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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... प्रथम अध्याय........{20} सर्वप्रथम केवली भगवान बादर काययोग से बादर मनोयोग और बादर वचनयोग को रोकते हैं। उसके बाद सूक्ष्म काययोग से बादर काययोग का निरोध करते हैं और फिर सूक्ष्म काययोग से क्रमशः सूक्ष्म मनोयोग और सूक्ष्म वचनयोग का निरोध करते हैं। अन्त में सूक्ष्मक्रियानिवृत्ति शुक्लध्यान से अपने शरीर के मुख्य, उदर आदि पोले भागों को पूर्ण करते हुए शरीर के तीसरे भाग परिमाण आत्मप्रदेशों का संकोच करते हैं, जिससे उनके आत्मप्रदेश घनरूप तथा वर्तमान शरीर के दो तिहाई भाग जितने रह जाते हैं। इसके बाद वे अयोगीकेवली भगवान समुच्छिन्नक्रियाअप्रतिपाति शुक्लध्यान को प्राप्त करते है और पांच हृस्वाक्षर के उच्चारण जितने समय में शैलेशीकरण के द्वारा चारों अघाती कर्मों का सर्वथा क्षय करके एक समय में ऋजुगति से उर्ध्वगमन कर लोक के अग्रभाग में स्थित मोक्ष या सिद्धालय को प्राप्त कर लेते हैं। ये लोक के अनुभाग में विराजमान परमात्मा सिद्ध भगवन्त अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अव्याबाध सुख, अनन्त वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व, अक्षयस्थिति (अवगाहनत्व), अरुपी और अगुरुलघुत्व- इन आठ गुणों से युक्त हो सदा-सदा के लिए कृतकृत्य बन जाते हैं। ये कर्मबीज रहित होने से पुनः संसार में लौटकर नहीं आते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि तेरहवें गुणस्थान में समग्र कायिक, वाचिक और मानसिक व्यापार अर्थात् योग का पूर्णतः निरोध हो जाता है। वह योग सन्यास है, यही सर्वांगीण पूर्णता है, चरम आदर्श की उपलब्धि है। बाद की जो अवस्था है उसे जैन विचारकों ने मोक्ष, निर्वाण, शिवपद एवं निर्गुण-ब्रह्म स्थिति कहा है।७६ इन सभी चौदह गुणस्थानों में किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है, किनका उदय रहता है, किनकी उदीरणा सम्भव है, किनकी सत्ता रहती है या सत्ता का विच्छेद हो जाता है, यह समस्त चर्चा हमने षट्खण्डागम, सर्वार्थसिद्धि तथा विशेषरूप से द्वितीय कर्मग्रन्थ कर्मस्तव के गुणस्थान सम्बन्धी विवरण में विस्तार से की है, इच्छुक पाठक उसे वहाँ देखें । त्र आध्यात्मिक विकास के सोपान-गुणस्थान K जैनदर्शन मुख्यरूप से आत्मविशुद्धि का दर्शन है। कर्म-कलंक से युक्त आत्मा को निष्कलंक बनाना ही इसका उद्देश्य है। जैनदर्शन की मान्यता है कि कर्ममल के कारण आत्मा की स्वाभाविक शक्तियाँ आवृत्त होती हैं और वह अशुद्ध अवस्था को प्राप्त होती है। गणस्थान का सिद्धान्त मूलतः कर्मों के इस आवरण को क्रमशः विमुक्ति की अवस्था को सूचित करता है। इसप्रकार गुणस्थान व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास के विभिन्न सोपानों के रूप में स्वीकृत किए गए हैं। मिथ्यात्वदशा आत्मा के अविकास की अवस्था है, किन्तु उसकी विकासयात्रा भी यही से प्रारम्भ होती है। यही कारण है कि मिथ्यात्व को भी गुणस्थान के रूप में स्वीकृत किया गया है। इस गुणस्थान के चरमसमय में आत्मा पुरुषार्थ करके अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क और मिथ्यात्वमोह, मिश्रमोह के उदय को रोककर, इनके क्षय या उपशम के द्वारा सम्यक्त्व की प्राप्ति करती है । सम्यक्त्व की प्राप्ति की दृष्टि से प्रथम प्रयास इसी अवस्था में होता है, अतः इसे आध्यात्मिक विकास की दिशा में प्रथम चरण कहा गया है। यह आत्मा की पूर्णतः परतन्त्रता की अवस्था है। इस अवस्था में आत्मा दर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीय दोनों से ग्रस्त रहती है। उसके विचारदृष्टि और आचारसृष्टि-दोनों ही दूषित रहते हैं । इस गुणस्थान के अन्त में आत्मा प्रयत्नपूर्वक यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण-इन तीन करणों के माध्यम से सर्वप्रथम अपनी दृष्टि की विशुद्धि करती है। ऐसा प्रयत्न इस गुण या उपान्त्य समय में ही होता है, अतः इसे आध्यात्मिक विकास की दिशा में प्रथम चरण माना गया है, किन्तु यहाँ यह ज्ञातव्य है कि ऐसा प्रयत्न इस गुणस्थान में स्थित सभी आत्माएँ नहीं कर पाती हैं। केवल संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में से कुछ भव्य जीव ही इस दिशा में प्रयत्न करते हैं। उन जीवों के इस प्रयत्न की अपेक्षा से ही इसे गुणस्थान कहा गया है। यह आत्मा के आध्यात्मिक विकास की दिशा में उठा हुआ प्रथम चरण है। ७७ विशेषावश्यकभाष्य - ३०५६,६४,६८,६६, ८२, ८६ ७८ (क) अनुयोगद्वार, क्षायिक भाव, पृष्ठ ११७, सूत्र १२६. (ख) प्रवचनसारोद्धार, गाथा १५६३-६४. (ग) समवायांगसूत्र, समवाय -३१ ७६ ज्ञानसार, त्यागाष्टक (दर्शन और चिन्तन, भाग-२, पृष्ठ २७५, पर उघृत) Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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