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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....
द्वितीय अध्याय........{42} सत्य है कि मार्गणाओं में गुणस्थानों का अवतरण करते समय गतिमार्गणा और जातिमार्गणा में भी यह चर्चा आती है, किन्तु इस स्थल पर तो इसे सामान्य विवेचना के रूप में ही स्वीकार करना उचित प्रतीत होता है, क्योंकि ये चर्चा गुणस्थानों के सदंर्भ में होती तो फिर इन तीनों के अतिरिक्त अन्य गुणस्थानों की दृष्टि से भी विचार अवश्य किया होता।
प्रज्ञापनासूत्र के २१ वें अवगाहन एवं संस्थान पद में यह चर्चा आई है कि आहारक शरीर किसे प्राप्त होता है। इसके उत्तर में कहा गया है कि ऋद्धि प्राप्त प्रमत्तसंयतसम्यग्दृष्टि को आहारक शरीर प्राप्त होता है। यहाँ प्रमत्तसंयत अवस्था का उल्लेख है, किन्तु इस उल्लेख को गुणस्थान से सम्बन्धित नहीं माना जा सकता है। प्रज्ञापनासूत्र के २२ वें क्रियापद में क्रियाओं की चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि संयतासंयत जीव परिग्रहिता क्रिया करते हैं। प्रमत्तसंयत जीव आरम्भक्रिया करते हैं। अप्रमत्तसंयत जीव मायावर्तिका क्रिया करते हैं। मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यादर्शनवर्तिका क्रिया करते हैं। इस प्रकार यहाँ पाँचों क्रियाओं के सन्दर्भ में मिथ्यादृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है, किन्तु इस उल्लेख को गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित कहना समुचित नहीं होगा, यह एक सामान्य चर्चा ही है।
प्रज्ञापनासूत्र के २८ वें आहार पद में यह चर्चा उपलब्ध होती है कि मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत, संयतासंयत जीवों में कौन आहारक होता है और कौन अनाहारक होता है? इसके उत्तर में यह कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि जीव एकेन्द्रिय को छोड़कर आहारक भी होते हैं और अनाहारक भी होते हैं, अथवा स्यात् आहारक और स्यात् अनाहारक भी होते हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव आहारक ही होते हैं, अनाहारक नहीं होते हैं। इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीवों में सिद्ध अनाहारक होते हैं, शेष आहारक भी होते हैं, अनाहारक भी होते हैं, स्यात् आहारक भी होते हैं तथा स्यात् अनाहारक भी होते हैं। संयतासंयत जीव आहारक होते हैं, अनाहारक नहीं होते हैं। असंयत जीव भी स्यात् आहारक और स्यात् अनाहारक होते हैं। संयत जीव भी स्यात् आहारक और स्यात् अनाहारक होते हैं। सिद्ध जीव अनाहारक होते है। इसप्रकार यहाँ उपर्युक्त छः अवस्थाओं एवं सिद्धों के सन्दर्भ में आहारक और अनाहारक का विचार हुआ है, किन्तु इस आधार पर यह कहना कठिन है कि आहारक और अनाहारक की यह चर्चा गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित नहीं है। प्रज्ञापनासूत्र के ३२ वें संयत पद में असंयत, संयतासंयत, संयत, नो-संयत, नो-असयंत और नो-संयतासंयत- ऐसी छः अवस्थाओं की चर्चा है। इस चर्चा में यह बताया गया है कि नारकी से लेकर चतुरिन्द्रिय तक सभी जीव असंयत होते हैं, पंचेन्द्रिय तिर्यंच असंयत भी होते हैं और संयतासंयत भी होते हैं, किन्तु संयत नहीं होते हैं। मनुष्य असंयत भी, संयतासंयत भी और संयत भी होते हैं। वैमानिक आदि देव असंयत ही होते हैं। सिद्ध आत्माएँ नो असंयत होती हैं, नो संयतासंयत होती हैं और नो संयत होती हैं। इस प्रकार विभिन्न गतियों एवं जातियों की अपेक्षा से यहाँ असंयत, संयतासंयत और संयत आदि की चर्चाएँ की हैं। ये चर्चाएँ सीधे रूप से गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित नहीं है। " प्रज्ञापनासूत्र के ३६वें समुद्घात पद के ६२ वें सूत्र में यह प्रश्न उठाया गया है कि क्या सयोगी सिद्ध होते है? इसके उत्तर में कहा गया है कि सयोगी सिद्ध नहीं होते हैं, अयोगी ही सिद्ध होते हैं। इसी क्रम में यहाँ योगनिरोध की प्रक्रिया भी बताई गई है, किन्तु यह योगनिरोध की प्रक्रिया भी सीधे रूप से गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित प्रतीत नहीं होती है। वैसे ही इस प्रसंग में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि यहाँ आत्मा गुणश्रेणी का अनुसरण करके किस प्रकार कर्म का क्षय करती है, इसका विवेचन किया गया है। इसमें गुणश्रेणी शब्द का स्पष्ट रूप से प्रयोग किया गया है। इस प्रकार हम देखते है कि प्रज्ञापनासूत्र में गुणस्थानों से सम्बन्धित अनेक पदों के होते हुए भी न तो गुणस्थान शब्द का प्रयोग मिलता है, न गुणस्थानों का कोई विवेचन मिलता है, किन्तु गुणश्रेणी शब्द का उल्लेख अवश्य हुआ है। अतः प्रज्ञापनासूत्र में गुणश्रेणियों की चर्चा करनेवाले आचारांग नियुक्ति को तत्त्वार्थसूत्र के समकालीन माना जाता है। ५. जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र" और गुणस्थान :
उपांगसूत्रों में जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति का पाँचवाँ स्थान है। सामान्यतया इस आगम में जंबूद्वीप के स्वरूप आदि का विवेचन है और ६५ वही, जंबूदीवपन्नती.
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