थात् दो से नौ हजार करोड़ होते है, इसीलिए तेरहवें गुणस्थानवी जीवों की अपेक्षा अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव संख्यातगुणा अधिक है । इसमें प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणा अधिक है, जबकि प्रमत्तसंयत मुनियों की संख्या भी कोटिसहस्रपृथक्त्व ही है, परन्तु अप्रमाद अवस्था के काल से प्रमाद अवस्था का काल जीवों में अधिक होता है, इसीलिए अप्रमत्तंसयत गुणस्थानवी जीवों से प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव संख्यातगुणा अधिक कहे गए हैं । प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों से देशविरति गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणा अधिक है, क्योंकि प्रमत्तसंयत गुणस्थान तो मात्र मनुष्य में ही होता है, जबकि देशविरति गुणस्थान तो मनुष्य और तिर्यंच दोनों को होता है तथा मनुष्यों की अपेक्षा तिर्यंच असंख्यातगुणा अधिक होते है, इसीलिए छठे गुणस्थानवी जीवों की अपेक्षा पांचवें गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणा अधिक है । देशविरति गुणस्थानवी जीवों से सास्वादन गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणा अधिक है । सास्वादन गुणस्थान सदा नहीं होता है अर्थात् कभी होता है और कभी नहीं होता है, परन्तु जब भी होता है, तब एक, दो या असंख्यात जीव भी हो सकते हैं । देशविरति गुणस्थान तो मनुष्य और तिर्यंच को होता है, परन्तु सास्वादन गुणस्थान तो चारों गति के जीवों को होता है । सास्वादन गुणस्थानवी जीवों से मिश्र गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणा अधिक है, क्योंकि सास्वादन गुणस्थान का काल तो छः आवलिका ही है, जबकि मिश्र गुणस्थान का काल तो अन्तर्मुहर्त है । इस गुणस्थान का काल दीर्घ होने से प्रवेश करनेवाले और प्रवेश किए हुए जीवों की संख्या अधिक है । मिश्र गुणस्थानवी जीवों से अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणा अधिक है। चौथे गुणस्थान का काल तेंतीस सागरोपम से भी कुछ अधिक है, इसीलिए इस गुणस्थान में जीव की संख्या अधिक होती है तथा चौथे गुणस्थानवी जीव चारों गति में होते है और इस गुणस्थान में जीव दीर्घकाल तक रहते भी है, इसीलिए तीसरे गुणस्थान से चौथे गुणस्थानवी जीव असंख्यातगुणा अधिक होते है । अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों से अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव अनन्तगुणा अधिक है । सिद्ध के सभी जीव अयोगी केवली होने से, भवस्थ और अभवस्थ दोनों प्रकार के जीवों के कारण अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव अनन्तगुणा कहे गए हैं । अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव अनन्तगुणा अधिक है, क्योंकि मात्र साधारण वनस्पतिकाय के जीव (सूक्ष्म-बादर निगोद के जीव) ही अनन्त है । इसप्रकार षडशीति नामक चतुर्थ कर्मग्रन्थ सम्बन्धी विवरण समाप्त होता है । शतक नामक पंचम कर्मग्रन्थ में प्रतिपादित गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणाएँ शतक नामक पंचम कर्मग्रन्थ की दूसरी गाथा में धुवबन्धी प्रकृतियाँ कौन-कौन सी और कितनी है तथा उसका बन्ध Jain Education Intemational Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{367} कौन-कौन से गुणस्थानों में होता है, इसकी विवेचना की गई है । जिस गुणस्थान में जिनका बन्ध कहा गया है, उस-उस गुणस्थान में जिन कर्मप्रकृतियों का बन्ध अवश्य ही होता है, उन्हें ध्रुवबन्धी प्रकृतियाँ कहाँ जाता है । धुवबन्धी प्रकृतियाँ ४७ हैं । वे इस प्रकार है - (१) वर्ण (२) गन्ध (३) रस (४) स्पर्श (५) तैजस शरीर (६) कार्मण शरीर (७) अगुरुलघु नामकर्म (८) निर्माण नामकर्म (६) उपघात नामकर्म (१०) भय (११) जुगुप्सा (१२) मिथ्यात्वमोह (१३ से २८) सोलह कषाय (२६ से ३३) पाँच ज्ञानावरणीय (३४ से ४२) नौ दर्शनावरणीय और (४३ से ४७) पाँच अन्तराय । मिथ्यात्वमोहनीय का ध्रुवबन्ध प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में ही होता है । स्त्यानगृद्धित्रिक और अनन्तानुबन्धी चतुष्क का ध्रुवबन्ध सास्वादन गुणस्थान तक ही होता है । अप्रत्याख्यानीय चतुष्क का अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक तथा प्रत्याख्यानीय चतुष्क का देशविरति गुणस्थान तक धुवबन्ध होता है । निद्राद्विक का धुवबन्ध अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम भाग तक तथा वर्णादि चार, तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, निर्माण एवं उपघात-इन नौ प्रकृतियों का धुवबन्ध आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक होता है । भय और जुगुप्सा का धुवबन्ध आठवें गुणस्थान के अन्त तक होता है । संज्वलन क्रोध का नवें गुणस्थान के द्वितीय भाग तक, संज्वलन मान का नवें गुणस्थान के तृतीय भाग तक, संज्वलनमाया का न गुणस्थान के चतुर्थ भाग तक, संज्वलन लोभ का नवें गुणस्थान के पंचम भाग तक धुवबन्ध होता है । पाँच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय तथा पाँच अन्तराय-इन चौदह प्रकृतियों का धुवबन्ध दसवें गुणस्थान तक ही होता है। पंचम कर्मग्रन्थ की छठी गाथा में ध्रुवोदयी २७ प्रकृतियों का वर्णन किया गया है । जिन कर्मप्रकृतियों का जिस गुणस्थान तक उदय कहा गया है. वहाँ तक उनका अविच्छिन्न रूप से उदय बना रहे, उन्हें ध्रुवोदयी कर्म प्रकृतियाँ कहा जाता है। ये निम्न प्रकार है :- (१) निर्माण (२) स्थिर (३) अस्थिर (४) अगुरुलघु (५) शुभ (६) अशुभ (७) तैजस (८) कार्मण (E) वर्ण (१०) गन्ध (११) रस (१२) स्पर्श (१३ से १७) पाँच ज्ञानावरणीय (१८ से २२) पाँच अन्तराय (२३ से २६) चार दर्शनावरणीय और (२७) मिथ्यात्वमोह । मिथ्यात्व मोह का धुवोदय प्रथम गुणस्थान तक होता है । पाँच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय तथा पाँच अन्तराय-इन चौदह प्रकृतियों का धुवोदय बारहवें गुणस्थान तक होता है, शेष नामकर्म की बारह प्रकृतियों का ध्रुवोदय तेरहवें गुणस्थान तक होता है। ___पंचम कर्मग्रन्थ की दसवीं गाथा से लेकर बारहवीं गाथा तक में विभिन्न गुणस्थानों में किन कर्म प्रकृतियों की धुवसत्ता होती है, इसका विवेचन किया गया है। जिस कर्मप्रकृति की सत्ता जिस गुणस्थान तक कही गई है, वहाँ तक निश्चय से उसकी सत्ता होती ही है, उसे धुवसत्ता कहते हैं। ध्रुवसत्ता वाली प्रकृतियाँ १३० है। (१ से २०) त्रसवीशक (२१ से २४) वर्णवीशक (४१ से ४७) तैजस कार्मण सप्तक (४८ से १६) ध्रुवबन्धी इकतालीस प्रकृतियाँ (६० से ६२) तीन वेद (६३ से ६६) छः संस्थान (१०० से १०५) छः संघयण (१०६ से ११०) जाति पाँच (१११ से ११२) दो वेदनीय (११३ से ११४) दो युगल (११५ से १२१) औदारिक सप्तक (१२२ से १२५) उच्छ्वास चतुष्क (१२६ से १२७) विहायोगतिद्विक (१२८ से १२६) तिर्यंचद्विक तथा (१३०) नीचगोत्र । प्रथम तीन गुणस्थान में मिथ्यात्व मोहनीय की सत्ता निश्चय से हाती है । अविरतसम्यग्दृष्टि आदि आठ आगे के गुणस्थानों में विकल्प से होती है, क्योंकि जिसने मिथ्यात्वमोह का क्षय किया है, उसे नहीं होती है तथा जिसने मिथ्यात्व मोह का उपशमन किया है, उसे मिथ्यात्व मोह की सत्ता होती है। सास्वादन गुणस्थान में सम्यक्त्व मोहनीय की सत्ता निश्चय से होती है तथा मिथ्यात्वादि दस गुणस्थानों में विकल्प से होती है। जब जीव को मिथ्यात्व गुणस्थान की प्राप्ति होती है, तब निश्चय से वह मोहनीय कर्म की अट्ठाईस कर्मप्रकृतियों की सत्तावाला होता है । द्वितीय गुणस्थान में सम्यक्त्व मोहनीय की सत्ता निश्चय से होती है । अनादि मिथ्यात्वी जीव को तथा जिसने सम्यक्त्व की उद्वलना की है, उसे सम्यक्त्व मोहनीय की सत्ता नहीं होती है, अन्य जीवों को होती है । मिश्र गुणस्थान में मोहनीय कर्म की सत्ताईस कर्मप्रकृतियों की सत्तावाले तथा सम्यक्त्व की उद्वलना करने वाले को सम्यक्त्व मोहनीय की सत्ता निश्चय ही होती है, किन्तु दूसरों को नहीं होती है । अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थान तक क्षायिक सम्यक्त्वी को सम्यक्त्व मोहनीय की सत्ता होती है, अन्य को नहीं होती है । सास्वादन और मिश्र गुणस्थान में निश्चय से मिश्र मोहनीय की सत्ता होती है। सास्वादन गुणस्थान एवं मिश्र गुणस्थान उन्हें ही प्राप्त होता है, जिसमें मोहनीय कर्म की Jain Education Interational Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... पंचम अध्याय........{368} अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता होती है, किन्तु सम्यक्त्व की उद्वलना करनेवाले को मोहनीय कर्म की सत्ताईस कर्मप्रकृतियों की ही सत्ता होती है, अनन्तानुबन्धी की उद्वलना करनेवाले को मोहनीय कर्म की चौबीस प्रकृतियों की सत्ता होती है, इसलिए मिश्र गुणस्थान में २८, २७ और २४-ऐसे तीन सत्तास्थान होते हैं। मोहनीय कर्म की छब्बीस प्रकृतियों की एक साथ सत्ता मिश्र गुणस्थान में नहीं होती है। सास्वादन और मिश्र गुणस्थान में निश्चय से मिश्र मोहनीय की सत्ता होती है । मिथ्यात्व से उपशान्तमोह तक दूसरे एवं तीसरे गुणस्थान को छोड़कर नौ गुणस्थानों में मिश्रमोहनीय की सत्ता विकल्प से होती है । जो मिथ्यात्वी जीव मोहनीय कर्म की छब्बीस प्रकृतियों की सत्तावाले होते हैं, उन्हें मिश्र मोहनीय की सत्ता नहीं होती है, अन्यों को होती है । चौथे गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक जो क्षायिक सम्यग्दृष्टि हैं, उन्हें मिश्रमोहनीय की सत्ता नहीं होती है, अन्य को होती है । प्रथम गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी कषाय निश्चय से बन्ध और उदय में रहता है, दूसरे गुणस्थान में और उदय में निश्चय से हो, तो ही सत्ता में रहता है । मिश्र से उपशान्तमोह तक, इन नौ गुणस्थानों में अनन्तानुबन्धी कषाय की सत्ता विकल्प से होती है । जिनको अनन्तानुबन्धी कषाय को छोड़कर मोहनीय कर्म की शेष २४ प्रकृतियों की सत्ता होती है, उन्हें मिश्र गुणस्थान नहीं होता है, किन्तु जिन्हें मोहनीयकर्म की २७ या २८ कर्मप्रकृतियाँ सत्ता में रहती है, उसे तृतीय मिश्र गुणस्थान होता है । जिन्हें चतुर्थ से एकादश गुणस्थान तक मोहनीयकर्म की २१, २२, २३ या २४ प्रकृतियों की सत्ता होती है, उनमें अनन्तानुबन्धी की सत्ता नहीं होती है, किन्तु २७, २८ की सत्तावाले में अनन्तानुबन्धी की सत्ता होती है । आहारकसप्तक की सत्ता सभी गुणस्थानों में विकल्प से होती है । जो अप्रमत्त साधु संयमप्रत्ययिक आहारक सप्तक का बन्ध करके अग्रिम गुणस्थान में आरोहण करे अथवा ऊपर के गुणस्थान से पतित हो उसे आहारकसप्तक की सभी गुणस्थानों में सत्ता होती है तथा जो आहारक सप्तक का बन्ध ही न करे, उसे आहारकसप्तक की सत्ता नहीं होती है । दूसरे और तीसरे गुणस्थान को छोड़कर सभी गुणस्थान में तीर्थंकर नामकर्म की सत्ता विकल्प से होती है। कोई भी जीव सम्यक्त्व प्रत्ययिक तीर्थकर नामकर्म बांधकर अग्रिम गुणस्थानों में आरोहण करे, तो सभी गुणस्थानों में तीर्थंकर नामकर्म की सत्ता होती है तथा किसी जीव ने पूर्व में नरकायुष्य का बन्ध करके क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्तकर तथाविध अध्यवसाय में तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध कर अन्त समय में सम्यक्त्व का वमन कर मिथ्यात्व गुणस्थान प्राप्त कर नरक में जाए, तब मिथ्यात्व गुणस्थान में जिननाम की सत्ता होती है तथा जो शुद्ध सम्यक्त्व को प्राप्त होने पर भी जिननाम का बन्ध न करे उसे सभी गुणस्थानों में तीर्थंकर नाम कर्म की सत्ता नहीं होती है । तीर्थकर नामकर्मवाले जीव सास्वादन और मिश्र गुणस्थान को प्राप्त नहीं करते है, इसीलिए तीर्थकर नामकर्म का इन दो गुणस्थानों में निषेध किया गया है । आहारक सप्तक और तीर्थकर नामकर्म-इन दोनों की सत्तावाले जीव मिथ्यात्व गुणस्थान का स्पर्श नहीं करते हैं। पूर्व में नरकायुष्य का बन्ध करके क्षायोपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त कर तीर्थकर नामकर्म का बन्ध करें, तो जीव, मृत्यु के समय सम्यक्त्व का वमन करके मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होकर नरक में उत्पन्न हो, वहाँ तुरन्त सम्यक्त्व प्राप्त करता है, इसीलिए कहा है कि तीर्थकर नामकर्म सत्ता में होने पर भी अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होता है। पंचम शतक नामक कर्मग्रन्थ में किस गुणस्थानवी जीव किन कर्म प्रकृतियों का उत्कृष्ट बन्ध करता है, इसकी विवेचना उपलब्ध होती है। उसकी ४२, ४४ एवं ४५ वीं गाथा में कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव आहारकद्विक तीर्थकर नामकर्म और उत्कृष्ट देवायु को छोड़कर शेष बन्ध योग्य १०६ प्रकृतियों का उत्कृष्ट बन्ध करते हैं । देवायु का उत्कृष्ट बन्ध प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थान में ही होता है । आहारकद्विक का उत्कृष्ट बन्ध अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थान में होता है। तीर्थकर नामकर्म का उत्कृष्ट बन्ध अविरतसम्यग्दृष्टि नामक चौथे गुणस्थान में होता है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवाला अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीव आहारकद्विक और तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध तो करता है, किन्तु उनकी जघन्य स्थिति का बन्ध करता है, उत्कृष्ट स्थिति का नहीं । इसी प्रकार अनिवृत्तिकरण गुणस्थान नामक नवें गुणस्थानवी जीव संज्वलन कषाय और पुरुषवेद का बन्ध तो कर सकता है, किन्तु वह जघन्य स्थिति का बन्ध कर सकता है, उत्कृष्ट स्थिति का नहीं। इसी प्रकार सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवी जीव सातावेदनीय, यश नामकर्म, उच्चगोत्र, पाँच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{369) और पाँच अन्तराय कर्मों की जघन्य स्थिति का ही बन्ध करता है, उत्कृष्ट का नहीं । उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें, क्षीणमोह नामक बारहवें, सयोगीकेवली नामक तेरहवें गुणस्थान में सातावेदनीय का ही बन्ध सम्भव होता है, किन्तु इन तीनों गुणस्थानवर्ती जीव सातावेदनीय का जघन्य स्थितिबन्ध करते हैं, उत्कृष्ट का नहीं। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि उत्कृष्ट स्थिति बन्ध संक्लिष्ट परिणामों के होने पर ही सम्भव होता है और सातवें गुणस्थान के पश्चात् संक्लिष्ट परिणाम होते नहीं हैं, इसीलिए सातवें गुणस्थान के पश्चात् उत्कृष्ट स्थितिबन्ध का अभाव कहा गया है । चौथे गुणस्थान में तीर्थंकर नामकर्म का और प्रमत्तसंयत नामक गुणस्थान में आहारकद्विक और देवायु का जो उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कहा गया है, वहाँ संक्लिष्ट परिणाम तो होते हैं, किन्तु ये संक्लिष्ट परिणाम भी शुभ भावों को लेकर ही होते हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत आदि में जो संक्लिष्ट परिणाम कहे गए हैं, वे शुभ भावों की या प्रशस्त राग की अपेक्षा से ही समझना चाहिए, क्योंकि इन चार प्रकृतियों को छोड़कर शेष सभी कर्मप्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध केवल मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ही सम्भव होता है । इस प्रकार पंचम कर्मग्रन्थ में जो उत्कृष्ट और जघन्य स्थितिबन्ध की चर्चा उपलब्ध होती है, उसमें गुणस्थानों की दृष्टि से उपर्युक्त अवधारणाएं मिलती हैं । शतक नामक पंचम कर्मग्रन्थ की ४८ वीं गाथा में, किस गुणस्थान में कितनी कालस्थिति का बन्ध होता है, इसका विवचेन किया गया है। इसमें बताया गया है कि वैसे तो मिथ्यात्व गुणस्थान में मोहनीय कर्म का उत्कृष्ट बन्ध ७० कोडाकोडी सागरोपम है, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय कर्म का उत्कृष्ट बन्ध ३० कोडाकोडी सागरोपम होता है तथा नाम और गोत्र कर्म का उत्कृष्ट बन्ध २० कोडाकोडी सागरोपम होता है, किन्तु साधक जब ग्रंथिभेद कर लेता है, तो फिर कर्मबन्ध की स्थिति अति न्यून हो जाती है । ग्रंथिभेद तभी सम्भव होता है, जब सभी कर्मो की उत्कृष्ट स्थिति अन्तः कोडाकोडी सागरोपम से अधिक न हो । अतः दूसरे सास्वादन गुणस्थान से लेकर आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान तक मोहनीय आदि कर्मों का बन्ध अन्तः कोडाकोडी सागरोपम की स्थितिवाला ही होता है, न तो उससे अधिक का कर्मबन्ध होता है और न ही कम का । शतक नामक पंचम कर्मग्रन्थ की ६०, ६१, ६२ वीं गाथा में मूल और उत्तर प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के स्वामी का वर्णन किया गया है । आष्युष्यकर्म के उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के स्वामी उत्कृष्ट योगवाले मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती संज्ञी पर्याप्त जीव होते हैं। मोहनीय कर्म के उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के स्वामी दूसरे और तीसरे गुणस्थान को छोड़कर मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण तक सात गुणस्थानवर्ती उत्कृष्ट योगवाले जीव होते हैं। आयुष्य और मोहनीयकर्म को छोड़कर शेष छः कर्मों में ज्ञानावरणीय की पाँच, दर्शनावरण की नौ, अन्तराय की पाँच, सातावेदनीय, यशनामकर्म और उच्चगोत्र-इन १७ प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के स्वामी सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवी जीव होते हैं । अप्रत्याख्यानीय कषाय के उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के स्वामी आयुष्य को छोड़कर शेष सात कर्मों का बन्ध करनेवाले अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव होते हैं । प्रत्याख्यानीय कषाय के उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के स्वामी आयुष्य को छोड़कर शेष सात कर्मों का बन्ध करनेवाले देशविरति गुणस्थानवी जीव होते हैं । पुरुषवेद और संज्वलनकषाय चतुष्क के उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के स्वामी उत्कृष्ट योगवाले अनिवृत्तिबादरसंपराय गणस्थानवी जीव होते हैं । शुभविहायोगति, मनुष्याय, देवत्रिक, सुभगत्रिक, वैक्रियद्विक, समचतुरन संस्थान, असातावेदनीय और वज्रऋषभनाराच संघयण-इन १३ प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के स्वामी उत्कृष्ट कर्म । निद्रा, प्रचला, हास्य, रति, शोक, अरति, भय, जुगुप्सा और तीर्थंकर नामकर्म-इन नौ प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के स्वामी सम्यग्दृष्टि जीव हैं । आहारकद्विक के उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के स्वामी सुयति अर्थात् सम्यक् चरित्र का पालन करने वाले मुनि होते हैं और शेष नामकर्म की ६६ प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध के स्वामी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव होते हैं। शतक नामक पंचम कर्मग्रन्थ की ६३ वीं गाथा में उत्तर कर्मप्रकृतियों के जघन्य प्रदेशबन्ध के स्वामी की चर्चा है । अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती यति परावर्तमान अष्टविध बन्धक स्वप्रायोग्य नामकर्म की ३१ प्रकृतियों का बन्ध करते समय आहारकद्विक का जघन्य प्रदेशबन्ध करता है । परावर्तमान योगवाला असंज्ञी पर्याप्त जीव नरकत्रिक और देवायु इन चार प्रकृतियों का जघन्य Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{370) प्रदेशबन्ध करता है । देवद्विक, वैक्रियद्विक और जिननाम-इन पाँच प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध सम्यग्दृष्टि जीव अपने जन्म के प्रथम समय में करता है । उदाहरण के रूप में यदि कोई मनुष्य तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध करते हुए मृत्यु को प्राप्त अनुत्तर विमान में उत्पन्न होता है, तो वहाँ अपने जन्म के प्रथम समय में वह तीर्थंकर नामकर्म और उसकी सहवर्ती बीस प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध ही करता है । इसी प्रकार तीर्थकर नामकर्म का बन्ध करता हुआ यदि कोई जीव देव अथवा नारक योनि से च्युत होकर मनुष्य रूप में उत्पन्न होता है, तो यहाँ भी वह अपनी उत्पत्ति के प्रथम समय में तीर्थकर नामकर्म और उसकी सहयोगी २६ प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध ही करता है । इसी प्रकार सूक्ष्म निगोद के अपर्याप्त जीव अपने जन्म के प्रथम समय में अल्प वीर्यवाले होने के कारण तथा अनेक प्रकृतियों को बांधते हुए १०६ प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध ही करते हैं । यहाँ जघन्य प्रदेशबन्ध करने का कारण यह है कि अप्रमत्तसंयत में आहारकद्विक के बन्ध के तीव्र परिणाम नहीं होते हैं । इसी प्रकार अपने जन्म के प्रथम समय में अपर्याप्त अवस्था के कारण जीव का पुरुषार्थ इतना अल्प होता है कि वह कर्म प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशबन्ध ही करता है। उपशम और क्षपक श्रेणी की अवधारणा और गुणस्थान सिद्धान्त : शतक नामक पंचम कर्मग्रन्थ की ६८ वीं और ६६ वीं गाथा में तथा सप्तति नामक षष्ठ कर्मग्रन्थ की गाथा क्रमांक ७५ से ५८ तक में उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी का निर्देश किया गया है । ज्ञातव्य है कि श्रेणी-आरोहण गुणस्थानों के माध्यम से ही होता है । गुणस्थानों की अवधारणा में आठवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक आध्यात्मिक विकास के दो मार्गों का विवेचन उपलब्ध होता है । शास्त्रीय परिभाषा में इन्हें, उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी कहा जाता है। जो साधक उपशमश्रेणी से अपना आध्यात्मिक विकास करता है, वह ग्यारहवें उपशांतमोह गुणस्थान को प्राप्त करके वहाँ से पतित हो जाता है, जबकि जो आत्मा क्षपकश्रेणी से यात्रा करती है वह आठवें, नवें, दसवें गुणस्थान से क्रमिक विकास करती हुई सीधे बारहवें गणस्थान में प्रवेश करती है और इस गुणस्थान के अन्त में ज्ञानावरण आदि कर्मों का सम्पूर्ण क्षय करके कैवल्य अवस्था को प्राप्त हो जाती है । क्षपक श्रेणी से विकास करनेवाली आत्मा ग्यारहवें गुणस्थान का स्पर्श नहीं करती है, क्योंकि यह उपशमश्रेणी का अन्तिम गुणस्थान है । उपशमश्रेणी से यात्रा करनेवाला साधक अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से अपनी यात्रा प्रारम्भ करता है, किन्तु कुछ आचार्यों के अनुसार इसकी यात्रा का प्रारम्भ असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से होता है । इस गुणस्थान में वह सर्वप्रथम अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क का उपशम करता है और फिर श्रेणी आरोहण करता है, किन्तु कुछ आचार्यों की मान्यता है कि, सप्तम गुणस्थान में अन्तन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क की विसंयोजना करता है और त्तत्पश्चात् श्रेणी आरोहण करता है । पंचम कर्मग्रन्थ की ६८ वी गाथा में कहा गया है कि उपशमश्रेणी का साधक अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क, दर्शनमोह, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्यादिषट्क के दो युगल को क्रमशः उपशमित करता है । इस प्रकार उन्हें उपशमित करता हुआ वह ग्यारहवें उपशांतमोह अवस्था को प्राप्त होता है। इस अवस्था में जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त तक रहकर उपशमित कषायों और नोकषायों के उदय से ग्यारहवें गुणस्थान से पतित हो जाता है। उपशमश्रेणी में कर्म सत्ता में बने रहते हैं । साधक अपनी साधना के बल पर कुछ काल के लिए उनके उदय को रोक देता है, किन्तु सत्ता में रहे हुए वह कर्म अन्ततोगत्वा उदय में आते ही है और साधक को अपने आध्यात्मिक विकास की इस स्थिति से पतित कर देते हैं । पतित होते समय वह क्रमशः उल्टेक्रम से गुणस्थानों का स्पर्श करता हुआ नीचे गिरता है । पतन के इस क्रम में वह सातवें, चौथे या प्रथम गुणस्थान में विश्राम लेकर पुनः यात्रा प्रारम्भ कर सकता है। उपशमश्रेणी से वास्तविक आरोहण तो सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान के चरम समय से ही प्रारम्भ होता है । यद्यपि यह सम्भव है कि कोई आत्मा अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क, दर्शनमोह, अप्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क और प्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क का उपशम करती हुई सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान को प्राप्त होती है । इसके साथ यह भी सम्भव है कि वह सातवें गुणस्थान में अनन्तानुबंधी कषाय चतुष्क की विसंयोजना करके और दर्शनमोह त्रिक का क्षय करके अन्य कषायों और नोकषायों का उपशम करती हुई अग्रिम यात्रा करें । उपशमश्रेणी से आध्यात्मिक विकास की यात्रा करनेवाला साधक वज्रऋष ऋषभनाराच और नाराच - इन तीन प्रथम संघयणों में से किसी एक संघयणवाला होता है । किन्तु जो साधक उसी भव में Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... पंचम अध्याय........{371} उपशम श्रेणी से गिरकर पुनः क्षपक श्रेणी से आरोहण करता है वह निश्चय से वज्रऋषभनाराच संघयणवाला चरमशरीरी जीव होता I व्यक्ति अपने जीवन में कितनी बार उपशमश्रेणी से आरोहण कर सकता है ? इस प्रश्न के उत्तर के सम्बन्ध में आचार्यों में मतभेद देखा जाता है । कर्मग्रन्थकार आचार्य यह मानते हैं कि कोई भी जीव एक भव में अधिक से अधिक दो बार उपशम श्रेणी आरोहण कर सकता है, किन्तु आगमिक मान्यता इससे भिन्न है । आगमिक मान्यता के अनुसार कोई जीव एक भव में एक ही बार उपशमश्रेणी से आरोहण करता है । यद्यपि आगमकाकारों का इस बात से कोई विरोध नहीं है कि कोई जीव उसी भव में उपशमश्रेणी से पतित होकर पुनः क्षपकश्रेणी से यात्रा प्रारम्भ करके मुक्ति को प्राप्त करें । इस प्रकार आगमिक मान्यता के अनुसार एक भव 'एक बार उपशमश्रेणी और एक बार क्षपक श्रेणी की जा सकती है । कोई जीव अपने संसारचक्र की सम्पूर्ण यात्रा में कितनी बार उपशमश्रेणी कर सकता है । इस प्रश्न का उत्तर देते हुए यह कहा गया है कि कोई जीव इस संसार में परिभ्रमण करते हुए उन समस्त भवों में अधिक से अधिक चार बार उपशमश्रेणी कर सकता है, किन्तु एक भव में तो यह दो ही बार उपशमश्रेणी कर सकता है, उससे अधिक बार नहीं । यहाँ पर यह भी शर्त है कि जो जीव एक ही भव में दो बार उपशम श्रेणी करता है, वह उसी भव में क्षपकश्रेणी प्रारम्भ नहीं कर सकता क्योंकि उसके द्वारा मोहनीय कर्म का सम्पूर्ण क्षय सम्भव नहीं है । जहाँ तक उपशमश्रेणी के काल का प्रश्न है वह जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त होता है । जघन्य से एक समय इसीलिए कहा जाता है कि कोई जीव उपशमश्रेणी प्रारम्भ करके आठवें गुणस्थान में प्रवेश करके आयुष्य पूर्ण कर ले, तो वह कम से कम उसमें एक समय रहकर भी मृत्यु को प्राप्त होकर देवलोक में जन्म ले लेता है । उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त इसलिए कहा गया कि किसी भी श्रेणी का सम्पूर्ण काल अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं होता है। सत्ता में रहे हुए कर्मों का क्षय करते हुए आध्यात्मिक विकास की जो यात्रा की जाती है उसे क्षपक श्रेणी कहते हैं । उपशमश्रेणी में कर्मों के उदय को रोका जाता है, किन्तु वे सत्ता में बने रहते हैं, जबकि क्षपकश्रेणी में कर्मों को क्षय कर दिया जाता है, अतः उनके पुनः उदय की संभावना ही समाप्त हो जाती है । उपशमश्रेणी से यात्रा करनेवाला साधक पुनः पतित होता ही है, जबकि क्षपकश्रेणी से यात्रा करने वाला साधक पतित नहीं होता है । वह अग्रिम विकास करता हुआ उसी भव में मोक्ष को प्राप्त करता है । क्षपकश्रेणी से आरोहण की प्रक्रिया भी सातवें गुणस्थान से ही प्रारम्भ होती है। जो साधक सातवें गुणस्थान अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क की विसंयोजना करके तथा दर्शनमोह त्रिक का क्षय करके अग्रिम यात्रा करते हैं, वे ही क्षपकश्रेणी से आरोहण कर सकते हैं । जो इनका उपशम करके अग्रिम यात्रा करते हैं, उनमें क्षपकश्रेणी से आरोहण करने की पात्रता नहीं होती है । क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवाली आत्मा आठवें, नवें और दसवें गुणस्थानों में क्रमशः आरोहण करती हुई सीधी बारहवें गुणस्थान को प्राप्त होती है । वह ग्यारहवें गुणस्थान का स्पर्श नहीं करती है, क्योंकि ग्यारहवाँ गुणस्थान नियम से पतन का स्थान है । अतः क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवाली आत्मा सीधे बारहवें गुणस्थान को प्राप्त होती है और वहाँ से तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान को प्राप्त करके अन्त में मोक्ष की प्राप्ति करती है । श्रेणी और क्षपकश्रेणी में मूलभूत अन्तर यह है कि उपशमश्रेणी वाला साधक कर्मों के उदय या विपाक को रोकता है या कुछ काल के लिए स्थगित होता है, उनका समूलरूप से नाश नहीं करता है । इसीलिए उसका पतन अवश्यम्भावी है । वह उस श्रेणी से आरोहण करते हुए मुक्ति को प्राप्त नहीं कर पाता है, अपितु ग्यारहवें गुणस्थान से पतित होकर निम्न सातवें गुणस्थान, चौथे गुणस्थान या प्रथम गुणस्थान का स्पर्श करता है, जबकि क्षनक श्रेणीवाला नियम से मुक्ति को प्राप्त करता है । काल की अपेक्षा से क्षपक श्रेणी का जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही माना गया है, क्योंकि आठवें से लेकर बारहवें गुणस्थान तक सभी गुणस्थानों का काल अलग-अलग रूप से और समुच्चय रूप से अन्तर्मुहूर्त से अधिक नहीं होता है । क्षपक श्रेणी वही जीव प्रारम्भ कर सकता है, जो चरमशरीरी होता है और वज्रऋषभनाराच संघयण से युक्त होता है । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जहाँ अपने सम्पूर्ण संसार परिभ्रमण काल में उपशमश्रेणीवाला जीव अधिक से अधिक चार बार श्रेणी आरोहण करता है, वहाँ क्षपकश्रेणी तो संसार के सम्पूर्ण परिभ्रमण काल में एक ही बार करता है । उपशमश्रेणीवाला जीव उपशमश्रेणी करते हुए आठवें से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक कहीं भी मृत्यु को प्राप्त हो सकता है, किन्तु क्षपक श्रेणीवाला जीव श्रेणी प्रारम्भ करके Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{372} मृत्यु को प्राप्त नहीं होता है । वह बारहवें गुणस्थान से आगे बढ़ते हुए तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान का स्पर्श करते हुए ही देह का त्याग करता है । अतः क्षपकश्रेणी से आध्यात्मिक विकास की यात्रा करनेवाला जीव मध्य में रूकता नहीं है, पतित नहीं होता है । वह नियम से अग्रिम-अग्रिम गुणस्थनों को स्पर्श करते हुए चौदहवें अयोगी केवली गुणस्थान से मुक्ति को प्राप्त करता है। जबकि उपशमश्रेणीवाला जीव ग्यारहवें गुणस्थान का भी स्पर्श करें यह आवश्यक नहीं होता है, वह आठवें, नवें और दसवें गुणस्थान से भी पतित हो सकता है। ___इस प्रकार जैनदर्शन यह सिद्धान्त प्रतिपादित करता है कि उपशमश्रेणी में चाहे व्यक्ति का क्षणिक आध्यात्मिक विकास होता है, किन्तु वह मुक्ति का मार्ग नहीं । मुक्ति का मार्ग तो क्षपकश्रेणी से आरोहण करने में ही है । जैनदर्शन में उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी से आध्यात्मिक विकास करने सम्बन्धी यह अवधारणा आधुनिक मनोवैज्ञानिक की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस सम्बन्ध में डॉ. सागरमल जैन ने अपने शोध ग्रन्थ 'जैन, बोध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' में विस्तार से चर्चा की है । यहाँ हम उसके कुछ महत्वपूर्ण अंश प्रस्तुत कर रहे हैं, ताकि यह सिद्ध हो सके कि, क्षपकश्रेणी ही मुक्ति का वास्तविक मार्ग है । डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं कि, जैन परम्परा अपने पारिभाषिक शब्दों में स्पष्ट रूप से कहती है कि साधना का सच्चा मार्ग औपशमिक नहीं, वरन् क्षायिक है। जैन दृष्टिकोण के अनुसार औपशमिक मार्ग वह मार्ग है, जिसमें मन की वृत्तियों या निहीत वासनाओं को दबाकर साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ा जाता है । इच्छाओं के निरोध का मार्ग ही औपशमिक मार्ग है। जैसे आग को राख से ढक दिया जाता है, वैसे ही उपशम में कर्म संस्कार या वासना-संस्कार को दबाते हुए नैतिक साधना के मार्ग पर आगे बढ़ा जाता है। आधुनिक मनोविज्ञान की भाषा में यह दमन का मार्ग है । साधना के क्षेत्र में भी वासना-संस्कार को दबाकर आगे बढ़ने का मार्ग दमन का मार्ग है । यह मन की शुद्धि का वास्तविक मार्ग नहीं है । यह तो मानसिक गंदगी को ढकना या छिपाना मात्र है। जैन-विचारकों ने गुणस्थान के विवेचन में बताया है कि वासनाओं को दबाकर आगे बढ़ने की यह अवस्था नैतिक विकास में आगे तक नहीं चलती है। ऐसा साधक विकास की अग्रिम कक्षाओं से अनिवार्यतया पदच्युत हो जाता है। कोई साधक उपशम के आधार पर आध्यात्मिक प्रगति कर ले तो भी लक्ष्य तक पहुँचकर पुनः पतित हो जाता है । उपशम सम्यक्त्ववाला और क्षायोपशमिक सम्यक्त्ववाला जीव आध्यात्मिक पूर्णता के चौदह गुणस्थानों में से ग्यारहवें गुणस्थान को प्राप्त कर पुनः वहाँ से पतित होकर प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान को भी प्राप्त हो जाता है। जैन दर्शन में आत्मोन्नति का सच्चा मार्ग वासनाओं का दमन नहीं है, किन्तु उनका क्षय करना है । वासनाओं के दमन और क्षय में क्या अन्तर है? जहाँ दमन से मन में वासनाएँ तो उठती है, किन्तु उन्हें दबा दिया जाता है, जबकि क्षय में तो शनैः-शनैः वासनाओं का क्षय हो जाता है, उनका उड़ना समाप्त हो जाता है । दमन अर्थात् उपशम वह प्रक्रिया है जिसमें क्रोध आता है, परन्तु उसे दबाया जाता है, जबकि क्षय में क्रोधादि भाव ही समाप्त हो जाते हैं। ___ इस प्रकार गुणस्थान सिद्धान्त के सन्दर्भ में उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी की अवधारणा यही सिद्ध करती है कि आध्यात्मिक विकास का सम्यक् मार्ग वासनाओं का दमन नहीं, अपितु उन्हें जड़ मूल से समाप्त करना है। सप्ततिका नामक पष्ठमकर्मग्रन्थ में प्रतिपादित गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणाएँ छः कर्मग्रन्थों में पाँच कर्मग्रन्थों के पूर्वाचार्य कृत प्राचीन और देवेन्द्रसूरि कृत नवीन-ऐसे दोनों ही प्रकार उपलब्ध होते हैं। यघपि गाथा भेद को छोड़कर इनमें प्रतिपादन में विशेष अन्तर परिलक्षित नहीं होता है, किन्तु जहाँ तक सप्ततिका नामक षष्ठ कर्मग्रन्थ का प्रश्न है, वह प्राचीन ही है। देवेन्द्रसूरि ने छठा कर्मग्रन्थ नहीं लिखा है । उन्होंने प्राचीन सप्ततिका नामक कर्मग्रन्थ को ही छठे कर्मग्रन्थ के रूप में रखा है। यह छठा कर्मग्रन्थ आचार्य चन्द्रर्षि महत्तर की कृति मानी जाती है। वर्तमान में इसमें १ गाथाएँ उपलब्ध होती है, किन्तु सिद्धान्तः इसके नामानुरूप ७० गाथाएँ ही होना चाहिए। दिगम्बर के पंचसंग्रह के सप्ततिका नामक पंचम अधिकार मे मूल गाथाएँ ७२ ही है । श्वेताम्बर सप्ततिका नामक छठे कर्मग्रन्थ में जो अधिक गाथाएँ पाई जाती हैं, वे मुख्यतया भाज्य गाथाएँ ही है और अन्य ग्रन्थों से उदघत की गई है, क्योंकि इस छठे कर्मग्रन्थ की अन्तिम ६१ वीं गाथा में Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... पंचम अध्याय........{373} स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि चन्द्रर्षि महत्तर ने तो ७० गाथाएँ बनाई थी, किन्तु कुछ दुर्बोध विषयों के स्पष्टीकरण के लिए टीकाकार ने इसमें अन्य गाथाएँ प्रक्षिप्त की है। इस सप्ततिका नामक छठे कर्मग्रन्थ में गुणस्थानों की अपेक्षा से मूल और उत्तर कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय, सत्ता आदि की अपेक्षा से कितने भंग या विकल्प होते हैं, इसकी चर्चा की गई है। सप्ततिका नामक छठे कर्मग्रन्थ में सर्वप्रथम जीवस्थानों में कितनी मूल प्रकृतियों का बन्ध, सत्ता और उदय रहता है इसके विकल्पों की चर्चा की गई है । छठे कर्मग्रन्थ में प्रथम तेरह जीवस्थानों में सात अथवा आठ कर्मप्रकृतियों का बन्ध, आठ कर्मप्रकृतियों का उदय और आठ कर्मप्रकृतियों की सत्ता होती है । इसमें आयुष्य कर्म का बन्ध सर्व काल में नहीं होने से जब आयुष्य कर्म का बन्ध हो, तब आठ कर्मों का बन्ध होता है, परन्तु जब आठ कर्मों का बन्ध नहीं होता है, तब सात कर्मों का बन्ध रहता है, किन्तु उदय एवं सत्ता तो आठों कर्मों की सदैव ही रहती है । संज्ञी पंचेन्द्रिय सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवी जीव को छ: मूल कर्मप्रकृतियों का बन्ध, आठ का उदय और आठ की सत्ता रहती है । उपशान्तमोह गुणस्थान में एक का बन्ध, सात का उदय और आठ की सत्ता रहती है । क्षीणमोह गुणस्थान में एक का बन्ध, सात का उदय और सात की सत्ता रहती है । अग्रिम सयोगीकेवली गुणस्थान में एक का बन्ध, चार का उदय और चार की सत्ता रहती है । अयोगीकेवली गुणस्थान में बन्ध का अभाव होता है, चार का उदय और चार की सत्ता रहती है । इसप्रकार मूल कर्मप्रकृतियों की अपेक्षा से चौदह जीवस्थानों में कितनी मूल कर्मप्रकृतियों का बन्ध, उदय और सत्ता होती है, इसकी चर्चा की गई है । इसमें यह बताया गया है कि प्रथम तेरह जीवस्थानों में दो ही विकल्प होते हैं । प्रथम विकल्प में आठ का बन्ध, आठ का उदय और आठ की सत्ता रहती है। द्वितीय विकल्प में सात का बन्ध, आठ का उदय और आठ की सत्ता रहती है । संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त में पाँच विकल्प होते हैं - पहला विकल्प आठ का बन्ध, आठ का उदय और आठ की सत्ता दूसरा विकल्प सात का बन्ध, आठ का उदय और आठ की सत्ता, तीसरा विकल्प सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में बनता है जहाँ छःका बन्ध, आठ का उदय और आठ की सत्ता होती है। चौथा विकल्प उपशातमोह गुणस्थान में होता है जहाँ एक का बन्ध, सात का उदय और आठ की सत्ता होती है । पाँचवाँ विकल्प क्षीणमोह गुणस्थान में होता है, जहाँ एक का बन्ध, सात का उदय और सात की सत्ता होती है। इन्हीं में केवली की अपेक्षा से विचार करने पर दो विकल्प बनते हैं। सयोगीकेवली अवस्था में एक का बन्ध, चार का उदय और चार की सत्ता रहती है, जबकि अयोगीकेवली गुणस्थान में बन्ध का अभाव होकर चार का उदय और चार की सत्ता रहती है । ___ सप्ततिका नामक षष्ठ कर्मग्रन्थ में गुणस्थानों की अपेक्षा से मूल प्रकृतियों के विकल्पों की चर्चा की गई है । इसमें बताया गया है कि तीसरे गुणस्थान को छोड़कर सातवें गुणस्थान तक दो ही विकल्प होते हैं। आठ का बन्ध, आठ का उदय एवं आठ की सत्ता रहती है अन्यथा सात का बन्ध, आठ का उदय एवं आठ की सत्ता रहती है। तीसरे तथा आठवें गुणस्थान से लेकर चौंदहवें गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में आयुष्य का बन्ध नहीं होने से सात का बन्ध, आठ का उदय तथा आठ की सत्ता रहती है और स्थान में भी आयुष्य का बन्ध नहीं होने से सात का बन्ध, आठ का उदय एवं आठ की सत्ता रहती है । दसवें गुणस्थान में छः का बन्ध, आठ का उदय तथा आठ की सत्ता होती है । ग्यारहवें गुणस्थान में एक का बन्ध, सात का उदय और आठ की सत्ता होती है । बारहवें गुणस्थान में एक का बन्ध, सात का उदय तथा सात की सत्ता रहती है । तेरहवें गुणस्थान में एक का बन्ध, चार का उदय तथा चार की सत्ता रहती है । चौदहवें गुणस्थान में बन्ध का अभाव होकर चार का उदय और चार की सत्ता रहती है । इसप्रकार हम देखते हैं कि प्रथम सात गुणस्थान तक बन्ध, उदय और सत्ता की अपेक्षा से दो-दो विकल्प होते हैं। जबकि तीसरे एवं आठवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक एक-एक विकल्प होता है । इस प्रकार सप्ततिका नामक इस कर्मग्रन्थ में सर्वप्रथम विभिन्न गुणस्थानों में मूल कर्मप्रकृतियो के बन्ध, उदय और सत्ता के विभिन्न विकल्पों की चर्चा उपलब्ध होती है । इसके पश्चात् इस सप्ततिका नामक षष्ठ कर्मग्रन्थ में उत्तर कर्मप्रकृतियों के भिन्न गुणस्थानों में कितने विकल्प होते हैं, इसकी चर्चा की गई है। सप्ततिका नामक इस षष्ठ कर्मग्रन्थ की ४३ से लेकर ५१ तक की गाथाओं में एक-एक कर्म की आवान्तर प्रकृतियों को लेकर उनके बन्ध, उदय और सत्ता के कितने विकल्प होते हैं, इसका विचार किया गया है। ज्ञानावरणीय कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ पाँच है। प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर दसवें सूक्ष्यसंपराय गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में ज्ञानावरणीय कर्म की पाँचों प्रकृतियों का बन्ध, उदय और सत्ता रहती है। ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में ज्ञानावरणीय कर्म की पाँचों प्रकृतियों के बन्ध का अभाव होता है, किन्तु उदय और सत्ता पाँचों प्रकृतियों की Jain Education Intemational Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{374} बनी रहती है । इसप्रकार ज्ञानावरणीय कर्म के बन्ध, उदय और सत्ता के सम्बन्ध में प्रथम गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक एक-एक ही विकल्प होता है । तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में ज्ञानावरणीय कर्म की पाँचों प्रकृतियों के बन्ध, उदय और सत्ता-तीनों का अभाव होता है । अतः वहाँ कोई विकल्प नहीं है। अन्तराय कर्म की भी पाँच प्रकृतियाँ हैं । इसमें भी प्रथम गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान तक अन्तराय कर्म की पाँचों प्रकृतियों का बन्ध, उदय और सत्ता रहती है। ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में अन्तराय कर्म की पाँचों प्रकृतियों के बन्ध का अभाव होता है, किन्तु उदय और सत्ता पाँचों प्रकृतियों की रहती है । इसप्रकार प्रथम गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में एक-एक विकल्प होता है । तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में अन्तराय कर्म के बन्ध, उदय और सत्ता का अभाव होता है । अतः वहाँ कोई विकल्प नहीं होता है। घातीकर्मों में जहाँ तक दर्शनावरणीय कर्म का प्रश्न है, इसकी उत्तर प्रकृतियों के बन्ध, उदय और सत्ता को लेकर प्रथम गुणस्थान से सातवें गुणस्थान तक दो-दो विकल्प होते हैं। आठवें, नवें और दसवें गुणस्थान में चार-चार विकल्प होते हैं। ग्यारहवें गुणस्थान में दो विकल्प होते हैं । बारहवें गुणस्थान में तीन विकल्प होते हैं । तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान में दर्शनावरणीय कर्म की सभी उत्तर प्रकृतियों के बन्ध, उदय और सत्ता का अभाव होने से कोई विकल्प नहीं होता है । किस गुणस्थान में दर्शनावरणीय कर्म की कितनी प्रकृतियों का बन्ध, उदय एवं सत्ता आदि होती है और कितने विकल्प हैं, इसे निम्न तालिका से समझा जा सकता है। गुणस्थान में दर्शनावरणीय कर्म का सम्बन्ध गुणस्थान | विकल्प | बन्ध उदय | सत्ता प्रथम तथा द्वितीय २ तीसरे से सातवें ज तक आठवाँ प्रथम भाग में 0 नवाँ 10 द्वितीय भाग से आठवें गुणस्थान तक उपशमक और क्षपक को कुछ समय तक क्षपक को क्षपक को मतान्तर से उपशमक को » CBOOCDOG ००cccccccccccc or com दसवा » » क्षपक को क्षपक को मतान्तर से ग्यारहवाँ » बारहवाँ » ००० द्विचरसमय तक दूसरे कर्मग्रन्थ के मत से चरम समय में » Jain Education Interational Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{375} ___घातीकर्मों में मोहनीय कर्म सम्बन्धी विकल्प अनेक होते हैं, इसीलिए उनकी चर्चा आगे करेंगे । उसके पूर्व आघाती कर्मों की उत्तर प्रकृतियों के बन्ध, उदय और सत्ता सम्बन्धी कितने विकल्प हैं, इसकी चर्चा करेंगे। सप्ततिका नामक षष्ठम कर्मग्रन्थ की ४६वीं गाथा में निम्न उल्लेख मिलता है। उसमें कहा गया है कि प्रथम छः गुणस्थानों में अर्थात् मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक वेदनीय कर्म की दोनों उत्तर प्रकृतियों के आधार पर चार विकल्प बनते हैं। सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में दो विकल्प ही होते हैं । किन्तु चौदहवें अयोगीकेवली गुणस्थान में बन्ध का अभाव होते हुए भी उदय और सत्ता की अपेक्षा से भी चार विकल्प सम्भव होते हैं । ये विकल्प किस रूप में होते हैं, इसे निम्न तालिका से समझा जा सकता है। | गुणस्थान | विकल्प बन्ध उदय सत्ता प्रथम से लेकर । ४ असाता असाता-साता असाता-साता छः तक साता (१) असाता (२) असाता (३) साता (४) साता असाता असाता-साता साता असाता-साता सातवें से लेकर तेरहवें तक साता असाता-साता (१) साता (२) साता असाता असाता-साता चौदहवें में ४ साता असाता असाता-साता असाता-साता असाता-साता असाता साता असाता-साता गोत्रकर्म की दो उत्तर प्रकृतियों के सम्बन्ध में किस गुणस्थान में कितने विकल्प होते हैं, इसकी चर्चा करते हुए कहा गया है कि प्रथम गुणस्थान में गोत्रकर्म के पाँच विकल्प होते हैं। तृतीय गुणस्थान में चार विकल्प होते हैं । तीसरे, चौथे और पाँचवे गुणस्थान में दो विकल्प होते हैं। छठे से लेकर दसवें गुणस्थान तक एक-एक विकल्प ही होता है । ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में गोत्रकर्म के बन्ध का तो अभाव होता है, किन्तु उदय और सत्ता की अपेक्षा से तो एक ही विकल्प होता है । परन्तु चौदहवें गुणस्थान में बन्ध का अभाव होते हुए भी उदय और सत्ता की अपेक्षा से दो विकल्प होते हैं । ये विकल्प किस रूप में होते हैं । इसे निम्न तालिका से समझा जा सकता है। Jain Education Interational Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ गुणस्थान प्रथम द्वितीय ग्यारहवें से तेरहवें तक चौदहवें विकल्प ५ तीसरे से पांचवें तक छठे से दसवें तक १ ४ २ १ २ गुणस्थान में गोत्रकर्म के विकल्प बन्ध नीच नीच नीच उच्च उच्च नीच नीच उच्च उच्च उच्च उच्च उच्च ० ० ० उदय नीच नीच नीच नीच उच्च नीच उच्च नीच उच्च नीच उच्च उच्च उच्च ० उच्च सत्ता पंचम अध्याय......{376} नीच नीच उच्च नीच - उच्च नीच - उच्च नीच - उच्च नीच - उच्च नीच - उच्च नीच - उच्च नीच - उच्च नीच - उच्च नीच - उच्च नीच - उच्च नीच - उच्च घातीकर्मों में आयुष्य कर्म के बन्ध, उदय और सत्ता की अपेक्षा से कितने विकल्प होते हैं, इसकी चर्चा की गई है। आयुष्य कर्म की चार प्रकृतियाँ है। उदय की अपेक्षा से मिथ्यात्व गुणस्थान में चारों ही गति के जीव होते है । इसी प्रकार बन्ध की अपेक्षा से भी इस गुणस्थान में चारों ही गति के बन्ध की सम्भावना होती है । सत्ता की अपेक्षा से एक साथ दो-दो आयुष्य की सत्ता सम्भव होती है । इसप्रकार मिथ्यात्व गुणस्थान में २८ विकल्प होते हैं। इनमें नारक जीवों की अपेक्षा से पाँच विकल्प, तिर्यंच की अपेक्षा से नौ, मनुष्य की अपेक्षा से नौ तथा देवों की अपेक्षा से पाँच विकल्प होते हैं । इसप्रकार कुल २८ विकल्प होते हैं। सास्वादन गुणस्थान में मनुष्य और तिर्यंच नरक आयुष्य का बन्ध नहीं करते हैं । अतः मनुष्य के सम्बन्ध में एक विकल्प और तिर्यंच के सम्बन्ध में एक विकल्प कम होने से सास्वादन गुणस्थान में आयुष्य कर्म के बन्ध उदय और सत्ता की अपेक्षा से २६ विकल्प होते हैं । उच्च-नीच उच्च Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ पंचम अध्याय ......{377} मिश्र गुणस्थान में व्यक्ति की मनःस्थिति अनिश्चयात्मक होती है । अतः इस गुणस्थान में आयुष्य का बन्ध नहीं होता है। इस गुणस्थान में उदय और सत्ता की अपेक्षा से आयुष्य कर्म के १६ विकल्प होते हैं । नरक आयुष्य के तीन, देव आयुष्य के तीन, तिर्यंच आयुष्य के पाँच और मनुष्य आयुष्य के पाँच विकल्प होते हैं । इस प्रकार मिश्र गुणस्थान में आयुष्य कर्म के उदय और सत्ता की अपेक्षा से १६ विकल्प होते हैं । अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में चारों गति के जीव सम्भव है । इस चतुर्थ गुणस्थान में अवस्थित तिर्यंच और मनुष्य केवल देव आयुष्य का ही बन्ध करते हैं । जबकि देव और नारक केवल मनुष्यगति का ही बन्ध करते हैं। इस अपेक्षा से 'आयुष्य कर्म के बन्ध, उदय और सत्ता को लेकर नरकगति के जीवों में चार विकल्प, देवगति में भी चार ही विकल्प होते हैं, किन्तु मनुष्य और तिर्यंचगति में छः-छः विकल्प होते हैं । इसप्रकार आयुष्य कर्म के चारों गतियों में बन्ध, उदय और सत्ता को लेकर २० विकल्प होते हैं । देशविरति गुणस्थान केवल तिर्यंच और मनुष्यों में ही पाया जाता है । देवों और नारकों में इसका अभाव होता है । अतः तिर्यंच और मनुष्य की अपेक्षा से छः-छः विकल्प होते हैं । इसप्रकार आयुष्य कर्म के बन्ध, उदय और सत्ता को लेकर १२ विकल्प होते हैं । प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान- ये दो गुणस्थान केवल मनुष्य में ही पाए जाते हैं । आयुष्य कर्म के बन्ध, उदय और सत्ता को लेकर पूर्वोक्त के समान ही मनुष्य में छः विकल्प होते हैं । ये छः विकल्प आयुष्य बन्ध के पूर्व, आयुष्य बन्ध के समय और आयुष्य बन्ध के पश्चात् इन तीन आधारों पर होते हैं । इन दोनों गुणस्थानों में बन्ध तो देव आयुष्य का होता है, उदय मनुष्य आयुष्य का होता है, किन्तु पूर्व गुणस्थान में यदि आयुष्य का बन्ध कर लिया हो, तो सत्ता चारों ही आयुष्य की सम्भव होती है। इसी आधार पर इस गुणस्थान में आयुष्य कर्म के बन्ध, उदय और सत्ता को लेकर छः विकल्प होते हैं । अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपयराय और उपशान्तमोह इन चार गुणस्थानों में आयुष्य कर्म का बन्ध नहीं होता है । इन चार गुणस्थानों की विकास यात्रा उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी दोनों से सम्भव है । क्षपकश्रेणीवाला साधक अबद्ध आयुष्यवाला ही होता है । उपशमश्रेणीवाला साधक अबद्ध आयुष्य और बद्ध आयुष्य ये दोनों ही हो सकता है । इस अपेक्षा से इन चारों गुणस्थानों में आयुष्य कर्म के उदय और सत्ता की अपेक्षा से दो विकल्प ही होते हैं । क्षीणमोह गुणस्थान, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली - इन तीनों गुणस्थानों में अबद्ध आयुष्यवाला क्षपक श्रेणीवाला जीव ही प्रवेश करता है । इन तीनो गुणस्थानों में आयुष्य कर्म के बन्ध का अभाव होता है। उदय और सत्ता केवल मनुष्य आयुष्य की होती है । इस प्रकार इन तीनों गुणस्थानों में एक ही विकल्प सम्भव होता है । इस प्रकार सप्ततिका नामक इस षष्ठ कर्मग्रन्थ में पूर्व में तीन घाती और तीन अघाती ऐसे छः कर्मों के विकल्पों की चर्चा की गई। घातीकर्मों में मोहनीय और अघाती कर्मों में नामकर्म के विकल्पों की चर्चा इसीलिए नहीं की गई है कि इन दोनों कर्मों की उत्तर प्रकृतियाँ अधिक है। षष्ठ कर्मग्रन्थ की ४८ से ५७ तक की गाथाओं में मोहनीय कर्म के बन्ध, उदय और सत्ता को लेकर विभिन्न गुणस्थानों में कितने विकल्प बनते हैं, इसकी चर्चा की गई है । मोहनीय कर्म के बन्ध, उदय और सत्ता के सम्बन्ध में विशेष बात यह है कि यहाँ तीनों के विकल्पों की अलग-अलग दृष्टि से भी चर्चा की गई है । गुणस्थानों की अपेक्षा सेव गुणस्थान में मोहनीय कर्मों की दो-दो प्रकृतियों का बन्ध होता है । इसमें तीन वेद में से एक समय में एक ही वेद का बन्ध होता है । इसी प्रकार दोनों युगलों (हास्य- रति, शोक - अरति) में से एक समय में एक युगल का ही बन्ध होता है । इसप्रकार मिथ्यात्व गुणस्थान में मोहनीय कर्म की दो-दो प्रकृतियों का बन्ध सम्भव होता है । सास्वादन गुणस्थान में मिथ्यात्वमोह का बन्ध न होने से २१ प्रकृतियों का बन्ध होता है । मिश्र गुणस्थान कषाय चतुष्क का अभाव होने से १३ प्रकृतियों का बन्ध होता है । प्रमत्त संयत गुणस्थान में पूर्वोक्त १३ में से प्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क का अभाव होने से ६ प्रकृतियों का ही बन्ध सम्भव होता है । अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थान में भी ६-६ प्रकृतियों का ही बन्ध होता है । अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में हास्य- रति, भय Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{378} और जुगुप्सा - इन चार के बन्ध का अभाव होने से इस गुणस्थान के प्रथम भाग में संज्वलन चतुष्क और पुरुषवेद-इन पाँच प्रकृतियों का बन्ध सम्भव होता है। इस गुणस्थान के पाँच भाग है । प्रथम भाग में पुरुषवेद के बन्ध का अभाव होने से चार प्रकृतियों का बन्ध सम्भव होता है। द्वितीय भाग के अन्त में संज्वलन क्रोध का अभाव होने से तीन प्रकृतियों का बन्ध सम्भव होता है । तृतीय भाग के अन्त में संज्वलन मान का अभाव होने से दो प्रकृतियों का बन्ध सम्भव होता है । चतुर्थ भाग के अन्त में संज्वलन माया का अभाव होने से एक प्रकृति का बन्ध होता है। पंचम भाग के अन्त में संज्वलन लोभ का भी अभाव हो जाता है। सप्ततिका नामक षष्ठम कर्मग्रन्थ की ४६ और ५० -इन दोनों गाथाओं में विभिन्न गुणस्थानों में मोहनीय कर्म के उदयस्थानों का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि मिथ्यात्व गुणस्थान में मोहनीय कर्म के ७, ८, ६ और १० कर्मप्रकृतियों के चार उदयस्थान होते हैं। सास्वादन एवं मिश्र गुणस्थान में ७, ८ और ६ प्रकृतियों के तीन उदयस्थान होते हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में ६, ७, ८ और ६ - ऐसे चार उदयस्थान होते हैं । देशविरति गुणस्थान में ५, ६,७ और ८ - ऐसे चार उदयस्थानों में क्षायोपशमिक अवस्था में ४, ५, ६ और ७ - ऐसे चार उदयस्थान होते हैं । अपूर्वकरण गुणस्थान में ४, ५ और ६ - ऐसे तीन उदयस्थान होते हैं । अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में २ और १ - ऐसे दो उदयस्थान होते हैं । सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में मात्र सूक्ष्म लोभ का उदय होने से मोहनीय कर्म का केवल एक ही उदयस्थान होता है । उपशान्तमोह गुणस्थान से लेकर, अयोगीकेवली गुणस्थान तक मोहनीय कर्म के उदय का अभाव होता है । अतः इन चारों गुणस्थानों में मोहनीय कर्म के उदयस्थान नहीं हैं । सप्ततिका नामक इस कर्मग्रन्थ में उदयस्थानों की चर्चा के पश्चात् प्रत्येक गुणस्थान की अपेक्षा से उदय चोवीशी उदय विकल्प, उदयपद चोवीशी और पदवृंद सम्बन्धी विकल्पों की चर्चा उपलब्ध होती है । विस्तार भय से वह समस्त चर्चा अपेक्षित नहीं है । इच्छुक व्यक्ति उसे सप्ततिका नामक छठे कर्मग्रन्थ में गाथा क्रमांक ४६ से लेकर ५६ तक देख सकते हैं । सप्ततिका नामक षष्ठम कर्मग्रन्थ की गाथा क्रमांक ५७ में विभिन्न गुणस्थानों में मोहनीय कर्म के कितने सत्तास्थान होते हैं, इसकी चर्चा की गई है । मिथ्यात्व गुणस्थान में २८, २७ और २६ - ऐसे तीन सत्तास्थान होते हैं । सास्वादन गुणस्थान में मोहनीय कर्म की २८ प्रकृतियों का एक सत्तास्थान होता है । मिश्र गुणस्थान में २८, २७ और २४ - ऐसे तीन सत्तास्थान होते हैं । अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक २८, २४, २३, २२ और २१ - ऐसे पाँच सत्तास्थान होते हैं । अपूर्वकरण गुणस्थान में २८, २४ और २१ - ऐसे तीन सत्तास्थान होते हैं । अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के विभिन्न भागों की अपेक्षा से २८, २४, २१, १३, १२, ११, ५, ४, ३, २ और १ - इसप्रकार ग्यारह सत्तास्थान होते हैं । (ये सभी विकल्प उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी दोनों की अपेक्षा से समझना चाहिए) सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में २८, २४, २१ और १ - ऐसे चार सत्तास्थान होते हैं उपशान्तमोह गुणस्थान में २८, २४ और २१ - ऐसे तीन सत्तास्थान होते हैं । क्षीणमोह, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली का सत्ता का अभाव रहता है, इसीलिए इन तीन गुणस्थानो में मोहनीय कर्म के कोई भी सत्तास्थान नहीं होते हैं। ___ मोहनीय कर्म के विभिन्न गुणस्थानों में कितने बन्धस्थान, कितने उदयस्थान और कितने सत्तास्थान होते हैं, मोहनीय कर्म का सम्बन्ध निम्न तालिकाओं के माध्यम से समझा जा सकता है । इन तालिकाओं में मोहनीय कर्म की कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध आदि होता है, इसका उल्लेख है और उसके समक्ष बन्धस्थान आदि कितने होते हैं, इसका उल्लेख है - Jain Education Interational Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{379) मोहनीय कर्म का सम्बन्ध (१) मिथ्यात्व गुणस्थान (२) सास्वादन गुणस्थान बन्धस्थान | उदयस्थान सत्तास्थान बन्धस्थान उदयस्थान | सत्तास्थान | ७=१ २२ = १ २२ = १ اس २८१ २८,२७, २६ =३ २८, २७, २६ = ३ | २८, २७, २६ = ३ २१ =१० ७=१ २१ = १| २१ =१] २२ = । १०-१ (३) मिश्र गुणस्थान (४) अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान बन्धस्थान उदयस्थान १७=१ | ७=१ सत्तास्थान २८, २७, २४ = १ २८, २७, २४ = १ २८, २७, २४ = १ १७ = १ | १७ = १ बन्धस्थान उदयस्थान | | सत्तास्थान १७ = १] ६=१ । २८, २४,१=३ १७ = १/ ७= १ २८,२४,२३,२२,२१ = ५ १७ % १८ २८,२४,२३,२२,२१५ १७ = १ २८,२४,२३,२२ = ४ (५) देशविरति गुणस्थान (६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान बन्धस्थान | उदयस्थान | सत्तास्थान बन्धस्थान उदयस्थान | सत्तास्थान | ४ = १ ܩ १३-१ १३ = १ १३ - १ १३ = १ २८,२४,२१ = ३ २८,२४,२३,२२,२१ =५ २८,२४,२३,२२,२१ = ५ |२८,२४,२३,२२ = ४ । ६=१ ६ = १ ६=१ २८, २४, २१ = ३ २८,२४,२३,२२,२१५ २८,२४,२३,२२,२१-५ २८,२४,२३,२२ = ४ ܩ = ܩ (७) अप्रमत्तसंयत गुणस्थान (८) अपूर्वकरण गुणस्थान बन्धस्थान | उदयस्थान ܩ - सत्तास्थान २८,२४,२१ = ३ | २८,२४,२३,२२,२१ = ५ २८,२४,२३,२२,२१ = ५ २८,२४,२३,२२ = ४ बन्धस्थान उदयस्थान | सत्तास्थान ६=१ । २८, २४, २१ = ३ ६=१ | ५ = १ | २८, २४, २१ = ३ २८, २४, २१% ३ ܩ ܩ ur ܩ Jain Education Intemational Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{380) (६) अनिवृत्तिकरण गुणस्थान (१०) सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान बन्धस्थान| उदयस्थान सत्तास्थान ०=० १=१ २८, २४, २१, १ = ४ बन्धस्थान उदयस्थान| सत्तास्थान ५१२१ २८, २४, २३, २१, १३, १२, ११७ ४ = १ क्रोध = १२८, २४, २१, ११, ५, ४ = ६ ३ = ११ मान = १ २८, २४, २१, ११, ५, ४, ३७ = ११ माया = १२८, २४, २१, ११, ५, ४, ३, २ = ८ १ = १ लोभ = १२८,२४,२१,११,५,४,३,२,१६ (११) उपशान्तमोह गुणस्थान बन्धस्थान उदयस्थान सत्तास्थान ० : ० 030 २८, २४, २१%3३ इसके पश्चात् १२ वें क्षीणमोह १३ ३ सयोगी केवली गुणस्थान और १४ वें अयोगी केवली गुणस्थान में मोहनीय कर्म का क्षय हो जाने से मोहनीय कर्म के बन्ध स्थान, उदय स्थान और सत्तास्थान का अभाव होता है। सप्ततिका नामक षष्ठम कर्मग्रन्थ की गाथा क्रमांक ५८ एवं ५६ गाथा में विभिन्न गुणस्थानों में नामकर्म के कितने बन्धस्थान, कितने उदयस्थान और कितने सत्तास्थान होते हैं, इसका विवेचन उपलब्ध होता है । वह विवरण इस प्रकार है - । Jain Education Intemational Jain Education Intermational For Private & Personal use only . Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... पंचम अध्याय........{381} गुणस्थान में नामकर्म का संवेध गुणस्थान बन्धस्थान उदयस्थान सत्तास्थान मिथ्यात्व २३,२५,२६,२८, २६,३०६ ६२,८६,८८,८६,८०,७८-६ २१,२४,२५,२६,२७,२८,२६, ३०,३१,६ २१,२४,२५,२६,२६, ३०,३१,७ २८,२६,३००६ ६२,८८, = २ सास्वादन मिश्र २८,२६ = २ २६,३०,३१ = ३ ६२, ८८, = २ । | २१,२५,२६,२७,२८,२६,३०,३८ ६३,६२,८६,८८,४ ४ अविरत सम्यग्दृष्टि २८,२६,३०=३ ५ | देशविरति । २८,२६२ प्रमत्तसंयत । २८,२६२ २५,२७,२८,२६,३०, ३१६ ६३,६२,८६,८८,४ ६३,६२,८६,८८,४ २५,२७,२८,२६,३०५ २६,३०२ ६३,६२,८६,८८,४ ६३,६२,८६,८८,४ ३०१ ३०%D9 ६३,६२,८६,८८,८०,७६,७६,७५-८ ७ । अप्रमत्तसंयत २८,२६,३०,३१%४ ८ | अपूर्वकरण २८,२६,३०,३१,१५ | अनिवृत्तिकरण ११ १० सूक्ष्मसंपराय | ११ उपशान्तमोह क्षीणमोह ३०१ ६३,६२,८६,८८,८०,७८,७६,७५८ ३०%D9 ६३,६२,८६,८८४ ३०१ ८०,७६,७६,७५४ १३ स या गी केवली अयोगी केवली २०,२१,२६,२७,२८, २६,३०,३१-८ ८०,७६,७६,७५४ ८०,७६,७६,७५, ६,८-६ इस चर्चा के पश्चात् सप्ततिका नामक षष्ठम कर्मग्रन्थ की गाथा क्रमांक ६०, ६१, ६२ और ६३ में क्रमशः मिथ्यात्व गुणस्थान और सास्वादन गुणस्थान के बन्ध विकल्पों तथा मिथ्यात्व और सास्वादन गुणस्थान में उदय विकल्पों का विवेचन है। इसमें यह बताया गया है कि बन्धस्थान किस बन्धस्थान अथवा उदयस्थान में कितने बन्धविकल्प और उदयविकल्प होते हैं । इन दो गुणस्थानों में नामकर्म के बन्ध और उदय के विकल्पों की चर्चा उपलब्ध नहीं होती है । षष्ठ कर्मग्रन्थकार ने यह चर्चा क्यों नहीं कि यह बता पाना कठिन है । उन्होंने अग्रिम गाथाओं में मार्गणाओं की अपेक्षा से ही नामकर्म के बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्तास्थानों की चर्चा की है, गुणस्थानों की अपेक्षा से वहाँ हमें कोई चर्चा परिलक्षित नहीं होती है । Jain Education Interational Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{382} सप्ततिका नामक षष्ठ कर्मग्रन्थ में गाथा क्रमांक ६५ से ७४ तक विभिन्न गुणस्थानों में कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध, उदय और सत्ता होती है, इसकी चर्चा की गई है, किन्तु यह चर्चा पंचसंग्रह के प्रथम खण्ड में तथा देवेद्रसूरि रचित कर्मस्तव नामक द्वितीय कर्मग्रन्थ में भी उपलब्ध होती है । हमने पंचसंग्रह के विवचेन में इसका विस्तार से उल्लेख किया है । यहाँ उनकी पुनः चर्चा करना पिष्ट-पेषण ही होगा। ____सप्ततिका नामक षष्ठम कर्मग्रन्थ के अन्त में उपशमश्रेणी और क्षपक श्रेणी का विवेचन उपलब्ध होता है । उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी आठवें गुणस्थान से प्रारम्भ होकर क्रमशः ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में पूर्ण होती है, अतः इन दोनों श्रेणियों की चर्चा गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित है, किन्तु यह चर्चा शतक नामक पंचम कर्मग्रन्थ में भी उपलब्ध होती है । यद्यपि पंचम कर्मग्रन्थ की अपेक्षा षष्ठम कर्मग्रन्थ में इसे किंचित् विस्तृत रूप से प्रस्तुत किया गया है । हमने इसके विस्तार को समाहित करते हुए पंचम कर्मग्रन्थ में ही इन दोनों श्रेणियों की चर्चा की है । अतः यहाँ पुनः इन दोनों श्रेणियों का विवेचन करना पिष्ट-पेषण होगा। इसीलिए यहाँ हम उन दोनों श्रेणियों की चर्चा न करते हुए षष्ठम कर्मग्रन्थ में गुणस्थान सम्बन्धी जो विवेचन उपलब्ध है, उसे विराम देते हैं । इसप्रकार छः कर्मग्रन्थों में उपलब्ध गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन पूर्ण होता है । दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह और गुणस्थान सिद्धान्त श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में पंचसंग्रह नाम के चार ग्रन्थ पाए जाते हैं। यद्यपि श्वेताम्बर परम्परा में प्राकृत भाषा में रचित एक ही पंचसंग्रह की जानकारी हमें उपलब्ध है, किन्तु दिगम्बर परम्परा में पंचसंग्रह के नाम से तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते है -प्राकृत पंचसंग्रह, अमितगतिकृत संस्कृत पंचसंग्रह और श्री पालसुत ढड्डा कृत संस्कृत पंचसंग्रह। इनमें प्राचीन तो प्राकृत पंचसंग्रह ही है, जो श्वेताम्बर पंचसंग्रह से बहुत कुछ रूप में मेल खाता है । श्वेताम्बर परम्परा के पंचसंग्रह के कर्ता के रूप में चन्द्रर्षि महत्तर का उल्लेख है, किन्तु दिगम्बर परम्परा के इस प्राकृत पंचसंग्रह के कर्ता के रूप में किसी व्यक्ति का उल्लेख नहीं मिलता है । दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह में निम्न पांच विभाग हैं- (१) जीवसमास, (२) प्रकृति समुत्कीर्तन, (३) बन्धस्तव, (४) शतक और (५) सप्ततिका, जबकि श्वेताम्बर पंचसंग्रह में निम्न पांच प्रकरण ग्रन्थ समाहित है -(१) शतक, (२) कर्मप्रामृत, (३) कर्मप्रकृति, (४) कषायप्राभृत और (५) सप्ततिका । मूलतः दोनों ही परम्पराओं के पंचसंग्रहों का विषय कर्मसिद्धान्त ही है। इनमें कर्मप्रकृति के प्रकारों, उनके बन्धहेतुओं आदि का विस्तृत विवेचन है। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं के पंचसंग्रहों में कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी विवेचन में यथाप्रसंग गुणस्थानों की चर्चा भी हुई है । दिगम्बर परम्परा का प्राकृत पंचसंग्रह और श्वेताम्बर परम्परा का चन्द्रर्षि महत्तरकत पंचसंग्रह प्राकत पद्यों में रचित है। इन दोनों में ही गणस्थान सिद्धान्त का विकसित स्वरूप परिलक्षित होता है । साथ ही दोनों पंचसंग्रहों में अनेक गाथाएं समान रूप से परिलक्षित होती है । यद्यपि दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह और श्वेताम्बर पंचसंग्रह में कौन प्राचीन है, इस प्रश्न को लेकर पंडित हीरालाल जैन ने दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह की भूमिका में विस्तार से चर्चा की है और यह बताने का प्रयास किया है कि दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह, श्वेताम्बर पंचसंग्रह की अपेक्षा प्राचीन है,३२६ किन्तु यदि हम गाथाओं की समरूपता, विषय की समरूपता, गुणस्थान सिद्धान्त का विकसित स्वरूप आदि की दृष्टि से विचार करें, तो दोनों ही समकालीन प्रतीत होते हैं। गुणस्थान सिद्धान्त का जो विकसित स्वरूप हमें इन ग्रन्थों में उपलब्ध होता है, उसके आधार पर विद्वानों ने इनका काल छठी-सातवीं शताब्दी माना है। दोनों में जो गाथाओं की समरूपता है, उसे देखकर ३३६ दि.पंचसंग्रह प्रांत, प्रस्तावना पृ.१४, २३ लेखक : अमितगति, सम्पादक पं. हीरालाल जैन, डॉ. आदिनाथ, नेमिनाथ प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, दुर्गाकुण्ड रोड़, वाराणसी Jain Education Intemational Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... पंचम अध्याय......{383} यह कहना कठिन है कि किसने किससे लिया है, फिर भी गुणस्थानों की परिभाषा एवं स्वरूप विवेचन की दृष्टि से दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह अधिक विकसित प्रतीत होता है । यहाँ हम इस विवाद में अधिक न उलझकर, यही देखने का प्रयत्न करेंगे कि इन पंचसंग्रहों में गुणस्थान सम्बन्धी जो विवरण है, वह किस रूप में उपलब्ध है। श्वेताम्बर परम्परा के पंचसंग्रह में गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा किस रूप में है, इसका विवेचन हम पूर्व में कर चुके हैं। अब दिगम्बर पंचसंग्रह में गुणस्थान चर्चा किस रूप में है, यह देखेंगे । दिगम्बर पंचसंग्रह में प्रथम जीवसमास नामक अधिकार में सर्वप्रथम चौदह गुणस्थानों का स्वरूप दिया गया है । गाथा क्रमांक ३ में गुणस्थान शब्द की परिभाषा दी गई है। उसके पश्चात् गाथा क्रमांक ४ और ५ में चौदह गुणस्थानों के नाम दिए गए है। ये दोनों गाथाएं श्वेताम्बर जीवसमास की गाथा क्रमांक ८ और ६ से किंचित् पाठभेद के अतिरिक्त समरूपता रखती है। उसके पश्चात् गाथा क्रमांक ६, ७ और ८ में मिथ्यात्व गुणस्थान के स्वरूप का विवेचन है । फिर गाथा क्रमांक ६ में सास्वादन गुणस्थान का तथा गाथा क्रमांक १० में सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के स्वरूप का विवेचन है । इसके पश्चात् गाथा क्रमांक ११ एवं १२ में अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का और गाथा क्रमांक १३ में देशविरति गुणस्थान के स्वरूप का विवेचन उपलब्ध होता है । इसी क्रम में आगे गाथा क्रमांक १४ और १५ में प्रमत्तसंयत गुणस्थान और गाथा क्रमांक १६ में अप्रमत्तसंयत गुणस्थान का विवेचन किया गया है । इसके पश्चात् गाथा क्रमांक १७ से १६ तक, तीन गाथाओं में अपूर्वकरण गुणस्थान के स्वरूप का तथा गाथा क्रमांक २० और २१ में अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के स्वरूप का विवेचन उपलब्ध होता है । इसके पश्चात् गाथा क्रमांक २२ और २३ सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान का और गाथा क्रमांक २४ उपशान्तकषाय गुणस्थान के स्वरूप का विवेचन प्रस्तुत करती है । पुनः गाथा क्रमांक २५ और २६ में क्षीणकषाय गुणस्थान का और गाथा क्रमांक २७ से २६ तक तीन गाथाओं में सयोगी केवली गुणस्थान का तथा गाथा क्रमांक ३० में अयोगी केवली गुणस्थान के स्वरूप का विवचेन उपलब्ध होता है । इसप्रकार पंचसंग्रह का जीवसमास नामक अधिकार लगभग २७ गाथाओं में चौदह गुणस्थानों के स्वरूप का विवेचन प्रस्तुत करता है । गुणस्थानों के इस स्वरूप विवेचन में एक विशेषता जो हमें प्राप्त होती है, वह यह है कि यहाँ गुणस्थानों के सन्दर्भ में कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा आदि की कोई चर्चा नहीं लगती है, मात्र उनके स्वरूप का ही विवेचन हुआ है । श्वेताम्बर जीवसमास में जहाँ केवल दो गाथाओं में ही गुणस्थानों के नामों का उल्लेख किया गया है ३४० वहाँ दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह के इस जीवसमास नामक अधिकार में २७ गाथाओं में गुणस्थानों के स्वरूप का विस्तृत विवेचन उपलब्ध है । ३४१ इस आधार पर हम यह कह सकते है कि श्वेताम्बर जीवसमास की अपेक्षा दिगम्बर पंचसंग्रह का जीवसमास नामक अधिकार गुणस्थानों की विकसित और विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत करता है । गुणस्थानों के स्वरूप का यह विकसित और विस्तृत विवेचन, श्वेताम्बर जीवसमास की अपेक्षा इसे परवर्ती कालीन ही सिद्ध करता है । इसके पश्चात् दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह का जीवसमास नामक अधिकार, चौदह जीवसमासों (जीवस्थानों) तथा चौदह मार्गणाओं का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत करता है । इस चर्चा में योग मार्गणा की चर्चा करते हुए अयोगी जीवों के स्वरूप का और संयम मार्गणा की चर्चा के प्रसंग में देशविरति और सर्वविरति का उल्लेख हुआ, किन्तु गुणस्थान की विवेचना की दृष्टि से यह चर्चा कोई अधिक महत्वपूर्ण नहीं है । २४२ जीवसमास अधिकार की अग्रिम गाथाओं में गुणस्थान सम्बन्धी जो विशेष विवरण हमें उपलब्ध होता है, उसमें जीवसमास की गाथा क्रमांक १६७ में तीनों प्रकार के सम्यक्त्वों में गुणस्थानों का अवतरण किया गया है। यह चर्चा गाथा क्रमांक १६७ से लेकर १७२ तक सम्यक्त्व मार्गणा की चर्चा के प्रसंग में उपलब्ध होती है । इसी प्रकार पांच प्रकार ३४० जीवसमास, गाथा क्रमांक ८, ६ लेखक : अज्ञात पूर्वधर, सम्पादक डॉ. सागरमल जैन, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी ३४१ दि. प्रांत पंचसंग्रह, जीवसमास गाथा क्र. ३ से ३० तक, सम्पादक : पं. हीरालाल जैन, प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ, काशी ३४२ वहीं, योगमार्गणाधिकार गाथा क्रमांक १०० सयंममार्गणाधिकार गाथा क्रमांक १३२, १३३ कर्मस्तवाधिकार गाथा क्रमांक ४ से ६, ६४ For Private Personal Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{384} के संयमों की चर्चा करते हुए पांच प्रकार के संयमों में कौन-कौन से गुणस्थान अन्तर्भावित होते है, इसकी चर्चा जीवसमास की गाथा क्रमांक १६५ में उपलब्ध होती है । इसप्रकार जीवसमास में यद्यपि मार्गणाओं का विस्तृत विवेचन उपलब्ध है, फिर भी उनमें गुणस्थानों का अवतरण विरल रूप में ही मिलता है, जबकि षट्खण्डागम और स्वार्थसिद्धि की टीका में विभिन्न मार्गणाओं में गुणस्थानों के अवतरण की विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है। इसप्रकार हम यह देखते हैं कि दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह का प्रथम जीवसमास नामक अधिकार गुणस्थानों के स्वरूप की चर्चा के अतिरिक्त गुणस्थान सम्बन्धी अन्य कोई भी चर्चा विस्तारपूर्वक प्रस्तुत नहीं करता है। दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह का द्वितीय अधिकार प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकार है। इसमें प्रथम कर्मग्रन्थ के समान ही मूल और उत्तर कर्मप्रकृतियों के नाम तथा उनमें बन्धयोग्य और बन्धअयोग्य कर्मप्रकृतियों, उदययोग्य और उदयअयोग्य कर्मप्रकृतियों, उदीरणायोग्य और उदीरणाअयोग्य कर्मप्रकृतियों, ध्रुवबन्धी और अध्रुवबन्धी कर्मप्रकृतियों तथा परावर्तमान कर्मप्रकृतियों की विस्तृत चर्चा है । इसमें गुणस्थान सम्बन्धी कोई विवेचन कहीं भी उपलब्ध नहीं होता है। ___ दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह का तृतीय अधिकार कर्मस्तव अधिकार है । इस अधिकार में चौदह गुणस्थानों में किन-किन मूल कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है, किन कर्मप्रकृतियों का उदय रहता है, किन कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव होती है और किनकी सत्ता विच्छिन्न हो जाती है, इसका विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। इसी चर्चा के प्रसंग में विभिन्न गुणस्थानों में जिन जिन कर्मप्रकृतियों का बन्धविच्छेद और उदयविच्छेद होता है, इसकी भी विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है । इसके साथ ही इसमें विशेषतः यह बताया गया है कि उदय और उदीरणा में प्रमत्तसंयत, सयोगी केवली और अयोगी केवली-इन तीन गुणस्थानों को छोड़कर अन्य गुणस्थानों में कोई विशेष अन्तर नहीं है । प्रमत्तंसयत गुणस्थान में स्त्यानगृद्धित्रिक, आहारकद्विक, साताअसाता वेदनीयद्विक और मनुष्यायु-इन आठ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव होती है । इसीप्रकार सयोगी केवली गुणस्थान में उदय योग्य ३० और अयोगी केवली गुणस्थान में उदय योग्य १२, इन ४२ प्रकृतियों में से सातावेदनीय, असातावेदनीय और मनुष्यायु-इन तीन की उदीरणा नहीं होने से, इनको कम करने पर इस गुणस्थान में उनचालीस कर्मप्रकृतियों की ही उदीरणा सम्भव होती है। अयोगी केवली गुणस्थान में किसी भी कर्मप्रकृति की उदीरणा सम्भव नहीं होती है ।३४३ इतनी चर्चा ही उपलब्ध होती है । इसके पश्चात् इस कर्मस्तव अधिकार में किन गुणस्थानों में किन कर्मप्रकृतियों का क्षय होता है, किन कर्मप्रकृतियों की सत्ता रहती है, इसकी विस्तृत चर्चा की गई है । अन्त में कर्मस्तव की चूलिका में बधं, उदय और सत्ताविच्छेद सम्बन्धी ६ प्रश्नों का स्पष्टीकरण किया गया है, किन्तु इनमें गुणस्थान सम्बन्धी कोई भी चर्चा नहीं है। इसप्रकार कर्मस्तव नामक तृतीय अधिकार में विभिन्न कर्मप्रकृतियों के बन्ध-बन्धविच्छेद, उदय-उदयविच्छेद, उदीरणा- उदीरणाविच्छेद तथा सत्ता-सत्ताविच्छेद सम्बन्धी विस्तृत चर्चा विभिन्न गुणस्थानों के आधार पर की गई है, किन्तु यह समस्त चर्चा षटखण्डागम और सर्वार्थसिद्धि श्वेताम्बर पंचसंग्रह और विशेष रूप से द्वितीय कर्मग्रन्थ में भी मिलती है, जिसका उल्लेख हम पूर्व में कर चुके हैं । यद्यपि दिगम्बर प्रकृति पंचसंग्रह के इस कर्मस्तव अधिकार और कर्मस्तव नामक द्वितीय नव्यकर्मग्रन्थ की गाथाओं में तो समरूपता नहीं है, किन्तु विषय विवेचन की दृष्टि से दोनों में विशेष अन्तर भी नही है, अतः यहाँ, पुनरावृत्ति तथा विस्तार भय से हम इस चर्चा के विस्तार में न जाकर, इस समस्त चर्चा को कर्मस्तव नामक द्वितीय कर्मग्रन्थ में जो विभिन्न कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा तथा सत्ता सम्बन्धी विवेचन है, उसे देखने कि अनुशंसा करते हैं । हमारी दृष्टि में दोनों के विवरणों में कोई विशेष अन्तर नहीं है। दिगम्बर प्रकृति पंचसंग्रह का चतुर्थ अधिकार शतक है । इस शतक नामक चतुर्थ अधिकार में गाथा क्रमांक ५७ से लेकर ७० तक विभिन्न मार्गणाओं में गुणस्थानों का अवतरण किया गया है । यह विवरण भी षटखण्डागम और सर्वार्थसिद्धि के अनुरूप ही है, अतः पिष्ट-पेषण के भय से इसकी भी पुनः चर्चा करना आवश्यक प्रतीत नहीं होता है । शतक नामक इस चतुर्थ ३४३ प्राकृत पंचसंग्रह, कर्मस्तवाधिकार गाथा क्रमांक ६,७ वहीं । Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ पंचम अध्याय........{385} अधिकार में गाथा क्रमांक ७१ में विभिन्न गुणस्थानों में कितने उपयोग उपलब्ध होते हैं, इसकी चर्चा है । इसमें कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि और सास्वादन- इन दो गुणस्थानों में तीन अज्ञान, चक्षुदर्शन एवं अचक्षुदर्शन- ऐसे पांच उपयोग होते हैं । अविरतसम्यग्दृष्टि और देशविरति इन दो गुणस्थानों में प्रथम तीन ज्ञान और प्रथम तीन दर्शन- ऐसे छः उपयोग उपलब्ध होते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि स्थान में भी उपर्युक्त छः उपयोग ही मिश्रित रूप में उपलब्ध होते हैं । प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणकषाय तक के सात गुणस्थानों में आदि के चार ज्ञान और आदि के तीन दर्शन- ऐसे सात उपयोग उपलब्ध होते हैं । अन्तिम सयोगी केवली और अयोगी केवली गुणस्थान में मात्र केवलज्ञान और केवलदर्शन- ऐसे दो उपयोग होते है । इसप्रकार गुणस्थानों में उपयोग की चर्चा की गई है । इसके पश्चात् गाथा क्रमांक ७४ से लेकर ७६ तक में, किस गुणस्थान में कितने योग होते हैं, इसकी चर्चा की गई है । इसमें बताया गया है कि प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ गुणस्थान में आहारकद्विक को छोड़कर शेष तेरह योग होते हैं। तीसरे मिश्र गुणस्थान में चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिक और वैक्रियकाययोग- ऐसे दस योग होते हैं। पांचवें देशविरति, सातवें अप्रमत्तसंयत, आठवें अपूर्वकरण, नवें अनिवृत्तिकरण, दसवें सूक्ष्मसंपराय, ग्यारहवें उपशान्तकषाय और बारहवें क्षीणकषाय-इन सात गुणस्थानों में वैक्रियकाययोग को छोड़कर शेष नौ योग होते हैं । छठें गुणस्थान में उपर्युक्त नौ योगों के साथ ही आहारकद्विक की संभावना होने से ग्यारह योगों की संभावना होती है । यद्यपि छठें गुणस्थान में वैक्रियद्विक की भी संभावना है, किन्तु जिस समय वैक्रियद्विक होगा उस समय आहारकद्विक नहीं होगा, अतः एक समय में अधिकतम ग्यारह योग ही होंगे । सयोगी केवली गुणस्थान में सत्य मनोयोग, असत्यअमृषा मनोयोग, सत्य वचनयोग, असत्यअमृषा वचनयोग, औदारिकद्विक तथा कार्मणकाययोग- ऐसे सात योग होते हैं । इसके पश्चात् शतक नामक इस चतुर्थ अधिकार में गाथा क्रमांक ७७ से लेकर ८० तक विभिन्न गुणस्थानों मे बन्धहेतुओं की चर्चा की गई है। इसमें प्रथम चार मूल बन्धहेतुओं को लेकर विभिन्न गुणस्थानों में कितने-कितने बन्धहेतु होते हैं, इसका निरूपण किया गया है । इसके पश्चात् उत्तर बन्धहेतु का निर्देश करके किस गुणस्थान में कितने उत्तर बन्धहेतु होते हैं, इसका विवेचन किया गया है । यहाँ मिथ्यात्व के पांच, अविरति के १२, कषाय के २५ और योग के १५ - इसप्रकार उत्तर बन्धहेतु ५७ बताए गए है । इसके पश्चात् गाथा क्रमांक १०० में यह चर्चा की गई है कि प्रत्येक गुणस्थान में एक समय में एक जीव को जघन्य और उत्कृष्ट, कितने उत्तर बन्धहेतु सम्भव है । मिथ्यात्व गुणस्थान में जघन्य से १० और उत्कृष्ट से १८ उत्तर बन्धहेतु होते हैं । सास्वादन गुणस्थान में जघन्य से १० और उत्कृष्ट से १७ उत्तर बन्धहेतु होते हैं । मिश्र गुणस्थान में जघन्य से ६ और उत्कृष्ट से १६ उत्तर बन्धहेतु होते हैं । अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में जघन्य से ६ और उत्कृष्ट से १६ उत्तर बन्धहेतु होते हैं। देशविरति गुणस्थान में जघन्य से और उत्कृष्ट से १४ उत्तर बन्धहेतु होते हैं । प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण- इन तीन गुणस्थानों में जघन्य से ५ और उत्कृष्ट से ७ उत्तर बन्धहेतु होते हैं । अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में जघन्य से २ और उत्कृष्ट से ३ उत्तर बन्धहेतु होते हैं । सूक्ष्म संपराय गुणस्थान में जघन्य से २ और उत्कृष्ट से भी २ उत्तर बंधहेतु होते हैं । उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगी केवली- इन तीन गुणस्थानों में एक समय में जघन्य और उत्कृष्ट दोनों अपेक्षा से एक ही बन्धहेतु होता हैं । अयोगी केवली गुणस्थान में कोई बन्धहेतु नही होता है। इसके पश्चात् इस शतक नामक चतुर्थ अधिकार में बन्धहेतुओं के विकल्पों की विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है, किन्तु यह चर्चा श्वेताम्बर पंचसंग्रह और चतुर्थ कर्मग्रन्थ में भी विस्तार से उपलब्ध है, जिसका निर्देश हम पूर्व में कर चुके हैं, अतः विस्तार और पिष्टपेषण के भय से हम यहाँ इसकी चर्चा प्रस्तुत नहीं कर रहे है । ८ 1 बन्ध हेतुओं की इस चर्चा के पश्चात् दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह में शतक नामक चतुर्थ अधिकार में विभिन्न गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों के बन्ध विकल्पों, उदय विकल्पों तथा सत्ता विकल्पों की चर्चा की गई है। इसके पश्चात् इस अधिकार में, विभिन्न गुणस्थानों में किन कर्मप्रकृतियों का विच्छेद होता है, इसका विवेचन भी उपलब्ध है । यह विवेचन भी श्वेताम्बर पंचसंग्रह और द्वितीय कर्मग्रन्थ में गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा के प्रसंग में विस्तार से किया जा चुका है, अतः हम इस चर्चा को भी यहीं विराम देते हैं, क्योंकि ऐसा करने में मात्र पिष्टपेषण ही होगा । Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... पंचम अध्याय........{386} दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह के सप्ततिका नामक पंचम अधिकार में गुणस्थानों में बन्ध, उदय और सत्ता को लेकर विभिन्न विकल्पों की चर्चा की गई है। इसमें सर्वप्रथम मूल प्रकतियों के आधार पर विकल्पों की चर्चा की गई है और उसके पश्चात प्रकृतियों के आधार पर एक-एक गुणस्थान को लेकर कितने बन्धविकल्प, कितने उदयविकल्प और कितने सत्ताविकल्प होते है, इसकी विस्तार से चर्चा की गई है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि यह समस्त चर्चा भी प्राचीन सप्ततिका नामक षष्ठ कर्मग्रन्थ के प्रसंग में की जा चुकी है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि सप्ततिका नामक पंचसंग्रह के इस अधिकार और सप्ततिका नामक षष्ठ कर्मग्रन्थ के विवेचन में न केवल विषयवस्तु अपितु गाथागत भी बहुत कुछ समानता है, क्योंकि यह सभी चर्चा हम षष्ठ कर्मग्रन्थ में विस्तार से कर चुके है । अतः दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह के प्रसंग में उस चर्चा को पुनः करना पिष्ट-पेषण या पुनरावृत्ति ही होगी । यहाँ केवल इन दोनों में किस प्रकार का अन्तर रहा हुआ है, उसकी संक्षिप्त चर्चा पंडित हीरालालजी दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह की प्रस्तावना के आधार पर करके इस विवेचन में विराम देना चाहेंगे । अन्तर सम्बन्धी यह चर्चा पंडित हीरालालजी ने अपनी प्रस्तावना में निम्न रूप में की है।४४. १. गाथांक ७ दिगम्बर-श्वेताम्बर, दोनों सप्ततिकाओं में समान हैं, पर सभाष्य सप्ततिका में उसके स्थान पर 'णव छक्कं' आदि नवीन गाथा पाई जाती है । २. गाथांक ८ के विषय में दोनों समान है, किन्तु सभाष्य सप्ततिका में उसके स्थान पर नवीन गाथा है । ३. गाथांक ६ की दिगम्बर-श्वेताम्बर मूल सप्ततिका से सभाष्य सप्ततिका में अर्द्ध-समता और अर्द्ध-विषमता है । ४. गाथा क्रमांक १० (गोदेसु सत्त भंगा) सभाष्य सप्ततिका और दिगम्बर मूल सप्ततिका है, पर श्वेताम्बर सप्ततिका में वह नहीं पाई जाती है। ५. गाथा क्रमांक १५ दिगम्बर-श्वेताम्बर सप्ततिका में समान है, पर सभाष्य सप्ततिका में भिन्न है । ६. श्वेताम्बर सप्ततिका के हिन्दी अनुवादक एवं सम्पादक 'दस बावीसे' इत्यादि गाथा १५ को तथा 'चत्तारि' आदि 'णव बन्धएस' इत्यादि गाथा १६ को मूल गाथा स्वीकार करते हुए भी उन्हें सभाष्य सप्ततिका में मल गाथा मानने से क्यों इन्कार करते है ? यह विचारणीय है। ७. गाथा १७ का उत्तरार्द्ध दिगम्बर श्वेताम्बर सप्ततिका में समान है, पर सभाष्य सप्ततिका में भिन्न है। ८. 'एक्कं च दोणि व तिण्णि' इत्यादि गाथा क्रमांक १८ न श्वेताम्बर सप्ततिका में है और न सभाष्य सप्ततिका में । इसके स्थान पर श्वेताम्बर सप्ततिका में 'एतो चउबन्धादि' इत्यादि गाथा पाई जाती है, पर सभाष्य सप्ततिका में तत्स्थानीय कोई भी गाथा नहीं पाई जाती। ६. श्वेताम्बर सचूर्णि सप्ततिका में मुद्रित गाथा २६, २७ न तो दिगम्बर सप्ततिका में ही पाई जाती है और न सभाष्य सप्ततिका में । यह बात विचारणीय है। १०. दिगम्बर सप्ततिका में गाथा २६ 'तेरस णव चदु पण्णं' यह न तो श्वेताम्बर सप्ततिका में पाई जाती है और न सभाष्य सप्ततिका में ही । मेरे मत से मूल गाथा होनी चाहिए। ११. 'सत्तेव अपज्जता' इत्यादि ३५ संख्यावाली गाथा के पश्चात् श्वेताम्बर और दिगम्बर सप्ततिका में ‘णणंतराय तिविहमवि' इत्यादि तीन गाथाएँ पाई जाती है, किन्तु ये सभाष्य सप्ततिका में नहीं है। उनके स्थान पर अन्य ही तीन गाथाएँ पाई जाती है, जिनके आधचरण इस प्रकार है- णाणावरणे विग्घे (३३) णव छक्कं चत्तारि य (३४) और उवरयबन्धे संते (३५) १२. श्वेताम्बर सचूर्णि सप्ततिका में गाथा ४५ के बाद 'बारस पण सट्ठसया' इत्यादि गाथा अतभाष्य गाथा के रूप में दी है । साथ में उसकी चूर्णि भी दी है । यही गाथा दिगम्बर सप्ततिका में भी सवृत्ति पाई जाती है । फिर इसे मूल गाथा क्यों नहीं माना ३४४ पंचसंग्रह, सम्पादक : पं. हीरालालजी जैन, प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, १६६०, प्रस्तावना पृ ३०, ३१ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{387} जाए? १३. गाथा ४५ दिगम्बर सप्ततिका और सभाष्य सप्ततिका में पूर्वार्द्ध उत्तरार्द्ध व्यत्क्रम को लिए हए है, पर ध्यान देने की बात यह है कि वह श्वेताम्बर सचूर्णि सप्ततिका के साथ दिगम्बर सप्ततिका में एक-सी पाई जाती है । पं. हीरालालजी ने गाथाओं को लेकर जो यह पाठगत अन्तर प्रतिपादित किया है, उसके आधार पर कोई विशेष सैद्धान्तिक मतभेद उभरकर सामने आता हो-यह हमें परिलक्षित नहीं होता है। जो कुछ सामान्य मतभेद है, वे दोनों परम्पराओं में मिलते है - श्वेताम्बर परम्परा में वे आगमिक परम्परा तथा कर्मग्रन्थों की परम्परा के रूप में उल्लेखित है, तो दिगम्बर परम्परा में उन्हें आर्य मंक्ष और नागहस्ति की परम्परा के मतभेद कहकर चित्रित किया गया है। दूसरे प्रकार के जो मतभेद हैं. वे व्याख्या को लेकर हैं - दिगम्बर परम्परा में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचनाओं में इस तथ्य को ध्यान में रखकर व्याख्याएँ की गई है कि जिससे स्त्रीमुक्ति या केवलीमक्ति की सिद्धि न हो । शेष विवेचनाओं में दोनों परम्पराओं में कोई विशेष मतभेद नहीं देखा जाता है। दिगम्बर संस्कृत पंचसंग्रह और गुणस्थान दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह के अतिरिक्त इस परम्परा में संस्कृत भाषा में रचित दो पंचसंग्रह भी उपलब्ध होते हैं । इसमें प्रथम लगभग ग्यारहवीं शताब्दी के आचार्य अमितगति का पंचसंग्रह और दूसरा श्रीपालसुतढड्डा का पंचसंग्रह । जहाँ तक अमितगति के पंचसंग्रह का प्रश्न है, वह एक दृष्टि से प्राकृत पंचसंग्रह का संस्कृत रूपान्तरण ही प्रतीत होता है । यह पंचसंग्रह माणिकचंद ग्रन्थमात्मा से सन् १६२७ में प्रकाशित हुआ ।३४५ अमितगति के पंचसंग्रह की विषयवस्तु प्राकृत पंचसंग्रह के समरूप ही है । यहाँ तक कि प्रकरण आदि के नाम भी वही है । जहाँ तक इसमें गुणस्थान सिद्धान्त के विवेचन का प्रश्न है, प्राकृत पंचसंग्रह के गुणस्थान सम्बन्धी सभी विवरण इसमें भी मिलते हैं, अतः पिष्ट-पेषण और विस्तार भय से पुनः हम उन सब की चर्चा में उतरना नहीं चाहते हैं। दूसरा संस्कृत पंचसंग्रह श्रीपालसुतढड्डा की रचना है ।३४६ ये प्राग्वाट् जाति के थे और उनका निवास स्थान चित्रकूट अर्थात् चित्तौड़ था। यहाँ ग्रन्थकार ने अपना परिचय तो दिया है, किन्तु ग्रन्थ के रचनाकाल का कोई निर्देश नहीं किया है, किन्तु इस पर सुमतिकीर्ति की जो टीका उपलब्ध है, उसका रचना काल विक्रम संवत् १६२० दिया है । अतः यह विक्रमीय सत्रहवीं शती के पूर्व और विक्रमीय बारहवीं शताब्दी के पश्चात् कभी रचित हुआ होगा । हमारी दृष्टि में इसका रचना काल चौदहवीं-पन्द्रहवीं शताब्दी के आसपास होना चाहिए । ढड्डाकृत पंचसंग्रह की विषयवस्तु एवं प्रकरण भी वही है, जो प्राकृत पंचसंग्रह के हैं । इसकी विषयवस्तु जहाँ एक ओर प्राकृत पंचसंग्रह से मिलती है, वहीं दूसरी ओर उसकी गोम्मटसार से भी समरूपता है । यही कारण है कि इसके टीकाकार ने अपनी टीका की पुष्पिकाओं में 'श्री पंचसंग्रह गोम्मटसार सिद्धान्त टीकायाम्' ऐसा उल्लेख किया है । यह ग्रन्थ भारतीय ज्ञानपीठ से प्राकृत पंचसंग्रह के अन्त में छपा है । इसकी विषयवस्तु आदि के सम्बन्ध में पंडित हीरालालजी ने अपनी प्रस्तावना में चर्चा की है । यह कृति भी प्राकृत पंचसंग्रह और अमितगति के संस्कृत पंचसंग्रह पर आधारित है । मात्र अन्तर यह है कि जहाँ अमितगति के संस्कृत पंचसंग्रह का श्लोक परिमाण २५०० है, वहीं ढड्डाकृत पंचसंग्रह का श्लोक परिमाण २००० है। इसमें भी गुणस्थान सम्बन्धी जो विवरण रहा हुआ है, वह प्राकृत पंचसंग्रह के अनुरूप ही है । विस्तार एवं पुनरावृत्ति के भय से इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा करना आवश्यक नहीं है। ३४५ श्री अमितगति सूरि, विरचित : पंचसंग्रह - माणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला, बम्बई १६२७ ३४६ पंचसंग्रह - सम्पादक : पं. हीरालालजी जैन - भारतीय ज्ञानपीठ, काशी १६६० पृ ६६३-७४२ Jain Education Intemational Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{388} गोम्मटसार और गुणस्थान सिद्धान्त गोम्मटसार का सामान्य परिचय : दिगम्बर परम्परा के कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी साहित्य में षट्खण्डागम और प्राकृत पंचसंग्रह के पश्चात दूसरा कोई विशिष्ट ग्रन्थ है, तो वह गोम्मटसार है । गुणस्थान सिद्धान्त का सम्बन्ध मुख्य रूप से कर्मप्रकृतियों के उदय, क्षय-उपशम आदि से ही रहा हुआ है, इसीलिए गुणस्थान सिद्धान्त की विवेचना में कर्म साहित्य की उपेक्षा सम्भव नहीं होती है । कर्म साहित्य में ही गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विवरण उपलब्ध होते हैं, अतः यह स्वभाविक है कि षट्खण्डागम और दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह के समान ही गोम्मटसार में भी गुणस्थान सिद्धान्त का विशेष विवरण उपलब्ध होता है । गोम्मटसार में गुणस्थान सिद्धान्त किस रूप में उपलब्ध है, इसकी चर्चा के पूर्व इस ग्रन्थ के सम्बन्ध में किंचित् विचार कर लेना आवश्यक है । 'गोम्मट' शब्द मूल में कन्नड़ भाषा के “गोम्ट” का तद्भव रूप है । इसका सामान्य अर्थ उत्तम या सुन्दर है। गोम्मटसार शब्द यह बताता है कि यह ग्रन्थ उत्तम ग्रन्थों का साररूप है । वस्तुतः गोम्मटसार ग्रन्थ षट्खण्डागम, पंचसंग्रह आदि ग्रन्थों के आधार पर ही निर्मित हुआ है। अतः इसे गोम्मटसार कहा गया है ।३४७ गोम्मटसार को उसके कर्मकाण्ड की अन्तिम प्रशस्ति में संग्रहसूत्र कहा गया है।३४८ इससे भी यही फलित होता है कि गोम्मटसार दिगम्बर परम्परा के कर्म सम्बन्धी साहित्य का साररूप एक संग्रह ग्रन्थ है। गोम्मटसार के रचयिता आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती हैं और उसका रचनाकाल विक्रम संवत् १०३७ से १०४० के बीच माना जाता है । इसप्रकार यह विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी का ग्रन्थ सिद्ध होता है । गोम्मटसार का अपरनाम पंचसंग्रह भी है, ऐसा डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये एवं पंडित कैलाशचन्द्रजी शास्त्री ने गोम्मटसार के जीवकाण्ड की भू चित किया है ।३४६ गोम्मटसार को पंचसंग्रह कहने का तात्पर्य केवल इतना ही है कि गोम्मटसार और पंचसंग्रह की विषयवस्तु में पर्याप्त समरूपता है । हम जैसा कि पूर्व में सूचित कर चुके हैं, गोम्मटसार की विषय वस्तु षट्खण्डागम, उसकी धवला टीका तथा पंचसंग्रह से ही ली गई है । हम पूर्व में यह भी देख चुके है कि श्वेताम्बर प्राकृत पंचसंग्रह और दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह गुणस्थान सिद्धान्त की सूक्ष्म चर्चाएं प्रस्तुत करते हैं । यही बात गोम्मटसार के सम्बन्ध में कही जा सकती है । गोम्मटसार के जीवकाण्ड और पंचसंग्रह के जीवसमास नामक प्रथम अधिकार में न केवल अनेक गाथाओं की समरूपता है, अपितु गोम्मटसार के कर्ता आचार्य नेमिचन्द्र ने अपने जीवकाण्ड में जीवसमास के विषयों को अधिक विस्तृत रूप से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। इस सम्बन्ध में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित गोम्मटसार की प्रस्तावना में विस्तार से प्रकाश डाला गया है। जिस प्रकार दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह के जीवसमास नामक प्रथम अधिकार में गुणस्थानों के स्वरूप, गुणस्थानों के भेद आदि की विस्तृत चर्चा मिलती है, उसी प्रकार गोम्मटसार में जीवकाण्ड के प्रारम्भ में भी गुणस्थानों के स्वरूप आदि के सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा की गई है । विशेषता यह है कि इसमें गुणस्थानों की चर्चा के साथ-साथ मार्गणा आदि में भी गुणस्थानों का अवतरण किया गया है। गोम्मटसार जीवकाण्ड में गुणस्थानों का स्वरूप गोम्मटसार के जीवकाण्ड की गाथा क्रमांक ८ में सर्वप्रथम गुणस्थान की परिभाषा दी गई है । उसमें कहा गया है कि मोहिनीयादि कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के परिणाम स्वरूप जो जीवों की विशेष अवस्थाएं होती है, उन्हें गुणस्थान कहा गया है । इसके पश्चात् गाथा क्रमांक और १० में पंचसंग्रह के समान ही चौदह गुणस्थानों के नाम भी दिए हैं । चौदह ३४७ गोम्मटसार, जीवकाण्ड भाग १ प्रस्तावना पृ. २४ लेखक : आ. नेमिचन्द्र, सम्पादक : डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, कैलाशचन्द्र शास्त्री, प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली ३४८ वही, पृ. २० ३४६ वही Jain Education Interational Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{389} गुणस्थानों के नाम के उल्लेख के पश्चात् प्रत्येक गुणस्थान के स्वरूप का उल्लेख किया गया है । यद्यपि मूल ग्रन्थ में इस सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा की गई है, किन्तु यहाँ हम उसे अति संक्षेप में ही प्रस्तुत करेंगे। मोहनीय कर्म, दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय के भेद से दो प्रकार का है । दर्शन मोहनीय की मिथ्यात्व मोहनीय नामक प्रकृति के उदय से जीव को मिथ्यात्व गुणस्थान होता है,३५० जिसका लक्षण अतत्वश्रद्धान है । वह मिथ्यात्व एकान्त, विपरीत, वैनयिक, सांशयिक और अज्ञान के भेद से पांच प्रकार का है। उनमें जीवादि वस्तु सर्वथा सत् ही है, या सर्वथा असत् ही है, या सर्वथा एक ही है, या सर्वथा अनेक है, इत्यादि निरपेक्ष एकान्त कथन को एकान्त मिथ्यात्व कहते हैं । अहिंसा आदि लक्षण वाले समीचीन धर्म का फल स्वर्ग आदि का सुख है । उसको हिंसा आदि रूप यज्ञ का फल मानना जीव के प्रमाण सिद्ध मोक्ष का निराकरण करना, प्रमाण से बाधित अवधारणा का अस्तित्व बतलाना, इत्यादि एकान्त का अवलम्बन करते हुए जो विपरीत अभिनिवेश है, वही विपरीत मिथ्यात्व है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र की अपेक्षा निषेध कर गुरु के चरणों की पूजा आदि रूप विनय के द्वारा ही मुक्ति होती है । इसप्रकार का श्रद्धान वैनयिक मिथ्यात्व है । प्रत्यक्ष आदि प्रमाण से गृहीत अर्थ का देशान्तर और कालान्तर में व्यभिचार सम्भव होने से परस्पर विरोधी आप्त के वचन भी प्रमाणित नहीं होते, इसीलिए 'यही तत्व है' - इस प्रकार का निर्णय करना शक्य न होने से सर्वत्र संशय करना सांशयिक मिथ्यात्व है । ज्ञानावरण और दर्शनावरण के तीव्र उदय से आक्रान्त एकेन्द्रिय आदि जीवों में 'वस्तु अनेकान्तात्मक है', ऐसे सामान्य ज्ञान का अथवा 'जीव का लक्षण उपयोग है', ऐसे विशेष ज्ञान का जो अभाव है, वह अज्ञान मिथ्यात्व है । इस प्रकार स्थूल अंश के आश्रय से मिथ्यात्व के पांच भेद बताए गए हैं । सूक्ष्म अंश के आश्रय से असंख्यात लोक मात्र भेद हो सकते हैं। मिथ्यात्व के उपर्युक्त पांच प्रकारों के उदाहरण इस प्रकार हैं - एकान्त क्षणिकवादी बौद्ध आदि मत एकान्त मिथ्यादृष्टि हैं । हिंसक यज्ञों के द्वारा स्वर्ग मिलता है, ऐसा माननेवाले ब्राह्मण आदि विपरीत मिथ्यादृष्टि हैं । तापस आदि वैनयिक मिथ्यादृष्टि है । कर्मफल में अविश्वास रखने वाले सांशयिक मिथ्यादृष्टि है । गोशालक आदि अज्ञान मिथ्यादृष्टि है। तत्वश्रद्धान से रहित और उदय में आए हुए मिथ्यात्व का अनुभव करने वाला जीव मिथ्यादृष्टि होता है । वह न केवल तत्वश्रद्धान से रहित होता है, अपितु अनन्तधर्मात्मक वस्तु के स्वरूप को अथवा मोक्ष के कारणभूत रत्नत्रयात्मक धर्म को भी स्वीकार नहीं करता । जैसे पीत ज्वर से ग्रस्त व्यक्ति मीठे दूध आदि रस को पंसद नहीं करता, उसी तरह मिथ्यादृष्टि को धर्म नहीं रुचता । वस्तुस्वभाव के अश्रद्धान को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि मिथ्यादृष्टि जीव जिनउपदिष्ट अर्थात् अर्हन्त आदि के द्वारा कहे गए आप्त आगम और अनन्तधर्मात्मक वस्तु स्वरूप में श्रद्धान नहीं करता है । जिसका वचन उत्कृष्ट है, ऐसा आप्त का कथन प्रवचन या परमागम कहा जाता है । घट, पट, स्तम्भ आदि पदार्थों को यथार्थ रूप से जानते हुए एवं श्रद्धान करते हुए भी मिथ्यादृष्टि अज्ञानी कहा जाता है, क्योंकि उसका जिनवचन में श्रद्धान नहीं है। ___मिथ्यादर्शन रूप परिणाम के भेद इस प्रकार हैं-आत्मा में उपस्थित कोई मिथ्यादर्शन रूप परिणाम रूपादि की उपलब्धि होने पर भी कारणविपर्यास, भेदाभेदविपर्यास और स्वरूपविपर्यास को पैदा करता है। उनमें से कारणविपर्यास इस प्रकार है - कोई मानते हैं कि रूपादि का कारण एक अमूर्त नित्य तत्व है । दूसरे कहते है कि परमाणु पृथ्वी आदि जाति भेद से भेदवाले है । पृथ्वी जाति के परमाणुओं में रूप, रस, गंध और स्पर्श चारों गुण होते हैं । जल जाति के परमाणुओं में रस, रूप और स्पर्श-तीन गुण होते हैं । तेजो जाति के परमाणुओं में रूप और स्पर्श-दो गुण होते है। वायु जाति के परमाणुओं में केवल एक स्पर्श गुण होता है । पृथ्वी जाति के परमाणुओं से पृथ्वी ही बनती है, जल जाति के परमाणुओं से जल ही बनता है । इस प्रकार वे परमाणु समान जातीय कार्यों को ही उत्पन्न करते है, यह कारणविपर्यास है । दूसरा भेदाभेदविपर्यास इस प्रकार है - कारण से कार्य भिन्न ही होता है, या अभिन्न ही होता है, ऐसी कल्पना भेदाभेदविपर्यास है । स्वरूपविपर्यास इसप्रकार है - रूप आदि विषय है अथवा नही है, अथवा उनके आकार रूप परिणत ज्ञान की ही सत्ता है, उनका आलम्बन या आधार बाह्य वस्तु नहीं है । इस प्रकार मिथ्यात्व के कारण से कुश्रुतज्ञान के विकल्प होते है । इन सबका मूल कारण मिथ्यात्व कर्म का उदय ही है। ३५० गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा क्रमांक - १५ पृ. ४६ Jain Education Intemational Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{390} प्रथमोपशम सम्यक्त्व के काल में जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से छः आवलि शेष रहने पर अनन्तानुबन्धी चतुष्क में से किसी एक कषाय का उदय होने पर जिसका सम्यक्त्व च्युत होता है, वह सासादन गुणस्थान कहा जाता है ।३५१ द्वितीय उपशम सम्यक्त्व के काल में भी सासादन गुणस्थान की प्राप्ति होती है, ऐसा कषायप्राभृत का अभिप्राय है । जब जीव सम्यक्त्व परिणामरूप रत्नपर्वत के शिखर से मिथ्यात्व परिणामरुपी भूमि की ओर पतित होता है, तो उसके मध्य के काल में जो एक समय से छः आवलि पर्यन्त रहता है, वह जीव सम्यक्त्व से च्युत हो जाने के कारण सासादन गुणस्थानवर्ती होता है । पर्वत से गिरा व्यक्ति भूमि में आने से पहले गिरता हुआ कुछ समय मध्य में रहता है, वैसे ही जो सम्यक्त्व पतित होने पर मिथ्यात्वरूप भूमि को प्राप्त न करके छः आवलि मात्र अन्तरालकाल में रहता है वह सासादनसम्यग्दृष्टि है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि नामक कर्मप्रकृति के उदय से जीव का एक साथ सम्यक्त्व और मिथ्यात्वरूप मिला-जुला परिणाम होता है, यह सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है ।३५२ सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से मिथ्यात्व कर्म के उदय की तरह न केवल मिथ्यात्व का परिणाम होता है और न सम्यक्त्व प्रकृति के उदय की तरह सम्यक्त्व का परिणाम होता है, अपितु सम्यग्मिथ्यात्वरूप एक मिला-जुला परिणाम होता है । जैसे मिले हुए दही और गुड़ को अलग करना अशक्य है, उसी प्रकार मिला हुआ सम्यग्मिथ्यात्व परिणाम भी केवल सम्यक्त्व रूप से या केवल मिथ्यात्वभावरूप से अलग करना सम्भव नहीं है । ऐसी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जिसमें होती है, वह सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव सर्वविरति या देशविरति को ग्रहण नहीं करता है, क्योंकि उनको ग्रहण करने योग्य परिणाम उसमें नहीं होते । चारों गतियों में ले जाने वाला जो चार प्रकार का आयुष्यकर्म है, वह उनका बन्ध भी नहीं करता है । मरणकाल आने पर जीव नियम से सम्यग्मिथ्यारूप परिणाम को त्यागकर असंयतसम्यग्दृष्टि को अथवा मिथ्यादृष्टि को नियम से प्राप्त करने के पश्चात् ही मरता है । सम्यक्त्व परिणाम और मिथ्यात्व परिणाम में से जिस परिणाम में परभव संबन्धी आयुष्य कर्म का पूर्व में बन्ध किया था, उसी सम्यक्त्वरूप या मिथ्यात्व रूप परिणाम में आने पर ही जीव का मरण होता है, किन्तु कुछ आचार्यों का अभिप्राय ऐसा नहीं है, उनके मन से सम्यक्त्व परिणाम में वर्तमान कोई जीव उसके योग्य परभव की आयुष्य का बन्ध करके पुनः सम्यग्मिथ्यादृष्टि होकर पीछे सम्यक्त्व या मिथ्यात्व को प्राप्त करके मरता है । मिथ्यात्व में, वर्तमान कोई जीव उसके योग्य उत्तर भव की आयु का बन्ध करके पुनः सम्यग्दृष्टि होकर पीछे सम्यक्त्व या मिथ्यात्व को प्राप्त करता है । यह कथन बद्धायुष्क के लिए है । मिश्र गुणस्थान में मारणान्तिक समुद्घात भी नहीं होता है। अनन्तानुबन्धी कषायों का प्रशस्त उपशम नहीं होता है, इसीलिए उनका अप्रशस्त उपशम अथवा विसंयोजन होने पर तथा दर्शन मोहनीय के भेद रूप मिथ्यात्वमोह और सम्यग्मिथ्यात्वमोह का प्रशस्त उपशम, अथवा अप्रशस्त उपशम, अथवा क्षय के सम्मुख होने पर और सम्यक्त्वमोह के देशघाती स्पर्द्धकों का उदय रहते हुए ही जो तत्वार्थश्रद्धान रूप सम्यक्त्व होता है, उसका नाम वेदकसम्यक्त्व है । सम्यक्त्वमोह नामक कर्मप्रकृति के उदय में देशघाती स्पर्द्धकों का उदय तत्त्वार्थ के श्रद्धान को विनष्ट करने की शक्ति से शून्य होने से सम्यक्त्व चल, मलिन और अगाढ़ होता है, सम्यक्त्वमोह नामक कर्मप्रकृति का उदय तत्त्वार्थश्रद्धान को मलिन करता है, नष्ट नहीं करता है, इसी कारण से वह देशघाती है । सम्यक्त्वमोह के उदय को अनुभव करने वाले जीव का तत्त्वार्थश्रद्धान वेदकसम्यक्त्व कहा जाता है । इसी का नाम क्षायोपशमिक सम्यक्त्व भी है, क्योंकि दर्शनमोह के सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदयाभाव या क्षय होने पर तथा देशघाती स्पर्द्धकरूप सम्यक्त्वमोह का उदय होने पर और उसके ऊपर के अनुदय प्राप्त निषेकों का सत् अवस्था रूप उपशम होने पर वेदकसम्यक्त्व होता है । वेदकसम्यक्त्व का जघन्यकाल पाप का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टकाल छासठ सागरोपम है । चल का लक्षण इस प्रकार है - आप्त, आगम और पदार्थ विषयक श्रद्धान के विकल्पों में जो चलित होता है, उसे चल कहते हैं । जैसे-अपने द्वारा कराए गए जिनबिंब आदि में 'यह मेरे देव है', इसप्रकार दूसरे के द्वारा कराए गए जिनबिंब आदि में 'यह पराया है', ऐसा भेद करने से चल दोष होता है । जैसे जल की अनेक तरंगों में जल तो एक ही है, ३५१ गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा क्र.-१६ ३५२ गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा क्र.-२१ Jain Education Interational Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... - पंचम अध्याय .......{391} किन्तु अनेक रूप से चल है, उसी तरह सम्यक्त्वमोह के उदय से श्रद्धान भ्रमण रूप चेष्टा करता है । मलिन दोष इस प्रकार है जैसे मल के योग से शुद्ध स्वर्ण मलिन हो जाता है, वैसे ही सम्यक्त्वमोह के उदय से सम्यक्त्व अपने माहात्म्य को न पाकर मल रंग से मलिन होता है । अगाढ़ दोष इस प्रकार है- आप्त, आगम और वस्तुस्वरूप की श्रद्धान रखते हुए भी जो कम्पित होता है, स्थिर नहीं रहता है, उसे अगाढ़ दोष कहते है । जैसे सभी अर्हन्त परमेष्ठियों में अनन्त शक्ति समान रूप से स्थित होते हुए भी शान्तिक्रिया में शान्तिनाथ भगवान समर्थ हैं, 'विघ्ननाश आदि क्रिया में पार्श्वनाथ भगवान समर्थ हैं', इत्यादि प्रकार से रुचि में शिथिलता होने से तीव्र रुचि से रहित होता है । जैसे वृद्ध पुरुष के हाथ की लकड़ी शिथिल होने से अगाढ़ होती है, वैसे ही वेदकसम्यक्त्व भी अगाढ़ होता है । जिसका अन्त नहीं है, उसे अनन्त कहते हैं । अनन्त के आश्रय से जो बन्धती है, वह अनन्तानुबन्धी कषाय है । अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क तथा मिथ्यात्वमोह, सम्यग्मिथ्यात्वमोह और सम्यक्त्वमोह - इन सात कर्मप्रकृतियों के सर्वोपशम से औपशमिक तथा क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व उत्पन्न होता है । ये दोनों सम्यक्त्व निर्मल होते हैं । इनमें शंकादि रूप मल लेशमात्र भी नहीं होता है तथा श्रद्धान निश्चल होता है, क्योंकि आप्त, आगम और वस्तुस्वरूप विषयक श्रद्धान के विकल्पों में कहीं भी स्खलन नहीं होता है। श्रद्धा गाढ़ अर्थात् सुदृढ़ होती है, क्योंकि आप्तवचन आदि में तीव्र रुचि होती है । इस प्रकार ऊपर कहे गए तीन प्रकार के सम्यक्त्वों में से किसी भी प्रकार के सम्यग्दृष्टि अप्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क में से किसी एक कषाय का उदय होने से असंगत होता है । जो जीव अर्हन्त आदि के द्वारा उपदिष्ट प्रवचन में अर्थात् आप्त, आगम और वस्तुस्वरूप में श्रद्धा रखता है, किन्तु उनके विषय में विशेषज्ञान से शून्य होने पर केवल गुरु के नियोग से कि जो गुरु ने कहा वही अर्हन्त भगवान की आज्ञा है, ऐसी श्रद्धा करता है, वह भी सम्यग्दृष्टि ही है । अपनों को विशेष ज्ञान न होने से और गुरु भी अल्पज्ञानी होने से वस्तुस्वरूप अन्यथा रूप से कहे, किन्तु उसे जिनाज्ञा मानकर उसका श्रद्धान करें, तो भी वह सम्यग्दृष्टि है, क्योंकि उसने जिनाज्ञा का उल्लंघन नहीं किया। उक्त प्रकार से असत् अर्थ का श्रद्धान करता हुआ आज्ञासम्यग्दृष्टि जीव जब अन्य कुशल आचार्यों के द्वारा पूर्व में उसके द्वारा गृहीत असत्यार्थ से भिन्न तत्व गणधर आदि के द्वारा कथित सूत्रों के आधार से सम्यक् रूप से बतलाया जाए और फिर भी यदि वह दुराग्रहवश उस सत्यार्थ का श्रद्धान न करें, तो उस समय से वह जीव मिथ्यादृष्टि होता है, क्योंकि गणधर आदि के द्वारा कथित सूत्र का श्रद्धान न करने से जिनाज्ञा का उल्लंघन सुप्रसिद्ध है। इसी कारण वह मिथ्यादृष्टि है । जो इन्द्रियों के विषयों में विरति रहित है तथा स-स्थावर जीव की हिंसा का त्यागी नहीं है, केवल जिन भगवान के द्वारा कहे हुए प्रवचन का श्रद्धान करता है, वह जीव अविरतसम्यग्दृष्टि होता है । ३५३ अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क तथा अप्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क-इन आठ कषायों के उपशम से और प्रत्याख्यानीय कषायों के देशघाती स्पर्द्धकों के उदय से तथा सर्वघाती स्पर्द्धकों के उदयाभाव या क्षय से सकल संयम रूप भाव नहीं होता, किन्तु देशसंयम होता है अर्थात् प्रत्याख्यानीय कषाय के उदय में सफल चारित्र रूप परिणाम नहीं होता है, क्योंकि प्रत्याख्यानीय कषाय सकल संयम को आवरण करती है । देशसंयम से युक्त जीव पंचम गुणस्थानवर्ती होता है । देशसंयत को विरताविरत भी कहा जाता है, क्योंकि एक ही काल में जो जीव त्रस हिंसा से विरत है, वही जीव स्थावर हिंसा से अविरत है । इसी तरह जो विरत है, वही अविरत है । विषय भेद की अपेक्षा कोई विरोध न होने से विरताविरत व्यपदेश के योग्य होता है । प्रयोजन के बिना स्थावर हिंसा भी नहीं करता है । उसकी रुचि एकमात्र जिन भगवान में होने से वह देशसंयत सम्यग्दृष्टि होता है । ३५४ जिस कारण से संज्वलन कषाय के सर्वघाती स्पर्द्धकों का उदयाभाव या क्षय हो तथा शेष बारह कषायों का उदय नहीं हो तथा संज्वलनकषाय और नोकषाय के निषेकों का सवस्थारूप उपशम होने पर तथा संज्वलन और नोकषाय के देशघाती स्पर्द्धकों का तीव्र उदय होने पर संयम के साथ प्रमाद भी उत्पन्न होता है । इसी कारण से छठे गुणस्थानवर्ती जीव को प्रमत्त और विरत अर्थात् प्रमत्तसंयत कहते हैं । २५५ ३५३ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा क्र. २६ ३५४ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा क्र. ३१ ३५५ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा क्र. ३२ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{392} जिस काल में संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ-इन चार कषायों का और हास्यादि नौ नोकषायों के उदयरूप परिणाम मन्द हों, अर्थात् प्रमाद को उत्पन्न करने की शक्ति से रहित होता है, उक्त काल में एक अन्तर्मुहूर्त के लिए जीव को होनेवाला गुणस्थान अप्रमत्तसंयत गुणस्थान होता है ।३५६ अप्रमत्तसंयत के दो भेद हैं -स्वस्थानाप्रमत्त और सातिशय अप्रमत्त । जिस जीव के प्रमाद नष्ट हो गए हैं, जो व्रत, गुण एवं शील से भूषित है, जो सम्यग्ज्ञान के उपयोग से युक्त है तथा जिसका मन धर्मध्यान में लीन है. ऐसा अप्रमत्तसंयत जब तक उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणी के सन्मुख चढ़ने के लिए प्रवृत्त नहीं होता, तब तक उसे स्वस्थानाप्रमत्त कहते हैं । जिसकी विशुद्धि अर्थात् कषायों की मन्दता प्रतिसमय अनन्तगुना वृद्धिगत है अर्थात् प्रथम समय की विशुद्धता से दूसरे समय की विशुद्धता अनन्तगुना है, उससे तीसरे समय की विशद्धता अनन्तगना हो. इसीप्रकार प्रतिसमय जिसकी विशुद्धता बढ़ती हो, वह वेदक सम्यग्दृष्टि अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव पहले अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क को अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण पूर्वक संक्रमण के द्वारा बारह कषाय और नौ नोकषाय में परिणमाता है । इसी का नाम विसंयोजन है । इसके पश्चात अन्तर्महर्त तक विश्राम करके पनः तीन करणों के द्वारा दर्शनमोह की तीन प्रकतियों का उपशम करके द्वितीय उपशम सम्यग्दृष्टि होता है अथवा उन तीन करणों के द्वारा दर्शनमोह की तीन प्रकृतियों का क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि होता है । उसके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त तक प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थान में हजारों बार आता-जाता है अर्थात् अप्रमत्त से प्रमत्त और प्रमत्त से अप्रमत्त होता है । तत्पश्चात् प्रतिसमय अनन्तगुना विशुद्धि से बढ़ता हुआ चारित्र मोहनीय की इक्कीस प्रकृतियों का उपशम या क्षय करने के लिए तत्पर होता है । औपशमिक सम्यग्दृष्टि, उपशम और क्षायिक सम्यग्दृष्टि क्षय करता है। ज्ञातव्य है कि उपशमश्रेणी पर आरोहण, उपशम सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि दोनों ही कर सकते है, किन्तु क्षपकश्रेणी पर आरोहण क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही कर सकता है। चारित्रमोह के उपशम और क्षय करने वाला सातिशय अप्रमत्त कहलाता है। __अन्तर्मुहूर्त काल तक अधःप्रवृत्तकरण करके विशुद्ध संयमी होकर प्रतिसमय अनन्तगुना विशुद्धि से वर्धमान होता हुआ अपूर्वकरण गुणस्थान को प्राप्त होता है ।३५७ जिसके द्वारा उत्तरोत्तर समयों में स्थित जीवों के, जो पूर्व-पूर्व समयों में नहीं प्राप्त हुए, ऐसे विशुद्ध किन्तु विसदृश परिणाम प्राप्त होते है, उसे अपूर्वकरण गुणस्थान कहते हैं । जिस गुणस्थान में जीवों के परिणाम अपूर्व होते है, उसे अपूर्वकरण गुणस्थान कहते हैं । अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीव जब उपशमश्रेणी पर आरोहण करता है, तब चारित्र मोहनीय का नियम से उपशम करता है तथा जब क्षपकश्रेणी पर आरोहण करता है, तब चारित्र मोहनीय का नियम से क्षय करता है । क्षपकश्रेणी में नियम से मरण नहीं होता है, किन्तु उपशमश्रेणी में अपूर्वकरण के प्रथम भाग को छोड़कर द्वितीयादि भागों में मरण सम्भव होता है। ____ अनिवृत्तिकरण काल के एक समय में वर्तमान सभी जीवों के, जैसे शरीर के आकार, वर्ण, वय, अवगाहना, ज्ञानोपयोग आदि में परस्पर भेद होते है, उसी प्रकार विशुद्ध परिणामों में परस्पर भेद नहीं होते है । जिसमें निवृत्ति अर्थात् विशुद्ध परिणामों में भेद नहीं है, वह अनिवृत्तिकरण गुणस्थान है ।३५८ अनिवृत्तिकरण में एक समयवर्ती जीवों के परिणामों में समानता होती है तथा आगे के प्रति समय में अनन्तगुना विशुद्धता बढ़ती जाती है । अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवी जीव विमलतर ध्यानरूपी अग्नि की ज्वाला से कर्म रूपी व्रत को जलानेवाले होते हैं । तात्पर्य यह है कि अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवी जीवों के परिणामों का कार्य चारित्रमोहनीय का उपशमन या क्षपण करना है ।३५६ जैसे कुसुम्भ से रंगा हुआ वस्त्र सम्यक् रूप से धोने पर भी सूक्ष्म लाल रंग से युक्त होता है, उसी प्रकार सूक्ष्म दृष्टि को ३५६ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, गाथा क्र. ४५, पृष्ठ ७८ लेखक : आ. नेमिचन्द्र, सम्पादन : डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, कैलाशचन्द्र शास्त्री, प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ, १८, इंस्टीट्युशनल एरिया, लोदी रोड़, नई दिल्ली - ११०००३ ३५७ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, प्रथम अधिकार, गाथा क्र.५०, पृष्ठ ११२ वही। ३५५ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, प्रथम अधिकार, गाथा क्र.५६, पृष्ठ ११६ वही। ३५६ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, प्रथम अधिकार, गाथा क्र. ५७, पृष्ठ १२० वही। Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... पंचम अध्याय........{393} प्राप्त लोभकषाय से युक्त जीव सूक्ष्मसंपराय गुणस्थानवर्ती होता है ।३६० सम्पराय अर्थात् यथाख्यात चारित्र को रोकने वाला लोभकषाय सूक्ष्म अर्थात् सूक्ष्मदृष्टि अनुभागोदय से सहचरित राग। जो सूक्ष्मराग से युक्त है वह सूक्ष्मसम्पराय है । अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के अन्तिम समय के पश्चात् सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान को प्राप्त करके सूक्ष्म दृष्टि को प्राप्त लोभ के उदय को भोगनेवाला उपशमक अथवा क्षपक जीव सूक्ष्मसम्पराय कहा जाता है । जिसका सम्पराय अर्थात् लोभकषाय सूक्ष्म है, अर्थात् सूक्ष्म दृष्टि को प्राप्त है, वह सूक्ष्मसम्पराय है। __ जैसे कतकफल के चूर्ण से युक्त जल निर्मल होता है अथवा मेघपटल से रहित शरद ऋतु में जैसे सरोवर का जल ऊपर से निर्मल होता है, वैसे ही पूरी तरह से मोह को उपशान्त करने वाला उपशान्तकषाय गुणस्थानवर्ती कहा जाता है । जिसने कषायों और नोकषायों को उपशान्त अर्थात पूरी तरह से उदय के अयोग्य कर दिया है, वह उपशान्तकषायवाला है।३६१ उपशान्त कषाय गणस्थानवी जीव यथाख्यात चारित्र से यक्त होने से निर्ग्रन्थ कहा जाता है। जिसकी मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ निःशेष क्षीण अर्थात् प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश से रहित हो गई है, वह निःशेष क्षीणमोह अर्थात् मोहनीय की सभी कर्मप्रकृतियों से रहित जीव क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती कहा जाता है ।२६२ क्षीणकषाय गुणस्थानवी जीव स्फटिक के पात्र में रखे हुए स्वच्छ जल के समान होता है । ऐसा बारहवाँ गुणस्थानवी जीव छद्मस्थ वीतराग कहा जाता है । वह परम निर्ग्रन्थ होता है। जिन्होंने केवलज्ञानरूपी सूर्य की किरणों से प्रकाशित होकर अपनी दिव्यध्वनि के द्वारा शिष्यजनों का अज्ञानान्धकार नष्ट कर दिया है, ऐसे सयोगी केवली भगवान भव्य जीवों का उपकार करने में समर्थ हैं । उन्होंने क्षायिक सम्यक्त्व, क्षायिक चारित्र, केवलज्ञान, केवलदर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य-इन नौ केवल लब्धियों को प्रकटकर परमात्मा नाम को प्राप्त किया है । वे भगवान अर्हन्त परमेष्ठी अनन्तज्ञानादि से युक्त हैं । योग से युक्त होने से सयोग और असहाय ज्ञान-दर्शन से सहित होने से केवली अर्थात् सयोगी केवली हैं । वे घाती कर्मों को निर्मूल करने से जिन है । इस प्रकार उन्हें सयोग केवली जिन कहा है।३६३ ये सयोग केवली जिन तेरहवें गुणस्थान के धारक हैं। __जो अठारह हजार शीलों के स्वामी हैं, समस्त आनवों के रुक जाने से जो नवीन बध्यमान कर्मरज से सर्वथा रहित है तथा मनोयोग, वचनयोग और काययोग से रहित होने से अयोग हैं, इसी प्रकार जिनके योग नहीं है तथा केवली भी हैं, वे अयोग केवली भगवान हैं । यह अयोग केवली जिन रूप चौदहवाँ गुणस्थान है।३६४ ____ गुणस्थानों के इस स्वरूप विश्लेषण में गोम्मटसार की विशेषता यह है कि सम्यग्दृष्टि गुणस्थान की चर्चा में वह वेदक सम्यक्त्व, उपशम सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व के स्वरूप की भी चर्चा करता है । इसी प्रकार प्रमत्तसंयत गुणस्थान की चर्चा के प्रसंग में पन्द्रह प्रकार के प्रमादों और इनके विकल्पों तथा उनके क्षय करने की विधि आदि का उसमें विस्तार से उल्लेख किया गया है । इसी क्रम में अप्रमत्तंसयत गुणस्थान की चर्चा करते हुए उसमें अधःप्रवृत्तकरण आदि की भी अति विस्तार से चर्चा की गई है । अपूर्वकरण गुणस्थान में अंक संदृष्टि और अर्थ संदृष्टि का विवेचन हुआ है । साथ ही अयोगी केवली गुणस्थान के पश्चात् चौदह गुणस्थानों में होने वाली गुणश्रेणी निर्जरा का भी विस्तृत विवेचन किया गया है और अन्त में सिद्ध परमात्मा के स्वरूप का विवेचन करते हुए उनके लक्षणों का भी विवेचन किया गया है । अन्त में कहा गया है कि सिद्ध परमात्मा के उपर्युक्त लक्षण सदा शिवमत, सांख्यमत, मस्करीमत, बौद्धमत, नैयायिक मत, ईश्वरवादी मत और माण्डलिक मत के दोषों के निराकरण ३६० गोम्मटसार, जीवकाण्ड, प्रथम अधिकार, गाथा क्र.५८, पृष्ठ १२१ वही। ३६१ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, प्रथम अधिकार, गाथा क्र.६१, पृष्ठ १२६ वहीं। ३६२ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, प्रथम अधिकार, गाथा क्र. ६२, पृष्ठ १२७ वहीं । ३६३ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, प्रथम अधिकार, गाथा क्र.६३-६४, पृष्ठ १२८ वहीं । ३६४ वहीं गाथा क्र. ६५, पृष्ठ १२६ । Jain Education Intemational Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा... पंचम अध्याय........{394) के लिए बताए गए है । इस प्रकार हम देखते है कि गुणस्थान के स्वरूप को लेकर जितना विस्तृत विवेचन गोम्मटसार में पाया जाता है, उतना विस्तृत विवेचन अन्यत्र नहीं है । गोम्मटसार लगभग ६० गाथाओं में चौदह गुणस्थानों के स्वरूप का विवेचन करता है। मूल ग्रन्थ की अपेक्षा भी इसकी टीका कर्णाट वृत्ति में इस सम्बन्ध में अधिक विस्तृत चर्चा मिलती है । गुणस्थानों के स्वरूप का विस्तृत विवेचन हम प्रथम अध्याय में कर चुके हैं, अतः पुनरावृत्ति विस्तार भय से यहाँ पुनः उनका विस्तृत विवेचन करना उचित नहीं होगा। ___ गोम्मटसार में जीवकाण्ड में बीस प्ररूपणाओं में गुणस्थान प्ररूपणा को प्रथम स्थान दिया गया है । इससे यह सिद्ध होता है कि गोम्मटसार के रचयिता आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती गुणस्थान सिद्धान्त की विवेचना के प्रति अत्याधिक जागरूक रहे हैं । गुणस्थान प्ररूपणा के पश्चात् जीवकाण्ड में जीवसमास प्ररूपणा, पर्याप्ति प्ररूपणा, प्राण प्ररूपणा, संज्ञा प्ररूपणा, गति मार्गणा अधिकार, इन्द्रिय मार्गणा अधिकार, काय मार्गणा अधिकार, योग मार्गणा अधिकार, वेद मार्गणा अधिकार, कषाय मार्गणा अधिकार, ज्ञान मार्गणा अधिकार, संयम मार्गणा अधिकार, दर्शन मार्गणा अधिकार, लेश्या मार्गणा अधिकार, भव्य मार्गणा अधिकार, सम्यक्त्व मार्गणा अधिकार, संज्ञी मार्गणा अधिकार, आहार मार्गणा अधिकार, उपयोग मार्गणा अधिकार - ऐसे १६ अधिकार हैं । इनमें पर्याप्ति प्ररूपणा अधिकार में लब्धि पर्याप्तक जीवों में गुणस्थानों का अवतरण किया गया है तथा यह बताया गया है कि अपर्याप्त काल में सास्वादन और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान नहीं होते हैं ।३६५ इसी प्रकार योग मार्गणा में सयोगी केवली गुणस्थान का कुछ विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है ।२६६ ज्ञान मार्गणा में सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के स्वरूप का कुछ विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है ।२६७ लेश्या मार्गणा में गुणस्थानों में लेश्याओं का अवतरण किया गया है ।३६८ इसी प्रकार सम्यक्त्व मार्गणा में विभिन्न गुणस्थानों में जीवों की संख्या कितनी होती है, इसका उल्लेख उपलब्ध होता है।३६६ इसी सम्यक्त्व मार्गणा में मिथ्यादृष्टि, सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि के स्वरूप का भी उल्लेख मिलता है।३७० इस प्रकार गोम्मटसार के जीवकाण्ड के बीस प्ररूपणा अधिकारों में प्रथम गुणस्थान प्ररूपणा अधिकार में ही गुणस्थानों के सम्बन्ध में विस्तार से विचार किया गया है । शेष प्ररूपणाओं में यथाप्रसंग ही गुणस्थानों का उल्लेख हुआ है । इन प्ररूपणाओं में जो गुणस्थान सम्बन्धी विवरण उपलब्ध है, वह पंचसंग्रह और कर्मग्रन्थों के समरूप ही है, अतः उस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा करना आवश्यक नहीं है। गुणस्थान प्ररूपणा अधिकार के पश्चात् जीवकाण्ड में गुणस्थान सम्बन्धी जो विशेष चर्चा उपलब्ध होती है, वह उसके ओघ-आदेश प्ररूपणा अधिकार और आलाप अधिकार में है। अग्रिम पृष्ठों में हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि इन दोनों अधिकारों में गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा किस रूप में है । गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) में गुणस्थान सम्बन्धी विचारणा : आचार्य नेमिचन्द्रकृत गोम्मटसार दो खण्डों में विभाजित है-जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड। पूर्व में हमने इस ग्रन्थ के जीवकाण्ड में गुणस्थान की अवधारणा किस रूप में प्रस्तुत है, इस पर विचार किया । अब हम गोम्मटसार के कर्मकाण्ड में गुणस्थान सिद्धान्त किस रूप में विवेचित है, इसकी चर्चा करेंगे । गोम्मटसार का कर्मकाण्ड मुख्य रूप से विभिन्न कर्मप्रकृतियों और उनके फल विपाक को लेकर चर्चा करता है । इसके आठ विभाग हैं - (१) प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकार (२) बन्धोदयसत्वाधिकार ३६५ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, अधिकार ३, गाथा क्र. १२८, पृष्ठ २६२ वही । ३६६ वही, ६ वाँ अधिकार, गाथा क्र २२८, २२६, पृष्ठ ३६५ से ३६७ । ३६७ गोम्मटसार, जीवकाण्ड, १२ वाँ अधिकार, गाथा क्र. ३०२ वही । ३६८ वही, १५ वाँ अधिकार, गाथा क्र. ५३०-५३६ । ३६६ वही, गाथा क्र. ६२२-६३३ । ३७० वही, गाथा क्र. ६४५, ६५५, ६५६ । Jain Education Intemational Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{395} (३) सत्वस्थानभंगादिअधिकार (४) त्रिचूलिकाअधिकार (५) स्थानसमुत्कीर्तन अधिकार (६) आश्रवाधिकार (७) भावचूलिका अधिकार और (८) त्रिकरणचूलिकाधिकार । गोम्मटसार के कर्मकाण्ड में प्रकृति समुत्कीर्तन अधिकार में सर्वप्रथम जीव के द्वारा कर्मों के ग्रहण की प्रक्रिया, आठ कर्म, उनके घाती-अघाती प्रकार, आठों कर्मो के मुख्य कार्य, कर्मों की उत्तरप्रकृतियाँ, कर्म और नोकर्म के विभाग आदि के सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन किया गया है, किन्तु आचार्य नेमिचन्द्र ने इस समग्र चर्चा में कर्मों का ही विवेचन किया है, गुणस्थानों का नहीं। गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी चर्चा हमें इसके द्वितीय बन्धोदयसत्वाधिकार में उपलब्ध होती है। इसमें सर्वप्रथम प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध-ऐसे चार बन्धों की चर्चा की गई है। फिर इनमें भी उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट, जघन्य-अजघन्य, सादि-अनादि, धुव-अधुव बन्ध की चर्चा है । इसके पश्चात् इस ग्रन्थ में गुणस्थानों में प्रकृतिबन्ध का नियम बना है, इसकी चर्चा की गई है । इसके गाथा क्रमांक ६२ में बताया गया है कि तीर्थकर प्रकृति का बन्ध असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान के छठे भाग पर्यन्त होता है । आहारकद्विक का बन्ध अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अपूर्वकरण गुणस्थान के छठे भाग पर्यन्त ही होता है । मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान पर्यन्त आहारकद्विक का बन्ध नहीं होता है। आयुष्यकर्म का बन्ध मिश्र गुणस्थान और मिश्र काययोग को छोड़कर प्रथम गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक ही होता है । अपूर्वकरण आदि आगे के गुणस्थानों में आयुष्य का बन्ध नहीं होता है । शेष कर्मप्रकृतियों का बन्ध मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगी केवली गुणस्थान तक, जब तक उन कर्मो की कर्मप्रकृतियों की बन्धव्युच्छिति नहीं होती है, तब तक होता है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जिन गुणस्थानों में जिन कर्मप्रकृतियों का उदय रहता है, उन्हीं कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है। इसमें भी कुछ विशिष्ट नियमों का उल्लेख इस गाथा की कर्णाटवृत्ति में किया गया है । उसमें यह बताया गया है कि सम्यग्दृष्टि जीव ही केवली अथवा श्रुतकेवली के सानिध्य में चतुर्थ गुणस्थान से लेकर षष्ठ गुणस्थान तक ही तीर्थंकर नामकर्म के बन्ध का प्रारम्भ करता है । अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थान के छठे भाग पर्यन्त यह जारी रह सकता है । दूसरे तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध केवल मनुष्यगति में ही प्रारम्भ होता है । यद्यपि तिर्यंच को छोड़कर देव और नारक गतियों में भी इसका बन्ध होता रहता है। इसके पश्चात् गाथा क्रमांक ६४ में बन्धव्युच्छिति की चर्चा है । इसमें बताया गया है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में सोलह प्रकृतियों का बन्धविच्छेद रहता है । सास्वादन गुणस्थान में पच्चीस प्रकृतियों का बन्ध विच्छेद रहता है । मिश्र गुणस्थान में किसी भी कर्मप्रकृति का बन्धविच्छेद नहीं होता है । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में दस, देशविरतिसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में चार, प्रमत्तसंयत गुणस्थान में छः, अप्रमत्तंसयत गुणस्थान में एक, अपूर्वकरण गुणस्थान के सात भागों में पहले में दो, छठे में तीस, सातवें भाग में चार कर्मप्रकृतियों का बन्धविच्छेद होता है । अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में पांच, सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थान में सोलह कर्मप्रकृतियों का बन्धविच्छेद रहता है । उपशान्तकषाय गुणस्थान और क्षीणकषाय गुणस्थान में बन्धविच्छेद का अभाव रहता है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि पूर्व-पूर्व के गुणस्थानों के उपान्त समय में जिन कर्मप्रकृतियों का बन्धविच्छेद हो जाता है, उसके बाद के अग्रिम-अग्रिम गुणस्थानों में उन-उन कर्मप्रकृतियों का बन्धविच्छेद रहता है । इसी आधार पर यह कहा गया है कि उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय गुणस्थान में किसी भी कर्मप्रकृति के बन्ध का विच्छेद नहीं है अर्थात् ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानों में दसवें गुणस्थान तक जिन कर्मप्रकृतियों का बन्धविच्छेद रहता है, उन्हीं का बन्धविच्छेद रहता है, किसी नवीन कर्मप्रकृति का बन्धविच्छेद नहीं होता है । सयोगी केवली गुणस्थान में मात्र असातावेदनीय नामक एक कर्मप्रकृति का बन्धविच्छेद होता है। अयोगी केवली गुणस्थान में बन्ध भी नहीं होता है और बन्धविच्छेद भी नहीं होता है । इसके पश्चात् अग्रिम गाथाओं में प्रत्येक गुणस्थान में कौन-कौन सी कर्मप्रकृतियों का बन्धविच्छेद होता है, इसका विस्तृत विवेचन है, किन्तु यह विवेचन पंचसंग्रह, द्वितीय कर्मग्रन्थ, सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थराजवार्तिक आदि में भी किया जा चुका है, इसीलिए पुनरावृत्ति के भय से पुनः यहाँ उन सबका उल्लेख करना समुचित प्रतीत नहीं होता है । हमारी जानकारी में इस बन्धविच्छेद को लेकर गोम्मटसार की अपने पूर्ववर्ती ग्रन्थों से कोई विशेष भिन्नता प्रतीत नहीं होती है। अतः यहाँ हम इस चर्चा में विस्तार में जाना नहीं चाहते है । यहाँ एक विशेष बात जो विभिन्न Jain Education Interational Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.... पंचम अध्याय........{396} गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों के बन्ध, बन्धविच्छेद और अबन्ध के सम्बन्ध में कही गई है, उसे समझ लेना आवश्यक है । गोम्मटसार की कर्णाटवृत्ति में इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिस गुणस्थान में जितनी कर्मप्रकृतियों की व्युच्छिति कही गई है, उन कर्मप्रकृतियों का बन्ध उस गुणस्थान के अन्त समय पर्यन्त होता है । अतः उसमें उनके बन्ध का अभाव नहीं होता है । उसके ऊपर के गुणस्थानों में ही उनके बन्ध का अभाव होता है । जैसे प्रथम गुणस्थान में जिन सोलह कर्मप्रकृतियों का बन्धविच्छेद कहा गया है, उन सोलह कर्मप्रकृतियों का बन्ध प्रथम गुणस्थान में सम्भव है । प्रथम गुणस्थान के अन्त में ही अर्थात् दूसरे गुणस्थान के प्रारम्भ में ही उनका बन्धविच्छेद होता है, अतः अबन्ध और बन्धविच्छेद इन दोनों में अन्तर है । सयोगी केवली गुणस्थान में जो एक कर्मप्रकृति का बन्धविच्छेद कहा है, वह इस अपेक्षा से कि तेरहवें गुणस्थान के अन्त में सातावेदनीय के बन्ध का भी विच्छेद हो जाता है । अतः इस चर्चा में अबन्ध और बन्धविच्छेद के अन्तर को ध्यान में रखना आवश्यक है । यहाँ हम किस गुणस्थान में किन कर्मप्रकृतियों का बन्धविच्छेद, किनका बन्ध और किनका अबन्ध है, इसके विस्तार में न जाकर इस सम्बन्ध में नीचे एक तालिका प्रस्तुत कर रहे है - | मि. सा. मि. | अ. दे. प्र. | अ. | अपू. | अनि. | सू. बन्ध व्यु १६ |२५ | | १०४ ६ | ३६ ५ १६ ० बन्ध ११७ | १०१/७४/७७/६७ | ६३ | ६३ | ५६ | ५८ | २२ | १७ | अबन्ध ३ १६४६ | ४३ १०३ | ११६ ० १ १ | ० | ११६ | ११६ इसके पश्चात् गोम्मटसार के इस बन्धोदयसत्वाधिकार में चौदह मार्गणाओं और चौदह जीवस्थानों की अपेक्षा से कर्मप्रकृतियों के बन्ध आदि के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा है, किन्तु इस चर्चा में गुणस्थानों के सम्बन्ध में कोई विशेष चर्चा नहीं की गई है । मात्र गाथा क्रमांक २११ से लेकर २१४ तक उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध की चर्चा के प्रसंग में यह बताया गया है कि किन गुणस्थानों में किन मूलकर्मप्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है । आयुष्यकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध अप्रमत्तंसयत गुणस्थान में होता है । मोहनीय कर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में होता है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, नाम, गोत्र और अन्तराय कर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सूक्ष्म सम्पराय नामक गुणस्थानवर्ती जीव करता है । उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध का कारण उत्कृष्ट योग होता है, किन्तु यहाँ यह ज्ञातव्य है कि उत्कृष्ट प्रदेशबन्धवाला अल्प प्रकृतियों को ही बांधता है। इसी क्रम में आगे उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा से चर्चा करते हुए किन उत्तर कर्मप्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध किन गुणस्थानों में होता है, इसका उल्लेख हुआ है। पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पांच अन्तराय, यशःकीर्ति, उच्चगोत्र, सातावेदनीय-इन सत्रह का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में होता है । पुरुषवेद और चार संज्वलन कषाय, इन पांच का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में होता है । तीसरे प्रत्याख्यानीयकषाय चतुष्क का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध देशविरति गुणस्थान में होता है। दूसरे अप्रत्याख्यानी कषाय चतुष्क का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में होता है। छः नोकषाय, निद्रा, प्रचला और तीर्थंकर नामकर्म का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्यग्दृष्टि जीव करता है । जिन तेरह प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि जीव करता है, वे तेरह प्रकृतियां इसप्रकार हैं - मनुष्यायु, देवायु, असातावेदनीय, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियशरीर, वैक्रिय अंगोपांग, वजऋषभनाराचसंघयण, समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्तविहायोगति, सुभग, सुस्वर, आदेय । आहारकद्विक का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव करता है। इन चौवन प्रकृतियों में से शेष रही स्त्यानगृद्धि आदि तीन, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क, स्त्रीवेद, नंपुसकवेद, नरकायु, तिर्यंचायु, नरकगति, तिर्यचगति, मनुष्यगति, पांच जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, न्यग्रोधपरिमण्डल संस्थान, सादि संस्थान, कुब्ज संस्थान, वामन संस्थान, हुण्डक संस्थान, औदारिक अंगोपांग, ऋषभनाराच, अर्धनाराच, कीलिका, असंप्राप्तसृपाटिका संघयण, वर्णादि चार, नरकानुपूर्वी, तिल्चनुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, आतप, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, त्रस, स्थावर, बादर, Jain Education Intemational Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{397} सूक्ष्म, पर्याप्त, अपर्याप्त, प्रत्येक, साधारण, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र-इन छासठ प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव करता है । इसप्रकार इस गाथा में कही गई और नहीं कही गई एक सौ बीस कर्मप्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध का कारण पूर्व में कहे अनुसार उत्कृष्टयोग आदि जानना चाहिए।३७१ इसके पश्चात् गोम्मटसार के द्वितीय बन्धोदयसत्वाधिकार में गाथा क्रमांक २६१ से लेकर २८५ तक, पच्चीस गाथाओं में विभिन्न गुणस्थानों में किन-किन कर्मप्रकृतियों का उदय रहता है, किन कर्मप्रकृतियों का उदयविच्छेद रहता है, किन कर्मप्रकृतियों की उदीरणा होती है, किनकी उदीरणा का विच्छेद होता है आदि की विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है । यह समस्त चर्चा भी पंचसंग्रह और कर्मस्तव नामक द्वितीय कर्मग्रन्थ में विस्तार से वर्णित है, जिसका उल्लेख हम यथाप्रसंग कर चके हैं. में पिष्ट-पेषण के भय से विस्तृत चर्चा में न जाकर, मात्र उदयव्युच्छिति के सम्बन्ध में गोम्मटसार में जो मतान्तर का निर्देश किया गया है, उसका कथन करके, उस चर्चा को यहीं विराम देंगे । गोम्मटसार में उदय और उदय विच्छेद के सन्दर्भ में सामान्य अवधारणा से आचार्य भूतबली का क्या मतभेद है, इसकी चर्चा की गई है । इसमें बताया गया है कि जहाँ पूर्व परम्परा के अनुसार मिथ्यात्व गुणस्थान में दस कर्मप्रकृतियों का और सासादन गुणस्थान में चार कर्मप्रकृतियों का उदय विच्छेद कहा गया है, वहीं भूतबली के अनुसार मिथ्यात्व गुणस्थान में पांच कर्मप्रकृतियों का और सास्वादन गुणस्थान में दस कर्मप्रकृतियों का उदय विच्छेद कहा गया है । पूर्वपक्षानुसार एकेन्द्रिय, स्थावर, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय का उदय मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में होता है, सासादन गुणस्थान में नहीं होता है, जबकि यहाँ सासादन गुणस्थान में उनका उदय माना है । यह अन्तर दृष्टव्य है । इसप्रकार गोम्मटसार में इस चर्चा के प्रसंग में सामान्य परम्परा और भूतबली के मन्तव्य के अन्तर को स्पष्ट किया गया है । गोम्मटसार के इस विवचेन का यही वैशिष्ट्य है । इससे यह फलित होता है कि पंच संग्रह आदि की मान्यता में और षट्खण्डागम की मान्यता में इस प्रश्न को लेकर कुछ अन्तर है । गोम्मटसार के कर्ता आचार्य नेमिचन्द्र ने इस अन्तर को स्पष्ट करने का प्रयास किया है । शेष चर्चा पंचसंग्रह और द्वितीय कर्मग्रन्थ के समान होने से यहाँ हम उनके विस्तार में जाना नहीं चाहेंगे। गोम्मटसार के कर्मकाण्ड विभाग के द्वितीय बन्धोदयसत्वाधिकार में उदय की चर्चा के पश्चात् विभिन्न गुणस्थानों में विभिन्न कर्मप्रकृतियों की सत्ता के सम्बन्ध में गाथा क्रमांक ३३३ से ३४२ में विचार हुआ है। सत्ता की दृष्टि से भी यहाँ तीन प्रकार से विचार किया गया है । किस गुणस्थान में किन कर्मप्रकृतियों की सत्ता होती है, किन कर्मप्रकृतियों की सत्ता नहीं होती है और किन कर्मप्रकृतियों की सत्ता का विच्छेद होता है । यह चर्चा भी पंचसंग्रह तथा द्वितीय कर्मग्रन्थ में की जा चुकी है, अतः उसकी पुनरावृत्ति आवश्यक नहीं है । सामान्य दृष्टि से हमें दोनों में कोई विशेष अन्तर परिलक्षित नहीं होता है । इसप्रकार हम देखते है कि गोम्मटसार के कर्मकाण्ड में बन्धोदयसत्वाधिकार नामक द्वितीय अधिकार में विभिन्न गुणस्थानों में किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है, किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है और किन कर्मप्रकृतियों का बन्धविच्छेद होता है, किन कर्मप्रकृतियों का उदय रहता है, किन कर्मप्रकृतियों का अनुदय रहता है और किन कर्मप्रकृतियों का उदय विच्छेद होता है, इसका उल्लेख है । इसी क्रम में आगे उदीरणा, अनूदीरणा, उदीरणाविच्छेद तथा सत्व, असत्व और सत्वविच्छेद की भी चर्चा है । इस समग्र चर्चा में गोम्मटसार के आचार्य नेमिचन्द्र ने पंचसंग्रह और षट्खण्डागम को ही विशेष आधार बनाया है, किन्तु जहाँ पंचसंग्रह और षट्खण्डागम की मान्यता में उन्हें अन्तर लगा, उसका भी निर्देश किया है । यथाप्रसंग पंचसंग्रह और षट्खण्डागम की मान्यताओं के अन्तर का स्पष्टीकरण यह गोम्मटसार की विशेषता है। गोम्मटसार के तृतीय सत्वस्थानभंगाधिकार में हमें गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा विस्तार से उपलब्ध होती है । इस अधिकार में गाथा क्रमांक ३५८ से लेकर ३६७ तक कुल ४० गाथाएँ हैं । यहाँ हमें एक महत्वपूर्ण बात यह परिलक्षित होती है कि जहाँ द्वितीय बन्धोदयसत्वाधिकार की अन्तिम प्रशस्ति में आचार्य नेमिचन्द्रजी ने स्वयं अपने नाम का निर्देश किया है वहाँ सत्वस्थानभंगाधिकार ३७१ गोम्मटसार, कर्मकाण्ड, भाग १, गाथा क्र. २/२-२/३, -२१४ द्वितीय बन्धोदयसत्वाधिकार । Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{398} की अन्तिम प्रशस्ति में रचयिता के रूप में कनकनन्दी के नाम का उल्लेख हुआ है। इससे यह प्रश्न उपस्थित होता है कि इस अधिकार के रचयिता नेमिचन्द्र न होकर कनकनन्दी रहे हैं । इस सन्दर्भ में विशेष विचार अपेक्षित है । यहाँ हम इस अधिकार के कर्ता कौन है, इसकी विशेष चर्चा में न जाकर केवल यह देखने का प्रयास करेंगे कि इस अधिकार में गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा किस रूप में है ? इस अधिकार के प्रारम्भ में ही यह प्रतिज्ञा की गई है कि “मैं कर्मप्रकृतियों के सत्वस्थान को गुणस्थानों में भंग के साथ कहूंगा।" यहाँ टीका में सर्वप्रथम स्थान और भंग को परिभाषित किया गया है । एक जीव में, एक समय में जितनी कर्मप्रकृतियों की एकसाथ सत्ता पाई जाती है, उसके समूह को स्थान कहते हैं । अन्य-अन्य संख्याओं के अन्य-अन्य स्थान होते हैं । जैसे मिथ्यात्व गुणस्थान में किन्हीं जीवों में १४६ कर्मप्रकृतियों की सत्ता होती है, तो किन्हीं जीवों में १४५ कर्मप्रकृतियों की सत्ता होती है। अतः सत्ता की अपेक्षा से यहाँ दो स्थान हैं । इस प्रकार से किस गुणस्थान में कितनी-कितनी कर्मप्रकृतियों के कितने-कितने सत्तास्थान होते है, इसकी चर्चा की गई है । जहाँ एक ही स्थान में कर्मप्रकृतियों में भिन्नता होती है, उसे भंग कहते है। उदाहरण के रूप में किन्हीं जीवों में मनुष्यायु और देवायु के साथ १४५ कर्मप्रकृतियों की सत्ता पाई जाती है, तो किन्हीं जीवों में तिर्यचायु और नरकायु के साथ १४५ कर्मप्रकृतियों की सत्ता पाई जाती है । यहाँ संख्या की अपेक्षा से स्थान तो एक ही हुआ, परन्तु मंग की अपेक्षा से अलग-अलग हुआ। इसप्रकार किस गुणस्थान में कर्मप्रकृतियों के कितने स्थान होते है और कितने भंग होते है, इसकी विस्तृत चर्चा यह अधिकार करता है । यह समस्त चर्चा भी पंचसंग्रह और शतक नामक पंचम कर्मग्रन्थ में पाई जाती है। अतः विस्तार भय से इस सम्बन्ध में पुनः विस्तृत चर्चा आवश्यक प्रतीत नहीं होती है। इस चर्चा में गोम्मटसार की यह विशेषता है कि इसमें आचार्य नेमिचन्द्रजी ने कुछ मान्यताओं के सम्बन्ध में अपने मतवैभिन्य का उल्लेख किया है । गाथा क्रमांक ३६१ में, वे लिखते है कि पूर्व में जो अनन्तानुबन्धी सहित आठ स्थान कहे गए हैं, वे हमारे मत से नहीं होते हैं । हमारे मत से उपशमश्रेणी में चौबीस स्थान न होकर मात्र सोलह ही स्थान होते हैं । यहाँ उन्होंने पूर्व परम्परा से अपने मतभेद को स्पष्ट रूप से सूचित किया है, यही उनकी विशेषता है । दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि पंचसंग्रह और शतक नामक पंचम कर्मग्रन्थ में भंगों को लेकर जितनी सूक्ष्म चर्चा है, उतनी सूक्ष्म चर्चा भी गोम्मटसार के इस सत्वस्थानभंगाधिकार में नहीं मिलती है। ___गोम्मटसार के कर्मकाण्ड के चतुर्थ त्रिचूलिकाधिकार के अन्त में दस करणों की चर्चा करते हुए बन्ध, उत्कर्षण, संक्रमण, अपकर्षण, उदीरणा, सत्व, उदय, उपशम, निधत्ति और निकाचना - इन दस करणों के विवेचन के प्रसंग में गाथा क्रमांक ४३७ से ४५० तक गुणस्थान की अवधारणा का उल्लेख हुआ है । प्रथमतः यह बताया गया है कि अपूर्वकरण गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक, इन दस करणों में प्रथम सात करण ही होते हैं । उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगी केवली अवस्था में संक्रमण नहीं होता है । अतः इन गुणस्थानों में पूर्वोक्त सात में से संक्रमण के अभाव में छः करण ही होते हैं । अन्तिम अयोगी केवली गुणस्थान में सत्व और उदय ये दो करण ही होते हैं, किन्तु यहाँ यह ज्ञातव्य है कि उपशान्तमोह गुणस्थान में मिथ्यात्वमोह और मिश्रमोह-इन दो कर्मप्रकृतियों का संक्रमण सम्भव है, क्योंकि उपशान्तमोह गुणस्थान वाला पतित होते समय सम्यक्त्व मोहनीय की सत्ता में रही हुई कर्मप्रकृतियों का मिथ्यात्वमोह या मिश्रमोह में परिणमन करता है । इसी प्रकार आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान में उपशम, निधत्ति और निकाचना - इन तीन करणों की व्युच्छित्ति हो जाती है, अतः उसमें सात करण ही होते है । अपूर्वकरण के पूर्व मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक दसों करण सम्भव होते है । अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में किसी करण की व्युच्छित्ति नहीं होती है, अतः इनमें सात करण ही होते है । सूक्ष्म संपराय नामक दसवें गुणस्थान के अन्तिम समय में संक्रमण की व्युच्छित्ति होती है, किन्तु क्षीणकषाय गुणस्थान में किसी करण की व्युच्छित्ति नहीं होती है, अतः उसमें छः करण भी होते हैं। सयोगी केवली गुणस्थान के अन्त समय में बन्ध, उत्कर्षण, अपकर्षण और उदीरणा-इन चार करणों की व्युच्छित्ति हो जाती है, अतः अयोगी केवली गुणस्थान में दो करण ही होते है, किन्तु अयोगी केवली गुणस्थान के अन्तिम समय में सत्व और उदय की भी व्युच्छित्ति हो जाती है, अतः कोई भी करण शेष नहीं रहता है । इसप्रकार किन गुणस्थानों में कितने करण होते है और उनकी किस क्रम से व्युच्छित्ति होती है, यह समग्र चर्चा इस त्रिचूलिकाधिकार में गाथा क्रमांक ४३७ से ४५० तक की गई है। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... पंचम अध्याय........{399} गोम्मटसार के कर्मकाण्ड के पांचवें स्थानसमुत्कीर्तन अधिकार में गाथा क्रमांक ४५३ से लेकर ४५७ तक विभिन्न गुणस्थानों में सर्वप्रथम मूल प्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता के स्थानों का उल्लेख हुआ है। सर्वप्रथम गाथा क्रमांक ४५१ में स्थान को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि एक जीव को एक समय में जितनी कर्मप्रकृतियाँ सम्भव है, उनके समूह को स्थान कहते हैं । आगे गाथा क्रमांक ४५२ से ४६३ तक गुणस्थानों में बन्ध की चर्चा करते हुए कहा गया है कि प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक मिश्र गुणस्थान को छोड़कर छः गुणस्थानों में आयु के बिना सात और आयु सहित आठ मूल प्रकृतियों का बन्ध होता है । मिश्र गुणस्थान, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में आयु के बिना सात मूल कमप्रकृतियों का ही बन्ध होता है । सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में आयुष्य और मोह इन दो मूल कर्मप्रकृतियों को छोड़कर शेष छः कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है । उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगी केवली गुणस्थान में मात्र वेदनीय कर्म का बन्ध होता है । अयोगी केवली गुणस्थान में किसी भी कर्मप्रकृति का बन्ध नहीं होता है । इस क्रम में गाथा क्रमांक ४६६ से ४७२ तक में भूयस्कार बन्ध, अल्पतर बन्ध आदि का भी उल्लेख हुआ है । पहले अल्प प्रकृतियों का बन्ध कर पीछे बहुत प्रकृतियों के बन्ध को भूयस्कार बन्ध कहते हैं। इसके विपरीत बहुत प्रकृतियों के बन्ध और पीछे अल्प प्रकृतियों के बन्ध को अल्पतर बन्ध कहते है। पूर्व में जितनी प्रकृतियाँ बांधी हो, उतनी ही प्रकृतियों का बन्ध उसके अनन्तर समय में करे, तो वह अवस्थित बन्ध कहलाता है। पहले किसी प्रकृति का बन्ध न करके पीछे उन प्रकृतियों का बन्ध करे, तो वह अवक्तव्यबन्ध कहलाता है । इनमें से भूयस्कार बन्ध, अल्पतरबन्ध और अवस्थितबन्ध-ये तीन बन्ध मूल प्रकृतियों के सन्दर्भ में सम्भव होते है, किन्तु उत्तर प्रकृतियों के सन्दर्भ में अवक्तव्यबन्ध सहित चारों ही बन्ध सम्भव है । गोम्मटसार की उपर्युक्त गाथाओं की टीका में इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा है कि विभिन्न गुणस्थानों में इन चारों बन्धों में कौन-सा बन्ध घटित होता है । विस्तार भय से हम उस चर्चा में नहीं जाना चाहते है । जहाँ तक मूल प्रकृतियों के उदय का प्रश्न है, कर्मकाण्ड की गाथा क्रमांक ४५४ में कहा गया है कि मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक आठों ही मूल प्रकृतियों का उदय रहता है । उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय गुणस्थान में मोहकर्म के बिना सात मूल कर्मप्रकृतियों का उदय रहता है । सयोगी केवली और अयोगी केवली गुणस्थानों में चार अघाती कर्मों की मूल प्रकृतियों का ही उदय रहता है । उदीरणा के सम्बन्ध में चर्चा करते हुए गाथा क्रमांक ४५५ से ४५६ तक में कहा गया है कि चारों घातीकर्मों की उदीरणा क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यन्त सभी छद्मथ जीव करते हैं, किन्तु इसमें मोहनीय कर्म और आयुष्य कर्म की उदीरणा प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक ही सम्भव है। नाम और गोत्रकर्म की उदीरणा सयोगी केवली गुणस्थान पर्यन्त होती है । मिश्र गुणस्थान को छोड़कर मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक पांच गुणस्थानों में आयु का आवलिका काल मात्र शेष रहने पर आय को छोड़कर शेष सात कर्मों की उदीरणा ही सम्भव है । सुक्ष्मसंपराय गणस्थान में आवलिका मात्र शेष रहने पर आयुष्य, मोहनीय और वेदनीय - इन तीन को छोड़कर पांच की ही उदीरणा सम्भव होती है । क्षीणकषाय गुणस्थान में आवलिका मात्र काल शेष रहने पर नाम और गोत्र - इन दो कर्मो की ही उदीरणा सम्भव होती है । इसके पश्चात गाथा क्रमांक ४५७ में आठ मूल कर्मप्रकृतियों की सत्ता के सम्बन्ध में विचार किया गया है कि प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान तक आठों ही मूल कर्मप्रकृतियों की सत्ता रहती है। क्षीणकषाय गुणस्थान में मोहनीय कर्म के अतिरिक्त सात कर्मों की सत्ता होती है। सयोगी केवली और अयोगी केवली गुणस्थान में चार अघाती कर्मो की ही सत्ता शेष रहती है । इसके पश्चात् इस अधिकार में विभिन्न कर्मप्रकृतियों के कितने बन्धस्थान होते है, किनमें भूयस्कार बंध सम्भव होते है और किनमें सम्भव नहीं है, भूयस्कारबन्ध, अल्पतरबन्ध, अवस्थितबन्ध और अवक्तव्यबन्ध में किन गुणस्थानों में किन कर्मप्रकृतियों का किस रूप में बन्ध होता है तथा उसमें बन्धस्थान कितने होते है, इसका विस्तृत एवं अत्यन्त सूक्ष्म विवेचन इस स्थानसमुत्कीर्तनाधिकार में हुआ है । यह समस्त चर्चा शतक नामक पंचम कर्मग्रन्थ में भी उपलब्ध होती है । अतः विस्तार एवं पुनरावृत्ति के भय से इस चर्चा को यहाँ पुनः करना समुचित नहीं है । स्थानों की चर्चा के साथ-साथ बन्ध विकल्पों की भी चर्चा की गई है। यह चर्चा भी पंचम कर्मग्रन्थ में मिलती है, अतः उसका भी पुनरावर्तन करना उचित नहीं है। गोम्मटसार के कर्मकाण्ड का छठा आश्रवाधिकार है । इस अधिकार में गाथा क्रमांक ७५७ से ७६० तक में, किस Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ पंचम अध्याय.......{400} गुणस्थान में आश्रव के कितने मूल कारण होते हैं, इसकी चर्चा की गई है । यहाँ मूल में मिध्यात्व, अविरति, कषाय और योग - ये चार ही आश्रव के मूल कारण माने गए हैं । इसमें प्रमाद की चर्चा नहीं की गई है । सामान्य चर्चा के प्रसंग में यह कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में चारों ही आश्रव होते हैं । सास्वादन और मिश्र गुणस्थान में मिथ्यात्व के अतिरिक्त अविरति, कषाय और योग ये तीन प्रकार के आश्रव होते हैं। पंचम गुणस्थान में आंशिक विरति अवश्य होती है, फिर भी आंशिक अविरति के कारण अविरति, कषाय और योग- ये तीन आश्रव प्रत्यय होते हैं । छठे गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान तक, इन पांच गुणस्थानों में योग और कषाय- ये दो ही आश्रव प्रत्यय होते हैं । उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगी केवली गुणस्थान में आश्रव का एकमात्र कारण योग होता है । अयोगी केवली गुणस्थान में इसका भी अभाव हो जाता है। इसप्रकार सर्वप्रथम आश्र रूप मूल कारणों की चर्चा विभिन्न गुणस्थानों के सन्दर्भ में की गई । उसके पश्चात् इन चार कारणों के उत्तर विभागों को लेकर चर्चा उपलब्ध होती है । साथ ही प्रत्येक गुणस्थान में उनके कितने स्थान और भंग होते है, इसकी विस्तृत चर्चा है, किन्तु यह चर्चा चतुर्थ कर्मग्रन्थ में की जा चुकी है, अतः उसका पुनरावर्तन उचित नहीं है । इस दृष्टि से गोम्मटसार और विशेष रूप से इसकी उपर्युक्त गाथाओं की कर्णाटवृत्ति में कूट रचना आदि का भी उल्लेख हुआ है, किन्तु यह विषय अत्यन्त सूक्ष्म और गहन है । उसको समझकर प्रस्तुत करना असम्भव तो नहीं है, किन्तु उसके लिए अति गहराई में जाना आवश्यक है । इस शोध ग्रन्थ में विस्तारभय से यह सब चर्चा करना सम्भव नहीं है । हम केवल इतना ही निर्देश करना चाहेंगे कि जो इस सम्बन्ध में अधिक गहराई से जानने की इच्छा रखते हैं, तो उन्हें गोम्मटसार की गाथा क्रमांक ७६० से ७६६ तक की गाथाओं की कर्णाटवृत्ति का अध्ययन करना चाहिए । गोम्मटसार के कर्मकाण्ड का सप्तम अधिकार भावचूलिकाधिकार है । भावचूलिका में मुख्य रूप से (१) औपशमिक (२) क्षायोपशमिक (३) क्षायिक (४) औदयिक और (५) परिमाणिक - इन पांच भावों और उनके लक्षणों का तथा उनके उत्तर भेदों का विवेचन हुआ है । उसके पश्चात् गाथा क्रमांक ८१६ से ८२० तक में, किस गुणस्थान में कौन-कौन से भाव होते हैं, इसकी चर्चा है । उसमें कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि, सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि - इन तीन गुणस्थानों में औदयिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक ये तीन भाव होते हैं । पुनः, अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर उपशान्तमोह तक, आठ गुणस्थानों में पांचों भाव होते हैं । क्षीणकषाय गुणस्थान में औपशमिक भाव को छोड़कर शेष चार भाव होते हैं । सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थान में औदयिक, पारिणामिक और क्षायिक- ये तीन भाव होते हैं । इसके पश्चात् प्रत्येक भाव के उत्तरभेदों की चर्चा करते हुए, किस गुणस्थान में कितने उत्तरभाव होते हैं, इसकी और इनके आधार पर होने वाले विभिन्न विकल्पों की विस्तृत चर्चा है । इस चर्चा में गुण्य, गुणक, क्षेपक और भंग आदि को लेकर भी सूक्ष्म चर्चा की गई है । प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में हमारा उद्देश्य, किस ग्रन्थ में किस रूप में गुणस्थान की चर्चा है, यह निर्दिष्ट करना ही है । अतः इस सम्बन्ध में यहाँ अधिक सूक्ष्मता में जाना विस्तार भय से सम्भव नहीं है। इच्छुक व्यक्ति गोम्मटसार के कर्मकाण्ड की भावचूलिकाधिकार की उपर्युक्त गाथाओं की कर्णाटवृत्ति के आधार पर इन तथ्यों को गहराई से समझ सकते है । इस अधिकार में आगे गाथा क्रमांक ८७६ से ८८६ तक में क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और वैनयिकवादी तथा कालवाद, ईश्वरवाद, आत्मवाद, नियतिवाद आदि की भी चर्चा है, जो प्रस्तुत गवेषणा की दृष्टि से अपेक्षित नहीं है । इन चर्चाओं के माध्यम से विभिन्न एकान्तवादों की चर्चा की गई है, जिसका सम्बन्ध मिथ्यात्व गुणस्थान से है । गोम्मटसार के कर्मकाण्ड के अन्तिम अष्टम अधिकार में अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण की चर्चा हुई है । सम्यकत्व की उपलब्धि आदि प्रसंगों में इन तीन करणों का महत्वपूर्ण स्थान है । इन करणों की चर्चा हम प्रथम अध्याय में कर चुके है, अतः इसकी पुनरावृत्ति करने का कोई लाभ नहीं है । इस अधिकार में गुणस्थानों को लेकर कोई विशेष चर्चा उपलब्ध नहीं होती है, अतः गोम्मटसार के जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड में गुणस्थान की अवधारणा किस रूप में उपस्थित है, इसकी चर्चा को यहाँ विराम देना चाहेंगे । अन्त में केवल हमारा यही कहना है कि गुणस्थान सिद्धान्त को गहराई से समझने के लिए पंचसंग्रह के समान ही गोम्मटसार का अध्ययन भी अपेक्षित है, क्योंकि गुणस्थान सम्बन्धी इतनी सूक्ष्म चर्चा अन्यत्र उपलब्ध नहीं है । Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 6 प्राकृत और संस्कृत के अन्य प्रमुख ग्रन्थों में गुणस्थान पूर्वधरकृत जीवसमास में गुणस्थान। उमास्वाति के प्रशमरति प्रकरण में गुणस्थान चर्चा का अभाव। * सिद्धसेन दिवाकर कृतियों में गुणस्थान चर्चा का अभाव। समन्तभद्र के आप्तमीमांसा आदि ग्रन्थों में गुणस्थान चर्चा का प्रायः अभाव। स्वामी कार्तिकेय की कार्तिकेयानुप्रेक्षा में गुणश्रेणी की अवधारणा। योगिन्दुदेव के योगसार में गुणस्थान । आचार्य हरिभद्र के प्रमुख ग्रन्थों में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन। आचार्य शुभचन्द्र के ज्ञानावर्ण में गुणस्थान। गुणभद्र का आत्मानुशासन और गुणस्थान। आचार्य हेमचन्द्र के ग्रन्थों में गुणस्थान चर्चा का प्रायः अनुल्लेख। नेमिचन्द्रसूरि के प्रवचनसारोद्धार में गुणस्थान विवेचन। नरेन्द्रसेन का सिद्धान्तसार और गुणस्थान। विनयविजय कृत लोकप्रकाश में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन। राजेन्द्रसूरि कृत अभिधानराजेन्द्रकोष और गुणस्थान सिद्धान्त। जिनेन्द्रवर्णीकृत जैनेन्द्र सिद्धान्तकोष और गुणस्थान। आचार्य देवेन्द्रमुनिजीकृत कर्मविज्ञान में गुणस्थान सिद्धान्त। For PPI www.jminelibrary.org Jeducation International Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20000000000 अध्याय 6 प्राकृत और संस्कृत के अन्य प्रमुख ग्रन्थों में गुणस्थान पूर्वधरकृत जीवसमास में गुणस्थान जीवसमास का सामान्य परिचय श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थान सिद्धान्त की सर्वप्रथम विस्तृत व्याख्या करनेवाला यदि कोई ग्रन्थ है, तो वह जीवसमास है । जीवसमास एक प्राचीन ग्रन्थ है, क्योंकि इसे पूर्व साहित्य से उद्धृत माना गया है। इसकी अन्तिम गाथा से पूर्व की गाथा में स्पष्टरूप से यह कहा गया है कि जीवसमास के अर्थ को सम्यक् प्रकार से जाननेवाला विविध अपेक्षाओं से कथित जिनोपदिष्ट दृष्टिवाद (दृष्टि-स्थान) का धारक अर्थात् विशिष्ट ज्ञाता बन जाता है। इस कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि जीवसमास के कर्ता के समक्ष दृष्टिवाद उपस्थित रहा होगा। इसकी टीका में भी इसे पूर्वधर आचार्य विरचित कहा गया । यद्यपि इस कथन से यह स्पष्ट नहीं होता है कि इसके कर्ता कौन रहे हैं? फिर भी इतना अवश्य माना जा सकता है कि वे पूर्वधर होंगे। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार भी पूर्वधरों की यह परम्परा ईसा की पाँचवीं शताब्दी के पूर्व ही समाप्त हो चुकी थी। जीवसमास में ज्ञान - सिद्धान्त का जो विवेचन मिलता है, वह भी उसकी प्राचीनता को सिद्ध करता है। जीवसमास के कर्ता ने ज्ञान - सिद्धान्त की चर्चा के प्रसंग में तत्त्वार्थसूत्र का ही अनुसरण किया है, नंदीसूत्र का नहीं। अतः यह ग्रन्थ नंदीसूत्र से पूर्ववर्ती ही होना चाहिए। प्रमाण चर्चा के प्रसंग में भी इसमें समवायांग और नंदीसूत्र के समान चारों प्रमाणों की ही चर्चा की गई है। यह आगमिक युग (पाँचवीं शताब्दी पूर्व) की ही अवधारणा है, क्योंकि दर्शनयुग में जहाँ सिद्धसेन दिवाकर तीन प्रमाणों की चर्चा करते हैं, वहीं अकलंक (आठवीं शताब्दी) छः प्रमाणों की चर्चा करते हैं। इसमें चौदह गुणस्थानों का चौदह मार्गणाओ आदि के सन्दर्भ में जो विस्तृत विवरण मिलता है, वह षट्खण्डागम और पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका के अनुरूप है। दिगम्बर विद्वान पंडित हीरालाल शास्त्री जीवसमास को षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड का आधार रूप ग्रन्थ माना है। इससे यह सिद्ध होता है कि यह ग्रन्थ षट्खण्डागम • और पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका से पूर्ववर्ती है। इसमें गुणस्थान सिद्धान्त की उपस्थिति को देखकर डॉ. सागर जैन इसे पाँचवीं शताब्दी का मानते हैं, किन्तु हमारी दृष्टि में यह ग्रन्थ इससे प्राचीन हो सकता है। चाहे हम एक बार यह मान भी लें कि गुणस्थान सिद्धान्त का विकास तत्त्वार्थ सूत्र की रचना के पश्चात् हुआ है, किन्तु तत्त्वार्थसूत्र का काल भिन्न-भिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न माना है। उसे प्रथम शताब्दी से लेकर चतुर्थ शताब्दी तक का माना जाता है, किन्तु यदि तत्त्वार्थसूत्र को पहली दूसरी शताब्दी का ग्रन्थ माना जाता है, तो षट्खण्डागम को तीसरी शताब्दी का ग्रन्थ माना जा सकता है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार, पूर्वधरीं की परम्परा महावीर निर्वाण छः सौ तिरयासी (६८३) वर्ष अर्थात् ईस्वी सन् की दूसरी शताब्दी तक चलती Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... षष्टम अध्याय........{402} रही है। कुछ दिगम्बर विद्वान षट्खण्डागम का काल दूसरी-तीसरी शताब्दी मानते हैं, किन्तु इस स्थिति में जीवसमास को उसके थम-द्वितीय शताब्दी में रखना होगा। चाहे हम जीवसमास के रचनाकाल को लेकर कुछ मतभेद रखें, किन्तु इतना तो हमें स्पष्ट है कि श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थान सिद्धान्त की विस्तृत विवेचना करनेवाला यह प्रथम ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में सर्वप्रथम चौदह गुणस्थानों का उल्लेख करके उन्हें चौदह मार्गणाओं में घटित किया गया है। गुणस्थान और मार्गणा के इस सह सम्बन्ध को आचार्य पूज्यपाद ने भी सर्वार्थसिद्धि के प्रारम्भ में विस्तारपूर्वक उल्लेख किया है। गुणस्थान सिद्धान्त की विस्तृत विवेचना की मुख्य रूप में दो प्रमुख शैलियाँ रही हैं। प्रथम शैली के अनुसार गुणस्थानों का अवतरण मार्गणाओं में किया जाता है, तो दूसरी शैली के अनुसार गुणस्थानों का अवतरण कर्मप्रकृतियों के सत्ता, बन्ध, उदय, उदीरणा और क्षय के सन्दर्भ में किया जाता है, जबकि तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं में गुणस्थान सिद्धान्त का अवतरण ध्यान, परिषह आदि के प्रसंगों में भी किया गया है। जहाँ तक जीवसमास का प्रश्न है, जैसा हमने पूर्व में कहा जीवसमास सर्वप्रथम चौदह गुणस्थानों के नाम का उल्लेख करके उन्हें चौदह मार्गणाओं में अवतरित करता है। उसके पश्चात् जीवसमास के परिणामद्वार, क्षेत्रद्वार, स्पर्शनद्वार, कालद्वार, अन्तरद्वार एवं अल्पबहुत्वद्वार में भी गुणस्थानों का विवेचन मिलता है। इस समग्र विवेचन के आधार पर हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि गुणस्थान सिद्धान्त की कर्मसिद्धान्त से सम्बन्धित बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा और क्षय (निर्जरा) - इन स्थितियों को छोड़कर गुणस्थान सिद्धान्त का व्यापक विवेचन जीवसमास में उपलब्ध है। । यहाँ यह विशेष रूप से ज्ञातव्य है कि जीवसमास में गुणस्थानों को जीवसमास के नाम से उल्लेखित माना गया है। यद्यपि इसमें उनके लिए गुण शब्द का भी उल्लेख हुआ है । इनके लिए गुणस्थान शब्द के प्रयोग के पूर्व इन चौदह अवस्थाओं को समवायांग और षट्खण्डागम में क्रमशः जीवस्थान या जीवसमास के नाम से अभिहित किया गया है। गुणस्थानों को जीवस्थान या जीवसमास कहने की परम्परा निश्चित ही प्राचीन रही है। षट्खण्डागम के प्रारम्भ में गुणस्थानों को स्पष्टरूप से जीवसमास कहा गया है। ठीक इसी प्रकार जीवसमास की प्रथम गाथा एवं आठवीं और नवीं गाथाओं में भी चौदह गुणस्थानों को जीवसमास कहा गया है। समवायांग में चौदह गुणस्थानों के लिए जीवठाण शब्द का प्रयोग हुआ है। (१४/६५) इससे यह सिद्ध होता है कि गुणस्थान नामकरण के पूर्व गुणस्थानों के लिए जीवसमास या जीवस्थान - ऐसे नाम ही प्रचलित रहे है और जिन कृतियों में ये उपलब्ध होते हैं, उनकी प्राचीनता सुनिश्चित है। इस प्रकार इतना तो निश्चित है कि जीवसमास, षट्खण्डागम और देवर्द्धिगणि की अन्तिम आगम वाचना से पूर्ववर्ती या अधिक से अधिक उसका समकालीन तो है ही। गुणस्थानों का चौदह मार्गणाओं में सर्वप्रथम अवतरण सम्भवतः जीवसमास में ही हुआ है और उसी का ग्रहण षट्खण्डागम और पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका में हुआ है। ये दोनों ग्रन्थ किसी भी स्थिति में ईसा की छठी शताब्दी के पूर्व के ही हैं, अतः जीवसमास का काल तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य के पश्चात् तथा षट्खण्डागम और पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका के मध्य ही है तथा लगभग चौथी-पाँचवीं शताब्दी में कहीं स्थिर होगा। इसप्रकार जीवसमास गुणस्थान सिद्धान्त का निरूपण करनेवाला प्रथम ग्रन्थ माना जाता है। विभिन्न कर्मप्रकृतियों की सत्ता, बन्ध, उदय, उदीरणा आदि में गुणस्थानों का जो अवतरण हुआ है, वह भी लगभग छठी शताब्दी से ही प्रारम्भ होता है, अतः जीवसमास गुणस्थान सिद्धान्त की प्रस्तुति करनेवाला प्रथम ग्रन्थ माना जा सकता है। अग्रिम पंक्तियों में हम यह देखने का प्रयास करेंगे कि जीवसमास की किन-किन गाथाओं में गुणस्थान सिद्धान्त का अवतरण किस-किस रूप में हुआ है। जीवसमास में गुणस्थान की चर्चा जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया है कि जीवसमास सर्वप्रथम चौदह गुणस्थानों का उल्लेख करके उन्हें चौदह मार्गणाओं में अवतरित करता है। जीवसमास के सत्प्ररूपणाद्वार में गाथा क्रमांक ८ में चौदह गुणस्थानों के नाम का उल्लेख है। उसके पश्चात् सत्प्ररूपणाद्वार की गाथा क्रमांक २२ में चारों गतियों में कौन-कौन से गुणस्थान उपलब्ध होते हैं, इसकी चर्चा है। उसमें बताया ation International Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... षष्टम अध्याय........{403} गया है कि देवता और नारक में प्रथम चार गुणस्थान, तिर्यंचों में प्रथम पाँच गुणस्थान और मनुष्यों में चौदह ही गुणस्थान उपलब्ध होते हैं। उसके पश्चात् इन्द्रियमार्गणा में जीवसमास की गाथा क्रमांक २४ में यह बताया गया है कि संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में चौदह ही गुणस्थान उपलब्ध होते हैं। शेष सभी जीवस्थानों में मात्र मिथ्यादष्टि गणस्थान ही होता है। जीवसमास इस सम्बन्ध में कोई विशेष विवेचन प्रस्तुत नहीं करता है। यद्यपि उसकी टीका में यह प्रश्न उठाया गया है कि बादर पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय करण अपर्याप्त अवस्था में सास्वादन गुणस्थान की संभावना मानी गई है, किन्तु जीवसमास के टीकाकार का कथन है कि करण अपर्याप्त अवस्था में सास्वादन गुणस्थान की संभावना होने पर भी उसका काल अत्यन्त अल्प होने से उसकी यहाँ चर्चा नहीं की गई है। पुनः कायमार्गणा की गाथा क्रमांक २६ में मात्र यह बताया गया है कि त्रसकाय में चौदह ही गुणस्थान होते हैं, शेष कायों में मात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। इसके पश्चात् योगमार्गणा में गाथा क्रमांक ५८ में कार्मणकाययोग में मिथ्यादृष्टि, सास्वादनसम्यग्दृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि और सयोगीकेवली गुणस्थान सम्भव होते हैं। चूंकि मिश्र गुणस्थान में मरण नहीं होता, इसीलिए कार्मणकाययोग में मिश्र गुणस्थान की संभावना नहीं मानी गई है। जीवसमास में मूल में तो योगों में गुणस्थानों का अवतरण इसी रूप में है, किन्तु टीका में यह बताया गया है कि मिथ्यादृष्टि, सास्वादनसम्यग्दृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि- इन तीन गुणस्थानों में तेरह योग सम्भव होते हैं। मिश्रदृष्टि गुणस्थान में दस योग, देशविरति गुणस्थान में ग्यारह योग, प्रमत्तसंयत गुणस्थान में तेरह योग, अप्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान में नौ योग और सयोगीकेवली गुणस्थान में सात योग होते हैं। अयोगीकेवली गुणस्थान में योग का अभाव माना गया है। इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा सर्वार्थसिद्धि, पंचसंग्रह आदि ग्रन्थों में है, इसीलिए यहाँ उसके विस्तार में जाना आवश्यक नहीं है। जीवसमास की गाथा क्रमांक ६० में वेदों में गुणस्थानों का अवतरण करते हुए कहा गया है कि संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में प्रथम गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादरसंपराय नामक नवें गणस्थान तक तीनों वेद होते हैं। उसके पश्चात दसवें गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक वेद का अभाव होता है। । इसी गाथा में कषायमार्गणा में गुणस्थानों का अवतरण करते हुए यह कहा गया है कि अनिवृत्तिबादरसंपराय नामक नवें गणस्थान तक चारों कषायों की संभावना रही हुई है। दसवें सूक्ष्मसंपराय गणस्थान में मात्र संज्वलन लोभ की सत्ता होती है। आगे के गुणस्थानों में कषायों का अभाव माना गया है। इसके पश्चात् गाथा क्रमांक ६५ में ज्ञानमार्गणा में गुणस्थानों का अवतरण करते हुए मिथ्यादृष्टि गुणस्थान और सास्वादनसम्यग्दृष्टि - इन दोनों गुणस्थानों में मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंगज्ञान की संभावना होती है। (मिश्र गुणस्थान में ये तीनों अज्ञान भी मिश्र रूप से होते हैं।) अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक मति, श्रुत और अवधि तीनों ज्ञानों की संभावना होती है। यद्यपि किसी विरत मुनि को तीनों ज्ञानों के साथ मनःपर्यव ज्ञान भी हो सकता है। सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थान में मात्र केवल ज्ञान होता है। जीवसमास के गाथा क्रमांक ६६ एवं ६७ में संयममार्गणा में गुणस्थानों का अवतरण करते हुए कहा गया है कि मिथ्यात्व, सास्वादन, मिश्र एवं अविरतसम्यग्दृष्टि - ये चारों गुणस्थानवाले जीव असंयत है। पाँचवें देशविरति गुणस्थान में संयतासंयत रूप आंशिक चारित्र होता है। सर्वविरति प्रमत्तसंयत में सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय तथा यथाख्यात ये पाँचों चारित्र सम्भव हो सकते है, फिर भी प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादरसंपराय नामक नवें गुणस्थान तक सामान्यतया सामायिक और छेदोपस्थापनीय - ये दो चारित्र होते हैं, किन्तु अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में परिहारविशुद्धि नामक चारित्र की संभावना स्वीकार की गई है। सूक्ष्मसंपराय नामक दसवें गुणस्थान में सूक्ष्मसंपराय नामक चारित्र होता है। उसके पश्चात् उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली इन चार गुणस्थानों में यथाख्यातचारित्र होता है। पुनः जीवसमास के सत्प्ररूपणा नामक प्रथम द्वार में दर्शनमार्गणा का विवेचन है । यद्यपि इस गाथा में स्पष्ट रूप से गुणस्थानों का अवतरण तो नहीं किया गया है, किन्तु गाथा के अन्तरभाव के आधार पर हम यह कह सकते हैं कि प्रथम गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान तक के सभी प्राणियों में अचक्षुदर्शन पाया जाता है। पुनः चतुरिन्द्रिय या पंचेन्द्रिय जीवों में मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक चक्षुदर्शन पाया जाता है। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक अवधिदर्शन की भी संभावना है। शेष सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थान में केवलदर्शन होता है। जीवसमास में लेश्यामार्गणा की चर्चा करते हुए, गाथा क्रमांक ७० में गुणस्थानों का अवतरण करते हुए बताया गया है कि कृष्ण, नील और कापोत - ये तीन लेश्याएँ मिथ्यादृष्टि से लेकर अविरतसम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान में पाई जाती है। यहाँ Jain Education Interational Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... षष्टम अध्याय.......{404} जीवसमास के कर्ता ने एक अन्य मत का उल्लेख करते हुए यह कहा है कि ये तीनों लेश्याएँ मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती हैं। तेजस् और पद्म- ये दो लेश्याएँ समनस्क मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों से लेकर अप्रमत्तसंयत तक के जीवों में हो सकती है। शुक्ललेश्या का अस्तित्व मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक होता है । अन्तिम अयोगीकेवली गुणस्थान में लेश्या नहीं होती है। पुनः जीवसमास के सत्प्ररूपणा नामक प्रथम द्वार की ७५ वीं गाथा में, भव्यमार्गणा में गुणस्थानों का अवतरण करते हुए कहा गया है कि अभव्य जीवों में मात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। भव्य जीवों में उसी भव में सिद्ध होने वाले की अपेक्षा सभी गुणस्थान होते हैं। पुनः सम्यक्त्वमार्गणा के विवचेन के प्रसंग में गाथा क्रमांक ७६ में कहा गया है कि प्रथम तीन गुणस्थान में उनके नामानुरूप मिथ्यात्व, सास्वादन सम्यक्त्व और मिश्र सम्यक्त्व की सत्ता होती है। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में वेदक अर्थात् क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक-तीनों में से कोई एक सम्यग्दर्शन होता है। अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत तक क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन की संभावना है। पुनः आठवें गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक औपशमिक या क्षायिक में से कोई एक सम्यग्दर्शन होता है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व सातवें गुणस्थान के पश्चात् नहीं होता है। क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक नियम से क्षायिक सम्यग्दर्शन ही होता है। कुछ आचार्यों के मत से चौथे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक भी क्षायिक सम्यग्दर्शन की संभावना होती है । जीवसमास के प्रथम सत्प्ररूपणा द्वार की गाथा क्रमांक ८१ में संज्ञीमार्गणा में गुणस्थानों का अवतरण करते हुए बताया है कि सभी असंज्ञी जीव मिथ्यादृष्टि होते हैं। संज्ञी जीवों में प्रथम गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक बारह ही गुणस्थान पाए जाते हैं, शेष तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवर्ती केवलीन तो संज्ञी होते है और न ही असंज्ञी, क्योंकि उनमें मनोयोग होते हुए भी विचार-विकल्प का अभाव होता है। __ जीवसमास के सत्प्ररूपणा नामक प्रथम द्वार की गाथा क्रमांक ८२ में आहारमार्गणा में कहा गया है कि विग्रहगति में रहे हुए जीव, केवली समुद्घात करके रहे हुए सयोगीकेवली, अयोगीकेवली और सिद्ध अनाहारक होते हैं, शेष आहारक होते है। यद्यपि इस गाथा में स्पष्ट रूप से गुणस्थानों का अवतरण नहीं किया गया है, किन्तु टीका में अन्य ग्रन्थों के आधार पर गुणस्थानों का अवतरण करते हुए कहा गया है कि विग्रहगति को प्राप्त अनाहारक जीवों में मिथ्यादृष्टि, सास्वादनसम्यग्दृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि-ये तीन गुणस्थान ही होते हैं। इसके अतिरिक्त तेरहवें गुणस्थानवर्ती सयोगीकेवली समुद्घात करते समय और अयोगीकेवली भी अनाहारक होते हैं। आहारकों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक तेरह ही गुणस्थान होते हैं। इसप्रकार जीवसमास के प्रथम सत्प्ररूपणा द्वार में चौदह मार्गणाओं के सन्दर्भ में उपर्युक्त प्रकार से चौदह गुणस्थानों का अवतरण किया गया है। जीवसमास के शेष द्वारों में गुणस्थानों का कहाँ और किस रूप में उल्लेख हुआ है, इसकी चर्चा अग्रिम पृष्ठों में करेंगे। जीवसमास के द्वितीय परिमाणद्वार में विभिन्न गुणस्थानवी जीवों का परिमाण कितना है, इसका उल्लेख मिलता है। गाथा क्रमांक १४४ में बताया गया है कि मिथ्यादृष्टि जीव अनन्त हैं। सास्वादनसम्यग्दृष्टि तथा सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव कभी होते है और कभी नहीं होते हैं। यदि होते है, तो एक से लेकर पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितने हो सकते हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि और देशविरत गुणस्थानवर्ती जीव भी पल्योपम के असंख्यातवें भाग परिमाण ही होते हैं। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीवों की संख्या न्यूनतम दो हजार करोड़ और अधिकतम नौ हजार करोड़ होती है। सम्पूर्णकाल की अपेक्षा से इनका परिमाण संख्यात होता है। उपशमश्रेणी से आरोहण करनेवाले आठवें गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थानवी जीव एक समय में कम से कम एक और अधिक से अधिक चौवन जीव होते हैं । क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवाले अपूर्वकरण गुणस्थान से क्षीणमोह गुणस्थान तक के जीवों की संख्या न्यूनतम एक और अधिकतम एक सौ आठ होती है। सम्पूर्ण क्षपण काल की अपेक्षा कम से कम दो सौ और अधिकतम नौ सौ जीव होते हैं। सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों की संख्या कम से कम दो करोड़ और अधिकतम नौ करोड़ होती है। अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव कभी होते हैं और कभी नहीं होते हैं। यदि हो, तो न्यूनतम एक और अधिकतम संख्यात हो सकते हैं। इसप्रकार जीवसमास के परिमाण द्वार में समकाल की अपेक्षा से विभिन्न गुणस्थानों में जीवों की संख्या का विवेचन किया गया है। ducation Intermational Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... षष्टम अध्याय.....{405} जीवसमास के तृतीय क्षेत्रद्वार में गाथा क्रमांक १७८ में मात्र यह कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि जीव सम्पूर्ण लोक में है। शेष गुणस्थानवी जीव लोक के असंख्यातवें भाग में होते हैं। यद्यपि केवली समुद्घात की अपेक्षा से सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव सर्वलोक में भी होते हैं। जीवसमास के चतुर्थ स्पर्शनद्वार में १६५-१६६ वीं गाथा में कौन-से गुणस्थानवी जीव कितने क्षेत्र का स्पर्श करके रहे हुए हैं, यह बताया है । मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव सम्पूर्ण लोक का, सास्वादन, मिश्र, अविरतसम्यग्दृष्टि और देशविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव क्रमशः लोक के चौदह भाग रज्जु परिमाण क्षेत्र में से बारह, आठ, आठ तथा छः भाग परिमाण क्षेत्र को स्पर्श करके रहे हुए हैं। शेष प्रमत्तसंयत आदि गुणस्थानवी जीव, लोक के असंख्यातवें भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं, किन्तु सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीव सम्पूर्ण लोक का स्पर्श केवली समुद्घात की अपेक्षा करते हैं। जीवसमास के चतुर्थस्पर्शनद्वार की १६७ एवं १६८ - इन दोनों गाथाओं में कौन से गुणस्थानवर्ती देव, मनुष्य और तिर्यच, कितने क्षेत्र का स्पर्श करके रहे हुए हैं, इसे बताया गया है। मिथ्यादृष्टि और सास्वादन गुणस्थानवर्ती भवनपति से लेकर ईशान देवलोक तक के देव नौ रज्जु की स्पर्शना करके रहे हुए हैं। मिश्रदृष्टि और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थ रज्जु क्षेत्र का स्पर्श करके रहे हुए हैं । मिथ्यादृष्टि मनुष्य तथा तिर्यंच सम्पूर्ण लोक का स्पर्श करके रहे हुए है। सास्वादन गुणस्थानवर्ती तिथंच तथा मनुष्य ईषत्प्राग्भार पृथ्वी में भी उत्पन्न होने से सात रज्जु क्षेत्र का स्पर्श करके रहे हुए हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि तथा देशविरत गुणस्थानवी जीव मध्यलोक से अच्युतदेवलोक में जन्म लेने से छः रज्जु क्षेत्र का स्पर्श करके रहे हुए है। मिश्रदृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंच या मनुष्य का मिश्र गुणस्थान में मरण नहीं होने से ये अपने स्थान में लोक के असंख्यातवें भाग का स्पर्श करके रहे हुए हैं। जीवसमास के काल नामक पंचम द्वार की २१६ से २२५ गाथाओं में विभिन्न गुणस्थानों में काल का एक जीव और अनेक जीवों की अपेक्षा निरूपण किया गया है। अनेक जीवों की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि गुणस्थान सभी कालों में सदा पाया जाता है, क्योंकि नारक, मनुष्य तथा देवों में मिथ्यादृष्टि जीव असंख्य है और तिर्यंचों में अनन्त हैं। अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत तथा सयोगीकेवली गुणस्थान भी सभी कालों में पाए जाते हैं । चौथे एवं पाँचवें गुणस्थानवी जीव संख्या की अपेक्षा से लोक के असंख्यातवें भाग की प्रदेशराशि के समान संख्या में होते हैं । प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों की संख्या हजार कोटि पृथक्त्व अर्थात् दो हजार करोड़ से नौ हजार करोड़ तक, अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों की संख्या संख्यात तथा सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों की संख्या दो हजार करोड़ से नौ हजार करोड़ होती हैं। अनेक जीवों की अपेक्षा से सास्वादन और मिश्रदृष्टि गुणस्थान का काल अधिकतम पल्योपम के असंख्यातवें भाग तक और न्यूनतम एक समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त तक निरन्तर है । एक जीव की अपेक्षा सास्वादन गुणस्थान एक समय से लेकर छः आवलिका तक तथा मिश्रदृष्टि गुणस्थान अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है। एक जीव की अपेक्षा से मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का काल अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त तथा सादि-सान्त-ऐसे तीन प्रकार का होता है। इनमें सादि-सान्त अन्तर्मुहूर्त से लेकर अर्द्ध पुद्गल परावर्तन काल तक रहता है। एक जीव की अपेक्षा से अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का काल साधिक तेंतीस सागरोपम तथा देशविरति गुणस्थान एवं सयोगीकेवली गणस्थान का काल कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष का है। चौथे, पांचवें और तेरहवें गुणस्थानों का जघन्य काल अन्तर्मुहर्त ही है। क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ क्षीणमोह गुणस्थान एवं अयोगीकेवली गुणस्थान का उत्कृष्ट तथा जघन्य काल एक जीव की अपेक्षा एवं अनेक जीवों की अपेक्षा से अन्तर्मुहूर्त परिमाण जानना चाहिए। प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थान का काल एक जीव की अपेक्षा तथा उपशमक एवं उपशान्तमोह गुणस्थान का काल एक तथा अनेक जीवों की अपेक्षा से जघन्य से एक समय तथा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त परिमाण है। पुनः जीवसमास के पंचम काल नामक द्वार की २२८ वीं गाथा में मनुष्य में सास्वादन तथा मिश्र गुणस्थान का काल बताया गया है । अनेक जीवों की अपेक्षा से मनुष्यों में सास्वादन तथा मिश्र गुणस्थान का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होता है। जघन्य काल तो पूर्व में बता चुके हैं। पुनः जीवसमास के पंचम काल नामक द्वार की गाथा क्रमांक २३५ एवं २३६ में गुणस्थानों का जघन्य काल बताया है। मिथ्यात्व गुणस्थान का काल अभव्यत्व की अपेक्षा अनादि-अनन्त तथा भव्यत्व की अपेक्षा अनादि-सांत या सादि-सान्त होता है। वह जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट से अनन्त होता है। सास्वादन गुणस्थान का जघन्य काल एक समय तथा उत्कृष्ट काल छः आवलिका बताया गया है। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ षष्टम अध्याय........(406} जीवसमास के षष्ठ अन्तरद्वार में गाथा क्रमांक २५७, २५८ एवं २५६ - इन तीन गाथाओं में गुणस्थानों का अन्तर- काल बताया है। मिथ्यात्व का त्याग करके पुनः मिथ्यात्व को प्राप्त करने का उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त से कुछ कम, दो छासठ सागरोपम अर्थात् एक सौ बत्तीस सागरोपम है। अन्य कुछ विचारकों के अनुसार इससे भी कम है। तात्पर्य यह है कि अन्य आचार्य मिथ्यात्व का उत्कृष्ट विरहकाल दो छासठ सागरोपम से अन्तर्मुहूर्त कम मानते हैं। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती औपशमिक सम्यग्दर्शन को प्राप्त जीव क्रमशः अनुगमन करता हुआ देशविरत, प्रमत्तसंयत, सर्वविरत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय तथा उपशान्तमोह गुणस्थानवर्ती जीव सम्यग्दर्शन का वमन कर पुनः उसे अवश्य प्राप्त करते हैं । सम्यक्त्व का वमन कर पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त करने का उत्कृष्ट अन्तरकाल अर्धपुद्गल परावर्तन है। चतुर्थ गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक औपशमिक सम्यग्दर्शन का अनुगमन करनेवाला जीव इन सभी गुणस्थानों को छोड़ने के बाद अर्धपुद्गल परावर्तन कालपर्यन्त संसार परिभ्रमण कर पुनः उन्हें अवश्य प्राप्त करता है। क्षपक, क्षीणमोह तथा सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों में मिथ्यात्व एवं सम्यक्त्व का अन्तर- काल नहीं होता है, क्योंकि इन सभी जीवों का पतन नहीं होता है। गाथा २५८ में कहा है कि सास्वादन गुणस्थान और औपशमिक सम्यक्त्व का जघन्य अन्तरकाल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है। शेष सभी अर्थात् मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती तथा चौथे से लेकर ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती सभी जीव का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवाले जीवों को अन्तरकाल नहीं होता है, नियम से वे आगे ही बढ़ते हैं, उनका पतन नहीं होता है। गाथा २५६ में कहा है कि द्वितीय सास्वादन गुणस्थानवर्ती, तृतीय मिश्र गुणस्थानवर्ती तथा संमूर्च्छिम मनुष्यों का सम्पूर्ण लोक में पल्योपम के असंख्यातवें भाग तक पूर्णतः अभाव हो सकता है । उपशमश्रेणी से आरोहण करनेवाले चौथे से लेकर ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती जीवों का उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्ष-पृथक्त्व ही जानना चाहिए। लोक में कभी-कभी अधिकतम छः म पर्यन्त क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवाले आठवें, नवें, दसवें, बारहवें गुणस्थानवर्ती जीवों का अभाव होता है। अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों का अन्तरकाल भी उत्कृष्ट से छः मास पर्यन्त होता है। मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत तथा सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों का अन्तर- काल नहीं होता है। ये सभी गुणस्थानवर्ती जीव लोक में सदा होते हैं। संमूर्च्छिम मनुष्य में मात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। जीवसमास के षष्ठ अन्तरद्वार की २६२ वीं गाथा में बताया है कि सम्यक्त्व स्वीकार करनेवालों का सात दिन रात्रि तक का, देशविरति चारित्र (देशविरति गुणस्थान) स्वीकार करनेवालों का चौदह दिन-रात्रि तक का तथा सर्वविरति चारित्र ( प्रमत्तसंयत गुणस्थान) स्वीकार करनेवालों का पन्द्रह दिन-रात्रि का उत्कृष्ट विरहकाल होता है। जीवसमास के अष्टम अल्प - बहुत्व द्वार की गाथा क्रमांक २७७ से २८१ तक इन पांच गाथाओं में गुणस्थानों में जीवों की संख्या का अल्प-बहुत्व बताया गया है। गुणस्थानों की अपेक्षा से उपशमक तथा उपशान्तमोह गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या सबसे कम है। उनसे क्षपक तथा क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती जीव अधिक है, उनसे अधिक जिन अर्थात् सयोगीकेवली तथा अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव है, उनके अधिक अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव है, उनसे अधिक प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव है, उनसे अधिक देशविरति गुणस्थानवर्ती जीव, उनसे अधिक सास्वादन गुणस्थानवर्ती जीव, उनसे अधिक मिश्रदृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव है और उनसे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव क्रमशः असंख्यगुणा अधिक होते हैं। उनसे सिद्ध अनन्तगुणा अधिक हैं तथा सिद्धों से मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती अनन्तगुणा अधिक होते हैं। सास्वादन गुणस्थानवर्ती देव तथा नारकी जीव सबसे कम हैं, मिश्रगुणस्थानवर्ती उनसे संख्यातगुणा अधिक होते हैं, अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती उनसे असंख्यातगुणा अधिक हैं और मिथ्यात्व गुणस्थानवर्ती उनसे असंख्यातगुणा अधिक है। देशविरति गुणस्थानवर्ती तिर्यंच सबसे कम हैं, उनसे सास्वादन गुणस्थानवर्ती तिर्यंच असंख्यातगुणा अधिक है, उनसे मिश्रदृष्टि गुणस्थानवर्ती संख्यातगुणा अधिक हैं, उनसे अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती असंख्यातगुणा अधिक हैं और उनसे मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती तिर्यंच जीव अनन्तगुणा हैं। मनुष्यों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान को छोड़कर शेष तेरह गुणस्थानों में जीवों की संख्या उलट क्रम से संख्यातगुणा अधिक-अधिक होती जाती हैं, जबकि मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों की संख्या उनसे असंख्यगुणा अधिक होती है । इस प्रकार जीवसमास नामक इस ग्रन्थ में गुणस्थान सिद्धान्त की व्यापक रूप से चर्चा हुई है। जैसा कि हमने पूर्व में निर्देश किया था कि यह ग्रन्थ श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थान की चर्चा की अपेक्षा से प्रथम और महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। उपर्युक्त विवेचन में Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... षष्टम अध्याय.......{407} हमने यह पाया कि जीवसमास अपने सत्प्ररूपणाद्वार में न केवल चौदह गुणस्थानों के नामों का निर्देश करता है, अपितु वह चौदह मार्गणाओं में गुणस्थान की अवधारणा को अवतरित ही करता है। चौदह गुणस्थानों का चौदह मार्गणाओं में यह अवतरण, जीवसमास के सत्प्ररूपणाद्वार में षट्खण्डागम के जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड के सत्प्ररूपणाद्वार में, तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका के प्रथम अध्याय के आठवें सूत्र की टीका में, समान रूप से मिलता है । समान्यतया इस चर्चा में हमें इन तीनों ही ग्रन्थों में कोई वैचारिक भिन्नता परिलक्षित नहीं हुई है। यद्यपि परम्पराओं की अपेक्षा से यह विवाद का विषय हो सकता है कि इनमें किस ग्रंथकार ने किससे ग्रहण किया? किन्तु जैसा पंडित हीरालालजी शास्त्री ने स्वीकार किया है कि षट्खण्डागम के जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड का आधार जीवसमास है, तो ऐसी स्थिति में हम कालक्रम के आधार पर यह निर्णय कर सकते हैं कि उपलब्ध साक्षीयों के आधार पर जीवसमास का स्थान प्रथम माना जा सकता है। चूंकि पूज्यपाद देवनन्दी दिगम्बर परम्परा के ही आचार्य हैं और उनका काल षटखण्डागम की रचना के पश्चात् ही है, अतः उन्हें यह अवधारणा षट्खण्डागम से ही प्राप्त हुई होगी। यह भी हो सकता है कि जीवसमास और षट्खण्डागम की रचना के पूर्व अविभाजित जैन संघ में यह अवधारणा विकसित हुई होगी और दोनों ही परम्पराओं ने उसका अनुसरण किया होगा। अतः हम इस विवाद में न पड़कर गुणस्थानों और मार्गणास्थानों के सहसम्बन्ध का यह विचार किसने किससे लिया? केवल इतना कहना पर्याप्त होगा कि गुणस्थान और मार्गणास्थान के इस सहसम्बन्ध की चर्चा जीवसमास, षट्खण्डागम और सर्वार्थसिद्धि टीका में समानरूप से उपलब्ध है। इसके पश्चात् जीवसमास के परिणामद्वार में चौदह गुणस्थानों में जीवों की संख्या का विवेचन किया गया है। यह चर्चा भी षटखण्डागम और सर्वार्थसिद्धि में उपलब्ध होती है। जीवसमास के तीसरे क्षेत्रद्वार में किस गणस्थानवी जीव, लोक के कितने क्षेत्र में रहे हुए हैं, इसकी चर्चा है। इसके आगे स्पर्शनद्वार यह स्पष्ट करता है कि किस गुणस्थानवी जीव, लोक के कितने क्षेत्र का स्पर्श करते हैं। क्षेत्र और स्पर्शन सम्बन्धी ये उल्लेख भी षटखण्डागम, सर्वार्थसिद्धि और जीवसमास में समानरूप से उपलब्ध होते हैं। इस सम्बन्ध में इन तीनों में भी हमें कोई विचारभेद परिलक्षित नहीं होता है। जैसा कि पूर्व में बताया गया है कि जीवसमास के पंचम कालद्वार में विशेष की अपेक्षा से और सामान्य की अपेक्षा से, विविध गुणस्थानों के काल का विवेचन किया गया है। इसके पश्चात् छठे अन्तरद्वार में काल की अपेक्षा से ही विभिन्न गुणस्थानों के विरहकाल या अन्तराल की चर्चा उपलब्ध होती है। इस चर्चा में, इस अन्तराल को भी जघन्यकाल और उत्कृष्टकाल की अपेक्षा से विवेचित किया गया है। जीवसमास के सप्तम भावद्वार में गुणस्थानों की कोई विशेष चर्चा हमें उपलब्ध नहीं होती है, किन्तु इसके अष्टम अल्प-बहुत्वद्वार में पुनः गुणस्थान सम्बन्धी विवरण उपलब्ध है। इसमें चौदह गुणस्थानों में रहे हुए जीवों में अल्प-बहुत्व का विचार किया गया है। यद्यपि यहाँ अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्तमोह और क्षीणमोह - इन गुणस्थानों का स्पष्ट नामनिर्देशन करके उपशमक या क्षपक जीवों की अपेक्षा से उनके अल्प-बहुत्व की चर्चा की गई है। इसी द्वार में पुनः देव, नारक, तिर्यंच और मनुष्य - इन चारों गतियों में संभावित गुणस्थानों की चर्चा के साथ-साथ उनके अल्प-बहुत्व का भी विचार किया गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जीवसमास अपने भावद्वार को छोड़कर शेष सभी द्वारों में किसी न किसी रूप में गुणस्थानों का अवतरण करता है। संक्षेप में, जीवसमास में चौदह गुणस्थानों का आठ अनुयोगद्वारों और चौदह मार्गणाओं में अवतरण करके, उनके पारस्परिक सहसम्बन्ध को स्पष्ट किया गया है। इस अपेक्षा से हम यह कह सकते हैं कि सामान्यरूप से जैन परम्परा में और विशेषरूप से श्वेताम्बर जैन परम्परा में गणस्थान सिद्धान्त की एक समग्र दृष्टि से विवेचना करनेवाला जीवसमास एक प्रथम और महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। त्र उमास्वाति के प्रशमरति प्रकरण में गुणस्थान चर्चा का अभावk प्रशमरति प्रकरण७२ तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता आचार्य उमास्वाति की ही कृति मानी जाती है । इस कृति में व्यक्ति में वैराग्यभाव या प्रशमभाव का विकास कैसे हो, इस दृष्टि से विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है । प्रस्तुत कृति में वैराग्य में बाधक कषाय और ऐन्द्रिक विषयों के संयम की चर्चा के पश्चात् आचारमार्ग का और विशेषरूप से यतिधर्म का विवेचन हुआ है । इसी क्रम में ध्यानों ३७२ प्रशमरति, लेखक : उमास्वाति Jain Education Intemational Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... षष्टम अध्याय........{408} के स्वरूप का तथा क्षपक श्रेणी, योगनिरोध, शैलेशीकरण और मोक्ष के स्वरूप की चर्चा की गई है । यद्यपि इस ग्रन्थ के गुजराती अनुवाद में अनुवादक ने क्षपकश्रेणी की चर्चा के पूर्व गुणस्थानों का विस्तृत विवेचन किया है, किन्तु मूल कृति में तो मात्र यही कहा गया है कि क्षपकश्रेणी करनेवाला साधक मिथ्यात्वमोह और सम्यग्मिथ्यात्वमोह तथा उसके पश्चात् सम्यग्मोह का क्षय करता है। इसके पश्चात् कषायों और वेद आदि के संक्रमण एवं क्षपण का विवेचन है । इस समग्र विवेचन में यद्यपि गुजराती अनुवादक ने स्थान-स्थान पर गुणस्थानों का निर्देश किया है, किन्तु हमें मूल श्लोकों में कहीं भी गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कोई निर्देश प्राप्त नहीं होता है। प्रशमरति के अन्त में मोक्ष के स्वरूप का विवेचन करते हुए यह बताया गया है कि मुनि और गृहस्थ किस प्रकार की साधना करके मुक्ति को प्राप्त कर सकते हैं । यहाँ भी गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा नहीं है, अतः यह सुनिश्चित हो जाता है कि मूल ग्रन्थ में कहीं भी गुणस्थान सम्बन्धी कोई निर्देश उपलब्ध नहीं है । यही कारण है कि विद्वत् वर्ग उमास्वाति के काल तक गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विचारणा का अभाव मानता है। सिद्धसेन दिवाकर की कृतियों में गुणस्थान चर्चा का अभाव जैनधर्म दर्शन के प्राचीनतम विशिष्ट लेखकों में सिद्धसेन दिवाकर का नाम उल्लेखित है । सिद्धसेन दिवाकर का सन्मतितर्क प्रकरण२७३ और कुछ द्वात्रिंशिकाएं उपलब्ध होती हैं । सिद्धसेन दिवाकर का काल लगभग चौथी शताब्दी ही माना जाता है । सन्मतितर्क प्रकरण में हमें कहीं भी गुणस्थान की अवधारणा का संकेत नहीं मिलता है, इसी प्रकार इनकी द्वात्रिंशिकाओं में भी गुणस्थान का अभाव है। इस आधार पर कुछ विद्वान इस निष्कर्ष पर पहुँचे है कि गुणस्थान सिद्धान्त का विकास सिद्धसेन से परवर्ती है । यद्यपि यहाँ यह भी कहा जा सकता है कि जहाँ सन्मतितर्कप्र तः अनेकान्तवाद की तार्किक स्थापना करनेवाला प्रथम ग्रन्थ है, वहीं सिद्धसेन दिवाकर की द्वात्रिंशिकाएं स्तुति परक है । इनके विषयों का सम्बन्ध भी गुणस्थान सिद्धान्त से नहीं है। अतः इनमें गुणस्थान सिद्धान्त का विवेचन नहीं होना स्वभाविक है। इस प्रकार सिद्धसेन दिवाकर की कृतियों में गुणस्थान चर्चा का प्रायः अभाव ही है । त्रसमन्तभद्र के आप्तमीमांसा आदि ग्रन्थों में गुणस्थान चर्चा का प्रायः अभाव : दिगम्बर परम्परा के समर्थ दार्शनिकों में आचार्य समन्तभद्र का स्थान अद्वितीय है । जैनदर्शन के अनेकान्त सिद्धान्त का तार्किक रूप से प्रतिष्ठापन करनेवाले आचार्यों में उनकी गणना की जाती है । आचार्य समन्तभद्र की मुख्य कृतियों में आप्तमीमांसा, युत्यानुशासन, स्वयंभूस्तोत्र, स्तुतिविद्या प्रमुख है । कुछ विद्वान रत्नकरण्डक श्रावकाचार के प्रणेता भी इनको मानते है । इसके अतिरिक्त कुछ ग्रन्थों में जीवसिद्धि और गंधहस्तिमहाभाष्य के रचयिता के रूप में भी इनका उल्लेख मिलता है । इनके इन ग्रन्थों में हमने विशेष रूप से आप्तमीमांसा का अवलोकन किया। इस ग्रन्थ में मुख्य रूप से दर्शनजगत में प्रतिष्ठित विभिन्न दर्शनों और उनकी दार्शनिक मान्यताओं की एकान्तिक दृष्टि की समीक्षा करते हुए अनेकान्त की स्थापना की गई है । इस सम्पूर्ण ग्रन्थ का अवलोकन करने पर हमें इसमें गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कोई विवेचन परिलक्षित नहीं होता है । यद्यपि मूल ग्रंथ में सर्वज्ञता की सिद्धि करते हुए अर्हन्त के विशिष्ट गुणों का भी उल्लेख हुआ है, किन्तु मूल ग्रन्थ में कहीं भी न तो गुणस्थान शब्द का उल्लेख मिलता है और न कहीं गुणस्थान सम्बन्धी कोई विवेचन ही उपलब्ध होता है । मात्र इस ग्रन्थ के दशम परिच्छेद के श्लोक क्रमांक ६८ की तत्वदीपिका नामक टीका में बंध सम्बन्धी विवेचन में गुणस्थानों का उल्लेख हुआ है । इनके अन्य ग्रन्थ स्वयंभूस्तोत्र और स्तुतिविद्या स्तुतिपरक है । इनमें वीतराग परमात्मा के स्वरूप का निवर्चन ही है । गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी सुस्पष्ट विवेचन का यहाँ भी प्रायः अभाव ही है। ३७३ सन्मत्तितर्कप्रकरण : सिद्धसेन दिवाकर, सम्पादक : पं.सुखलालजी अहमदाबाद ३७४ आप्तमीमांसा, लेखक : समन्तभद्र, सम्पादक :प्रो. उदयचन्द्र जैन, प्रकाशक : श्री गणेशवर्णी दि. जैन संस्थान नरिया वाराणसी Jain Education Intemational Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा... षष्टम अध्याय........{409) स्वामी कार्तिकेय की कार्तिकेयानुप्रेक्षा में गुणश्रेणी की अवधारणा दिगम्बर परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों में कार्तिकेयानुप्रेक्षा का महत्वपूर्ण स्थान है । कार्तिकेयानुप्रेक्षा३७५, स्वामी कार्तिकेय की रचना मानी जाती है । इनका एक अन्य नाम कुमारश्रमण भी प्रचलित रहा है । इस ग्रन्थ के अन्त में उन्होंने अपने इसी नाम का संकेत दिया है । यह ग्रन्थ बारह अनुप्रेक्षाओं या भावनाओं का चित्रण करता है । कालक्रम की दृष्टि से यह ग्रन्थ पांचवीं-छठी शताब्दी के लगभग माना जा सकता है । जहाँ तक गुणस्थान सिद्धान्त का प्रश्न है, इस ग्रन्थ में कहीं भी चौदह गुणस्थानों का उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है । इस आधार पर डॉ. सागरमल जैन इसे चौथी शताब्दी के उत्तरार्द्ध और पांचवीं शताब्दी के पूवार्द्ध का ग्रन्थ मानते हैं । कार्तिकेयानुप्रेक्षा में गुणस्थान सिद्धान्त का चाहे अभाव हो, किन्तु उसमें कर्मनिर्जरा ग्यारह गुणश्रेणियों का उल्लेख उपलब्ध होता है । जहाँ तत्त्वार्थसूत्र और षट्खण्डागम तथा आचारांगनियुक्ति में दस अवस्थाओं का उल्लेख है, वहाँ इसमें ग्यारह अवस्थाओं का उल्लेख है । ज्ञातव्य है कि षट्खण्डागम में वेदनाखंड की भूमिका में मूलगाथाओं में दस अवस्थाओं का ही चित्रण है, किन्तु उसके सूत्रों में अन्तिम जिन अवस्था के सयोगी और अयोगी-ऐसे दो विभाग करके ग्यारह अवस्थाओं का उल्लेख किया है । स्वामी कार्तिकेय ने भी निर्जरा अनुप्रेक्षा में इन्हीं ग्यारह अवस्थाओं का उल्लेख किया है; किन्तु जहाँ तत्त्वार्थसूत्र में इन दस अवस्थाओं का चित्रण सम्यग्दृष्टि से प्रारम्भ होता है, वहीं कार्तिकेयानुप्रेक्षा में यह कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा सम्यग्दृष्टि (अविरत) को असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है । इस प्रकार प्रकारान्तर से उन्होंने मिथ्यादृष्टि नामक अवस्था का भी संकेत किया है, क्योंकि सम्यक् की उपलब्धि के हेतु त्रिकरणवर्ती आत्मा के अपूर्वकरण करते समय असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वामी कार्तिकेय ने निर्जरा अनुप्रेक्षा की चर्चा में जिन बारह अवस्थाओं का निर्देश किया है, वे निम्न हैं - (१) मिथ्यादृष्टि (२) सम्यग्दृष्टि (३) अणुव्रतधारी (४) महाव्रतधारी (५) प्रथम कषाय चतुष्क वियोजक (६) दर्शनमोहक्षपक (७) कषाय उपशमक (८) उपशान्तकषाय (E) क्षपक (१०) क्षीणमोह (११) सयोगी और (१२) अयोगी।३७६ इस प्रकार यहाँ मिथ्यात्व का समावेश करने पर तथा सयोगी और अयोगी का विभेद स्वीकार करने पर भी कुल ग्यारह अवस्थाओं का ही उल्लेख मिलता है । मूलगाथाओं में कषायउपशमक के बाद उपशान्तकषाय का उल्लेख नहीं हुआ है । यदि हम उस समाविष्ट करते हैं, तो बारह नाम उपलब्ध हो जाते हैं, किन्तु यहाँ यह ज्ञातव्य है कि इन नामों में कहीं भी सास्वादन, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसंपराय का उल्लेख नहीं है । उसके स्थान पर क्षपक और उपशमक के उल्लेख मिलते हैं । कार्तिकेयानुप्रेक्षा में दंसणमोहतिअस्स और उवसमगचत्तारि-ऐसे शब्दों का उल्लेख हुआ है । अनुवादकों ने यहाँ दंसणमोहतिअस्स में तीन करणों का समावेश किया है, किन्तु उवसमगचत्तारि से क्या ग्रहण किया जाए, यह स्पष्ट नहीं होता है। सम्भावना यह मानी जा सकती है कि यहाँ अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसंपराय और उपशान्तमोह-ऐसी चार अवस्थाओं का निर्देश हो सकता है किन्तु यह मानने पर हमें यह भी मानना होगा कि स्वामी कार्तिकेय गुणस्थान सिद्धान्त से सुपरिचित रहे है, लेकिन उनके इस ग्रन्थ में गुणस्थान सम्बन्धी कोई भी स्पष्ट निर्देश न मिलने से वास्तविकता क्या है, इसे कहना कठिन है । प्रयोगिन्दुदेव के योगसार में गुणस्थान K योगिन्दुदेव, दिगम्बर परम्परा के एक मूर्धन्य विद्वान है । इनके दो ग्रन्थ अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। एक परमात्मप्रकाश और दूसरा योगसार । हमें इनके योगसार२७७ नामक ग्रन्थ में गुणस्थान की अवधारणा का संकेत उपलब्ध होता है । योगसार की सत्रहवीं गाथा में वे कहते है कि व्यवहार दृष्टि से ही आत्मा में मार्गणास्थान और गुणस्थान की चर्चा की जाती है, निश्चयनय से तो आत्मा ३७५ कार्तिकेयानुप्रेक्षा, लेखक : कार्तिकेय, प्रकाशन : दुलीचन्द जैन ग्रन्थमाला मदनगंज किशनगढ़ (राज.) प्रथमावृत्ति : वी.नि.सं. २४७७, २५०० ३७६ मिच्छादो सधिट्ठी, असंखगुणकम्मणिज्जरा होदि । तत्तो अणुवयधारी, तत्तो य महव्वई णाणी ।।१०६।। पढमकसायचउण्हं, विजोजओ तह य खवयसीलो य । दसणमोहतियस्स य, तत्तो उवसमग-चत्तारि ।।१०७।। खवगो य खीणमोहो, सजोइणाहो तहा अजोईया । एदे उवरि उवरिं, असंखगुणकम्मणिज्जरया ।।१०८।। कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा क्रमांक-१०६, १०७, १०८ (दुलीचंद जैन ग्रन्थमाला सोनगद, सौराष्ट्र, द्वितीय संस्करण वी.नि.सं. २५००) ३७७ योगसार, लेखक : ब्रहमदेव, हिन्दी भाषा टीका : दौलतराम, प्रकाशन : श्री परमश्रुत प्रभावक मंडल, आगास (गुज.) षष्ठम संस्करण, वि.सं. २०५६, वीर.नि.सं. २५२६ Jain Education Intemational Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... षष्टम अध्याय........{410) में इनका अभाव ही है । यहाँ हम देखते हैं कि आत्मा तत्व ही है। मार्गणास्थान और गुणस्थान, ये संसारी आत्मा में ही घटित होते हैं,शुद्ध आत्मा में नहीं होते हैं । योगिन्दुदेव के इस कथन में हमें आचार्य कुन्दकुन्द के विचारों की ही झलक मिलती है। आचार्य कुन्दकन्द ने नियमसार में स्पष्टरूप से यह कहा है कि आत्मा न तो मार्गणास्थान है, नजीवस्थान है और न ही गुणस्थान : क्योंकि मार्गणास्थान, जीवस्थान और गुणस्थान की चर्चा कर्म एवं शरीरों के आधार पर ही की जाती है । कर्म और शरीर आत्मा से भिन्न है, इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्द के समान ही योगिन्दुदेव ने मार्गणास्थान और गुणस्थान की अवधारणा को व्यवहारनय की अपेक्षा से ही स्वीकार किया है । योगिन्दुदेव के इस उल्लेख से इतना स्पष्ट होता है कि वे गुणस्थान और मार्गणास्थान के पारस्परिक सम्बन्धों को भी स्पष्ट रूप से जानते थे; यह स्वाभाविक ही है, क्योंकि योगिन्दुदेव का काल लगभग सातवीं-आठवीं शताब्दी का माना जाता है । उनके पूर्व आचार्य पूज्यपाद देवनन्दी (लगभग छठी शताब्दी) अपनी तत्त्वार्थसूत्र की सवार्थसिद्धि टीका में मार्गणास्थानों और गुणस्थानों के सहसम्बन्धों की विस्तृत चर्चा कर चुके थे। योगिन्दुदेव ने चाहे अपने ग्रन्थों में मार्गणास्थान और गुणस्थान की विस्तृत चर्चा नहीं की है, किन्तु वे इन अवधारणाओं से सुपरिचित रहे हैं, इसमें शंका की कोई स्थिति नहीं है । इतना स्पष्ट है कि योगिन्दुदेव निश्चय दृष्टि से आत्मा में गुणस्थानों या मार्गणास्थानों को स्वीकार नहीं करते । यह तो स्पष्ट है कि गुणस्थान का सम्बन्ध कर्मो के क्षय-उपशम से है । अपने पक्ष के समर्थन में परमात्मप्रकाश में योगिन्दुदेव कहते हैं कि जिस प्रकार द्वितीय प्रकाश गाथा क्रमांक-१७८, रक्त वस्त्र को धारण करने से शरीर को रक्त नहीं कहा जा सकता है, उसी प्रकार देह आदि के वर्ण के आधार पर आत्मा को उस वर्ण का नहीं माना जा सकता है । अतः कर्मों के क्षय-उपशम आदि के निमित्त से उत्पन्न होनेवाली विभिन्न अवस्थाओं को आत्मा में घटित नहीं किया जा सकता है । गुणस्थान शुद्ध आत्मा की अवस्थाएं नहीं हैं । वे संसारी आत्मा की कर्म के निमित्त से होनेवाली अवस्थाएं हैं । इस प्रकार चाहे योगिन्दुदेव ने विस्तार से गुणस्थान की चर्चा नहीं की हो, फिर भी शुद्ध आत्मा में गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि के निषेध से यह तो स्पष्ट है कि वे इन अवधारणाओं से परिचित रहे हैं। उनका वैशिष्ट्य यही है कि वे गुणस्थान की अवधारणा को शुद्ध आत्मा के सम्बन्ध में स्वीकार नहीं करते हैं । वे गुणस्थान की सत्ता को मात्र व्यवहार के स्तर पर ही मानते हैं । नआचार्य हरिभद्र के प्रमुख ग्रन्थों में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन आचार्य हरिभद्र जैन साहित्य जगत का एक प्रमुख नाम है । इनका सत्ताकाल लगभग आठवीं शती है। सामान्यतया यह माना जाता है कि उन्होंने १४४४ ग्रन्थों की रचना की थी। वर्तमान में वे सभी ग्रन्थ तो उपलब्ध नहीं है, फिर भी आगमों की टीकाओं के साथ-साथ आज भी अनेक ग्रन्थ उपलब्ध हैं । इन ग्रन्थों में अष्टक, षोडशक, विंशिका, पंचाशक आदि प्रमुख ग्रन्थ क प्रकरण में उन्होंने आठ-आठ संस्कत श्लोकों में षोडशक में सोलह-सोलह प्राकत गाथाओं में, विंशिका में बीस-बीस गाथाओं में, पंचाशक में पचास-पचास गाथाओं में विविध विषयों को प्रस्तुत किया है। इन सभी ग्रन्थों में हमें गुणस्थान सम्बन्धी किंचित् उल्लेख ही उपलब्ध होते हैं । आचार्य हरिभद्र गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा से ही अवश्य परिचित रहे है, किन्तु इसके प्रतिपादन में उन्होंने कोई विशेष रुचि नहीं ली है। अष्टक प्रकरण में जैनधर्म से सम्बन्धित निम्न बत्तीस विषयों का विवरण है-(१) महादेवाष्टक (२) स्नानाष्टक (३) पूजाष्टक (४) अग्निकारिकाष्टक (५) भिक्षाष्टक (६) सर्वसम्पत्करी भिक्षाष्टक (७) प्रच्छन्नभोजनाष्टक (८) प्रत्याख्यानाष्टक (६) ज्ञानाष्टक (१०) वैराग्याष्टक (११) तपोऽष्टक (१२) वादाष्टक (१३) धर्मवादाष्टक (१४) एकान्तनित्यपक्षखण्डनाष्टक (१५) एकान्तानित्यपक्षखण्डनाष्टक (१६) नित्यानित्यपक्षमण्डनाष्टक (१७) मांसभक्षणदूषणाष्टक (१८) मांसभक्षणदूषणाष्टक (१६) मद्यपानदूषणाष्टक (२०) मैथुनदूषणाष्टक (२१) सूक्ष्मबुद्धयाश्रयणाष्टक (२२) भावविशुद्धि विचाराष्टक (२३) शासनमालिन्यनिषेधाष्टक (२४) पुण्यानुबन्धि पुण्यादि विवरणाष्टक (२५) पुण्यानुबन्धिपुण्यप्रधानफलाष्टक (२६) तीर्थकृतदानमहत्वसिद्धयष्टक (२७) तीर्थकृत्दाननिष्फलता परिहाराष्टक (२८) राज्यादिदानेऽपि-तीर्थकृतो-दोषाभाव-प्रतिपादनाष्टक ३७८ अष्टक प्रकरण; लेखक : हरिभद्रसूरिजी, सम्पादक : डॉ. सागरमल जैन, प्रकाशन : पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी-५ प्रथम संस्करण - २००० Jain Education Intemational Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... षष्टम अध्याय........{411) (२६) सामायिक स्वरूपनिरूपणाष्टक (३०) केवलज्ञानाष्टक (३१) तीर्थंकरदेशनाष्टक और (३२) मोक्षाष्टक, किन्तु इनमें से एक भी अष्टक गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित नहीं है। षोडशक में सोलह७६- सोलह गाथाओं में निम्न सोलह विषय प्रतिपादित किए गए हैं-(१) सद्धर्मपरीक्षक षोडशक (२) सद्धर्मदेशना षोडशक (३) धर्मलक्षण षोडशक (४) धर्मेच्छुलिंग षोडशक (५) लोकोत्तर तत्वप्राप्ति षोडशक (६) जिनभवन षोडशक (७) जिन बिंब षोडशक (८) प्रतिष्ठा षोडशक (E) पूजा षोडशक (१०) सदनुष्ठान षोडशक (११) ज्ञान षोडशक (१२) दीक्षा षोडशक (१३) साधुसच्चेष्टा षोडशक (१४) योगभेद षोडशक (१५) ध्यदृयस्वरूप षोडशक और (१६) समरस षोडशक, किन्तु इनमें किसी भी षोडशक में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कोई विवेचन उपलब्ध नहीं होता है। इसी क्रम में आगे विंशतिविंशिकाः३८० का स्थान आता है । विंशिकाओं में बीस-बीस गाथाओं में निम्न बीस विषय वर्णित हैं-(१) अधिकार निर्देशविंशिका (२) अनादिविंशिका (३) कुलनीतिधर्मविशिका (४) चरमपुद्गलावर्तविंशिका (५) बीजादिविंशिका (६) सद्धर्मविंशिका (७) दानविंशिका (८) पूजाविंशिका (६) श्रावकधर्मविंशिका (१०) श्रावक प्रतिमा विंशिका (११) यतिधर्मविंशिका (१२) शिक्षाविंशिका (१३) भिक्षाविंशिका (१४) भिक्षाअन्तरायशुद्धिलिंगविंशिका (१५) आलोचनाविंशिका (१६) प्रायश्चितविंशिका (१७) योगविंशिका (१८) केवलज्ञानविंशिका (१६) सिद्धविभक्तिविंशिका और (२०) सिद्धिसुखविंशिका । इनमें गुणस्थान सम्बन्धी कुछ निर्देश उपलब्ध होते हैं । विशिकाओं में सद्धर्म नामक छठी विंशिका में यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण की चर्चा उपलब्ध होती है, किन्तु इस चर्चा का सीधा सम्बन्ध गुणस्थान से प्रतीत नहीं होता है । इसमें सम्पूर्ण चर्चा सम्यक्त्व की उपलब्धि को लेकर है । इसकी सत्रहवीं गाथा में निश्चय सम्यक्त्व की भी चर्चा है । अनुवादकों ने यहाँ सप्तम गुणस्थान ऐसा उल्लेख किया है, किन्तु मूल गाथा से यह बात फलित नहीं होती है। इसी क्रम में आगे उन्नीसवीं सिद्धविभक्ति विंशिका में सिद्धों के प्रकारों की चर्चा करते हुए इसकी सातवीं और आठवीं गाथा में स्पष्ट रूप से गुणस्थान सम्बन्धी निर्देश उपलब्ध हैं । इस विंशिका की सातवीं गाथा में स्त्री आदि में छठे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक की सम्भावना तथा एक समय में बीस स्त्रियों के एक साथ सिद्ध होने का आगमिक उल्लेख यह बताता है कि स्त्रीलिंग मुक्ति में प्रतिबन्धक नहीं है । पुनः क्षपकश्रेणी की चर्चा करते हुए यह कहा गया है कि क्षपकश्रेणी से जो जीव अनिवृत्तिबादर गुणस्थान में प्रवेश करता है, वह नियम से केवलज्ञान प्राप्त करके मोक्ष को प्राप्त करता है। इस विंशिका में स्त्रीमुक्ति के समर्थन पर विशेष बल दिया गया है। इससे यह प्रतिफलित होता है कि आचार्य हरिभद्र गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा से गहन रूप से परिचित रहे हैं, क्योंकि इसी प्रसंग में उन्होंने किस गुणस्थान में किन कर्मप्रकृतियों का किनमें संक्रमण होता है, इसका विवेचन किया है। __ पंचाशक प्रकरण आचार्य हरिभद्र की एक महत्वपूर्ण रचना है । इसमें लगभग ५०-५० गाथाओं के निम्न उनीस प्रकरण हैं - (१) श्रावक धर्मविधि पंचाशक (२) जिनदीक्षाविधि पंचाशक (३) चैत्यवंदनविधि पंचाशक (४) पूजाविधि पंचाशक (५) प्रत्याख्यानविधि पंचाशक (६) स्तवनविधि पंचाशक (७) जिनभवननिर्माणविधि पंचाशक (८) जिनबिंबप्रतिष्ठाविधि पंचाशक (E) यात्राविधि पंचाशक (१०) उपासकप्रतिमाविधि पंचाशक (११) साधुधर्मविधि पंचाशक (१२) साधुसमाचारीविधि पंचाशक (१३) पिण्डविधानविधि पंचाशक (१४) शीलांगविधानविधि पंचाशक (१५) आलोचनाविधि पंचाशक (१६) प्रायश्चितविधि पंचाशक (१७) कल्पविधि पंचाशक (१८) भिक्षुप्रतिमाकल्पविधि पंचाशक और (१६) तपविधि पंचाशक । मूलतः ग्रन्थ का विषय श्रावक और मुनिधर्म का तथा उनसे सम्बन्धित विविध क्रियाओं का विधान है । दूसरे शब्दों में यह एक साधनापरक ग्रन्थ है । यही कारण है कि इसमें गुणस्थानों की अवधारणा का स्पष्ट रूप से कोई उल्लेख नहीं मिलता है । वैसे भी आचार्य हरिभद्र के साहित्य में गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा अल्प ही है । प्रस्तुत कृति के चैत्यवन्दन विधि नामक प्रकरण में अपुनर्बन्धक, सम्यग्दृष्टि, देशविरति और सर्वविरत- इन चार अवस्थाओं का तथा चतु र्थ पूजाविधि प्रकरण में प्रमत्तंसयत और अप्रमत्तंसयत- इन दो अवस्थाओं का, ऐसी गणस्थानों से सम्बन्धित छः अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है, किन्तु आचार्य हरिभद्र ने इन अवस्थाओं का जो नाम उल्लेख ३७६ षोडशक प्रकरण भाग-१-२, हरिभद्रसूरिजी, टीका सम्पादक : यशोविजयजी, प्रकाशन : अंधेरी गुजराती जैन संघ, वेस्ट मुंबई-५६, वि.सं. २०५२ ३८० विंशतिविंशिका : लेखक : हरिभद्रसूरिजी, सम्पादक : धर्मरक्षित विजय, प्रकाशक : लावण्य जैन श्वे. मूर्तिपूजक संघ, अमदाबाद (गुज.) ३१ षोडशकप्रकरण भाग-१-२, लेखक :हरिभद्रसूरिजी, टीका : यशोविजजी, प्रकाशक : अंधेरी गुजराती जैन संघ, वेस्ट मुंबई-५६ Jain Education Intemational Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ षष्टम अध्याय....{412} किया है वह गुणस्थानों की अपेक्षा से किया हो, यह कहना कठिन है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविर, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत- ये सभी अवस्थाएं गुणस्थान सिद्धान्त के अतिरिक्त भी जैन परम्परा में बहु चर्चित रही है और इनका उल्लेख आगम काल से ही मिलता है । अतः प्रस्तुत ग्रन्थ में जिन प्रकरणों में इन अवस्थाओं का नाम आया है, वे प्रत्यक्ष स्थान से सम्बन्धित नहीं है। अतः इन अवस्थाओं का नामोल्लेख यहाँ प्रसंगवशात् ही समझना चाहिए। पंचाशक प्रकरण में गुणस्थान से सम्बन्धित इन नामों के उल्लेख के अतिरिक्त अन्य कोई सामग्री उपलब्ध नहीं होती है । पंचसूत्र की हरिभद्रीय टीका में गुणस्थान : श्वेताम्बर जैन परम्परा में पंचसूत्र का महत्वपूर्ण स्थान है । सामान्यतया साधु-साध्वी इसका प्रतिदिन स्वाध्याय करते हैं । यह मूल ग्रन्थ प्राकृत भाषा में निबद्ध है, किन्तु इसके कर्ता कौन हैं, यह एक विवादास्पद विषय है । मुनि जम्बूविजयजी के अनुसार कुछ प्रतियों में इसके लेखक के रूप में 'चिरंतनाचार्य विरचितम् ' ऐसा उल्लेख मिलता है, किन्तु इसमें चिरंतन शब्द किसी व्यक्ति का सूचक है मात्र प्राचीन आचार्य इस भाव का सूचक है; यह स्पष्ट नहीं होता है। आचार्य हरिभद्रसूरि ने पंचसूत्र की टीका में उसके लेखक के नाम का उल्लेख नहीं किया है। पंचसूत्र मूल में सांख्य, बौद्ध आदि मतों का उल्लेख न होने से इसे दर्शन युग की ही कृति मानी जाना चाहिए । यदि इसके कर्ता टीकाकार से भिन्न हैं, तो वे आचार्य हरिभद्रसूरि के निकट पूर्ववर्ती ही कोई आचार्य रहे होंगे । मुनि शीलचंद्रविजयश्री आदि की मान्यता यह है कि आचार्य हरिभद्रसूरि ही इस ग्रन्थ के संकलन कर्ता और टीकाकार दोनों ही हैं । प्रमाणों के अभाव में हम भी इस सम्बन्ध में अधिक कुछ कर पाने या कह पाने में असमर्थ हैं । जहाँ तक हमारे विवेच्य विषय गुणस्थान सिद्धान्त का प्रश्न है, मूल ग्रन्थ में हमें कहीं भी गुणस्थान शब्द देखने को नहीं मिला है । मात्र आचार्य हरिभद्रसूरि कृत टीका में पृष्ठ - १६ पर 'मिथ्यादृष्टिनामपि गुणस्थानत्वाभ्युपगमात् ' इतना उल्लेख मिलता है । इसके अतिरिक्त टीका में भी कहीं गुणस्थान शब्द का उल्लेख नहीं मिला है । इससे इतना ही अवरोध होता है कि प्रस्तुत पंचसूत्र के टीकाकार आचार्य हरिभद्रसूरि गुणस्थान सिद्धान्त से परिचित रहे हैं। इस एकमात्र उल्लेख के अतिरिक्त इस ग्रन्थ में गुणस्थान सिद्धान्त का कोई विस्तृत विवेचन उपलब्ध नहीं है। इसके अतिरिक्त उनके उपदेशपरक ग्रन्थों में आत्मानुशासन, लोकतत्वनिर्णय, धर्मबिन्दु, संबोध प्रकरण, उपदेशपद, पंचवस्तुक, सावयपण्णत्ति में भी हमें गुणस्थान सम्बन्धी कोई विवेचन परिलक्षित नहीं होता है । आचार्य हरिभद्र के निम्न दार्शनिक ग्रन्थ दर्शनजगत में विशेष चर्चित है - षड्दर्शनसमुच्चय, शास्त्रवार्तासमुच्चय, अनेकान्त जयपताका और अनेकान्तवादप्रवेश, किन्तु इन सभी ग्रन्थों में किसी भी प्रसंग में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन हमें देखने को नहीं मिलता है । T इन उपदेशपरक और दार्शनिक ग्रन्थों के अतिरिक्त आचार्य हरिभद्र ने योग सम्बन्धी ग्रन्थ भी लिखे हैं । उन्होंने योग सम्बन्धी ग्रन्थों में योगविंशिका, योगशतक, योगदृष्टिसमुच्चय और योगबिन्दु - ऐसे चार ग्रन्थ लिखे हैं । ये चारों ग्रन्थ योगसाधना से सम्बन्धित हैं । इस प्रकार इनका सम्बन्ध व्यक्ति की आध्यात्मिक विकास यात्रा से भी है। फिर भी इन ग्रन्थों में हमें गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कोई विवेचन उपलब्ध नहीं होता है, किन्तु योगशतक पर उनकी स्वोपज्ञ टीका में ३६ वीं गाथा की टीका में गुणस्थान शब्द के उल्लेख के साथ ही विस्तृत चर्चा की गई है । इसी प्रकार योगशतक की ४२ वीं गाथा की टीका में भी उन्होंने गुणस्थान का निर्देश किया है । मात्र यही नहीं ४४ वीं गाथा में भी गुणठाण शब्द का प्रयोग किया है और उसकी टीका गुणस्थान का विशेष विवेचन किया है। योगदृष्टिसमुच्चय २४ के मूल - श्लोक क्रमांक १८२ में श्रेणी सम्बन्धी विवेचन करते हुए अपूर्वकरण का उल्लेख हुआ है । ३८२ पंचसूत्र, हरिभद्रसूरिजी, सम्पादक : जंबुविजयजी, प्रकाशक : भारतीय संस्कृति संस्था रूपनगर, दिल्ली ३८३ योगशतक, लेखकः हरिभद्रसूरिजी, संस्कृत टीका: यशोविजयजी गणी, सम्पादक : अभयशेखर विजयगणी, प्रकाशन : दिव्यदर्शन ट्रस्ट - ३६, कालिकुण्ड सोसायटी, धोलका-३८७८१० ३८४ योगदृष्टिसमुच्चय, वहीं । Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... षष्टम अध्याय........{413} इसकी स्वोपज्ञ टीका में उन्होंने प्रमत्तसंयत गुणस्थान का भी उल्लेख किया है । योगदृष्टिसमुच्चय में इसके अतिरिक्त गुणस्थान सम्बन्धी कोई विशेष विवेचन हमें उपलब्ध नहीं होता है। योगबिन्दु२८५ में श्लोक क्रमांक ३७६ में संपराय का उल्लेख है, किन्तु इसकी मुनिचन्द्रसूरि की वृत्ति में इसे सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान का निर्देश किया है । इसी क्रम में योगबिन्दु के श्लोक क्रमांक ४२१ में असम्प्रज्ञातसमाधि का विवेचन है । यहाँ भी मूल में तो गुणस्थान सम्बन्धी कोई निर्देश नहीं है । मुनिचन्द्रसूरि ने अपनी वृत्ति में सयोगीकेवली और अयोगीकेवली का उल्लेख अवश्य किया है । पुनः योगबिन्दु के श्लोक क्रमांक ४६३ की मुनिचन्द्रसूरि की वृत्ति में भी ‘अविरतसम्यग्दृष्ट्यिादिगुणस्थानक्रमेण' कहकर गुणस्थानों का निर्देश किया है। यद्यपि यह सत्य है कि आचार्य हरिभद्रसूरि गुणस्थान सिद्धान्त से परिचित रहे हैं । उन्होंने अपनी तत्त्वार्थसूत्र की टीका और पंचसूत्र की टीका में स्पष्ट रूप से गुणस्थान का निर्देश किया है, जिसका उल्लेख पूर्व में कर चुके हैं, फिर भी यह आश्चर्यजनक ही है कि ये यथास्थान कुछ संकेतों के अतिरिक्त अपने इस विपुल साहित्य में गुणस्थान सम्बन्धी विस्तृत विवेचन प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं। आचार्य शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव में गुणस्थान ____ दिगम्बर परम्परा के आध्यात्मिक साधनापरक ग्रन्थों में ज्ञानार्णव का महत्वपूर्ण स्थान है । ज्ञानार्णव८६ का मुख्य प्रतिपाद्य विषय तो ध्यानसाधना ही है, किन्तु प्रसंगानुसार उसमें द्वादश अनुप्रेक्षा, पंच महाव्रत, पंच समिति, त्रिगुप्ति, इन्द्रिय और कषायजय आदि का भी उल्लेख हुआ है । इस ग्रन्थ के कर्ता आचार्य शुभचंद्र माने गए हैं । आचार्य शुभचंद्र ने ज्ञानार्णव में अपने सम्बन्ध में कहीं कोई परिचय नहीं दिया है, किन्तु ग्रन्थ के प्रारम्भ में तीर्थंकरों की स्तुति के पश्चात् उन्होंने अपने पूर्वाचार्यों का निर्देश दिया है । इसमें समन्तभद्र, देवनन्दी, अकलंक और जिनसेन का उल्लेख है । जिनसेन का काल ईस्वी सन् ८६८ माना जाता है, अतः यह निश्चित है कि शुभचंद्र का समय ईसा की नवीं शताब्दी के पश्चात् ही कहीं हो सकता है । विद्वानों ने इनका काल ईसा की दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी के आसपास निर्धारित किया है । ज्ञानार्णव में ध्यान सम्बन्धी जो चर्चा है उसमें पिंडस्थ, पदस्थ और रूपातीत आदि ध्यानों की तथा पृथिवी आदि भावनाओं की जो चर्चा है, वह शुभचंद्र के पूर्व जैनग्रन्थों में कहीं उपलब्ध नहीं होती है, किन्तु आचार्य हेमचंद्र ने अपने योगशास्त्र में इनका उल्लेख किया है । हेमचंद्र का काल ईसा की बारहवीं शताब्दी है, अतः शुभचंद्र उनसे पूर्व ही हुए है । इस सम्बन्ध में अधिक विस्तार में न जाकर हम केवल यह देखने का प्रयास करेंगे कि शभचंद्र के ज्ञानार्णव में गुणस्थान सिद्धान्त की क्या स्थिति है ? यह तो स्पष्ट है कि शुभचंद्र के काल तक गुणस्थान सिद्धान्त अपने पूर्ण विकसित स्वरूप में उपलब्ध था और वे उससे सुपरिचित भी रहे हैं, क्योंकि उन्होंने ज्ञानार्णव के छठे सर्ग के पच्चीसवें श्लोक में चौदह जीवसमासों, चौदह मार्गणाओं और चौदह गुणस्थानों का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है और यह कहा है कि सम्यग्दृष्टि जीवों को चौदह जीवसमासों, चौदह मार्गणास्थानों और चौदह गुणस्थानों में पूर्णतया श्रद्धा रखना चाहिए। इससे दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं कि शुभचंद्र न केवल गुणस्थान की अवधारणाओं से सुपरिचित थे, अपितु मार्गणास्थानों और जीवस्थानों के पारस्परिक सम्बन्धों को भी वे जानते थे । ज्ञानार्णव में समभाव के स्वरूप का चित्रण करते हुए उन्होंने उपशान्तमोह और क्षीणमोह-इन दो अवस्थाओं का चित्रण किया है, जो गुणस्थानों से ही सम्बन्धित है।३८८ इसी प्रकार आर्तध्यान के स्वामी की चर्चा करते हुए उन्होंने स्पष्ट रूप से यह कहा है कि आर्तध्यान प्रथम गुणस्थान से लेकर छठे गुणस्थान तक सम्भव हैं। मात्र यही नहीं पच्चीसवें सर्ग के अड़तीसवें और उनचालीसवें श्लोक में वे यह भी कहते हैं कि प्रथम गुणस्थान से लेकर संयतासंयत नामक पांचवें गुणस्थान में आर्तध्यान के चारों ही भेद सम्भव होते हैं, किन्तु छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान में निदान को छोड़कर शेष तीन ३८५ योगबिन्दु, वही। ३८६ ज्ञानार्णव ३८७ चतुर्दशसमासेषु मार्गणासु गुणेषु च । ज्ञात्वा संसारिणो जीवाः श्रद्धेयाः शुद्धदृष्टिभिः ।। ज्ञानार्णव सर्ग-१श्लोक-२५ (शुभचंद्र, परमश्रुत प्रभावकमण्डल अगास, संस्करण पंचम २०३७) ३८८ सारंगी सिंहशावं स्पृशति सुतधिया नन्दिनी व्याघ्रपोतं, मार्जारी हंसबालं प्रणयपरवशा केकिकान्ता भुजंगम् । वैराण्याजन्मजातान्यपि गलितमदा जन्तवो त्यजन्ति, श्रित्वा साम्यैकरूढं प्रशमितकलुषं योगिनं क्षीणमोहम् ।।२६।। ज्ञानार्णव, सर्ग २३ श्लोक नं.-२६ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... षष्टम अध्याय........{414} प्रकार ही सम्भव होते है।३८६ इसी प्रकार रौद्रध्यान की चर्चा में भी यह बताया गया है कि रौद्रध्यान, मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर पांचवें देशविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक सम्भव होता है।३६० इसी क्रम में आगे धर्मध्यान के स्वामी का उल्लेख करते हुए यह कहा गया है कि प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती मुनि धर्मध्यान के अधिकारी होते हैं ।३६१ इसी प्रसंग में अन्य आचार्यों के मन्तव्यों के आधार पर भी कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि से लेकर देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत भी धर्मध्यान के अधिकारी माने गए हैं।३६२ धर्मध्यान के अधिकारी उपर्युक्त चारों गुणस्थानों के जीव-अधिकारी है, अतः उनके भेद के आधार पर धर्मध्यान का भन्न कहा गया है । यद्यपि इन श्लोकों में स्पष्टरूप से गुणस्थान या गुण शब्द का उल्लेख नहीं है, फिर भी इतना निश्चित है कि यहाँ शुभचंद्र इन नामों से उन गुणस्थानों का ही उल्लेख कर रहे हैं । पुनः आचार्य शुभचंद्र ने ज्ञानार्णव के सर्ग-४१ में धर्मध्यान के फल की चर्चा करते हुए यह कहा है कि सम्यग्दृष्टि नामक चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान पर्यन्त अनुक्रम से असंख्यात-असंख्यातगुणा कर्मों का क्षय या उपशम करता है।३६३ आगे बयालीसवें सर्ग में शुक्लध्यान के अधिकारी की चर्चा करते हुए यह कहा है कि शुक्लध्यान के प्रथम चरण और द्वितीय चरण के अधिकारी ग्यारहवें और बारहवे गुणस्थानवर्ती छद्मस्थ होते है, जबकि शुक्लध्यान के तृतीय और चतुर्थ चरण के अधिकारी तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवर्ती केवलज्ञानी होते हैं।३६४ इसी सर्ग के अन्त में यह कहा गया है कि अयोगी परमात्मा को समुच्छिन्न क्रिया नामक चौथा शुक्लध्यान होता है।३६५ यहाँ यह भी कहा गया है कि इस अवस्था में जो तेरह कर्मप्रकृतियाँ अवशिष्ट थी, वे समाप्त हो जाती है ।३६६ . इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य शभचंद्र ने चारों ध्यानों के अधिकारियों की चर्चा करते हए स्पष्ट रूप से यह बताया है कि किस गुणस्थानवी जीव, किस ध्यान के अधिकारी होते हैं। इस प्रकार उन्होंने चारों ध्यानों के सन्दर्भ में गुणस्थानों का अवतरण किया है। चाहे उन्होंने समग्ररूप से चौदह गुणस्थानों की चर्चा न की हो, किन्तु वे गुणस्थानों की अवधारणा से सुपरिचित रहे हैं । हमारी दृष्टि में ज्ञानार्णव का मुख्य प्रतिपाद्य चारों प्रकार के ध्यान ही रहे हैं, अतः उनके लिए यहाँ गुणस्थानों की समग्र चर्चा अपेक्षित नहीं थी । अपने प्रतिपाद्य विषय के अनुरूप ही गुणस्थानों का अवतरण किया गया । त्रगुणभद्र का आत्मानुशासन और गुणस्थान K दिगम्बर परमपरा में आचार्य गुणभद्र का आत्मानुशासन६७ एक महत्वपूर्ण कृति है। आचार्य गुणभद्र के सम्बन्ध में हमें विशेष जानकारी तो उपलब्ध नहीं होती है, किन्तु वे आचार्य जिनसेन के शिष्य थे और उन्होंने अपने आचार्य के अधूरे महापुराण को सम्पूर्ण किया था । महापुराण शक संवत् ८२० में पूर्ण हो चुका था, अतः उनका सत्ताकाल ईस्वी सन् की नवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध एवं दसवीं शताब्दी का पूवार्द्ध है। आत्मानुशासन के मूल ग्रन्थ के श्लोकों में तो हमें गुणस्थान सम्बन्धी कोई विवेचन ३८६ अपथ्यमपि पर्यन्ते रम्यमप्यग्रिमक्षणे । विद्धयसद्धयनमेतद्धि षड्गुणस्थान भूमिकाम् ।।३।। संयतासंयतेष्वेतच्चतुर्भेदं प्रजायते । प्रमत्तसंयतानां तु निदानरहितं त्रिधा ।।३६।। ज्ञानार्णव, सर्ग २५ श्लोक नं. ३८,३६ ३६० कृष्णलेश्याबलोपेतं श्वध्रपातफलांकितम् । रौद्रमेतद्धि जीवानां स्यात्पच गुणभूमिकम् ।।३६।। ज्ञानार्णव, सर्ग-२६ श्लोक-३६ ३६१ मुख्योपचारभेदेन द्वौ मुनी स्वामिनौ मतौ । अप्रमत्तप्रमत्ताख्यौ धर्मस्यैतौ यथायथम् ।।२५।। अप्रमत्तः सुसंस्थानो वज्रकायो वशी स्थिरः । पूर्ववित्संवृतो धीरो ध्याता सम्पूर्ण लक्षणः ।।२६।। ज्ञानार्णव, सर्ग २८ श्लोक नं. २५, २६ ३६२ असंख्येयमसंख्येयं सदृष्ट्यादि गुणेऽपि च । क्षीयते क्षपकस्यैव कमजातमनुक्रमात् ।।१२।। ज्ञानार्णव, सर्ग-४१ श्लोक-१२ ३६३ असंख्येयमसंख्येयं सदृष्ट्यादिगुणेऽपि च । क्षीयते क्षपकस्यैव कमजातमनुक्रमात् ।। ज्ञानार्णव, सर्ग-४१ श्लोक-१२ ३६४ छस्थयोगिनामाद्ये द्वे तु शुक्ले प्रकीर्तिते । द्वे त्वन्त्ये क्षीणदोषाणां केवलज्ञान चक्षुषाम् ।। ज्ञानार्णव, सर्ग-४२ श्लोक नं.-७ ३६५ तस्मिन्नेव क्षणे साक्षादाविर्भवति निर्मलम् । समुच्छिन्नक्रियं ध्यानमयोगिपरमेष्ठिनः ।। ज्ञानार्णव, सर्ग-४२ श्लोक नं.-५३ ३६६ विलयं वीतरागस्य पुनन्ति त्रयोदश । चरमे समये सद्यः पर्यन्ते या व्यवस्थिताः ।। ज्ञानार्णव, सर्ग-४२ श्लोक नं.-५४ ३६७ आत्मानुशासन, लेखक : गुणभद्रविरचित, सम्पादकः पं. बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, प्रकाशक : जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर Jain Education Intemational Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... षष्टम अध्याय........1415) उपलब्ध नहीं होता है, किन्तु इसके २४५ वें श्लोक की आचार्य प्रभाचन्द्र की टीका में यह बताया गया है कि मिथ्यात्व गुणस्थान में बन्ध अधिक और निर्जरा कम होती है । अविरतसम्यग्दृष्टि आदि गुणस्थानों में बन्ध कम और निर्जरा अधिक होती है । मिश्र गुणस्थान में बन्ध और निर्जरा दोनों ही समान रूप से होती है, किन्तु क्षीणकषाय आदि गुणस्थानों में स्थिति और अनुभागबन्ध का अभाव होकर मात्र निर्जरा ही होती है । इस प्रकार आचार्य गुणभद्र के आत्मानुशासन की टीका में गुणस्थान सम्बन्धी किंचित् सन्दर्भ प्राप्त होता है। नआचार्य हेमचन्द्र के ग्रन्थों में गुणस्थान चर्चा का प्रायः अनुल्लेख k आचार्य हेमचन्द्र आचार्य हरिभद्र के पश्चात् दूसरे ऐसे समर्थ आचार्य हैं, जिन्होंने विविध विषयों पर अपनी लेखनी चलाई है । इनका काल बारहवीं शती है । उन्होंने व्याकरण, दर्शन, चरितकाव्यों एवं साधना तथा योग - इन सभी पक्षों पर ग्रन्थों का सर्जन किया है । उनके इन ग्रन्थों में जैनसाधना की दृष्टि से योगशास्त्र एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । यह ग्रन्थ बारह प्रकाशों में विभक्त है और मुख्य रूप से गृहस्थ जीवन तथा मुनि जीवन की साधना पद्धति का वर्णन करता है। इसके प्रथम प्रकाश में योग की महत्ता बताते हुए ज्ञानयोग, दर्शनयोग और चारित्रयोग का विवेचन है। पुनः द्वितीय प्रकाश एवं तृतीय प्रकाश में श्रावक के बारह व्रतों एवं उनके अतिचारों की चर्चा है । चतुर्थ प्रकाश में राग-द्वेष के परित्याग रूप समभाव की साधना का; पंचम प्रकाश में प्राणायाम, षष्ठ प्रकाश में प्रत्याहार और धारणा का विवेचन है । पुनः सप्तम प्रकाश से लेकर एकादश तक के पांच प्रकाशों में क्रमशः धर्मध्यान और शुक्लध्यान का विवेचन है । ग्यारहवें प्रकाश के अन्त में अर्हद् और सामान्य केवली के स्वरूप का विवेचन है । इसमें केवली समुद्घात आदि का भी वर्णन है । द्वादश प्रकाश में त्रिविध आत्माओं की चर्चा के साथ-साथ परमात्मा के स्वरूप का विवेचन किया गया है । अन्त में मन की स्थिरता, मन पर विजय प्राप्त करने के उपाय आदि की चर्चा है, किन्तु इस समग्र चर्चा में हमें कहीं भी गुणस्थान सम्बन्धी कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। ___आचार्य हेमचन्द्र के अन्य ग्रन्थों में दार्शनिक दृष्टि से अन्ययोगव्यवच्छेदिका६६ और अयोगव्यवच्छेदिका भी प्रमुख है । मूल में ये दोनों ग्रन्थ संक्षिप्त ही हैं । इनके मूल भाग में भी हमें गुणस्थान सम्बन्धी कोई विवेचन उपलब्ध नहीं होता है । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि आचार्य हेमचन्द्र यद्यपि गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा से सुपरिचित रहे है, किन्तु इसके विवेचन में उन्होंने विशेष अभिरुचि प्रदर्शित नहीं की है। भनेमिचन्द्रसूरि के प्रवचनसारोद्धार में गुणस्थान विवेचन * आचार्य राजेन्द्रसूरिजी म.सा. ने अभिधानराजेन्द्रकोष में गुणस्थान सिद्धान्त का विवेचन करते हुए जिन ग्रन्थों का निर्देश किया है, उनमें नेमिचंदसूरि कृत प्रवचनसारोद्धार०० का भी निर्देश है । श्वेताम्बर परम्परा में प्रवचनसारोद्धार एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ माना जा सकता है । इसके कर्ता बृहद्गच्छीय आचार्य नेमिचन्द्रसूरि हैं । इसका रचनाकाल विक्रम की तेरहवीं शताब्दी का प्रारम्भ माना गया है । इस ग्रन्थ पर तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ही चन्द्रगच्छीय आचार्य सिद्धसेनसरि की टीका भी उपलब्ध है । प्रस्तुत कृति लगभग १६०० प्राकृत गाथाओं में निबद्ध है। इसके २७६ द्वारों में जैनदर्शन के २७६ पक्षों पर विस्तृत एवं ३६८ योगशास्त्र, लेखकः हेमचन्द्राचार्य, भाषान्तर : केशरसूरिजी, प्रकाशक : श्री मुक्तिचन्द्र श्रमण आराधना ट्रस्ट गिरिविहार तलेटी रोड़, पालीतणा, वि.सं. २०३३ ई.सन् १९७७ ३६६ अन्ययोगव्यवच्छेद-द्वात्रिंशिका : हेमचन्द्राचार्य, गुजराती भाषान्तर : सा. सुलोचनाश्रीजी प्रकाशक : श्री नवरंगपुरा श्रीसंघ अमदाबाद, वि.सं. २०२४ ४०० प्रचचनसारोद्धार भाग १-२, नेमिचन्द्रसूरिजी, गुजराती अनुवादक : अमितयशविजय, सम्पादक : वज्रसेनविजयजी, टीकाकार : सिद्धसेनसूरिजी, प्रकाशक : ज्ञानमंदिर शाहीबाग अमदाबाद (गुज.) वि.सं. २०४६, वीर.नि. २५१६, ई.सन् २६-१०-१६६२ Jain Education Intemational Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... षष्टम अध्याय........{416) गम्भीर विवेचना उपलब्ध है । विषय वैविध्य और विषयों की व्यापकताओं को देखते हुए डॉ. सागरमल जैन ने इस ग्रन्थ के हिन्दी अनुवाद की भूमिका में इसे जैनविद्या का लघु विश्वकोष ही माना है । सौभाग्य यह है कि व्यापक दृष्टि से विविध विषयों को विवेचित करने के लिए निर्मित इस ग्रन्थ में गुणस्थान सिद्धान्त का विवेचन भी उपलब्ध है । इस ग्रन्थ के ८५ वें परिषह नामक द्वार में गाथा क्रमांक ६६० में परिषहों में गुणस्थानों का अवतरण करते हुए बताया गया है कि अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान तक बाईस परिषह ही सम्भव होते हैं। सूक्ष्मसंपराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह इन तीन गुणस्थानों में चौदह परिषह सम्भव होते हैं। सयोगीकेवली और अयोगीकेवली - इन दो गुणस्थानों में ग्यारह परिषह सम्भव होते हैं । प्रवचन सारोद्धार में परिषहों में गुणस्थानों का सम अवतार तत्त्वार्थ सूत्र की श्वेताम्बर टीकाओं के समरूप ही है । अतः इस सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन आवश्यक नहीं है। पुनः प्रवचनसारोद्धार के नवें उपशमश्रेणी नामक द्वार में (गाथा क्रमांक ७०० से ७०८) उपशमश्रेणी से आरोहण करते हुए किस गुणस्थान में किन-किन कर्मप्रकृतियों का उपशमन करते हुए साधक उपशान्तमोह गुणस्थान को प्राप्त करता है, इसकी विवेचना है । सर्वप्रथम इसमें बताया गया है कि उपशमश्रेणी करनेवाला साधक अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क, दर्शनत्रिक, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्यषट्क, पुरुषवेद का उपशमन करता है और फिर अप्रत्याख्यानीय क्रोध, प्रत्याख्यानीय क्रोध और उसके बाद संज्वलन क्रोध का उपशमन करता है । इसके पश्चात् क्रम से तीनों मान और तीनों माया तथा तीनों लोभ का उपशमन करता है। इसमें भी संज्वलन लोभ की कृष्टि करके उसके संख्यात और असंख्यात खंडों को क्रमपूर्वक ही उपशमित करता है । उस समय वह दसवें सूक्ष्मसंपराय नामक गुणस्थान में होता है । उसके पश्चात् संज्वलन लोभ का पूरी तरह उपशमन करके ग्यारहवें उपशान्तमोह नामक गुणस्थान को प्राप्त करता है । इस प्रकार यहाँ उपशमश्रेणी का साधक किस प्रकार अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थान तक अपनी आध्यात्मिक विकास यात्रा को सम्पन्न करता है, इसकी चर्चा है । प्रवचन सारोद्धार में परिषहों और उपशमश्रेणी के सन्दर्भ में जो गुणस्थानों का अवतरण किया गया है, वह मात्र प्रासंगिक है । गुणस्थानों का स्पष्ट विवरण प्रवचन सारोद्धार में २२४ वें गुणस्थान द्वार में ही मिलता है । यद्यपि यहाँ भी मूल गाथा में तो केवल गुणस्थानों का नाम ही उल्लेखित है, विस्तृत विवरण नहीं है, किन्तु प्रवचन सारोद्धार के टीकाकार सिद्धसेनसूरि तथा गुजराती अनुवादक एवं व्याख्याकार अमितयशविजयजी ने इस प्रसंग में विस्तार से गुणस्थानों के स्वरूप का विवेचन किया है। ___इस प्रकार प्रवचनसारोद्धार के ८५ वें, ६०वें तथा २२४ वें द्वारों में गुणस्थान सिद्धान्त का उल्लेख उपलब्ध होता है । जो विवरण हमें प्राप्त होता है, वह श्वेताम्बर परम्परा की तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं, पंचसंग्रह एवं षट्कर्मग्रन्थों की अपेक्षा अल्प ही है । जो कुछ विस्तृत विवेचन सिद्धसेनसूरि की टीका में है, वह भी अन्यत्र उपलब्ध विवेचनों से कोई नवीन तथ्य प्रस्तुत नहीं करता है, इसीलिए हम इस चर्चा को यहीं विराम देना उचित समझते हैं। त्र नरेन्द्रसेन का सिद्धान्तसार और गुणस्थान : दिगम्बर परम्परा में आचार्य नरेन्द्रसेन विरचित सिद्धान्तसार एक प्रमुख ग्रन्थ है । आचार्य नरेन्द्रसेन लाट्वागड़ संघ के थे । ग्रन्थ के अन्त में उन्होंने अपनी गुरु परम्परा का विस्तार से उल्लेख किया है तथा अपने गुरु का नाम गुणसेनसूरि बताया है। ग्रन्थ प्रशस्ति से इनके काल के सम्बन्ध में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती है । उन्होंने इस सिद्धान्तसार ग्रन्थ के अन्त में निर्जरा तत्व के विवेचन के अन्तर्गत चार ध्यानों का विवेचन किया है । इस ग्रन्थ के ग्यारहवें परिच्छेद के इकतालीसवें श्लोक में यह बताया गया है कि आर्तध्यान मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक, ऐसे छः गुणस्थानों में सम्भव होता है। ४०१ सिद्धान्तसार संग्रह : नरेन्द्रसेनाचार्य, सम्पादक : डॉ. आदिनाथ उपाध्याय, डॉ. हीरालाल, प्रकाशनः श्री गुलाबचन्द दोशी, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर, वी.नि.सं. २४८३, वि.सं. २०१३, ई.सन् १६५७ Jain Education Intemational Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... षष्टम अध्याय........{417} इसी क्रम में आगे ग्यारहवें परिच्छेद के छयालीसवें श्लोक में रौद्रध्यान के स्वामी की चर्चा करते हुए यह कहा गया है कि रौद्रध्यान प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर पंचम संयतासंयत गुणस्थान तक सम्भव होता है। ग्यारहवें परिच्छेद के अट्ठावनवें श्लोक में धर्म ध्यान के स्वामी की चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव को होता है। अन्त में शुक्लध्यान के स्वामी की चर्चा करते हुए ग्यारहवें परिच्छेद के इकसठ से तिरसठ तक के श्लोक में यह कहा गया है कि शुक्लध्यान के चारों भेदों में प्रथम दो भेद श्रुतकेवली मुनियों को होते हैं, गुणस्थान की अपेक्षा से अपूर्वकरण गुणस्थान से लेकर उपशान्तकषाय गुणस्थान तक प्रथम पृथक्त्ववितर्क नामक शुक्लध्यान होता है । क्षीणकषाय गुणस्थान में एकत्ववितर्कअविचार नामक शुक्लध्यान का द्वितीय चरण होता है । पुनः शुक्लध्यान के अन्तिम दो चरण क्रमशः सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव को होते हैं । इसके अतिरिक्त सिद्धान्तसार ग्रन्थ में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कोई विवेचन हमें उपलब्ध नहीं होता है। विनयविजयकृत लोक प्रकाश में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचना आगमसाहित्य और कर्मसाहित्य से भिन्न जिन कृतियों में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी उल्लेख प्राप्त होता है, उनमें महोपाध्याय विनयविजय गणि कृत लोकप्रकाश:०२ एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । इन ग्रन्थ के कर्ता महोपाध्याय विनयविजयजी उपाध्याय यशोविजयजी के गुरु भ्राता एवं सह अध्येता रहे हैं । इनका काल ईसा की सत्रहवीं शताब्दी माना जा सकता है । यद्यपि लोकप्रकाश का मुख्य प्रतिपाद्य तो लोक के स्वरूप का विचार करना है, किन्तु इसके तृतीय सर्ग में चौदह गुणस्थानों का विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है । इस ग्रन्थ के तृतीय सर्ग के ३० ३ द्वार के श्लोक क्रमांक ११३१ से १३०३ तक लगभग १७२ श्लोकों में चौदह गुणस्थानों के स्वरूप का विवेचन है । यद्यपि मूल ग्रन्थ संस्कृतभाषा में रचित है, किन्तु कुछ स्थानों पर कर्मग्रन्थों की प्राकृत गाथाओं को भी उद्धृत कर दिया गया है । प्रस्तुत कृति में उन्होंने न केवल देवेन्द्रसूरिकृत कर्मग्रन्थों का उपयोग किया है, अपितु इसके अतिरिक्त महाभाष्य, भाष्यवृत्ति, कर्मग्रन्थ लघुवृत्ति, कर्मग्रन्थ अवचूरि आदि से भी अवतरण लिए हैं । श्लोक क्रमांक १२६६ के पश्चात् भगवतीसूत्र और उसकी वृत्ति का भी उल्लेख किया गया है । गुणस्थान सम्बन्धी इस विवेचन में उन्होंने मुख्य रूप से गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय आदि की भी चर्चा की है । गुणस्थान सम्बन्धी इस चर्चा में प्रस्तुत कृति की विशेषता मात्र यही है कि प्रस्तुत कृति में श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित सास्वादन शब्द के स्थान पर सासादन शब्द का प्रयोग भी उचित माना है । श्लोक क्रमांक ११४१ से ११४४ में कहा गया है कि जो आसादन से युक्त है, उसे सासादन कहते हैं । यहाँ आसादन को अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय का वाचक माना है । अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय आत्मा के स्वरूप का घातक होने से इसे सासादन कहा जाता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि महोपाध्याय विनयविजयजी ने दिगम्बर परम्परा में प्रचलित द्वितीय गुणस्थान के सासादन शब्द को प्रमुखता दी है । इसके अतिरिक्त उन्होंने उपशमश्रेणी से किस गुणस्थानवी जीव आध्यात्मिक विकास की यात्रा करता है, इस सम्बन्धी मतभेद का भी उल्लेख किया है । यहाँ उन्होंने कर्मग्रंथ की अवचूरि का उद्धरण देते हुए यह बताया है कि सामान्य मान्यता यह है कि अप्रमत्त यति अर्थात् सातवें गुणस्थानवर्ती मुनि ही उपशमश्रेणी से आध्यात्मिक विकास करता है, किन्तु कुछ आचार्यों की मान्यता यह है कि उपशमश्रेणी से यात्रा अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक का कोई भी जीव कर सकता है। इस ग्रन्थ में गुणस्थान सम्बन्धी शेष विवेचन तो कर्मग्रन्थों पर ही आधारित है, इसीलिए पुनरावृत्ति और विस्तार भय को दृष्टिगत रखते हुए हम इसे यहाँ विराम देते हैं। इनके अतिरिक्त आधुनिक युग में भी कुछ ऐसे ग्रन्थ है; जिनमें हमें गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन विस्तार से उपलब्ध हो ४०२ लोकप्रकाश भाग-१, द्रव्यलोक : विनयविजयगणि, सम्पादक : वज्रसेन विजयजी, प्रकाशक : कोठारी भेरूलाल कनैयालाल रीलीजीयस ट्रस्ट, मुंबई-६ Jain Education Intemational Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... षष्टम अध्याय........{418} जाता है । अतः उन ग्रन्थों का निर्देश करना भी यहाँ हमें आवश्यक प्रतीत होता है । इन ग्रन्थों में मुख्य रूप से अभिधानराजेन्द्रकोष, जैनेन्द्रसिद्धान्तकोष, पंडित सुखलालजी कृत कर्मग्रन्थों की भूमिका, आचार्य देवेन्द्रमुनि कृत कर्मविज्ञान महत्वपूर्ण है। हम इसी क्रम से उनके सन्दर्भ में यहाँ विचार प्रस्तुत करेंगे। इनमें अभिधान राजेन्द्रकोष और जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष ये दोनों कोष ग्रन्थ है। अतः सर्वप्रथम इन दोनों का उल्लेख करने के पश्चात् हमने पं. सुखलालजी कृत कर्मग्रन्थों की भूमिकाओं में पं. सुखलालजी ने गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी जो चर्चा की है, उसका उल्लेख किया है । उसके पश्चात् आचार्य देवेन्द्रमुनिजी द्वारा कर्मविज्ञान में जो गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन उपलब्ध होता है, उसका उल्लेख किया है। राजेन्द्रसूरिजी कृत अभिधानराजेन्द्रकोष और गुणस्थान सिद्धान्त k जैन विश्वकोषों में अभिधानराजेन्द्रकोष' और जैनेन्द्रसिद्धान्त कोष विषय प्रतिपादन की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। जहाँ अभिधानराजेन्द्रकोष श्वेताम्बर साहित्य को आधार बनाकर जैनधर्म-दर्शन सम्बन्धी विषयों का प्रतिपादन करता है, वहीं जैनेन्द्रसिद्धान्तकोष दिगम्बर साहित्य को आधार बनाकर जैनधर्म-दर्शन सम्बन्धी विभिन्न विषयों को प्रस्तुत करता है । दोनों ग्रन्थों में एक महत्वपूर्ण अन्तर यह है कि जहाँ अभिधानराजेन्द्रकोष विषयों का प्रतिपादन मूल ग्रन्थों के आधार पर केवल प्राकृत और संस्कृत में प्रस्तुत करता है, वहीं जैनेन्द्रसिद्धान्तकोष प्राकृत और संस्कृत के साथ-साथ हिन्दी में भी विषयों का प्रस्तुतिकरण करता है । जहाँ तक गुणस्थान सम्बन्धी विवेचनाओं का प्रश्न है, जैनेन्द्रसिद्धान्तकोष की अपेक्षा अभिधानराजेन्द्रकोष में यह चर्चा अधिक विस्तार के साथ उपलब्ध होती है। ___अभिधान राजेन्द्रकोष के निर्माता आचार्य श्री राजेन्द्रसूरिजी महाराज साहब हैं । जैनाचार्यों की परम्परा में इस युग के विशिष्ट विद्वान आचार्य माने जा सकते हैं । आपका जन्म राजस्थान भूमि के भरतपुर नगर में पारख गोत्रीय कुल में विक्रम संवत् १८८३ पौष शुक्ल सप्तमी गुरुवार तदनुसार दिसम्बर ३ सन् १६२७ को हुआ था । आपने विक्रम संवत् १६०३ वैशाख शुक्ल पंचमी शुक्रवार को उदयपुर (मेवाड़) में दीक्षा ली और आपका नाम मुनि श्री रत्नविजयजी रखा गया । आपको बृहद् दीक्षा विक्रम संवत् १६०६ वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन उदयपुर (मेवाड़) में दी गई । आचार्य श्रीप्रमोदसूरिजी ने विक्रम संवत् १६२७ वैशाख शुक्ल पंचमी बुधवार को आपको आहोर (मारवाड़) में आचार्य पद से विभूषित किया गया । आपने प्रथम यतिदीक्षा को स्वीकार किया, किन्तु यति परम्परा के शिथिलाचार को देखकर आपने शुद्ध संयम मार्ग को स्वीकार करने हेतु विक्रम संवत् १६२५ को जावरा में क्रियोद्धार कर मुनि दीक्षा को स्वीकार किया। आपका जैनधर्म-दर्शन और साहित्य का ज्ञान विपुल था । आपने संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती, मारवाड़ी भाषा का तथा न्याय, व्याकरण, दर्शन, साहित्य, काव्य तथा जैनागमों का गम्भीरता से अध्ययन किया और आपने अपने साठ साल के संयम काल में संस्कृत प्राकृत आदि भाषा में अनेक ग्रन्थों की रचना की । अभिधानराजेन्द्रकोष जैसे महाकोष से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि आपश्री ने आगम आगमिक व्याख्याओं के साथ-साथ जैन आचार्यों के द्वारा प्रणीत समस्त श्वेताम्बर साहित्य का गम्भीरता से आलोडन और विलोडन किया था । अभिधानराजेन्द्रकोष महाकोष का सात खण्डों में तथा लगभग १०००० पृष्ठ संख्या में निर्माण किया । आपका स्वर्गवास अस्सी वर्ष की आयु में हुआ, फिर भी आपने ७६ वर्ष की अवस्था तक ग्रन्थ रचना का कार्य नहीं छोड़ा और अभिधानराजेन्द्रकोष के कार्य को पूर्ण किया । विशालतम अभिधानराजेन्द्रकोष को आपश्री ने लगभग चौदह वर्ष में पूर्ण किया । इस अभिधानराजेन्द्रकोष का निर्माण कर विक्रम संवत् १६६३ को राजगढ़ (मालवा) में आपश्री स्वर्गस्थ हुए । आचार्य श्री राजेन्द्रसूरिजी का समग्र जीवन और उनका जीवंत प्रतिनिधि अभिधानराजेन्द्रकोष ४०३ अभिधानराजेन्द्रकोष : रचयिता श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी म., प्रकाशन : अभिधान राजेन्द्रकोष प्रकाशन संस्था, अमदाबाद द्वितीय संस्करण : वी.नि.सं. २५१३, ई.सन्. १९८६, राजेन्द्र संवत् ७८ Jain Education Interational ation International Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.... षष्टम अध्याय........{419) विश्व संस्कृति का मंगलाचरण है। जहाँ तक अभिधानराजेन्द्रकोष में प्रस्तुत गुणस्थान सम्बन्धी विवेचना का प्रश्न है, अभिधानराजेन्द्रकोष के तृतीय विभाग में पृष्ठ संख्या ६१३ से लेकर ६१७ तक वृहद् आकार के १५ पृष्ठों में इस विषय का विवेचन उपलब्ध होता है । अभिधानराजेन्द्रकोष के चतुर्थ भाग में जीवस्थान सम्बन्धी विवेचन उपलब्ध होता है । इसमें गुणस्थानों की परिभाषा, गुणस्थानों के स्वरूप के साथ-साथ गुणस्थानों में जीवस्थान, जीवस्थानों में गुणस्थान, गुणस्थानों में बन्ध, बन्धहेतु, गुणस्थानों में उदय, उदीरणा, गुणस्थानों में भाव, गुणस्थानों में मार्गणास्थान, मार्गणास्थानों में गुणस्थान तथा गुणस्थानों में उपयोग - ऐसे तेरह विषयों को लेकर गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन उपलब्ध होता है । इस समस्त चर्चा में आचार्यश्री ने जहाँ एक ओर समयावांग जैसे मूल आगम और उसकी टीका को आधार बनाया है, वहीं इस समग्र विवेचना में पंचसंग्रह, कर्मग्रन्थ और उनकी संस्कृत टीकाओं को भी आधार बनाकर विषयों का प्रस्तुतिकरण किया है । वैसे अभिधानराजेन्द्रकोष में प्रस्तुत गुणस्थान सम्बन्धी यह सब विवेचन हम पंचसंग्रह और कर्मग्रन्थों के प्रसंग में कर चुके हैं । अतः यहाँ हमारा विषय निर्देश करके ही संतोष करेंगे, क्योंकि पुनः प्रस्तुतिकरण में पिष्ट-पेषण और ग्रन्थ विस्तार का भय समाहित है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जहाँ अभिधान राजेन्द्रकोष में गुणठाण शब्द के विवेचन में यह समस्त चर्चा आती है, किन्तु इसके अतिरिक्त भी गुणस्थान से सम्बन्धित विभिन्न शब्दों जैसे जीवस्थान, मार्गणास्थान, बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता आदि की यथास्थान जो चर्चाएं है, उनमें भी गुणस्थान सम्बन्धी निर्देश उपलब्ध हैं। जीवस्थान और गुणस्थान के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर प्राचीनकाल से ही चर्चा होती रही है । षट्खण्डागम, समवायांग, जीवसमास आदि ग्रन्थों में तो जीवस्थान या जीवसमास के नाम से ही गुणस्थानों की चर्चा है । यद्यपि परवर्ती काल में जीवस्थान और गुणस्थान को अलग-अलग करके उनके पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर विस्तृत विवेचन हुआ है । तत्त्वार्थसूत्र श्वेताम्बर-दिगम्बर टीकाओं तथा कर्मग्रन्थों में जीवस्थान और गुणस्थान के पारस्परिक सम्बन्ध को समझाया गया है । आचार्य श्री राजेन्द्रसूरिजी के अभिधानराजेन्द्रकोष में चतुर्थ कर्मग्रन्थ षड्शीति के आधार पर जीवस्थानों की चर्चा का मुख्य आधार इन्द्रिय विचारणा ही रही है । पांच इन्द्रियों के आधार पर जीवों के मुख्य रूप से पांच प्रकार होते हैं । उसमें एकेन्द्रिय जीवों के सूक्ष्म और बादर - ऐसे भी दो भेद होते है । पंचेन्द्रिय जीवों के असंज्ञी और संज्ञी - ऐसे दो भेद माने गए हैं । इस प्रकार कुल सात भेद माने गए है । इसमें प्रत्येक का पर्याप्त और अपर्याप्त - ऐसे दो-दो भेद मानकर जीवस्थान के निम्न चौदह भेद किए गए हैं - (१) सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त (२) सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त (३) बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त (४) बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त (५) द्वीन्द्रिय अपर्याप्त (६) द्वीन्द्रिय पर्याप्त (७) त्रीन्द्रिय अपर्याप्त (८) त्रीन्द्रिय पर्याप्त (E) चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त (१०) चतुरिन्द्रिय पर्याप्त (११) असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त (१२) असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त (१३) संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त (१४) संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त। उपर्युक्त चौदह जीवस्थानों में चतुर्थ कर्मग्रन्थ की तीसरी गाथा में यह स्पष्ट किया गया है कि अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, अपर्याप्त द्वीन्द्रिय, अपर्याप्त त्रीन्द्रिय, अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय तथा अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय -इन पांच जीवस्थानों में प्रथम और द्वितीय - ये दो गुणस्थान सम्भव होते हैं । अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय में मिथ्यादृष्टि, सास्वादन और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान ये तीन गुणस्थान सम्भव होते हैं । संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव में चौदह ही गुणस्थान सम्भव होते हैं । शेष सात अर्थात् पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, पर्याप्त द्वीन्द्रिय, पर्याप्त त्रीन्द्रिय, पर्याप्त चतुरिन्द्रिय, पर्याप्त अंसज्ञी पंचेन्द्रिय इन सात जीवस्थानों में मात्र मिथ्यात्व गुणस्थान होता है । यहाँ इस प्रश्न की विस्तृत विचारणा अपेक्षित है कि इन चौदह जीवस्थानों के सन्दर्भ में किस जीवस्थान में कौन-सा गुणस्थान होगा? इसका निर्णय किस आधार पर किया गया है। गुणस्थानों की विकास यात्रा तो विवेक शक्ति या संज्ञित्व की उपलब्धि पर ही प्राप्त होती है । संज्ञित्व की प्राप्ति केवल पंचेन्द्रिय Jain Education Intemational Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... षष्टम अध्याय........{420} जीवों में ही सम्भव है । अतः जिन जीवस्थानों में संज्ञित्व का अभाव है, वहाँ पर्याप्त दशा में तो निश्चय से ही मिथ्यात्व गुणस्थान होता है; किन्तु अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, अपर्याप्त द्वीन्द्रिय, अपर्याप्त त्रीन्द्रिय, अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय और अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय - इन पांच जीवस्थानों में जो मिथ्यात्व और सास्वादन - ये दो गुणस्थान मानने का मुख्य कारण यह है कि जीव को एक औदारिक और वैक्रिय शरीर को छोड़कर दूसरे औदारिक और वैक्रिय शरीर को ग्रहण करने के मध्य जो समय लगता है, उसी अवस्था में अपर्याप्त दशा रहती है । यह सम्भव है कि कोई जीव सास्वादन की अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त करके अन्य योनि में जन्म लेता है। यह भी सम्भव है कि संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव मरकर बादर एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक की किसी भी जीव जाति में उत्पन्न हो सकते हैं । वे जीव जब तक पर्याप्ति पूर्ण नहीं करते हैं, तब तक वे मिथ्यात्व का ग्रहण भी नहीं करते हैं । अतः इस अपेक्षा से यह माना जाता है कि अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, अपर्याप्त द्वीन्द्रिय, अपर्याप्त त्रीन्द्रिय, अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय, अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में अपर्याप्त दशा में प्रथम दो गुणस्थान सम्भव माने गए है। संज्ञी पंचेन्द्रिय जाति में जन्म लेनेवाला यदि पूर्व भव में सम्यक्त्व का धारक रहा हो, तो वह अपनी अपर्याप्त अवस्था में ही सम्यक्त्व का भी धारक माना जाता है । अतः अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय में मिथ्यात्व, सास्वादन और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान -ये तीन गुणस्थान सम्भव माने जाते हैं। यह जीव जब तक पर्याप्ति पूर्ण नहीं कर पाता है, तब तक अपनी आध्यात्मिक विकास यात्रा को आगे नहीं बढ़ा पाता है । इसीलिए उसमें इन तीन गुणस्थानों से आगे के गुणस्थान नहीं पाए जाते हैं । यहाँ यह विचार हो सकता है कि अविरतसम्यग्दृष्टि चौथे गुणस्थान के अतिरिक्त मिश्र गुणस्थान भी तो है । अपर्याप्त जीवों में उसकी सत्ता क्यों नहीं मानी गई, इसका कारण यह है कि मिश्र गुणस्थान में कभी मृत्यु सम्भव नहीं होती है । अतः पर्याप्ति पूर्ण करने के बाद ही मिश्र गुणस्थान की संभावना हो सकती है । मिश्र गुणस्थान केवल उन्हीं जीवों को सम्भव होता है जो या तो पूर्व में सम्यक्त्व का वमन कर चुके हैं और पुनः सम्यक्त्व की और अग्रसर हो रहे हैं अथवा जो सम्यक्त्व को प्राप्त कर उससे च्युत हो रहे हैं । सम्यक्त्व को प्राप्त वह जीव, जिसने सम्यक्त्व का वमन किया है, किन्तु अभी मिथ्यात्व को ग्रहण नहीं किया है, सूक्ष्म एकेन्द्रिय में उत्पन्न नहीं होता है। केवल मिथ्यादृष्टि जीव ही सक्ष्म एकेन्द्रिय में उत्पन्न हो सकते हैं । सास्वादन गुणस्थान से युक्त जीव भी सूक्ष्म एकेन्द्रिय में उत्पन्न नहीं होते हैं । अतः सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों में अपर्याप्त दशा में भी सास्वादन गुणस्थान की सम्भावना नहीं है । सास्वादन को लेकर कोई भी जीव सूक्ष्म एकेन्द्रिय में उत्पन्न नहीं होता है, इसी कारण वहीं उसका अभाव कहा गया हैं। विभिन्न जीवस्थानों में विभिन्न कर्मप्रकृतियों के बन्ध-सत्ता-उदय, उदीरणा आदि का जो विचार होता है, उसी आधार पर उनमें गुणस्थानों की सत्ता भी सम्भव मानी जा सकती है। परमपूज्य राजेन्द्रसूरिजी ने अभिधान राजेन्द्रकोष में गुणस्थानों की चर्चा के प्रसंग में द्वितीय कर्मग्रन्थ की छठी गाथा की टीका में सप्ततिका नामक ग्रन्थ की मलयगिरि म.सा. की टीका का सन्दर्भ देते हुए पंचसंग्रह के सप्ततिका नामक तृतीय खण्ड की ३८वीं गाथा में यह कहा है कि मिथ्यादृष्टि आत्मा में मोहनीयकर्म की कितनी प्रकृति की सत्ता होती है । वहाँ कहा गया है कि अनादि मिथ्यादृष्टि जीव में मिथ्यात्व मोहनीय की २६ प्रकति का एक सत्तास्थान होता है। अनादि मिथ्यादष्टि आत्मा ने कभी भी सम्म किया है, अतः वह मिथ्यात्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय और सम्यक्त्व मोहनीय - ऐसे तीन विभाजन करने में समर्थ नहीं होता है । अतः उसमे मिथ्यात्व मोहनीय की बन्ध योग २६ प्रकृतियों की एक साथ सत्ता होती है । जो आत्मा कभी सम्यक्त्व का स्पर्श कर मिथ्यात्व में आ गई है, उसमें मिथ्यात्व मोहनीय की २७ अथवा २६ प्रकृतियों की सत्ता होती है । सम्यक्त्व मोहनीय के अभाव से २७ तथा सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्र मोहनीय के अभाव से २६ की सत्ता हो सकती है। जिस मिथ्यादृष्टि आत्मा ने एक बार अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना की है, किन्तु अभी मिथ्यात्व का क्षय नहीं किया है, उसमें मिथ्यात्व मोहनीय की चौबीस कर्मप्रकृतियाँ सत्ता में हो सकती हैं । उसमें अप्रत्याख्यानीय चतुष्क, प्रत्याख्यानीय चतुष्क, संज्वलन चतुष्क - ये बारह कषाय, नौ नोकषाय और मिथ्यात्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय तथा सम्यक्त्व मोहनीय-ऐसी २४ प्रकृतियाँ सत्ता में रहती है । यहाँ यह ज्ञातव्य Jain Education Intemational Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.. षष्टम अध्याय........{421} है कि यदि उसने मिथ्यात्व मोहनीय का क्षय नहीं किया है, तो वह पुनः अनन्तानुबन्धी का बन्ध कर सकती है, क्योंकि जब तक मिथ्यात्व मोहनीय की सत्ता है, तब तक अनन्तानुबन्धी के बन्ध की पुनः संभावना रहती है । परमपूज्य राजेन्द्रसूरिजी ने अभिधानराजेन्द्रकोष में गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा के प्रसंग में पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की ४३ वीं गाथा की टीका में पंचवस्तुक का सन्दर्भ देते हुए यह प्रश्न उठाया है कि प्रमत्तसंयत गुणस्थान का काल देशोनपूर्वकोटि माना गया है, अर्थात् पूर्वकोटि से कुछ कम माना गया है । उसमें कम से कम तात्पर्य आठ वर्ष की दीक्षा योग्य वय को लेकर है। यहीं यह प्रश्न उठाया गया है कि आठ वर्ष की उम्र के पूर्व देशविरति या सर्व विरति अर्थात् श्रावक या मुनि के व्रतों का ग्रहण हो सकता है या नहीं हो सकता है ? इसी प्रसंग में आचार्य राजेन्द्रसूरिजी ने पंचवस्तुक के भगवान वज्रस्वामी के जीवनवृत्त को प्रस्तुत किया है । यह माना जाता है कि वज्रस्वामी छः माह की अवस्था में ही षट्जीवनिकाय के प्रति संयमशील बने । आचार्य राजेन्द्रसूरिजी का मानना है कि वज्रस्वामी का यह कथानक आश्चर्य रूप में ही मानना चाहिए, क्योंकि सिद्धान्त ग्रन्थों में देशविरति या सर्वविरति के ग्रहण करने योग्य आयु आठ वर्ष की मानी गई है । अतः गुणस्थानों की इस चर्चा के प्रसंग में देशविरति और सर्वविरति दोनों के लिए आठ वर्ष की आयु आवश्यक मानकर ही विवेचना की गई है। परमपूज्य राजेन्द्रसूरिजी ने अभिधानराजेन्द्रकोष में षड्शीति नामक चतुर्थ कर्मग्रन्थ की ५३ वीं गाथा की टीका में 'चतुः' (चउ) शब्द के अर्थ का स्पष्टीकरण करते हुए यह बताया है कि यहाँ मिथ्यात्व से लेकर अविरत सम्यग्दृष्टि तक के चार गुणस्थानों का ग्रहण होता है । इसके प्रमाण में आचार्य हेमचन्द्र के हेमशब्दानुशासन का सूत्र ‘अतोऽनेकस्वरात्' ७/२/६ प्रस्तुत किया गया ___ इसी प्रकार अभिधान राजेन्द्र कोष में षड्शीति नामक चतुर्थ कर्मग्रन्थ की ४८ वीं गाथा की टीका में गुणस्थानों में उपयोग का अवतरण करते हुए 'यति' शब्द का स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है कि जो सर्वसावध कार्यों से विरत है, वह यति है । ऐसा आचार्य हेमचन्द्र के शब्दानुशासन के 'अभ्रादिभ्य' नामक सूत्र से ७/२/४६ से सिद्ध किया गया है । आगे इसे अधिक स्पष्ट करते हुए यह बताया गया है कि प्रमत्तसयंत, अप्रमत्तसंयत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिबादरसम्पराय, सूक्ष्मसम्पराय, उपशान्तमोह और क्षीणमोह-इन सात गुणस्थानों में यह लक्ष्य घटित होता है, क्योंकि ये सभी गुणस्थानवी जीव यति कहे जाते हैं। जहाँ तक इस समग्र विवेचन के वैशिष्ट्य का प्रश्न है, आचार्य श्री राजेन्द्रसूरिजी ने इस विवेचन के अन्त में गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणाओं को लेकर हरिविजयसूरि और विमलहर्षगणि में जो प्रश्नोत्तर हुए, उसका भी निर्देश किया है । इसमें विशेष विवेचन इस बात को लेकर है कि मुनि का छठे गुणस्थान से सातवें और सातवें गुणस्थान से पुनः छठे गुणस्थान में आवागमन क्यों होता रहता है ? इसके उत्तर का सार इतना ही है कि अध्यवसायों के वैचित्र्य के कारण ही मुनिगण छठे और सातवें गुणस्थान में आवागमन करते है। इस कोषग्रन्थ का दूसरा वैशिष्ट्य यह है कि पंचसंग्रह, कर्मग्रन्थ आदि में जो गुणस्थान सम्बन्धी विस्तृत चर्चाएं उपलब्ध हैं, उन्हें यहाँ साररूप में एक ही स्थान पर प्रस्तुत कर दिया गया है । इसका लाभ यह है कि जन सामान्य एक ही स्थान पर उस समग्र विवेचन को देख सकते हैं, किन्तु कठिनाई एक ही है कि इस ग्रन्थ में विषयों का प्रस्तुतिकरण मूल प्राकृत गाथाओं तथा उनकी संस्कृत टीकाओं के रूप में ही हुआ है । अतः इन भाषाओं को जाननेवाले व्यक्ति ही इनका लाभ उठा पाते हैं । वर्तमान युग में हिन्दी भाषा-भाषी जनसाधारण उसके लाभ से वंचित रह जाता है । भविष्य में यदि इस ग्रन्थ का अनुवाद के साथ प्रकाशन हो, तो यह ग्रन्थ जो आज विद्वान भोग्य बना हुआ है, वह जन भोग्य भी बन सकेगा। Jain Education Intemational Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.... षष्टम अध्याय........{422} जिनेन्द्र वर्गीकृत जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष और गुणस्थान k जैन कोष साहित्य में जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष का महत्वपूर्ण स्थान है । वस्तुतः यह ग्रन्थ मात्र शब्द कोष न होकर जैन विद्या का भी विश्वकोष ही है, जिसमें जैनधर्म-दर्शन, साहित्य, इतिहास आदि से सम्बन्धित विविध विषयों का मूल ग्रन्थों के आधार पर प्रामाणिक विवेचन उपलब्ध हो जाता है । यह ग्रन्थ मूलतः दिगम्बर आचार्यों के साहित्य को ही आधार बनाकर निर्मित हुआ है, अतः इस ग्रन्थ में श्वेताम्बर संदर्भो का प्रायः अभाव ही है । जिस प्रकार आचार्य राजेन्द्रसूरिजी ने श्वेताम्बर आचार्यों द्वारा प्रणित साहित्य को आधार बनाकर अभिधानराजेन्द्रकोष की रचना की थी। उसी क्रम में क्षुल्लक जिनेन्द्रवर्णीजी ने जैनेन्द्रसिद्धान्तकोष की रचना की, किन्तु अभिधानराजेन्द्रकोष की अपेक्षा इस ग्रन्थ का वैशिष्ट्य यह है कि मूल प्राकृत संस्कृत संदर्भो के साथ-साथ इसमें हिन्दी विवेचन भी प्रस्तुत किया गया है । इसके कारण यह ग्रन्थ विद्वत् भोग्य होने के साथ-साथ जन भोग्य भी है । क्षुल्लक जैनेन्द्रवर्णीजी के जीवनवृत्त के सन्दर्भ में हमें विशेष जानकारी तो उपलब्ध नहीं है, किन्तु चार खण्डों में प्रकाशित जैनेन्द्रसिद्धान्तकोष को देखकर यह तो निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि क्षुल्लक जैनेन्द्रवर्णीजी दिगम्बर साहित्य के गहन अध्येता रहे हैं। उन्होंने शताधिक ग्रन्थों का आलोडन और विलोडन करके इस कोष की रचना की है। जैनेन्द्रसिद्धान्तकोष के द्वितीय भाग में पृष्ठ संख्या २४५ से २४७ तक गुणस्थान संबधी निर्देश उपलब्ध होते है । इसमें गुणस्थानों की सामान्य परिभाषा और उनके नाम निर्देश के साथ-साथ गुणस्थानों की उत्पत्ति क्यों होती हैं ? जितने परिणाम है; उतने गुणस्थान क्यों नहीं होते हैं ? ऐसे प्रश्न भी उठाकर मूल ग्रन्थों के आधार पर उनके समाधान देने का भी प्रयत्न किया गया है । साथ ही इस बात को भी स्पष्ट किया गया है कि चतुर्थ गुणस्थान का सम्यग्दृष्टि पद और पांचवे गुणस्थान का विरतपद अन्तर्दीपक है । ये पद पूर्व के गुणस्थानों में उनके अभाव को और आगे-आगे के गुणस्थानों में उनके सद्भाव को सूचित करते हैं । अभिधानराजेन्द्रकोष की अपेक्षा जैनेन्द्रसिद्धान्तकोष में गुणस्थान सम्बन्धी यह विवरण अति संक्षिप्त है, फिर भी क्षुल्लक जैनेन्द्रवर्णीजी ने कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों को उपस्थित कर उनका समाधान देते हुए इसके वैशिष्ट्य को बनाए रखा है । त्रपं. सुखलालजी संघवी की कर्मग्रन्थों की प्रस्तावना में गुणस्थान सिद्धान्त सुखलालजी वर्तमान युग के भारतीय धर्म-दर्शन और विशेष रूप से जैनधर्म-दर्शन के उभट विद्वानों में माने जाते हैं। आपके द्वारा लिखित एवं सम्पादित अनेक ग्रन्थ हैं । जहाँ तक गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी आपकी विवेचनाओं का प्रश्न है, वह मुख्य रूप से आपके द्वारा लिखित नवीन पंचकर्मग्रन्थों की भूमिका में मिलती है । सर्वप्रथम आपने द्वितीय कर्मस्तव नामक कर्मग्रन्थ की भूमिका में गुणस्थानों के सामान्य रूप की चर्चा की है। इसमें आपने गुणस्थानों को आध्यात्मिक विकास क्रम के रूप में उल्लेखित किया है और यह बताया है कि यह क्रम आध्यात्मिक विकास का क्रम है । बन्धस्वामित्व नामक तृतीय कर्मग्रन्थ की प्रस्तावना में आपने मार्गणास्थान और गुणस्थान के पारस्परिक अन्तर को स्पष्ट किया है । आपके अनुसार मार्गणा का सम्बन्ध जीवों के वैविध्य को लेकर है, तो गुणस्थान का सम्बन्ध आत्मा के चारित्र शक्ति का विकास है । मार्गणा शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विभिन्नताओं को सूचित करती है, जबकि गुणस्थान जीव के मोहनीय कर्म के तरतम भाव पर अवलम्बित है। मार्गणाएं सहभाविनी है, किन्तु गुणस्थान क्रमभावी है । इस प्रकार आपने इस भूमिका में मार्गणास्थान और गुणस्थानों के पारस्परिक अन्तर को गम्भीरता से स्पष्ट किया है । चतुर्थ षड्शीति नामक कर्मग्रन्थ की भूमिका में जीवस्थान, मार्गणास्थान, गुणस्थान, भाव और अल्प-बहुत्व-इन पांच विषयों की चर्चा है । इसमें गुणस्थानों में जीवस्थान और जीवस्थानों में गुणस्थान ४०४ जैनेन्द्रसिद्धान्तकोष, लेखक : क्षु. जिनेन्द्रवर्णी, सम्पादक : डॉ. हीरालाल जैन, प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ, ३६२०/२१ नेताजी सुभाष मार्ग दिल्ली, प्रथम संस्करण - सन् १९७१ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... षष्टम अध्याय........{423} आदि की भी विशेष रूप से चर्चा की गई है । इसी चतुर्थ कर्मग्रन्थ की भूमिका में आपने गुणस्थानों के विशेष स्वरूप पर प्रकाश डाला है तथा विशेषावश्यकभाष्य आदि मूल ग्रन्थों के आधार पर गुणस्थानों में आध्यात्मिक विकास किस क्रम से और किस रूप से होता है, इसका विवेचन किया है । इसमें लोकप्रकाश के आधार पर ग्रंथिभेद की विशेष रूप से चर्चा की है और इसी चर्चा के प्रसंग में उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी का वर्णन आपने किया है। यहाँ पर आपने आध्यात्ममतपरीक्षा आदि ग्रन्थों के आधार पर बहिरात्मा, अन्तरात्मा, परमात्मा का विवेचन करते हुए ये तीनों भूमिकाएं गुणस्थानों से किस प्रकार सम्बन्धित है, इसका विशेष रूप से विवेचन किया है । इस भूमिका के अन्त में गणस्थान सिद्धान्त को लेकर विभिन्न दर्शनों से तलनात्मक विवेचन भी प्रस्तत किया है। विशिष्ट रूप से आपने योगवाशिष्ठ, पातंजलि योगसूत्र को लेकर इस संबन्ध में विस्तृत चर्चा की है। चूंकि हम यह तुलनात्मक अध्ययन अग्रिम अध्याय में प्रस्तुत कर रहे हैं, अतः यहाँ विस्तृत विवेचन करना आवश्यक नहीं समझते, किन्तु अन्य दर्शनों के साथ गुणस्थान सिद्धान्त की तुलनात्मक विवेचना की दृष्टि से यदि किसी व्यक्ति ने शोधपूर्ण कार्य किया है, तो पं. सुखलालजी ने किया है । इसके अतिरिक्त आपने आचार्य हरिभद्र और उपाध्याय यशोविजयजी के द्वारा वर्णित आध्यात्मिक विकास की विभिन्न अवस्थाओं की तुलना भी गुणस्थान सिद्धान्त के साथ की है । इस प्रकार पं. सुखलालजी ने चाहे गुणस्थान के सन्दर्भ में स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना न की हो, किन्तु इस सम्बन्ध में उनका जो चिंतन है, वह निश्चित ही आधुनिक युग के परवर्ती लेखकों के लिए मार्गदर्शक है । उनके द्वारा लिखी कर्मग्रन्थों की ये प्रस्तावनाएं दर्शन और चिंतन०५ नामक ग्रन्थ के द्वितीय खण्ड में उपलब्ध हैं। - आचार्य देवेन्द्रमुनिजी कृत कर्मविज्ञान में गुणस्थान सिद्धान्त आचार्य देवेन्द्रमुनिजी स्थानकवासी परम्परा में श्रमणसंघ के तृतीय आचार्य रहे हैं । आपका जन्म उदयपुर के एक सम्पन्न । परिवार में दिनांक ७/११/१६३१ को हुआ था । आपने अपनी माता और भगिनियों के साथ उपाध्याय पुष्करमुनिजी के सान्निध्य में लगभग वर्ष की अवस्था में ही मुनि दीक्षा ग्रहण कर ली थी। आपने संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती आदि भाषाओं तथा आगम, न्याय, व्याकरण, दर्शन, इतिहास, साहित्य आदि विविध विषयों का गहन अध्ययन किया और जैन विद्या के विविध पक्षों पर विपुल साहित्य का सृजन किया । आपकी इस विद्वता के आधार पर ईस्वी सन् १६६३ में उदयपुर में आपको श्रमण संघ के तृतीय आचार्य के पद पर प्रतिष्ठित किया गया । आपकी साहित्य साधना विपुल है । छोटे बड़े ३०० से अधिक ग्रन्थों का सम्पादन, संशोधन और लेखन आदि कार्य आपने किया है। आपकी इस विपुल साहित्य की साधना के क्रम में आचार्य देवेन्द्रमुनिजी ने कर्मविज्ञान ०६ नामक ग्रन्थ को नौ भागों में प्रकाशित किया है। इसमें लगभग पांच हजार पृष्ठों में कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी विवेचना है । कर्मविज्ञान नामक इस कृति को गुणस्थान सम्बन्धी स्वतन्त्र ग्रन्थों में तो स्थान नहीं दिया जा सकता है, किन्तु कर्मसाहित्य में जो गुणस्थान साहित्य सम्बन्धी चर्चा है, उसकी दृष्टि से हिन्दी भाषा में रचित कर्मविज्ञान का पांचवाँ भाग महत्वपूर्ण माना जा सकता है ।। __इस ग्रन्थ में जीवस्थानों में गुणस्थान नामक नवें अध्याय में, मार्गणास्थानों में गुणस्थान नामक बारहवें अध्याय में, मोह से मोक्ष तक की यात्रा की चौदह मंजिलें नामक तेरहवें अध्याय में, गाढ़ बन्धन से पूर्ण मुक्ति तक के चौदह सोपान नामक चौदहवें अध्याय में, विविध दर्शनों में आत्म विकास की क्रमिक अवस्थाएं नामक पन्द्रहवें अध्याय में, गुणस्थानों में जीवस्थान नामक सोलहवें अध्याय में, गुणस्थानों में बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा नामक सत्रहवें अध्याय में तथा उर्ध्वारोहण के दो मार्ग नामक उनतीसवें अध्याय में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन उपलब्ध होता है । इस कृति में गुणस्थान सम्बन्धी यह चर्चा २०० पृष्ठों से अधिक है । इस रूप में इसे गुणस्थानों के सन्दर्भ में एक स्वतन्त्र कृति के रूप में स्वीकार किया जा सकता है । इसमें सर्वप्रथम ४०५ दर्शन और चिंतन, भाग-२, पृ. २४५ से २६६, प्रका. पं. सुखलालजी सन्मान समिति, गुजरात, विधानसभा, भद्र, अहमदाबाद ४०६ कर्मविज्ञान, लेखक : आचार्य देवेन्द्रमुनि, प्रकाशनः श्री तारकगुरु जैन ग्रन्थालय, उदयपुर (राज.) वि.सं. २०५० Jain Education Intemational Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... षष्टम अध्याय........{424} विभिन्न जीवस्थानों में गुणस्थानों का प्रतिपादन किया गया है । उसके पश्चात् विभिन्न मार्गणाओं में गुणस्थान की अपेक्षा से कर्मप्रकृतियों के बन्धस्वामित्व आदि के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा की गई है । उसके पश्चात् मोह से मोक्ष तक की चौदह मन्जिलों में गुणस्थानों के स्वरूप पर लगभग ४५ पृष्ठों में अति विस्तार से प्रकाश डाला गया है । इसी क्रम में गाढ़ बन्धन से पूर्ण मुक्ति तक के चौदह सोपान नामक अध्याय में लगभग ५० पृष्ठों में गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा है । पुनः विविध दर्शनों में आत्मविकास की क्रमिक अवस्थाएं नामक अध्ययन में गुणस्थान की अवधारणा का अन्य परम्पराओं से तुलनात्मक अध्ययन को लेकर विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया गया है । वैसे यह तुलनात्मक अध्ययन पंडित सुखलालजी के चतुर्थ कर्मग्रन्थ की प्रस्तावना में तथा दर्शन और चिंतन नाम के उनके लेखसंग्रह में तथा डॉ. सागरमल जैन के 'गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण' में भी प्रकाशित है । प्रस्तुत शोधप्रबन्ध में भी हम अग्रिम अध्याय में तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करने जा रहे हैं । अतः इस सम्बन्ध में यहाँ विशेष चर्चा आवश्यक नहीं है । आचार्य देवेन्द्रमुनिजी के कर्मविज्ञान भाग-५ में गुणस्थानों में जीवस्थान तथा गुणस्थानों में बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता प्ररूपणा नामक सोलहवें और सत्रहवें अध्याय में इन अध्यायों के नाम के अनुरूप ही विषयों का प्रतिपादन है, किन्तु यह समस्त चर्चा पंचसंग्रह और कर्मग्रन्थों के अनुरूप ही है । अतः इस सम्बन्ध में भी विस्तृत चर्चा यहाँ अपेक्षित नहीं है। इन दोनों अध्यायों के अन्त में आचार्यश्री ने क्रमशः गुणस्थानों में जीवस्थान, योग, उपयोग, मूल बन्धहेतु, उत्तर बन्धहेतु, मिथ्यात्व, कषाय, योग, मूल बन्धप्रकृति, मूल उदयप्रकृति, मूल उदीरणाप्रकृति, मूल सत्ताप्रकृति तथा अल्प-बहुत्व सम्बन्धी यंत्र तथा विभिन्न गुणस्थानों में मूल और उत्तर प्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता सम्बन्धी यंत्र भी दिए हैं, किन्तु ये यंत्र कर्मग्रन्थ पंचसंग्रह आदि में भी पाए जाते हैं, अतः उनका निर्देश करके ही विराम लेना उचित होगा, क्योंकि उनका पुनः प्रस्तुतिकरण मात्र पिष्ट-पेषण ही है। उपशमश्रेणी और क्षपक श्रेणी सम्बन्धी विवेचन में क्षपक श्रेणी का प्रारम्भ किस गुणस्थान से होता है, इसको लेकर श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में मतभेद का निर्देश आचार्य देवेन्द्रमुनि ने कर्मविज्ञान भाग-५४०७ में किया है । जहाँ दिगम्बर परम्परा के अनुसार क्षपकश्रेणी का प्रारम्भ सातवें गुणस्थान के अन्त से होता है, वहीं श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार क्षपकश्रेणी का प्रारम्भ चतुर्थ गुणस्थान से ही सम्भव माना गया है । वस्तुतः यह मतभेद अधिक महत्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि दिगम्बर परम्परा में चारित्र मोहनीय के क्षपण से ही क्षपकश्रेणी मानी गई है और चारित्र मोहनीय का क्षपण सातवें गुणस्थान के अन्त में तथा आठवें गुणस्थान के प्रारम्भ से ही होता है, क्योंकि अनन्तानुबन्धी कषाय का विसंयोजन सातवें गुणस्थान में ही माना गया है । इसके विपरीत श्वेताम्बर परम्परा क्षपकश्रेणी में मिथ्यात्वमोह के क्षपण को भी क्षपक श्रेणी में सम्मिलित करती है, अतः उनके अनुसार क्षपकश्रेणी का प्रारम्भ चौथे गुणस्थान से ही सम्भव है, किन्तु वह क्षपण मिथ्यात्वमोह का ही है । इस दृष्टि से क्षपकश्रेणी को लेकर जो मतभेद रहा हुआ है, वह अधिक महत्वपूर्ण नहीं रह जाता है । चारित्र मोहनीय के क्षपण को ही यदि क्षपकश्रेणी माना जाए, तो उस दृष्टि से दिगम्बर परम्परा की मान्यता समुचित होगी, किन्तु यदि हम क्षपकश्रेणी में मिथ्यात्वमोह और चारित्र मोहनीय-दोनों के ही क्षय को स्वीकार करते हैं, तो श्वेताम्बर परम्परा की मान्यता ही समुचित प्रतीत होती है। ____ जहाँ तक आचार्यश्री के गुणस्थान सम्बन्धी इस प्रस्तुतिकरण के मूल्यांकन का प्रश्न है, उन्होंने गुणस्थान सम्बन्धी यह समस्त विवेचन अत्यन्त ही सरल और सहज रूप से प्रस्तुत किया है । दूसरा, उन्होंने अपने प्रस्तुतिकरण में इस बात का ध्यान रखा है कि गुणस्थान सम्बन्धी क्लिष्ट विषय भी सामान्य व्यक्ति को सहज रूप में समझ में आ सके । दूसरी उनकी विशेषता यह है कि उन्होंने अपने समक्ष गुणस्थान चिंतन सम्बन्धी जो भी ग्रन्थ रहे हैं, उनमें से क्लिष्ट विषयों को अलग करके सार रूप में इस चर्चा को प्रस्तुत किया है । यही उनके कर्मविज्ञान नामक पंचम भाग में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन का वैशिष्ट्य है । ४०७ कर्मविज्ञान भाग-५, आ. देवेन्द्रमुनि, पृ. ५२० और ५२१, श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय, उदयपुर Jain Education Intemational nterational Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 7 गुणस्थान सम्बन्धी प्राचीन और समकालीन स्वतन्त्र ग्रन्थ रत्नशेखरसूरि विरचित गुणस्थान क्रमारोह। गुणस्थान क्रमारोह नामक अन्य स्वतन्त्र रचनाएँ। देवचन्द्र कृत विचारसार प्रकरण अपरनाम गुणस्थानशतक। चौदह गुणस्थान वचनिका। श्रीमुक्तिसोपान अपरनाम 'गुणस्थानरोहणअढ़ीशतद्वारी'। आचार्य नानेश कृत गुणस्थान स्वरूप एवं विश्लेषण। आचार्य जयन्तसेनसूरिजी कृत आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएँ एवं पूर्णता। डॉ. प्रमिला जैन कृत षट्खण्डागम में गुणस्थान विवेचन। डॉ. सागरमल जैन कृत गुणस्थान सिद्धान्त-एक विश्लेषण। COOccce www.jainelibrary.on Pournvate &Personal useuly Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | अध्याय 7 wwwण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण गुणस्थान सम्बन्धी प्राचीन और समकालीन स्वतन्त्र ग्रन्थ गुणस्थान सम्बन्धी विस्तृत विवरण हमें जिन ग्रन्थों में उपलब्ध हुए हैं, वे सामान्यतया कर्मसम्बन्धी विचारणा से सम्बन्धित हैं । गुणस्थानों के सम्बन्ध में सर्वप्रथम उल्लेख जीवसमास में उपलब्ध होता है । जीवसमास के पश्चात् गुणस्थान सम्बन्धी विस्तृत विवरण हमें षट्खण्डागम और पूज्यपाद देवनन्दीकृत सर्वार्थसिद्धि टीका में उपलब्ध हुए हैं । इन्हीं के समकालीन चन्द्रर्षिकृत श्वेताम्बर पंचसंग्रह और अज्ञानकृत दिगम्बर पंचसंग्रह में भी गुणस्थान सम्बन्धी विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है । उसके पश्चात् श्वेताम्बर परम्परा में प्राचीन षट्कर्मग्रन्थों में भी गुणस्थान सम्बन्धी सूक्ष्म विवेचनाएं उपलब्ध है । इसके पश्चात् गुणस्थान सम्बन्धी विशेष चर्चा गोम्मटसार में उपलब्ध होती हैं । यद्यपि इन सभी ग्रन्थों में गुणस्थान सम्बन्ध विवरण विस्तृत और गहन है, फिर भी ये ग्रन्थ मुख्यतः कर्मसिद्धान्त से सम्बन्धित है। केवल गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा को लेकर स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना हमें पन्द्रहवीं शताब्दी तक उपलब्ध नहीं होती है। गुणस्थान पर स्वतन्त्र ग्रन्थों का लेखन इसके पश्चात् ही प्रारम्भ होता है। प्रस्तुत अध्याय में हमारा विवेच्य विषय पन्द्रहवीं शताब्दी के पश्चात् लिखे गए गुणस्थान सम्बन्धी स्वतन्त्र ग्रन्थों एवं परवर्ती विवेचनाओं की चर्चा से सम्बन्धित है। गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित जो स्वतन्त्र ग्रन्थ हमें मिलते हैं, उनमें गुणस्थानक्रमारोह संस्कृतभाषा में उपलब्ध है । यह ग्रन्थ लगभग सोलहवीं शताब्दी का है । प्राकृतभाषा की दृष्टि से गुणस्थान सिद्धान्त के सम्बन्ध में जो स्वतन्त्र ग्रन्थ उपलब्ध है, वह देवचन्द्रजी रचित विचारसार प्रकरण है । इसके प्रथम विभाग का नाम गुणस्थान शतक है । यह मूल ग्रन्थ प्राकृतभाषा में है, किन्तु इस पर लिखी गई संस्कृत भाषा की टीका बहुत विस्तृत और व्यापक रूप में है । अपभ्रंशभाषा में गुणस्थान सिद्धान्त पर कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखा गया हो, ऐसी कोई जानकारी हमें उपलब्ध नहीं होती है । इसके पश्चात् यदि हम प्राचीन मरूगुर्जर भाषा की दृष्टि से विचार करें, तो उसमें हमें विचारसार प्रकरण का ही टब्बा उपलब्ध होता है । साथ ही दुढारीभाषा में रचित 'गुणस्थान सिद्धान्तवचनिका' का उल्लेख मिलता है। उसके पश्चात् गुणस्थान पर जो भी स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे गए, वे सभी हिन्दी भाषा में और बीसवीं शती के उत्तरार्द्ध के हैं । आगे हम क्रमशः उनके सम्बन्ध में चर्चा करेंगे। न रत्नशेखरसूरि विरचित गुणस्थान क्रमारोह गुणस्थान पर स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचनाओं के क्रम में प्रथम उल्लेख हमें नागपुरीयतपागच्छीय रत्नशेखरसूरि के गुणस्थानक्रमारोह का मिलता है। रत्नशेखरसूरि विरचित यह ग्रन्थ संस्कृत भाषा में रचित है और इसमें कुल १३६ श्लोक हैं। ४०८ गुणस्थानक्रमारोह : लेखक : रत्नशेखरसूरिजी Jain Education Interational Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... सप्तम अध्याय........{426) प्रथम श्लोक का प्रारम्भ 'गुणस्थानक्रमारोह' शब्द से है। इसी आधार पर इस ग्रन्थ को 'गुणस्थानक्रमारोह' के नाम से ही जाना जाता है । रत्नशेखरसूरि ने प्रस्तुत कृति के अन्त में लेखक के रूप में अपने नाम का स्पष्ट निर्देश किया है । मूल ग्रन्थ में रत्नशेखरसूरि नाम के अतिरिक्त हमें उनके सम्बन्ध में किसी प्रकार की जानकारी उपलब्ध नहीं होती है, किन्तु इस ग्रन्थ का जो वाद प्रकाशित है, उसमें उनकी गुरू परम्परा का निर्देश किया गया है तथा उनके गच्छ का भी उल्लेख हुआ है । अनुवाद में इन्हें बृहत् खरतरगच्छ से सम्बन्धित बताया गया है । किन्तु यह अनुवादक की भ्रान्ति है, वस्तुतः ये नागपुरीयतपागच्छीय से सम्बन्धित है । गुरु परम्परा की दृष्टि से इसमें रत्नशेखरसूरि के प्रगुरु के रूप में वज्रसेनसूरि का और गुरु के रूप में हेमतिलकसूरि का उल्लेख हुआ है । हेमतिलकसूरि एक प्रसिद्ध नाम है । वज्रसेनसूरि का उल्लेख जैन संस्कृत साहित्य नो इतिहास खण्ड २ (पृ.२६) पर हरिषेण के गुरु के रूप में भी मिलता है।४०६ हरिषेण की कृति नेमिनाथ चरित्र वि.स.१५५० में रचित है। इससे यह फलित होता है कि प्रस्तुत गुणस्थानक्रमारोह इसके पश्चात् ही कभी रचा गया होगा, किन्तु यह भी एक भ्रान्ति है। जिनरत्नकोष में इस ग्रन्थ का रचना काल संवत् १४४७ बताया गया है। हरिषेण के गुरू वज्रसेनसूरि और रत्नशेखरसूरि के प्रगुरु दो भिन्न व्यक्ति है। जैसा कि हमने पूर्व में उल्लेख किया कि प्रस्तुत ग्रन्थ संस्कृत भाषा में १३६ श्लोकों में रचित है । इस दृष्टि से यह ग्रन्थ अति संक्षिप्त ही है । प्रस्तुत ग्रन्थ में मुख्यतः गुणस्थानों के स्वरूप का ही विशेष विवरण है । इसमें विभिन्न गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों के बन्ध, बन्धविच्छेद, उदय, उदयविच्छेद, उदीरणा, उदीरणाविच्छेद, सत्ता, सत्ताविच्छेद आदि के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा नहीं है । कहीं-कहीं मात्र संक्षिप्त रूप से निर्देश ही हुआ है । इस ग्रन्थ में विभिन्न गुणस्थानों का विभिन्न मार्गणाओं और अनुयोगद्वारों में अवतरण भी नहीं किया गया है । इसकी अपेक्षा इसमें विभिन्न गुणस्थानों में ध्यान आदि किस रूप में होता है, इसकी विशेष चर्चा है । इसका मुख्य प्रतिपाद्य विषय गुणस्थानों के स्वरूप का निर्देश करने के साथ-साथ उनमें होने वाले विभिन्न भावों अर्थात् मनोदशाओं तथा ध्यान आदि का उल्लेख है। ___ इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में लेखक सर्वप्रथम गुणस्थानों में क्रम से आरोहण करनेवाले और मोहकर्म पर विजय प्राप्त करनेवाले जिनेश्वर भगवंत को नमस्कार करके गुणस्थानों के किंचित् स्वरूप का विवेचन करने की प्रतिज्ञा करते हैं । दूसरे श्लोक में लेखक ने गुणस्थानों के लिए गुणश्रेणी शब्द का भी प्रयोग किया है । उन्हें गुणश्रेणी स्थानक ऐसा नाम दिया है । इससे ऐसा लगता है कि लेखक गुणस्थान में गुणश्रेणी की अवधारणा को समाहित करके ही अपनी बात कहना चाहते हैं। ___श्लोक क्रमांक २ से लेकर ५ तक चौदह गुणस्थानों के नामों का ही उल्लेख हुआ है। प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान के स्वरूप की चर्चा करते हुए लेखक ने मिथ्यात्व के व्यक्त और अव्यक्त - ऐसे दो भेद किए हैं । मिथ्यात्व का व्यक्त और अव्यक्त के रूप में यह विभेद इस ग्रन्थ की विशेषता है । अनादिकाल में एकेन्द्रियादि जीवों में मिथ्यात्व रहा हुआ है, वह अव्यक्त मिथ्यात्व है। जबकि जिन जीवों ने कुदेव, कुगुरु और कुधर्म को देव, गुरु और धर्म के रूप में मान रखा है उनका मिथ्यात्व व्यक्त मिथ्यात्व है। व्यक्त और अव्यक्त मिथ्यात्व की इस चर्चा में लेखक का कहना है कि एकेन्द्रियादि असंज्ञी जीवों में अव्यक्त मिथ्यात्व होता है, किन्तु संज्ञी पंचेन्द्रियादि जीवों में व्यक्त मिथ्यात्व होता है । अव्यक्त मिथ्यात्वमोह रूप या अज्ञानरूप मिथ्यात्व है और व्यक्त मिथ्यात्व, मिथ्यात्व धारणाओं की स्वीकृति रूप है । जब तक जीव निगोद से लेकर व्यवहार राशि में नहीं आता है, तब तक उसका मिथ्यात्व अव्यक्त या अज्ञान रूप में मिथ्यात्व है, जबकि व्यवहार राशि में आए हुए जीवों का मिथ्यात्व व्यक्त मिथ्यात्व है । यहाँ ग्रन्थकार की एक विशेष मान्यता यह है कि व्यवहार राशि में आए हुए जीवों का मिथ्यात्व ही मिथ्यात्व गुणस्थान है । अव्यवहार राशि के जीवों के मिथ्यात्व को गुणस्थान संज्ञा नहीं होती है । इसके पश्चात् श्लोक क्रमांक ८ में मिथ्यात्व के स्वरूप का तथा श्लोक क्रमांक ६ में मिथ्यात्व की स्थिति का उल्लेख है । इसमें कहा गया है कि अभव्य जीवों का मिथ्यात्व अनादि-अनन्त है और भव्य जीवों का मिथ्यात्व अनादि-सान्त है। ४०६ जैन संस्कृत साहित्य का इतिहास, खण्ड २, पृष्ठ २६, प्रका. श्री मुक्ति कमल जैन मोहनमाला, बड़ौदा Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... सप्तम अध्याय........{427} श्लोक क्रमांक १० में सास्वादन गुणस्थान के कारणों की समीक्षा करते हुए कहा गया है कि उपशम सम्यक्त्व से पतित होना ही सास्वादन गुणस्थान का कारण है । ग्यारहवें और बारहवें श्लोक में सास्वादन गुणस्थान के स्वरूप का विवेचन करते हुए यह • बताया है कि सम्यक्त्वरूपी शिखर से गिरते हुए जब तक मिथ्यात्वरूपी भूमि का स्पर्श नहीं करते हैं उसके मध्य का छ: आवलिका जितना काल सास्वादन गुणस्थान कहा जाता है । सम्यक्त्व का आस्वाद रहने से अथवा मिथ्यात्व का स्वीकार नहीं होने से इसे सास्वादन गुणस्थान कहा गया है। ____ १३३, १४ वें, और १५ वें श्लोक में मिश्र गुणस्थान के स्वरूप का विवेचन अनेक दृष्टांतों के आधार पर किया गया है। अग्रिम १६ वें और १७ वें श्लोकों में भी गुणस्थान के स्वरूप का निर्वचन है । इसमें कहा गया है कि अनन्तानुबन्धी कषाय के क्षय या उपशम से तथा अप्रत्याख्यानीय कषाय के उदय से अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान होता है । यहाँ सम्यक्त्व के लक्षणों में कृपा, प्रशम, संवेग, निर्वेद और आस्तिक्य का उल्लेख हुआ है । यहाँ अनुकम्पा के लिए कृपा शब्द का उल्लेख हुआ है । संवेग के लक्षणों का क्रम भी परम्परागत रूप से भिन्न रूप में उल्लेख है । इसमें कहा गया है कि चतुर्थ गुणस्थानवी जीव देव, गुरू और धर्म की भक्ति तो करता है, किन्तु व्रतादि ग्रहण नहीं करता है। श्लोक क्रमांक २४ और २५ में देशविरति गुणस्थान के स्वरूप का उल्लेख हुआ है । कहा गया है कि प्रत्याख्यानीय कषायों के उदय से देशविरति गुणस्थान होता है । इसका उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि वर्ष होता है । इस गुणस्थान की विशेषताओं की चर्चा करते हुए कहा गया है कि इस गुणस्थान में आर्त और रौद्र ध्यान मन्द होता है और धर्मध्यान मध्यम होता है । श्लोक क्रमांक २६ में बताया गया है कि प्रमत्तसंयत से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक के सात गुणस्थानों का काल अन्तर्मुहूर्त है। उसके पश्चात् श्लोक क्रमांक २७ से ३१ तक प्रमत्तसंयत गुणस्थान के स्वरूप का विवेचन हुआ है। इसमें कहा गया है कि प्रमत्तसंयत गुणस्थान में नोकषायों की उपस्थिति के कारण इस गुणस्थान में आर्तध्यान की मुख्यता होती है, उपलक्षण से रौद्रध्यान भी होता है । आज्ञापालन के रूप में धर्मध्यान होता है, किन्तु प्रमाद के कारण वह गौण रहता है । यहाँ रत्नशेखरसूरि ते हैं कि जब तक जीव में प्रमाद रहा हआ है: तब तक उसे निरालम्ब धर्मध्यान की प्राप्ति नहीं होती है । इस गणस्थान में आज्ञा-आलम्बन रूप धर्मध्यान ही होता है. निरालम्ब धर्मध्यान का अभाव रहता है । यहाँ आचार्य रत्नशेखरसरि यह भी कहते हैं कि जो इस गुणस्थान में निरालम्ब, निश्चल धर्मध्यान को स्वीकार करते है, वे मोहग्रसित ही है । इस प्रकार उन्होंने छठे गुणस्थान में निरालम्ब धर्मध्यान का स्पष्ट रूप से निषेध किया गया है। श्लोक क्रमांक ३२ से लेकर ३६ तक पांच श्लोकों में अप्रमत्तसंयत गुणस्थान का विवेचन हुआ है । इसमें बताया गया है कि संज्वलन कषाय चतुष्क और नोकषाय के मंद उदय से अप्रमत्तसंयत गुणस्थान की प्राप्ति होती है । ध्यान के स्वरूप की चर्चा करते हुए कहा गया है कि इसमें धर्मध्यान ही मुख्य रूप से होता है । यहाँ धर्मध्यान के पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत-ऐसे चार विभागों का भी उल्लेख हुआ है। रत्नशेखरसूरि के अनुसार इस गुणस्थान में शुक्लध्यान गौण रूप में ही होता है, मुख्यवृत्ति से नहीं। रत्नशेखरसूरि ने ३६ वें श्लोक में इस गुणस्थान में सामायिकादि छः आवश्यकों का निषेध ही कहा है। उनका कहना है कि सामायिकादि छः आवश्यक व्यवहार क्रियारूप है । यह गुणस्थान विशेषरूप से सद्ध्यान से युक्त होने के कारण निश्चय को ही प्रधानता देता है । ध्यान की स्थिति में व्यवहार रूप क्रिया सम्भव नही है । ध्यान भावविशुद्धता और आत्म-सजगता में ही फलित होता है। इसके पश्चात् श्लोक क्रमांक ३७ से ४० तक आठवें अपूर्वकरण गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक के गुणस्थानों में आत्मा की क्या स्थिति होती है ? इसकी चर्चा है । अपूर्व गुणों की प्राप्ति के कारण आठवाँ गुणस्थान अपूर्वकरण कहा जाता है । जब साधक आकांक्षा आदि संकल्पों से रहित होकर निश्चल भाव से एकाग्रतापूर्वक ध्यान में रमण करता है, तो उसे अनिवृत्तिकरण गुणस्थान कहते है । इसमें देहासक्ति रूप सूक्ष्म लोभ की सत्ता रहने पर इस गुणस्थान को सूक्ष्मकषाय (सूक्ष्म सम्पराय) कहा जाता है । मोहनीय कर्म के उपशान्त होने से ग्यारहवाँ गुणस्थान उपशान्तमोह गुणस्थान है । मोहनीय कर्म का क्षय होने से बारहवाँ क्षीणमोह गुणस्थान है। Jain Education Interational Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... सप्तम अध्याय........{428} इसके पश्चात् श्लोक क्रमांक ३६ से ४६ तक उपशमश्रेणी की चर्चा है। इसमें बताया गया है कि उपशमश्रेणी से आरोहण करनेवाला साधक यदि श्रेणी आरोहण के काल में ही आयुष्य पूर्ण करे, तो वह नियम से उच्च देवलोकों में ही उत्पन्न होता है । इसी क्रम में यह भी बताया गया है कि एक जीव एक भव में अधिकतम दो बार उपशमश्रेणी कर सकता है, किन्तु उसके संसार परिभ्रमण काल में अधिकतम चार बार उपशमश्रेणी सम्भव है। इसके पश्चात् श्लोक क्रमांक ४७ से ५१ तक क्षपकश्रेणी का विवेचन है । यहाँ ध्यान के सम्बन्ध में उल्लेख करते हुए यह कहा गया है कि क्षपक श्रेणी करनेवाला साधक आठवें गुणस्थान में ही शुक्लध्यान के प्रथम चरण को प्राप्त करता है। इसी चर्चा के प्रसंग में श्लोक क्रमांक ५२ और ५३ में ध्यान करनेवाले साधकों के आसनों की चर्चा है । इसके पश्चात् श्लोक क्रमांक ५४ से ५८ तक पूरक, रेचक और कुम्भक प्राणायामों की चर्चा की गई है। इसके पश्चात् श्लोक क्रमांक ५६ में यह बताया गया है कि प्राणायाम के इस क्रम में भी क्षपकश्रेणी वाले साधक में भावों की विशद्धि ही प्रमख तत्व होता है। इसके पश्चात श्लोक क्रमांक ६१से ७६ तक शुक्लध्यान के प्रथम दो चरणों-सवितर्कसविचार और अवितर्कअविचार की विस्तृत चर्चा है। यहाँ यह बताया गया है कि ये दोनों ध्यान क्षीणमोह गुणस्थान में सम्भव होते हैं । इसी क्रम में इन गुणस्थानों में किन कर्मप्रकृतियों का विशेष क्षय होता है, इसका भी संकेत रूप उल्लेख है । उसके पश्चात् श्लोक क्रमांक ८१ और ८२ में क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती साधक किन कर्मप्रकृतियों का क्षय करता है इसका उल्लेख किया गया है। श्लोक क्रमांक ८३ से ६० तक सयोगीकेवली गुणस्थान की चर्चा के प्रसंग में केवलज्ञान से युक्त अर्हन्त परमात्मा के स्वरूप की चर्चा है । इसी प्रसंग में तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन, उसके महत्व आदि का भी उल्लेख किया गया है। उसके पश्चात् श्लोक क्रमांक ८६ से ६५ तक केवली समुद्घात के स्वरूप का विस्तृत विवेचन है । फिर श्लोक क्रमांक ६६ में यह बताया गया है कि सयोगीकेवली भगवान केवली समुद्घात से निवृत होकर शुक्ल ध्यान के तीसरे चरण सूक्ष्मक्रियानिवृत्ति नामक शुक्लध्यान में स्थित होते हैं और इसमें स्थित होकर स्थूल क्रिया से निवृत्त होते हैं । उसके पश्चात् श्लोक क्रमांक ६७ से लेकर १०३ तक सूक्ष्मक्रियानिवृत्ति नामक तीसरे शुक्ल ध्यान की चर्चा करते हुए सयोगीकेवली के द्वारा किस प्रकार से योगनिरोध किया जाता है, इसकी चर्चा उपलब्ध होती है । इसके पश्चात् श्लोक क्रमांक १०४ से लेकर १०६ तक अयोगीकेवली गुणस्थान के स्वरूप तथा उनके द्वारा साधित समुच्छिन्नक्रिया नामक शुक्ल ध्यान के चतुर्थ चरण का उल्लेख हुआ है। इसके क्रम में श्लोक क्रमांक १०८ से ११० तक इस प्रश्न का समाधान किया गया है कि चतुर्दश अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में सूक्ष्म काययोग होते हुए भी उन्हें अयोगी क्यों कहा जाता है ? इसके पश्चात् क्रमांक १११ से लेकर ११६ तक के श्लोकों में अयोगी केवली गुणस्थानवी जीव किन कर्मप्रकृतियों का और किस क्रम से क्षय करता है, इसका विस्तृत उल्लेख है । कर्मप्रकृतियों के क्षय को लेकर केवल इसी गुणस्थान में इतनी विस्तृत चर्चा की गई है । इसके पश्चात् अयोगी केवली किस प्रकार सिद्धस्थान को प्राप्त होता है इसकी चर्चा श्लोक क्रमांक १२१ से १२४ तक में की गई है । श्लोक क्रमांक १२५ से लेकर १३५ तक सिद्धशीला के स्वरूप की और उसके पश्चात् मुक्ति के स्वरूप की चर्चा हुई है । अन्तिम १३६ वें श्लोक में यह कहा गया है कि रत्नशेखरसूरि ने श्रुतरूपी समुद्र में से गुणस्थानरूपी रत्नराशि को संचित कर उसे यहाँ प्रस्तुत किया है । इस उल्लेख के साथ ही रत्नशेखरसूरिकृत यह गुणस्थानक्रमारोह नामक ग्रन्थ समाप्त होता है । इस ग्रन्थ में गुणस्थानों के सम्बन्ध में जो चर्चा है, इसका वैशिष्ट्य यह है कि आचार्यों ने यहाँ गुणस्थानों के प्रसंग में आसन, प्राणायाम और विशेष रूप में ध्यान के स्वरूप की चर्चा की है। त्रगुणस्थानक्रमारोह नामक अन्य स्वतन्त्र रचनाएँ गुणस्थान सम्बन्धी स्वतन्त्र ग्रन्थों में पूर्व में वर्णित रत्नशेखरसूरिकृत गुणस्थानक्रमारोह के अतिरिक्त हमें गुणस्थानक्रमारोह नामक अन्य तीन ग्रन्थों की सूचना भी जिनरत्नकोष से उपलब्ध होती है । जिनरत्नकोष में द्वितीय गुणस्थानक्रमारोह के लेखक ४१० गुणस्थान क्रमारोह : लेखक विमलसूरि, जिनरत्नकोशः से उद्धरित पृ. १०६ से । Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... सप्तम अध्याय........{429} विमलसूरि को बताया है । ये विमलसूरि कौन है और कब हुए हैं, यह ज्ञात नहीं है । हमारी जानकारी के अनुसार विमलसूरि विमलगच्छ के होने चाहिए, क्योंकि प्रस्तुत कृति विमलगच्छीय उपाश्रय, अहमदाबाद में हस्तप्रत के रूप में उपलब्ध है । हस्तप्रत की उपलब्धि के अभाव में इस सम्बन्ध में अधिक कुछ कहना सम्भव नहीं है। गुणस्थानक्रमारोह” नामक तृतीय कृति का उल्लेख भी जिनरत्नकोष में उपलब्ध होता है । इस कृति के कर्ता जयशेखरसूरि उल्लेखित हैं । यह कृति भी हस्तप्रत के रूप में है । इस कृति का उल्लेख पाटण के अगली शेरी फोफलियावाड़ा के हस्तप्रतों की सूची में मिलता है । यह कृति भी अप्रकाशित है । अतः इसके सम्बन्ध में भी विशेष चर्चा करना सम्भव नहीं है। गुणस्थान क्रमारोह १२ नामक चतुर्थ कृति का उल्लेख भी जिनरत्नकोष में उपलब्ध है । इस कृति के कर्ता जिनभद्रसूरि बताए गए है । इस कृति पर उनकी स्वोपज्ञवृत्ति भी उपलब्ध होती है । इस कृति का उल्लेख आमित्रा के द्वारा दस भागों में कलकत्ता से प्रकाशित हस्तप्रतों की सूची में आठवें भाग के १७२ वें पृष्ठ पर हुआ है । जहाँ तक हमारी जानकारी है कि यह कृति भी अभी तक अप्रकाशित है । अतः इस कृति के सम्बन्ध में भी हम अधिक कुछ कह पाने की स्थिति में नहीं है। गुणस्थान क्रमारोह के उपर्युक्त चार कृतियों के अतिरिक्त गुणस्थान सम्बन्धी अन्य कुछ कृतियों का उल्लेख भी हमें जिनरत्नकोष में उपलब्ध होता है । इनमें जिनानन्द भण्डार, गोपीपुरा, सूरत में उपलब्ध गुणस्थानद्वाराणि कृति का भी निर्देश है। जिनरत्नकोष में इसके कर्ता आदि का उल्लेख नहीं है। ____एक अन्य गुणस्थानमार्गणास्थान कृति का भी उल्लेख जिनरत्नकोष में हुआ है । गुणस्थानमार्गणास्थान नामक यह कृति प्राकृतभाषा में रचित है और इसके कर्ता के रूप में नेमिचंद्र का उल्लेख है । यह कृति हुम्मज के जैन भण्डार की सूची में उल्लेखित है। यह स्पष्ट रूप से दिगम्बर परम्परा में रचित है। संभावना यह हो सकती है कि यह कृति आचार्य नेमिचंद्र द्वारा रचित गोम्मटसार के गुणस्थान और मार्गणास्थान सम्बन्धी गाथाओं का स्वतन्त्र संकलन हो। जिनरत्नकोष के आधार पर ही गुणस्थानरत्नराशि०१५ नामक रत्नशेखरसूरि की एक अन्य कृति का उल्लेख हुआ है, किन्तु वस्तुतः यह कृति रत्नशेखरसूरि कृत गुणस्थानक्रमारोह से भिन्न नहीं है । यह गुणस्थानक्रमारोह का ही दूसरा नाम या अपरनाम है । ___उपर्युक्त कृतियों के अतिरिक्त हर्षवर्धन गणिकृत गुणस्थानस्वरूप४१६ नामक एक कृति का उल्लेख भी जिनरत्नकोष में उपलब्ध है । यह कृति भी जैनानन्द भण्डार, गोपीपुरा, सूरत की सूची में उल्लेखित है । यह कृति भी अभी तक अप्रकाशित है । अतः इसके सम्बन्ध में भी अधिक कुछ जानकारी देना सम्भव नहीं है। उपर्युक्त सूचनाओं से यह ज्ञात होता है कि गुणस्थान सम्बन्धी अन्य अनेक ग्रन्थ अभी भी हस्तप्रतों के रूप में भण्डारों में विद्यमान है । आवश्यकता है कि इन ग्रन्थों का सम्यक रूप से सम्पादन होकर प्रकाशित हो। हम आशा ही कर सकते हैं कि भावी पीढ़ी इस दिशा में सम्यक् गति करे । - - ४११ गुणस्थान क्रमारोह : लेखक जयशेखरसूरि, जिनरत्नकोषः वही । ४१२ गुणस्थान क्रमारोह : लेखक जिनभद्रसूरि, जिनरत्नकोषः वही। ४१३ गुणस्थान द्वाराणि : जिनानन्द भण्डार, गोपीपुरा, सूरत । ४१४ गुणस्थान मार्गणास्थान : लेखक आचार्य नेमिचंद्र, जिनरलकोषः पृ. १०६ ४१५ गुणस्थान रत्नराशि : रत्नशेखर सूरि, जिनरत्नकोषः वहीं । ४१६ गुणस्थान स्वरूप : हर्षवर्धन गणि, जिनरत्नकोषः वही । Jain Education Intemational Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... सप्तम अध्याय........{430} क| गुणस्थान बन्धस्थान उदयस्थान सत्तास्थान मिथ्यात्व | २३,२५,२६,२८,२६,३० २१,२४,२५,२६,२७, २८,२६,३० E२,८६,८८,८६,८०,७८ | सास्वादन | २८,२६,३० , २१,२४,२५,२६,२६, ३०,३१ ६२, ८८ ६२, ६८ मिश्र | २८,२६ २६,३०,३१ २१,२५,२६,२७,२८, २६,३०,३१ ६२,८८,८६,८८ अविरत | २८,२६,३० सम्यग्दृष्टि ५ | देशविरति | २८,२६ २५,२७,२८,२६,३०, ३१ ६३,६२,८६,८८ प्रमत्तसंयत | २८,२६ २५,२७,२८,२६,३१ ६३,६२,८६,८८ २६, ३० ७ अप्रमत्तसंयत | २८,२६,३०,३१ ८ अपूर्वकरण २८,२६,३०,३१,१ ६३,६२,८६,८८ ६३,६२,८६,८८ ६ अनिवृत्तिकरण| १ ६३,६२,८६,८८,८०,७६,७६,७५ १० सूक्ष्मसंपराय १ ६३,६२,८६,८८,८०,७८,७६,७५-८ ११ उपशान्तमोह 0 १२/ क्षीणमोह | ६३,६२,८६,८८,८०,७६,७६,७५ |६३,६२,८६,८८,८०,७६,७६,७५ ३० २०,२१,२६,२७,२८, २६,३०,३१ ८०,७६,७६,७५ १३ सयोगी केवली. अयोगी 700 केवली । ८०,७६,७६,७५, ६,८ त्रा देवचन्द्रकृत विचारसारप्रकरण अपरनाम गुणस्थान शतक k प्राकृत भाषा में संस्कृत टीका एवं मसगुर्जर टब्बे के साथ रचित गुणस्थान सम्बन्धी स्वतन्त्र ग्रन्थों में श्रीमद् देवचन्द्रकृत विचारसार का महत्वपूर्ण स्थान है । यद्यपि ग्रन्थ का नाम विचारसार प्रकरण है, किन्तु इसके प्रथम खण्ड जिसका मंगलाचरण और अन्तिम प्रशस्ति स्वतन्त्र रूप से है, में इसे 'गुणस्थान शतक' - ऐसा नाम दिया गया है । इसी कारण हमने इसे गुणस्थान सम्बन्धी स्वतन्त्र ग्रन्थों में स्थान दिया है । कालक्रम की दृष्टि से यह कृति पूर्व में वर्णित गुणस्थानक्रमारोह से परवर्ती है, किन्तु गुणस्थान सिद्धान्त के विवचेन की दृष्टि से यह अधिक विस्तृत एवं व्यापक है । ग्रन्थ का वैशिष्ट्य यह है कि इसमें मूल गाथाएं प्राकृत भाषा में दी गई हैं, उनकी टीका संस्कृत भाषा में की गई है और उस पर पुनः मरूगुर्जर में टब्बा या अर्थ लिखा गया है। मूल प्राकृत गाथाओं के साथ-साथ संस्कृत टीका और मरूगुर्जर टब्बा भी स्वोपज्ञ है । श्रीमद् देवचन्द्रजी ने ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति में इस रचना के आधारभूत ग्रन्थों का उल्लेख किया है । वे लिखते हैं कि अग्राहणी पूर्व से उद्धृत तथा श्रीमद् भद्रबाहुस्वामीकृत कर्मप्रकृति, उसकी देवर्द्धिगणिकृत चूर्णि, मलयगिरिकृत टीका, महर्षि चन्द्रर्षिकृत पंचसंग्रह, शिवशर्मसूरिकृत ४१७ विचारसार : लेखकः आ. देवचन्दजी, प्रकाशनः श्री अध्यात्मज्ञान प्रसार मंडल - पाढरा वी.नि.सं. २४४५, वि.सं. १९७५ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... सप्तम अध्याय........{431} बृहत् कर्मस्तव आदि प्राचीन (जीर्ण) कर्मग्रन्थ, जिनवल्लभसूरिकृत कर्मग्रन्थों, देवेन्द्रसूरिकृत कर्मविपाकादि कर्मग्रन्थों के आधार पर भगवती, प्रज्ञापना आदि वाक्यों को प्रमाण रूप स्वीकार कर इस ग्रन्थ की रचना की गई है । ग्रन्थ के रचनाकार के रूप में प्राकृत गाथा, संस्कृत टीका और मरूगुर्जर टब्बे तीनों में इन्होंने अपने नाम का उल्लेख किया है । संस्कृत टीका में गणिदेवचन्द्र के रूप में अपने गणिपद का भी उल्लेख किया है । ग्रन्थ का रचनाकाल विक्रम संवत् १७६६ तदनुसार ईस्वी सन् १७३६ कार्तिक सुदी एकम उल्लेखित है । गणि देवचन्द्रजी खरतरगच्छ में मुनि दीपचन्द्रजी के पास दीक्षित हुए । बुद्धिसागरजी के अनुसार श्रीमद् देवचन्द्रजी का जन्म विक्रम संवत् १७२० तदनुसार ईस्वी सन् १६६३ के लगभग होना चाहिए और इनकी दीक्षा विक्रम संवत् १७२५ तद्नसार ईस्वी सन् १६७५ में बारह वर्ष की अल्पायु में हुई । श्रीमद् देवचन्दजी की प्रथम कृतियाँ अष्टप्रकारी पूजा और इक्कीसप्रकारी पूजा विक्रम संवत् १७४३ तदनुसार ईस्वी सन् १६८६ की है। उनका ग्रन्थ रचनाकाल काफी लम्बा है । यदि विचारसार को उनका अन्तिम ग्रन्थ माना जाए, तो लगभग ६३ वर्ष तक वे ग्रन्थ लेखन करते रहे, यह निश्चित है । श्रीमद् देवचन्द्रजी का दीक्षा पर्याय लगभग ७५ वर्ष रहा है । उनका स्वर्गवास विक्रम संवत् १८१० तदनुसार ईस्वी सन् १७५३ में हुआ। बुद्धिसागरसूरिजी ने श्रीमद् देवचन्द्र की गुरु परम्परा को इस प्रकार उल्लेख किया है । खरतरगच्छ के जिनचन्द्रसूरिजी के शिष्य पुण्यप्रधान उपाध्याय, उनके शिष्य सुमतिसागर उपाध्याय, उनके शिष्य राजसागर उपाध्याय, उनके शिष्य धर्मपाठक, उनके शिष्य राजहंस और दीपचंद हुए । दीपचंद के शिष्य देवचन्द्र हुए । गणि देवचन्द्र की अधिकांश कृतियाँ मरूगुर्जर भाषा में उपलब्ध होती हैं । प्रस्तुत विचारसार प्रकरण को देखने से यह निश्चित होता है कि वे प्राकृत, संस्कृत और मरूगुर्जर - इन सभी भाषाओं में रचना करने में समर्थ रहे हैं। श्रीमद् देवचन्द्र के सम्बन्ध में इस संक्षिप्त उल्लेख के बाद हम विचारसार प्रकरण के सम्बन्ध में विचार करेंगे। विचारसार प्रकरण मुख्यतः दो विभागों में विभाजित है । प्रथम भाग को श्रीमद् देवचन्द्र ने स्वयं ही गुणस्थान शतक - ऐसा नाम दिया है । इस गुणस्थान शतक की अन्तिम प्रशस्ति में उन्होंने 'गुणठाणसयं देवचन्देण'-ऐसा स्पष्ट उल्लेख किया है। इस प्रकार गुणस्थान शतक एक स्वतन्त्र ग्रन्थ ही माना जा सकता है । विचारसार प्रकरण का दूसरा भाग विभिन्न मार्गणाओं में गुणस्थान की चर्चा करता है । लेखक ने इस विभाग में भी स्वतन्त्र रूप से मंगलाचारण किया है और अन्त में अपनी गुरु परम्परा का भी उल्लेख किया है । इसके अन्त में ग्रन्थ रचना का काल तथा नवानगर (जामनगर) के रूप में ग्रन्थ रचना के स्थान का भी उल्लेख है। इसके प्रथम विभाग में १०७ गाथाएं और द्वितीय विभाग में २१३ गाथाएं है । प्रथम विभाग विशद्ध रूप से गणस्थानों की ही चर्चा करता है, जबकि दूसरे विभाग में मार्गणास्थानों की चर्चा है । यद्यपि द्वितीय विभाग में मार्गणास्थानों की चर्चा के प्रसंग में भी विभिन्न मार्गणाओं में गुणस्थानों का अवतरण तो किया ही गया है । विचारसार प्रकरण का वैशिष्ट्य यह है कि इसमें ६६ द्वारों में गुणस्थानों का अवतरण किया गया है । वे ६६ द्वार कौन-से है, इसका निर्देश बुद्धिसागरजी ने निम्न रूप में किया है - १० बन्धद्वार (मूलप्रकृति बन्ध १, उत्तर प्रकृतिबन्ध १, आठ भिन्नकर्माष्टक बन्ध ८), १० उदयद्वार (मूल प्रकृति उदय १, उत्तर प्रकृति उदय १, आठ भिन्नकर्माष्टक उदय ८), २ उदीरणाद्वार (मूल प्रकृति उदीरणा १ और उत्तर प्रकृति उदीरणा १), १० सत्ता (मूल प्रकृति सत्ता १, उत्तर प्रकृति सत्ता १, आठ भिन्नकर्माष्टक सत्ता ८), जीवभेद (चौदह), १ गुणस्थान नाम (चौदह)१, योग (पन्द्रह)१, उपयोग (बारह)१, लेश्या (छः), २ बन्धहेतु (मूलबन्ध हेतु १, उत्तरबन्ध हेतु १), चार भिन्नबन्धहेतु चतुष्क, १ अल्पबहुत्व, ८ भाव मूलभाव१, उत्तरभाव१, भिन्न भाव१, पांच सान्निपातिक भाव५, २ जीवभेद (मूलभेद और उत्तरभेद) ४ उत्तर मिलने (आनुपूर्वी), १ समुद्घात (आठ), ४ चार ध्यान (चार), १ दंडक (चौबीस), १ वेद (तीन), १ योनि (चौरासी), १ कुल कोटि, ६ ध्रुवबन्धी, अध्रुवबन्धी, ध्रुवोदयी, अधुवोदयी, ध्रुवसत्ता, अधुवसत्ता प्रकृतियाँ, ३ सर्वघाती, देशघाती, अघाती, ४ पुण्य, पाप, परावर्तमान, अपरावर्तमान प्रकृतियाँ, ४ क्षेत्रविपाकी, भवविपाकी, जीवविपाकी, पुद्गलविपाकी (प्रकृतियाँ), ८ आठों कर्मों के आठ भंग द्वार, ४ आसव, संवर, निर्जरा और बन्ध द्वार इस प्रकार अंकों में १० + १० + २ + १० + १ + १+१+१+१+ २ + ४ +१+ ८+२+४+१+४+१+१+१+१+६+३+४+४+६+ ४ = ६६ द्वारों का वर्णन है । श्रीमद् देवचन्द्रकृत विचारसार प्रकरण के गुणस्थान शतक में १०७ गाथाओं में गुणस्थानों के सम्बन्ध में विवचेन उपलब्ध Jain Education Intemational Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.. सप्तम अध्याय........{432} होता है । ग्रन्थ की प्रस्तावित गाथा में ही यह कहा गया है कि इस ग्रन्थ में गुणस्थानों के सम्बन्ध में मूल एवं उत्तर कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता का विवेचन है । इसी गाथा की स्वोपज्ञ टीका में चौदह गुणस्थानों के स्वरूपों का विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है । साथ ही अग्रिम दो गाथाओं में संकेत रूप से और उनकी टीकाओं में विस्तृत रूप से यह बताया गया है कि गुणस्थानों में कर्मों के बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता की अपेक्षा से कितने द्वार होते है । दूसरी और तीसरी गाथाओं की टीका में गुणस्थानों के सम्बन्ध में ६२ (द्विनवतिद्वाराणि) अनुयोगद्वारों का निर्देश हुआ है, किन्तु इन्हीं गाथाओं के टब्बार्थ में ६४ द्वारों का निर्देश हुआ है, जबकि प्रस्तावना में बुद्धिसागरजी ने ६६ द्वारों का निर्देश किया है । हमारी दृष्टि में स्वोपज्ञ टीका में उल्लेखित ६२ द्वारों में आश्रवद्वार, बन्धद्वार, संवरद्वार और निर्जराद्वार - ऐसे चार द्वारों के मिलाने पर ६६ द्वार हो जाते हैं। इन ६६ द्वारों का स्पष्टीकरण हम पूर्व में कर चुके हैं । अग्रिम गाथा में इन्हीं द्वारों का उल्लेख हुआ है। सर्वप्रथम गाथा क्रमांक ४ से लेकर १४ तक किन गुणस्थानों में किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है इसकी चर्चा है । गाथा क्रमांक १५ से लेकर २५ तक में यह बताया गया है कि विभिन्न गुणस्थानों में किन कर्मप्रकृतियों का उदय रहता है । उदय के साथ ही साथ उदीरणा का भी यथास्थान विवेचन हुआ है । गाथा क्रमांक २६ से लेकर ३३ तक विभिन्न गुणस्थानों में किन कर्मप्रकृतियों की सत्ता होती है, इसका विवचेन किया गया है । इसके पश्चात् गाथा क्रमांक ३४ में गुणस्थानों में जीवस्थानों का निर्देश किया गया है । गाथा क्रमांक ३५ में गुणस्थानों में गुणस्थानों का उल्लेख करते हुए यह बताया गया है कि प्रत्येक गुणस्थानों में उसी के नामवाला गुणस्थान होता है, किन्तु मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक कषायों की तीव्रता और मन्दता के आधार पर तरतमता होने से प्रत्येक गुणस्थानों में अध्यवसायों की भिन्नता रहती है और प्रति समय षट्स्थान हानि-वृद्धि देखी जाती है, किन्तु ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक चार गुणस्थानों में अध्यवसायों की तरतमता तो नहीं होती है, क्योंकि सभी में यथाख्यात चारित्र पाया जाता है, किन्तु कर्मों की निर्जरा की अपेक्षा से इनके भी अनेक भेद होते हैं । गाथा क्रमांक ३६ और ३७ में गुणस्थानों में योग सम्बन्धी तथा गाथा क्रमांक ३८ में गुणस्थानों में उपयोग सम्बन्धी निर्देश उपलब्ध होते हैं । गाथा क्रमांक ३६ में गुणस्थानों में लेश्या सम्बन्धी विवेचन है । गाथा क्रमांक ४० में गुणस्थानों में उत्तर बन्धहेतुओं की चर्चा है । इसके पश्चात् ४१ और ४२ में किस गुणस्थान में कितने उत्तर बन्धहेतु क्यों होते हैं, इसकी चर्चा की गई है । उसके पश्चात् गाथा क्रमांक ४३, ४४ एवं ४५ में विभिन्न गुणस्थानों में जीव के अल्प-बहुत्व सम्बन्धी विवेचन है । गाथा क्रमांक ४६ से ४८ में विभिन्न गुणस्थानों में कितने भाव होते हैं, इसका विवेचन किया गया है । भावों की इस चर्चा में विचारसार नामक इस ग्रन्थ का वैशिष्ट्य यह है कि गाथा क्रमांक ४६ में नवें और दसवें गुणस्थान में कुछ आचार्य क्षायिक भाव में क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र - ऐसे दो भाव मानते हैं, जबकि कुछ आचार्य क्षायिक भाव में केवल क्षायिक सम्यक्त्व को ही स्वीकार करते है । इस प्रकार भाव सम्बन्धी मतभेद का निर्देश किया गया है । आगे गाथा क्रमांक ५० से लेकर ५७ तक विभिन्न भावों के भेदों की चर्चा करते हुए विभिन्न गणस्थानों में उनके विकल्पों की भी चर्चा की गई है। Jain Education Interational Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... सप्तम अध्याय........{433} गुणस्थान भाव उपशम क्षायोपशमिक क्षायिक । औदयिक पारिणामिक मिथ्यात्व सास्वादन मिश्र अविरति देशविरति प्रमत्तसंयत अप्रमत्तसंयत अपूर्वकरण अनिवृत्तिकरण सूक्ष्मसंपराय उपशान्तमोहनीय क्षीणमोहनीय सयोगी केवली अयोगी केवली इसके पश्चात् गाथा क्रमांक ५८ से ६२ तक जीवों के ५६३ भेदों का निर्देश करके किन गुणस्थानों में जीवों के कितने भेद पाए जाते हैं, इसका उल्लेख किया गया है । इसके पश्चात् गाथा क्रमांक ६३ में सात समुद्घातों का निर्देश है । ये सात समुद्घात निम्न हैं - (१) वेदना, (२) कषाय (३) मरण (४) वैक्रिय (५) तैजस (६) आहारक और (७) केवली । इन सात समुद्घातों में से किस गुणस्थान में कितने समुद्घात होते हैं इसकी चर्चा है। गाथा क्रमांक ६५ के उत्तरार्द्ध से लेकर ६६ तक किस गुणस्थान में चार ध्यानों में से कितने ध्यान सम्भव होते हैं, इसका निर्देश है। गाथा क्रमांक ६७ के पूर्वार्द्ध में गुणस्थानों में दंडकों का अवतरण किया गया है। गाथा क्रमांक ६७ के उत्तरार्द्ध में गुणस्थानों में वेदों (कामवासना) का अवतरण किया गया है। इसमें बताया गया है कि मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अनिवृत्ति बादरसम्पराय गुणस्थान तक तीनों वेद होते हैं । शेष दसवें से चौदहवें तक पांच गुणस्थान अवेदी है । कर्मग्रन्थों में उपयोग सम्बन्धी चर्चा में केवलज्ञान और केवलदर्शन में तीनों वेद माने गए हैं, वे द्रव्यलिंग (शरीर रचना) की अपेक्षा से है, भावलिंग की अपेक्षा से नहीं । यह स्पष्टीकरण विचारसार का वैशिष्ट्य है । गाथा क्रमांक ६७ के उत्तरार्द्ध से लेकर ६६ के पूर्वार्द्ध तक चारित्रमार्गणा के सात भेद करके किस गुणस्थान में कौन-सा चारित्र पाया जाता है, इसका निर्देश किया गया है । यहाँ पांच चारित्र के साथ देशविरति चारित्र और अविरति चारित्र को सम्मिलित किया गया है । गाथा क्रमांक ६६ के उत्तरार्द्ध में चौरासी लाख योनियों का निर्देश करके फिर अग्रिम गाथा ७० में किस गुणस्थान में कितनी योनियाँ सम्भव है, यह निर्देश किया गया है। गाथा क्रमांक ७१ में कुल कोड़ी का निर्देश करते हुए मात्र यह कहा गया है कि इसे योनि के समान ही समझ लेना चाहिए । ज्ञातव्य है कि एक योनि में भी कुल सम्भव होते है । गाथा क्रमांक ७१ के उत्तरार्द्ध से ७४ तक ध्रुवबन्धी और अधुवबन्धी, ध्रुवोदयी और अधुवोदयी तथा ध्रुवसत्ता और अधुवसत्ता वाली कर्मप्रकृतियों का गुणस्थानों में अवतरण किया गया है । इसके पश्चात् गाथा क्रमांक ७५ से ७८ तक सर्वघाती, देशघाती और अघाती कर्मप्रकृतियों का विभिन्न गुणस्थानों में निर्देश किया गया है। गाथा क्रमांक ७६ में पुण्यप्रकृति और पापप्रकृति का निर्देश करके किस गुणस्थान में कितनी पुण्यप्रकृति और पापप्रकृति का बन्ध होता है, इसकी चर्चा की गई है । गाथा क्रमांक ८०, ८१ और २ के पूवार्द्ध तक Jain Education Intemational Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.... सप्तम अध्याय........{434} अपरावर्तमान और परावर्तमान कर्मप्रकृतियों का निर्देश करके किस गुणस्थान में किनका बन्ध होता है, इसका विवेचन है । गाथा क्रमांक ८२ के उत्तरार्द्ध तथा ८३ में चार आनुपूर्वियों में किस गुणस्थान में किस आनुपूर्वी का बन्ध या उदय होता है, इसकी चर्चा की गई है । गाथा क्रमांक ८४ से २६ तक पुद्गलविपाकी, गाथा क्रमांक ६७ और ८८ में जीवविपाकी कर्मप्रकृतियों के निर्देश के साथ किस गुणस्थान में कितनी पुद्गलविपाकी और कितनी जीवविपाकी कर्मप्रकृति होती हैं, इसका निर्देश किया गया है । आगे गाथा क्रमांक ८६ से लेकर ६८ तक विभिन्न गुणस्थानों में विभिन्न कर्मप्रकृतियों के बन्ध, सत्ता और उदय की चर्चा के साथ बन्धस्थानों, उदयस्थानों और सत्तास्थानों का विवेचन है । इसका विवेचन मूल गाथाओं की अपेक्षा टीका में विस्तार से दिया गया है। इसे निम्न तालिका से समझा जा सकता है - __गाथा क्रमांक ६६ से लेकर १०२ तक विभिन्न गुणस्थान में आश्रव के कितने भेद सम्भव होते हैं, इसका विवेचन है । इस प्रकार गाथा क्रमांक १०३ और १०४ में किस-किस गणस्थान में संवर के कितने भेद सम्भव हैं. इसका निर्देश है । गाथा क्रमांक १०५ में विभिन्न गुणस्थानों में कर्म की निर्जरा किस रूप में होती है, इसका निर्देश है । इसमें कहा गया है कि प्रथम तीन गुणस्थानों में अकामनिर्जरा ही सम्भव होती है । सम्यक्त्व नामक चतुर्थ गुणस्थान में सकामनिर्जरा प्रारम्भ होती है । छठे गुणस्थान से निर्जरा के जो बारह भेद कहे गए हैं, वे सम्भव होते हैं । तेरहवें गुणस्थान में शुक्लध्यान के तृतीय चरण और चौदहवें गुणस्थान में शुक्लध्यान के चतुर्थ चरण के द्वारा निर्जरा सम्भव होती है । इसके पश्चात् गाथा क्रमांक १०६ में चार प्रकार के बन्ध में किस गुणस्थान में कितने प्रकार के बन्ध सम्भव हैं, इसका विवेचन है । इसके पश्चात् प्रथम विभाग की अन्तिम गाथा १०७ में भवसंवेह का निर्देश करके अन्त में ग्रन्थकार ने अपने नाम का निर्देश किया है। इस प्रकार हम देखते है कि विचारसार अपने प्रथम विभाग में ६६ द्वारों में गुणस्थानों का विवेचन प्रस्तुत करता है । इसमें बन्ध सम्बन्धी दस द्वार, उदय सम्बन्धी दस द्वार, सत्ता सम्बन्धी दस द्वार तथा उदीरणा सम्बन्धी दो द्वार हैं । मूल बन्धहेतु और उत्तरबन्धहेतु तथा भिन्न बन्धहेतु के छः द्वार, भावों में मूलभाव, उत्तरभाव और भिन्नभाव के तीन द्वार और सन्निपातिक भाव के पांच द्वार-इस प्रकार भाव सम्बन्धी आठ द्वार हैं । जीव के मूलभेद, उत्तरभेद तथा चारों आनुपूर्वी सहित छः द्वार हैं । इसी प्रकार चार ध्यानों के चार द्वार हैं । ध्रुवबन्ध, अधुवबन्ध, धुवोदयी, अध्रुवोदयी, ध्रुवसत्ता और अध्रुवसत्ता सम्बन्धी छः द्वार है । सर्वघाती, देशघाती और अघाती कर्मप्रकृतियों के तीन द्वार हैं । पुण्यप्रकृति, पापप्रकृति, परावर्तमान प्रकृति और अपरावर्तमान प्रकृति के चार द्वार हैं । जीवविपाकी, पुद्गलविपाकी, क्षेत्रविपाकी और भवविपाकी कर्मप्रकृतियों के चार द्वार, आठ कर्मों के बन्ध विकल्प सम्बन्धी आठ द्वार हैं । इसके पश्चात् जीवस्थान, गुणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या, समुद्घात, दंडक, वेद, योनि, कुलकोड़ी, अल्प-बहुत्व, आश्रव, संवर, निर्जरा और बन्धतत्व सम्बन्धी एक-एक द्वार है । इस प्रकार कुल ६६ द्वारों में गुणस्थानों का अवतरण किया गया है । यद्यपि इनमें से अधिकांश द्वारों की चर्चा पंचसंग्रह एवं कर्मग्रन्थों में मिलती है । फिर भी आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्धतत्व, योनिद्वार और कुलकोड़ी द्वार आदि कुछ ऐसे द्वार है जो पूर्व में विवेचित नहीं है । यही इस ग्रन्थ का वैशिष्ट्य माना जाता है। विचारसार प्रकरण के द्वितीय विभाग में बासठ मार्गणाओं के सम्बन्ध में बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता आदि का विचार किया गया है । इस प्रकार यह विभाग मुख्य रूप से मार्गणाओं के विवेचन से सम्बन्धित है, फिर भी इसकी गाथा क्रमांक ३ से लेकर ७ पर्यन्त बासठ मार्गणाओं में गुणस्थानों का अवतरण किया गया है । इसमें यह बताया गया है कि किस मार्गणा में कितने गुणस्थान पाए जाते हैं । द्वितीय विभाग की ६२ वीं गाथा में चौदह गुणस्थानों में विभिन्न कर्मप्रकृतियों का सत्ता सम्बन्धी विचार प्रस्तुत किया गया है । इन दो निर्देशों को छोड़कर विचारसार प्रकरण के द्वितीय विभाग में गुणस्थान सम्बन्धी कोई उल्लेख नहीं है । इस प्रकार गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन को लेकर विचारसार प्रकरण का प्रथम विभाग ही महत्वपूर्ण है और यही कारण है कि इसे गुणस्थान शतक नाम दिया गया है और इसी दृष्टि से हमने गुणस्थान सम्बन्धी स्वतन्त्र ग्रन्थों में इसे स्थान दिया है। विचारसार प्रकरण के गुणस्थान शतक का वैशिष्ट्य यह है कि इसमें मूल ग्रन्थ प्राकृत गाथाओं में निबद्ध है। उसकी टीका Jain Education Intemational Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... सप्तम अध्याय........{435} संस्कृत भाषा में निबद्ध है और उस पर टब्बार्थ मरूगुर्जर में है। इस प्रकार से यह ग्रन्थ एक साथ तीनों ही भाषाओं से सम्बन्धित है । इसकी दूसरी विशेषता यह है कि इसमें आगमिक परम्परा, कर्मग्रन्थकारों की परम्परा और आचार्य परम्परा में गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा में जो मतान्तर रहे हैं, उनका निर्देश किया गया है। चौदह गुणस्थान वचनिकाk गुणस्थान सम्बन्धी स्वतन्त्र ग्रन्थों में ढुढारी भाषा में रचित चौदह गुणस्थान वनिका नामक ग्रन्थ के सम्बन्ध में हमें सूचना प्राप्त होती है । सतश्रुतप्रभावना ट्रस्ट, भावनगर ने जैन हस्तलिखित ग्रन्थों का जो सूचीकरण किया है, उसमें से उन्होंने स्वानुभूतिप्रकाश दिसम्बर २००२ के अंक में अप्रकाशित ग्रन्थों की सूची प्रकाशित की है । इस सूची में २६ वें क्रमांक पर चौदह गुणस्थान वचनिका नामक कृति का उल्लेख है। इसके कर्ता के रूप में अखयराज शाह का उल्लेख है । यह कृति ८० पत्रों में लिखित है और अपने पूर्ण रूप में उपलब्ध है । यद्यपि सूची में इस ग्रन्थ के प्राप्तिस्थान का कोई उल्लेख नहीं है, किन्तु संभावना यही है कि यह जयपुर के किसी शास्त्र भण्डार में उपलब्ध हो । इस कृति के सम्बन्ध में यह कहना कठिन है कि यह गुणस्थान सम्बन्धी किसी ग्रन्थ की टीका के रूप में है या स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में है ? दिगम्बर परम्परा में सत्रहवीं शताब्दी से मूल ग्रन्थों पर वचनिका लिखने की परम्परा रही है, किन्तु हमारी जानकारी में चौदह गुणस्थान नामक कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं रहा है, जिस पर यह वचनिका लिखी गई हो। अतः संभावना यही है कि पंचसंग्रह गोम्मटसार आदि के आधार पर स्वतन्त्र रूप से यह चौदह गुणस्थान वचनिका नामक ग्रन्थ लिखा गया होगा। इस सम्बन्ध में विशेष जानकारी प्राप्त करने के लिए हम प्रयत्नशील अवश्य हैं, फिर भी कृति की झेरोक्स प्रति जब तक उपलब्ध नहीं होती है, तब तक इस निर्देश पर ही संतोष करना होगा ।४१८ श्री मुक्तिसोपान अपरनाम गुणस्थान रोहण अढीशतद्वारी विचारसार प्रकरण अपरनाम गुणस्थान शतक का टब्बार्थ मरूगुर्जर में तथा चौदह गुणस्थान वचनिका ढुढारीभाषा में रचित है । ये दोनों प्राचीन हिन्दी के ही रूप है, फिर भी हिन्दी भाषा की दृष्टि से गुणस्थान के सम्बन्ध में जो सम्पूर्ण ग्रन्थ हमें उपलब्ध होते हैं. उसमें आचार्य अमोलकऋषिजी के इस मुक्तिसोपान अपरनाम गुणस्थानरोहणअढीशतद्वारी का स्थान प्रथम ही कहा जाएगा । गुणस्थान सम्बन्धी हिन्दी भाषा में रचित ग्रन्थों में न केवल कालक्रम की दृष्टि से भी यह ग्रन्थ प्रथम स्थान रखता है, अपितु विस्तृत विवेचन की दृष्टि से भी यह ग्रन्थ प्रथम स्थानीय ही है । यह मूल ग्रन्थ के ५२३ पृष्ठ, परिशिष्ट के ४५ पृष्ठ और प्रस्तावना के ४३ पृष्ठ सहित लगभग ६०० पृष्ठों में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचना को समाहित किए हुए है । द्वारों की अपेक्षा से भी यदि विचार करें, तो जहाँ देवचन्द्र ने विचारसार प्रकरण में गुणस्थान सिद्धान्त का विवेचन ६६ द्वारों में किया, वहीं अमोलकऋषिजी ने २५२ द्वारों में अपना गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन पूर्ण किया है । जहाँ तक हमारी जानकारी है कि २५२ द्वारों में गुणस्थानों का विवेचन करनेवाला यह प्रथम ग्रन्थ है । ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही यह स्पष्ट रूप से निर्देश किया गया है कि अनेक ग्रन्थों का दोहन करके इस ग्रन्थ की रचना की गई है। __ग्रन्थकार आचार्य अमोलकऋषिजी स्थानकवासी परम्परा के ऋषि सम्प्रदाय से सम्बन्धित है । यह स्थानकवासी परम्परा के समोद्धारक लवजीऋषिजी की परम्परा में हुए थे । ऋषि नामान्त के कारण ही यह परम्परा स्थानकवासी समाज में ऋषि सम्प्रदाय के नाम से जानी जाती है । अमोलकऋषिजी के पूर्वज मरूभूमि के मेडता नामक नगर से आकर मध्यप्रदेश में बसे थे। उनके पिता केवलचन्दजी मध्यप्रदेश के भोपाल नगर में व्यवसाय के लिए आकर रहे । संयोग से केवलचन्दजी की पत्नी का स्वर्गवास हो गया और उन्होंने अपने पुत्र अमोलकचंद के साथ ही खूबाऋषिजी के पास दीक्षा ग्रहण कर ली। अमोलकऋषिजी की जन्मतिथि का ४१८ स्वानुभूतिप्रकाश, दिसम्बर २००२, प्रकाशक श्री सतश्रुत प्रभावना ट्रस्ट, भावनगर - ३६४००१, पृ. १७ ४१६ गुणस्थानरोहणअढोशतद्वारी : लेखकः अमोलकऋषिजी, प्रकाशनः शारदा प्रेस अफलगंज चमन, दक्षिण हैदराबाद, वी.सं. २४४१, वि.सं. १६७१, ई.सन् १६१५ Jain Education Intemational Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ सप्तम अध्याय.......{436} तो हमें कोई निर्देश उपलब्ध नहीं होता है, किन्तु पिता के साथ दीक्षित होने से इतना तो निश्चित है कि वे किशोर अवस्था में दीक्षित हुए • होंगे । उनकी दीक्षा चैत्र शुक्ल पंचमी विक्रम संवत् १६४३ तदनुसार ईस्वी सन् १८८७ में हुई। यह ग्रन्थ उन्होंने अपनी मुनि अवस्था में ही लिखा था । यद्यपि इसके लेखन संवत् का कोई स्पष्ट निर्देश नहीं है; किन्तु इसका प्रकाशन ईस्वी सन् १६१५ में हुआ, अतः यह ग्रन्थ उसके पूर्व ही लिखा गया होगा । आचार्य अमोलकऋषिजी आगमों के गम्भीर अध्येता थे, इन्होंने सर्वप्रथम स्थानकवासी परम्परा में मान्य ३२ आगमों का हिन्दी अनुवाद कर उन्हें प्रकाशित करवाया था । आगमों के साथ यह ग्रन्थ भी दक्षिण हैदराबाद में प्रकाशित हुआ है । यद्यपि यह ग्रन्थ अनेक ग्रन्थों के आधार पर निर्मित हुआ है, फिर भी इसके मुख्य आधार तिलोकऋषिजी कृत ४५ गुणस्थान द्वारों का यंत्र और नागचन्द्रजी महाराज द्वारा प्राप्त गुणस्थान आरोहण शतद्वारी यंत्र रहे हैं । इसके अतिरिक्त इन्होंने कर्मग्रन्थों तथा गोम्मटसार के जीवकाण्ड एवं कर्मकाण्ड से भी कुछ द्वारों को ग्रहण किया है । यह उल्लेख ग्रन्थकर्ता ने स्वयं ग्रन्थ की प्रस्तावना में किया है। आचार्य श्री ने उस प्रस्तावना में स्वयं यह भी लिखा है कि प्रारम्भ में उन्होंने गुणस्थान आरोहण शतद्वारी के नाम से एक ग्रन्थ प्रकाशित किया है। पुनः विचारसार प्रकरण जिसका उल्लेख हम पूर्व में कर चुके हैं, उससे ६४ द्वारों का संग्रह किया गया और अन्त में कर्मग्रन्थ और गोम्मटसार से कुछ द्वारों को और नागचन्द्रजी स्वामी द्वारा प्रेषित यंत्र सम्मिलित कर तथा कुछ स्वकल्पित द्वारों को मिलाकर गुणस्थान आरोहण शतद्वारी नामक यह ग्रन्थ पूर्ण किया । गुणस्थान सिद्धान्त की दृष्टि से २५२ द्वारों का वर्णन करनेवाला यह प्रथम ग्रन्थ ही है । इस ग्रन्थ की सम्पूर्ण विषयवस्तु को यदि सार रूप में भी प्रस्तुत करें, तो प्रस्तुत शोधप्रबन्ध का आकार अत्यधिक विस्तृत हो जाएगा। अतः यही समुचित होगा कि आचार्य अमोलकऋषिजी ने जो २५२ द्वारों का यंत्र या सूची तैयार की है उसे ही यहाँ प्रस्तुत कर दिया जायेगा । इसके आधार पर संक्षिप्त रूप से विषय को समझने की सुविधा होगी, क्योंकि इसमें प्रतिपादित अधिकांश विषय षट्खण्डागम, पंचसंग्रह, कर्मग्रन्थ, गोम्मटसार और विचारसार प्रकरण में समाहित है । अतः हम परिशिष्ट क्रमांक- १ पर उनके द्वारा प्रस्तुत २५२ द्वारों की तालिका को भाषा की दृष्टि से परिशोधित कर प्रस्तुत कर रहे हैं । में इस प्रकार प्रस्तुत कृति गुणस्थान सिद्धान्त के सम्बन्ध में व्यापक दृष्टि से विचार प्रस्तुत करती है । इस कृति में २५२ द्वारों गुणस्थान सम्बन्धी विवरण प्रस्तुत किया गया है और इस प्रकार गुणस्थान के सम्बन्ध में जिन-जिन दृष्टियों से विचार सम्भव हो सकता है, उन्हें संग्रहित कर दिया गया है । जहाँ तक प्रस्तुत ग्रन्थ की भाषा का सम्बन्ध है, वह लोकभाषा मिश्रित हिन्दी है । भाषा की दृष्टि से यह ग्रन्थ आज बहुत ही परिमार्जन की अपेक्षा रखता है । आचार्य अमोलकऋषिजी ने इस ग्रन्थ को अपने युग की प्रचलित एवं विभिन्न लोकबोलियों से प्रभावित हिन्दी भाषा में ही रचित किया है । विषयवस्तु की दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण होते हुए भी भाषा की दृष्टि से इसका परिशोधन एवं सम्पादन आवश्यक है । जब भी इस ग्रन्थ का पुनः प्रकाशन हो, तब प्रकाशकों को इस सम्बन्ध में ध्यान देना चाहिए । ग्रन्थ में मुद्रण सम्बन्धी अनेक अशुद्धियाँ भी है, जिसका परिमार्जन भी आवश्यक है । इन सब कमियों के बावजूद भी इस ग्रन्थ के प्रणयन में आचार्य श्री का जो महत्वपूर्ण अवदान है, उसे नहीं भुलाया जा सकता है । सम्भवतः गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा को लेकर तत्कालीन हिन्दी भाषा में लिखा गया यह ग्रन्थ आज भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण है । गुणस्थान सिद्धान्त के सम्बन्ध में वर्तमानकालीन लेखकों में हमें चार ग्रन्थ प्राप्त होते हैं । एक आचार्य श्रीनानेश द्वारा लिखित एवं सुरेश सिसोदिया द्वारा संपादित 'गुणस्थान स्वरूप और विश्लेषण', दूसरा आचार्य जयन्तसेनसूरिजी द्वारा रचित 'आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएँ एवं पूर्णता' तथा तीसरा डॉ. सागरमल जैन द्वारा लिखित 'गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण' है । इनके अतिरिक्त डॉ. प्रमिला जैन का शोधप्रबन्ध 'षट्खण्डागम में गुणस्थान विवेचन' भी गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित है । हम इनके सम्बन्ध में क्रमशः विचार करेंगे । Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... सप्तम अध्याय........{437} आचार्य नानेश कृत गुणस्थान स्वरूप एवं विश्लेषण २०k आचार्य नानेश स्थानकवासी परम्परा के हुकमगच्छ के अष्टम आचार्य थे । आपका जन्म वीरभूमि मेवाड़ के दाँता गाँव के पोखरणा परिवार में ज्येष्ठ शुक्ला द्वितीया विक्रम संवत् १६७७ तदनुसार ईस्वी सन् १६२० में हुआ था। आपके पिता का नाम मोतीलालजी और माता का नाम श्रृगांरबाई था । आप आचार्य गणेशलालजी के शिष्य थे । आपने आगम साहित्य का अध्ययन आपका स्वर्गवास कार्तिक कृष्णा तृतीया विक्रम संवत् २०५६ तदनुसार ईस्वी सन् १९९६ में हुआ। आपने पिछड़ी जातियों मे धर्म संस्कार देकर उनके धर्मपाल के रूप में उन्हें संस्कारित कर जैन समाज से जोड़ा। आपने समता दर्शन, समीक्षण ध्यानविधि के सम्बन्ध में ग्रन्थों का प्रणयन भी किया। आपकी गुणस्थान सम्बन्धी प्रस्तुत कति आपके आगमिक और कर्मसाहित्य के ज्ञान की परिचायक है। इस कृति में सर्वप्रथम गुणस्थानों के स्वरूपों का विवेचन किया गया है। गुणस्थानों के स्वरूप विवेचन की दृष्टि से इसमें मिथ्यात्व गुणस्थान के सम्बन्ध में अति विस्तार से विचार किया गया है । लगभग बारह पृष्ठों में मिथ्यात्व गुणस्थान का विवेचन है । इसके पश्चात् सास्वादन गुणस्थान के स्वरूप का विवेचन करते हुए वहाँ औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति के हेतु के रूप में यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण का विस्तृत निर्देश हुआ है । इसके पश्चात् क्रमशः मिश्रदृष्टि अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान, देशविरति गुणस्थान, प्रमत्तसंयत गुणस्थान, निवृत्तिबादर गुणस्थान की चर्चा है । निवृत्तिबादर गुणस्थान की चर्चा के प्रसंग में स्थितिघात, रसघात, गुणश्रेणी, गुणसंक्रमण और अपूर्वबन्ध का इसमें विवेचन किया गया है । इसके पश्चात् अनिवृत्तिबादरसम्पराय और सूक्ष्मसम्पराय गुणस्थानों का संक्षिप्त रूप में ही विवेचन किया गया है। इसके पश्चात् उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान के स्वरूप का विवेचन करते हुए प्रकारान्तर से उपशमश्रेणी का विवेचन विस्तार से किया गया है और यह बताया गया है कि किस प्रकार से जीव सत्ता में रही हुई विभिन्न कर्मप्रकृतियों का किस क्रम से उपशमन करता है । इसी प्रसंग में अन्तःकरण और कृष्टियों की भी चर्चा की गई है । कृष्टिकरण किस प्रकार किया जाता है इसकी विस्तृत जानकारी हमें इस ग्रन्थ में उपलब्ध होती है । कृष्टिकरण के सम्बन्ध में इससे अधिक जानकारी सम्भवतः अन्यत्र उपलब्ध नहीं है । यद्यपि पंचसंग्रह, कम्मपयडी, गोम्मटसार में कृष्टियों का विस्तृत विवेचन है, फिर भी यहाँ जिस स्पष्टता से उसका विवेचन किया गया है, वह विशेष महत्वपूर्ण है। इसी प्रकार आगे क्षीणकषायवीतरागछद्मथ गणस्थान के स्वरूप क्षपकश्रेणी का विस्तृत विवेचन किया गया है । इसमें भी अन्तःकरण और कृष्टियों की चर्चा है । इसके पश्चात् सयोगीकेवली गुणस्थान और अयोगीकेवली गुणस्थान के स्वरूप का विवेचन है । इस चर्चा का वैशिष्ट्य यह भी है कि इस सम्बन्ध में क्षय और उपशम के सम्बन्ध में आचार्यों में जो मतभेद रहे हुए हैं, उनका भी निर्देश किया गया है । विशेष रूप से यह मतभेद क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान और अयोगीकेवली गुणस्थान के स्वरूप की चर्चा में कर्मप्रकृतियों का किस प्रकार से अन्तःकरण एवं क्षय होता है, इस बात को लेकर है । इन मतभेदों को स्पष्ट करने के लिए गुणस्थानक्रमारोह तथा कर्मग्रन्थ छः की आचार्य मलयगिरि की टीका का निर्देश किया गया है । इस प्रकार प्रस्तुत कृति में लगभग ७२ पृष्ठों में गुणस्थानों के स्वरूप का विवेचन करने के पश्चात् द्वितीय अधिकार में कायस्थिति, तृतीय अधिकार में योग, चतुर्थ अधिकार में लेश्या, पंचम अधिकार में बन्ध के कारणों, षष्ठ अधिकार में बन्ध के उत्तर हेतुओं का, सप्तम अधिकार में बन्ध का, अष्टम अधिकार में सत्ता का, नवम अधिकार में उदय का, दशम अधिकार में उदीरणा का, एकादश अधिकार में निर्जरा का, द्वादश अधिकार में भावों का, त्रयोदश अधिकार में उपयोग का, चतुर्दश अधिकार में जीवयोनि का, पंचदश अधिकार में आत्मा का गुणस्थानों के सन्दर्भ में विवेचन किया गया है । आत्मा सम्बन्धी इस विवेचन में भगवती सूत्र में वर्णित आठ आत्माओं के सम्बन्ध में किस गुणस्थान में कितनी आत्माएं पाई जाती है, इसका निर्देश किया गया है । ४२० गुणस्थान स्वरूप एवं विश्लेषणः आचार्य नानेश, सम्पादकः डॉ. सुरेश सिसोदिया, प्रकाशनः अखिल भारतीयर्षीय साधुमार्गी जैन संघ समता भवन बीकानेर (राज.), प्रथम संस्करण : सन् १९६८ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा... सप्तम अध्याय........{438} ___षोडश अधिकार में चौबीस दंडकों का, सप्तदश अधिकार में चौदह जीवस्थानों का, अष्टादश अधिकार में सम्यक्त्व का, एकोनविंशति अधिकार में परिषहों का गुणस्थानों से सम्बन्ध निरूपण किया गया है और यह बताया गया है कि किस गुणस्थान में कितने परिषह होते हैं । इसी प्रकार विंशति अधिकार में पांच चारित्रों का, एकविंशति अधिकार में चार ध्यानों का गुणस्थानों में अवतरण किया गया है । गुणस्थानों में ध्यान सम्बन्धी इस विवेचन में गुणस्थानक्रमारोह को विशेष आधार मानकर विवेचन किया गया है और इस सम्बन्ध में आचार्यों में किस प्रकार का मतभेद है, इसका भी निर्देश किया गया है । इसमें यह बताया गया है कि मोहनीयकर्म का क्षय धर्मध्यान का फल है, जबकि ज्ञानावरण आदि अन्य तीन घातीकर्मों का क्षय एकत्ववितर्क शुक्लध्यान के द्वितीय चरण का परिणाम है । यहाँ आवश्यक नियुक्ति की अवचूर्णि का सन्दर्भ देते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान में मात्र शुक्लध्यान ही होता है - यह मान्यता उचित नहीं है । उपशान्तमोह और क्षीणमोह नामक गुणस्थानों में धर्मध्यान की भी सत्ता रहती है । द्वाविंशति अधिकार में दशाओं के सम्बन्ध में चर्चा करते हुए यह कहा गया है कि प्रथम और तृतीय गुणस्थान को छोड़कर शेष गुणस्थानवी जीव मोक्षमार्ग के अभिमुख माने गए हैं । वहाँ इस शंका का भी समाधान किया गया है कि तृतीय गुणस्थानवी जीव को मोक्षमार्ग के विमुख और द्वितीय गुणस्थानवी जीव को मोक्षमार्ग का अनुगामी क्यों बताया गया है ? त्रिविंशति अधिकार में गुणस्थान में जीवों की शाश्वतता और अशाश्वतता का विचार किया गया है । इसमें कहा गया है कि प्रथम, चतुर्थ, पंचम, षष्ठ और त्रयोदश -ये पांच गुणस्थान शाश्वत होते है, क्योंकि इन गुणस्थानों में जीव सदैव पाए जाते है । शेष गुणस्थान शाश्वत नहीं है, क्योंकि इन गुणस्थानों में जीव कभी पाए जाते है और कभी नहीं पाए जाते हैं । इसके पश्चात् चतुर्विंशति अधिकार में गुणस्थानों में जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल की चर्चा है। पंचविंशति अधिकार में गुणस्थानों में अल्प-बहुत्व का विवेचन है।। इस प्रकार प्रस्तुत कृति में पंचविंशति अधिकारों में अथवा अन्य अपेक्षा से कहे तो पच्चीस द्वारों में गुणस्थानों की चर्चा की गई है । इस सम्पूर्ण चर्चा में मुख्य रूप से पंचसंग्रह, षट्कर्मग्रन्थों, रत्नशेखरसूरि कृत गुणस्थानक्रमारोह को विशेष आधार बनाया गया है । यद्यपि यथाप्रसंग आगमों और आगमिक व्याख्याओं तथा षट्खण्डागम, गोम्मटसार आदि का भी निर्देश किया है। यद्यपि प्रस्तुत कृति में वर्णित विषय तो वही है, जो कर्मग्रन्थों एवं पंचसंग्रह आदि में भी उल्लेखित है, किन्तु आधुनिक हिन्दी भाषा में जिस स्पष्टता के साथ इन दुरूह विषयों का स्पष्टीकरण किया गया है, वह निश्चय ही ग्रन्थकार का वैशिष्ट्य है । हिन्दी भाषा में इतनी स्पष्टता के साथ गुणस्थानों की विवेचना करनेवाला यह ग्रन्थ अध्येताओं के लिए महत्वपूर्ण माना जा सकता है । ग्रन्थ के प्रारम्भ में प्राकृत और जैन विद्या के विशिष्ट विद्वान प्रोफेसर प्रेमचन्द जैन 'सुमन' की भूमिका भी विषयतः स्पष्टीकरण की दृष्टि से संक्षिप्त होते हुए भी महत्वपूर्ण है । आचार्य जयन्तसेनसूरिजी कृत आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएँ एवं पूर्णता गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित हिन्दी भाषा में लिखी गई द्वितीय कृति आचार्य श्री जयन्तसेनसूरिजी द्वारा रचित आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएँ एवं पूर्णता है । श्री सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक सिद्धान्त पुनरूद्धारक आचार्य श्री राजेन्द्रसूरिश्वरजी की परम्परा में षष्ठम आचार्य श्री जयन्तसेनसूरिश्वरजी हैं । आपका जन्म विक्रम संवत् १६६३ कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी को पेपराल (गुजरात) के धरू परिवार में हुआ । आपश्री ने आचार्य श्रीयतीन्द्रसूरिश्वरजी के पास सोलह वर्ष की आयु में विक्रम संवत् २०१० माघ शुक्ला चतुर्थी को सियाणा (मारवाड़) में दीक्षा ग्रहण की । दीक्षा के पश्चात् आपश्री ने न्याय, व्याकरण, आगम साहित्य और आचार्यों के द्वारा प्रणीत साहित्य का विशेष गहन अध्ययन किया और जैन धर्म दर्शन से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थों की रचना की। आपका साहित्य हिन्दी, गुजराती, अंग्रेजी, तमिल, कन्नड़ एवं तेलगु में भी प्रकाशित है । आपश्री ने ४२१ आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएँ एवं पूर्णता : आचार्य जयन्तसेन सूरिजी प्रकाशनः राजराजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्ट, रतनपोल, हाथीखाना, अहमदाबाद (गुज.) Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा... सप्तम अध्याय........{439) अनेक ग्रन्थों का सम्पादन करवाकर प्रकाशित करवाया। हिन्दी, गुजराती, संस्कृत, प्राकृत, अंग्रेजी आदि भाषाओं पर आपका समान अधिकार है । विभिन्न भाषाओं पर भी आपको विशेषता प्राप्त है । आपश्री को विक्रम संवत् २०१७ कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा को मोहनखेड़ा तीर्थ में उपाचार्य के पद से अलंकृत किया । आपश्री को विक्रम संवत् २०४६ माघ शुक्ल त्रयोदशी बुधवार तदनुसार दिनांक १५/०२/८४ को भाण्डवपुर (राजस्थान) में आचार्य पद से सुशोभित किया गया । वर्तमान में भी आपके द्वारा ग्रन्थ रचना का कार्य अनवरत चल रहा है । वर्तमान में आपश्री एक प्रबुद्ध जैनाचार्य के रूप में माने जाते हैं । प्रस्तुत कृति में आपने गुणस्थानों को आध्यात्मिक विकास की भूमिकाओं के रूप में स्थापित करते हुए गुणस्थान शब्द की और उसके स्वरूप की चर्चा की है । उसके पश्चात् गुणस्थानों के विभिन्न नामों की सार्थकता किस अर्थ में है, इस पर विवेचन किया गया है । इसी विवेचन के क्रम में गुणस्थानक्रमारोह के मुख्य आधार के रूप में आपने मोहनीय कर्म के क्षय की प्रक्रिया को बताया है। इसी प्रसंग में ग्रंथिभेद की प्रक्रिया और ग्रंथिभेद के क्रम के रूप में यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण की विस्तार से चर्चा की है तथा यह बताया गया है कि ग्रंथिभेद के पश्चात् आत्मा स्वस्वरूप का बोध कर आध्यात्मिक विकास के मार्ग में किस प्रकार उत्तरोत्तर प्रगति करती हुई आत्मपूर्णता को प्राप्त करती है । इसी क्रम में आगे विभिन्न गुणस्थानों में किस प्रकार का ध्यान होता है इसकी चर्चा तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं के आधार पर की है । उसके पश्चात् आपने यह विवेचित किया है कि मिथ्यात्व से लेकर योग पर्यन्त पांच बन्धहेतुओं में कौन-कौन से बन्धहेतु होते हैं । यहाँ विशेष रूप से यह दृष्टव्य है कि जहाँ प्राचीन ग्रन्थों में मुख्यतः चार बन्धहेतुओं की चर्चा की है, वहाँ आचार्यश्री ने पांच बन्धहेतुओं का विवेचन किया है । उसके पश्चात् प्रस्तुत कृति में विभिन्न गुणस्थानों में आत्मा के परिणाम किस प्रकार होते है और षट्लेश्याओं में से कौन-सी लेश्या होती है, इसका विवेचन किया गया है । इसके पश्चात् प्रस्तुत कृति के पृष्ठ क्रमांक २४ से लेकर ४६तक २५ पृष्ठों में चौदह गुणस्थानों के स्वरूप का विस्तार से विवेचन किया गया है । गुणस्थानों के स्वरूप की चर्चा के प्रसंग में आपने पंचसंग्रह, गोम्मटसार, गुणस्थानक्रमारोह, षट्खण्डागम तथा धवला टीका, तत्त्वार्थसूत्र तथा यथास्थान आगमों को आधार बनाकर इस सम्बन्ध में पर्याप्त प्रकाश डाला है । गुणस्थानों के स्वरूप को लेकर हिन्दी भाषा में आचार्य नानेश की कृति के समान ही यह कृति अत्यन्त महत्वपूर्ण है । गुणस्थानों के स्वरूप की चर्चा के पश्चात् विभिन्न गुणस्थानों में किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है, किन कर्मप्रकृतियों का उदय रहता है, किन कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव होती है और किन कर्मप्रकृतियों की सत्ता रहती है, इसका विवेचन प्रस्तुत किया गया है । बन्ध हेतु, बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता आदि के सम्बन्ध में दो परिशिष्टों में भी आपने अधिक विस्तार से इनकी चर्चा की है। उसके पश्चात् तुलनात्मक दृष्टि से योग वाशिष्ठ में ज्ञान और अज्ञान की जो सात-सात अवस्थाओं का उल्लेख है, उसको लेकर विस्तार से तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत किया है । यह विवरण मुख्यतः पंडित सुखलालजी की चतुर्थ कर्मग्रन्थ की भूमिका पर आधारित है । इसके साथ ही पातंजल योगदर्शन में वर्णित चित्त की मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र और निरूद्ध - इन पांच अवस्थाओं को लेकर गुणस्थान से इनकी तुलना प्रस्तुत की है । इस तुलनात्मक विवेचन में बौद्धदर्शन के आजीविक परम्परा में भी जो आध्यात्मिक विकास के विभिन्न चरण बताए गए हैं, उनका उल्लेख करते हुए संक्षिप्त तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया गया है । इस प्रकार यह कृति ७७ पृष्ठों में गुणस्थान सम्बन्धी विवरण प्रस्तुत करती है। इसके पश्चात् इस कृति में आध्यात्मिक विकास की पूर्णता के रूप में मोक्ष के स्वरूप और मोक्ष मार्ग का विस्तृत विवेचन है । मोक्ष के स्वरूप को लेकर न्याय-वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा, वेदान्त, चार्वाक और बौद्धदर्शन में मोक्ष सम्बन्धी अवधारणाएं क्या है ? इसका भी विश्लेषण किया गया है। प्रस्तुत विवेचन हमारे शोध विषय के अर्न्तगत नहीं आता है, इसलिए उस सम्बन्ध में विस्तार से विवेचन आवश्यक नहीं है। ___अन्त में प्रस्तुत कृति की विशेषताओं की चर्चा करना चाहेंगे । प्रथम तो यह कि हिन्दी भाषा में गुणस्थान सम्बन्धी जो विवेचन उपलब्ध है, उनमें निश्चय ही गुणस्थानों के स्वरूप को लेकर प्रस्तुत कृति का एक महत्वपूर्ण स्थान माना जा सकता है । Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ I सप्तम अध्याय.......{440} बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता को लेकर प्रस्तुत कृति में जो विवेचन है, वह मुख्य रूप से प्राचीन ग्रन्थों पर ही आधारित है। अतः वे प्रामाणिक तो हैं, परन्तु उनमें किसी प्रकार की नवीन स्थापना परिलक्षित नहीं होती है । आचार्यश्री ने परम्परागत मान्यताओं को ही प्रस्तुत करने का प्रयास किया है । इस सन्दर्भ में आचार्यों में जो मतभेद रहे हैं, उनकी उन्होंने कोई चर्चा नहीं की है । इससे ऐसा लगता है कि कृति का मुख्य प्रयोजन जनसाधारण को गुणस्थान सिद्धान्त से परिचित कराने का ही रहा है । वैदिक, बौद्ध और योग परम्परा के साथ गुणस्थानों की तुलना निश्चय ही अत्यन्त महत्वपूर्ण है । यद्यपि ऐसी तुलना हमें पंडित सुखलालजी के दर्शन और चिंतन में भी उपलब्ध होती है, फिर भी आचार्य श्रीजयन्तसेनसूरिजी ने उसका अत्यन्त सरल तथा अधिक विस्तार से विवेचन प्रस्तुत किया है, यही उनका वैशिष्ट्य है । डॉ. प्रमिला जैन कृत षट्खण्डागम में गुणस्थान विवेचन वर्तमान काल में गुणस्थान सिद्धान्त के सम्बन्ध में जो शोधकार्य हुए हैं, उनमें डॉ. प्रमिला जैन द्वारा लिखित षट्खण्डागम में गुणस्थान विवेचन २२ भी एक है । प्रस्तुत कृति का उल्लेख आचार्य नानेश की कृति गुणस्थान स्वरूप और विश्लेषण की डॉ. प्रेमसुमन जैन की भूमिका से प्राप्त हुई । उसके पश्चात् हमने प्रस्तुत कृति को प्राप्त करने का प्रयत्न किया और संयोग से डॉ. फूलचन्द जैन के माध्यम से यह कृति हमें उपलब्ध हुई है । प्रस्तुत कृति 'षट्खण्डागम में गुणस्थान विवेचन' श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा द्वारा प्रकाशित हुई है । इसके प्रकाशन वर्ष की सूचना तो हमें मुख्य पृष्ठ पर उपलब्ध नहीं है, किन्तु उसके प्राक्कथन में यह लिखा गया है कि उनके इस शोधप्रबन्ध पर जबलपुर विश्वविद्यालय द्वारा १६८५ में पीएच.डी. की उपाधि प्रदान की गई थी । प्रस्तुत कृति के मार्गदर्शन के रूप में उन्होंने डॉ. विमलप्रकाश जैन का उल्लेख किया है । प्रस्तुत कृति यद्यपि एक शोधप्रबन्ध है, किन्तु इस कृति में गुणस्थान सिद्धान्त के विकास आदि को लेकर तथा अन्यत्र गुणस्थान सिद्धान्त का विवेचन कि रूप में उपलब्ध होता है, इसकी कोई चर्चा नहीं है। मात्र षट्खण्डागम को ही केन्द्र में रखकर गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा प्रस्तुत की गई है। प्राक्कथन के रूप में द्वादशांग का परिचय दिया गया है, किन्तु यह परिचय धवला टीका एवं तत्त्वार्थसूत्र की दिगम्बर टीकाओं के आधार पर अत्यन्त संक्षिप्त रूप में ही है । श्वेताम्बर परम्पराओं में उपलब्ध द्वादशांग में ग्यारह अंगों के सदंर्भ में इसमें कोई चर्चा नहीं है और न यह प्रयत्न किया गया है कि गुणस्थान सिद्धान्त का किस रूप में उल्लेख है । चौदह अंग बाह्य और चौदह पूर्वों के भी ग्रन्थ के प्रारम्भ में मात्र नामनिर्देश के रूप में हुए हैं। उसके पश्चात् षट्खण्डागम की विषयवस्तु लेखक आदि पर किंचित् विस्तार से चर्चा की गई है । यह सत्य है कि गुणस्थान सिद्धान्त का जितना विस्तृत विवेचन षट्खण्डागम में उपलब्ध है, उतना विस्तृत विवेचन अन्यत्र नहीं है । विशेष रूप से ६२ मार्गणाओं और ८ अनुयोगद्वारों को लेकर गुणस्थान सिद्धान्त की विस्तृत विवेचना षट्खण्डागम में ही मिलती है । हमारी दृष्टि में श्वेताम्बर - दिगम्बर पंचसंग्रह और गोम्मटसार को छोड़कर ऐसी विस्तृत विवेचना अन्यत्र उपलब्ध नही है । यद्यपि प्रस्तुत शोधप्रबन्ध षट्खण्डागम में गुणस्थान विवेचन को लेकर लिखा गया है, किन्तु इनमें षट्खण्डागम में गुणस्थान सिद्धान्त किस रूप में उपलब्ध है, इसकी चर्चा मात्र २८ पृष्ठों में है । उसमें भी षट्खण्डागम की अपेक्षा गोम्मटसार आदि के ही सन्दर्भ विशेष रूप से दिए गए हैं। ऐसा लगता है कि इस सम्पूर्ण शोधप्रबन्ध में षट्खण्डागम में गुणस्थान का जो विस्तृत विवेचन उपलब्ध है, इसकी चर्चा अत्यल्प है । यह निश्चित ही विचारणीय है । प्रस्तुत कृति के सम्पूर्ण विश्लेषण को देखने पर ऐसा लगता है कि प्रस्तुत कृति में गुणस्थानों की अपेक्षा जैन धर्म-दर्शन की अन्यान्य अवधारणाएं अधिक हैं । प्राक्कथन और उपसंहार को छोड़कर प्रस्तुत कृति आठ अध्यायों में विभक्त है । प्रथम अध्याय में गुणस्थानों की सामान्य अवधारणा का निर्देश हुआ है, किन्तु इनमें विशेष चर्चा मार्गणा, औदारिक आदि पांच भावों, लेश्या तथा बन्ध, सत्व, उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, उदय, उदीरणा, उपशम, निधत्ति और निकाचित ऐसी कर्म की दस अवस्थाओं की ही है । इस चर्चा में भी षट्खण्डागम की अपेक्षा ४२२ षट्खण्डागम में गुणस्थान विवेचन, डॉ. प्रमिला, प्रकाशकः भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा ऐशबाग लखनऊ-४ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... सप्तम अध्याय........{441} अन्य ग्रन्थों का ही ज्यादा सहारा लिया गया है । द्वितीय अध्याय में अवश्य ही आध्यात्मिक विकास के चतुर्दश सोपान के रूप में गुणस्थानों के स्वरूप का निर्देश हुआ है, किन्तु इसमें भी विशेष चर्चा श्रावक और मुनि जीवन के आचार-विचार को लेकर अधिक है। तृतीय अध्याय गुणस्थानों में कर्म से सम्बन्धित है । इसमें कर्मसिद्धान्त का ही विवेचन अधिक हुआ है । मात्र इस अध्याय के अन्त में गुणस्थान और कर्म का सम्बन्ध एक विभाग ही ऐसा है, जहाँ लेखिका ने गुणस्थानों के साथ कर्मों के सम्बन्ध को स्पष्ट किया है । चतुर्थ अध्याय में गुणस्थान और ध्यान को लेकर चर्चा की गई है । इस प्रकार पंचम अध्याय में गुणस्थान और समाधि को लेकर विवेचन प्रस्तुत किया गया है । गुणस्थान और ध्यान नामक अध्ययन के प्रारम्भ में तो ध्यान के स्वरूप का ही विवरण किया गया है, किन्तु इस अध्याय के अन्त में यह विचार अवश्य किया गया है कि किन गुणस्थानों में कौन-सा ध्यान सम्भव होता है, किन्तु यह चर्चा अत्यन्त संक्षिप्त है । गुणस्थान और समाधि नामक अध्याय में सामान्य विवेचन तो समाधिमरण और संलेखना के सन्दर्भ में ही है । मात्र अध्याय के अन्त में यह कहा गया है कि गुणस्थानों के साथ समाधि का घनिष्ट सम्बन्ध है, किन्तु इस अध्याय में समाधिमरण से गुणस्थान का कोई विशेष सम्बन्ध स्पष्ट नहीं है । प्रस्तुत कृति का षष्ठ अध्याय गुणस्थानों में कर्म और काल की क्रिया तथा प्रतिक्रिया निश्चित रूप से गुणस्थान सम्बन्धी विवेचना से सम्बन्धित है और इसमें गुणस्थानों का और गुणस्थानों में कर्म के बन्ध, उदय, सत्ता आदि के सम्बन्ध में विस्तृत विचार हुआ है । सप्तम अध्याय गुणस्थानों में आत्मदशा और आध्यात्मदशा से सम्बन्धित है। इसमें सम्यग्दर्शन के आठ अंग तथा चारित्र के पांच प्रकार की विशेष रूप से चर्चा हुई है। अष्टम अध्याय में अन्य भारतीय दर्शनों में गुणस्थानों की समकक्ष भूमिकाओं की संक्षिप्त तुलनात्मक चर्चा की गई है। इसमें सर्वप्रथम पंडित सुखलालजी के द्वारा योगवाशिष्ठ के आधार पर ज्ञान और अज्ञान की चौदह अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है। उसी के आधार पर तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया गया है। आश्चर्य यह है कि इसमें इस तुलना के प्रारम्भ में उत्पत्ति प्रकरण नामक ग्रन्थ को आधार बनाकर इस तुलना की चर्चा की गई है, जबकि उत्पत्ति प्रकरण नामक कोई ग्रन्थ नहीं है, अपितु योगवाशिष्ठ का ही एक प्रकरण है । चूंकि पंडित सुखलालजी ने सन्दर्भ में उत्पत्ति प्रकरण सर्ग ऐसा उल्लेख किया था । उसी आधार पर उन्होंने यह उल्लेख कर दिया और मूल शोधकर्ता का भी कहीं उल्लेख नहीं किया, किन्तु इस अन्तिम अध्याय में उन्होंने शिवज्ञानबोध के आधार पर आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाओं की और कार्लगुस्ताव हयुंग के आधार पर आध्यात्मिक विकास की पांच अवस्थाओं की चर्चा की है। यह उनकी मौलिक चर्चा लगती है । इसी प्रकार उन्होंने अन्त में गीता के सत्व, रज और तम उनके आधार पर भी आध्यात्मिक विकास की अवस्थाओं का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है, किन्तु ऐसा ही एक तुलनात्मक अध्ययन डॉ. सागरमल जैन के द्वारा भी उनके शोधप्रबन्ध में भी प्रस्तुत किया गया है । फिर भी उनका यह तुलनात्मक विवेचन गुणस्थान सिद्धान्त की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। अन्त में हम केवल इतना ही कहना चाहेंगे कि प्रस्तुत कृति में उन्होंने षट्खण्डागम में गुणस्थान विवेचन नामक इस कृति में गुणस्थान सम्बन्धी जो चर्चाएं की है वे महत्वपूर्ण तो हैं, किन्तु षटखण्डागम में गुणस्थान सिद्धान्त जितना विस्तृत और व्यापक है, उसके साथ पूरा न्याय नहीं करती है, जबकि हमने अपने शोधप्रबन्ध के तृतीय अध्याय में षट्खण्डागम में गुणस्थान सिद्धान्त का जिस रूप में विवेचन उपलब्ध है उस पर ही लगभग २०० पृष्ठों की सामग्री प्रस्तुत की है । पुनः यह शोधप्रबन्ध विवरणात्मक ही अधिक है । शोध के लिए जो आधारभूत ग्रन्थों का आलोडन-विलोडन होना चाहिए, वह अपेक्षित रूप से नहीं हो सका है। फिर भी उपर्युक्त सभी ग्रन्थ हमारे इस अध्याय में सहायभूत रहे हैं और इनके अध्याय से हमें लाभ भी हुआ है। डॉ. सागरमल जैन कृत गुणस्थान सिद्धान्त एक विश्लेषण K गुणस्थान सिद्धान्त के सम्बन्ध में शोधपूर्ण दृष्टि से लिखे गए ग्रन्थों में डॉ. सागरमल जैन द्वारा लिखित गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण २३ सम्भवतः प्रथम ग्रन्थ है । यह ग्रन्थ ईस्वी सन् १६६६ पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी से प्रकाशित हुआ है । डॉ. ४२३ गुणस्थान सिद्धान्त एक विश्लेषण : लेखकः डॉसागरमल जैन, प्रकाशकः पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी-५, प्रथम संस्करण : १६६६ Jain Education Intemational Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.... सप्तम अध्याय........{442} सागरमल जैन सामान्य रूप से भारतीय विद्याओं के और विशेष रूप से जैन विद्या के तलस्पर्शी विद्वान हैं । उन्होंने जैनधर्म-दर्शन, प्राकृत भाषा, आगम साहित्य, इतिहास, कला, संस्कृति आदि सभी पक्षों पर अपनी गवेषणापूर्ण लेखनी चलाई है । प्रस्तुत कृति भी गुणस्थान सिद्धान्त के सम्बन्ध में गवेषणापूर्ण दृष्टि से लिखी गई । प्रस्तुत कृति में जहाँ उन्होंने एक और गुणस्थान सिद्धान्त के पूर्व बीजों को विभिन्न प्राचीन स्तर के जैन ग्रन्थों में खोजने का प्रयास किया है और इस आधार पर इस तथ्य की स्थापना की है कि जैनधर्म-दर्शन में गुणस्थान सिद्धान्त का विकास कालक्रम में हुआ है । इस समस्त चर्चा में उन्होंने श्वेताम्बर आगम साहित्य और दिगम्बर आगम तुल्य साहित्य के साथ-साथ तत्त्वार्थसूत्र, कर्मग्रन्थ आदि को आधार बनाया है । उन्होंने विभिन्न ग्रन्थों को कालक्रम में स्थापित कर यह दिखाने का प्रयास किया है कि गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव और विकास किस क्रम से हुआ है। कृति के प्रथम अध्याय में उन्होंने इस तथ्य को स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा का विकास ऐतिहासिक क्रम में हुआ है । इस सम्बन्ध में वे लिखते हैं कि गुणस्थान की अवधारणा के ऐतिहासिक विकास क्रम को समझने की दृष्टि से यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि न केवल प्राचीन स्तर के श्वेताम्बर आगमों में, अपितु दिगम्बर परम्परा में आगम रूप से मान्य कसायपाहुडसुत्त में तथा तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य में गुणस्थान की अवधारणा का कहीं भी सुव्यवस्थित निर्देश उपलब्ध नहीं होता है । यद्यपि इन तीनों ग्रन्थों में गुणस्थान की अवधारणा से सम्बन्धित कुछ पारिभाषिक शब्दों जैसे - दर्शनमोह उपशमक, दर्शनमोह क्षपक, (चारित्रमोह) उपशमक, (चारित्रमोह) क्षपक, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, केवली (जिन) आदि के प्रयोग उपलब्ध हैं । मात्र यही नहीं, ये तीनों ही ग्रन्थ कर्मविशुद्धि के आधार पर आध्यात्मिक विकास की स्थितियों का चित्रण भी करते हैं । इससे ऐसा लगता है कि इन ग्रन्थों के रचनाकाल तक जैन परम्परा में गुणस्थान की अवधारणा का विकास नहीं हो पाया था। प्रस्तुत कृति में ६ अध्याय है । इसके प्रथम अध्याय में उन्होंने गुणस्थान सिद्धान्त के उद्भव और विकास की चर्चा की है । इस अध्याय में उनका निष्कर्ष यह है कि गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा लगभग पांचवी शताब्दी में सुव्यवस्थित हुई और इसी काल में विभिन्न गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों में बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा आदि के सम्बन्ध निश्चित किए गए है । साथ ही गुणस्थान, जीवस्थान और मार्गणास्थान एक-दूसरे से पृथक करके उनके पारस्परिक सम्बन्धों को स्पष्ट किया गया है । उनकी यह भी मान्यता है कि प्रारम्भ में गुणस्थान के लिए जीवस्थान या जीवसमास शब्द का प्रयोग किया गया है । इसे उन्होंने समवायांग, जीवसमास, षट्खण्डागम के प्राथमिक उल्लेख के आधार पर सिद्ध करने का भी प्रयास किया है । प्रस्तुत कृति में द्वितीय अध्याय से लेकर चतुर्थ अध्याय तक उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र श्वेताम्बर साहित्य और दिगम्बर साहित्य के प्राचीन ग्रन्थों में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज किस रूप में उपस्थित है, इसका अन्वेषणपूर्वक विश्लेषण किया है । गुणस्थान सिद्धान्त के ऐतिहासिक विकास क्रम को समझने की दृष्टि से यह चारों अध्याय शोधपूर्ण दृष्टि से लिखे गए हैं । इन अध्यायों में उन्होंने गुणस्थान सिद्धान्त के ऐतिहासिक विकासक्रम को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है । डॉ. सागरमल जैन की प्रस्तुत कृति की विस्तृत समीक्षा डॉ. धरमचन्द जैन ने की है । इस सम्बन्ध में वे लिखते हैं कि डॉ. सागरमल जैन ने अपनी शोध-कृति में यह प्रतिपादित किया है कि जैनधर्म में इन चौदह गुणस्थानों की अवधारणा धीरे-धीरे विकसित हुई है। डॉ. सागरमल जैन का मन्तव्य है कि गुणस्थान सिद्धान्त की सुव्यवस्थित अवधारणा चौथी और पांचवी शती ईस्वी के मध्य निर्मित हुई है । इस मन्तव्य का आधार भी जैन ग्रन्थ ही है, जिनमें गुणस्थान सिद्धान्त का क्रमिक विकास दिखाई पड़ता है। डॉ. जैन ने अपना यह मन्तव्य दिगम्बर, श्वेताम्बर एवं यापनीय सम्प्रदाय के मान्य ग्रन्थों एवं तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर निर्धारित किया है। यही नहीं, उन्होंने गुणस्थान सिद्धान्त के उल्लेख-अनुलेख के आधार पर अनेक जैन ग्रन्थों का पौर्वापर्य भी सिद्ध किया है । डॉ. सागरमल जैन का यह मौलिक विश्लेषण है कि गुणस्थान सिद्धान्त एवं चौदह गुणस्थानों की अवधारणा शनैः-शनैः विकसित हुई है । डॉ. जैन ने अपने मन्तव्य हेतु निम्नांकित प्रमुख तर्क दिए हैं - (१) आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित, दशवैकालिक, भगवती आदि प्राचीन स्तर के आगमों में गुणस्थान की अवधारणा का कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है । श्वेताम्बर परम्परा में सर्वप्रथम समवायांग में जीवस्थान के नाम से चौदह Jain Education Intemational Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... सप्तम अध्याय........{443} गुणस्थानों का उल्लेख हुआ है ।४२४ । (२) समवायांग के पश्चात् श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थानों के चौदह नामों का उल्लेख आवश्यकनियुक्ति में प्राप्त होता है,४२५ किन्तु यहाँ पर इनकी गणना चौदह भूतग्रामों का वर्णन करते समय गुणस्थान शब्द का उल्लेख किए बिना ही की गई है, किन्तु डॉ सागरमल जैन ने इन्हें आवश्यकनियुक्ति में प्रक्षिप्त माना है, क्योंकि हरिभद्रसूरि (वीं शती) ने आवश्यकनियुक्ति की टीका में 'अधुनामुनैव गुणस्थान द्वारेण दर्शयानाह संग्रहणिकार' - कहकर इन गाथाओं को उद्धृत किया है । नियुक्तियों के गाथा क्रम में भी इन गाथाओं की गणना नहीं की जाती है। इससे यह सिद्ध होता है कि नियुक्ति में ये गाथाएं संग्रहणीसत्र से प्रक्षिप्त की गई है। (३) प्राचीन प्रकीर्णको में भी गुणस्थान की अवधारणा का अभाव है। (४) श्वेताम्बर परम्परा में इन चौदह अवस्थाओं के लिए गुणस्थान शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग आवश्यकचूर्णि (सातवीं शती) में मिलता है । जिनदासगणि ने इनका तीन पृष्ठों में विवरण दिया है।४२६ तत्त्वार्थभाष्य पर सिद्धसेनगणि की वृत्ति४२७ एवं हरिभद्रसूरि की तत्त्वार्थसूत्र की टीका २८ में भी इस सिद्धान्त का संक्षिप्त विवेचन ही हुआ है। (५) दिगम्बर परम्परा में कसायपाहुड को छोड़कर षट्खण्डागम४२६, मूलाचार ३०, भगवतीआराधना ३१ और कुन्दकुन्द के समयसार, नियमसार जैसे अध्यात्मप्रधान ग्रन्थों में तथा तत्त्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि ३२, राजवार्तिक ३३, श्लोकवार्तिक ३४ आदि टीकाओं में गुणस्थान सिद्धान्त का विस्तृत विवेचन हुआ है। षट्खण्डागम के प्रारंभिक अंश को छोड़कर सभी उपर्युक्त ग्रन्थों में गुणस्थान शब्द का प्रयोग हुआ है । षट्खण्डागम के प्रारम्भ में भी इन्हें जीवसमास कहा गया है। डॉ. धरमचंद जैन द्वारा प्रस्तुत यह विश्लेषण इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि डॉ. सागरमल जैन के अनुसार गुणस्थान सिद्धान्त का विकास लगभग पांचवीं शताब्दी में ही हुआ है । उनके इस अभिमत से चाहे हम सहमत हों या न हों, किन्तु उनके तर्कों में बल अवश्य ही है । प्रस्तुत शोधग्रन्थ में हमने गुणस्थानों की इस चर्चा के प्रसंग में श्वेताम्बर और दिगम्बर साहित्य का आलेोडन किया है । इस आलोडन में हमने भी यह पाया है कि सम्पूर्ण श्वेताम्बर आगम साहित्य में कहीं भी गुणस्थान सम्बन्धी शब्द का उल्लेख नहीं है । यद्यपि गुणस्थान की अवधारणा में जिन चौदह अवस्थाओं का प्रतिपादन किया गया है, उनमें सास्वादन को छोड़कर शेष १३ का उल्लेख भगवतीसूत्र में उपलब्ध हो जाता है, फिर भी उन सब उल्लेखों को देखकर यह कहना कठिन ही है कि वे सब अवस्थाएं गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित हैं, किन्तु डॉ. धरमचंद जैन ने डॉ. सागरमल जैन की उपर्युक्त मान्यता की समीक्षा करते हुए यह बताने का प्रयास किया है कि आगम साहित्य के बहुल अंश का विलोप हो जाने के कारण ही यह सम्भव है कि गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा प्राचीन काल में रही है, किन्तु उन अंशों के विलुप्त हो जाने से वर्तमान में आगमों में ४२४ कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउदृश जीवद्वाणा पण्णता, तं जहा-मिच्छदिट्टि, सासायणसम्मदिट्ठि, सम्मामिच्छदिट्टि, अविरयसम्मादिट्ठि, विरयाविरए, पमत्तसंजए, अप्पमत्तसंजए, निअट्टिषायरे, अनियट्टिबाथरे, सूक्ष्मसंपराए, उपसामए वा खवए वा उपसंतमोहे, क्षीणमोहे, सजोगीकेवली, अयोगी केवली । - समयावांग (आगम प्रकाशन, ब्यावर) समवाय - १४ ४२५ मिच्छदिट्टि सासायणे य तह सम्ममिच्छदिट्ठि य । अविरयसम्मदिट्ठि विरयाविरए पमत्तेय । तत्तो ये अप्पमत्तो नियट्टिअनियट्टि बायरे सुहुमे । उवसंत खीणमोहे होइ सजोगी अजोगीय - आवश्यकनियुक्ति, नियुक्तिसंग्रह, पृ.१४० ४२६ तत्थ इमातिं चौदस गुणट्ठाणाणि.....अजोगी केवली नाम से लेखीपाडिवन्नओ, सो य तीहि जोगेहि....मुक्को सिद्ध भवति । - आवश्यकचूर्णि (जिनदासगणि) उत्तरभाग, रतलाम, १६२६, पृ. १३३-१३६ ४२७ तत्त्वार्थाधिगमसूत्र (सिद्धसेनगणिकृत भाष्यानुसारिणिका समलंकृत. सं हीरालाल रसीकलाल कापड़िया) ६३५ टीका । ४२८ तत्त्वार्थसूत्रम् (टीका-हरिभद्र) ऋषभदेव केशरीमल श्वेताम्बर संस्था, रतलाम सं. १६६२, पृ. ४६५ ४२६ षट्खण्डागम (सत्प्ररूपणा) प्रकाशन जैन संस्कृति रक्षक संघ, सोलापुर, पुस्तक - १, द्वितीय संस्करण, सन् १६७३, पृ. १५४ से २०१ ४३० मूलाचार, पृ. २७३-७६ माणिकचंद दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला (२३) मुम्बई ईस्वी सन् १९३० ४३१ भगवतीआराधना, भाग-२ सम्पा. कैलाशचन्द्र शास्त्री, पृ.६८० ४३२ सर्वार्थसिद्धि (भारतीय ज्ञानपीठ) सूत्र -१-८ की टीका तथा ६-१२ की टीका ४३३ राजवार्तिक, ६, १० - ११ ४३४ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (विद्यानन्द) सूत्र १०-३, ६-३६, ६-३७, ६-३३-४४ Jain Education Intemational Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... सप्तम अध्याय........{444) उपलब्ध नहीं है । इस सम्बन्ध में वे लिखते हैं कि (१) भगवान महावीर ने अर्थरूप में जो उपदेश दिया था, वह शब्द रूप में गणधरों द्वारा गूंथा गया था उसके विश्रृङ्खलित हो जाने के कारण अनेक समस्याएँ हुई, उनमें से एक समस्या आध्यात्मिक विकास के विभिन्न आयामों को निरूपित करने की भी रही है। आध्यात्मिक विकास की जो अवस्थाएँ प्रारंभिक काल में प्रतिपादित रही होगी, उनका उल्लेख करनेवाले प्राचीन ग्रन्थों के अनुपलब्ध होने से यह समस्या उत्पन्न हुई । इसके विपरीत डॉ. सागरमल जैन ने गुणस्थान सिद्धान्त का जो तार्किक एवं प्रमाणोपेत विश्लेषण किया है, वह इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि जैन दर्शन में सिद्धान्तों के विकास की प्रक्रिया निरन्तर गतिशील रही है। उनके इस मत से मैं सहमत भी हूँ, क्योंकि ऐसा ही एक सिद्धान्त अनेकान्तवाद भी है जिसके मूल बीज ही आगमों एवं तत्त्वार्थसूत्र में उपलब्ध हैं, तथापि उसका सुव्यवस्थित रूप आचार्य सिद्धसेन दिवाकर एवं आचार्य समन्तभद्र के ग्रन्थों में दृष्टिगोचर होता है । फिर भी गुणस्थान सिद्धान्त को अनेकान्त के दार्शनिक विकास की भाँति नहीं देखा जा सकता, क्योंकि इसके व्यवस्थापन का आधार प्राचीन आगम या कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी साहित्य रहा है। आचारांगनियुक्ति में प्राप्त गुणश्रेणी की गाथाओं के सम्बन्ध में ऐसा डॉ सागरमलजी ने स्वीकार भी किया है कि नियुक्ति में ये गाथाएं किसी प्राचीन कर्म सिद्धान्त सम्बन्धी साहित्य से ली गई प्रतीत होती है। प्रस्तुत कृति का पंचम अध्याय आत्मा के आध्यात्मिक विकासक्रम को स्पष्ट करता है । इस अध्याय में डॉ. जैन ने बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के स्वरूप की चर्चा की है । तथा इसके साथ ही यथाप्रवृत्ति अनिवृत्तिकरण की चर्चा के साथ ग्रंथिभेद को समझाने का प्रयास किया है । षष्ठ अध्याय में गुणस्थानों के स्वरूप को तथा सप्तम अध्याय में गुणस्थान सिद्धान्त और जैन कर्मसिद्धान्त के पारस्परिक सम्बन्ध को स्पष्ट किया गया है । यह समस्त चर्चा हमें प्राचीन साहित्य में भी उपलब्ध होती है । डॉ. सागरमल जैन ने प्राचीन ग्रन्थों के आधार पर यहाँ उसे हिन्दी भाषा में स्पष्ट करने का प्रयास किया है । यह दोनों अध्याय वस्तुतः विवरणात्मक है और इनका आधार मुख्य रूप से गोम्मटसार और कर्मस्तव नामक द्वितीय कर्मग्रन्थ रहे हैं । इस सम्बन्ध में स्वयं उन्होंने भी इस तथ्य को स्वीकार करते हुए कहा है "मैंने इस अवधारणा को कर्मस्तव नामक द्वितीय कर्मग्रन्थ में पंडित सुखलालजी संघवी द्वारा दी गई तालिकाओं के आधार पर स्पष्ट किया है।" प्रस्तुत कृति का अष्टम अध्याय गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करता है यह अध्याय निश्चय ही तुलनात्मक दृष्टि से महत्वपूर्ण है । इस अध्याय में डॉ. सागरमल जैन ने सर्वप्रथम पंडित सुखलालजी के योगवाशिष्ठ के गुणस्थान सिद्धान्त के साथ तुलनात्मक अध्ययन को आधार बनाकर उसमें प्रतिपादित ज्ञान और अज्ञान की चौदह अवस्थाओं से गुणस्थान सिद्धान्त की तुलना प्रस्तुत की । इस तुलनात्मक अध्ययन में डॉ. जैन का वैशिष्ट्य यह है कि उन्होंने न केवल योगवाशिष्ठ के आधार पर अपितु बौद्धदर्शन के हीनयान सम्प्रदाय की स्रोतापन, सकृदागामी, अनागामी, अर्हद्भूमि के आधार पर भी गुणस्थान सिद्धान्त की व्यापक चर्चा की है। इसी क्रम में आगे उन्होंने बौद्धदर्शन के माहयान सम्प्रदाय की दस भूमियों के आधार पर ही गुणस्थान सिद्धान्त का तुलनात्मक व्यापक विश्लेषण प्रस्तुत किया है । इसके पश्चात् उन्होंने गीता के सत्व, रज को आधार बनाकर उनके संयोग से चौदह भूमियों की रचना कर गुणस्थान सिद्धान्त का तुलनात्मक विवेचन प्रस्तुत किया है । बौद्धर्शन के दोनों सम्प्रदाय तथा गीता के सम्बन्ध में उनका यह विवेचन मौलिक है और इसे उन्होंने आज से लगभग ३५ वर्ष पूर्व अपने जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन नामक शोधप्रबन्ध में प्रस्तुत किया है । अन्य ग्रन्थों में तलनात्मक अध्ययन के सम्बन्ध में हमें जो विवेचनाएं उपलब्ध होती हैं, वे इसी आधार पर प्रतीत होती हैं । इस तुलनात्मक अध्ययन के अन्त में उन्होंने योगदर्शन में चित्त की जो पांच अवस्थाएं प्रतिपादित की है, उनकी तुलना आचार्य हरिभद्रसूरि द्वारा प्रतिपादित आठ योगदृष्टि तथा आचार्य हरिभद्र द्वारा ही योगबिंदु में प्रतिपादित आध्यात्मिक विकास क्रम की पांच भूमिका से की है। साथ ही उन्होंने पंडित सुखलालजी और प्रोफेसर हार्नले के उल्लेखों के आधार पर आजीविक सम्प्रदाय की आध्यात्मिक विकास की आठ अवस्थाओं की तुलना भी गुणस्थान की अवधारणा से की है । इस प्रकार हम देखते हैं कि तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से डॉ. सागरमल जैन ने अति व्यापक और विस्तृत विवेचन प्रस्तुत किया है । चूंकि प्रस्तुत शोधप्रबन्ध में तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से एक स्वतन्त्र अध्याय का लेखन किया जा रहा है । अतः यहाँ इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा न करके डॉ. सागरमल जैन के 'गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण' के समीक्षात्मक विवरण को यहीं विराम देना चाहेंगे। Jain Education Interational nternational www.jain Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 8 8 गुणस्थान की अवधारणा एक तुलनात्मक विवेचन योगवासिष्ठ की चौदह भूमिकाएँ और गुणस्थान । योगदर्शन की मन की पांच अवस्थाएँ और गुणस्थान। शैवदर्शन की दस भूमिकाएँ और गुणस्थान। गीता का त्रिगुण सिद्धान्त और गुणस्थान। बौद्ध दर्शन और गुणस्थान की अवधारणा। आजीवक सम्प्रदाय की आध्यात्मिक विकास की भूमियाँ और गुणस्थान। युग का व्यक्तित्व मनोविज्ञान और गुणस्थान। Join Education International Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAAAAAAAAAAAA000000000 अध्याय 8 | गुणस्थान की अवधारणा : एक तुलनात्मक विवेचन योगवसिष्ठ की चौदह भमिकाएँ और चौदह गणस्थान पं.सुखलालजी, डॉ.सागरमल जैन, आचार्य जयन्तसेनसरिजी आदि ने योगवसिष्ठ की १४ भूमिकाओं की १४ गुणस्थानों से तुलना की है । सभी भारतीय धर्मों एवं दर्शनों को आध्यात्मिक विकास इष्ट एवं अभिप्रेत है । वैदिक दर्शन भी प्रायः आस्तिकवादी है, अतः जैनदर्शन की तरह वैदिक परम्परा में भी आत्म विकास के सम्बन्ध में विचार किया गया है । विशेषतया योगवसिष्ठ, पांतजल योग आदि ग्रन्थों में आत्मा के विकास की भूमिकाओं के विषय में कुछ अधिक वर्णन किया गया है। वर्णनशैली की भिन्नता होने पर भी आध्यात्मिक विकास प्रयोजनभूत दृष्टि की अपेक्षा से अल्प भेद है। जैन ग्रन्थों में मिथ्यादृष्टि या बहिरात्मा के नाम से अज्ञानी जीव का लक्षण बतलाया है कि अनात्म जड़ तत्व में जो आत्मबुद्धि करता है, वह मिथ्यादृष्टि या बहिरात्मा है४३५। योगवसिष्ठ०३६ तथा पांतजल योगसूत्र ३७ में भी अज्ञानी जीव का यही लक्षण है । जैसे जैन ग्रन्थों में मिथ्यात्वमोह का संसार वृद्धि और दुःख रूप फल वर्णित है,४३८ वैसे ही वही बात योगवसिष्ठ०३६ में अज्ञान के फल के रूप में कही गई है । योगवसिष्ठ में अविद्या से तृष्णा और तृष्णा से दुःख का अनुभव तथा विद्या से अविद्या का नाश४४० जो क्रम वर्णित है, वैसा ही क्रम जैन शास्त्रों में मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञान के निरूपण द्वारा यथाप्रसंग वर्णित किया गया है । योगवसिष्ठ में जो अविद्या का विद्या से और विद्या का निर्विकल्पदशा से नाश बताया गया है, यह बात जैन शास्त्रों में माने हुए मतिज्ञान आदि क्षायोपशमिक ज्ञान से मिथ्याज्ञान के नाश और क्षायिकज्ञान से क्षायोपशमिक ज्ञान के नाश के समान है। ४३५ आत्मधिया समुपातकायादिः कीर्त्यतेऽत्र बहिरात्मा - योगशास्त्र प्रकारा-१२ ४३६ यस्याज्ञानात्मनो ज्ञस्य, देह एवात्मभावना । उदितेति रूषैवाक्षरिपवोउमि एवात्मभावना ।। योगवसिष्ठ निर्वाण प्रकरण पूर्वार्ध सर्ग ६ ४३७ (क) अनित्याशुचि दुःखनात्मसु नित्यशुचि - सुखात्मख्यातिरविद्या पातंजल योगदर्शन साधना पादसूत्र ५ (ख) अविद्या मोह अनात्मन्यात्मरभिमान इति पातंजल योगदर्शन भोजदेव वृत्ति पृष्ठ १४१ ४३८ विकल्प चषकैरात्मा, पीतमोहासवो स्यम् । भवोच्च तालमुत्ताल, प्रपंचमधितिष्ठति ।। ज्ञानसार, मोहाष्टक-५ ४३६ अज्ञानात्प्रसूता यस्मात् जगत्पर्ण परम्परा । यस्मिस्तिष्ठन्ति राजते विशन्ति विलसन्ति च ।। योगवसिष्ठ निर्वाण प्रकरण सर्ग ६/५३ ४४० जन्म पर्णादिना रन्धा, विनाशच्छिद्र चन्चुका। भोगा भोगरस्ता पूर्णा, विचारैक घुणक्षता ।। योगवसिष्ठ निर्वाण प्रकरण सर्ग /११ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... अष्टम अध्याय........{446} जैन शास्त्रों में मुख्यतः मोह को ही बन्ध का कारण माना है, वैसे ही योगवसिष्ठ ४१ में भी अलग ढंग से वही बात कही गई है । जैन ग्रन्थों में जैसे ग्रंथिभेद का वर्णन है, वैसे ही ग्रंथिभेद का वर्णन योगवसिष्ठ४४२ में भी है। जैन शास्त्रों में सम्यग्दृष्टि का सम्यग्ज्ञान और मिथ्यादृष्टि का मिथ्याज्ञान लक्षण माना गया है, वैसे ही योगवसिष्ठ में स्वरूप स्थिति को ज्ञानी का और स्वरूपभ्रंश को अज्ञानी माना गया है।४४३ योगवसिष्ठ में सम्यग्ज्ञान का जो लक्षण बताया गया है,४४४ वह जैन शास्त्रों के समान है। जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति निसर्ग और अधिगम - इन दो प्रकारों से बताई गई है, उसी तरह योगवसिष्ठ में भी ज्ञान प्राप्ति का वैसा ही क्रम सूचित किया गया है । इस प्रकार से जैनदर्शन के अन्य विचारों के अनुरूप और दूसरे विचार भी योगवसिष्ठ में उल्लेखित हैं, जो तुलनात्मक दृष्टि से मननीय हैं। __ जैनदर्शन में आत्मविकास के क्रम को बतलाने के लिए जैसे १४ गुणस्थान माने गए हैं, वैसे ही योगवसिष्ठ में भी चौदह भूमिकाओं का बड़ा रुचिकर वर्णन है । उनमें सात अज्ञान और सात ज्ञान की भूमिकाएँ हैं,४४५ जो जैन परिभाषा के अनुसार क्रमशः मिथ्यात्व की और सम्यक्त्व की सूचक है । अज्ञान और ज्ञान की सात-सात भूमिकाओं के नाम इस प्रकार हैं - अज्ञान की सात भूमिकाएँ - बीजजागृत, जागृत, महाजागृत, जागृतस्वप्न, स्वप्न, स्वप्नजागृत और सुषुप्तक ।४४६ ज्ञान की सात भूमिकाएँ - शुभेच्छा, विचारणा, तनुमानसा, सत्वापत्ति, असंसक्ति, परार्थाभामिनी और तर्यागा५४७। इस प्रकार जैन परम्परा के चौदह गुणस्थानों के समान ही योगवसिष्ठ में आध्यात्मिक विकास की चौदह सीढ़ियाँ मानी गई (१) बीजजागृत - जागरण आदि के माथावरा चैतन्य से प्राणधारण आदि क्रिया रूप उपाधि से भविष्य में होने वाले चित्त, जीव आदि शब्दों और उनके अर्थों के भाजनरूप तथा जागृति की बीजभूत जो प्रथम चेतन दशा है, उसे बीजजागृत कहते हैं,४४८ अर्थात् इस भूमिका में जागृति की योग्यता बीजरूप में होती है। यह अवस्था वनस्पति निकाय आदि के जीवों को होती है। (२) जागृत - बीजजागृति के बाद 'मैं और मेरा' (अहं और मम) ऐसी जो प्रतीती होती हैं, उसे जागृत कहते हैं४४६ अर्थात् इसमें अहंकार और ममत्व वृद्धि अल्प मात्रा में जागृत होने से इस अवस्था को जागृत भूमि कहा गया है । यह चेतना की प्रसुप्त अवस्था है । यह अवस्था कीड़े-मकोड़े, पशु-पक्षी आदि की होती है। (३) महाजागृत - ऐहिक या जन्मान्तरीय दृढ़ाभ्यास से दृढ़ता को प्राप्त जागृत प्रत्यय महाजागृत है।४५० इसमें ममत्व बुद्धि विशेष रूप से पुष्ट होने के कारण इसे महाजागृत कहते हैं। यह आत्मचेतना की अवस्था है । यह भूमिका देव और मानवसमूह योगवसिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग १/२० योगवसिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग ११८/२३ योगवसिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग ११७/५ योगवसिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग ७६/२ ४४१ अविधा संसृतिर्बन्धो, माया मोहो महत्तमः । कल्पिता नीति नामानि, यस्या सकलवदिभिः ।। ४४२ ज्ञप्तिर्हि ग्रंथिविच्छेदस्तस्मिन् सति हि मुक्तता। मृगतृष्णा बुद्धयादि, शान्तिमात्रात्मकस्त्वयौ ।। ४४३ स्वरूपास्थितिमुक्तिस्तद् ग्रंशोऽहत्व वेदनम् । एतत् संक्षेपतः प्रोक्तं तज्ज्ञत्वात्ज्ञत्व लक्षणम् ।। ४४४ अनाद्यनन्तावभासात्मा, परमात्मेह विद्यते। . इत्येको निश्चयः स्फारः, सम्यग्ज्ञानं विदुर्बुधाः ।। ४४५ अज्ञान भूः सप्तसदा, ज्ञभूः सप्तदैव हि । पदान्तराण्यसंख्यानि भवन्त्ययान्य चैतयोः ।। ४४६ बीज जागृत्तया जागृन्महाजागृत तथैव च । जागृतस्वप्नस्तया स्वप्नः, स्वप्नजागृत्सुषुप्तकम् ।। इति सप्तविधो मोहः पुनरेव परस्परम् ।। ४४७ योगवसिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग ११८/५,६ ४४८ भविष्यच्चित्त जीवादि, नामशब्दार्थभाजनम् । बीजरूपं स्थितं जागृद्, बीजजागृतदुच्यते ।। ४४६ योगवसिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग ११७/१५, १६ ४५० अयं सो एहमिदं तन्मम, इति जन्मान्तरोदितः । पीवारः प्रत्ययः प्रोक्तो महाजागृतदिति स्फुरन् ।। योगवसिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग ११७/२ योगवसिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग ११७/११, १२ योगवसिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग ११७/१४ योगवसिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग ११७/१६, १७ Jain Education Intemational Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... में सम्भव मानी जा सकती है । (४) जागृत स्वप्न - जागते हुए भी भ्रम से ग्रसित रहना जागृतस्वप्न है। ४५१ यह मनोकल्पना की अवस्था है । इसे आधुनिक मनोविज्ञान में दिवास्वप्न की अवस्था कहते हैं । (५) स्वप्न - निद्रा अवस्था में आए हुए स्वप्न का जागने के पश्चात् भी भान होना, अनुभव करना स्वप्नावस्था है । ४५२ (६) स्वप्नजागृत- जागने पर भी लम्बे काल तक स्वप्न के स्थायित्व की कल्पना में डूबे रहना, उसे सत्य मानना स्वप्नजागृत है । ४५३ वर्षों तक प्रारम्भ रहे स्वप्न का इसमें समावेश होता है। शरीरपात हो जाने पर भी यह चलता रहता है । (७) सुषुप्तक - जिसमें प्रगाढ़ अज्ञान के कारण जीव की जड़ जैसी स्थिति हो जाती है, उसे सुषुप्तक कहते हैं । ४५४ अज्ञान की उपर्युक्त सात अवस्थाओं में से सुषुप्ति के बिना छः अवस्थाएँ कर्म फल की भोग भूमि रूप होने से कर्मज है । सुषुप्ति अवस्था तो उद्धृत कर्मो का योग से क्षय होने पर, दूसरे कर्मों का अनुदय होने पर और मध्यकाल में भोग्य सकल स्थूलसूक्ष्म प्रपंच के विलीन हो जाने पर प्रपंच के बीज अज्ञान मात्र के शेष रहने से अज्ञानोपहित चैतन्य शेष रूप ही है, जो जीव की जड़ावस्था है। इस प्रकार की जड़ावस्था का ही अपरनाम सुषुप्ति है। अज्ञान की सात भूमिकाओं के पश्चात् अब ज्ञान की सात भूमिकाओं का स्वरूप बतलाया है - (८) शुभेच्छा - आत्म अवलोकन की वैराग्य युक्त इच्छा को शुभेच्छा कहते हैं । ४५५ यह कल्याण की कामना है । (६) विचारणा - शास्त्राभ्यास, गुरुजनों के संसर्ग तथा वैराग्य और अभ्यासपूर्वक प्रवृत्ति विचारणा कहलाती है । ४५६ (१०) तनुमानसा - शुभेच्छा और विचारणा के कारण इन्द्रिय विषयों में अवसक्तता रूप जो तनुता (सविकल्प समाधिरूप सूक्ष्मता ) होती है, वह तनुमानसा नामक भूमिका है । ४५७ यह इच्छाओं और वासनाओं के क्षीण होने की अवस्था है । (११) सत्वापत्ति - शुभेच्छा विचारणा और तनुमानसा इन तीनों भूमिकाओं के अभ्यास से बाह्य विषयों में संस्कार न रहने के कारण चित्त में अत्यन्त विरक्ति होने से शुद्ध आत्म स्वरूप में स्थित यानि निर्विकल्प समाधिरूप जो स्थिति है, वह सत्वा है ४८ (१२) असंसक्ति - पूर्वोक्त चार ज्ञान भूमिकाओं के अभ्यास से बाह्य और आभ्यन्तर विषयविकारों के सम्बन्ध नष्ट हो जाने से चित्त में निरातिशय आनन्द की अनुभूति होती है, यही असंसक्ति है । (१३) पदार्थ भाविनी - पूर्वोक्त पांच भूमिकाओं के अभ्यास से बाह्य और आभ्यन्तर सभी पर पदार्थों से इच्छाओं के नष्ट हो जाने पर आत्मस्वरूप में जो दृढ़ स्थिति होती है, उसे पदार्थभाविनी अवस्था कहते है । (१४) तुर्यगा- पूर्वोक्त छः भूमिकाओं के चिरकालीन अभ्यास से आत्मा का पर-पदार्थों से भेद ज्ञान हो जाने पर एकमात्र स्वभाव में स्थिर हो जाना तुर्यगा अवस्था है । यह जीवन्मुक्त जैसी अवस्था है । तत्पश्चात् विदेहमुक्त तुर्यातीत स्थिति है । ४५६ अज्ञान की भूमिकाओं में उत्तरोत्तर अज्ञान का प्राबल्य होने से उन्हें अविकासकाल और ज्ञान की भूमिकाओं में क्रमशः ज्ञानविकास में वृद्धि होने से उन्हें विकासक्रम की श्रेणियाँ कह सकते हैं । ज्ञान की सातवीं भूमिका तुर्यगा में विकास पूर्णता को प्राप्त करता है और उसके बाद की स्थिति मोक्ष है । आध्यात्मिक विकास की पूर्णता को प्राप्त स्थिति को जैन परम्परा में अरिहंत और उसके बाद की तुर्यातीत स्थिति को सिद्धदशा कहा गया है । ४५१ यज्जोगृती मनोराज्यं, जागृत स्वप्न स उच्यते । ४५२ वही २० ४५३ वही २१, २२ ४५४.......जड़ा जीवस्य या स्थिति । भविष्यद् दुःखबोधाढ्या सौषुप्ती सोच्यते गतिः ।। योगवसिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग ११७/२२, २३ ४५५ वैराग्यपूर्वमिच्छेति शुभेच्छेत्युच्यते बुधैः । ४५६ वही ६ ४५७ विचारणा शुभेच्छाभ्यामिन्द्रियार्थे ऽ वसक्तता । याऽत्र सा तनुता भावात् प्रोच्यते तनुमानसा ।। ४५८ वही ११ ४५६ वही १५, १६ अष्टम अध्याय.....{447} योगवसिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग ११७ / १२ योगवसिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग ११८/८ वही १० Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... अष्टम अध्याय........{448} त्रयोगदर्शन में मन की पांच अवस्थाएँ और गुणस्थान k योगसाधना का लक्ष्य चित्तवृत्तिनिरोध है। योगदर्शन में योग की परिभाषा 'योगः चित्तःवृत्तिनिरोधः' है। योगदर्शन में चित्तवृत्ति-निरोध को इसीलिए साध्य माना गया है कि सारे दुःखों का मूल चित्त विकल्प है और वह राग या आसक्तिजनित है। जब राग भाव होगा तो चित्त विकल्प होंगे और मानसिक तनाव होगा तथा मानसिक तनाव के कारण समाधि को प्राप्त नहीं होगा। समाधि पाने के लिए निर्विकल्प होना आवश्यक है । योगदर्शन में चित्त की पांच अवस्थाएँ बताई गई हैं, वे क्रमशः साधना के विकास क्रम की ही सूचक है। चित्त की ये पांच अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं - (१) मूढ़-इस अवस्था में तमोगुण की प्रधानता होती है, जिससे कर्तव्य और अकर्तव्य का विवेक न रहकर क्रोधादि के द्वारा बुरे कार्यों से जोड़ती है । इस अवस्था में न तो सत्य जानने की जिज्ञासा होती है और न ही धर्म के प्रति रुचि होती है । इसमें अज्ञान और आलस्य की प्रमुखता रहती है । ऐसी अवस्था अविकसित बुद्धि वाले मनुष्यों और पशुओं में देखने को मिलती है। यह अवस्था जैनदर्शन में मिथ्यात्व गुणस्थान के समान है। (२) क्षिप्त-इस अवस्था में रजोगुण की प्रधानता होती है । रजोगुण की प्रबलता के कारण चित्त सदैव चंचल रहता है। सांसारिक विषय वासनाओं में अभिरुचि होने के कारण मन केन्द्रित नहीं रहता । यह क्षिप्त भूमि दैत्य दानवों की होती है । रजोगुण और तमोगुण का मिश्रण होने पर क्रूरता, कामांधता, लोभ आदि की प्रवृत्तियाँ बढ़ती रहती है और सत्वगुण का संयोग होने पर कभी-कभी तत्व जिज्ञासा और संसार की दुःखमयता का आभास होने लगता है । जैनदर्शन के अनुसार मिथ्यात्व गुणस्थान से ही इस अवस्था की तुलना की जा सकती है, किन्तु यह उस व्यक्ति की अवस्था है जो सम्यक्त्व का स्पर्श कर मिथ्यात्व में गिरा है। अतः किसी सीमा तक इसे सास्वादन और मिश्र गुणस्थान से भी तुलनीय माना जा सकता है। . (३) विक्षिप्त-इसमें सत्वगुण की प्रधानता होती है, किन्तु रजोगुण और तमोगुण की उपस्थिति के कारण सत्वगुण का इनसे संघर्ष चलता रहता है । यह शुभ और अशुभ के संघर्ष की अवस्था है । सत्वगुण की अधिकता की वृत्ति दुःख के साधनों को विशेषतः नष्ट करके, सुख के साधनों में लगी रहती है । वह धार्मिक वृत्ति की ओर उन्मुख होती है, किन्तु रजोगुण के कारण चित्त विक्षिप्त बना रहता है । जैनदर्शन के अनुसार अविरतसम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान से इस अवस्था की तुलना की जा सकती है । यद्यपि सत्वगुण की प्रधानता होने से यह अवस्था पांचवें और छठे गुणस्थानों से कुछ अधिक निकटता रखती है। (४) एकाग्र-चित्त का प्रशस्त विषयों में एकाग्र होना, स्थिर रहना एकाग्र वृत्ति है । यह अवस्था चित्त की एकाग्रता की अवस्था है । जब रजोगुण और तमोगुण चला जाता है, तब चित्त की चंचलता को छोड़कर मन प्रशस्त विषय पर केन्द्रित रहता है । विचार शक्ति में सूक्ष्मता अधिक हो जाती है। जिस वस्तु पर चित्त वृत्ति स्थिर हो जाती है, वह वस्तु उसके वशीभूत हो जाती है। इस भूमि को संप्रज्ञान योग, सबीज समाधि भी कह सकते हैं । इस भूमि की तुलना जैन परम्परा में सातवें से बारहवें गुणस्थान तक की भूमिकाओं से की जा सकती है । (५) निरूद्ध-चित्त की सम्पूर्ण वृत्तियों का समाप्त हो जाना निरूद्ध अवस्था कहलाती है। इस अवस्था को असंप्रज्ञान या निर्बीज समाधि भी कहते हैं । इस अवस्था को प्राप्त होने पर साधक का चित्त के साथ सम्बन्ध टूट जाता है और वह अपने स्वस्वरूप को प्राप्त कर लेता है ।४६० इस अवस्था की तुलना जैनशास्त्र में तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान से की जा सकती है। शैवदर्शन की दस भूमिकाएँ और गुणस्थान भारतीय परम्परा में आध्यात्मिक साधना को लेकर शैवदर्शन एक प्रमुख स्थान रखता है । शैवदर्शन के अनुसार व्यक्ति पशु न से किस प्रकार पशुपति (जिन) अवस्था को प्राप्त करता है, इसकी विस्तृत चर्चाएं उपलब्ध होती हैं । इस चर्चा के विस्तार में न जाकर हम डॉ प्रमिला जैन के षट्खण्डागम में गुणस्थान विवेचन के आधार पर 'शिवज्ञान बोध' नामक कृति में आध्यात्मिक विकास की जो दस अवस्थाएं चित्रित हैं, उनकी गुणस्थान की अवधारणा से तुलना प्रस्तुत करेंगे। ___'शिवज्ञान बोध' के अनुसार आध्यात्मिक विकास की दस अवस्थाएं हैं, जिन्हें दस कार्य कहा गया है । वे निम्नानुसार है४६० तरादुष्टः स्वरूपेऽवस्थानाम् । - पातंजल योगदर्शन १/३ Jain Education Intemational Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... अष्टम अध्याय........{449) (१) तत्वरूपा - गुण, कर्म, आकाश, दिशा, मन आदि छत्तीस तत्वों को अपने से पृथक् जानना तत्वरूपा नामक प्रथम अवस्था है। (२) तत्वदर्शन - गुण, कर्मादि छत्तीस तत्वों को अचेतन (जड़) समझना, तत्वदर्शन नामक द्वितीय अवस्था है । (३) तत्वशुद्धि-इन ३६ तत्वों से अपनी आत्मा को पृथक करना, उसे तत्वशुद्धि कहा गया है। (४) आत्मरूपा - अणु के भाव आणव अर्थात् शरीर के आत्म तत्व को मुक्त करना आत्मरूपा अवस्था है। ) आत्मदर्शन - अहंता और ममता का नाश आत्मदर्शन है। (६) आत्मशुद्धि - पाश के कारण कर्म होते हैं, इसका ज्ञान करना, यह आत्मशुद्धि की अवस्था है। (७) शिवरूप - शिव मोक्षदायी है, ऐसी दृढ़ आस्था को शिवरूप दशा कहा गया है । 1) शिवदर्शन - सर्वत्र शिव का दर्शन करना, यही शिवदर्शन नामक अवस्था है। (E) शिवयोग - शिव-शक्ति से तादात्म्य प्राप्त करना, शिवयोग नामक भूमिका है। (१०) शिवभोग - स्वयं शिवरूप होकर मुक्तावस्था में अतिन्द्रिय ब्रह्मनन्द का उपभोग करना शिवभोग नामक अन्तिम दसवीं भूमिका है। जैनशास्त्र के अनुसार इन्हें हम चौथे गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक घटित कर सकते हैं, क्योंकि ये सब तत्वरूप हैं। गीता का त्रिगुण सिद्धान्त और गुणस्थान भारतीय हिन्दूधर्म-दर्शन के विपुल साहित्य में गीता का एक महत्वपूर्ण स्थान है । परम्परागत विश्वास तो यह है कि कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था। यद्यपि इस परम्परागत मान्यता के सम्बन्ध में विद्वानों में मतैक्य नहीं है, फिर भी इतना तो निश्चित है कि गीता हिन्दू परम्परा का एक सारभूत ग्रन्थ है । गीता को उपनिषदों का सार कहा गया है । गीता का दार्शनिक चिंतन मुख्यतः सांख्यदर्शन से प्रभावित है । सांख्यदर्शन में पुरुष को बन्धन में डालनेवाला तत्व प्रकृति को माना गया है और यह प्रकृति त्रिगुणात्मक है । गीता में इन त्रिगुणों की कमी और अधिकता के आधार पर ही व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का निर्देश उपलब्ध होता है । डॉ. सागरमल जैन ने अपने शोधप्रबन्ध 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' में उल्लेखित इन त्रिगुणों के पारस्परिक सम्बन्धों तथा इनकी प्रमुखता और गौणता को लेकर चौदह गुणस्थानों की अवधारणा का तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत किया है । यहाँ हम उस कृति को आधार बनाकर गीता और जैनदर्शन में वर्णित आध्यात्मिक विकास की अवस्थाओं का तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत करेंगे। जैन आचार-दर्शन के चौदह गुणस्थानों की गीता के दृष्टिकोण से तुलना करने के लिए सर्वप्रथम हमें यह निश्चय करना होगा कि गीता में वर्णित तीनों गुणों का स्वरूप क्या है और वे जैन विचारणा के अनुसार किन-किन अवधारणा से मेल खाते हैं। गीता के अनुसार तमोगुण के लक्षण अज्ञान, जाड्यता, निष्क्रियता, प्रमाद, आलस्य, निद्रा और मोह हैं । रागात्मकता, तृष्णा, लोभ, क्रियाशीलता, अशान्ति और ईर्ष्या रजोगुण के लक्षण हैं । सत्वगुण ज्ञान के प्रकाश, निर्माल्यता सुखों का उत्पादक है । इन तीनों गुणों की प्रकृतियों के बारे में विचार करने पर ज्ञात होता है कि जैनदर्शन में बन्धन के पांच कारणों - (१) अज्ञान (मिथ्यात्व), (२) प्रमाद, (३) अविरति, (४) कषाय और (५) योग से इनकी तुलना की जा सकती है । तमोगुण को मिथ्यात्व और प्रमाद, रजोगुण को अविरति एवं कषाय सहित योग को तथा सत्वगुण को विशुद्ध ज्ञानोपयोग, दर्शनोपयोग, चारित्रोपयोग के तुल्य माना जा सकता है । इन तुल्य आधारों के द्वारा तुलना करने पर गुणस्थान की धारणा का गीता के अनुसार निम्नलिखित स्वरूप होगा - (१) मिथ्यात्व गुणस्थान - मिथ्यात्व गुणस्थान में तमोगुण प्रधान होता है और रजोगुण तमोन्मुखी प्रवृत्तियों में संलग्न होता है । सत्वगुण इस अवस्था में पूर्णतया तमोगुण और रजोगुण के अधीन होता है । यह रज समन्वित तमोगुण-प्रधान अवस्था है। (२) सास्वादन गुणस्थान की अवस्था में भी तमोगुण प्रधान होता है । रजोगुण तमोन्मुखी होता है, फिर भी किंचित् रूप में सत्वगुण का प्रकाश रहता है । यह सत्व, रज समन्वित तमोगुण प्रधान अवस्था है। (३) मिश्र गुणस्थान में रजोगुण प्रधान होता है । सत्व और तम दोनों ही रजोगुण के अधीन होते है । यह सत्व-तम समन्वित रजोगुण प्रधान अवस्था है । (४) सम्यक्त्व गुणस्थान में व्यक्ति के विचार पक्ष में सत्व गुण का प्राधान्य होता है । विचार की दृष्टि से तमस् और रजस् Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा... अष्टम अध्याय........{450} गुण सत्वगुण से शासित होता है । यह विचार की दृष्टि से रज समन्वित सत्व गुण प्रधान और आचार की दृष्टि से रज समन्वित तमोगुण प्रधान अवस्था है। (५) देशविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में विचार की दृष्टि से तो सत्वगुण प्रधान होता है, साथ ही आचार की दृष्टि से भी सत्व का विकास प्रारम्भ हो जाता है । यद्यपि रज और तम पर उसका प्राधान्य स्थापित नहीं हो पाता है । यह तमोगुण समन्वित सत्वोन्मुखी रजोगुण की अवस्था है। (६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान में यद्यपि आचार पक्ष और विचार पक्ष- दोनों में सत्वगुण प्रधान होता है, फिर भी तम और रज उसकी प्रधानता को स्वीकार नहीं करते हुए अपनी शक्ति बढ़ाने की और आचार पक्ष की दृष्टि से सत्व पर अपना प्रभुत्व जमाने की कोशिश करते रहते हैं। (७) अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में सत्वगुण, तमोगुण का या तो पूर्णतया उन्मूलन कर देता है, अथवा उस पर पूरा अधिकार जमा लेता है, लेकिन अभी रजोगुण पर उसका पूरा अधिकार नहीं हो पाता है। (८) अपूर्वकरण गुणस्थान में सत्वगुण रजोगुण पर पूरी तरह नियंत्रण करने का प्रयास करता है । (E) अनिवृत्तिकरण नामक नवें गुणस्थान में सत्वगुण, रजोगुण को काफी अशक्त बनाकर उस पर पूरा अधिकार जमा लेता है, फिर भी रजोगुण अभी पूर्णतया निःशेष नहीं होता है । रजोगुण के रूप में कषाय एवं तृष्णा का बहुत कुछ भाग नष्ट हो जाता है, फिर भी रागात्मकता सूक्ष्म लोभ के छद्मवेश में अवशेष रहती हैं। मसंपराय नामक गुणस्थान में साधक छद्मवेशी रजस् को, जो सत्व का छद्म स्वरूप धारण किए हुए था, पकड़कर उस पर अपना आधिपत्य स्थापित करता है। (११) उपशान्तमोह गुणस्थान में सत्व का तमस्, रजस् पर पूर्ण अधिकार तो होता है, लेकिन यदि सत्व पूर्ण अवस्थाओं में उनका पूर्णतया उन्मूलन नहीं करके मात्र उनका दमन करते हुए विकास की इस अवस्था को प्राप्त करता है, तो वे दमित तमस् और रजस् अवसर पाकर पुनः उस पर हावी हो जाते हैं। (१२) क्षीणमोह गुणस्थान विकास की वह कक्षा है, जिसमें साधक पूर्व अवस्थाओं के तमस् तथा रजस् का पूर्णतया उन्मूलन कर देता है । यह विशुद्ध सत्व गुण की अवस्था है । यहाँ आकर सत्व का रजस् और तमस् से चलने वाला संघर्ष समाप्त हो जाता है । साधक को अब सत्वरूपी उस साधन की भी कोई आवश्यकता नहीं रहती है, अतः वह ठीक उसी प्रकार सत्वगुण का भी परित्याग कर देता है जैसे काँटे के द्वारा काँटा निकाल लेने पर उस काँटा निकालने वाले काँटे का भी परित्याग कर दिया जाता है। यहाँ नैतिक पूर्णता प्राप्त हो जाने से विकास एवं तपन के कारणभूत तीनों गुणों का साधनरुपी स्थान समाप्त हो जाता है। (१३) सयोगीकेवली गुणस्थान आत्मतत्व की दृष्टि से त्रिगुणातीत अवस्था है । यद्यपि शरीर के रूप में इन तीनों का अस्तित्व बना रहता है, तथापि इस अवस्था में त्रिगुणात्मक शरीर में रहते हुए भी आत्मा उससे प्रभावित नहीं होती । वस्तुतः अब यह त्रिगुण भी साधन के रूप में संघर्ष की दशा में रहकर विभाव से स्वभाव बन जाते हैं । वह साधना में परिणत हो जाती है । साधन स्वभाव बन जाता है। डॉ. राधाकृष्णन् के शब्दों में, "तव सत्व उन्नयन के द्वारा चेतना का प्रकाश या ज्योति बन जाता है, रजस् तप बन जाता है और तमस् प्रशान्तता या शान्ति बन जाता है" ।४६१ (१४) गीता की दृष्टि से तुलना करने पर अयोगीकेवली गुणस्थान त्रिगुणातीत और देहातीत अवस्था माना जा सकता है। जब गीता का जीवन्मुक्त साधक योग प्रक्रिया के द्वारा अपने शरीर का परित्याग करता है, तो वही अवस्था जैन परम्परा अयोगीकेवली गुणस्थान कही जाती है। इस प्रकार तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि गीता की त्रिगुणात्मक प्रकृति धारणा जैन परम्परा की कर्मप्रकृति एवं उस पर आधारित गुणस्थान सिद्धान्त से निकट है । | बौद्धदर्शन और गुणस्थान की अवधारणा पं. सुखलालजी ने बौद्धदर्शन के साथ गुणस्थान सिद्धान्त की तुलना करते हुए कुछ भूमियों का निर्देश मात्र किया था, किन्तु डॉ सागरमल जैन ने इस तुलनात्मक अध्ययन को अपने शोधग्रन्थ जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक ४६१ भगवद्गीता : डॉ. राधाकृष्णन् ७/१६, ७/१८ Jain Education Intemational Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... अष्टम अध्याय........{451) अध्ययन में अधिक व्यापक बनाया है। जैन और बौद्ध साधना पद्धतियों में निर्वाण एवं मुक्ति के स्वरूप को लेकर मत-वैभिन्य भले ही हो, फिर भी दोनों का आदर्श है निर्वाण की उपलब्धि । साधक जितना अधिक निर्वाण की भूमिका के समीप होता है, उतना ही अधिक आध्यात्मिक विकास की सीमा का स्पर्श करता है । जैन परम्परा में आध्यात्मिक विकास की इन भूमियों की मान्यता को लेकर उसके अपने ही सम्प्रदायों में मत-वैभिन्य है । श्रावकयान अथवा हीनयान सम्प्रदाय जिसका लक्ष्य वैयक्तिक निर्वाण अथवा अर्हद् पद की प्राप्ति है, आध्यात्मिक विकास की चार भूमियाँ मानता है, जबकि महायान सम्प्रदाय, जिसका चरम लक्ष्य बुद्धत्व की प्राप्ति के द्वारा लोक-मंगल की साधना है, आध्यात्मिक की दस भूमियाँ मानता है। (अ) हीनयान में आध्यात्मिक विकास की चार भूमियाँ और गुणस्थान -बौद्धधर्म में भी जैनदर्शन के अनुसार संसारी प्राणियों को दो भागों में विभाजित किया है-(१) पृथन्जन या मिथ्यादृष्टि तथा (२) आर्य या सम्यग्दृष्टि। मिथ्यादृष्टि अथवा पृथन्जन अवस्था का काल प्राणी के अविकास का काल है। विकासकाल तब प्रारम्भ होता है, जब साधक सम्यग्दृष्टि को अपनाकर निर्वाण मार्ग पर प्रयाण शुरू कर देता है, फिर भी सभी पृथन्जन या मिथ्यादृष्टि प्राणी समान नहीं होते, उनमें तरतमता होती है। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं, जिनका दृष्टिकोण मिथ्या होने पर भी आचरण कुछ सम्यक् प्रकार का होता है, इसीलिए पृथन्जन भूमि को दो भागों में बाँटा गया है-(१) प्रथम अंध पृथन्जन भूमि-यह अज्ञान एवं मिथ्यादृष्टित्व की तीव्रता की अवस्था है एवं (२) कल्याण पृथन्जन भूमि । मज्झिम निकाय में इस भूमि का निर्देश है, जिसे धर्मानुसारी या श्रद्धानुसारी भूमि भी कहा गया है । इस भूमि में साधक निर्वाण मार्ग की ओर अभिमुख तो होता है, लेकिन उसे प्राप्त नहीं करता । इसकी तुलना जैनधर्म में साधक की मार्गानुसारी अवस्था से की जा सकती है। आचार्य जयन्तसेनसूरिजी ने अपने आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएँ एवं पूर्णता नामक ग्रन्थ में गुणस्थान की बौद्धदर्शन से तुलना करते हुए कहा है कि जैन शास्त्रों में जैसे कर्मबन्ध के कारण कर्मप्रकृतियों का वर्णन है, वैसे ही बौद्धदर्शन में दस संयोजनाएँ बताई गई हैं ४६२ (१) सक्काय (२) दिट्ठिविचिकिच्छा (३) सीलव्वत पराभास (४) कामराग (५) परीध, (६) रूपराग (७) अरूपता (८) मान (६) उदधच्च और (१०) अविज्जा । प्रथम की पांच औद्भागीय और शेष पांच उड्ढभागीय कही जाती है। इनमें से प्रथम तीन संयोजनाओं के क्षय होने पर स्रोतापत्र अवस्था प्राप्त होती है। पांच औद्भागीय संयोजनाओं के नष्ट होने पर अनागामी अवस्था एवं दसों संयोजनाओं के नाश होने पर अर्हतावस्था (अरिहंत, सयोगीकेवली) अवस्था प्राप्त होती है। यह वर्णन जैन शास्त्रगत कर्मप्रकृतियों के क्षयक्रम से मिलता-जुलता है। ____ हीनयान सम्प्रदाय के अनुसार सम्यग्दृष्टि सम्पन्न निर्वाणमार्ग पर आरूढ़ साधक को अपने लक्ष्य अर्हत् अवस्था करने के पूर्व इन चार भूमियों को पार करना होता है। सर्वप्रथम उन्होंने बौद्धधर्म के हीनयान सम्प्रदाय में आध्यात्मिक विकास की जो चार भूमियाँ हैं, उनकी गुणस्थान सिद्धान्त से तुलना की है । हीनयान सम्प्रदाय में आध्यात्मिक विकास की चार अवस्थाएं मानी गई है । स्रोतापनभूमि, सकृदागामीभूमि, अनागामीभूमि, अर्हद्भमि । इसमें स्रोतापनभूमि जैन गुणस्थान सिद्धान्त की तुलना करते हुए डॉ. सागरमल जैन बताते हैं कि जैन विचारधारा के अनुसार क्षायिक सम्यक्त्व से युक्त चतुर्थ सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक की जो अवस्थाएँ हैं, उनकी तुलना स्रोतापन्न अवस्था से की जा सकती है, क्योंकि जैन विचारधारा के अनुसार भी इन अवस्थाओं में साधक दर्शन (दृष्टिकोण) विशुद्धि एवं चारित्र (आचार) विशुद्धि से युक्त होता है । सातवें गुणस्थान तक वासनाओं का प्रकटन तो समाप्त हो जाता है, लेकिन उनके बीज (राग, द्वेष एवं मोह) सूक्ष्म रूप में बने रहते हैं, अर्थात् कषायों के तीनों चौक समाप्त होकर मात्र संज्वलन चौक शेष रहता है। जैन परम्परा की इस बात को बौद्ध परम्परा यह कहकर प्रकट करती है। अवस्था में कामधातु (वासनाएँ) तो समाप्त हो जाती है, लेकिन रूपधातु (आस्रव अर्थात् राग-द्वेष एवं मोह) शेष रहती है । इसी क्रम में सकृदागामी भूमि की गुणस्थान सिद्धान्त से तुलना करते हुए वे लिखते हैं कि सकृदागामी भूमि की तुलना जैनदर्शन के आठवें गुणस्थान से की जा सकती है । दोनों दृष्टिकोणों के अनुसार साधक इस अवस्था में बन्धन के मूल कारण राग-द्वेष-मोह का प्रहाण करता है और विकास की अग्रिम अवस्था, जिसे जैनधर्म क्षीणमोह गुणस्थान और बौद्ध विचार अनागामी भूमि कहता है, में प्रविष्ट हो जाता है । जैनधर्म के अनुसार जो साधक इन गुणस्थानों की साधनावस्था में ही आयु पूर्ण कर लेता है, वह अधिक से अधिक तीसरा जन्म निर्वाण प्राप्त कर लेता है, जबकि बौद्धधर्म के अनुसार सकृदागामी भूमि के साधनाकाल में मृत्यु ४६२ मराठी में भाषान्तरित दीधनिकाय पृ. १७५ की टिप्पणी। Jain Education Interational Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... अष्टम अध्याय........{452} को प्राप्त साधक एक बार ही पुनः संसार में जन्म ग्रहण करता है। दोनों विचारधाराओं का इस सन्दर्भ में मतैक्य है कि जो साधक इस साधना को पूर्ण कर लेता है, वह अनागामी या क्षीणमोह गुणस्थान कर भूमिका को प्राप्त कर उसी जन्म में अर्हत्व एवं निर्वाण की प्राप्ति कर लेता है। इसी प्रकार अनागामी भूमि की गुणस्थान सिद्धान्त से तुलना करते हुए उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि अनागामी भूमि क्षीणमोह गुणस्थान के तुल्य है । इस सम्बन्ध में वे लिखते हैं कि साधनात्मक दिशा में आगे बढ़ने वाले साधक का कार्य इस अवस्था में यह होता है कि वह शेष पांच उड्ढभागीय संयोजन - (१) रूप-राग, (२) अरूप-राग (३) मान (४) औद्धत्य और (५) अविद्या के नाश का प्रयास करे । जब साधक इन पांचों संयोजनों का भी नाश कर देता है, तब वह विकास की अग्रिम भूमिका अर्हतावस्था को प्राप्त करता है। जो साधक इस अग्रिम भूमि को प्राप्त करने के पूर्व ही साधनाकाल में मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं, वे ब्रह्मलोक में जन्म लेकर वहाँ शेष पांच संयोजनों के नष्ट हो जाने पर निर्वाण प्राप्त करते हैं । उन्हें पुनः इस लोक में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं रहती । अनागामी भूमि की तुलना जैनों के क्षीणमोह गुणस्थान से की जा सकती है । लेकिन यह तुलना अनागामी भूमि के उस अन्तिम चरण में ही समुचित होती है, जब अनागामी भूमि का साधक दसों संयोजनों के नष्ट हो जाने पर आगे की अर्हत् भूमि में प्रस्थान करने की तैयारी में होता है । साधारण रूप में आठवें से बारहवें गुणस्थान तक की अवस्थाएँ इस भूमि के अर्न्तगत आती हैं । इसी प्रकार अन्तिम अहेद् भूमि की तुलना उन्होंने सयोगीकवली गुणस्थान इस सम्बन्ध में वे तुलना करते हुए लिखते है कि अर्हद् भूमि में जब साधक उपर्युक्त दसों संयोजनों या बन्धनों को तोड़ देता है, तब वह अर्हतावस्था को प्राप्त कर लेता है । सम्पूर्ण संयोजनों के समाप्त हो जाने के कारण वह कृतकार्य हो जाता है, अर्थात् उसे कुछ करणीय नहीं रहता, यद्यपि वह संघ की सेवा के लिए क्रियाएँ करता है। समस्त बन्धनों या संयोजनों के नष्ट हो जाने के कारण उसके समस्त क्लेशों या दुःखों का प्रहाण हो जाता है । वस्तुतः यह जीवन्मुक्ति की अवस्था है । जैन विचारणा में इस अर्हतावस्था की तुलना सयोगीकेवली गुणस्थान से की जा सकती है। दोनों विचारधाराएँ इस भूमि के सम्बन्ध में काफी निकट हैं। न महायान सम्प्रदाय की आध्यात्मिक विकास की भूमियाँ और गुणस्थानk महायान सम्प्रदाय में दशभूमिशास्त्र के अनुसार आध्यात्मिक विकास की निम्नलिखित दस भूमियाँ (अवस्थाएँ) मानी गई हैं(१) प्रमुदिता (२) विमला (३) प्रभाकरी (४) अर्चिष्मती (५) सुदुर्जया (६) अभिमुक्ति (७) दूरंगमा (८) अचला (६) साधुमणि और (१०) धर्ममेधा। ___ हीनयान से महायान की ओर संक्रमण-काल में लिखे गए महावस्तु नामक ग्रन्थ में (१) दुरारोह (२) बद्धमान (३) पुष्पमण्डिता (४) रुचिरा (५) चित्त विस्तार (६) रूपमति (७) दुर्जया (८) जन्मनिदेश (६) यौवराज और (१०) अभिषेक नामक जिन दस भूमियों का विवेचन है, वे महायान की पूर्वोक्त दस भूमियों से भिन्न हैं। यद्यपि महायान का दस भूमियों का सिद्धान्त इसी मूलभूत धारणा के आधार पर विकसित हुआ है, तथापि महायान ग्रन्थों में कहीं दस से अधिक भूमियों का विवेचन मिलता है। असंग के महायान सूत्रालंकार में प्रथम भूमि को अधिमुक्तिचर्याभूमि कहा गया है और अन्तिम बुद्धभूमि या धर्ममेघा का भूमियों की संख्या में परिगणन नहीं किया है । इसी प्रकार लंकावतारसूत्र में धर्ममेघा और तथागत भूमियों को अलग-अलग माना है । (१) अधिमुक्तिचर्याभूमि- यों तो अन्य ग्रन्थों में प्रमुदिता को प्रथम भूमि माना गया है, लेकिन असंग प्रथम अधिमुक्तिचर्याभूमि का विवेचन करते हैं । इसके पश्चात् प्रमुदिता भूमि का अधिमुक्तिचर्याभूमि में साधक को पुद्गल नैरात्म्य और धर्मनैरात्म्य का अभिसमय (यर्थाथ ज्ञान) होता है। यह दृष्टि-विशुद्धि की अवस्था है । इस भूमि की तुलना जैनदर्शन में चतुर्थ अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से की जा सकती है । बोधिसत्व इस भूमि में दान-पारमिता का अभ्यास करता है ।। (२) प्रमुदिता - इसमें अधिशील शिक्षा होती है । यह शीलविशुद्धि के प्रयास की अवस्था है । इस भूमि में बोधिसत्व लोकमंगल की साधना करता है । इसे बोधि प्रस्थानचित्त की अवस्था कहा जा सकता है । बोधिप्रणिधीचित्त मार्गज्ञान है, लेकिन बोधि प्रस्थानचित्त मार्ग में गमन करने की प्रक्रिया है । जैन परम्परा में इस भूमि की तुलना पंचम विरताविरत एवं षष्ठ सर्वविरतसम्यग्दृष्टि नामक गुणस्थान से की जा सकती है । इस भूमि का लक्षण है कर्मों की अविप्रणाश व्यवस्था अर्थात् ज्ञान के प्रत्येक कर्म का भोग अनिवार्य है, कर्म अपना फल दिए बिना नष्ट नहीं होता । बोधिसत्व इस भूमि में शील पारमिता का अभ्यास करता है । सूक्ष्म से सूक्ष्म अपराध भी नहीं करता है । अन्त में पूर्णशील विशुद्ध हो जाता है। Jain Education Intemational Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.. अष्टम अध्याय........{453} (३) विमला - इस अवस्था में बोधिसत्व (साधक) अनैतिक आचरण से पूर्णतया मुक्त होता है । दुःखशीलता के मनोविकार रूप मल पूर्णतया नष्ट हो जाता है, इसीलिए इसे विमला कहते है । इस अवस्था में पूर्ण रूप से आचरण की शुद्धि होती है । इस भूमि में बोधिसत्व शान्ति-पारमिता का अभ्यास करता है । यह अधिचित शिक्षा है । इस भूमि का लक्षण है ध्यान प्राप्ति, इसमें अच्युत समाधि का लाभ होता है । जैनदर्शन में इस भूमि की तुलना अप्रमत्तसंयत गुणस्थान नामक सप्तम गुणस्थान से की जा सकती है। (४) प्रभाकरी - इस भूमि में साधक को समाधिबल से अप्रमाण धर्मों का साक्षात्कार होता है एवं वह बुद्ध का ज्ञानरुपी प्रकाश लोक में फैलाता है, इसीलिए इस भूमि को प्रभाकरी कहा जाता है । इस भूमि की तुलना जैनदर्शन में अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थान से की है। (५) अर्चिष्मती - इस भूमि में कलेशावरण और श्रेयावरण का दाह होता है । आध्यात्मिक विकास की यह भूमि अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान से तुलनीय है, क्योंकि जिस प्रकार इस भूमि में साधक कलेशावरण और श्रेयावरण का दाह करता है, उसी प्रकार अष्टम गुणस्थान में भी साधक ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों का रसघात एवं संक्रमण करता है, इसमें साधक वीर्य-पारमिता का अभ्यास करता है। सुदुर्जया - इस भूमि में सत्व-परिपाक अर्थात् प्राणियों के धार्मिक भावों को परिपुष्ट करते हुए एवं स्वचित्त की रक्षा करते हुए दुःख पर विजय प्राप्त की जाती है । यह कार्य अति दुष्कर होने से इस भूमि को दुर्जया कहते हैं । बोधिसत्व इस भूमि में ध्यान-पारमिता का अभ्यास करता है । इस भूमि की तुलना आठवें से ग्यारहवें गुणस्थान तक की अवस्था से की जा सकती है। (७) अभिमुखी - प्रज्ञापारमिता के आश्रय से बोधिसत्व संसार और निर्वाण दोनों के प्रति अभिमुख होता है । यथार्थ प्रज्ञा के उदय से उसके लिए संसार और निर्वाण में कोई अन्तर नहीं होता। अब संसार उसके लिए बन्धक नहीं रहता । निर्वाण के अभिमुख होने से यह भूमि अभिमुखी कही जाती है । इस भूमि में प्रज्ञापारमिता की साधना पूर्ण होती है । चौथी, पांचवीं और छठी भूमियों में अधिप्रज्ञा शिक्षा होती है, जो इस भूमि में पूर्णता को प्राप्त होता है । जैनदर्शन में इस भूमि को सूक्ष्मसंपराय नामक बारहवें गुणस्थान से तुलना की जाती है ।। (घ) दूरंगमा - इस भूमि में बोधिसत्व एकान्तिक मार्ग से दूर हो जाता है । जैन परिभाषा में यह आत्मा की पक्षातिक्रान्त अवस्था है, संकल्प शून्यता है, साधना की पूर्णता है, जिसमें साधक को आत्म-साक्षात्कार होता है । बोधिसत्व निर्वाण प्राप्ति के सर्वथा योग्य हो जाता है । इस अवस्था में वह सभी पारमिताओं का पालन करता है एवं विशेष रूप से उपाय कौशल्य पारमिता का अभ्यास करता है । इस भूमि की तुलना जैनदर्शन के अनुसार बारहवें सूक्ष्मसंपराय नामक गुणस्थान के अन्तिम चरण की साधना को अभिव्यक्त करती है, क्योंकि बारहवें गुणस्थान के अन्तिम चरण में साधक निर्वाण प्राप्ति के योग्य हो जाता है । (६) अचला - संकल्पशून्यता एवं विषयरहित अनिमित्त विहारी समाधि की उपलब्धि से यह भूमि अचल कहलाती है । विषयों के अभाव से चित्त संकल्पशून्य होता है और संकल्पशून्य होने से अविचल होता है, क्योंकि विचार एवं विषय ही चित्त की चंचलता के कारण होते हैं, जबकि इस अवस्था में उनका पूर्णतया अभाव होता है। इस अवस्था में तत्व का साक्षात्कार हो जाता है । यह भूमि तथा अग्रिम साधुमती और धर्ममघा भूमि जैनदर्शन में सयोगीकेवली नाम तेरहवें गुणस्थान के समकक्ष मानी जा सकती है। (१०) साधुमती- इस भूमि के बोधिसत्व का हृदय प्राणियों के प्रति शुभ भावनाओं से परिपूर्ण होता है । इस भूमि का लक्षण है प्राणियों के बोधिबीज को परिपुष्ट करना । इस भूमि में समाधि की विशुद्धता एवं विश्लेषणात्मक अनुभव करनेवाली बुद्धि की प्रधानता होती है । इस अवस्था में बोधिसत्व में दूसरे प्राणियों के मनोगत भावों को जानने की क्षमता उत्पन्न होती है। (११) धर्ममेघा-जैसे मेघ आकाश को व्याप्त करता है, वैसे ही इस भूमि में समाधि धर्माकाश को व्याप्त कर लेती है। इस भूमि में बोधिसत्व दिव्य शरीर को प्राप्त कर रत्नजड़ित दैवीय कमल पर स्थित दिखायी देते हैं। यह भूमि जैनधर्म के तीर्थंकर के समवसरण रचना के समान प्रतीत होती है। आजीवक सम्प्रदाय की आध्यात्मिक विकास की भूमियाँ और गुणस्थान | आजीवक दर्शन का प्रवर्तक गोशालक माना जाता है । बुद्ध और महावीर के समकालीन विचारक मंखली गोशालक के आजीवक सम्प्रदाय में आध्यात्मिक विकास की कोई अवधारणा अवश्य थी, जिसका उल्लेख मज्झिमनिकाय की बुद्धघोष कृत Jain Education Intemational Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... अष्टम अध्याय......{454} सुमंगलविलासिनी टीका में मिलता है । बुद्धघोष ने आजीवक सम्प्रदाय की आध्यात्मिक विकास के आठ सोपान निर्देशित किए हैं। मन्द, खिड्डा, पदवीमंसा, उज्जुगत, सेख, खमण, जिन और पन्न । इनका आध्यात्मिक दृष्टि से क्या आशय है, यह तो ग्रन्थाभाव होने से प्रामाणिक रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता है, परन्तु मज्झिमनिकाय की सुमंगविलासिनी टीका में इनका वर्णन इस रूप में देखने को मिलता है । (१) मन्द - बुद्धघोष के अनुसार जन्म से लेकर सात दिन तक गर्भनिष्क्रमणजन्य दुःख के कारण मन्द स्थिति है । यह भूमि जैनदर्शन में मिथ्यात्व नामक प्रथम गुणस्थान के समान ही होनी चाहिए । (२) खिड्डा - जो बालक दुर्गति से आकर जन्म लेता है, वह बार-बार रुदन करता है और सुगति से आने वाला बालक सुगति का स्मरण कर पुनः पुनः हास्य करता है, इसे क्रीड़ाभूमिका कह सकते हैं । यह अवस्था जैन परम्परा के अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान के समान होनी चाहिए । (३) पदवीमंसा - बुद्धघोष के अनुसार जिस प्रकार बालक माता-पिता का सहारा लेकर पृथ्वी पर पैर रखता है, उसी प्रकार इस अवस्था में साधक गुरु का आश्रय लेकर साधना के क्षेत्र में अपना कदम रखता है। पदवींमंसा का अर्थ है कदम रखना । अतः वह आध्यात्मिक क्षेत्र में कदम रखता है । इसे हम जैनदर्शन के पंचम देशविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान के समकक्ष मान सकते हैं । (४) ऋजुगत बुद्धघोष ने यह माना है कि जब बालक पैरों पर बिना सहारे चलने लगता है तब उज्जुगत (ऋजुगत) अवस्था होती है । जैन परम्परा में श्रावक की प्रतिमाओं के समान यह अवस्था होनी चाहिए । (५) शैक्ष - शैक्ष भूमिका । बुद्धघोष के अनुसार यह अवस्था शिल्पकला के अध्ययन की अवस्था है । जैन परम्परा में सामायिक चारित्र जैसी भूमि के समकक्ष मानना चाहिए । ४६३ जैनदर्शन में छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान से इसकी तुलना की जा सकती है । (६) श्रमण - बुद्धघोष ने इसे सन्यास ग्रहण की अवस्था माना है । जैन परम्परा में इसे अप्रमत्तसंयत गुणस्थान के समान माना जा सकता है । (७) जिन - बुद्धघोष ने इसे आचार्य की उपासना करके ज्ञान प्राप्त करने की भूमि माना है । जैनदर्शन में इस भूमि को सयोगकेवली गुणस्थान या बौद्ध परम्परा की अर्हत् अवस्था के समकक्ष मानी जा सकती है। (८) प्राप्त - बुद्धघोष ने भिक्षु को स्वानुभूति में रमण करने वाली निर्लोभवृत्ति की प्राप्ति होना प्राज्ञ अवस्था है । जैन परम्परा में यह अवस्था भी सयोगी और अयोगीकेवली गुणस्थानों के समान होनी चाहिए। परन्तु यह वर्णन युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि इस विवेचन में व्यावहारिक जीवन के दर्शन होते हैं । इन्हें आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएँ नहीं कह सकते । फिर भी अविकास और विकास की दृष्टि से इसका वर्गीकरण किया जाये, तो प्रथम की तीन अविकास की और शेष पांच विकास की सूचक अवश्य मानी जा सकती हैं । इस प्रकार हम देखते हैं कि आत्मविकास की जिज्ञासा वाले दर्शनों ने अपने-अपने ढंग से आध्यात्मिक विकासक्रम का उल्लेख किया है । यह तो निश्चित है कि मोक्ष को स्वतन्त्र पुरुषार्थ मान कर उसकी उपलब्धि सभी को इष्ट है । युंग का व्यक्तित्व मनोविज्ञान और गुणस्थान आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से गुणस्थानों की अवधारणा की तुलना का एक प्रयत्न डॉ. प्रमिला जैन ने षट्खण्डागम में गुणस्थान विवेचन नामक पुस्तक में किया है । हम उसी को आधार रूप मानकर यहाँ गुस्ताव युंग के व्यक्तित्व विकास के सिद्धान्त गुणस्थानों की अवधारणा की तुलना प्रस्तुत करेंगे। गुस्ताव युंग आधुनिक मनोविज्ञान के एक प्रमुख चिंतक रहे है, व्यक्तित्व मनोविज्ञान उनका प्रमुख विषय रहा है । उन्होंने आत्म विकास या व्यक्तित्व विकास की पांच भूमिकाएं मानी हैं - (१) मुखौटा (परसौना) (२) छाया (शेडो) (३) स्त्री-पुरुष प्रतिमा (स्त्रीवेद-पुंवेद) (ऍनिमा-ऍनिमस) (४) महान व्यक्तित्व (मोनो-पर्सनलिटी) (५) मंडलानुभूति । (१) मुखौटा - युंग मानते हैं कि व्यक्तिको वातावरण के साथ अभियोजन (एडजस्टमेंट) करना पड़ता है । इस क्रम में उसका एक नकली ४६३ दर्शन और चिन्तन (गुजराती), पृ. १०२२ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... अष्टम अध्याय........{455} चेहरा बन जाता है, जिसे उन्होंने 'परसौना' या 'मुखौटा' कहा है । परसौना एक मिथ्या व्यक्तित्व (फॉल्स-ऍपीअरेन्स) है, जिसे व्यक्ति अपने ऊपर ओढ़ लेता है। परिणाम यह होता है कि व्यक्ति भीतर से कुछ और होता है और बाहर से कुछ और । भीतर में तो अंहकार और दंभ होता है और बाहर विनय की मूर्ति के रूप में अपने को प्रदर्शित करता है । उसकी कथनी और करनी में बहुत बड़ा अन्तर होता है । इस मिथ्या जीवन से व्यक्ति के जीवन में एक दरार बन जाती है । ऐसे जीवन जीनेवाला अपने आपको भूल जाता है और उस मुखौटे को ही अपना यर्थाथ स्वरूप मान लेता है । अपने नकली चेहरे के कारण बाहय जीवन में सफल हो जाए, परन्तु आन्तरिक जीवन में सफल नहीं हो सकता । बाह्य जीवन में सफलता मिलने पर भी आन्तरिक जीवन में असंतुष्ट रहता है, उनमें आत्मज्ञान का अभाव रहता है । वे नकली और सतही जीवन जीते हैं । अतएव प्रायः जीवन के उत्तरार्द्ध में उनमें निराशा के भाव आ जाते हैं, जिसे युंग ने 'सेन्स ऑफ पर्सनल नथिंगनेस' कहा है । वे मानते हैं कि ऐसी अवस्था में आकर सांसारिक जीवन में सफल होने वाले को आध्यात्मिक जीवन में शून्यता का एहसास होता है । अपना स्वयं का जीवन मूल्यहीन प्रतीत होता है । दम्भ के कारण ऐसे लोग भीतर से खोखले बन जाते हैं । इसी कारण उनमें स्वयं को जानने की उत्कट आकांक्षा जागृत होती है। यहीं से व्यक्ति में आध्यात्मिक जिज्ञासा और अनुसंधान की शुरूआत होती है। व्यक्ति जब तक अपने नकली चेहरे को न पहचान ले, तब तक अपने वास्तविक स्वरूप को नहीं पहचान सकता है । युंग के अनुसार मुखौटे की अवस्था मिथ्यात्व नामक प्रथम गुणस्थान की अवस्था है । इसमें यह जीव अनादिकाल से मिथ्यात्व का मुखौटा पहनकर अपने आपको भूला हुआ है, अतः जीव माया, मिथ्यात्व और निदान का पात्र बना हुआ है । (२) छाया (शेडो) जब व्यक्ति मिथ्या व्यक्तित्व के आमने-सामने होता है, तो सर्वप्रथम उसकी ही छाया (शेडो) से मुलाकात होती है । छाया व्यक्ति की आत्मा का ही अंधकारपूर्ण पहलू है । जैसे सूर्य की ओर पीठ कर देने पर छाया बन जाती है, उसी प्रकार आत्मा जो ज्ञान स्वरूप है, उसकी ओर पीठ कर देने पर अर्थात् आत्मा से विमुख होने पर अपनी ही छाया का जन्म होता है । आत्मज्ञान के अभाव में व्यक्ति में दुर्भावों (ईविल टेंडेंसीज) का उदित होना स्वभाविक है । ये दुर्भावना ही छाया का निर्माण करती है, फलस्वरूप व्यक्ति असदाचरण में तल्लीन रहता है। फलस्वरूप व्यक्ति उस 'छाया' को सामूहिक अचेतन की आदिम प्रतिमाओं पर प्रक्षिप्त कर देता है। फलस्वरूप उसके मन में भूत, प्रेत, दानव, पिशाच आदि की प्रतिमाएँ आने लगती हैं । चूंकि इनमें व्यक्ति अपनी ही आत्मा का प्रक्षेप पाता है, इसीलिए स्वभावतः ये प्रतिमाएँ उसे मोहक एवं आकर्षक प्रतीत होती है । फलस्वरूप प्रेत-पूजा (घोस्ट वर्शिप) का जन्म होता है। छाया के स्वरूप को जानकर अब वह आत्म साक्षात्कार हेतु प्रयत्न करता है, तब उसे अपनी गलतियाँ दिखती है, जिन्हें वह दूसरों में देखता था या भूत-प्रेत जैसी मान्यताएँ जिनके अस्तित्व के लिए खड़ी कर लेता था और अपनी उस छाया, उन अपने ही भीतर छिपी हुई दुष्प्रवृत्तियों को जानकर उनसे मुक्त होने का प्रयास करता है । भ्रम को भ्रम जान लेने से ही भ्रम टूटता है । तब जैसा कि कबीर ने लिखा है, व्यक्ति अनुभव करता है - बुरा जो देखन में चला, बुरा न मिलिया कोय । जो दिल खोजा आपणां, मुझसा बुरा न कोय ।। जैन दर्शन के अनुसार इस छाया को द्वितीय एवं तृतीय गुणस्थान की अवस्था कहा जा सकता है, जिसमें यह भव्यात्मा अपने स्वरूप की पहिचान की तरफ पीठ करके कभी मिथ्यात्व की ओर झुकती है और कुछ ही क्षणों में घोर अन्धकार में चली जाती है, अथवा सम्यक्त्व एवं मिथ्यात्व के बीच अनिर्णय की स्थिति में रहती है। (३) पुंवेद-स्त्रीवेद - युंग मानते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति में दोनों वेद रहते हैं । वेद की अपेक्षा कोई भी व्यक्ति पूर्णतः पुरुष या स्त्री नहीं होता है। पुरुष और स्त्री दोनों वेद होते हैं । पुरुष में पुंवेद, जिसे युंग ने 'ऍनिमस' कहा है, प्रधान रहता है और स्त्रीवेद जिसे युंग ‘एनिमा' कहते हैं, गौण है । इससे विपरीत स्थिति नारी में होती है। प्रत्येक व्यक्ति की चेतना का अर्धांश उसके अचेतन/अवचेतन में अवदर्भित रहता है, क्योंकि व्यक्ति अपनी चेतना को बाहय विषयों पर प्रक्षिप्त करता है, इसीलिए पुरुष का स्त्री के Jain Education Interational Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... अष्टम अध्याय........{456} का पुरुष के प्रति आकर्षण बना रहता है । अन्यथा भी इस आकर्षण में अपनी ही अवमदित चेतना को प्रतिबिम्बित पाता है । इसलिए पुरुष और स्त्री दोनों में आकर्षण सहज होता है। ___ जब उसे अनुभव हो जाता है कि बाह्य विषयों में कोई आकर्षण नहीं है, आकर्षण का स्रोत भीतर है, तभी दोनों वेद से मुक्त होकर निर्वेद होता है और यथार्थ रूप में ब्रह्मचर्य परिपक्व होता है । तब व्यक्ति अपने आप में पूर्ण बन जाता है और बाह्य विषयों के लिए कोई आकर्षण शेष नहीं रहता है । जैनदर्शन में यह अवस्था ग्रन्थिभेद की प्रक्रिया जैसी है, जिसमें व्यक्ति सत्य या यथार्थ के अभिमुख होता है। जैनदर्शन के अनुसार पुंवेद-स्त्रीवेद यह अवस्था तृतीय गुणस्थान की है । जिसमें सम्यक् एवं मिथ्या मिश्रित अवस्था है । इस गुणस्थानवी जीव जानता हुआ भी नहीं जानते हुए के समान रहता है । (४) महान व्यक्तित्व (मोनोपर्सनलिटी) - __जीवन में पूर्णता (परफेक्शन) उपलब्ध हो जाने पर व्यक्ति अपने भीतर अनन्त शक्ति का अनुभव करता है । उसे युंग ने मोनोपर्सनेलिटी कहा है । इस शक्ति को ठीक प्रकार से नहीं समझने के कारण, व्यक्ति इसे भी सामूहिक अचेतन की मूल प्रतिमाओं पर प्रक्षिप्त कर देता है, जिसके फलस्वरूप उसके मन में एक सर्वशक्तिमान ईश्वर की प्रतिमा आने लगती है। वास्तव में ईश्वर आत्मा का ही प्रक्षेपण मात्र है। जब व्यक्ति इस रहस्य को समझ लेता है तो वह जान लेता है कि वह अतुलित शक्ति उसके ही अन्दर है, जिसे बाहर प्रक्षिप्त करके उसने उसे ईश्वर का रूप दे दिया है और उसी शक्ति की पुनः प्राप्ति के लिए उसके समक्ष घुटने टेक रहा है या समर्पण कर रहा है । तब वह सर्वशक्तिमान ईश्वर की प्रतिमा से भी मुक्त होकर चरमावस्था में पहुँचता है। जब वह भव्यात्मा मुखौटे, छाया एवं स्त्रीवेद-पुरुषवेद को जान लेता है, तो उनके प्रति आकर्षण नहीं रहता, तब उनसे हटकर अपने उत्थान का प्रयत्न करता है । जैनदर्शन के अनुसार महान व्यक्तित्व की अवस्था चतुर्थ गुणस्थान से प्रारम्भ होकर बारहवें गुणस्थान तक उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होती है । जो शक्ति प्रभु में है, वह शक्ति मेरे में है, ऐसे अटल विश्वास के साथ मुखौटे, छाया, स्त्रीवेद-पुरुषवेद (मिथ्यात्व, सास्वादन और मिश्र गुणस्थान) को छोड़कर महान् व्यक्तित्व की अवस्था को पा लेता है । वह समझ लेता है कि परमात्मा का स्वरूप ही वास्तव में आत्मा का स्वरूप है, इसीलिए प्रभु को अपना सर्वस्व अर्पण कर प्रभु भक्ति के द्वारा दुर्भेद मोहनीय कर्म को भेद कर परमात्मपद के निकट (बारहवें गुणस्थान) में पहुँच जाता है। (५) मंडलानुभूति - जब व्यक्ति सर्वशक्तिमान ईश्वर की प्रतिमा से मुक्त हो जाता है, तो उसे आत्म साक्षात्कार होता है। वह असीम शक्ति का अनुभव करता है । उसे पूर्णता का अनुभव होता है। इस पूर्णता का द्योतक मंडल है। मंडल का अर्थ है-वृत्त । सामान्यतया युंग मानते है कि मंडलानुभूति में कोई प्रतिमा नहीं रहती है । यदि कोई प्रतिमा रहती भी है, तो वह पूर्णता का बोध कराती है । वृत्त की प्रतिमा एक ऐसी ही प्रतिमा है। मंडलानुभूति की अवस्था में व्यक्ति पूर्णता को प्राप्त हो जाता है । इस अवस्था में जीवन में अखंडता और एकरूपता प्राप्त हो जाती है । इस अवस्था में व्यक्ति को जब आत्मज्ञान होता है, तब इच्छाओं और कामनाओं की आंधी शान्त हो जाती है । फलस्वरूप व्यक्ति अखण्ड शान्ति को उपलब्ध हो जाता है । इस स्थिति में अनन्त आनन्द मिलता है, क्योंकि आनन्द आत्मा का स्वभाव है। __मंडलानुभूति की अवस्था में व्यक्ति अपने क्षुद्र अहंकार से मुक्त हो पूर्णस्वरूप को उपलब्ध होता है, जो उसकी वास्तविक आत्मा है । यही आध्यात्मिक गवेषणा का चरम लक्ष्य है । युंग आत्मोपलब्धि को ही धर्म मानते है। जैनदर्शन के अनुसार मंडलानुभूति की अवस्था तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान की अवस्था है । जहाँ व्यक्ति ध्यानध्याता-ध्येय के विकल्प क्त होकर आत्म-साक्षात्कार कर लेता है और असीम शक्ति, अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख एवं अनन्तवीर्य का अनुभव करता है । Jain Education Intemational Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय 9 उपसहार Private &Personal use only Jain Education inte mplibrary.org Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ هههههههههههههههههههههه | अध्याय 9 Cण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण उपसंहार प्रस्तुत शोधप्रबन्ध में हमने मुख्य रूप से प्राकृत एवं संस्कृत जैन साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा का एक सर्वेक्षण करने का प्रयत्न किया है । इस सर्वेक्षण के आधार पर हमने यह देखने का भी प्रयत्न किया है कि जैन साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा किस रूप में उपलब्ध होती है । यद्यपि हमारा प्रमुख विवेच्य तो जैन साहित्य के प्राकृत और संस्कृत भाषा में रचित गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित ग्रन्थ ही रहे है, किन्तु इसके साथ हमने आधुनिक युग में लिखे गए गुणस्थान सम्बन्धी हिन्दी ग्रन्थों को भी इस गवेषणा में आधार बनाया है, क्योंकि इन ग्रन्थों का भी मुख्य आधार तो प्राकृत और संस्कृत का जैन साहित्य ही रहा है । आधुनिक काल में हिन्दी भाषा में लिखे गए इन ग्रन्थों का वैशिष्ट्य यह है कि एक ओर वे गुणस्थान सिद्धान्त का समग्र विवेचन प्रस्तुत करते हैं, वहीं दूसरी ओर शोधपूर्ण दृष्टि से लिखे हुए डॉ. सागरमल जैन आदि के कुछ ग्रन्थ गुणस्थान सिद्धान्त की विकास यात्रा को भी अभिव्यक्त करते हैं । प्रस्तुत कृति के प्रथम अध्याय में हमने गुणस्थान शब्द के अर्थ विकास पर चिंतन करने का प्रयत्न किया है । इसमें हमने मुख्य रूप से यह पाया है कि आध्यात्मिक विकास की अवस्थाओं को सूचित करने के लिए गुणस्थान शब्द का प्रयोग अपेक्षांत परवर्ती है। इस सम्बन्ध में हमारे मार्गदर्शक डॉ.सागरमल जैन ने अपने ग्रन्थ 'गुणस्थान सिद्धान्त एक विश्लेषण' में विस्तार से चर्चा की है । हमने भी प्राकृत एवं संस्कृत के जैन साहित्य का आलोडन और विलोडन करके यह देखा है कि प्राचीन ग्रन्थों में गुणस्थान शब्द के स्थान पर जीवस्थान या जीवसमास जैसे शब्दों का प्रयोग हुआ है । प्राचीन जैन आगम ग्रन्थों, विशेष रूप से आचरांग में गुण शब्द का प्रयोग ऐन्द्रिक विषयों, संसार के बन्धन या परिभम्रण के कारणों आदि के रूप में ही पाया जाता है । हम इस सम्बन्ध में डॉ सागरमल जैन के निष्कर्ष से सहमत है कि संसार या बन्धन की विविध अवस्थाओं के सूचक के रूप में ही गुणस्थान शब्द का प्रथम प्रयोग हुआ, किन्तु बाद में गुणस्थान के गुण शब्द को विशिष्ट सद्गुणों के विकास या आध्यात्मिक एवं चारित्रिक विकास के रूप में देखा गया । इस प्रकार प्रथम अध्याय में हमने गुणस्थान सिद्धान्त के अर्थ विकास को एक शोधपरक दृष्टि से समझने और समझाने का प्रयत्न किया है । इसके साथ ही इस प्रथम अध्याय में चौदह गुणस्थानों की अवधारणा को आध्यात्मिक विकास के सोपानों के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है, किन्तु यह विवेचन अपने सामान्य रूप में ही प्रस्तुत किया गया है । इस विवेचन में हम किसी शोधपूर्ण दृष्टि का दावा प्रस्तुत नहीं करते । प्रस्तुत शोधग्रन्थ के द्वितीय अध्याय में हमने अर्द्धमागधी आगम साहित्य और आगमिक व्याख्या साहित्य के रूप में नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीकाओं में गुणस्थान की अवधारणा को खोजने का प्रयत्न किया है । इस सम्बन्ध में हमने मूल आगम ग्रन्थों के साथ-साथ उनके नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका साहित्य के संदर्भो का गम्भीरता से आलोडन-विलोडन किया है। यद्यपि इस सम्बन्ध में डॉ. सागरमल जैन ने अपने ग्रन्थ 'गणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण' में एक प्रयत्न अवश्य किया था, Jain Education Intemational Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... नवम अध्याय........{458} किन्तु हम निश्चित रूप से यह कह सकते हैं कि प्रस्तुत प्रयत्न उसकी अपेक्षा अधिक व्यापक रूप से हुआ है । इस विवेचन में हमने सर्वप्रथम श्वेताम्बर परम्परा में मान्य ४५ आगमों का आलोडन किया और इस सम्बन्ध में आचार्य तुलसीजी एवं महाप्रज्ञ के द्वारा संपादित ३२ आगमों को तथा अवशिष्ट आगमों में मुनि दीपरत्नविजयजी के द्वारा संपादित आगमों को अपना आधार बनाया। आचार्य तुलसीजी और महाप्रज्ञजी के आगमों में अंग आगम शब्दकोष तथा अंगबाह्य आगमों के पीछे दी हुई शब्द-सूचियों से गुणस्थान सम्बन्धी संदर्भो को देखने में काफी सुविधा हुई। इस सम्पूर्ण सर्वेक्षण में हमने यह पाया है कि मूल अंगआगमों में गुण शब्द का प्रयोग तो मिला, किन्तु गुणस्थान शब्द का प्रयोग एक भी स्थान पर नहीं मिला । साथ ही समवायांग के उस सन्दर्भ को छोड़कर जहाँ जीवस्थानों के नाम से चौदह गुणस्थानों का निर्देश हुआ है, कहीं भी गुणस्थान सम्बन्धी इन चौदह अवस्थाओं का एकत्रित उल्लेख प्राप्त नहीं हुआ। यद्यपि आगम साहित्य में विशेष संदर्भो में मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि अथवा अविरत, विरताविरत और विरत जैसे शब्दों का प्रयोग अनेक स्थलों पर उपलब्ध हुआ है । भगवतीसूत्र में तो हमें अलग-अलग संदर्भो में सास्वादन गुणस्थान को छोड़कर शेष सभी गुणस्थान सम्बन्धी अवस्थाओं के नाम मिले हैं । यद्यपि जैसा हमने पूर्व में उल्लेख किया है कि ये सभी नाम अलग-अलग संदर्भो में ही इन अवस्थाओं को सूचित करते हैं । जैसे सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन की चर्चा में मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि-ये तीन नाम उपलब्ध हो जाते हैं । विरत या संयत की चर्चा में असंयत, संयतासंयत और संयत-ये तीन नाम उपलब्ध हो जाते हैं । इसी चर्चा में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत-ऐसी दो अवस्थाओं के उल्लेख भी मिल जाते हैं । त्रिकरणों की चर्चा में यथाप्रवृत्तिकरण के साथ-साथ अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के उल्लेख भी भगवतीसत्र में उपलब्ध है। सम्पराय के विवेचन के प्रसंग में बादरसंपराय और सूक्ष्मसंपराय-ये दो नाम भी भगवतीसूत्र में उपलब्ध होते हैं । इसी क्रम में उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय के भी उल्लेख उपलब्ध होते है । इसी प्रकार केवली की चर्चा के प्रसंग में सयोगीकेवली और अयोगीकेवली-ऐसे दो नाम उपलब्ध होते हैं । इस प्रकार विभिन्न संदर्भो में स्वतन्त्र-स्वतन्त्र रूप से तो गुणस्थान सम्बन्धी अवस्थाओं में सास्वादन को छोड़कर सभी अवस्थाओं के उल्लेख हमें श्वेताम्बर आगम साहित्य में और विशेष रूप से भगवतीसूत्र में उपलब्ध हुए हैं, फिर भी इन सब अवस्थाओं की चर्चा को हम गुणस्थान की अवधारणा से सम्बन्धित नहीं कर सकते हैं, किन्तु इतना निश्चित है कि गुणस्थान की अवधारणा का विकास या उसका व्यवस्थित रूप में प्रस्तुतिकरण इन्हीं अवस्थाओं को सुसंयोजित करके किया गया यद्यपि डॉ. सागरमल जैन के इस कथन में कि आगमों में समयावांग के जीवस्थान सम्बन्धी अंश को छोड़कर गुणस्थानों का विवेचन नहीं है, आंशिक सत्यता तो हैं, किन्तु हमारा कहना यह है कि जब आगमों में सास्वादन को छोड़कर सभी अवस्थाओं के उल्लेख उपलब्ध होते हैं, तो फिर इतना तो अवश्य ही मानना पड़ेगा कि आगमिक साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा बीज रूप में तो अवश्य रही हुई हैं । दूसरे, इस सम्बन्ध में हमारा विशेष रूप से यह मानना है कि आगमों का जो बहुत भाग विलुप्त हो गया है, उसमें कहीं गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा भी विलुप्त हो सकती है । अतः हमारा निष्कर्ष यह है कि आगम साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त का एकान्त रूप से निषेध मानना उचित नहीं है। नियुक्ति साहित्य के सर्वेक्षण में हमने यह पाया कि जहाँ आचारांगनियुक्ति में दस गुणश्रेणियों की चर्चा है, वहीं आवश्यकनियुक्ति में गुणस्थान सम्बन्धी चौदह अवस्थाओं का उल्लेख भी उपलब्ध है । यद्यपि डॉ. सागरमल जैन ने आवश्यक नियुक्ति की उन गाथाओं को प्रक्षिप्त तथा संग्रहणीसूत्र से अवतरित बताया है । उनका यह प्रतिपादन तर्क पुरस्सर है, किन्तु इससे यह भी सूचित होता है कि नियुक्तियों के काल तक संग्रहणीसूत्रों की रचना भी हो चुकी थी और उनमें गुणस्थान सम्बन्धी इन चौदह अवस्थाओं के उल्लेख थे। ____ आगमिक व्याख्या साहित्य में नियुक्तियों के पश्चात् भाष्य का क्रम आता है । भाष्यों में यद्यपि हमें सभी भाष्य उपलब्ध नहीं हो सके, किन्तु व्यवहारभाष्य और विशेषावश्यक भाष्य आदि का हमने जो आलोडन किया, उससे हम इस निर्णय पर तो पहुँचे हैं Jain Education Intemational Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... नवम अध्याय........{459) कि भाष्य साहित्य में भी गुणस्थानसिद्धान्त का सुव्यवस्थित विवेचन उपलब्ध नहीं होता है, किन्तु विशेषावश्यकभाष्य में ग्रंथिभेद की प्रक्रिया का विस्तृत विवेचन मिलता है । साथ ही आगमों में जिस प्रकार प्रकीर्ण रूप में गुणस्थान से सम्बन्धित कुछ अवस्थाओं के निर्देश उपलब्ध हैं, वैसे ही कुछ निर्देश भाष्य साहित्य में भी उपलब्ध हैं। विशेषावश्यक भाष्य में हमें निवृत्तिबादर, अनिवृत्तिबादर, सूक्ष्मसंपराय, क्षीणमोह, क्षपक, निर्ग्रन्थ, सयोगीकेवली, अयोगीकेवली आदि अवस्थाओं के उल्लेख उपलब्ध होते हैं, फिर भी यह तो अवश्य ही आश्चर्यजनक है कि भाष्य साहित्य में भी कहीं गुणस्थान शब्द का और गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित चौदह अवस्थाओं का एक साथ सुव्यवस्थित विवरण उपलब्ध नहीं होता है । मूल आगम, नियुक्ति और भाष्य तक गुणस्थान सम्बन्धी सुव्यवस्थित चर्चा का अभाव निश्चित रूप से एक प्रश्नचिहन तो हमारे सामने उपस्थित करता है कि श्वेताम्बर परम्परा के इतने विपुल प्राकृत आगम एवं आगमिक व्याख्या साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा का अभाव क्यों है? सम्भवतः इसी आधार पर डॉ सागरमल जैन ने यह कहने का साहस किया है कि गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा जैनदर्शन की विकासयात्रा में एक परवर्ती अवधारणा है । चाहे हम उनकी मान्यता से सहमत हो या न हो किन्तु उसके पीछे जो गवेषणात्मक तर्क बल है, वह कहीं न कहीं हमें पुनर्विचार के लिए अवश्य प्रेरित करता है । ____ मूल आगम, नियुक्ति और भाष्य के पश्चात् चूर्णि साहित्य का क्रम आता है । जहाँ तक चूर्णि साहित्य का सम्बन्ध है कि आवश्यक चूर्णि में लगभग तीन पृष्ठों में गुणस्थान सिद्धान्त का विवेचन उपलब्ध है । श्वेताम्बर आगमिक व्याख्या साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त का स्पष्ट सुव्यवस्थित किन्तु संक्षिप्त विवरण सर्वप्रथम हमें चूर्णि साहित्य में ही उपलब्ध होता है । यद्यपि यह विवरण भी षट्खण्डागम और सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा प्राथमिक स्तर का ही प्रतीत होता है । चूर्णियों के पश्चात् आगमिक संस्कृत टीका साहित्य का स्थान आता है । आगम की टीकाएं इतनी विपुल हैं कि उन सबका पूर्ण सर्वेक्षण तो सम्भव नहीं था, किन्तु फिर भी हमने आगमों के संदर्भो के आधार पर, जो टीकाएं हमें उपलब्ध हो सकी, उनमें गुणस्थान की अवधारणा को देखने का प्रयत्न किया है । अंग आगमो के टीकाकारों के रूप में आचार्य हरिभद्र, शीलांक, अभयदेवसूरि, मलयगिरि आदि प्रसिद्ध है । आचार्य शीलांग ने आचारांग टीका में तथा अभयदेव ने समवायांग की टीका में गुणस्थान की अवधारणा का व्यवस्थित विवरण उपस्थित किया है। ___अंग आगमों में भगवतीसूत्र की अभयदेव की वृत्ति का भी हमने अवलोकन किया । उसमें द्विक और त्रिक के रूप में गुणस्थान की अवस्थाओं के समरूप जिन अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है, उनमें अनेक स्थानों पर अभयदेव ने गुणस्थान शब्द का उल्लेख किया है । फिर भी सम्पूर्ण टीका में चौदह गुणस्थानों की सुव्यवस्थित व्याख्या भगवतीसूत्र की टीका में भी हमें कहीं उपलब्ध नहीं होती है । कुछ स्थानों पर गुणस्थान शब्द का स्पष्ट निर्देश होने से हम इतना तो मान सकते हैं कि भगवतीसूत्र के टीकाकार अभयदेवसूरि गुणस्थान की अवधारणा से सुपरिचित थे । यह सम्भव है कि मूल आगम में गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा न होने से उन्होंने अपनी इस टीका में गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा को विशेष रूप से प्रस्तुत करने का प्रयास नहीं किया है । अंग आगमों में भगवतीसूत्र के पश्चात् शेष ग्रन्थ कथात्मक है । इसीलिए हमने उनकी टीकाओं का गहराई से अवलोकन नहीं किया है, क्योंकि उसमें गुणस्थान सम्बन्धी विवेचना मिलने की संभावना अल्पतम थी । इस प्रकार आगमिक टीका साहित्य में भी हमें गणस्थान सम्बन्धी विस्तृत चर्चा उपलब्ध नहीं होती है । यद्यपि सभी आगमिक टीकाकार गुणस्थान सिद्धान्त से परिचित रहे हैं और यथावसर उन्होंने गुणस्थान शब्द का अथवा गुणस्थान से सम्बन्धित अवस्थाओं का उल्लेख भी किया है। तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर यह स्पष्ट होता है कि जहाँ षट्खण्डागम जैसे दिगम्बर परम्परा के आगम तुल्य ग्रन्थों और उसकी धवला टीका में गुणस्थान सम्बन्धी गम्भीर विवेचन उपलब्ध है, वहीं श्वेताम्बर आगम और आगमिक प्राकृत व्याख्याओं में इस सन्दर्भ में किंचित् निर्देशों को छोड़कर कहीं भी कोई व्यापक चर्चा प्रस्तुत नहीं की गई है। आगमों की संस्कृत टीकाओं का लेखन लगभग आठवीं शताब्दी से हरिभद्र से प्रारम्भ होता है । इस काल तक दिगम्बर परम्परा में गुणस्थान की अवधारणा अपने पूर्ण रूप में अस्तित्व में आ चुकी थी। अतःश्वेताम्बर आचार्यों ने भी अपनी टीकाओ Jain Education Intemational Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ नवम अध्याय........{460} में उसका उपयोग किया । इन आगमिक संस्कृत टीकाओं में सुव्यवस्थित रूप से तथा अपनी सूक्ष्मताओं के साथ गुणस्थान सम्बन्धी निर्देश उपलब्ध होते हैं, फिर भी इतना निश्चित है कि आगम साहित्य और आगमिक टीका साहित्य की अपेक्षा श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचना विशेष रूप से उसके कर्मसाहित्य में ही पाई जाती है । प्रस्तुत शोधप्रबन्ध का तृतीय अध्याय शौरसेनी आगम साहित्य से सम्बन्धित है । शौरसेनी आगम साहित्य में सबसे प्राचीन और प्रथम ग्रन्थ कषायप्राभृत है । कसायपाहुड में हमें सास्वादन और अपूर्वकरण को छोड़कर गुणस्थान सम्बन्धी अवस्थाओं के नाम निर्देश उपलब्ध होते है । यद्यपि प्रस्तुत कृति में भी श्वेताम्बर आगम साहित्य के समान ही न तो स्पष्ट रूप से कहीं गुणस्थान शब्द का उल्लेख मिलता है और न कहीं चौदह गुणस्थानों का सुव्यवस्थित रूप से विवरण ही उपलब्ध होता है । यद्यपि कसायपाहुड का मुख्य विषय दर्शनमोह और चारित्रमोह नामक कर्म से सम्बन्धित है और गुणस्थान की अवधारणा भी मुख्य रूप से दर्शनमोह और चारित्रमोह के क्षयोपशम को ही सूचित करती है, फिर भी कसायपाहुड में गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा का स्पष्ट उल्लेख न होना यही सूचित करता है कि अचेलधारा की दिगम्बर और यापनीय परम्परा में भी कसा पाहु के काल तक गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा का अभाव रहा है । जहाँ तक शौरसेनी आगम साहित्य का प्रश्न है, षट्खण्डागम प्रथम ग्रन्थ है जो गुणस्थानों की अवधारणा का न केवल सुव्यवस्थित विवरण प्रस्तुत करता है, अपितु गुणस्थान सिद्धान्त का विभिन्न मार्गणाओं, विभिन्न जीवस्थानों और विभिन्न अनुयोगद्वारों के आधार पर; एक सुव्यवस्थित विवेचन भी करता है । यह एक आश्चर्यजनक तथ्य है कि जहाँ श्वेताम्बर आगम और आगमिक व्याख्या साहित्य में गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा में एक क्रमिक विकास देखा जाता है, वहाँ षट्खण्डागम उसे अपने सम्पूर्ण विकसित रूप में प्रस्तुत करता है । जहाँ आवश्यक चूर्णि में गुणस्थान की अवधारणा मात्र तीन पृष्ठों में वर्णित है, वहाँ षट्खण्डागम और उसकी धवला टीका दो सौ से अधिक पृष्ठों में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन को प्रस्तुत करती है । षट्खण्डागम में गुणस्थान सिद्धान्त का कोई भी ऐसा पक्ष अछूता नहीं रहा है, जिसकी चर्चा हमें परवर्ती श्वेताम्बर और दिगम्बर कर्मसाहित्य में मिलती है । षट्खण्डागम में गुणस्थान सिद्धान्त के व्यापक और विस्तृत विवेचन को देखकर ही डॉ. सागरमल जैन आदि विद्वानों ने उसे परवर्तीकालीन और लगभग छठी शताब्दी का ग्रन्थ प्रतिपादन करने का प्रयास किया है, किन्तु हम इस विवाद में उलझना नहीं चाहते हैं । यहाँ हमारा प्रतिपाद्य तो इतना ही रहा है कि शौरसेनी आगम साहित्य में षट्खण्डागम गुणस्थान की अवधारणा को पूर्ण विकसित रूप से प्रस्तुत करता है । कसा पाहुड और षट्खण्डागम के पश्चात् दिगम्बर परम्परा में आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों को स्थान दिया जाता है । आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थ समयसार, नियमसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय और अष्टपाहुड आदि में गुणस्थान सिद्धान्तका सुव्यवस्थित चित्रण तो हमें उपलब्ध नहीं हुआ, किन्तु इन ग्रन्थों में जो सन्दर्भ उपलब्ध हुए हैं, उनसे यह स्पष्ट लगता है आचार्य कुन्दकुन्द गुणस्थान की अवधारणा से और गुणस्थान सिद्धान्त के मार्गणास्थानों और जीवस्थानों के सहसम्बन्ध से सुपरिचित थे, क्योंकि उन्होंने आत्मा के शुद्ध स्वरूप की चर्चा करते हुए कहा है कि यह आत्मा न तो गुणस्थान है, न जीवस्थान और न ही मार्गणास्थान है। चाहे आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने मूल ग्रन्थों में गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा का सुव्यवस्थित एवं . विस्तृत उल्लेख नहीं किया है, किन्तु उनके समयसार के टीकाकार अमृतचन्द्र तथा अष्टपाहुड के टीकाकार श्रुतसागर आदि ने अपनी टीकाओं में गुणस्थान सिद्धान्त की विस्तृत चर्चाएं की है। शौरसेनी आगम तुल्य साहित्य के अन्य ग्रन्थ जैसे भगवती आराधना, मूलाचार आदि में गुणस्थान सम्बन्धी निर्देश हमें उपलब्ध होते हैं । मूलाचार में तो चौदह गुणस्थानों का क्रमिक एवं सुव्यवस्थित विवेचन उसकी मूल गाथाओं में उपलब्ध है, यद्यपि इसके कुछ संस्करणों में इन गाथाओं का अभाव भी देखा जाता है । जहाँ तक भगवती आराधना का प्रश्न है, उसमें सुव्यवस्थित रूप से चौदह गुणस्थानों का उल्लेख नहीं है, किन्तु व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास की चर्चा के प्रसंग में संयत, अप्रमत्त आदि गुणस्थानों की अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है । इस प्रकार शौरसेनी आगम साहित्य में कसायपाहुड को छोड़कर शेष सभी ग्रन्थ किसी न किसी रूप में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचना से युक्त हैं । शौरसेनी आगम साहित्य के ग्रन्थों में कसायपाहुड, षट्खण्डागम, Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... नवम अध्याय........{461} भगवतीआराधना और मूलाचार को डॉ. सागरमल जैन ने यापनीय परम्परा के ग्रन्थ बताने का प्रयास किया है, किन्तु हमने अपने को इस विवाद से पृथक् रखने का ही प्रयास किया है और यह मानकर चले कि चाहे वे किसी भी परम्परा से सम्बन्धित हों, किन्तु मूलतः तो वे शौरसेनी आगमधारा के ही ग्रन्थ हैं । प्रस्तुत विवेचन में हमने शौरसेनी प्राकृतभाषा में रचित पंचसंग्रह, गोम्मटसार आदि को इसीलिए सम्मिलित नहीं किया है, क्योंकि हमारी दृष्टि में ये ग्रन्थ शौरसेनी भाषा में रचित होकर भी मुख्य रूप से कर्मसाहित्य से सम्बन्धित है। अतः इन ग्रन्थों में गुणस्थान सिद्धान्त किस रूप में उपलब्ध है, इसका विवेचन हमने 'श्वेताम्बर और दिगम्बर कर्मसाहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त' नामक अध्याय में किया है। प्रस्तुत कृति का चतुर्थ अध्याय तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाओं में गुणस्थान की अवधारणा से सम्बन्धित है । इस अध्याय में हमने एक ओर श्वेताम्बर परम्परा में मान्य तत्त्वार्थभाष्य के अतिरिक्त सिद्धसेनगणि और आचार्य हरिभद्र की टीकाओं को लिया है, तो दूसरी ओर दिगम्बर परम्परा में पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि, अकलंक का तत्त्वार्थराजवार्तिक और विद्यानन्दी का तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक हमारे मुख्य आधार ग्रन्थ रहे हैं । जहाँ तक तत्त्वार्थसूत्र मूल और श्वेताम्बर परम्परा में मान्य उसके स्वोपज्ञभाष्य का प्रश्न है, यह स्पष्ट है कि इन दोनों में न तो कहीं गुणस्थान शब्द का प्रयोग हुआ है और न गुणस्थान सम्बन्धी चौदह अवस्थाओं का ही उल्लेख है। तत्त्वार्थसूत्र मूल और उसके स्वोपज्ञभाष्य के नवें अध्याय के ४७ वें सूत्र में आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से दस गुणश्रेणियों का उल्लेख हुआ है । यद्यपि इन गुणश्रेणियों में अनेक नाम ऐसे हैं, जो गुणस्थान की अवधारणा में भी पाए जाते हैं । तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य में जो गुणश्रेणियों की चर्चा है, वह आचारांगनियुक्ति में भी मिलती है । तत्त्वार्थसूत्र मूल और उसके स्वोपज्ञभाष्य के नवें अध्याय में परिषहों एवं ध्यान के सन्दर्भ में आध्यात्मिक विकास की कुछ अवस्थाओं का उल्लेख अवश्य मिलता है । परिषहों के संदर्भो में बादरसम्पराय, सूक्ष्मसम्पराय, छद्मस्थवीतराग और जिन-ऐसी चार अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है। इन अवस्थाओं का उल्लेख श्वेताम्बर आगम साहित्य में भी उपलब्ध है, किन्तु इन्हें सीधे रूप से गुणस्थानों से सम्बन्धित करना सम्भव नहीं है। इसी प्रकार ध्यान के सम्बन्ध में तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य में अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरति, प्रमत्तंसयत, अप्रमत्तंसयत, उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और जिन ऐसी सात अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है। इन अवस्थाओं की चर्चा भी श्वेताम्बर आगम साहित्य में भगवतीसूत्र आदि में मिलती है, किन्तु ये अवस्थाएं भी चाहे नामों के आधार पर गुणस्थानों से सम्बन्धित प्रतीत होती हो, किन्तु विद्वानों ने इन्हें गुणस्थान से सम्बन्धित नहीं माना है । यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र के श्वेताम्बर टीकाकारों ने भी यहाँ गुणस्थान की अवधारणा का उल्लेख किया है । इसके नवें अध्याय के मूल और स्वोपज्ञभाष्य में कर्मनिर्जरा के सम्बन्ध में निम्न दस अवस्थाओं के उल्लेख पाए जाते हैं - सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनन्तवियोजक, दर्शनमोह क्षपक, उपशमक, उपशान्तमोह, क्षपक, क्षीणमोह और जिन । इन्हीं दस अवस्थाओं के उल्लेख तत्त्वार्थसूत्र के स्वोपज्ञभाष्य में भी है, किन्तु न तो मूल ग्रन्थ में और न ही उसके स्वोपज्ञभाष्य में इनका सम्बन्ध गुणस्थान से बताया गया है । इस प्रकार यद्यपि तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य में गुणस्थानों के नामों के समरूप कुछ अवस्थाओं के उल्लेख पाए जाते हैं - किन्तु इसके आधार पर यह कहना कठिन है कि तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य के कर्ता उमास्वाति गुणस्थान की अवधारणा से परिचित रहे हैं । इस सम्बन्ध में डॉ. सागरमल जैन का कहना है कि यदि उमास्वाति गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा से परिचित रहे होते, तो जैनदर्शन के सार रूप एवं संग्राहक इस ग्रन्थ में कहीं न कहीं इस महत्वपूर्ण अवधारणा का उल्लेख करते, किन्तु मूल ग्रन्थ और उसके भाष्य में अर्द्धमागधी आगमों के समान ही गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा का अभाव हमारे सामने एक प्रश्नचिन्ह तो खड़ा कर देता है। चाहे हम डॉ.सागरमल जैन के तर्को से सहमत हों या न हों, किन्तु उनके तर्कों में जो बल है, वह हमें पुनर्विचार के लिए तो अवश्य ही प्रेरित करता है । उसके स्वोपज्ञभाष्य के पश्चात उसकी दिगम्बर और श्वेताम्बर टीकाओं में गणस्थान सम्बन्धी निर्देश अवश्य उपलब्ध होते हैं । तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य के पश्चात् कालक्रम में पूज्यपाद देवनन्दी की सवार्थसिद्धि का क्रम आता है । यह निश्चित है कि सर्वार्थसिद्धि तत्त्वार्थसूत्र की उपलब्ध टीकाओं में भाष्य के पश्चात् प्रथम स्थान रखती है । विद्वानों Jain Education Intemational Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.... नवम अध्याय........{462) ने सर्वार्थसिद्धि और उसके कर्ता पूज्यपाद देवनन्दी का काल छठी शताब्दी के लगभग माना है । सर्वार्थसिद्धि में यद्यपि नवें अध्याय के गुणश्रेणी से सम्बन्धित ४७ वें सूत्र की टीका में तो पूज्यपाद देवनन्दी ने गुणस्थान की अवधारणा का उल्लेख नहीं किया, किन्तु उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के आठ अनुयोगद्वारों से सम्बन्धित आठवें सूत्र की टीका में गुणस्थान सिद्धान्त का व्यापक और विस्तृत विवेचन किया है । इसके साथ-साथ उन्होंने नवें अध्याय के ३६ वें सूत्र की टीका में आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्म ध्यान और शुक्लध्यान के स्वामी की चर्चा करते हुए गुणस्थान सम्बन्धी उल्लेख किया है। सर्वार्थसिद्धि के प्रथम अध्याय में आठ अनुयोगद्वारों की चर्चा के प्रसंग में गुणस्थान सिद्धान्त का जितना व्यापक और विस्तृत विवेचन पूज्यपाद देवनन्दी ने किया है, उतना व्यापक और विस्तृत विवेचन न तो अकलंक के तत्त्वार्थराजवार्तिक में है और न ही विद्यानन्दजी के तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में मिलता है । श्वेताम्बर परम्परा में तत्त्वार्थसूत्र की सिद्धसेनसूरि की टीका और हरिभद्र की टीका में गुणस्थान सम्बन्धी चाहे कुछ भी निर्देश हो, किन्तु उनमें भी गुणस्थान का पूज्यपाद देवनन्दी के समकक्ष विस्तृत विवेचन का अभाव है । यद्यपि ये सभी टीकाएं उनसे परवर्ती है । पूज्यपाद देवनन्दी ने तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के आठ अनुयोगद्वारों की चर्चा करने वाले सूत्र आठवें में चौदह गुणस्थानों का चौदह मार्गणाओं तथा आठ अनुयोगद्वारों के सन्दर्भ में जो अतिव्यापक और विस्तृत विवेचन किया है, यह विवेचन षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन की अपेक्षा तो संक्षिप्त है फिर भी इतना व्यापक और विस्तृत है कि हमें पंचसंग्रह और कर्मग्रन्थों को छोड़कर गुणस्थानों के सन्दर्भ में इतना व्यापक और विस्तृत विवेचन देखने में नहीं मिलता है । यह चर्चा सर्वप्रथम षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड में मिलती है और उसके पश्चात् पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका में मिलती है। यदि हम यहाँ गुणस्थान सिद्धान्त के विकास क्रम की दृष्टि से विचार करें, तो हमको ऐसा लगता है कि एक ओर श्वेताम्बर आगम साहित्य और तत्त्वार्थसूत्र मूल तथा उसका स्वोपज्ञभाष्य में इस चर्चा के सम्बन्ध में मौन है, तो दूसरी ओर षट्खण्डागम और सर्वार्थसिद्धि उसकी विस्तृत और व्यापक चर्चा प्रस्तुत करते हैं। यदि जैसा डॉ. सागरमल जैन ने माना है कि स्वीकार कर यह माने कि गुणस्थान सिद्धान्त का विकास कालक्रम में हुआ है, तो एक ओर आगमों, आगमिक प्राकृत व्याख्या ग्रन्थों, तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य में गुणस्थान सम्बन्धी अवस्थाओं के कुछ नामनिर्देश और गुणश्रेणियों के विवेचन, दूसरी ओर पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका एवं षट्खण्डागम में गुणस्थान का व्यापक और विस्तृत विवेचन विकास की मध्यवर्ती कड़ियों को स्पष्ट करने में असमर्थ ही रहता है । विद्वानों ने ग्रन्थों का जो कालक्रम माना है उसके आधार पर जहाँ चौथी-पाँचवीं शताब्दी के श्वेताम्बर आगम साहित्य और तत्त्वार्थसूत्र एवं उसके स्वोपज्ञभाष्य में गुणस्थान के विवेचन का अभाव परिलक्षित होता है, वहीं षट्खण्डागम और पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका उसका विस्तृत विवेचन करती है । यह भी एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि षट्खण्डागम और तत्त्वार्थसूत्र की पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि की टीका लगभग एक ही शैली में गुणस्थानों का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत करती है । षट्खण्डागम और पूज्यपाद देवनन्दी की गुणस्थानों का विवेचन करनेवाली शैली कर्मग्रन्थों में गुणस्थानों के विवेचन की शैली से पर्याप्त रूप से हमें भिन्न परिलक्षित होती है । जहाँ कर्मग्रन्थों में विभिन्न गुणस्थानों में विभिन्न कर्मप्रकृतियों के बन्ध, बन्धविच्छेद, सत्ता, सत्ताविच्छेद, उदय, उदयविच्छेद, उदीरणा, उदीरणाविच्छेद आदि को लेकर, सत्तास्थानों और बन्धविकल्पों को लेकर चर्चा की गई है । वहाँ षट्खण्डागम और पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका मुख्य रूप से गुणस्थानों में मार्गणास्थानों का आठ अनुयोगद्वारों के आधार पर अवतरण करती है । यद्यपि षट्खण्डागम में प्रकारान्तर से गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय, सत्ता आदि की चर्चा भी मिलती है। इन दोनों शैलियों में कौन-सी शैली प्राचीन है, यह कहना कठिन है, क्योंकि प्राचीन कर्मसाहित्य और षट्खण्डागम तथा पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि की टीका लगभग-लगभग समकालीन है। पूज्यपाद देवनन्दी के पश्चात् दिगम्बर परम्परा में आचार्य अकलंक ने तत्त्वार्थराजवार्तिक टीका में भी चौदह मार्गणाओं में चौदह गुणस्थानों का अवतरण किया है, किन्तु उनका यह विवेचन पूज्यपाद देवनन्दी की अपेक्षा पर्याप्त रूप से संक्षिप्त ही है । Jain Education Intemational Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... ● नवम अध्याय......{463} जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थान के पारस्परिक सम्बन्ध के अतिरिक्त आचार्य अकलंकदेव ने ध्यानों के सन्दर्भ में तथा कर्मप्रकृतियों के उदय, उदीरणा आदि के सन्दर्भ में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन प्रस्तुत किया है । इसके अतिरिक्त उन्होंने नवें अध्याय के प्रथम सूत्र की टीका में न केवल चौदह गुणस्थानों का नामनिर्देश किया है, अपितु उनके स्वरूप विवेचन के साथ-साथ उनका आस्रव और संवर की दृष्टि से अवतरण भी किया है । इसी क्रम में उन्होंने विभिन्न गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों के आस्रव और संवर अर्थात् बन्धविच्छेद की दृष्टि से भी विवेचन किया है। आस्रव और संवर को लेकर अकलंकदेव का यह विवेचन पूज्यपाद देवनन्दी की अपेक्षा एक नवीनता को प्रदर्शित करता है । दिगम्बर परम्परा में तत्त्वार्थराजवार्तिक टीका के पश्चात् विद्यानन्द के श्लोकवार्तिक टीका का क्रम आता है । यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि पूज्यपाद देवनन्दी की अपेक्षा अकलंकदेव ने और उनकी अपेक्षा विद्यानन्द ने गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन अल्प ही किया है । तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में एक या दो स्थानों पर जो गुणस्थान सम्बन्धी निर्देश उपलब्ध हैं, वे एक तो अत्यन्त संक्षिप्त हैं और दूसरे गुणस्थान की दृष्टि से कोई नवीन चर्चा भी प्रस्तुत नहीं करते हैं । I श्वेताम्बर परम्परा में तत्त्वार्थ सूत्र की भाष्य के अतिरिक्त जो दो प्रमुख टीकाएं हैं, उनमें सिद्धसेनगणि और आचार्य हरिभद्र की टीकाएं ही मुख्य हैं । यह भी सुनिश्चित है कि सिद्धसेनगणि पूज्यपाद देवनन्दी से परवर्ती और अकलंकदेव से कुछ पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं । सिद्धसेनगणि की तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति में हमें गुणस्थान सम्बन्धी कुछ निर्देश अवश्य उपलब्ध होते हैं । जैसा ि हमने पूर्व में भी निर्देश किया है कि श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थान सम्बन्धी स्पष्ट विवेचन सर्वप्रथम आवश्यकचूर्णि और सिद्धसेनगणि की इस टीका में ही उपलब्ध होता है । यद्यपि इनके पूर्व जीवसमास में गुणस्थान सम्बन्धी निर्देश हमें अवश्य उपलब्ध होता है, किन्तु गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन की व्यापकता की दृष्टि से विचार करने पर यह स्पष्ट लगता है कि चा जीवसमास हो या आवश्यकचूर्णि अथवा सिद्धसेनगणि की टीका हो, इनमें गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन षट्खण्डागम, पूज्यपाद देवनन्दी की सर्वार्थसिद्धि टीका और आचार्य अकलंकदेव की राजवार्तिक टीका की अपेक्षा अत्यन्त अल्प ही है । सिद्धसेनगणि ने सर्वप्रथम तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के तृतीय सूत्र की टीका में सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण का उल्लेख किया है, किन्तु इसका सम्बन्ध ग्रंथिभेद की प्रक्रिया से है, गुणस्थान से नहीं है । इसके पश्चात् प्रथम अध्याय के २६ वें सूत्र की टीका में भी गुणस्थान सम्बन्धी कुछ अवस्थाओं के निर्देश के अतिरिक्त कोई विस्तृत विवेचन उपलब्ध नहीं होता है । इसी क्रम में उन्होंने आसव, संवर, परिषह, ध्यान और गुणश्रेणियों के विवेचन के प्रसंग में भी गुणस्थानों का अवतरण अवश्य किया है, फिर भी सिद्धसेनगणि की तत्त्वार्थ भाष्यवृत्ति में चौदह गुणस्थानों का एक स्थान पर सुव्यवस्थित विवेचन उपलब्ध नहीं होता है। यद्यपि यह एक सुनिश्चित तथ्य है कि सिद्धसेनगणि गुणस्थान सम्बन्धी विचारणा से सम्यक् रूप से अवगत रहे हैं । श्वेताम्बर परम्परा में सिद्धसेनगणि की तत्त्वार्थ भाष्यवृत्ति के अतिरिक्त तत्त्वार्थसूत्र पर जो दूसरी टीका उपलब्ध होती है, वह आचार्य हरिभद्रसूरि की है । आचार्य हरिभद्र का काल आठवीं शताब्दी का माना जाता है । उनकी इस टीका में भी गुणस्थान शब्द और यथाप्रसंग गुणस्थान सम्बन्धी कुछ उल्लेख प्राप्त हो जाते हैं, जिसका निर्देश में कर चुके हैं। इन यथास्थान किए गए निर्देशों के अतिरिक्त तत्त्वार्थसूत्र की हरिभद्रीय टीका में गुणस्थान सिद्धान्त का स्पष्ट और विस्तृत विवेचन प्राप्त नहीं होता है । फिर भी उनकी इस टीका के आलोडन - विलोडन से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा से सुपरिचित रहे हैं । इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र और उसकी प्रमुख श्वेताम्बर और दिगम्बर टीकाओं के अवलोकन के पश्चात् हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य में गुणस्थान सम्बन्धी कोई स्पष्ट परिचर्चा उपलब्ध नहीं होती है । उसके पश्चात् पूज्यपाद देवनन्दी (पाँचवीं - छठी शताब्दी) अपनी सर्वार्थसिद्धि टीका में गुणस्थानों का विस्तृत और व्यापक विवेचन प्रस्तु करते हैं । उनके पश्चात् दिगम्बर परम्परा में अकलंकदेव के राजवार्तिक और विद्यानन्द के श्लोकवार्तिक में गुणस्थान सम्बन्धी Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... नवम अध्याय........{464} निर्देश तो उपलब्ध है, किन्तु सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा राजवार्तिक में और राजवार्तिक की अपेक्षा श्लोकवार्तिक में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन अल्प ही है । जहाँ तक श्वेताम्बर परम्परा में सिद्धसेनगणि की तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति और हरिभद्रसूरि की तत्त्वार्थभाष्य टीका का प्रश्न है, उनमें गुणस्थान सम्बन्धी यथाप्रसंग कुछ संकेत ही उपलब्ध है । यहाँ तक कि इन दोनों टीकाओं में एक स्थल पर चौदह गुणस्थानों का नामनिर्देश भी स्पष्ट रूप से उपलब्ध नहीं होता है । प्रस्तुतकृति का पंचम अध्याय श्वेताम्बर और दिगम्बर कर्मसाहित्य के ग्रन्थों में गणस्थान सम्बन्धी विवेचना से सम्बन्धित है । कर्मसाहित्य के ग्रन्थों में यद्यपि कसायपाहुड और षट्खण्डागम को भी सम्मिलित किया जा सकता है, किन्तु दिगम्बर परम्परा में आगम रूप में मान्य होने के कारण इन दोनों ग्रन्थों में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन किस रूप में उपलब्ध होता है, इसका विवेचन शौरसेनी आगम साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा नामक तृतीय अध्याय में ही किया गया है। जहाँ तक श्वेताम्बर दिगम्बर कर्मसाहित्य का प्रश्न है, हमने इसमें श्वेताम्बर परम्परा में शिवशर्मसूरिकृत कर्मप्रकृति, चन्द्रर्षि कृत पंचसंग्रह, प्राचीन षट् कर्मग्रन्थ और देवेन्द्रसूरि कृत नवीन पाँच कर्मग्रन्थों का समावेश किया है। इसी क्रम में दिगम्बर परम्परा में हमने अज्ञात कृतक प्राकृत पंचसंग्रह, गोम्मटसार तथा संस्कृत के दोनों पंचसंग्रहों को समाहित किया है। यह स्पष्ट है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में गणस्थान सम्बन्धी विस्तृत और व्यापक जो चर्चाएं उपलब्ध हैं, वे षट्खण्डागम और सर्वार्थसिद्धि टीका को छोड़कर मुख्य रूप से कर्मसाहित्य सम्बन्धी ग्रन्थों में ही उपलब्ध होती है । दोनों ही परम्पराओं का कर्मसाहित्य गुणस्थानों का विवेचन दो दृष्टियों से है। प्रथम तो ये सभी ग्रन्थ विभिन्न गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों के बन्ध, बन्ध विच्छेद, सत्ता, सत्ताविच्छेद, उदय, उदयविच्छेद, उदीरणा, उदीरणाविच्छेद की चर्चा करते हैं । इसके साथ ही इन ग्रन्थों में गुणश्रेणियों, उपशमश्रेणी, क्षपकश्रेणी, बन्धस्थानों, सत्तास्थानों तथा तत्सम्बन्धी विभिन्न विकल्पों (मंगों) का इनमें व्यापक रूप से विचार किया गया है । दूसरे इन ग्रन्थों में जीवस्थानों, मार्गणास्थानों, बन्धहेतुओं आदि में भी गुणस्थानों का अवतरण किया गया है । इस प्रकार षट्खण्डागम एवं कर्मसाहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी जो विवेचना उपलब्ध होती है, संक्षेप में वह विभिन्न गुणस्थानों में विभिन्न कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय और सत्ता को लेकर है अथवा जीवस्थान में गुणस्थान, मार्गणास्थान में गुणस्थान आदि की चर्चा से युक्त है । इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा तो हम पूर्व अध्याय में कर चुके हैं । यहाँ तो उसको अति संक्षेप में प्रस्तुत करेंगे। गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों का बन्ध, उदय आदि : मिथ्यात्व गुणस्थान में ११७ कर्मप्रकृतियों का बन्ध, ११७ कर्मप्रकृतियों का उदय और ११७ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव होती है, किन्तु सत्ता १४८ कर्मप्रकृतियों की सम्भव है । सास्वादन गुणस्थान में १०१ कर्मप्रकृतियों का बन्ध, १११ कर्मप्रकृतियों का उदय तथा १११ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा होती है । सत्ता की अपेक्षा से १४७ कर्मप्रकृतियों की सत्ता सम्भव है। . मिश्र गुणस्थान में ७४ कर्मप्रकृतियों का बन्ध तथा १०० कर्मप्रकृतियों का उदय और १०० कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव होती है । इस गुणस्थान में भी १४७ कर्मप्रकृतियों की सत्ता सम्भव है । अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में ७७ कर्मप्रकृतियों का बन्ध तथा १०४ कर्मप्रकृतियों का उदय, १०४ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव होती है । इस गुणस्थान में सत्ता की अपेक्षा १४८ कर्मप्रकृतियों की सत्ता सम्भव है । देशविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में ६७ कर्मप्रकृतियों का बन्ध तथा ८७ कर्मप्रकृतियों का उदय और ८७ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव होती है । सत्ता की अपेक्षा से यहाँ भी १४८ कर्मप्रकृतियों की सत्ता सम्भव है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जिनको क्षायिक सम्यक्त्व होता है उन्हें ही सत्ता की अपेक्षा से १४८ कर्मप्रकतियाँ सम्भव होती है । चौथे और पांचवें गुणस्थान में १४१ कर्मप्रकृतियों की सत्ता सम्भव होती है । प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थान में ६३ कर्मप्रकृतियों का बन्ध, ८१ कर्मप्रकृतियों का उदय, ८१ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव होती है । सत्ता की अपेक्षा से यहाँ भी क्षायिकसम्यक्त्व वाले को Jain Education Intemational Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... नवम अध्याय........{465) १४१ कर्मप्रकृतियों, उपशम सम्यक्त्व वाले को १४८ कर्मप्रकृतियों की सत्ता सम्भव होती है । अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थान में विकल्प से ५६ या ५८ कर्मप्रकृतियों का बन्ध, ७६ कर्मप्रकृतियों का उदय, ७३ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव है । इस गुणस्थान में भी सत्ता की अपेक्षा से १४१ अथवा १४८ कर्मप्रकृतियों की सत्ता सम्भव होती है । अपूर्वकरण नामक आठवें गणस्थान में अनेक स्तर माने गए है । उन स्तरों की अपेक्षा से इस गुणस्थान में ५८, ५६ अथवा २६ कर्मप्रकृतियों का बन्ध सम्भव होता है । साथ ही ७२ कर्मप्रकृतियों का उदय, ६६ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव होती है । सत्ता की अपेक्षा से इस गुणस्थान में सामान्यतया १४८ कर्मप्रकृतियों की सत्ता सम्भव हो सकती है, किन्तु क्षायिक सम्यग्दृष्टि में १४१ तथा तीर्थंकर नामकर्म सहित क्षायिक सम्यग्दृष्टि में १४२ कर्मप्रकृतियों की सत्ता सम्भव होती है । अनिवृत्तिकरण नामक नवें गुणस्थान में भी अनेक चरण होते हैं । उनकी अपेक्षा से इन गुणस्थान में २२ अथवा १६ कर्मप्रकृतियों का बन्ध, ६६ कर्मप्रकृतियों का उदय तथा ६३ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव होती है । सत्ता की अपेक्षा से यहाँ भी अपूर्वकरण गुणस्थान के समान स्थिति है, अर्थात् १४१, १४२ अथवा १४८ तीनों ही विकल्प सम्भव होते हैं । सूक्ष्मसम्पराय नामक गुणस्थान में १७ कर्मप्रकृतियों का बन्ध, ६० कर्मप्रकृतियों का उदय तथा ५६ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव है । सत्ता की अपेक्षा से पूर्ववत् स्थिति मानी गई है । उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान में बन्ध की अपेक्षा मात्र सातावेदनीय का बन्ध सम्भव होता है । उदय की अपेक्षा ५६ कर्मप्रकृतियों का उदय, ५६ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव होती है । सत्ता के सम्बन्ध में पूर्ववत् स्थिति समझना चाहिए। क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान में एक कर्मप्रकृति का बन्ध, ५७ अथवा ५५ कर्मप्रकृतियों का उदय, ५४ या ५२ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव होती है । क्षीणमोह गुणस्थान में सत्ता की अपेक्षा से दो विकल्प हैं - १०१ अथवा ६६ कर्मप्रकृतियों की सत्ता सम्भव होती है । सयोगीकेवली नामक तेरहवें गुणस्थान में एक कर्मप्रकृति का बन्ध, ४२ कर्मप्रकृतियों का उदय, ३६ कर्मप्रकृतियों की उदीरणा सम्भव रहेगी । सत्ता की अपेक्षा यहाँ ८५ कर्मप्रकृतियों की सत्ता सम्भव होती है । अयोगीकेवली नामक चौदहवें गुणस्थान में बन्ध एवं उदीरणा का अभाव होता है, तथा उदय की अपेक्षा से १२ कर्मप्रकृतियों का उदय सम्भव है । सत्ता की अपेक्षा से इस गुणस्थान के प्रारम्भ में ८५ कर्मप्रकृतियों की सत्ता सम्भव हो सकती है, किन्तु इस गुणस्थान के अन्तिम चरण में तीर्थंकर नामकर्म वाले को १३ कर्मप्रकृतियों और सामान्य केवली को १२ कर्मप्रकृतियों की सत्ता रहती है। इस प्रकार षट्खण्डागम तथा कर्मसाहित्य के ग्रन्थों में विभिन्न गुणस्थानों में कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध, कितनी कर्मप्रकृतियों का उदय, कितनी कर्मप्रकृतियों की उदीरणा और कितनी कर्मप्रकृतियों की सत्ता होती हैं, उसकी संक्षिप्त चर्चा की गई है । षट्खण्डागम और कर्मसाहित्य में बन्ध, उदय आदि की चर्चा के साथ-साथ जीवस्थानों में गुणस्थानों की एवं मार्गणास्थानों में गुणस्थानों की जो चर्चा की गई है, उसे हम यहाँ संक्षिप्त रूप में प्रस्तत कर रहे हैं। गुणस्थान और जीवस्थान :____ जैनदर्शन के अनुसार जीव नानाविध कर्मवशात् संसार में परिभ्रमण करता है । संसार में जीवों के परिभम्रण करने के स्थान अर्थात् जीवों के रहने के निम्न चौदह स्थान बताये गए हैं - (१) सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त (२) सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त (३) बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त (४) बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त (५) द्वीन्द्रिय पर्याप्त (६) द्वीन्द्रिय अपर्याप्त (७) त्रीन्द्रिय पर्याप्त (८) त्रीन्द्रिय अपर्याप्त (६) चतुरिन्द्रिय पर्याप्त (१०) चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त (११) संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त (१२) संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त (१३) असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त और (१४) असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, द्वीन्द्रिय पर्याप्त, त्रीन्द्रिय पर्याप्त, चतुरिन्द्रिय पर्याप्त और असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त इन सात जीवस्थानों में मात्र मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, द्वीन्द्रिय अपर्याप्त, त्रीन्द्रिय अपर्याप्त, चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त, अंसज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त इन पांच Jain Education Intemational Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... नवम अध्याय........{466} अपर्याप्त जीवस्थानों में प्रथम और द्वितीय ये दो गुणस्थान सम्भव होते हैं, लेकिन यहाँ करण अपर्याप्त ही समझना चाहिए, क्योंकि लब्धि अपर्याप्त से करण अपर्याप्त जीव विशुद्धतर परिणामवाले होते हैं । बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त में भी पृथ्वीकाय, अप्काय और वनस्पतिकाय जीवों में ही सास्वादन गुणस्थान होता है, अग्निकाय और वायुकाय में सास्वादन गुणस्थान नहीं होता है । संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त जीवों में प्रथम, द्वितीय और चतुर्थ अविरतसम्यग्दृष्टि ये तीन गुणस्थान होते हैं । तीर्थकर परमात्मा आदि महापुरुष माता की कुक्षि में जब जन्म लेते हैं, तब सम्यक्त्व सहित जन्म लेते हैं तथा श्रेणिक महाराजा आदि क्षायिक सम्यक्त्व वाले जीव का जब नरकगति में जन्म होता है, तब करण अपर्याप्त अवस्था में अविरतसम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान होता है । संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव में चौदह गुणस्थान सम्भव होते हैं । देव और नारकी को चार गुणस्थान, तिर्यंच को पांच और मनुष्य में मिथ्यात्व से लेकर केवलज्ञान तक सभी गुणस्थान होते हैं । यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवाले केवलज्ञानी विकल्प या विचार रहित होने से शास्त्र में उन्हें नो संज्ञी-नो असंज्ञी कहा है, फिर भी उनमें तेरहवाँ सयोगीकेवली गुणस्थान कैसे सम्भव होगा? इसका उत्तर यह हो सकता है कि तेरहवें गुणस्थानवर्ती केवली मनोविकल्पों से रहित होने पर भी मनःपर्यवज्ञानी और अनुत्तरविमानवासी देवों के द्वारा पूछे हुए प्रश्नों के उत्तर देते हैं, वे द्रव्य मनवाले होते हैं, अतः द्रव्य मन के कारण उन्हें संज्ञी माना है । इसीलिए संज्ञी जीवों में तेरहवाँ और चौदहवाँ गुणस्थान सम्भव होता है । गुणस्थान और मार्गणास्थान : जीवों की विभिन्न पर्यायों या अवस्थाओं के सन्दर्भ में जिन-जिन अपेक्षाओं से विमर्श या अन्वेषण किया जाता है, वे सभी मार्गणा कही जाती है। जैनदर्शन में जीव के सम्बन्ध में चौदह मार्गणाओं का उल्लेख मिलता है-(१) गति (२) इन्द्रिय (३) काय (४) योग (५) वेद (६) कषाय (७) ज्ञान (८) संयम (६) दर्शन (१०) लेश्या (११) भव्यत्व (१२) सम्यक्त्व (१३) संज्ञी और (१४) आहार । जीवसमास, षटखण्डागम और गोम्मटसार आदि सिद्धान्त ग्रन्थों में इन चौदह मार्गणाओं की अपेक्षा से गुणस्थानों की विस्तृत चर्चा की गई है । यहाँ तुलना की दृष्टि से संक्षिप्त उल्लेख करेंगे । (१) गतिमार्गणा - गतियाँ चार है-(१) देव (२) नारक (३) तिर्यंच और (४) मनुष्य । देव और नारक गतियों में मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक के चार गुणस्थान होते है । तिर्यचों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर देशविरतिसम्यग्दृष्टि तक के पांच गुणस्थान होते हैं । मनुष्य गति में मिथ्यात्व से लेकर अयोगीकेवली तक सभी गुणस्थान पाए जाते हैं। (२) इन्द्रियमार्गणा-इन्द्रियाँ पांच हैं । इनमें एकेन्द्रिय में सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त - ऐसे चार भेद होते हैं । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय के पर्याप्त और अपर्याप्त - ऐसे छः भेद होते हैं । पंचेन्द्रिय के संज्ञी पर्याप्त, संज्ञी अपर्याप्त, असंज्ञी पर्याप्त और असंज्ञी अपर्याप्त ऐसे चार भेद होते हैं। इस प्रकार इन्द्रियों की अपेक्षा से जीवों के चौदह भेद होते हैं । इनमें एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के जीवों में मात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थान ही पाया जाता है, जबकि पंचेन्द्रिय जीवों में मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली तक के चौदह गुणस्थान सम्भव होते हैं । ज्ञातव्य है कि करण अपर्याप्त बादर पृथ्वीकाय, अप्काय एवं वनस्पतिकाय में तथा उसी प्रकार करण अपर्याप्त द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय जीव में जन्म के समय सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान की संभावना स्वीकार की गई है, किन्तु इस गुणस्थान का काल अल्प होने से सामान्यतया यही माना गया है कि एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के जीवों में मात्र मिथ्यात्व गुणस्थान होता है। (३) कायमार्गणा- काय छः है - पृथ्वी, अप्, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रसकाय । इनमें पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय तक के जीवों में मात्र मिथ्यात्व गुणस्थान होता है । त्रसकाय में चौदह गुणस्थान पाए जाते हैं । (४) योगमार्गणा- सामान्यतः योग तीन माने गए हैं - मनयोग, वचनयोग और काययोग । परन्तु उनके आवान्तर भेद पन्द्रह Jain Education Intemational Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... नवम अध्याय........{467} हैं-(१) सत्य मनोयोग (२) असत्य मनोयोग (३) सत्यमृषा मनोयोग (४) असत्यामृषा मनोयोग (५) सत्य वचनयोग (६) असत्य वचनयोग (७) सत्यमृषा वचनयोग (८) असत्यामृषा वचनयोग (E) औदारिक काययोग (१०) औदारिक मिश्र काययोग (११) वैक्रिय काययोग (१२) वैक्रिय मिश्र काययोग (१३) आहारक काययोग (१४) आहारक मिश्र काययोग और (१५) कार्मण काययोग। ___ इन पन्द्रह योगों में से सत्य मनोयोग, सत्य वचनयोग, असत्यअमृषा मनोयोग और असत्यअमृषा वचनयोग-इन चार योग वाले संज्ञी प्राणी में मिथ्यात्व से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक सम्भव है । असत्य मनोयोग, असत्य वचनयोग, मिश्र मनोयोग और मिश्र वचनयोग-इन चार योग वाले संज्ञी प्राणी में मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक सभी बारह गुणस्थान सम्भव है । असंज्ञी विकलेन्द्रिय जीवों में मात्र असत्यअमृषा मनोयोग एवं असत्यअमृषा वचनयोग ही होता है। काययोगों में देव और नारक वैक्रिय शरीर वाले होते हैं। मनुष्य और तिर्यंच, वैक्रिय एवं औदारिक शरीर वाले होते हैं । छठे गुणस्थानवर्ती आत्मा में आहारक शरीर सम्भव होता है, जबकि सभी प्रकार के अपर्याप्त जीव मिश्र शरीर वाले होते हैं । __प्रथम गुणस्थान से लेकर चतुर्थ गुणस्थान तक के देव और नारकों में वैक्रिय, वैक्रिय मिश्र और कार्मण काययोग-ये तीन योग होते है। मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के मनुष्यों में तथा मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से देशविरति गुणस्थान तक के तिर्यंचों में औदारिक एवं वैक्रिय काययोग पाए जाते हैं । यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि वैक्रिय काययोग केवल वैक्रिय लब्धि के धारक गर्भज मनुष्यों और तिर्यंचों में ही पाया जाता है । मनुष्यों में अप्रमत्तसंयत गुणस्थान और उसके आगे के सभी गुणस्थानों में वैक्रिय काययोग नहीं होता है, क्योंकि आत्मविशुद्धि के कारण ये वैक्रिय लब्धि का उपयोग नहीं करते हैं। इसी प्रकार प्रमत्तसंयत चौदह पूर्वधर मुनिराजों में आहारक काययोग की संभावना होती है। इसके साथ यह भी ज्ञातव्य है कि अपर्याप्त अवस्था में मिश्र गुणस्थान नहीं होता है । अतः उस अवस्था में ही वैक्रिय मिश्र काययोग सम्भव नहीं होता है। कार्मण काययोग भवान्तर में जाते हुए मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सास्वादन गुणस्थान और अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में तथा केवली समुद्घात करते समय सयोगीकेवली गुणस्थान में पाया जाता है। मिश्र गुणस्थान में कोई भी जीव मृत्यु को प्राप्त नहीं करता है । अतः तीसरे गणस्थान में कार्मण काययोग सम्भव नहीं होता है। (५) वेदमार्गणा - जैनदर्शन में वेद तीन माने गए हैं - पुरुषवेद, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद । नारकों में नपुंसकवेद, देवों में स्त्रीवेद और पुरुषवेद तथा तिर्यंचों एवं मनुष्यों में स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद - ये तीनों वेद पाए जाते हैं । मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान तक तीनों वेदों की संभावना होती है । शेष अग्रिम गुणस्थानों में वेद का अभाव होता है। जैनदर्शन में स्त्री, पुरुष और नपुंसक सम्बन्धी आंगिक संरचना लिंग कही जाती है तथा तत्सम्बन्धी कामवासना को वेद कहा जाता है । श्वेताम्बर एवं यापनीय परम्परा के अनुसार दसवें गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान तक कामवासना समाप्त होने पर तीनों ही लिंगों के धारक आरोहण कर सकते हैं, जबकि दिगम्बर परम्परा के अनुसार पांचवें गुणस्थान से आगे मात्र पुरुष ही आरोहण कर सकता है। (६) कषायमार्गणा- जैनदर्शन में कषायों के कुल पच्चीस भेद माने गए हैं । मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में पच्चीस ही कषायों की संभावना होती है । अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क को छोड़कर इक्कीस कषायों का उदय सम्भव रहता है । देशविरतिसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में उपर्युक्त चार तथा अप्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क को छोड़कर सत्रह कषायों का उदय रहता है । प्रमत्तसंयत गुणस्थान में उपर्युक्त आठ के साथ प्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क का भी अभाव होने से आगे के अप्रमत्तंसयत अपूर्वकरण गुणस्थान में शेष तेरह योग सम्भव होते हैं । अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के प्रारम्भ में हास्यषट्क का क्षय हो जाने से संज्वलन चतुष्क तथा वेदत्रिक - इन सात कषायों का उदय रहता है । सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में वेदत्रिक और संज्वलन लोभ शेष रहता है । अग्रिम चारों गुणस्थानों में कषाय की सत्ता का अभाव हो जाता है । (७) ज्ञानमार्गणा- जैनदर्शन में पांच ज्ञान माने गए हैं । साथ ही तीन अज्ञान भी हैं । मिथ्यादृष्टि और सास्वादन गुणस्थान में इन तीनों अज्ञानों की सत्ता होती है । मिश्र गुणस्थान में इन तीनों अज्ञानों एवं तीनों ही ज्ञानों का मिश्रित रूप बोध होता है । Jain Education Intemational Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... नवम अध्याय........{468} अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक मति, श्रुत और अवधि - ये तीनों ही ज्ञान होते हैं । प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक मनःपर्यव ज्ञान की संभावना होने से चारों ज्ञान सम्भव हैं, जबकि सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानों में मात्र केवलज्ञान होता है। (८) संयम या चारित्र पांच माने गए हैं-सामायिक, छेदोपस्थापनीय, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात। प्रथम गुणस्थान से लेकर चतुर्थ गुणस्थान तक चारित्र का अभाव होता है। देशविरति गुणस्थान में आंशिक रूप से सम्यग्चारित्र का सद्भाव पाया जाता है, जबकि प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान तक सामायिक और छेदोपस्थापनीय - ये दोनों चारित्र सम्भव होते है । अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में परिहारविशुद्धि चारित्र होता है । सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में सूक्ष्मसंपराय चारित्र पाया जाता है, उपशान्तमोह गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक यथाख्यात चारित्र सम्भव होता (E) दर्शनमार्गणा- जैनदर्शन में दर्शन चार माने गए हैं । चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन सम्भव होता है । अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक अवधिदर्शन सम्भव होता है । सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थान में मात्र केवलदर्शन पाया जाता है। (१०) लेश्यामार्गणा- लेश्याएँ छ: मानी गईं हैं - कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या। प्रथम गुणस्थान से लेकर चतुर्थ गुणस्थान तक प्रथम तीनों लेश्याएँ पाई जाती हैं । प्रथम मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सप्तम अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक तेजो और पद्मलेश्या होती है, जबकि प्रथम से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक शुक्ललेश्या सम्भव होती है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि शुक्ललेश्या का सद्भाव मिथ्यादृष्टि में माना गया है । इसका तात्पर्य यह है कि मिथ्यादृष्टि व्यक्ति में भी कभी-कभी शुद्ध अध्यवसाय प्रकट हो जाते हैं और उसमें भी लोकमंगल की भावना होती है । उदाहरणार्थ - तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध किया हुआ जीव जब पूर्व में नरकायु बन्ध होने से देहत्याग करते समय मिथ्यात्व तो ग्रहण करता है फिर भी उसमें उदात्त लोकमंगल की भावना या शुक्ललेश्या का सद्भाव हो सकता है । (११) भव्यमार्गणा- जीव दो प्रकार के माने गए हैं - भव्य और अभव्य । अभव्य जीव केवल मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में पाए जाते हैं । भव्य जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक सभी गुणस्थानों में मिलते हैं । (१२) सम्यक्त्वमार्गणा- उपशम सम्यक्त्व, वेदक सम्यक्त्व अर्थात् क्षायोपशमिक सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व - ये तीन प्रकार के सम्यक्त्व होते है । ये तीन सम्यक्त्व अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थान तक सम्भव होते हैं। ज्ञातव्य है कि उपशम सम्यक्त्व उपशान्तमोह गुणस्थान तक ही होता है । जबकि क्षायिक सम्यक्त्व अविरतसम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक सम्भव होता है। (१३) संज्ञीमार्गणा- जीव दो प्रकार के माने गए हैं - संज्ञी और असंज्ञी । असंज्ञी जीवों में मिथ्यात्व और सास्वादन - ये दो गुणस्थान ही सम्भव होते हैं । संज्ञी जीवों में प्रथम गुणस्थान से लेकर क्षीणमोह गुणस्थान तक सभी गुणस्थान पाए जाते हैं । सयोगीकेवली और अयोगीकेवली को नोसंज्ञी और नोअसंज्ञी कहा है, क्योंकि उनमें विचार की अपेक्षा नहीं होती है । वे तो मात्र साक्षी भाव में रहते हैं । मात्र द्रव्यमन की अपेक्षा इन दोनों गुणस्थानवी जीवों को संज्ञी माना जाता है। (१४) आहारमार्गणा - आहार तीन प्रकार का है - ओजाहार, लोमाहार और कवलाहार । जो इन आहारों का ग्रहण करता है, वह आहारक जीव है, तथा जो इन तीनों प्रकार के आहार में से किसी भी प्रकार का आहार ग्रहण नहीं करता वह अनाहारक जीव है । जैनदर्शन के अनुसार एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को ग्रहण करने के बीच विग्रहगति से यात्रा करने वाले जीव, केवली समुद्घात करनेवाले केवली, अयोगीकेवली और सिद्ध अनाहारक माने जाते हैं । शेष जीव आहारक माने जाते हैं । मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, सास्वादन गुणस्थान, अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव विग्रह गति से यात्रा करते समय अनाहारक Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... नवम अध्याय........{469) होते हैं, शेष समय में आहारक ही होते हैं । इसी प्रकार सयोगीकेवली गुणस्थान में केवली समुद्घात करने वाला जीव उसके तीसरे, चौथे और पांचवें समय में अनाहारक होता है, जबकि अयोगीकेवली अनाहारक ही होता है । अतः अनाहारक अवस्था में मिथ्यादृष्टि, सास्वादन, अविरतसम्यग्दृष्टि, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली ये पांच गुणस्थान ही सम्भव होते हैं । आहारक जीवों में मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगीकेवली तक तेरह गुणस्थान पाए जाते हैं । दिगम्बर परम्परा के अनुसार सयोगीकेवली कवलाहार नहीं करता है, जबकि श्वेताम्बरों के अनुसार वह कवलाहार करता है। जहाँ तक तत्त्वार्थ सूत्र की टीकाओं का प्रश्न है, उनमें ध्यान और परिषहों के सन्दर्भ में भी गुणस्थानों का अवतरण किया गया है । इस प्रकार तीसरे, चौथे और पांचवें अध्यायों में गुणस्थानों के सन्दर्भ में चर्चा की गई है, उसे यहाँ हमने संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत की है। यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य तथ्य है कि कुछ मतभेदों को छोड़कर सामान्यतया श्वेताम्बर एवं दिगम्बर परम्परा में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचना समान रूप से ही उपलब्ध होती है। हमें इनमें कहीं भी ऐसी कोई विशेष भिन्नता परिलक्षित नहीं हुई,जो इनकी गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विवेचना में किसी विशेष अन्तर को अभिव्यक्त करती है। पंचसंग्रहों तथा नवीन और प्राचीन कर्मग्रन्थों अथवा गोम्मटसार में चाहे गाथाओं में शाब्दिक प्रस्तुतिकरण की दृष्टि से कुछ भिन्नतायें हो, किन्तु सिद्धान्त पक्ष की दृष्टि से हमें उनमें कोई विशेष भिन्नता प्रतीत नहीं होती है । जो भी किंचित् मतभेद उपलब्ध होते हैं, वे कर्मों के बन्ध, उदय आदि के विकल्पों की दृष्टि से ही उपलब्ध होते है । गुणस्थान सम्बन्धी इस समस्त विवेचन में श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा में जो विशेष मतभेद देखे गए हैं, उनका उल्लेख पंडित सुखलालजी ने निम्न रूप में किया है ४६४ (9) श्वेताम्बर ग्रन्थों में तेजःकाय के वैक्रिय शरीर का कथन नहीं है, किन्तु दिगम्बर ग्रन्थों में है। (२) श्वेताम्बर सम्प्रदाय की अपेक्षा दिगम्बर सम्प्रदाय में संज्ञी-असंज्ञी का व्यवहार कुछ भिन्न है । श्वेताम्बर ग्रन्थों में हेतुवादोपदेशिकी आदि संज्ञाओं का विस्तृत वर्णन है, पर दिगम्बर ग्रन्थों में नहीं है । (३) श्वेताम्बर शास्त्र प्रसिद्ध करणपर्याप्त शब्द के स्थान पर दिगम्बर शास्त्र में निवृत्यपर्याप्त शब्द है। व्याख्या भी दोनों शब्दों की भिन्न है। (४) श्वेताम्बर ग्रन्थों में केवलज्ञान तथा केवलदर्शन के क्रमभावित्व, सहभावित्व और अभेद ये तीन पक्ष हैं ; परन्तु दिगम्बर ग्रन्थों में सहभावित्व का एक ही पक्ष है । (५) लेश्या तथा आयु के बन्धाबन्ध की अपेक्षा से कषाय के जो चौदह और बीस भेद गोम्मटसार में है, वे श्वेताम्बर ग्रन्थों में नहीं देखे गए। अपर्याप्त अवस्था में औपशमिक सम्यक्त्व पाए जाने और न पाए जाने के सम्बन्ध में दो पक्ष श्वेताम्बर ग्रन्थों में है. परन्तु गोम्मटसार में उक्त दो में से प्रथम पक्ष ही है । (७) अज्ञानत्रिक में गुणस्थानों की संख्या के सम्बन्ध में दो पक्ष कर्मग्रन्थ में मिलते हैं; परन्तु गोम्मटसार में एक ही पक्ष है। (८) गोम्मटसार में नारकों की संख्या कर्मग्रन्थ में वर्णित संख्या से भिन्न है। (E) द्रव्यमन का आकार तथा स्थान दिगम्बर सम्प्रदाय में श्वेताम्बर की अपेक्षा भिन्न प्रकार का माना है और तीन योगों के बाह्याभ्यन्तर कारणों का वर्णन राजवार्तिक में बहुत स्पष्ट किया है। (१०) मनःपर्यवज्ञान के योगों की संख्या दोनों सम्प्रदाय में तुल्य नहीं है। (११) श्वेताम्बर ग्रन्थों में जिस अर्थ के लिए आयोजिकाकरण, आवर्जितकरण और आवश्यक करण-ऐसी तीन संज्ञाएँ ४६४ दर्शन और चिन्तन भाग-२, पं. सुखलालजी, प्रकाशकः पं. सुखलालजी सन्मान समिति, गुजरात विद्यासभा-अमदाबाद, पृ. ३४२-३४३ Jain Education Intemational Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.. नवम अध्याय........{470) मिलती है, दिगम्बर ग्रन्थों में उस अर्थ के लिए सिर्फ आवर्जितकरण-यह एक संख्या है। वेताम्बर ग्रन्थों में काल को स्वतन्त्र द्रव्य भी माना है और उपचरित भी, किन्तु दिगम्बर ग्रन्थों में उसको स्वतन्त्र ही माना है । स्वतन्त्र पक्ष में भी काल का स्वरूप दोनों सम्प्रदाय के ग्रन्थों में एक-सा नहीं है । (१३) किसी-किसी गुणस्थान में योगों की संख्या गोम्मटसार में कर्मग्रन्थ की अपेक्षा भिन्न है । (१४) दूसरे गुणस्थान के समय ज्ञान तथा अज्ञान माननेवाले-ऐसे दो पक्ष श्वेताम्बर ग्रन्थों में है, परन्तु गोम्मटसार में सिर्फ दूसरा पक्ष है। (१५) जीव सम्यक्त्व सहित मरकर स्त्रीरूप में पैदा नहीं होगा, यह बात दिगम्बर सम्प्रदाय को मान्य है, परन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय को यह मन्तव्य इष्ट नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें भगवान मल्लिनाथ का स्त्रीवेद तथा सम्यक्त्व सहित उत्पन्न होना माना गया है। कर्मग्रन्थिकों और सैद्धान्तिकों का मतभेद : श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के उपर्युक्त मतभेद के अतिरिक्त कर्मग्रन्थों और आगमिक परम्परा में कुछ मतभेद देखे जाते हैं । इनका उल्लेख पं. सुखलालजी ने निम्न रूप में किया है।६५ ) सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि दस जीवस्थानों में तीन उपयोगों का कथन कार्मग्रन्थिक मत का फलित है । सैद्धान्तिक मत के अनुसार तो छः जीवस्थानों में ही तीन उपयोग फलित होते है और द्वीन्द्रिय आदि शेष चार जीवस्थानों में पांच उपयोग फलित होते (२) अवधिदर्शन में गुणस्थानों की संख्या के सम्बन्ध में कर्मग्रंथिकों तथा सैद्धान्तिकों का मतभेद है। कर्मग्रन्थकार उसमें नौ तथा दस गुणस्थान मानते हैं और सैद्धान्तिक उसमें बारह गुणस्थान मानते है। (३) सैद्धान्तिक दूसरे गुणस्थान में ज्ञान मानते हैं, पर कर्मग्रन्थकार उसमें अज्ञान मानते हैं । (४) वैक्रिय तथा आहारक शरीर बनाते और त्याग के समय कौन-सा योग मानना चाहिए, इस विषय में कर्मग्रन्थकारों का और सैद्धान्तिकों का मतभेद है । (५) ग्रंथिभेद के अनन्तर कौन-सा सम्यक्त्व होता है, इस विषय में सिद्धान्त तथा कर्मग्रन्थ का मतभेद है। जहाँ तक इन कर्मग्रन्थों के कालक्रम का प्रश्न है चन्द्रर्षि कृत श्वेताम्बर पंचसंग्रह, कुछ प्राचीन कर्मग्रन्थ और वि पंचसंग्रह लगभग समकालीन ही है । विद्वानों की दृष्टि में ये सभी ग्रन्थ छठी-सातवीं शताब्दी के मध्य रचित है । इनके पश्चात् दसवीं शताब्दी में रचित गोम्मटसार और उसके पश्चात् दिगम्बर परम्परा के दोनों पंचसंग्रह और श्वेताम्बर परम्परा के प्राचीन कर्मग्रन्थ तथा देवेन्द्रसूरिकृत नवीन कर्मग्रन्थों का स्थान है । यह सम्पूर्ण साहित्य छठी शताब्दी से तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी के मध्य रचित है और गुणस्थान सिद्धान्त का समान रूप से विस्तृत एवं व्यापक विवेचन प्रस्तुत करता है। श्वेताम्बर परम्परा के आगम साहित्य और उसकी आगमिक व्याख्याओं, दिगम्बर आगम तुल्य ग्रन्थों तथा तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाओं तथा कर्मसाहित्य के श्वेताम्बर और दिगम्बर कर्मग्रन्थों में गुणस्थान सम्बन्धी इस चर्चा के पश्चात् प्रस्तुत कृति के छठे अध्याय में हमने श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के कुछ महत्वपूर्ण प्राकृत और संस्कृत ग्रन्थों के आलोडन का प्रयत्न किया है । श्वेताम्बर परम्परा में हमें इन ग्रन्थों में सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ जीवसमास प्रतीत होता है । पूर्वाचार्यकृत इस ग्रन्थ में गुणस्थान सिद्धान्त का संतोषजनक विवेचन उपलब्ध हुआ है । यह ग्रन्थ लगभग पांचवीं शताब्दी का माना जा सकता है । पंडित हीरालालजी जैसे दिगम्बर विद्वानों ने इसे षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड का आधारभूत ग्रन्थ माना है । श्वेताम्बर परम्परा की दृष्टि से यह गुणस्थान का विवेचन करनेवाला प्रथम ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ में चौदह गुणस्थानों की चर्चा के साथ उनका चौदह मार्गणाओं में अवतरण भी किया गया है । यद्यपि जीवसमास का गुणस्थान सम्बन्धी यह विवेचन षटखण्डागम और सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा ४६५ दर्शन और चिन्तन भाग-२, पं. सुखलालजी, प्रकाशकः पं. सुखलालजी सन्मान समिति, गुजरात विद्यासभा-अमदाबाद, पृ. ३४४ Jain Education Intemational Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... नवम अध्याय........{471) संक्षिप्त ही है, किन्तु गुणस्थान सिद्धान्त के विकास को समझने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। श्वेताम्बर परम्परा में जीवसमास के पश्चात् आगमिक व्याख्याओं और तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं को छोड़कर जिन ग्रन्थों का स्थान आता है उनमें गुणस्थान सम्बन्धी विचारणा की दृष्टि से आचार्य हरिभद्र का क्रम आता है । हरिभद्र के ग्रन्थों में अष्टकप्रकरण, षोडशक, विंशिका, पंचाशक, शास्त्रवार्तासमुच्चय, षड्दर्शनसमुच्चय आदि अनेक ग्रन्थ समाहित हैं । आचार्य हरिभद्र की आगमिक टीकाओं के समान ही उनके उपर्युक्त ग्रन्थों में भी कुछ नामनिर्देशों को छोड़कर गुणस्थानों का सुव्यवस्थित विवेचन हमें उपलब्ध नहीं हुआ। यहाँ तक कि हरिभद्र ने अपने योग सम्बन्धी ग्रन्थों में जहाँ आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से आठ दृष्टियों और अध्यात्म आदि पांच अवस्थाओं का उल्लेख किया है, वहाँ भी उन्होंने गुणस्थान सम्बन्धी कोई विवेचन नहीं किया है। यहाँ यह कहना तो कठिन है कि आचार्य हरिभद्र गुणस्थान की अवधारणा से अपरिचित रहे हैं, फिर भी यह सुनिश्चित है कि उन्होंने गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन में कोई विशेष रस नहीं लिया है। आचार्य हरिभद्र के ग्रन्थों में यथास्थान अपनबंधक, सम्यग्दृष्टि, देशविरति, सर्वविरति, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत आदि अवस्थाओं के तो उल्लेख है, किन्तु इस सम्बन्ध में उनकी स्थिति श्वेताम्बर आगमों के समरूप ही है, यहाँ वे आगमों का अनुसरण करते हुए प्रसंगवशात् ही इन अवस्थाओं का उल्लेख करते हैं। हमारे लिए आचार्य हरिभद्र के समग्र ग्रन्थों का गम्भीर अध्ययन तो सम्भव नहीं था, किन्तु सरसरी तौर पर हमने उनका जो अवलोकन किया उसमें कहीं भी गुणस्थान सम्बन्धी विशेष विवेचन उपलब्ध नहीं हुआ । श्वेताम्बर परम्परा में चिरंतनाचार्य विरचित पंचसूत्र नामक प्राकृतभाषा में निबद्ध एक ग्रन्थ मिलता है । इस ग्रन्थ के संकलन कर्ता और टीकाकार आचार्य हरिभद्र माने जाते है । इस ग्रन्थ की टीका में आचार्य हरिभद्रसूरि 'मिथ्यादृष्टिनामपिगुणस्थानाद्वाभ्युपगमात्' - ऐसा निर्देश मिलता है । इसमें यह तो निश्चित हो जाता है कि आचार्य हरिभद्रसूरि गुणस्थान सिद्धान्त से परिचित हैं, फिर भी उनके ग्रन्थों में हमें गुणस्थान सम्बन्धी कुछ निर्देशों के अतिरिक्त विस्तृत विवेचन कहीं भी उपलब्ध नहीं होता है। ___ आचार्य हरिभद्र के पश्चात् श्वेताम्बर परम्परा में यदि हम कथासाहित्य सम्बन्धी ग्रन्थों एवं दार्शनिक मूल ग्रन्थों और उनकी टीकाओं को छोड़ दें, तो आचार्य हेमचन्द्र ही एक ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने विभिन्न विधाओं पर साहित्य की रचना की है। उनके ग्रन्थों में योगशास्त्र और उसकी स्वोपज्ञवृत्ति महत्वपूर्ण है । योगशास्त्र की विषयवस्तु का अवलोकन करने पर भी हमें उसमें गुणस्थान सम्बन्धी कोई विवेचन उपलब्ध नहीं हुआ। योगशास्त्र में आचार्य हेमचन्द्र ने श्रावकाचार का विस्तार से विवेचन किया है, किन्तु इस ग्रन्थ में भी गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा उपलब्ध नहीं होती है । श्वेताम्बर परम्परा में आचार्य हेमचन्द्र के पश्चात् नेमिचन्द्रसूरिकृत प्रवचनसारोद्धार ही एक ऐसा ग्रन्थ उपलब्ध हुआ है, जिसके २२४ वें द्वार में चौदह गुणस्थानों का उल्लेख मिलता है । यद्यपि मूलग्रन्थ में गुणस्थानों के नामनिर्देश ही हैं, किन्तु इसके टीकाकार सिद्धसेनसूरि ने तथा गुजराती अनुवादक अमितयशविजयजी ने इस प्रसंग में गुणस्थानों का व्यवस्थित विवेचन प्रस्तुत किया है । मूल ग्रन्थ में नामनिर्देश के अतिरिक्त परिषह सम्बन्धी चर्चा में भी गुणस्थानो का समावतार किया गया है । इसी प्रकार द्धार के नवें श्रेणी द्वार में भी आत्मा किस प्रकार कर्मप्रकृतियों का क्षय एवं उपशमन करती हुई किन गुणस्थानों को प्राप्त होती है, इसका उल्लेख है । श्वेताम्बर परम्परा में गुणस्थान के सम्बन्ध में जो भी गहन विवेचन उपलब्ध होता है, वह पंचसंग्रह, प्राचीन तथा अर्वाचीन कर्मग्रन्थों में ही उपलब्ध होता है । स्वतन्त्र रूप से गुणस्थान सिद्धान्त की विवेचना करने वाला, श्वेताम्बर परम्परा में संस्कृतभाषा में रचित, जो ग्रन्थ उपलब्ध होता है वह रत्नशेखरसूरि का गुणस्थानक्रमारोह है । आचार्य देवचन्द्रजी का प्राकृतभाषा की मूलगाथाओं तथा संस्कृतभाषा से युक्त टीका सहित विचारसार प्रकरण दूसरा महत्वपूर्ण ग्रन्थ है, जिसके प्रथम विभाग का अपरनाम 'गुणस्थान शतक' ही है। श्वेताम्बर परम्परा की अपेक्षा दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन अधिक व्यापक रूप से उपलब्ध होता है । दिगम्बर परम्परा के शौरसेनी आगम साहित्य और कर्मसाहित्य के अतिरिक्त भी अन्य आचार्यों के ग्रन्थों में भी गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन उपलब्ध होता है । आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन प्रस्तुत किया है । इसके अतिरिक्त योगसार आदि में भी हमें गुणस्थान सम्बन्धी सन्दर्भ उपलब्ध हो जाते हैं । इस प्रकार सामान्य निष्कर्ष यह है कि गुणस्थान सम्बन्धी विवेचनों में श्वेताम्बर आचार्यों की अपेक्षा दिगम्बर आचार्यों ने विशेष रुचि प्रगट की है। इसके पश्चात् प्रस्तुत कृति के सातवें अध्याय में हमने प्राकृत, संस्कृत और हिन्दी साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त पर Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ नवम अध्याय ......{472} स्वतन्त्र रूप से लिखे गए ग्रन्थों के सम्बन्ध में चर्चा की है । जहाँ तक प्राकृत एवं संस्कृतभाषा में स्वतन्त्र रूप से गुणस्थान सिद्धान्त पर लिखे गए ग्रन्थों का प्रश्न है, उनमें रत्नशेखरसूरि कृत गुणस्थानक्रमारोह, विमलसूरि कृत गुणस्थानक्रमारोह, जयशेखर कृत गुणस्थानक्रमारोह, जिनभद्रसूरि कृत गुणस्थानक्रमारोह, देवचन्द्र कृत विचारसार प्रकरण अपरनाम गुणस्थानशतक प्रमुख है । इनमें भी रत्नशेखरसूरि कृत गुणस्थानक्रमारोह और देवचन्द्र कृत विचारसार प्रकरण ही अपने मुद्रित रूप में उपलब्ध हो सके हैं । शेष ग्रन्थों के सन्दर्भ में जिनरत्नकोष में प्राप्त सूचनाओं का उल्लेख कर सन्तोष करना पड़ा है, क्योंकि ये ग्रन्थ अभी तक हस्तलिखित प्रतियों के रूप में शास्त्र भण्डारों में संरक्षित हैं, किन्तु जहाँ तक आधुनिक युग का प्रश्न है हमें यह देखने को मिलता है कि आधुनिक युग में श्वेताम्बर आचार्यों एवं विद्वानों ने दिगम्बर विद्वानों की अपेक्षा गुणस्थान सिद्धान्त पर अपनी लेखनी विशेष रूप से चलाई है । आधुनिक युग की गुणस्थान सम्बन्धी रचनाओं में दिगम्बर परम्परा में हमें दो का ही उल्लेख उपलब्ध होता है । एक उल्लेख तो सम्भवतः दुढारीभाषा में रचित 'गुणस्थान वचनिका' का है और दूसरा उल्लेख डॉ. प्रमिला जैन के 'षट्खण्डागम में गुणस्थान विवेचन' का है। इनमें भी गुणस्थानवचनिका तो हमें उपलब्ध नहीं हुई, किन्तु डॉ. प्रमिला जैन का उपर्युक्त शोधप्रबन्ध प्रकाशित रूप में हमें उपलब्ध हुआ है । उसके अवलोकन से भी हमें यही लगा कि षट्खण्डागम मूल औ उसकी धवला टीका में गुणस्थान सिद्धान्त का जो विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है, उसका बहुत ही कम उपयोग प्रस्तुत शोधप्रबन्ध में हो पाया है । यद्यपि इस शोधप्रबन्ध का आकार तो बड़ा है, किन्तु यदि हम इसमें विशुद्ध रूप से गुणस्थान सम्बन्धी विवेचनाओं को देखें तो बहुत ही अल्प है । श्वेताम्बर परम्परा के आचार्यों एवं विद्वानों ने आधुनिक युग में गुणस्थान सम्बन्धी जो विवेचनाएं प्रस्तुत की या शोधपूर्ण ग्रन्थ लिखे हैं, उनमें आचार्य अमोलकऋषिजी कृत 'गुणस्थान रोहण अढीशतद्वारी' एक प्रमुख ग्रन्थ है । इसमें २५२ द्वारों में गुणस्थान सिद्धान्त के विभिन्न पक्षों को व्यापक रूप से प्रस्तुत किया गया है । यह ग्रन्थ लगभग ५०० पृष्ठों में रचित है और परम्परागत दृष्टि से गुणस्थान की अवधारणा के सम्बन्ध में एक समग्र विवेचन प्रस्तुत करता है । यद्यपि इसकी भाषा हिन्दी है, किन्तु वह भी लोकबोलियों के मिश्रण से युक्त है । दूसरे यह ग्रन्थ मात्र विवरणात्मक ही है। तुलनात्मक विवेचन या शोधपूर्ण दृष्टि से गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन को सर्वप्रथम प्रस्तुत करने का श्रेय पंडित सुखलालजी को जाता है । उन्होंने देवेन्द्रसूरिकृत कर्मग्रन्थ की भूमिकाओं में गुणस्थान सिद्धान्त का न केवल विवेचन किया है, अपितु हिन्दू और बौद्ध परम्पराओं के साथ उनका तुलनात्मक विवरण भी प्रस्तुत किया है । गुणस्थान सिद्धान्त पर डॉ. नथमलजी टांटिया एवं प्रो. कलघटगी ने क्रमशः 'स्टडीज इन जैन फिलोसोफी' तथा 'जैन सायकोलॉजी' में पर्याप्त प्रकाश डाला है, किन्तु अंग्रेजी भाषा में हमारी गति न होने के कारण हमने इस सम्बन्ध में विशेष प्रकाश अपने शोधग्रन्थ में नहीं डाला है। फिर भी इन दोनों विद्वानों के विचार संक्षिप्त होते हुए भी अंग्रेजी भाषा में गुणस्थान की अवधारणा को प्रस्तुत करने में अत्यन्त महत्वपूर्ण माने जा सकते हैं । स्थान सिद्धान्त पर हिन्दी भाषा में स्वतन्त्र ग्रन्थों के लेखन की दृष्टि से बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक का अन्तिम चरण अति महत्वपूर्ण है । यद्यपि इसके पूर्व हिन्दी भाषा में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कुछ आलेख प्रकाशित हुए हैं, किन्तु गुणस्थान के सम्बन्ध में स्वतन्त्र ग्रन्थों का प्रकाशन ईस्वी सन् १६६६ से ईस्वी सन् १६६८ के बीच ही हुआ है । इसमें सर्वप्रथम डॉ.सागरमल जैन के 'गुणस्थान सिद्धान्तः एक विश्लेषण' नामक ग्रन्थ का क्रम आता है । यह ग्रन्थ मूलतः शोधपूर्ण दृष्टि से लिखा गया है । इस ग्रन्थ के प्रथम पांच अध्यायों में लेखक ने जैनदर्शन में गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा का क्रमिक विकास किस रूप में हुआ है, इसे मूल ग्रन्थों के प्रमाणों के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। डॉ. जैन की मान्यता यह है कि गुणस्थान की अवधारणा लगभग पांचवीं शताब्दी के बाद ही अस्तित्व में आई है । यद्यपि उन्होंने गुणस्थान सिद्धान्त के बीजों का अस्तित्व गुणश्रेणी की अवधारणा के रूप में तथा आगमों के प्रकीर्ण संदर्भों के आधार पर इससे पूर्ववर्ती माना है, फिर भी उनका • निष्कर्ष तो यही है कि गुणस्थान सिद्धान्त महावीरकालीन नहीं है । वह महावीर के लगभग १००० वर्ष पश्चात् ही अस्तित्व में आया है । उनकी इस मान्यता के सन्दर्भ में डॉ धरमचंद जैन की समीक्षा का उल्लेख भी हमने इस शोधप्रबन्ध में किया है । फिर भी हम यह मानने को तो विवश होते हैं कि आज जो भी साहित्यिक सूचनाएं उपलब्ध हैं, उनके आधार पर डॉ. सागरमल जैन की स्थापना में तार्किक बल है । इस कृति के पश्चात् हमारे सामने आचार्य नानेश द्वारा रचित 'गुणस्थान स्वरूप और विश्लेषण' · तथा आचार्य जयन्तसेनसूरिजी द्वारा रचित 'आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएँ एवं पूर्णता' - ये दो कृतियाँ उपलब्ध होती है । जहाँ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... नवम अध्याय........{473} तक आचार्य नानेश की कृति का प्रश्न है, इस कृति में गुणस्थानों के स्वरूप का व्यापक विश्लेषण हुआ है। साथ ही गुणस्थान सिद्धान्त और कर्मसिद्धान्त के पारस्परिक सम्बन्ध को भी उसमें अधिक गम्भीरता से स्पष्ट किया गया है । यह कृति गुणस्थान की अवधारणा को शास्त्रीय गहराई से तो प्रस्तुत करती है, किन्तु इसमें शोधपूर्ण और तुलनात्मक विवेचन का अभाव है । आचार्य जयन्तसेनसूरिजी की कृति में गुणस्थानों की अवधारणा के साथ-साथ गुणस्थानों का आध्यात्मिक विकास में क्या स्थान है, इस पर व्यापक दिशानिर्देश उपलब्ध होता है । इस कृति में गुणस्थानों के साथ मार्गणास्थानों और कर्मप्रकृतियों के सहसम्बन्ध को बहुत विस्तार से तो स्पष्ट नहीं किया गया है, किन्तु तुलनात्मक विवेचन की दृष्टि से यह कृति महत्वपूर्ण है । इसमें न केवल गुणस्थान की अवधारणा का तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत किया गया है, अपितु इसके साथ इसमें आध्यात्मिक विकास की पूर्ण के रूप में मोक्ष की अवधारणा का भी विविध दर्शनों के साथ तुलनात्मक विवेचन उपलब्ध होता है । आचार्य देवेन्द्रमुनिजी ने यद्यपि गुणस्थान के सम्बन्ध में कोई स्वतन्त्र कृति की रचना नहीं की, किन्तु उन्होंने अपने कर्मविज्ञान नामक महाकाय ग्रन्थ के ५ वें खण्ड में लगभग पांच अध्यायों में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन को प्रस्तुत किया है । यह विवेचन चाहे गुणस्थान के सम्बन्ध में स्वतन्त्र ग्रन्थ के रूप में न हो, किन्तु एक स्वतन्त्र ग्रन्थ से कम भी नहीं है । इसमें गुणस्थान के विवरणात्मक और तुलनात्मक पक्षों का सांग संतुलन उपलब्ध होता है । आधुनिक युग में सन्दर्भ कोष ग्रन्थ के रूप में आचार्य श्रीराजेन्द्रसूरिजी ने 'अभिधानराजेन्द्रकोष' जैसे अति विशाल ग्रन्थ की रचना की है । अभिधानराजेन्द्रकोष आगमों एवं प्राचीन ग्रन्थों की अवधारणाओं की समीचीन अभिव्यक्ति और अर्थघटन में सर्वश्रेष्ठ सहायक ग्रन्थ है । विश्व की अनमोल धरोहर अभिधानराजेन्द्रकोष सात भागों में विभक्त है । इस विशालतम ग्रन्थ के तृतीय खण्ड में गुणस्थान और चतुर्थ खण्ड में जीवस्थान का टीका सहित सन्दर्भ विशद विवेचन है । इसी क्रम में 'जैनेन्द्रसिद्धान्तकोष' में जिनेन्द्रवर्णीजी ने अनेक दिगम्बर ग्रन्थों के सन्दर्भ युक्त गुणस्थानों का संक्षिप्त विवेचन किया है । प्रस्तुत कृति के अष्टम अध्याय में हमने जिस पक्ष पर अधिक बल दिया है, वह गुणस्थान सिद्धान्त की अन्य धार्मिक और दार्शनिक अवधारणाओं से तुलना सम्बन्धी है । इस सम्बन्ध में हमने मुख्य रूप से पंडित सुखलालजी, डॉ. सागरमल जैन, डॉ. प्रमिला जैन और आचार्य श्री जयन्तसेनसूरिश्वरजी की रचनाओं को आधार बनाकर यह विवेचना प्रस्तुत की है । प्रस्तुत विवेचना में हमने जैन, बौद्ध, हिन्दू एवं आधुनिक मनोविज्ञान सम्बन्धी पक्षों को समाविष्ट करने का प्रयत्न किया है । इसके साथ ही जैनयोग और पातंजलयोग की आध्यात्मिक विकास सम्बन्धी अवस्थाओं की भी तुलना की है । इस सम्बन्ध में हमने एक व्यापक दृष्टि से विचार करने का प्रयत्न किया है । इसीलिए जहाँ से जो भी तुलनात्मक विवेचन उपलब्ध हो सका उसे सन्दर्भ संग्रहित करने का प्रयत्न किया है, ताकि तुलनात्मक विवेचन में पूर्णता आ सके । इस प्रकार प्रस्तुत कृति में हमने प्राचीनकाल से लेकर आधुनिक युग तक जैन साहित्य में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचनाएं कहाँ और किस रूप में उपलब्ध हैं, इसका एक सर्वेक्षण करने का प्रयत्न किया है । यह सर्वेक्षण गुणस्थान सम्बन्धी विवेचनाओं को कालक्रम में प्रस्तुत करने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इस सम्पूर्ण विवेचन में हम किसी मौलिक शोध का दावा तो नहीं करते हैं, किन्तु विशाल जैन साहित्य के महोदधि में से गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी रत्नों की खोज का यह विनम्र शोधपूर्ण उपक्रम अवश्य है। यद्यपि जैन साहित्य अत्यन्त विशाल है और उसका तलस्पर्शी आलोडन और विलोडन तो व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन में भी सम्भव नहीं है, फिर भी इस अल्प अवधि में हमने ईमानदारी से जितना आलोडन- विलोडन सम्भव हो सकता था उतना करने का प्रयत्न किया है । हम अवश्य यह स्वीकार करते है कि इसमें अभी बहुत कुछ करणीय अवशेष रह गया होगा, किन्तु जैन धर्म-दर्शन के जो भी प्रमुख ग्रन्थ हमें उपलब्ध हो सके उन्हें निश्चित ही गुणस्थान सिद्धान्त की दृष्टि से समाहित करने का प्रयत्न प्रस्तुत कृति में किया गया है । सीमित अवधि में और मूल ग्रन्थों की उपलब्धि सम्बन्धी कठिनाई के बावजूद जितना प्रयत्न सम्भव हो सका उतना हमने किया है । हमारा यह विश्वास है कि भविष्य में इस दिशा में आगे शोधकार्य करने वाले शोधार्थियों के लिए यह ग्रन्थ आलम्बन रूप होगा । हम अपने प्रयास में कितने सफल या असफल हुए उसका मूल्यांकन तो विद्वज्जनों द्वारा किया जाना है । हमसे तो जो सम्भव हो सका, वह निष्काम भाव से और बिना किसी आग्रह के यहाँ प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है, ताकि जैनधर्म की दोनों परम्पराओं के साहित्य के साथ न्याय हो और किसी की उपेक्षा न हो । यही दृष्टि हमने इस शोधप्रबन्ध में रखी है। Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट 1 एवं 2 Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational परिशिष्ट - १ श्री मुक्ति सोपान श्री गुणस्थान रोहण अढीशतद्वारीका संक्षेपित यंत्र श्री मुक्ति सोपान श्री गुणस्थान रोहण अटीशतद्वारीका संक्षेपित यंत्र १२ ।१४ करण केवली केवली सदोष | साधु साधु सूक्ष्म गुण? FI.. जावे ५ २३ ८ ९ १० ११ १२ १३ नाम द्वार मिथ्यात्व सास्वादन मिश्र | अवृति देशविरति । प्रमत्त अप्रमत्त | अपूर्व अनिवृत्ति । सूक्ष्म | उपशान्त क्षीणमोह सयोगी अयोगी समादृष्टि संयती संयती बादर सम्पराय मोह | अर्थ द्वार सत्यमें पडवाइ मिश्रित | समकित श्रावक निर्दोष उत्साहही निर्विषयी | ढकदिया क्षयकिया योगयुक्त योग रहित असत्यश्रवा मोह मोह केवल केवल ज्ञानी लोभी प्रश्नोत्तर क्या गुण? क्यों पड़े द्वार | ग्रीवक तक | धर्म स्पर्श | समझने तत्वज्ञ अव्रतरोकी | सर्वविरति | प्रमाद | बड़ी विषय से | अकषायी मोह । द्रव्ये के मोक्षगामी लगा छूटा कषाय से | भी निवृते हुवे | उद्धवने से बलीबली निवृते प्रवेश द्वार मूल स्थान धर्मप्रष्ट हानी बुद्धि | निसर्ग ७ प्रकृति ११ प्रकृति १५ प्रकृति | १६प्रकृति | २१ प्रकृति | २७प्रकृति २प्रकृति प्रकृतिघातीकर्म अक्रिय अधिगम क्षयोपशमी | उपशमी क्षयकरी लक्षण द्वार | ३४मिथ्यात्व आर्त-रौद्र शंकाशील ज्ञानी ६७ | धर्मोत्साही | दयामूर्ति धर्मोद्यमी धीर वीर पूर्णशील पूर्णसंतोषी | शान्त । परमशान्त | सर्वज्ञ मोक्षात्मा ध्यानी लक्षण | ५३ लक्षण | ६५लक्षण स्वभावी दृष्टान्त द्वार | ३६३ प्रसाद सिकरण नदी विषयव्यश्री | धना शेठ | उत्कृष्टार्थी | पंथानुगामी | फटादुग्ध | निरंगवस्त्र ढकी | बुजि निर्मल मेरू पर्वत पाखंडी अम्ब घड़ी | भोलाजीव काटोल १० श्रावक व्यापारी धन्ना प्रसन्न हरकेशी तम अग्नि अग्नि सूर्य | गजसुकमाल वमन अम्र सूर्य अणगार स्वामी कुंडरिक स्कंध मुनि | महावीर गुण द्वार अनंत अर्ध | शुक्ल पक्षी |७ बोलका ज३-उ-१५ : ३ भव | उसी भव: संसारी पुद्गल अबंध बारवा स्वर्ग कल्पातीत | कल्पतीत अनुतरवी में मोक्ष संसारी गमी गमी अंगु.असं. ज.६ उ. ज.१ हाथ: दो हथ: द्वार 9000 यों ५०० धनु. ५१० ५०० घ. 3 धनुष्य उत्पति द्रव्य अनन्त असंख्याते प्रत्येक प्रत्येक सौ १६२ ५४ १०८ प्रमाण हजार ६ ७ अवघेणा परिशिष्ठ-१........{475} Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० . पावती द्रव्य अनन्त प्रमाण असंख्याते प्रत्येक १०८ प्रत्येक १०८ प्रत्येक सौ | १६२ करोड़ हजार करोड़ करोड़ ११ : १६२ १०८ १२ द्वार खपती द्रव्य अनन्त | असंख्याते प्रत्येक सौ प्रमाण क्षेत्र प्रमाण सर्वलोक त्रसनाड़ी आधो और अढाई तिरा लोक द्वीप क्षेत्र स्पर्शना सर्वलोक | छठी लोक का छठी नर्क | अघोबीज अघोबीज नकसे असंख्यातवां | १२ वा १२ वा अनत्तरवी ग्रीवेक भाग स्वर्ग स्वर्ग कात प्रमाण ३ प्रकार ६ आंवली | अनन्तर । ज. अन्त ज. अंत.. | (स्थिति) की ७ समय मूर्त ६ सागर | ऊणा करोड़ लोक का सम्पूर्ण लोक का असंख्यातनं लोक असंख्यातवां भाग भाग अन्तर ऊणा मुहूर्त करोड़ पूर्व | अक्षर पांच लघु ज. समय उत्कृष्ट अन्तर काल प्राप्त मरे नहीं मरे मरे - नहीं मरे | १७ भाव प्रमाण असंख्य द्वार स्थान निरन्तर गुण प्रत्येक द्वार असंख्यातवें भाव अवलिया संयम असंध्यातवें मार्गणा M | IN २० ur | परस्पर मार्गणा मोक्ष परिशिष्ठ-१........{476} Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational २२ १ अवरोह | १ उवरोह |" परस्पर उप|५ मार्गणा अरोह |१उवरोह १अवरोह उवरोह चडाचड गति अन्तरकाल अंतर मु. ६६ सा. पल्याका असंख्यात IMA Aal २३ । २४ mmH" भाग अंतरमुहूर्त ६ महीने अंतर मास ६ . Eoo ६०० x | २. ९००० २ नियमा | ३ नियमा भजन | भजन ६०० too ४ नियमा ३ नियमा ५ निपमा ६ नियमा |७ नियमा ८ नियमा | १०नियमा |७ भजना | भजना |६ भजन | भजन | ४ भजन J३ भजन ४ भजन अर्द्धपुद्गल २५ विरहकाल एक समय द्वार अंतरमुहूर्त २६ । एकमव में| १ प्रत्येक स्पर्शना ९०० हजार बहुत भव में | २ - स्पर्शना असंख्यात असंख्यात परस्पर नियमा ३ नियमा | ३ नियमा स्पर्शना १० भजना | भजन | भजन २६ पढमा पढम | २ द्वार शाश्वता | शाश्वत अशाश्वत शाश्वत परभव गमन | साथ जावे नहीं जावें द्वार भव संख्या अनन्त द्वार ३३ अल्प बहुत्व १२ अनन्तगुणे | असंख्याते | असंख्याते ३० शाश्वत अशाश्वत शाश्वत अशाश्वत साथ जावें नहीं जावें : ७-८ 1१० | ५ संख्याते ३ | ४ संख्यात गुणा असंख्याते | असंख्याते | संख्याते यह | ३ आपस | ३ संख्यात १ सबसे | २ कम संख्यात तीनों ११ अनन्त गुणा में तुल्य ३४ |क्रिया द्वार २४ 12 २० २० परिशिष्ठ-१........{477} Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Interational १२ १२ | मूल बंध हेतु | ५ द्वार मिथ्यात्व हेतु ५ द्वार ३७ । अविरति हेतु | १२ द्वार कवाय हेतु २५ द्वार योग हेतु १३ द्वार समुच्चय हेतु ५५ 104 v ००० vw ५० २४ | ૨૨ १० चार बंध ४ - . द्वार ur | ० ४४ समुच्चय कर्म बंध ज्ञानावरणीय बंध द्वार दर्शनावरणी बंध द्वार वेदनीय बंध २ द्वार मोहनीय बंध | २६ २ - I ४६ ६ द्वार आयुबंध ४ द्वार I४०३६ ३२३ o ४९ ५० नाम बंध ६४ द्वार गोत्रबंध द्वार |२ अन्तराय ५ बंध द्वार old परिशिष्ठ-१........{478} Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational ५१ अy ५२ ४६ | २६१८ ० ० ५३ ३६ ० ° ५६ ० ० ५८ घुवकर्म बंध | ५ द्वार घुव कर्म ४७ प्रकृति बंध | अधुव कर्म | बंध द्वार | अध्रुव कर्म |७० प्रकृति बंध सर्वधाती कर्म बंध सर्वधाती कर्म प्रकृति बंध देशघातिक कर्मबंध देशघातिक । २५ कर्म प्रकृति बंध द्वार अघाती कर्म|४ बंध द्वार अघाती कर्म ७२ प्रकृति बंध । पुण्य कर्म ४ बंघ द्वार । पुण्य कर्म | ३६ प्रकृति बंध पाप कर्म | बंध द्वार पाप कर्म २ प्रकृति बंध द्वार २४ २३ २३ २१ ० ] ५६ m ६० ५८३६४२ ३६ ३६ ३२ m Im ] ६२ MI ३२-३ MI ० ६४ ४४ AMI ३० ३०-२३ | १६-१५ | १४ । ० परिशिष्ठ-१........{479} Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational ६ परावर्तमान कर्म बंध द्वार ७४ ४७ ४६ ३६ ३ ५ २६ २७ . 0 . ला परावर्तमान ६ कर्म प्रकृति बंध ६७ अपरावर्तमान ५ कर्म बंध |६८ | अपरावर्तमान | २८ कर्म प्रकृति बंध द्वार ६६ भूयस्कार कर्म बंध भूयस्कार |७ । २८ २८ । २८ २८२८४ ७० कर्म प्रकृति बंध अल्पतर कर्म | भूयस्कार बंध के स्थान कहे है कर्म पढ़ने से | अल्पतर प्रकृति |बंध के स्थान अल्पतर कर्म जो ऊपर प्रकृति बंध होते उनको उलटे द्वार ७३ जो |बंध अल्पतर | बंध के प्रथम समय | बंधा वह बंध | जितने काल तक रहे | उसे अवस्थित | बंध । कहना भूयस्कार भूयस्कार ७४ के स्थान या अल्पतर २८ स्थान | बध किये बाद फिर वह बंध रहे वह अवस्थित | कर्म । प्रकृति अवस्थित कर्म बंध | अवस्थित कर्म प्रकृति बंध द्वार | अव्यक्त कर्म |बंध | जितने काल ० ७५ ००० बंध ६ १०१ EU ५९ २६ १५ समुच्चय |११७ कर्म प्रकृति परिशिष्ठ-१........{480} Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ J० ७८ | १४६ ६१ ० १०३ १०६ | ११६ ११६ ११६ ० कर्म बंध व्युच्छेद कर्म प्रकृति ३ बंध व्युच्छेद ७६ समुच्चय कोदय द्वार | ज्ञानावरणी उदय द्वार दर्शनावरणी उदय द्वार २ | वेदनीय कोदय द्वार मोहनीय कर्मोदय द्वार 13 ० ० २५ १९ ११ ८४ ३६ |३६३६ |३७ ३७ ८६ ७ कर्मोदय द्वार नाम कर्मोदय | ६४ द्वार गोत्र कर्मोदय २ द्वार अन्तराय कोदय ध्रुव कमोदय द्वार ध्रुव कम | २७ प्रकृति उदय आधुव कर्मोदय अघुव कर्म| ६० प्रकृति द्वार 130 130 - o २६ २६ २६ २६२६ २६ २६ | १२ to Iur Puro ३२ | ३० २६ १२ परिशिष्ठ-१........{481} Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ६३ ६४ ६५ ૬૬ ६७ ६८ १०० १०१ १०२ दुष्प कर्मोदय द्वार पुण्य कर्म | ३६ प्रवृत्तियोदय ६६ भव १०३ द्वार पाप कर्मोदय द्वार पाप प्रकृतियोदय द्वार क्षेत्र विपाक १ कर्मोदय द्वार क्षेत्र विपाक ४ कर्म प्रकृति भव विपाक १ कम्मर्योदय ४ कर्म ८२ विपाक ४ वर्ग प्रकृति जीव विपाकी ७ कर्मोदय जीव विपाकी ७५ कर्म प्रकृति उदय पुद्गल विपाकी कर्मादय पुद्गल विपाकी कर्म प्रकृतियोदय द्वार १ ३४ ४ ३८ て ७७ १ ३ १ ४ ७ ७२ ३२ ४ ३६ ६७ 0 १ ४ ७ ६४ १ ३२ ४ ३८ ८ ६६ १ ४ 9 ४ ७ ६४ ३२ ४ ३२ ८ ५८ ० १ २ ७ ५५ १ ३० ४ ३२ ८ ५२ 0 १ 9 ७ ५० १ २६ ४ ३० て ४६ 0 ० १ 9 ७ ४७ १ २६ ४ ३० ८ ४६ ० ० १ १ ७ ४६ १ २६ TRT-9........{482} ४ ३० ए ४० ० ० १ १ ७ ४० १ २६ ४ ३० ३४ О 0 १ १ ७ ३४ 9 २६ ४. ३० ए ३३ 0 १ १. ३३ १ २६ ४ ३० ७ २६ ० ० १ १ ६ ४१ २४ ४ ३१ ४ १५ ० Co 0 १ १ ४ १७ १ २४ ४ १२ ४ १ 0 १ १ ४ ११ १ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational ३ १०४ सर्वघाती कर्मोदय द्वार १०५ | सर्वघातिक २० 19 سه प्रकृतियोदय द्वार १०६ | देशघाती ४ कर्मोदय द्वार १०७ | देशपाती कर्म | २५ प्रकृतियोदय २६ २५२५२५२५ १६ १३१२ ४४ ४ ४७ दा ४४ का .४४ १०८ अघाती कर्मोदय द्वार १०६ | अघाती कर्म ७३ ५१७६ प्रकृतियोदय द्वार ११० समुच्चय ११७ ११७११११००१०४७ ७६ - ७२ ६६ ० ९ ७ ४२ १२ ५ ११ ४१ |४६५० ५६६२ ६ ६५ ० ११० प्रकृतियोदय द्वार १११ । समुच्चय कमोदय युच्छेद द्वार ११२ कर्म प्रकृति उदय ब्युच्छेद द्वार ११३ समुच्चय कर्म उदीरणा द्वार o | . ५-२ ११४ ज्ञानावरण उदीरणा द्वार परिशिष्ठ-१.......{483} Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational ६ ११५ | दर्शनावरणी कर्म उदीरणा IN ० ० ० ४२ ३७ । | ११६ | वेदनीय कर्म उदीरणा द्वार ११७ | मोहनीय कर्म उदीरणा द्वार ११८ आयुकर्म ४ उदीरणा द्वार ११६ नामकर्म . उदीरणा द्वार १२० उदीरणा द्वार १२१ अन्तराय उदीरणा द्वार १२२ समुच्चय |११७ कर्म प्रकृति उदीरणा द्वार १२३ | कर्मोदय उदीरणा व्युच्छेद द्वार १२४ कर्म प्रकृति |५ उदीरणा . युच्छेद द्वार १२५ | समुच्चय कम सत्ता १११ १०० १०४ ७३ ६३ | ६३ ५७ ५७५६५२ ३८० २ ११२२ १८ - ३५ ४१ ४६५३५६६५६६७०३ १२६ जानावरणी कर्मसत्ताधार १२७ दर्शनावरणीय म सत्ता द्वार परिशिष्ठ-१........{484} Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational १२८ | वेदनीय कर्म २ सत्ता द्वार १२६ मोहनीय कर्म २८ सत्ता द्वार । . २८ । २९-२१ २८ २-२१ | २८-२१ २९-२१ २८ ० २१-१३ १२-११ ५४-३२ ४-२-१ ६३ ६३ ६३६३६३६३६३ ५ ७७ ७७ १३० आयुकर्म ४ सत्ता द्वार १३१ | नाम कर्म | ६३ सत्ता द्वार | १३२ गोत्र कर्म २ सत्ता द्वार | १३३ अन्तराय ५ कर्म सत्ता द्वार १३४ |घुव कर्म |७ सत्ता द्वार १३५ ध्रुव कर्म | १२६ प्रकृति सत्ता द्वार | १३६ अध्रुव कर्म | ४ सत्ता द्वार | १३७ अध्रुव कर्म | २२ प्रकृति सत्ता द्वार १३८ । सर्वधाती कर्म सत्ता द्वार १६२ १२६ |१२६ । १२६ १२६ | १२६ |१२६ |१२६ ६३ १२६ ६२ ७५ | २२ २२२२२२ २२ | २२ २२ ३ 10 ती १३६ २० २० २०२० | २० २०२० ।२० १४ । सर्वघाती कर्म प्रकृति सत्ता द्वार परिशिष्ठ-१........{485} Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ १४० | देशघाती कर्म ४ सत्ता द्वार १४१ | देशपाती कर्म २७ प्रकृति सत्ता २७ २७ २७ . २७ २७ १२ | ] १०० १०० १०१ ४ १०१ ९४ 28 19 १४७ | १४७ १४२ | अघाती कर्म | ४ सत्ता द्वार १४३ अघाती कर्म | १०१ प्रकृति सत्ता द्वार १४४ समुच्चय |१४८ कर्म प्रकृति सत्ता द्वार १४५ कर्म व्युच्छति द्वार कर्म प्रकृति व्युच्छति द्वार | १४८१४८ ०८ १४८ १४२ १४६ ७-१० मा 16-१० ७-१० -१० ७-१० क्षायिक ९-१० ७-१० | क्षायिक १० । | क्षायिक क्षायिक १२६ | IA o ४७ | समुच्चय २ कर्म भंग द्वार १४८ जानावरणीय भंग द्वार १४६ | दर्शनावरणीय २ अंगद्वार १५० वेदनीय भंगद्वार १५१ मोहनीय चिौ , ६भां | चौ,४मां |ची,२भा भंगद्वार १५२ | आयु २६ मंगद्वार २ INo चौ,२मां | चौ,२मां चिौ ,१मां चौ,१मां | चौ,१मा | १६ भां 0 0 परिशिष्ठ-१........{486} Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational 5 ० ६६०५ ४६६७ ० ४०६७ 30 - 0 १ ० १५३ । नाम भंगद्वार | १३६२६ 1१११३ |२१२ १५४ गोत्र भंगद्वार | ५ १५५ । अन्तराय भंगद्वार १५६ । तंधी के भींगे | १० १५७ | इयावही -३ भंगद्वार १५. मूल भावद्वार ३ . | 9 10 M. 100 m ० | २ r or | २ . १५६ ओदयिक पावद्वार १६० उपशमिक भावद्वार १६१ क्षयोपशमिक | ११ भावद्वार | १६२ यायिक भावद्वार १६३ | परिणामिक भावद्वार १६४ | सन्निपातिक भावद्वार १६५ | समुच्चय, भावभेदद्वार १६६ / श्रेणीद्वार १६७ | कर्मभेदद्वार १६८ कर्म निर्जरा द्वार १६६ दशकरण |१० द्वार २ 10 ३ |३५ २७ |२७ २० ०/v8 ov 19 । olyv 90 vive परिशिष्ठ-१........{487} Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | गुणश्रेणीद्वार सकाम निर्जरा नही तीसरे से चौथे से पांचवे से छठे से | सातवे से आठवें से नवे से दसवें से ग्यारहवें । बारहवे से | तेरहवें से संख्यात | असंख्यात | असंख्यात | असंख्यात असंख्यात | असंख्यात | असंख्यात | असंख्यात | से | असंख्यात असंख्यात गुणा | गुणा गुणागुणा गुणा गुणा गुणा गुणा असंख्यात | गुणा गुणा KIwcc Joor . १७१ | आगतिद्वार |४ १७२ | पागतिद्वार १७३ | जागतिद्वार ४ १७४ आजातिद्वार | -१७५ | पाजाति द्वार १७६ जाजाति द्वार ५ १७७ | जाय द्वार ६ १७८ पाकाया द्वार ६ आकाया | Iol०० | | १७६ 10oY १८० आदण्डक २४ २२ . | ૨૨ १६ १६ १६ १६ १६ द्वार २४ ५ १८१ पादण्डक द्वार १६२ | जादण्डक २४ द्वार १५३ । सामान्य १४ । । जीवभेद द्वार १८४ । विशेष १७० । ३६७ १८ | २३५ १५ १५१५ जीवभेद द्वार १५५ जीवायोनी ८४ लक्ष । ३२ लक्ष २६ लक्ष २६ लक्ष | १८ लक्ष | १४ लक्ष | १४ लक्ष | १४ लक्ष | १४ लक्ष | १४ लक्ष | १४ लक्ष | १४ लक्ष | १४ लक्ष द्वार १८६ | कुल कोडी १ करोड़ १ करोड़ | १ करोड ६ १२ लक्ष : द्वार ६७॥ लक्ष ४० लक्ष | १६।।। लक्ष लक्ष करोड़ करोड़ करोड़ करोड़करोड़ १६७ | सूक्ष्म बादर २ द्वार १४ लक्ष परिशिष्ठ-१........{488} Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ वसस्थावर १८९सन्नी-असन्नी १६० २ भाषक-अभा पकद्वार १६१ | आझरक अनाहरक | Im | १६२ - ओजादि आहार द्वार १६३ - सचित्तादि आहार द्वार १६४ | दिशीआझर | ३-६ द्वार १६५ | पर्याप्त अपर्याप्त द्वार १६६ | पर्याद्वार ur - अ ॐur 18] . |१० १० M و ابدا | २३ MH | १६७ प्राणद्वार ४ से १० ६ से १०० १६८ इन्द्रिय द्वार १से ५ २ से ५ ५ १६६ | इन्द्रिय विषय से २३ | १३ से |२३ द्वार २०० | संज्ञा द्वार २०१ | वेद द्वार २०२ कवाय द्वार ४ २०३ | लेश्या द्वार २०४ योग द्वार | २०५ शरीर द्वार ४ »| 0 | سه awajuol MRI . |० 10.००. ०० »mww | | | | ०००/o1om | || | سه | परिशिष्ठ-१........{489} Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ २०६ २०७ २०८ सघयण द्वार संस्थान द्वार ६ मरण द्वार २ २०६ विग्रह गति २ * * २१० २११ २१२ २१३ २१४ २१५ २१६ २१७ २१८ २२१ द्वार स्वर्ण मर्यादा २१ द्वार षटस्थानहानि २ वृद्धि द्वार मूल उपयोग २ द्वार अज्ञानद्वार ज्ञानद्वार दर्शनद्वार समुच्चय उपयोग द्वार दृष्टि द्वार भव्याभव्य द्वार २१६ चरमाचरम २ द्वार २२० परितापरित २२२ द्वार फीद्वार आत्माद्वार (भगवती ३ ० की आत्माओ के आधार पर) ३ ६ १ २ २ १५ ६ २ २ १२ २ २ m Ww w 0 १ १ १ १ ६ ६ ६ ०० ० २ २ mom w १ १ 9 १ ६ ६ ६ २ २ १२ २ २ ० ३ ३ ६ १ 9 १ १ ६ ७ ६ ६ २ २ १२ २ २ 0 ३. ३ ६ १. १ १ و २ ६ ६ २ २ २६ २ २ ० ४ ३ ७ 9 १ १ १ ३ ང ६ ६ २ २ २६ २ २ ० ४ ३ ७ १ १ १ 9 ३ て १ ६ २ २ २६ २ २ ० ४ ३ ७ १ १ परिशिष्ठ- १........(490} १ १ ३ १ ६ २ २ २६ २ ० ४ ३ ७ 9 १ १ १ ३ ८ १ ६ १ २ ५ १ ० ४ ३ ७ १ १ १ १ ३ ८ 9 ६ १ २ ५ २ ० ४ ३ ७ 9 9 १ १ २ ७ १ ६ ० ० 0 ० ४ ३. ७ १ १ 9 9 ३ १ ६ ० ० ० २ ० १ १ २ १. १ १. १ ४. ७ १ ६ 9 १ मोक्ष = २ ० १ १ २ 9 १ १ १ ४ ६ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational २ २२३ | ध्यानद्वार २२४ | ध्यानकेपाये _ द्वार | ur| | ३ . | . २२५ । पदव्य द्वार | २२६ परिणाम द्वार|३ २२७ वीर्यद्वार १ १ १ २२९ तीर्थ-अतीर्थ अतीर्थ 19 अतीर्थ | अतीर्थ । द्वार . २२६ | सम्यक्त्व | . १ तीर्थअतीर्थ . " द्वार . २३० संयतासंयती द्वार २३१ | लिंगद्वार WAN ३ |mro |DAN - ००० mom| | |o २३२ चरित्र द्वार २३३ | निग्रंथ प्रकार द्वार २३४ | कल्प द्वार N०० ० | mero mom अ ००० m | ० o ] | 0 ५ सरागी |० २३५ | परिसह द्वार २३६ | प्रमाद द्वार २३७ सरागी वीतरागी द्वार " ॥ , उपशम वीतरागी २३८ । प्रतिपाति- अप्रतिपाति अप्रतिपाति | प्रतिपाती । दोनों प्रतिपाती अप्रति पाती द्वार छास्थ केवली केवली २३६ ध्यस्थ केवली परिशिष्ठ-१........{491} Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jain Education Intemational " " |३१ २६ २६ |१८ १८ २४० | समुद्घात द्वार २४१ । देवदार २४२ | परिणामी द्वार २४३ |करण द्वार |५० २४४ | निवृत्ति द्वार ७४ २४५ आश्रवद्वार ४१ २४६ | संवर द्वार 10 २४७ / निर्जरा द्वार | अकाम २४८ | निर्जरा भेद 12 ७४ ४० ० 50... " सकाम ० द्वार २४६ | करणी फल | सफल . उजिन स्पर्श करें | २५० तीर्थकर ग्रेजोपार्जन २५१ | तीर्थकरस्पर्शना द्वार २५२ | मुक्ति द्वार | के कारण (ज्ञान, २ की २ की सत्ता २ दर्शन ब्रान ४ ४ सत्ता दर्शन, चारित्र, और तप) बिन्दी है सो नास्तिका चिह्न है, और ऐसे कामा का चिह्न है, वह पुनरावृत्ति का चिह्न है। परिशिष्ठ-१........14 921 Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचयिता : प्रकाशन :मुद्रक : अभिधानराजेन्द्रकोष भाग - 3-4 अभिधान चिंतामणि लेखक :व्याख्याकारः परिशिष्ट - 2 अवलोकित ग्रन्थसूची वाचनाप्रमुख :संपादक : प्रकाशन : मुद्रक : wwwÿÿÿÿÿÿÿÿÿÿÿÿÿÿÿÿÿÿ श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी म. अभिधान राजेन्द्रकोष प्रकाशन संस्था, अहमदाबाद पं. मफतलाल झवेरचंद गांधी, नयन प्रि. प्रेस का २-६१, गांधी रोड़, ढींकवावड़ी, अहमदाबाद-9 द्वितीय संस्करण :- वीर. सं. २५१३ राजेन्द्र संवत् - ७८ ई. सन् १६८६ चौखम्बा विद्याभवन वाराणसी-१, बनारस स्टेट बैंक भवन के पीछे पो.बा.नं. १०६७ वाराणसी- २२१००१ संवत् - १६६६ द्वितीयावृत्ति, अन्ययोगव्यवछेद द्वात्रिंशिका मुद्रक - फूल प्रिंटर्स, वाराणसी हेमचन्द्राचार्य, संस्कृत टीका :- मल्लिषेणसूरि लेखक :गुजराती भाषान्तर :- सा. सुलोचनाश्रीजी प्रकाशक :प्रथमावृत्ति :मुद्रक : अनुयोगद्वारसूत्र अनुत्तरोपपातिकदशा वाचनाप्रमुख :संपादक : प्रकाशन :मुद्रक : अन्तकृत्दशांगसूत्र वाचना प्रमुख :संपादक : प्रकाशन : मुद्रक : कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य, (सटिप्पण मणिप्रभा हिन्दी व्याख्या) पं. श्री हरगोविंद शास्त्री श्री नवरंगपुरा जैन श्वेताम्बर मूर्ति पू. संघ, श्रीमाली सोसायटी, जैन देरासर पासे, अहमदाबाद - ६ वि.सं. २०२४ द्वितीयावृत्ति :- वि.सं. २०३७ नयन प्रिन्टिंग प्रेस, गाँधी रोड़, फर्नान्डीज पुल नीचे, अहमदाबाद - १ आचार्य तुलसी युवाचार्य महाप्रज्ञ जैन विश्वभारती लाडनूं (राज.) श्री वर्धमान प्रेस, नवीन शाहदरा दिल्ली- ११०००३२ द्वितीय संस्करण वि.स. २०५७ वीर वि.स. २५२७ सन् मार्च २००० आचार्य तुलसी मुनि नथमलजी जैन विश्व भारती लाडनूं (राज.) वि.स. २०३१ एस. नारायण एण्ड सन्स (७११७), १८, पहाड़ी धीरज, दिल्ली-६ आचार्य तुलसी मुनि नथमलजी जैन विश्व भारती लाडनूं (राज.) वि.स. २०३१ एस नारायण एण्ड सन्स (७११७), १८, पहाड़ी धीरज, दिल्ली-६ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... परिशिष्ठ-२........{494} आप्तमीमांसा तत्व दीपिका : समन्तभद्र रचित सम्पादक :- प्रो. उदयचन्द्र जैन प्रकाशक :- श्री गणेशवर्णी दि. जैन संस्थान, नरिया, वाराणसी मुद्रण : वर्द्धमान जवाहर नगर कालोनी, दुर्गाकण्ड, वाराणसी-१ आप्त-परीक्षा : विद्यानन्द विरचित टीका हिन्दी अनुवाद :- डॉ. पं. दरबारीलाल जैन प्रकाशक :- भारत वर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद् जवाहर नगर, वाराणसी मुद्रण : वर्द्धमान मुद्रणालय, वाराणसी संस्करण :- द्वितीय वी.नि. २५१८, ई. सन् १९६२ आत्मानुशासनम् : गुणभद्र विरचित सम्पादक :- पं. बालचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री प्रकाशक :- जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर मुद्रक : कुमुदचन्द्र फूलचन्द्र शाह, मेसर्स सन्मति मुद्रणालय, १६६, शुक्रवार पेठ, सोलापुर - ४१३००२ अष्टक प्रकरण : हरिभद्रसूरिजी अनुवादक :- डॉ. अशोक कुमार सिंह सम्पादक:- डॉ. सागरमल जैन प्रकाशन :- पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी - ५, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर (राजस्थान) मुदक: वर्द्धमान मुद्रणालय, भेलूपुर, वाराणसी संस्करण :- प्रथम संस्करण, २००० अष्टप्राभृत कुन्दकुन्दाचार्य - परमश्रुत प्रभावक मंडल, श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास मुद्रक : जयंतिलाल दलाल, बंसत प्रिंटिंग प्रेस, घी कांटा रोड़ घेलामाई की बाड़ी, अहमदाबाद आचारांगसूत्र वाचना प्रमुख :- आचार्य तुलसी संपादक:- मुनि नथमलजी प्रकाशन :- जैन विश्व भारती लाडनूं (राज.) प्रकाशन तिथि :- वि.स. २०३१, कार्तिक कृष्णा-१३ मुद्रक : एस. नारायण एण्ड सन्स (७११७), १८, पहाड़ी धीरज, दिल्ली-६ आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएं एवं पूर्णता लेखक :- आचार्य जयंतसेनसूरीश्वरजी प्रकाशन :- राज राजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्ट, रतनपोल, हाथीखाना, अहमदाबाद (गुजरात) मुद्रक : श्री एस. कम्प्यूटर सेन्टर, जालोरी गेट के अन्दर, जोधपुर वीर.नि.सं. - २५२५ वि.स. - २०५४ राजेन्द्रसूरि सं.-६१ ई. सन् - १६६८ प्रथमावृत्ति आचारांग टीका लेखक :- दीपरत्नसागरजी सम्पादक :- आगमश्रुत प्रकाशन दिनांक :- १४/४/२००० रविवार २०५६ चैत्र सुदी - ११ आवश्यकसूत्र वाचना प्रमुख :- आचार्य तुलसी संपादक :- युवाचार्य महाप्रज्ञ प्रकाशन :- जैन विश्व भारती लाडनूं (राज.) मुद्रक : श्री वर्धमान प्रेस, नवीन शाहदरा, दिल्ली - ११०००३२ द्वितीय संस्करण वि.सं. २०५७, वी.नि.सं. २५२७, सन् मार्च २००० Jain Education Intemational Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... परिशिष्ठ-२........{495} आगमदीपदशपयन गुजराती छाया :- मुनि दीपरत्नसागरजी प्रकाशन :- आगमदीप प्रकाशन मुद्रक : नवप्रभात प्रिंटिंग प्रेस, घी कांटा रोड़, अहमदाबाद ई. सन् ३१-०३-६७, वि.स. २०५३ फागण वदी ७ आगमशब्दकोश संपादक :- युवाचार्य महाप्रज्ञ, आचार्य तुलसी प्रकाशक :- जैन विश्व भारती लाडनूं (राज.) मुद्रक : अजन्ता प्रिंट्री - दिल्ली-३२ तिथि : वि.स. २०३७ ज्येष्ठ द्वितीय-१० सन् १ जून १६८० उत्तराध्ययनसूत्र वाचना प्रमुख :- आचार्य तुलसी संपादक:- युवाचार्य महाप्रज्ञ प्रकाशन :- जैन विश्व भारती लाडनूं (राज.) मुद्रक : श्री वर्धमान प्रेस, नवीन शाहदरा, दिल्ली- ११०००३२ द्वितीय संस्करण वि.सं. २०५७ वी.नि.सं. २५२७ सन् मार्च २००० उपासकदशांग वाचना प्रमुख :- आचार्य तुलसी संपादक:- मुनि नथमलजी प्रकाशन :- जैन विश्व भारती लाडनूं (राज.) मुद्रक :- एस नारायण एण्ड सन्स (७११७) १८, पहाड़ी धीरज, दिल्ली-६ औपपातिकसूत्र सम्पादक:- मिश्रीमलजी म. अनुवादक :- डॉ. छगनलाल शास्त्री प्रकाशक :- श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान) मुद्रक : सतीशचन्द्र शुक्ल, वैदिक यंत्रालय, केसरगंज, अजमेर-३०५००१ द्वितीय संस्करण : वीर.सं. २५१८, ई. सन् १९६२ कर्मग्रन्थ भाग 1 से 4 लेखक: देवेन्द्रसूरिजी विवेचक:- धीरजलाल डायालाल मेहता प्रकाशक:- जैनधर्म प्रसारण ट्रस्ट, सूरत, ११/४४३ मातृछाया बिल्डिंग, चौथेमाले, रामजीनी पोल, नाणावट, सूरत-३६५००१ प्रकाशन वर्ष :- वी.नि.सं.२५२१ एवं २५२५, वि.सं.२०५१ एवं २०५५, ई.सन् १६६५ एवं १६६६ प्रथमावृत्ति मुद्रक : भरत प्रिन्टरी, न्यू मार्केट पांजरापोल, रीलीफ रोड़, अहमदाबाद कर्मग्रन्थ भाग : 5 लेखक :- देवेन्द्रसूरिजी प्रकाशक :- यशोविजय जैन संस्कृत पाठशाला, जैन श्रेयस्कर मंडल महेसाणा आवृत्ति - ४ वीर.सं. २५०४ वि.सं. २०३४ मुद्रक : मणिलाल छगनलाल शाह, घी नवप्रभात प्रिंटिंग प्रेस, घी कांटा रोड़, अहमदाबाद कर्मग्रन्थ भाग:6 लेखक :- चंद्रमहत्तराचार्य संपादक :- रसिकलाल शांतिलाल मेहता प्रकाशक:- एच. भोगीलाल एण्ड कम्पनी, दुकान नं. - के.७/- नवमी गली, मंगलदास मार्केट, मुम्बई - ४००००२ Jain Education Intemational Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.... परिशिष्ठ-२........{496} शतक नामक पंचम कर्मग्रन्थ लेखक :- देवेन्द्र सूरिजी विशेषार्थ :- पं. चंदुलाल ज्ञानचंद प्रकाशन :- श्री मुक्तिकमल जैन मोहन ज्ञान मंदिर, रावपुरा कोड़ीपोल महाजन गली, बड़ोदरा मुद्रक : कहान मुद्रणालय, जैन विद्यार्थी गृह, सोनगढ़-३६४२५० वीर.सं. २५२० वि.स. २०५४ चौथी आवृत्ति कषायपाहुडसूत्र लेखक:- गणधराचार्य प्रणीत हिन्दी अनुवादक, सम्पादक :- पं. हीरालाल जैन शास्त्री प्रकाशन :- वीरशासन संघ, कलकत्ता मुद्रक : ओमप्रकाश कपूर, जनाना मण्डल यंत्रालय, बनारस-४६१५११ वि.स. २०१२ द्वि. भाद्रपद, श्री वि.नि.सं. २४६१ सन् ६-१६५५ कार्तिकेयानुप्रेक्षा लेखक:- कार्तिकेय हिन्दी अनुवादक :- पं. महेन्द्र कुमार पाटनी प्रकाशक:- श्री ब्र. दुलीचंद जैन ग्रन्थमाला, मदनगंज किशनगढ़ (राजस्थान) द्वारा श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट, सोनगढ़ (सौराष्ट्र) मुद्रक : नेमिचंद बाकलीवाल, कमल प्रिन्टर्स, मदनगंज (राजस्थान) प्रथमावृत्ति : वीर.सं. २४७७, द्वितीयावृत्ति : वीर.नि.सं. २५०० कर्मप्रकृति लेखक : शिवशर्मसूरि गुजराती अनुवादक : मुनि वल्लभविजय प्रकाशक : माणेकलाल चुनीलाल नागजी भूधरजी नी पोल, अहमदाबाद ई.सन् १६३८ (प्रस्तुत विवेचन में गाथा संख्या इस संस्करण के आधार पर दी गई है।) कर्मविज्ञान भाग -5 लेखक : आचार्य देवेन्द्रमुनि प्रकाशक:- श्री तारकगुरु जैन ग्रन्थालय उदयपुर, शास्त्री सर्कल (राजस्थान) वि.स. २०५० मुद्रण : श्री संजय सुराना द्वारा कामधेनु प्रिन्टर्स एण्ड पब्लिशर्स, ए-७, अवागढ़ हाऊस, एमजी रोड, आगरा, मोहन मुद्रणालर कल्पसूत्र वाचना प्रमुख :- आचार्य तुलसी संपादक :- युवाचार्य महाप्रज्ञ प्रकाशन :- जैन विश्व भारती लाडनूं (राज.) मुद्रक : श्री वर्धमान प्रेस, नवीन शाहदरा, दिल्ली - ११०००३२ द्वितीय संस्करण वि.सं. २०५७ वी.नि.सं. २५२७ सन् मार्च २००० कल्पवतंसिकासूत्र वाचना प्रमुख :- आचार्य तुलसी संपादक : आचार्य महाप्रज्ञ प्रकाशन :- जैन विश्व भारती लाडनूं (राज.), वि.स. २०४५ कार्तिक कृष्णा-१३, सन् १६८६ मुद्रक :- एस. नारायण एण्ड सन्स (७११७), १८, पहाड़ी धीरज, दिल्ली-६ गुणस्थानरोहणअढीसत्तद्वारी लेखक : अमोलक ऋषिजी प्रकाशन :- श्री शारदा प्रेस अफलगंज चमन, दक्षिण हैदराबाद प्रथमावृत्ति : वी.सं. २४४१ वि.सं. १६७१ ई.सन् १६१५ Jain Education Intemational Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ गुणस्थानक्रमारोह लेखक : रत्नशेखरसूरि गुणस्थान सिद्धान्त एक विश्लेषण लेखक : प्रकाशक :मुद्रक : गुणस्थान: स्वरूप और विश्लेषण लेखक : संपादक : प्रकाशक : संस्करण : मुद्रक :गोम्मटसार भाग प्रकाशक : चन्द्रप्रभा मकौमुदी लेखक :प्रकाशन :मुद्रण : चंद्रप्रज्ञप्ति लेखक : सम्पादन : अनुवादक : प्रकाशन :मुद्रक :गोम्मटसार भाग - द्वितीय संस्करण वी.सं. २५२२ वि.सं. २०५३ सन् १६६७ शेष पूर्ववत् गोम्मटसार कर्मकाण्ड भाग - 1-2 वाचना प्रमुख :संपादक : प्रकाशन :प्रकाशन तिथि : मुद्रक : जंबुद्वीपप्रज्ञप्ति डॉ. सागरमल जैन पार्श्वनाथ विद्यापीठ वाराणसी ५ ( प्रथम संस्करण १६६६ ) - वर्धमान मुद्रणालय, भेलूपुर वाराणसी ई. सन् १९६० ई.सन् २००० तृतीय संस्करण शेष पूर्ववत् चौदहगुणस्थानवचनिका लेखक : वाचना प्रमुख :संपादक : प्रकाशन :प्रकाशन तिथि : मुद्रक : आचार्य श्री नानेश डॉ सुरेश सिसोदिया श्री अखिल भारतवर्षीय साधुमार्गी जैन संघ, समता भवन, बीकानेर (राजस्थान) - प्रथम सन् १६६८ चौधरी ऑफसेट प्रा. लि. उदयपुर 1 जीवकाण्ड आचार्य नेमिचंद्र रचिता डॉ आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये पं. कैलाशजी शास्त्री भारतीय ज्ञानपीठ, १८, इंडस्ट्रीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड़, नई दिल्ली ११०००३ नागरी प्रिंटर्स, नवीन शाहदरा दिल्ली ११०००३ 2 जीवकाण्ड तृतीय संस्करण सन् २००० अखेराज शाह, स्वानुभूति प्रकाश दिसम्बर २००२ श्री सतश्रुत प्रभावना ट्रस्ट, भावनगर - ३६४००१ पृ. १७ मेघविजयगणी निर्णयसागर यंत्रालय, रामचंद्र सेडग पर महेसाणा श्री जैन श्रेयस्कर संस्कृत पाठशाला महेसाणा वीर.नि.सं. २४५८, वि.सं. १६८४, खिस्तावदा १६२८ आचार्य तुलसी आचार्य महाप्रज्ञा जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) वि.स. २०४५ कार्तिक कृष्णा १३ सन् १६८६ एस. नारायण एण्ड सन्स (७११७) १८, पहाड़ी धीरज, दिल्ली-६ आचार्य तुलसी आचार्य महाप्रज्ञ जैन विश्व भारती लाडनू (राजस्थान) वि.स. २०४५ कार्तिक कृष्णा १३ सन् १९८६ एस. नारायण एण्ड सन्स ( ७११७), १८, पहाड़ी धीरज, दिल्ली-६ परिशिष्ठ- २........[497} Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.. परिशिष्ठ-२........{498) जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रन्थ सम्पादक :- सुरेन्द्र लोढा प्रकाशक :- श्रीमद् जयन्तसेनसूरि अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशन समिति, अ. भा. श्री राजेन्द्र जैन नवयुवक परिषद मुद्रण : डपुजी आर्ट प्रिन्टर्स, थाणे (महाराष्ट्र) प्रथमावृत्ति :- वीर सं. २५१७, वि.सं. २०४८, ई.सन् १६६१ राजेन्द्र संवत् - ८५ जीवसमास लेखक :- अज्ञात पूर्वधर, अनुवादिका :- सा. विद्युत्प्रभाश्री संपादन :- डॉ. सागरमल जैन, प्रकाशक :-पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी-५ मुद्रक : वर्धमान मुद्रणालय भेलूपुर वाराणसी-५ प्रथम संस्करण- १६६८ जिनरत्नकोष जैन ग्रन्थों और लेखकों की वर्णानुक्रम पंजी, हरि दामोदर वेलंकर एम.ए. द्वारा भाण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स्टीट्युट, पूना जीवाभिगम सूत्र भाग-1-2 सम्पादन :- श्री राजेन्द्रसूरि प्रकाशन : श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान) मुद्रक : सतीशचन्द्र शुक्ल, वैदिक यंत्रालय केशरगंज, अजमेर - ३०५००१ प्रथम संस्करण : वीर.नि.सं. २५१७, वि.सं. २०४८ ई.सन् १९६१ प्रकाशन तिथि: प्रथम खण्ड वी.नि.सं. २५१५ वि.सं. २०४६, ई.सन् १९८६ जैनआगमसाहित्य एक अनशीलन लेखक : आचार्य जयंतसेनसूरि प्रकाशन : राज-राजेन्द्र प्रकाशन ट्रस्ट श्री राजेन्द्रसूरि जैन ज्ञान मंदिर, रतनपोल, हाथीखाना, श्री राजेन्द्रसूरि चौक, अहमदाबाद अवतरण: वीर.सं. २५२०/वि.स. २०५१ श्री राजेन्द्रसूरि सं. ८८ मुद्रक : रोहित ऑफसेट, उज्जैन, म.प्र. संयोजन :- आई.एम. ग्राफिक्स, इन्दौर, म.प्र. जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय लेखक :- डॉ सागरमल जैन प्रकाशन :- पार्श्वनाथ विद्यापीठ, आई.टी.आई. रोड़, करौंदी, पो.बी.एस.यू. वाराणसी-२२१००५ मुद्रक :- वर्धमान मुद्रणालय वाराणसी-१० प्रथम संस्करण : ईसन् १९६६ जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भाग-1-2 लेखक :- डॉ. सागरमल जैन प्रकाशक :- राजस्थान प्राकृत भारती संस्थान जयुपर (राजस्थान) प्रकाशन वर्ष :- सन् १९८२ वीर.नि.सं. २५०६ मुद्रक :- बाबूलाल जैन फागुल्ल, महावीर प्रेस, भेलूपुर वाराणसी-५ जैनेन्द्रसिद्धान्तकोष भाग-2 लेखक :- क्षु. जिनेन्द्रवर्णी सम्पादक :- डॉ. हीरालाल जैन अनुवादक:- डॉ. आ. ने. उपाध्ये प्रकाशन :- भारतीय ज्ञानपीठ, ३६२०/२१ नेताजी सुभाष मार्ग दिल्ली मुद्रक : सन्मति मुद्रणालय, दुर्गाकुण्ड मार्ग, वाराणसी-५ प्रथम संस्करण - सन् १६७१ Jain Education Intemational Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ जैनसंस्कृतसाहित्यनो इतिहास भाग-2 लेखक : हीरालाल रसिकलाल कापड़िया प्रकाशक : पन्नालाल लालचंद नंदलाल शाह श्री मुक्ति कमल जैन मोहनमाला, मंछासदन, कोठीपोस, रायपुरा, बड़ोदरा बसंतलाल रामलाल शाह प्रगति मुद्रणालय, खपाटिया चकला, सूरत तथा जशवंतसिंह गुलाबसिंह ठाकोर सूरतसिटी प्रिंटिंग प्रेस, मोटा मंदिर सामे, सूरत- १ वि.सं. २०२५ वीर.नि.सं. २४६५ सन् १६६८ मुद्रक : जैनसाहित्यका बृहद इतिहास भाग-4 लेखक : सम्पादक : प्रकाशक :प्रकाशन वर्ष : लेखिका : प्रकाशक मुद्रक :जैनदर्शन में जीवतत्व मुद्रण : प्रथम संस्करण : तत्त्वार्थाधिगमसूत्र लेखक : प्रकाशक : डॉ. मोहनलाल मेहता, प्रो. हीरालाल र. कापड़िया पं. दलसुख मालवणिया टीकाकार : प्रकाशन : संपादक :पंचम संस्करण: पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान वाराणसी-१ द्वितीय संस्करण सन् १९६१ वर्धमान मुद्रणालय, जवाहर नगर कॉलोनी, वाराणसी- १० तत्त्वार्थाधिगमसूत्र भाग - 2 लेखक : प्रकाशक : टीकाकार : प्रकाशन : संपादक : संस्करण: मुद्रक : जैन सा. डॉ. ज्ञानप्रभा श्री रत्नजैन पुस्तकालय श्री तिलोकरत्न धार्मिक परीक्षा बोर्ड, आ. आनन्दऋषिजी मार्ग, बुरूड़ गांव रोड़, पो. अहमदनगर- ४१४००१ हिन्दी प्रचार प्रेस ऑफसेट डिवीजन, श्री रत्न जैन ग्रन्थालय, अहमदनगर हेलु वि.स. २०५१] मार्गशीर्ष ई.सन् १६६४ दिसम्बर तत्त्वार्थसूत्र राजवार्तिक टीका भाग- 1-2 भट्ट अकंलकदेव उमास्वाति महाराज वकील चिमनलाल अमृतलाल, श्रीमद् यशोविजयजी जैन संस्कृत पाठशाला, श्री जैन श्रेयस्कर मंडल महेसाणा सन् १९७६ संवत् २०३६ द्वितीया वृत्ति उमास्वाति, प्रभुदास बेचरदास पारेख कृत सूत्रार्थ अने सारबोधिनी सहित श्री जैन श्रेयस्कर मंडल महेसाणा तत्त्वार्थसूत्र श्लोकवार्तिक लेखक : संपादक :अनुवादक : भारतीय ज्ञानपीठ दिल्ली प्रो. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य सन् १६६६ तत्त्वार्थसूत्र सर्वार्थसिद्धि टीका श्रीमद् विद्यानंद स्वामी पं. मनोहरलाल न्यायशास्त्री निर्णय सागराव्य मुद्रण यंत्रालय, भ्रा. शुक्ला ७ वी.नि.सं. २४४४ वि. स. १६७५ सन् १६१८ परिशिष्ठ- २........(499} श्री मदाचार्य पूज्यपाद विरचिता भारतीय ज्ञानपीठ १६, इन्स्ट्रीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नयी दिल्ली- ११०००३ पं. फूलचंद्र शास्त्री सातवाँ सन् १६६७ विकास ऑफसेट, नवीन शाहदरा दिल्ली- ११००३२ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.. परिशिष्ठ-२........{500) तत्त्वार्थसूत्र टीका : हरिभद्रसूरिजी टीकाकार :- हरिभद्रसूरिजी प्रकाशन :- श्रेष्ठि ऋषभदेवजी केशरीमलजी, जैन श्वेताम्बर संस्था, रतलाम (मध्यप्रदेश) मुद्रक :- सोहनलाल मगनलाल बदामी, जैनानंद प्रिंटिंग प्रेस, दरियामहल सूरत (गुजरात) वीर.सं. २४६२, वि.सं. १६६२, ई.सन् १६३६ प्रथम संस्करण तत्त्वार्थसूत्र टीका : सिद्धसेनसूरिजी भाग - 1-2 टीकाकार :- सिद्धसेनसूरिजी, संशोधक :- रसिकदास हीरालाल प्रथम संस्करण :- वि.सं. १९८२ वीर.नि.सं. २४५२ मुद्रण : एम.एन. कुलकर्णी कर्नाटक प्रिंटिंग प्रेस, ३१८/ए ठाकुरवार, बम्बई प्रकाशन :- जीवनचंद साकरचंद जवेरी, ट्रस्टी सेठ देवचंद लालबाई जैन पुस्तकोद्धार फंड, ११४/११६ जवेरी बाजार, बम्बई दशवैकालिकसूत्र वाचना प्रमुख :- आचार्य तुलसी संपादक :- युवाचार्य महाप्रज्ञ प्रकाशन :- जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) मुद्रक : श्री वर्धमान प्रेस, नवीन शाहदरा, दिल्ली-११०००३२ द्वितीय संस्करण : वि.स. २०५७ वीर.नि.सं. २५२७ सन् मार्च २००० दसाओ वाचना प्रमुख :- आचार्य तुलसी संपादक :- युवाचार्य महाप्रज्ञ प्रकाशन :- जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) मुद्रक : श्री वर्धमान प्रेस, नवीन शाहदरा, दिल्ली-११०००३२ द्वितीय संस्करण : वि.स. २०५७ वीर.नि.सं. २५२७ सन् मार्च २००० दर्शन और चिंतन : खण्ड भाग-1-2 लेखक :- पं. सुखलालजी प्रकाशक:- पं. सुखलालजी सन्मान समिति, गुजरात विद्यासभा भद्र, अहमदाबाद-१ मुद्रक : प्रथम काण्ड : श्री परेशनाथ घोष सरला प्रेस, गदेलिया, बनारस, श्री राजेन्द्र गुप्त श्री शंकर मुद्रणालय, बनारस नंदीसूत्र वाचना प्रमुख :- आचार्य तुलसी संपादक :- युवाचार्य महाप्रज्ञ प्रकाशन :- जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) मुद्रक : श्री वर्धमान प्रेस, नवीन शाहदरा, दिल्ली-११०००३२ द्वितीय संस्करण : वि.स २०५७ वीर.नि.सं. २५२७ सन् मार्च २००० नंदीसूत्र देववाचक विरचित अनुवादक :- जैन साध्वी उमराव कुंवरजी 'अर्चना' सम्पादन :- कमलाबेन 'जीजी' प्रकाशन :- श्री आगम प्रकाशन समिति ब्यावर (राजस्थान) मुद्रक : सतीशचंद्र शुक्ल, वैदिक यंत्रालय, केसरगंज, अजमेर द्वितीय संस्करण :- वी.नि.सं. २५१७ वि.सं. २०४८ सन् अगस्त १६६१ नंदीसूत्र टीका : हरिभद्र सूरी सम्पादक :- मुनि पुण्य विजय प्रकाशन :- प्राकृत ग्रन्थ परिषद्, वाराणसी-५ दलसुख भाई मालवणिया, सेक्रेटरी, प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी मुद्रक : जयंतिलाल दलाल, बंसत प्रिंटिंग प्रेस, घी कांटा, घेलाभाईजी वाड़ी, अहमदाबाद-१ वी.नि.सं. २४१३ वि.सं. २०२३ सन् १९६६ Jain Education Intemational Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... परिशिष्ठ-२........{501} नियमसार वाचना प्रमुख :- आचार्य कुन्दकुन्द हिंदी अनुवाद :- पं. परमेष्ठीदास गुजराती अनुवाद :- पं. हिम्मतलाल जेठालाल प्रस्तावना :- डॉ. हुकमचंद भारिल्ल | प्रकाशन :- साहित्य प्रकाशन एवं प्रचार विभाग, श्री कुन्दकुन्द कहान दिगम्बर जैन तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट, ए-४ बापूनगर, जयपुर मुद्रक :- प्रिन्स ऑफसेट प्रिंटर्स, १५१०, पटौदी हाऊस दरियागंज, दिल्ली-११०००६ पंचमावृत्ति - १ मार्च १९८४ निरियावलिकासूत्र वाचना प्रमुख :- आचार्य तुलसी, सम्पादक :- आचार्य महाप्रज्ञ प्रकाशन :- जैन विश्व भारती लाडनूं (राज.) प्रकाशन तिथि :- वि.सं. २०४५ कार्तिक कृष्णा १३ सन् १९८६ मुद्रक : एस. नारायण एण्ड सन्स (७११७), १८, पहाड़ी धीरज, दिल्ली-६ नियुक्तिसंग्रह लेखक :- भद्रबाहु विरचित संपादक :- विजय जिनेन्द्रसूरि प्रकाशिका :- श्री हर्ष पुष्पामृत जैन ग्रन्थमाला, लाखाबावल शांतिपुरी (सौराष्ट्र) वी.सं. २५१५ वि.सं. २०४५ ई. १६८६ प्रथमावृत्ति निसिथाध्ययनसूत्र वाचना प्रमुख :- आचार्य तुलसी संपादक :- युवाचार्य महाप्रज्ञ प्रकाशन : जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) मुद्रक : श्री वर्धमान प्रेस, नवीन शाहदरा, दिल्ली-११०००३२ द्वितीय संस्करण : वि. सं. २०५७, वीर.नि.सं. २५२७ सन् मार्च २००० निरतिशयनानेश सम्पादक :- इन्दरचन्द बैद प्रकाशन : समता शिक्षा सेवा संस्थान, देशनोक ३३४८०१, (बीकानेर) वर्ष २००१ मुद्रक : सांखला प्रिन्टर्स, सुगन निवास, चन्दरसागर, बीकानेर ३३४००१ प्रश्नव्याकरण वाचनाप्रमुख :- आचार्य तुलसी, संपादक :-मुनि नथमलजी प्रकाशन : जैन विश्व भारती लाडनूं (राज.) प्रकाशन तिथि :- वि.सं. २०१३ मुद्रक : एस. नारायण एण्ड सन्स (७११७), १८, पहाड़ी धीरज, दिल्ली-६ प्रशमरति प्रकरण लेखक: उमास्वातिजी म. विवेचक:- मोतीलाल गिरधरलाल कापड़िया प्रकाशन :- श्री महावीर जैन विद्यालय, ओगस्ट क्रान्ति मार्ग, मुम्बई - ४०००३६ मुद्रक : ठाकोर भाई गोविन्द भाई शाह, शारदा मुद्रणालय, पानकोर नाला, गाँधी मार्ग, अहमदाबाद - ३८०००१ वि.सं. - २०४२ प्रज्ञापनासूत्र वाचना प्रमुख :- आचार्य तुलसी, सम्पादक :-आचार्य महाप्रज्ञ प्रकाशन :- जैन विश्व भारती लाडनूं (राज.) प्रकाशन विधि :- वि.सं. २०४५ कार्तिक कृष्णा १३ सन् १९८६ मुद्रक :- एस. नारायण एण्ड सन्स (७११७), १८, पहाड़ी धीरज, दिल्ली-६ Jain Education Intemational Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... परिशिष्ठ-२........{502} पुष्पिकासूत्र वाचना प्रमुख :- आचार्य तुलसी, सम्पादक :- आचार्य महाप्रज्ञ प्रकाशन :- जैन विश्व भारती लाडनूं (राज.) प्रकाशन तिथि :- वि.सं. २०४५ कार्तिक कृष्णा १३ सन् १९८६ मुद्रक : एस. नारायण एण्ड सन्स (७११७), १८, पहाड़ी धीरज, दिल्ली-६ पुष्पचूलिका वाचना प्रमुख :- आचार्य तुलसी, सम्पादक :-आचार्य महाप्रज्ञ प्रकाशन :- जैन विश्व भारती लाडनूं (राज.) प्रकाशन तिथि :- वि.सं. २०४६ कार्तिक कृष्णा १३ सन् १९८६ मुद्रक : एस. नारायण एण्ड सन्स (७११७), १८, पहाड़ी धीरज, दिल्ली-६ प्राकृतव्याकरण लेखक : श्री हेमचंद्राचार्य संपादक :- मुनि वज्रसेन विजय प्रकाशिका :- श्री जैन आत्मानंद सभा. खारगेट भावनगर मुद्रक : गौतम आर्ट प्रिन्टर्स ब्यावर (राजस्थान), वि.सं. २०३७ परमात्मप्रकाश (योगसार) संस्कृतवृत्ति : ब्रह्मदेव हिन्दी भाषा टीका :- दौलतराम प्रकाशक:- श्री परमश्रुत प्रभावक मंडल, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, आगास, व्हाया आणंद, पोस्ट बोरिया-३८८१३० (गुजरात) श्री वीर निर्वाण संवत् २५२६, षष्ठम संस्करण, विक्रम संवत् २०५६ मुद्रक :- बसंत प्रिंटिंग प्रेस, अहमदाबाद प्रवचनसारोद्धार भाग-1 लेखक :- आ. नेमिचंद्रसूरीजी गुजराती अनुवाद :- अमितयश विजयजी संपादक:- पन्यास श्री वज्रसेन वि. टीकाकार :- विजय सिद्धसेनसूरिजी प्रकाशक :- श्रीमति जयाबेन देवसी पोपट मान्दुं , ज्ञानमंदिर,४६/१ महालक्ष्मी सोसायटी, सुजातापासे, शाहीबाग अहमदाबाद-४ वि.सं. २०४६ नूतनवर्ष वि.सं. २५१६ सन् २६-१०-१६६२ मुद्रक :- कांतिलाल डी. शाह भरत प्रिन्टरी, न्यू मार्केट, पांजरा पोल, रिलीफ रोड़, अहमदाबाद-१ भाग-2 वि.सं. २०४६ द्वि.भा.सु.५, वि.नि.सं. २५१६ सन् १६-६-१९६३ रविवार प्रकाशन :- भद्रंकर प्रकाशन, ज्ञान मंदिर शेष पूर्ववत् पंचवस्तु लेखक :- हरिभद्रसूरि प्रकाशिका :- ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम (मध्यप्रदेश) मुद्रक : शाह फकीरचंद मगनलाल बदामी, घी, जैन विजयानंद 'प्री' प्रेस, कणपीठ बाजार, सूरत वी.सं. २४६३, वि.सं. १६६३, ई.सन् १६३७ पंचाशक प्रकरण लेखक :- हरिभद्रसूरीजी अनुवादक :- डॉ. दीनानाथ शर्मा, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी-५, आई.टी.आई. रोड़, करौंदी मुद्रक :- वर्धमान मुद्रणालय, भेलूपुर, वाराणसी-१० संपादक :- प्रो. सागरमलजी जैन प्रथम संस्करण: सन् १९६७ Jain Education Intemational For Private & Personal use only Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..... परिशिष्ठ-२........{503} पंचसूत्रम् लेखक :- हरिभद्रसूरीजी संपादक :- जंबुविजयजी, धर्मचन्द्र विजयजी प्रकाशन :- भोगीलाल लहेरचंद, भारतीय संस्कृति संस्थानम्, गव्यनिंग कौंसिल, २/८८, रूपनगर, दिल्ली-११०००७ मुद्रक : अनिल स्टेशनर्स एण्ड प्रिन्टर्स, ३०० फागदी बाजार, धोबीनो खांचो, अहमदाबाद-३८०००१ वी.नि.सं. २५१२, वि.स. २०४२, सन् १९८६ प्रवचनसार लेखक :प्रकाशक :- श्री परमश्रुत प्रभावक मंडल, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास, वाया आणंद पो. बोरीया-३८८१३० (गुजरात) मुद्रक : वर्धमान मुद्रणालय, जवाहर नगर कॉलोनी, वाराणसी-२२१००१ चतुर्थ आवृत्ति : सन् १९८४, वि.सं. २०४०, वीर.नि.सं.२५१० पंचास्तिकाय लेखक :- कुन्दकुन्दाचार्य प्रकाशक:- साहित्य प्रकाशन एवं प्रचार विभाग, श्री कुन्दकुन्द कहान दिगम्बर जैन तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट, ए-४ बापूनगर जयपुर-३०२०१५ मुद्रक : अग्रवाल प्रिन्टर्स, डिप्टीगंज, सदर बाजार, दिल्ली पंचम संस्करण : २ अक्टूबर १६६० पइण्णयसुत्ताई सम्पादक :- भो लाल आत्मज : अमृतलाल, श्री महावीर जैन विद्यालय बम्बई-४०००३६ प्रथम संस्करण - वी.सं. २५१०, वि.सं.२०४०, ई.सन् १९८४ प्रकाशन :- मानद् मंत्री, श्री महावीर जैन विद्यालय, ऑगस्ट क्रान्ति मार्ग, बम्बई मुद्रक : प्र.पु. भागवत मौज प्रिंन्टिग ब्यूरो, खटावबाड़ी, मुम्बई-४००००४ पंचसंग्रह भाग-1 लेखक: चंद्रमहत्तराचार्य टीका : श्री मलयगिरिजी अनुवादक: पं. हीरालाल देवचंद वढ़वाणवाला प्रकाशक: श्री यशोविजयजी जैन संस्कृत पाठशाला, जैन श्रेयस्कर मंडल महेसाणा (उत्तर गुजरात) मुद्रक : भानुचंद्र नानचंद्र मेहता, श्री बहादुर प्रिंन्टिग प्रेस, पालीतणा वी.नि.सं. २४६७, वि.सं. २०२७, सन् १६७१ पंचसंग्रह कम्मयडी भाग-2 संपादक : पं. पुखराजजी अमीचंद कोठारी मुद्रक : ज्योत्सना ठक्कर, शिल्पा प्रिन्टर्स, मामुनायक की पोल, वचलु चोकछु, कालुपूर अहमदाबाद-१ वी.नि.सं. २५०१ वि.सं. २०३१, सन् १६७५ ई. सन् १६-२-१६७५, शेष पूर्ववत् (कम्मपयडि) पंचसंग्रह का तृतीय खण्ड लेखक :- चंद्रमहत्तराचार्य टीका : मलयगिरिजी अनुवादक :- पं. हीरालाल देवचंद वढ़वाणवाला प्रकाशक :- श्री यशोविजयजी जैन श्रेयस्कर मंडल, महेसाणा (उत्तर गुजरात) मुद्रक : कांतिलाल डायालाल पटेल, मंगल मुद्रालय रतनपोल अहमदाबाद वीर.नि.सं. २५१० वि.सं. २०४० ई.सन् १९८४ पंचसंग्रह संस्कृत लेखक : अमितगति प्रकाशन :- श्री माणिकचन्द दिगम्बर जैन ग्रन्थमाला समिति वी.नि.सं. २४५२ अक्टू. १६२७ हीराबाग पो. गिरगांव मुंबई Jain Education Intemational Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... परिशिष्ठ-२........{504} पंचसंग्रह संस्कृतटीका, प्राकृतवृत्ति, हिन्दीभाषानुवाद सहित सम्पादक :- पं. हीरालाल जैन, सिद्धान्त शास्त्री, डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी प्रकाशक:- मन्त्री भारतीय ज्ञानपीठ, दुर्गाकुण्ड रोड़, वाराणसी मुद्रक : बाबूलाल जैन फागुल्ल, सन्मति मुद्रणालय, दुर्गाकुण्ड रोड़, वाराणसी स्थापनावाद: फागुन कृष्ण-६ वीर.नि.सं. २४७०, वि.सं. २००० १८ फरवरी सन् १९४७ भगवतीसूत्र वाचना प्रमुख :- आचार्य तुलसी सम्पादक :- मुनि नथमलजी प्रकाशन :- जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) प्रकाशन तिथि :- वि.सं. २०३१ कार्तिक कृष्णा-१३ मुद्रक :- एस. नारायण एण्ड सन्स (७११७), १८, पहाड़ी धीरज, दिल्ली-६ भगवतीटीका लेखक : दीपरत्नसागरजी सम्पादक :- आगमश्रुत प्रकाशन दिनांक:- १४/४/२००० रविवार २०५६ चैत्र सुदी ११ भगवती आराधना लेखक : शिवार्य विरचित हिन्दी टीका : अपराजितसूरि सम्पादक: पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री अनुवादक: पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री प्रकाशक: श्री हीरालाल खुशालचंद दोशी, फलटण (बाकरीकर), वीर.सं. २५१६, ई. सन् १६६० मूलाचार, पूर्वार्ध आचारवृत्ति सहित आचार्य वट्टकेर विरचित टीकानुवादक : ज्ञानमतिजी सि.च. वसुनन्दि आचार वृत्तिकार प्रकाशन: भारतीय ज्ञानपीठ, ३६२०/२१ नेताजी सुभाष मार्ग, दिल्ली मुद्रक : सन्मति मुद्रणालय, दुर्गाकुण्ड मार्ग, वाराणसी-५ तृतीय संस्करण : सन् १९६६ मूलाचारउत्तरार्ध लेखक : आ. वट्टकेर विरचित आचारवृत्तिकार : वसुनन्दि टीकानुवादक : ज्ञानमतिजी सम्पादक: पं. कैलाशचन्द्रजी जगमोहनलाल, पन्नालाल जैन प्रकाशन : पूर्ववत् मुद्रक : पूर्ववत् चतुर्थ संस्करण सन् १६६६ योगशास्त्र लेखक: श्री हेमचन्द्राचार्य प्रणीत प्रकाशन : श्री निर्ग्रन्थ साहित्य प्रकाशन संघ, दिल्ली-६ सन् १९७५ योगशास्त्र लेखक :- हेमचन्द्राचार्यजी भाषान्तर :- केशरसूरिजी प्रकाशक :- श्री मुक्तिचन्द्र श्रमण आराधना ट्रस्ट, गिरि विहार तलेटी रोड़, पालीतणा मुद्रक : कानजी भाई बी. डोडीया, भगवती प्रिन्टिंग प्रेस, पालीतणा संवत् २०३३, पो सुदी-१५, ई.सन् १६७७ आवृत्ति : छटी लेखक: Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा... परिशिष्ठ-२........{505} योगदृष्टि समुच्चय लेखक: श्री हरिभद्र सूरि प्रकाशन : जैन ग्रन्थ प्रकाशक संस्था, अमदाबाद (सन् १६४०) योगविंशिका लेखक :- हरभद्रसूरि विरचित संस्कृत टीका :- उपा. यशोविजयगणी सम्पादक :- पं. अभयशेखरविजयगणी प्रकाशक :- दिव्यदर्शन ट्रस्ट, ३६, कलिकुण्ड सोसायटी, धोलका - ३८७८१० प्रथमावृत्ति :- वि.सं. २०३६, द्वितीयावृत्ति:- वि.सं. २०५५ योगशतक :- हरभद्रसूरि रचित, स्वोपराटीकासह :- मुनिचन्द्रसूरि (शेष पूर्ववत्) राजेन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ प्रकाशक :- श्री सौधर्मबृहत्तपागच्छीय जैन श्वेताम्बर संघ, आहोर (राजस्थान) मुद्रक :- गुलाबचन्द्र ललुभाई, महोदय प्रिन्टिंग प्रेस, भावनगर वि.सं. २०१३, वी.सं. २४८२, ई.सन् १६५७ संयोजक :- यतिन्द्रसूरिजी, शक सं. १८७८ राजेन्द्र सं. ५० राजप्रश्नीय सम्पादक: श्री रतनमुनिजी मुद्रक: सतीश चन्द्र शुक्ल, वैदिक यंत्रालय, केसरगंज, अजमेर - ३०५००१ प्रकाशक : श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान) द्वितीय संस्करण : वीर.नि.सं. २५१७, वि.सं. २०४८, ई.सन् १९६१ लोकप्रकाश भाग-1 द्रव्यलोक लेखक :- विनयविजयगणि विरचित भाषान्तरकर्ता :- श्रीयुत् मोतीचन्द औधवजी शाह, भावनगर सम्पादक :- पू. वज्रसेनविजयजी प्रकाशक:- कोठारी भेरूलाल कन्हैयालाल रीलीजीयस ट्रस्ट, मुम्बई -६ तेजस प्रिन्टर्स, ७, ध्वनि अपार्टमेन्ट, खानपुर, बहाई सेन्टर, अहमदाबाद व्यवहारसूत्र वाचना प्रमुखः आचार्य तुलसी सम्पादक: युवाचार्य महाप्रज्ञ प्रकाशन: जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) मुद्रक: श्री वर्धमान द्वितीय संस्करण : वि.सं. २०५७ वीर.नि.सं. २५२७ सन् मार्च २००० व्यवहारभाष्य सम्पादक: आचार्य महाप्रज्ञ, समणी कुसुमप्रमा प्रकाशक: जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) मुद्रक : पवन ऑफसेट प्रिंटर्स, नवीन शाहदरा, दिल्ली-११०००३२ प्रथम संस्करण : वि.सं. २०५३, ई.सन् १९६६ वृष्णिदसासूत्र वाचना प्रमुख आचार्य तुलसी, सम्पादक : आचार्य महाप्रज्ञ प्रकाशन: जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) प्रकाशन तिथि: वि.सं. २०४५ कार्तिक कृष्णा-१३ सन् १९८६ मुद्रक : एस. नारायण एण्ड सन्स (७११७), १८, पहाड़ी धीरज, दिल्ली-६ मुद्रक : Jain Education Intemational Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... परिशिष्ठ-२........{506} विपाकसूत्र वाचना प्रमुखः आचार्य तुलसी सम्पादक: मुनि नथमलजी प्रकाशन :- जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) वि.सं. २०३१ मुद्रक : एस. नारायण एण्ड सन्स (७११७), १८, पहाड़ी धीरज, दिल्ली-६ विपाकसूत्र वाचना प्रमुख : आचार्य तुलसी सम्पादक : मुनि नथमलजी प्रकाशन :- जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान), वि.सं. २०३१ मुद्रक :- एस. नारायण एण्ड सन्स (७११७), १८, पहाड़ी धीरज, दिल्ली-६ विशेषावश्यकभाष्य लेखक: जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण भाग-१ सम्पादक : पं. दलसुख मसलवणिया भाग-२ पं. बेचरदास जी दोशी प्रकाशक : लालभाई दलपतभाई, भारतीय संस्कृति विद्या मंदिर, अहमदाबाद-६, सन् १९८८ मुद्रण: तुषार पटेल, अर्थ कम्प्यूटर, ६५, देवमंदिर सोसायटी, चंदलोदिया, अहमदाबाद-३८२४८१ प्रथम संस्करण : नवम्बर १६६६, द्वितीय संस्करण: दिसम्बर १९३३ विशेषावश्यकभाष्य भाग-1-2 जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण वृत्तिकार: श्री हेमचन्द्राचार्य भाषान्तर: चुनीलाल हुकमचंद अहमदाबाद सम्पादक: प.पू. वज्रसेन विजयजी गणिवर्य प्रकाशक: भद्रंकर प्रकाशन, ४६/१, महालक्ष्मी सोसायटी, शाहीबाग, अहमदाबाद-४ प्रथमावृत्ति वि.सं. २०५३ द्वितीयवृत्ति वि.सं.२०३६, प्रथमावृत्ति वि.सं. १६८० प्रथम संस्करण १९८३ द्वितीय संस्करण २०४० तृतीय संस्करण २०५३ मुद्रक: कान्तिलाल डी. शाह भाग-१ न्यू मार्केट, पांजरोपोल, रीलिफ रोड़, अहमदाबाद भाग-२ भरत प्रिन्टरी पूर्ववत् मुद्रक विंशतिविंशिका लेखक :- हरिभद्रसूरि सम्पादक:- धर्मरक्षित वि. प्रकाशक :- लावण्य जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ, अहमदाबाद (गुजरात) मुद्रक : जीतुशाह अरिहंत, ६८७/१ छीपापोल, कालुपुर - अहमदाबाद (गुजरात) षट्खण्डागम लेखक: पुष्पदंत भूतबली प्रणीत सम्पादनः पं. सुमतिबाई शहा संचालिका: राजुलमति सोलापुर प्रकाशन : आ. शांतिसागर, दि. जैन जिनवाणी संस्था, श्री श्रुतभंडार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण षट्खण्डागम में गुणस्थान विवेचन (आध्यात्मिक विकासक्रम) लेखक : डॉ. प्रमिला जैन प्रकाशक: श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महासभा, ऐशबाग, लखनऊ-४ मुद्रक : ताज प्रिन्टर्स, जोधपुर Jain Education Intemational Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... परिशिष्ठ-२........{507} षोडशकप्रकरण भाग -1-2 लेखक :- हरिभद्रसूरि टीका सम्पादक :- यशोविजयजी प्रकाशक:- अंधेरी गुजराती जैन संघ, १०६, एसवी रोड़, इर्ला ब्रीज, अंधेरी वेस्ट, मुम्बई-५६ . मुद्रक : श्री पार्श्व कम्प्यूटर्स, ३३, जनपथ सोसायटी, घोड़ासार, अहमदाबाद-५०, वि.सं. २०५२ समयसार लेखक : कुन्दकुन्दाचार्य प्रकाशक: श्री परमश्रुत प्रभावक मंडल, अगास, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, वाया-आणंद, पो बारीया-३८८१३० (गुजरात) मुद्रक: अग्रवाल प्रिन्टर्स, डिप्टीगंज, सदर बाजार दिल्ली तृतीय संस्करण : वीर.नि.सं. २५०८, वि.सं. २०३८ ई.सन् १९८२ समयावागसूत्र वाचना प्रमुख :- आचार्य तुलसी, सम्पादक :-मुनि नथमलजी प्रकाशन :- जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) प्रकाशन तिथि :- वि.सं. २०३१ कार्तिक कृष्णा-१३ मुद्रक :- एस. नारायण एण्ड सन्स (७११७), १८, पहाड़ी धीरज, दिल्ली-६ समयावांगसूत्र मूल लेखक: गणधर विरचित सम्पादक: श्री मिश्रीलालजी महाराज अनुवादक: पं. हीरालाल शास्त्री प्रकाशक: श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान) मुद्रक : __सतीश चन्द्र शुक्ल, वैदिक यंत्रालय, केसरगंज, अजमेर-३०५००१ द्वितीय संस्करण : वी.नि.सं. २५१७, वि.सं. २०४८ सन् १९६१ समयावांगसूत्रटीका लेखक: दीपरत्नसागरजी सम्पादक : आगमश्रुत प्रकाशन दिनांक : १४/४/२००० रविवार २०५६ चै.सु. ११ स्थानागसूत्र वाचना प्रमुख :- आचार्य तुलसी सम्पादक :- मुनि नथमलजी प्रकाशन :- जैन विश्व भारती लाडनूं (राजस्थान) प्रकाशन तिथि :- विसं २०३१ कार्तिक कृष्णा-१३ मुद्रक :- एस. नारायण एण्ड सन्स (७११७), १८, पहाड़ी धीरज, दिल्ली-६ सन्मतिप्रकरण लेखक :- पं. सुखलालजी, पं. बेचरदासजी जीवराज दोशी, ज्ञानोदय ट्रस्ट, अहमदाबाद प्रकाशक:- रतिलाल दीपचन्द देसाई मंत्री, ज्ञानोदय ट्रस्ट, अनेकान्तविहार (श्रेयर- जी के पास), अहमदाबाद - ४ मई १९६३, वैशाख वि.सं. २०१६ सिद्धान्तसार संग्रह लेखक : नरेन्द्रसेनाचार्य सम्पादक :- डॉ. आदिनाथ उपाध्याय, डॉ. हीरालाल प्रकाशक :- श्री गुलाबचन्द दोशी, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर श्री वर्द्धमान छापखाना, १३५, शुक्रवार पेठ, सोलापुर वी.नि.सं. २४८३, वि.सं. २०१३, ई.सन् १६५७ मुद्रक : Jain Education Intemational Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ सूत्रकृतांगसूत्र वाचना प्रमुख :सम्पादक : प्रकाशन :प्रकाशन तिथि : मुद्रक :सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र वाचना प्रमुख :सम्पादक : प्रकाशन :प्रकाशन तिथि : मुद्रक : ज्ञाताधर्मकथासूत्र वाचना प्रमुख :सम्पादक : : प्रकाशन :प्रकाशन तिथि : मुद्रक : ज्ञानार्णव लेखक: हिन्दी अनुवाद प्रकाशक : मुद्रक : प्रथमावृत्ति : लेखक : चूर्णि : प्रकाशिका मुद्रक : आचार्य तुलसी मुनि नथमलजी जैन विश्व भारती लाडनू (राजस्थान) वि.सं. २०३१ कार्तिक कृष्णा - १३ एस. नारायण एण्ड सन्स (७११७), १८ पहाड़ी धीरज, दिल्ली-६ आचार्य तुलसी वाचार्य जैन विश्व भारती लाडनूं ( राजस्थान) विसं २०४५ कार्तिक कृष्णा - १३ सन् १६८६ एस. नारायण एण्ड सन्स (७११७) १५८, पहाड़ी धीरज, दिल्ली-६ आचार्य तुलसी मुनि नथमलजी जैन विश्व भारती लाडनूं ( राजस्थान) वि.सं. २०३१ कार्तिक कृष्णा- १३ एस. नारायण एण्ड सन्स (७११७), १८, पहाड़ी धीरज, दिल्ली-६ शुभचन्द्राचार्य विरचित पन्नालाल, बाकलीवाल श्री परमश्रुत प्रभावक मंडल, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम अगास वर्द्धमान मुद्रणालय, जवाहर नगर कालोनी, वाराणसी-9 वि.सं. १६६३ वि.नि.सं. २५०७, ई. सन् १६८१ द्वितीयावृत्ति: वि.सं. १६८३ चतुर्थावृत्ति: वि.सं. २०३१ श्रमण विशेषांक (16 जनवरी - जून सयुंक्तांक 2002) डॉ. सागरमल जैन डॉ. शिवप्रसाद तृतीयावृत्ति: वि.सं २०१७ पंचमा वृत्ति: वि.सं. २०३७ प्रधान सम्पादक : सम्पादक : प्रकाशक : - पार्श्वनाथ विद्यापीठ, आई.टी.आई. मार्ग करौंदी, पो. ऑ. बी.एच.यू., वाराणसी- २२१००५ (उ.प्र.) श्रीमदावश्यक सूत्र (उत्तरभाग ) भद्रबाहु विरचित जिनदास गणि श्री ऋषभदेव केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था, रतलाम श्री जैन बन्धु जुहारमल मिश्रीमलजी पालरेचा इन्दौर वी.नि.सं. २४५५, वि.सं. १६८६ सन् १६२६ परिशिष्ठ- २........ 508 Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिचय साध्वीडॉ.दर्शनकलाश्री सांसारिक नाम : अलका दोशी पिताजी :चन्दुलालजी दोशी माताजी सविताबहन दोशी जन्मस्थल :थराद (गुजरात) जन्म :7-09-1966 श्रावण कृष्णा 8 दीक्षा : वि.सं. 2043 माघ शुक्ला 3 रविवार, 1-2-1987 दीक्षादाता :वर्तमाचार्य श्रीमद्विजय जयन्तसेन सूरीश्वरजी म.सा. गुरुणीजी : साध्वी शशिकलाश्रीजी म.सा. राष्ट्रीय सम्मानवर्तमान राष्ट्रपति अब्दुल कलाम आजाद द्वारा 20 अक्टूम्बर 05 को दिल्ली में डॉ. उपाधि से सम्मानित Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गु / - गुणानुरागी, गुणपाक्षिक और गुणग्राहकता आत्मोत्थान में सहायक होती है। / णमोक्कार महामंत्र जिनशासन का सार है और नमस्कार महामंत्र का आराधक अपने विकास में स्वावलम्बी बनता है। स्था - स्थान-स्थान पर जैनागमों ने अपने स्वयं को पहचानने की दृष्टि दी है, और सम्पूर्ण सृष्टि का दर्शन कराया है। / / अ - नम्रता धर्म का मूलमंत्र है और नम्र व्यक्ति को आत्म विकास में कोई अवरोध रोक नहीं सकता है। कीमत समझता है जो इस मानव जीवन की वो यथाशक्य श्रेष्ठ कार्य को करने में दक्ष रहता है। अनेकान्तवाद, अनुशासन एवं अहिंसा जिनवाणी के मूल सूत्र है। वस्तु अनेक धर्मात्मक है। अपेक्षा से वस्तु को पहचानने का प्रयास करना चाहिये। धारणा शक्ति जिसके पार, सुरक्षित है। वह व्यक्ति अनेकानेक दृष्टि को विकसित कर सकता है। रत्नत्रयी एवं तत्वत्रयी जीवन साधना की मूलभूत सम्पत्ति है। 'णाणस्स सारंजीव हिंसा किं च न' अर्थात् ज्ञान का सार अहिंसात्मक जीवन है। / धा - For Private & Personal use only