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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{135} .. वे निरन्तर हैं। एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेंतीस सागरोपम है । क्षायिकसम्यग्दृष्टिवाले चारों उपशमकों का जघन्य अन्तरकाल, जीवों की अपेक्षा एक समय तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेंतीस सागरोपम है । क्षायिकसम्यग्दृष्टिवाले चारों क्षपक और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से बताया गया है, वैसा ही है । सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल भी, जैसा सामान्य से कथन किया गया है, वैसा ही है । वेदकसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल सम्यग्दृष्टियों के समान है । वेदकसम्यग्दृष्टिवाले संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा नहीं है, वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा उनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम छासठ सागरोपम है । वेदकसम्यग्दृष्टिवाले प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा नहीं है, वे निरन्तर है । एक जीव की अपेक्षा उनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेंतीस सागरोपम है। उपशमसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का, सभी जीवों की अपेक्षा, जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल सात अहोरात्रि है । एक जीव की अपेक्षा उनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । उपशमसम्यग्दृष्टिवाले संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों का जघन्य अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल चौदह रात-दिन है । एक जीव की अपेक्षा उनका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त ही है । उपशमसम्यग्दृष्टिवाले प्रमत्त और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों में इन दोनों गुणस्थानों का जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पन्द्रह रात-दिन है । एक जीव की अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त ही है । उपशमसम्यग्दृष्टि उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवर्ती जीवों में इसका सभी जीवों की अपेक्षा जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । एक जीव की अपेक्षा अन्तर नहीं है, वे निरन्तर हैं । सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का जघन्य अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है । एक जीव की अपेक्षा उनका अन्तर नहीं है, वे निरन्तर है । मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में मिथ्यात्व का सभी जीवों की अपेक्षा और एक जीव की अपेक्षा उनका अन्तर नहीं है, वे निरन्तर है। संज्ञीमार्गणा में, संज्ञी जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है। संज्ञियों में सासादनसम्यग्दृष्टि से लेकर उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का अन्तरकाल पुरुषवेदियों के समान है । संज्ञी जीवों में चारों क्षपकों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से बताया गया है, वैसा ही है। असंज्ञी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में मिथ्यात्व गुणस्थान का अन्तरकाल सभी जीवों की अपेक्षा और एक जीव की अपेक्षा नहीं है, वे निरन्तर हैं । आहारमार्गणा में, आहारक जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का अन्तरकाल जैसा सामान्य से कथन किया गया है, वैसा ही है । आहारक सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इन दोनों गुणस्थान का अन्तरकाल, सभी जीवों की अपेक्षा जैसा सामान्य से कथन किया गया है, वैसा ही है । एक जीव की अपेक्षा उनका अन्तरकाल क्रमशः पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग और अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा उनका उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी है। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के गुणस्थानवर्ती आहारक जीवों का सभी जीवों की अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं । एक जीव की अपेक्षा इनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा असंयतादि चारों गुणस्थानों के आहारक जीवों का उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुल के संख्यातवें भाग परिमाण असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी है । आहारकों में चारों उपशमकों का अन्तरकाल, सभी जीवों की अपेक्षा जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है । एक जीव की अपेक्षा उनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी है। आहारक चारों क्षपकों का Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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