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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... प्रथम अध्याय........{17} लोकाकाश प्रदेश परिमाण होते हैं, अनन्त नहीं होते हैं।६६ ___असंख्यात संख्या के अनेक भेद है, अतः एक समयवर्ती जीवों के अध्यवसायों की संख्या और सब समय में रहे हुए त्रैकालिक जीवों के अध्यवसायों की संख्या ये दोनों संख्याएँ तारतम्यता के रूप में असंख्यात है, फिर भी दोनों के परिमाण में भिन्नता है, क्योंकि असंख्यात संख्या भी अनेक प्रकार की होती हैं। इस गुणस्थान को प्राप्त करने वाले सभी जीवों के भी असंख्यात संयम स्थान ही होते है, क्योंकि समसमयवर्ती बहुत से जीवों के संयम स्थान तुल्य शुद्धिवाले होने से अलग-अलग नहीं माने जाते हैं। इस गुणस्थान में उत्तरोत्तर अनन्तगुणा विशुद्धि होती है। उन्हें सामान्यतः इसप्रकार समझना चाहिए कि समसमयवर्ती अध्यवसाय एक दूसरे से - (१) अनन्तभाग अधिक शुद्ध (२) असंख्यातभाग अधिक शुद्ध (३) संख्यात भाग अधिक शुद्ध (४) संख्यातगुणा अधिक शुद्ध (५) असंख्यातगुणा अधिक शुद्ध; या (६) अनन्तगुणा अधिक शुद्ध होते हैं। इस प्रकार अधिकाधिक शुद्धि के इन छः प्रकारों को षट्स्थान कहते हैं। इसी प्रकार उत्कृष्टता के समान ही हीनता के भी षट्स्थान होते हैं। उनके नाम इसप्रकार हैं- (१) अनन्त भाग हीन (२) असंख्यात भाग हीन (३) संख्यात भाग हीन (४) संख्यात गुणा हीन (५) असंख्यात गुणा हीन और (६) अनन्त गुणा हीन । ___ इस गुणस्थान के अन्तिम समय तक पूर्व-पूर्व समय के अध्यवसायों से उत्तर-उत्तर समय के अध्यवसाय भिन्न-भिन्न समझने चाहिए। इसमें पूर्व की अपेक्षा उत्तरकाल के अध्यवसाय अनन्तगुणा विशुद्ध होते हैं। आठवें गुणस्थान का काल जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त है। (६) अनिवृत्तिकरण गुणस्थान- इस गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी आदि तीनों कषाय चतुष्क का तो क्षय या उपशम हो जाता है, किन्तु संज्वलन कषाय चतुष्क का उदय रहने से तथा समसमयवर्ती जीवों के परिणामों की समानता होने से इसे अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान कहते हैं। पूर्ववर्ती गुणस्थानों की अपेक्षा उत्तरवर्ती गुणस्थानों में कषायों का अंश न्यून होता जाता है। जैसे-जैसे कषायों का अंश कम होता है, वैसे-वैसे परिणामों की विशुद्धि बढ़ती जाती है। इस गुणस्थान में होने वाले परिणामों के द्वारा आयु कर्म के बिना शेष सात कर्मों की गुणश्रेणी-निर्जरा, गुणसंक्रमण, स्थितिघात और अनुभाग खंडन होता है। इस गुणस्थान में उत्तरोत्तर स्थितिबन्ध इतना कम होता है कि इसके अन्तिम समय में पहुँचने पर कर्मों की जो जघन्य स्थिति बतलाई गई है, उस प्रकार की स्थिति का बन्ध होने लगता है। कर्मों की सत्ता का भी अत्यधिक परिमाण में नाश हो जाता है। प्रतिसमय कर्मप्रदेशों की निर्जरा भी असंख्यातगुणा बढ़ जाती है। इस गुणस्थान का काल जघन्य और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त परिमाण है और एक अन्तर्मुहूर्त के जितने समय होते हैं, उतने ही अध्यवसाय स्थान होते हैं, क्योंकि इस गुणस्थान में प्रविष्ट समसमयवर्ती जीवों के अध्यवसाय एक समान या तुल्य शुद्धिवाले होते हैं। प्रवेश काल से लेकर दूसरे, तीसरे आदि क्रम से अन्तिम समय तक समान समय में अध्यवसाय भी समान ही होते हैं और समान अध्यवसायों को एक ही अध्यवसाय स्थान माना जाता है। इस गुणस्थान का जितना काल है, उतने ही उसके परिणाम है, इसीलिए प्रत्येक समय में एक ही परिणाम होता है। अतएव यहाँ भिन्न समयवर्ती परिणामों में सर्वथा विसदृशता और एक समयवर्ती परिणामों में सदृशता ही होती है तथा इन परिणामों के द्वारा कर्मों का विशेष क्षय होता है। न गुणस्थान को प्राप्त करनेवाले जीव दो प्रकार के होते हैं -उपशमक और क्षपक। जो चारित्र मोहनीय कर्म का उपशमन करते हैं, वे उपशमक हैं और जो चारित्र मोहनीय कर्म का क्षय करते हैं, वे क्षपक हैं। अतः नवें गुणस्थान में जीव उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी दोनों प्रकार के आते हैं। इस गुणस्थान के अन्तिम समय तक संज्वलन लोभ को छोड़कर सभी कषाय और नोकषाय समाप्त हो जाते हैं। (१०) सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान - इस गुणस्थान में मात्र संज्वलन लोभ कषाय के सूक्ष्म खण्डों का उदय रहता है; इसीलिए ६६ सटीकाश्वत्वारः प्राचीनाः कर्मग्रन्थाः (कर्मस्तव), पृष्ठ -४. Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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