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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... द्वितीय अध्याय......{43} इसके साथ-साथ विशेषरूप से ऋषभदेव और प्रथम चक्रवर्ती भरत का जीवनवृत्त वर्णित है। इस कारण से इस आगम ग्रन्थ में स्थान सिद्धान्त के विवेचन की संभावना तो अति अल्प है। फिर भी इस आगम में यत्र-तत्र जो गुणस्थान के नाम वाचक शब्द हैं, उन पर विचार कर लेना उचित होगा। जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति के दूसरे वक्षस्कार के १६ वें सूत्र में तीसरे आरे के मनुष्यों के स्वभाव आदि का विवेचन करते हुए वहाँ कहा गया है कि उस काल में मनुष्य प्रकृति से उपशान्त और अल्प क्रोध, मान, माया और लोभ वाले होते हैं। यद्यपि यहाँ उपशान्त शब्द का प्रयोग है; परन्तु वह, उपशान्तमोह गुणस्थान का वाचक न होकर उस काल के मनुष्यों के स्वभाव का वाचक है। जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति के दूसरे वक्षस्कार के ६८ वें सूत्र में भगवान ऋषभदेव के मुनि-जीवन का विवरण करते हुए उन्हें उपशान्त कहा गया है, किन्तु यहाँ उपशान्त शब्द एक सामान्य विशेषण ही है, गुणस्थान का वाचक नहीं है। इसके पश्चात् तीसरे वक्षस्कार में भरत के केवलज्ञान उत्पन्न होने सम्बन्धी विवरण को प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि उन भरतराजा ने अपने विशुद्धमान अध्यवसायों द्वारा कर्मरज का क्षय करते हुए अपूर्वकरण में प्रविष्ट होकर, अनन्त, अनुत्तर, सम्पूर्ण, निर्बाध, निरावरण, केवलज्ञान और केवलदर्शन को प्राप्त किया। इसप्रकार हम देखते हैं कि ज्ञाताधर्मकथा आदि के समान ही यहाँ भी अपूर्वकरण में प्रविष्ट होकर केवलज्ञान प्राप्त करने की बात कही गई है। हमारी दृष्टि में यहाँ अपूर्वकरण शब्द अपूर्वकरण गुणस्थान का वाचक न होकर, तीन करणों में से जो दूसरा अपूर्वकरण है, उसका ही वाचक है। इसका सम्बन्ध गुणश्रेणी से ही प्रतीत होता है। इसी वक्षस्कार के २२५ वें सूत्र में यह हा गया है कि भरत केवली ने योगनिरोध करते हुए नाम, गोत्र, आयुष्य और वेदनीय कर्म का क्षय करके सिद्ध, बुद्ध, मुक्त अवस्था को प्राप्त किया। यहाँ क्षीण शब्द का प्रयोग नाम, गोत्र, आयुष्य और वेदनीय कर्म के क्षय करने के सम्बन्ध में हुआ है, न कि क्षीणमोह गुणस्थान के सम्बन्ध में । यह सत्य है कि यह अवस्था अयोगी केवली गुणस्थान की है, किन्तु यहाँ इसे गुणस्थान से सम्बन्धित करने की अपेक्षा मुक्त होने की पूर्वस्थिति का वाचक ही मानना चाहिए। इस प्रकार हम देखते है कि जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति में अपूर्वकरण, उपशान्त और क्षीण- इन तीन अवस्थाओं का चित्रण है, किन्तु इन्हें उन नामवाले गुणस्थानों से सम्बन्धित करना कठिन ही है। संक्षेप में यह कह सकते हैं कि इस ग्रन्थ में गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा का प्रायः अभाव ही है। ६. सूर्यप्रज्ञप्तिसूत्र " और गुणस्थान : जैन आगम साहित्य में सूर्यप्रज्ञप्ति को एक उपांगसूत्र के रूप में स्वीकार किया जाता है। इसके नाम से ही स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ में सूर्य की गति आदि के सम्बन्ध में विस्तार से विचार किया गया है। इसप्रकार इस ग्रन्थ का सम्बन्ध ज्योतिषविद्या के साथ है। इसमें न केवल सूर्य अपितु चंद्र, ग्रह, नक्षत्रों की गति आदि की भी चर्चा उपलब्ध होती है। यह ग्रन्थ जैनधर्म और दर्शन से स्पष्ट रूप से सम्बन्धित प्रतीत नहीं होता है। इसमें ऐसी अनेक मान्यताएँ भी हैं जिनकी जैनधर्म-दर्शन से संगति बिठाना कठिन प्रतीत होती है । जहाँ तक इस ग्रन्थ की विषयवस्तु की प्राचीनता का प्रश्न है, निश्चित ही यह ग्रन्थ प्राचीन स्तर का है। इसमें प्रतिपादित ज्योतिष सम्बन्धी विषय वर्तमान प्रचलित ज्योतिषशास्त्र की अपेक्षा वैदिक ज्योतिष से अधिक संगति रखते हैं । यहाँ हमारा मूलभूत प्रयोजन तो आगम साहित्य में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी अवधारणा का अनुशीलन करना ही है। इस ग्रन्थ की विषयवस्तु ज्योतिष से ही सम्बन्धित है और इसका जैनधर्मदर्शन से स्पष्ट कोई सम्बन्ध नहीं है, इसीलिए इसमें गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा का अभाव स्वाभाविक है। इस ग्रन्थ में गुणस्थान सिद्धान्त के सम्बन्ध में कोई भी सूचना या संकेत उपलब्ध नहीं है। ६६ वही, सूरपन्नती. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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