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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
प्रथम अध्याय........{16} (८) अपूर्वकरण गुणस्थान- विकासोन्मुखी आत्मा जब प्रमाद को सर्वथा पराभूत कर देती है, तब वह आठवें गुणस्थान में आरोहण करती है। इस समय उसके परिणाम प्रतिक्षण आत्मविशुद्धि की अपेक्षा से यहाँ अपूर्व शब्द का अर्थ है - जो पूर्व में नहीं था उसकी प्राप्ति । इस गुणस्थान के पूर्व आत्मा पर कर्म हावी रहता है, किन्तु इस गुणस्थान से आत्मा कर्मों पर हावी हो जाती है, उसे विशेष शक्ति प्राप्त हो जाती है, इसीलिए इसे अपूर्वकरण कहते हैं। अपूर्व, अपूर्व ही होते हैं; इसी कारण इसका नाम अपूर्वकरण है। इस गुणस्थान की यह विशेषता है कि यहाँ से आगे की यात्रा मोहनीय कर्म के क्षय या उपशम के माध्यम से निष्पादित होती है। सातवें गुणस्थान में रहने वाला जीव जब आध्यात्मिक उत्कर्ष की दिशा में गतिशील बनता है तो वह अष्टम अपूर्वकरण गुणस्थान में आता है।६२ प्रथम के तीनों बादर कषाय चतुष्कों की निवृत्ति हो जाती है, इसीलिए इसे निवृत्तिबादर गुणस्थान की संज्ञा से भी अभिहित किया जाता है। एक अन्य दृष्टि से निवृत्ति का अर्थ है - अध्यवसाय, परिणाम तथा बादर का अर्थ है-भिन्नता । चूंकि इस गुणस्थान में समसमयवर्ती जीवों के अध्यवसाय भी विभिन्न प्रकार के होते हैं, अतः इस गुणस्थान को निवृत्तिबादर गुणस्थान कहा जाता है।
अष्टम गुणस्थान में जीव को निम्न पांच बातों को करने की अपूर्व शक्ति उपलब्ध होती है
(१) स्थितिघात - कर्मों की लम्बी स्थिति को अपवर्तनाकरण के द्वारा घटाकर छोटी करना स्थितिघात है, अर्थात् जो कर्मदलिक आगे उदय में आने वाले हैं, उन्हें अपवर्तनाकरण द्वारा अपने उदय के नियत समय से हटा देना और शीघ्र उदय में आने योग्य बनाकर वर्तमान में उदय योग्य कर्म के साथ उन्हें भोग लेना स्थितिघात कहलाता है।
(२) रसघात - बन्धे हुए कर्मों के फल देने की तीव्र शक्ति को अपवर्तनाकरण द्वारा मंद कर देना रसघात कहलाता है।
(३) गुणश्रेणी- जिन कर्मदलिकों को स्थितिघात करके और मन्दरस करके अपने उदयस्थान से हटाया है, उनको समय क्रम से अन्तर्मुहूर्त में स्थापित करना गुणश्रेणी है। इसमें उदय समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त जितने समय होते हैं, उनमें से उदयावलिका के समयों को छोड़कर शेष समयों में जो कर्म दलिक स्थापित किए जाते हैं, उन्हें पहले समय में कम, दूसरे समय में उनसे संख्यातगुणा अधिक, यावत् अन्तिम समय तक प्रत्येक समय की अपेक्षा आगे-आगे के समयों में असंख्यातगुणा स्थापित करके उन्हें उदयावलि में लाकर क्षय कर देना गुणश्रेणी है।६३
(४) गुणसंक्रमण - पूर्व में बंधी हुई अशुभ प्रकृतियों को वर्तमान में बन्ध रही शुभ प्रकृतियों में रूपान्तरित करना गुणसंक्रमण है। इसमें भी पहले समय की अपेक्षा आगे-आगे के समयों में असंख्यातगुणा कर्मदलिकों का संक्रमण होता है।
(५) अपूर्वस्थितिबन्ध - पूर्व की अपेक्षा अत्यल्प स्थितिवाले कर्मों को बांधना अपूर्वस्थितिबन्ध है। यद्यपि ये पांचों प्रक्रियाएँ पूर्व के गुणस्थानों में भी होती है। पूर्व गुणस्थानों की अपेक्षा इस गुणस्थान में अपूर्व विधान होने से यह गुणस्थान अपूर्वकरण कहलाता है।६५ __अपूर्वकरण गुणस्थान को प्राप्त हुए, प्राप्त होने वाले एवं प्राप्त हो रहे, सभी जीवों के संयम के अध्यवसाय स्थान उनका वैविध्य असंख्यात लोकाकाश प्रदेश परिमाण है। इसका कारण यह है कि इस गुणस्थान की स्थिति अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है और अन्तर्मुहूर्त में असंख्यात समय होते हैं। अतः प्रथम द्वितीयादि समयवर्ती त्रैकालिक जीवों के संयम के अध्यवसाय स्थान असंख्यात
६२ अपूर्वात्मगुणाप्तित्वादपूर्वकरणं मतम् - गुणस्थानकमारोह, पृष्ठ २६. ६३ "उपरितनस्थितेर्विशुद्धिवशादपवर्तनाकरणेनावतारितस्य दलिकस्यान्तर्मुहूर्त प्रमाणमुक्ष्यक्षणादुपरि क्षिप्रतर क्षपणाय
__ प्रतिक्षणमसंख्येयगुणवृद्धया विरचनं गुणश्रेणिरित्युच्यते।"- सटीकाश्चत्वारः प्राचीनाः कर्मग्रन्थाः (कर्मस्तव) पृष्ठ-४ ख, गुणस्थानक्रमारोह, पृ. २६. ६४ "शुभं प्रकृतिष्वशुभप्रकृति दलिकस्य प्रतिक्षणमसंख्येयगुणवृद्धया विशुद्धिवशांन्नयनं गुणसंक्रमः तमिहासावपूर्वकरोति।"
-सटीकाश्चत्वारः प्राचीनाः कर्मग्रन्थाः (कर्मस्तवः) पृ. ४, कर्मग्रन्थ, भाग-२, पृष्ठ -२६ ६५ अपूर्वकरणं स्थितिघातरसघात गुणश्रेणिगुणसंक्रमणस्थितिबन्धानां पंचानामर्थानां निर्वर्तनमस्यासावपूर्वकरणः तथाहि यावत्प्रमाणमसौ
पूर्वगुणस्थानविशुद्धया स्थितिखण्डकं रसखण्डकं वा हलवान् ततो वृहत्तरप्रमाणमपूर्वस्मिन् गुणस्थानेहन्ति।-सटिकाश्चत्वारः प्राचीनाः कर्मग्रन्थाः (कर्मस्तव) पृष्ठ -४.
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