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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
प्रथम अध्याय........{19) जाते हैं। तेरहवें गुणस्थान में जो परिपूर्ण विशुद्ध क्षायिकभाव होता है, वह सादि-अनन्त है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय
और अन्तराय- इन चार घातीकों का क्षय करके जो केवलज्ञान और केवलदर्शन आदि को प्राप्त कर चुके हैं, जो पदार्थ को जानने देखने में इन्द्रिय, आलोक आदि निमित्तों की अपेक्षा नहीं रखते है, ये समस्त चराचर तत्वों को हस्ताकमलवत् देखने जानने लग जाते हैं; अतः वे केवली कहे जाते है। यद्यपि उनमें आत्मवीर्य अर्थात् आत्म शक्ति का पूर्ण प्रकटन हुआ है फिर भी शरीर आदि की योगप्रवृत्ति शेषज्ञ है, अतः वे सयोगीकेवली कहे जाते है। केवली भगवान सयोगी अवस्था में जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और
म करोड़ पूर्व वर्ष तक रहते हैं। सयोगीकेवली भगवान यदि तीर्थंकर हों, तो वे देशना देकर तीर्थ की स्थापना करते हैं।
यद्यपि क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति चौथे या सातवें गुणस्थान में ही हो जाती है, तथापि उसमें परिपूर्णता ज्ञानावरण और दर्शनावरण के पूर्णतया क्षय होने पर तेरहवें गुणस्थान में ही आती है, जो सिद्धि पर्यन्त बनी रहती है। इस अपेक्षा से ही क्षायिक सम्यक्त्व को सादि-अनन्त कहा है। इस गुणस्थानवर्ती केवली भगवन्तों को मन, वचन एवं काया-इन तीनों योगों की प्रवत्ति रहती है। अनत्तरविमानवासी देवों अथवा मनःपर्यवज्ञानी द्वारा मन से पछे गए प्रश्न का समाधान करने के लिए मनोवर्गणा रूप मनोयोग का प्रयोग करते हैं, उपदेश देने के लिए वचनयोग का तथा हलन-चलनादि क्रियाएँ करने के लिए काययोग का प्रयोग करते हैं।
ये सयोगीकेवली भूत, भविष्य अथवा वर्तमान का ऐसा कोई पदार्थ नहीं. जिसको वे नहीं देखते हों या नहीं जानते हों।७२ इस सम्बन्ध में विशेषावश्यक भाष्य में भी कहा है कि -
संभिन्नं पासंतो लोगमलोगं च सत्वओ सव्वं।
तं नत्थि जंन पासइ भूयं भव्वं भविस्सं च।।७३ . सयोगीकेवली के वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र-ये चार अघाती कर्म शेष रहते हैं। इनमें यदि वेदनीय, आयु और नामकर्म की स्थिति अधिक हो और आयुष्यकर्म की स्थिति कम हो, तो इन चारों अघातीकर्मों की स्थिति समान करने के लिए वे केवली समुद्घात करते हैं; किन्तु यदि चारों अघातीकर्मों की स्थिति पहले से ही समान हो, तो समुद्घात नहीं भी करते हैं।
तेरहवें गणस्थान के अन्त में वे अपातीकर्मों का क्षय करने के लिए लेश्यातीत अत्यन्त अप्रकम्प परम निर्जरा के कारणभत परम शुक्लध्यान को स्वीकार करते हैं और इसप्रकार योगनिरोध के लिए उपक्रम करते हैं। वहाँ पर पहले बादर काययोग से बादर मनोयोग का तत्पश्चात् बादर वचनयोग का निरोध करते हैं। तत्पश्चात् सूक्ष्म काययोग, तदनन्तर क्रमशः सूक्ष्म मनोयोग और सूक्ष्म वचनयोग का निरोध करके चौदहवें सयोगीकेवली गुणस्थान को प्राप्त हो जाते हैं।
(१४) अयोगीकेवली गुणस्थान- जो केवली भगवान योगों से रहित होते हैं और शुक्लध्यान के चतुर्थ चरण में स्थित है, वे अयोगीकेवली कहलाते हैं।७६ _यह गुणस्थान चारित्र विकास और स्वरूप स्थिरता की चरम अवस्था है। इस गुणस्थान में अ, इ, उ, ऋ, लु इन पांच हस्व स्वरों के उच्चारण में जितना समय लगता है, उतने समय में आत्मा उत्कृष्ट शुक्लध्यान द्वारा सुमेरू पर्वत सदृश स्थिति को प्राप्त करके अन्त में देहत्याग करके सिद्धावस्था को प्राप्त करती है।
७० घातिकर्म क्षये लब्ध्वा, नव केवलः लब्धयः ।
येनासौ विश्वतत्वज्ञः, सयोगः केवली विभुः।। - संस्कृत पंचसंग्रह, १/४२ ७१ प्रज्ञापनोपागम, उत्तरार्धम्, टीकाकार आचार्य मलयगिरी, पत्रांक-६०६, सूत्र ३६/३४८. ७२ कर्मग्रन्थ (भाग-६) टीकाकार आचार्य मलयगिरि, उद्धृत - अभिधान राजेन्द्रकोष, भाग-३, खवगसेढी, पृष्ठ - ७२६-३१. ७३ विशेषावश्यक भाष्य, गाथा -१३४२. ७४ प्रज्ञापना पत्र ६०१.१ ७५ कर्मग्रन्थ, भाग -६, टीकाकार आचार्य मलयगिरि, उद्धत अभिधान राजेन्द्र कोष, भाग-३, खवगसेढी, पृष्ठ ६२६-३१. ७६ प्रदा घातिकर्माणि, शुक्लध्यान कृशानुना।
अयोगो याति शैलेशो, मोक्षलक्ष्मी निरासवः।। - संस्कृत पंचसंग्रह १/५०.
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