SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में 'गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{138} गुणस्थानवर्ती जीवों के भाव, जैसे सामान्य से कहे गए हैं, वैसे ही हैं। अवधिदर्शनवाले जीवों के भाव अवधिज्ञानियों के समान हैं। केवलदर्शनवाले जीवों के भाव केवलज्ञानियों के समान हैं । श्यामार्गणा में कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतले श्यावालों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों के भाव, जैसे सामान्य से कहे गए हैं, वैसे ही हैं । तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावालों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवों के भाव, जैसे सामान्य से बताए गए हैं, वैसे ही हैं । शुक्ललेश्यावालों में मिध्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवों के भाव, जैसे सामान्य से कथित हैं, वैसे ही हैं । भव्यमार्गणा में भव्यसिद्धिकों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवों के भाव, जैसे सामान्य से कहे गए हैं, वैसे ही हैं। अभव्यसिद्धिक जीवों में पारिणामिक भाव हैं । सम्यक्त्वमार्गणा में सम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवों के भाव, जैसे सामान्य से कहे गए हैं, वैसे ही हैं । क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों में क्षायिक भाव हैं। उपर्युक्त जीवों का सम्यक्त्व क्षायिक है, किन्तु क्षायिक सम्यग्दृष्टियों का असंयतत्व औदयिक भाव के कारण है। क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीवों में क्षायोपशमिक भाव है । उपर्युक्त जीवों में सामान्यतः क्षायोपशमिक भाव होता है, किन्तु जिन जीवों को क्षायिक सम्यग्दर्शन ही होता है । क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में अपूर्वकरण आदि चार उपशमकों में औपशमिक भाव हैं, किन्तु क्षायिक सम्यग्दृष्टि चारों उपशमकों में सम्यक्त्व, क्षायिक भाव के कारण है । क्षायिक सम्यग्दृष्टि चारों क्षपक, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों में क्षायिक भाव है । चारों क्षपक, सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों में क्षायिक सम्यग्दर्शन ही होता है । वेदक सम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों में क्षायोपशमिक भाव है । वेदकसम्यग्दृष्टि जीवों में क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन ही होता है। वेदकसम्यग्दृष्टियों का असंयतत्व औदयिक भाव से है । वेदकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीवों में क्षायोपशमिक भाव है । उपर्युक्त जीवों में सम्यग्दर्शन क्षायोपशमिक ही होता है । उपशमसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों में औपशमिक सम्यग्दर्शन ही होता है । उपशमसम्यक्त्ववाले असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों में असंयतत्व औदयिक भाव के कारण है । उपशमसम्यग्दृष्टि संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीवों में क्षायोपशमिक भाव है, किन्तु उपर्युक्त उपशमसम्यग्दृष्टि जीवों में सम्यग्दर्शन औपशमिक ही होता है । अपूर्वकरणादि चार गुणस्थानों के उपशमसम्यग्दृष्टि उपशामक जीवों में औपशमिक भाव होते हैं । उपर्युक्त जीवों में औपशमिक सम्यग्दर्शन ही होता है । सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों के भाव सामान्य से कहे गए पारिणामिक भाव हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों में, सामान्यतः क्षायोपशमिक भाव हैं । मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीवों में सामान्य से कहे गए अनुसार, औदयिक भाव 1 संज्ञीमार्गणा में संज्ञियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीण कषाय वीतरागछद्मस्थ तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवों के भाव जैसे सामान्य से कहे गए हैं, वैसे ही हैं । असंज्ञी जीवों में औदयिक भाव हैं । आहारमार्गणा में आहारकों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली गुणस्थान तक के प्रत्येक गुणस्थानवर्ती जीवों के भाव, जैसे सामान्य से कहे गए हैं, वैसे ही हैं । अनाहारक जीवों के भाव कार्मणकाययोगियों के समान हैं, किन्तु विशेष यह है कि अनाहारक अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीवों में क्षायिक भाव है । पुष्पदंत एवं भूतबली प्रणीत षट्खण्डागम के जीवस्थान नामक प्रथम खण्ड के अल्पबहुत्वानुगम' नामक अष्टम द्वार में बताया गया है कि अल्पबहुत्वानुगम की अपेक्षा निर्देश दो प्रकार के हैं- ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । १८५ षट्खण्डागम, पृ. २२७ से २५, प्रकाशन: श्री श्रुतभण्डार व ग्रन्थ प्रकाशन समिति, फलटण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy