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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
प्रथम अध्याय........{18} इस गुणस्थान का, सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान यह सार्थक नाम है। जिस प्रकार धुले हुए गुलाबी रंग के कपड़े में लालिमा सुर्सी की सूक्ष्म-सी आभा रह जाती है, उसीप्रकार इस गुणस्थानवी जीव संज्वलन लोभ के सूक्ष्म खण्डों का वेदन करता है।६७ मोहनीय की सत्ताईस कर्मप्रकृति का क्षय या उपशम हो जाने पर जब तक मात्र संज्वलन लोभ का उदय शेष रहता है, तब साधक इस गुणस्थान में रहता है। उसका क्षय हो जाने पर सीधे क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान में और उसका उपशम होने पर उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान में आरोहण कर जाता है।
(११) उपशान्तमोह गुणस्थान - जब अध्यात्म मार्ग का साधक पूर्व अवस्था में रहे हुए सूक्ष्म लोभ को भी उपशान्त कर देता है, तब वह इस गुणस्थान में पहुंचता है, लेकिन आध्यात्मिक विकास में अग्रसर साधक के लिए यह अवस्था उचित नहीं है। विकास की इस श्रेणी में मात्र वे ही आत्माएँ आती हैं, जो वासनाओं का दमन कर उपशमश्रेणी से विकास करती हैं। जो आत्माएँ वासनाओं को सर्वथा
हुए क्षपक श्रेणी से विकास करती हैं, वे इस श्रेणी में न आकर सीधे बारहवें गुणस्थान में जाती
जिनका कषाय उपशान्त हो गया है, सूक्ष्म राग आदि का भी जिनमें सर्वथा उदय नहीं है, किन्तु सत्ता में रहे हुए हैं, वे जीव उपशान्तकषाय वीतरागछद्मस्थ गुणस्थानवर्ती कहलाते हैं।६८ इस गुणस्थानवी जीव अन्तर्मुहूर्त में अवश्य च्युत होता है। यदि वह बीच में ही कालधर्म को प्राप्त हो जाता है, तो अनुत्तरविमान में देवरूप में उत्पन्न होता है और वहाँ चतुर्थ गुणस्थान को प्राप्त करता है। यदि कालधर्म को प्राप्त नहीं होता है, तो पुनः क्रमशः नीचे के गुणस्थानों में होता हुआ सातवें, छठे, चौथे या प्रथम गुणस्थान में पहुँच जाता है।
यह गुणस्थान उपशमश्रेणी का अन्तिम स्थान है, अतः इस गुणस्थान में विद्यमान जीव आगे के गुणस्थानों को प्राप्त करने में समर्थ नहीं होते
न तो क्षपक श्रेणीवाला जीव ही आरोहण कर सकता है तथा क्षपक श्रेणी के बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, परन्तु ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती जीव तो नियम से उपशमश्रेणी से आरोहण करने वाला होता है, अतः यह जीव ग्यारहवें गुणस्थान से अवश्य पतित होता है।
इस गुणस्थान का काल जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त है।
(१२) क्षीणमोह गुणस्थान - मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय होने के पश्चात् ही यह गुणस्थान प्राप्त होता है। इस गुणस्थान में मोहनीय कर्म की सभी अट्ठाईस प्रकृतियाँ सर्वथा क्षय हो जाती है, उनकी सत्ता भी नहीं रहती है, अतः इसका नाम क्षीणमोह गुणस्थान है। इस गुणस्थानवी जीव के भाव स्फटिक मणि के निर्मल पात्र में रखे हुए जल के समान निर्मल होते है। यहाँ से जीव का पतन नहीं होता है, किन्तु वह विकास की अग्रिम कक्षाओं में ही बढ़ता जाता है। इस गुणस्थानवी जीव का मोक्ष अवश्यम्भावी होता है। मोहनीय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने से वीतरागता प्राप्त होने पर भी तीन छद्म-ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय, अभी विद्यमान होने से इस गुणस्थान का पूरा नाम क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ है। इस गुणस्थान के अन्तिम समय में इन तीनों घातीकों का क्षय हो जाता है और व्यक्ति तेरहवें सयोगीकेवली गुणस्थान को प्राप्त हो जाता है। इस गुणस्थान का जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। क्षपकश्रेणी से आरोहण करनेवाले जीव ही इस गुणस्थान को प्राप्त करते हैं ।
(१३) सयोगीकेवली गुणस्थान- बारहवें गुणस्थान के अन्त में तीन घातीकर्मों का क्षय करके जीव तेरहवें सयोगीकेवली गुणस्थान को प्राप्त होता है।६६ यहाँ ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय के क्षय होने पर अनन्त चतुष्टय अर्थात् अनन्तज्ञान (केवलज्ञान), अनन्तदर्शन (केवलदर्शन), अनन्तसुख और अनन्तवीर्य प्रकट हो जाते हैं। उनके आवरण समाप्त हो
६७ लोभः संज्वलनः सूक्ष्मः, शमं यत्र प्रपद्यते। क्षयं वा संयतः सूक्ष्मः, साम्परायः स कथ्यते।।
कौसुम्मोन्तर्गतो रागो, यथा वस्त्रे तिष्ठते। सूक्ष्म लोभ गुणे लोभः, शोध्यमानस्तथा तनुः।। - संस्कृत पंचसंग्रह, १/४३, ४४. ६८ सटीकाश्चत्वारः प्राचीनाः कर्मग्रन्थाः (कर्मस्तव), पृष्ठ -४,५ ६६ 'उप्पन्नंमि अणंते नटुंमि य छाउमत्थिए नाणे।' -सटीकाश्वत्वारः प्राचीनः कर्मग्रन्थाः (कर्मस्तव), पृष्ठ -५.
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