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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{137} जीवों में भाव, जैसे सामान्य से बताए गए हैं, वैसे ही हैं । अनुदिशों से लेकर सर्वार्थसिद्ध तक विमानवासी देवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव होते हैं, किन्तु उपर्युक्त देवों का असंयतत्व औदयिक भाव के कारण है। इन्द्रियमार्गणा में त्रसकाय और त्रसकाय पर्याप्तों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों में भाव, जैसे सामान्य से कहे गए हैं, वैसे ही हैं । योगमार्गणा में पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी और औदारिक काययोगियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों के भाव, जैसा सामान्य रूप से बताए गए हैं, वैसे ही हैं। औदारिकमिश्रकाययोगियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में क्षायिक और क्षायोपशमिक भाव होते हैं, किन्तु औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में असंयतत्व औदयिक भाव के कारण है । औदारिकमिश्रकाययोगी सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों में क्षायिक भाव होते हैं। वैक्रिय काययोगियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों के भाव, जैसे सामान्य से बताए गए हैं, वैसे ही हैं । वैक्रियमिश्रकाययोगियों में मिथ्यादृष्टि, सास्वादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों के भाव, जैसे बताए गए हैं, वैसे ही हैं। आहारक काययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियों में प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों में क्षायोपशमिक भाव है। कार्मणकाययोगियों में मिथ्यादृष्टि, सास्वादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों के भाव जैसे सामान्य रूप से बताए गए हैं, वैसे ही हैं। वेदमार्गणा में स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले और नपुंसकवेदवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवी जीवों के भाव, जैसे सामान्य रूप से कथन किए गए हैं, वैसे ही हैं । अपगतवेदवालों में अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के अवेद भाग से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों के भाव जैसे सामान्य से दर्शित हैं, वैसे ही हैं। कषायमार्गणा में क्रोधकषाय, मानकषाय, मायाकषाय और लोभकषायवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान के उपशामक और क्षपक तक के जीवों के भाव जैसे सामान्य से कथित हैं, वैसे ही हैं । अकषायवाले जीवों में उपशान्तकषाय से लेकर अयोगीकेवली आदि चारों गुणस्थानवी जीवों के भाव, जैसे सामान्य से बताए गए हैं, वैसे ही हैं। ज्ञानमार्गणा में मति-अज्ञानवाले, श्रुत-अज्ञानवाले और विभंगज्ञानी जीवों में मिथ्यादृष्टि और सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों के भाव, जैसे सामान्य से कहे गए हैं, वैसे ही हैं । आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानियों में असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों के भाव, जैसे सामान्य से कहे गए हैं, वैसे ही हैं। मनःपर्यवज्ञानियों में प्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर क्षीण कषाय वीतरागछद्मस्थ तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों के भाव जैसे सामान्य से कथित हैं, वैसे ही हैं। केवलज्ञानियों में सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों के भाव भी, जैसे सामान्य से बताए गए हैं, वैसे ही हैं। संयममार्गणा में संयतों में प्रमत्तसंयत से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थानवी जीवों के भाव, जैसे सामान्य से बताए गए हैं, वैसे ही हैं। सामायिक और छेदोपस्थापनीय संयतों में प्रमत्तसंयत से लेकर अनिवृत्तिकरण तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों के भाव, जैसे सामान्य से बताये गए हैं, वैसे ही हैं । परिहारविशुद्धि संयतों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थावर्ती जीवों के भाव, जैसे सामान्य में बताए गए हैं, वैसे ही हैं । सूक्ष्मसंपराय संयतों में सूक्ष्मसंपराय उपशमक और क्षपक के भाव जैसे सामान्य से कहे गए हैं, वैसे ही हैं। यथाख्यातपरिहारविशुद्धि संयतों में उपशान्तकषाय आदि चारों गुणस्थानवी जीवों के भाव, जैसे सामान्य से कहे गए हैं, वैसे ही हैं । संयतासंयत गुणस्थानवी जीवों के भाव, जैसे सामान्य से कथित हैं, वैसे ही हैं । असंयतों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवी जीवों के भाव, जैसे सामान्य से कथित हैं, वैसे ही हैं। दर्शनमार्गणा में चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शनवालों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ तक प्रत्येक Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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