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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....
तृतीय अध्याय........{136) अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कहा गया है वैसा ही है । आहारक सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कहा गया है, वैसा ही है । अनाहारक जीवों का अन्तरकाल कार्मणकाययोगियों के समान है । विशेष यह है कि अनाहारक अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों का अन्तरकाल, जैसा सामान्य से कथन किया गया है, वैसा ही है ।
पुष्पदंत एवं भूतबली प्रणीत षट्खण्डागम में जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड में भावानुगम'८४ नामक सप्तम द्वार में बताया गया है कि भावानुगम की अपेक्षा निर्देश दो प्रकार से है-ओघनिर्देश और आगमनिर्देश।
सामान्यतया अर्थात् ओघनिर्देश से मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में औदयिक भाव होते हैं। अतत्वश्रद्धानरूप भाव चूंकि मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय के उदय से होता है, अतएव मिथ्यात्व गुणस्थान में औदयिक भाव होते हैं । सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में पारिणामिक भाव होते हैं । सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में क्षायोपशमिक भाव होते हैं । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव होते हैं, किन्तु असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में असंयतत्व पारिणामिक एवं औदयिक भाव होता है। संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीवों में क्षायोपशमिक भाव है । अपूर्वकरण आदि चारों उपशमकों में औपशमिक भाव है । चारों क्षपक, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में क्षायिक भाव है।
आदेश अर्थात् विशेष की अपेक्षा से गतिमार्गणा में नरकगति में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकियों में औदायिक भाव है । सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकियों में पारिणामिक भाव होते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकियों में क्षायोपशमिक भाव होते हैं। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकियों में औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव होते हैं, किन्तु नारकियों में जो असंयम भाव है, वह संयमघातक चारित्रमोहनीय के उदय से होता है, अतः उसे औदयिक भाव समझना चाहिए। इसी प्रकार प्रथम नरक के नारकियों में गुणस्थानों सम्बन्धी उपर्युक्त चारों भाव होते हैं। द्वितीय पृथ्वी से लेकर सातवीं पृथ्वी तक के नारकियों में मिथ्यादृष्टि, सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों के भाव, जैसा सामान्य से बताया गया है, वैसे ही है । द्वितीय से लेकर सातवीं पृथ्वी तक के नारकियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का सम्यक्त्व औपशमिक और क्षायोपशमिक भाव है, किन्तु असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती नारकी का असंयतत्व औदयिक भाव से है।
तिर्यंचगति में सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच और पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों के भाव, जैसे सामान्य से कहे गए हैं, वैसे ही हैं । विशेष यह है कि पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में औपशमिक और क्षायोपशमिक भाव होते हैं, किन्तु पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का असंयतत्व औदयिक भाव के कारण है।
मनुष्यगति में सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों के भाव, जैसे सामान्य से बताए गए हैं, वैसे ही हैं ।
देवगति में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती देवों के भाव जैसे सामान्य से बताए गए हैं, वैसे ही हैं । भवनवासी, वाणव्यन्तर और ज्योतिष देव एवं इनकी देवियाँ तथा सौधर्म और ईशान कल्पवासिनी देवियाँ-इनके मिथ्यादृष्टि, सास्वादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों के भाव, जैसे सामान्य से बताए गए हैं, वैसे ही हैं । उपर्युक्त देव और देवियों के असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान में औपशमिक और क्षायोपशमिक भाव होते हैं, किन्तु उपर्युक्त असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती देव और देवियों का असंयतत्व औदयिक भाव के कारण है । सौधर्म कल्प से लेकर नव ग्रैवेयक पर्यन्त विमानवासी देवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती
१८४ षट्खण्डागम, पृ. २१५ से २२७, प्रकाशनः श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण
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