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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{41} दो विभाग किए गए हैं -बादरसंपराय सराग चारित्र आर्य और सूक्ष्मसंपराय सराग चारित्र आर्य। पुनः वीतराग चारित्र आर्यों के दो भेद है- उपशान्तकषाय वीतराग चारित्र आर्य और क्षीणकषाय वीतराग चारित्र आर्य। पुनः क्षीणकषाय वीतराग चारित्र आर्यों के भेद हैं- छद्मस्थ क्षीणकषाय वीतराग चारित्र आर्य और केवली क्षीणकषाय वीतराग चारित्र आर्य। पुनः केवली क्षीणकषाय वीतराग चारित्रआर्य के सयोगी केवली और अयोगी केवली-ऐसे दो भेद किए गए हैं। इस प्रकार इस चर्चा में अनिवृत्तिबादरसंपराय, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्तकषाय (उपशान्तमोह), क्षीणकषाय (क्षीणमोह), सयोगी केवली और अयोगी केवली-इन छः अवस्थाओं के उल्लेख मिलते हैं, जो गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा में पाई जाती है। फिर भी प्रज्ञापना की यह चर्चा आर्यों की अपेक्षा से है, न कि गुणस्थानों की अपेक्षा से। पुनः प्रज्ञापनासूत्र के तीसरे अल्प-बहुत्व पद में मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि के अल्प-बहुत्व की चर्चा हुई है, किन्तु यह अल्प-बहुत्व की चर्चा इन तीनों अवस्थाओं की अपेक्षा से है, गणस्थानों की अपेक्षा से नहीं। इसी तीसरे अल्प-बहुत्व पद में यह भी बताया गया है कि तिर्यंच योनि के जीवों की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव अधिक है। मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा अविरत अधिक है। अविरत की अपेक्षा सकषायी अधिक है। सकषायी की अपेक्षा छद्मस्थ अधिक है। छद्मस्थ की अपेक्षा सयोगी अधिक है, सयोगी की अपेक्षा संसारी अधिक है। संसारी की अपेक्षा सर्व जीवराशि अधिक है। यहाँ भी मिथ्यादृष्टि, अविरत आदि का जो अल्प-बहुत्व बताया गया है, वह गुणस्थानों की अपेक्षा से प्रतीत नहीं होता है, इन अवस्थाओं की अपेक्षा से है। प्रज्ञापनासूत्र के छठे व्युत्क्रांति पद में कौन जीव कहाँ उत्पन्न होते हैं, इसकी चर्चा है, उसमें यह कहा गया है कि मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि जीव विविध योनियों में उत्पन्न होते हैं, किन्तु सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होते हैं। पुनः इसी विवेचना में आगे यह बताया गया है कि असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयतसम्यग्दृष्टि और संयतसम्यग्दृष्टि जीव कहाँ उत्पन्न होते हैं। पुनः इसी चर्चा में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव कहाँ उत्पन्न होते हैं, इसकी भी चर्चा है। इसप्रकार इसी विवेचना में मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि, अविरतसम्यग्दृष्टि, देशविरतसम्यग्दृष्टि, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत-इन छः अवस्थाओं का उल्लेख उनकी व्युत्क्रांति की चर्चा में हुआ है, किन्तु इस चर्चा को सीधे गुणस्थान सिद्धान्त से जोड़ना कठिन है। प्रज्ञापनासूत्र के १३वें परिणामी पद में भी मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि- इन तीन अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है, किन्तु यह उल्लेख भी गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित प्रतीत नहीं होता है। प्रज्ञापनासूत्र के १४ वें कषायपद में उपशान्तकषाय और अन उपशान्तकषायऐसी दो अवस्थाओं का उल्लेख है, किन्तु यह उल्लेख भी गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित प्रतीत नहीं होता है। इसी क्रम में १७ वें लेश्या पद में भी मिथ्यादृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि तथा असंयत, संयतासंयत और संयत इन तीन-तीन अवस्थाओं का उल्लेख हुआ है। आगे पुनः सम्यग्दृष्टि के तीन विभाग किए गए हैं- असंयत, संयतासंयत और संयत। पुनः संयतों के विभाग किए गए हैं-प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत, किन्तु हमारी दृष्टि में यह चित्रण पूर्ववत् इन अवस्थाओं का चित्रण है, गुणस्थानों का नहीं है। यहाँ यह चर्चा लेश्या पुद्गलों के समाहार के परिप्रेक्ष्य पर की गई है। प्रज्ञापनासूत्र के १६वें सम्यक्त्व पद में यह बताया गया है कि एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के सभी जीव सम्यग्दृष्टि भी होते हैं, मिथ्यादृष्टि भी होते हैं, किन्तु सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते हैं। यहाँ पर श्यामाचार्य ने दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के सम्यग्दृष्टि होने की संभावना को भी व्यक्त किया है। यह संभावना उन्होंने किस अपेक्षा से व्यक्त की है, हमें स्पष्ट नहीं है, क्योंकि सामान्य सिद्धान्त में तो चतुरिन्द्रिय तक सभी जीवों को मिथ्यादृष्टि ही माना जाता है। आचार्यश्री का यह प्रतिपादन किस अपेक्षा से है, इसका चिन्तन करना आवश्यक है। जहाँ तक पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य और देवों का प्रश्न है, वे सम्यग्दृष्टि भी होते हैं, मिथ्यादृष्टि भी होते हैं और सम्यग्मिथ्यादृष्टि भी होते हैं। जहाँ तक सिद्ध आत्माओं का प्रश्न है, उन्हें नियम से ही सम्यग्दृष्टि माना जाता है। वे मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि नहीं होते हैं। इसप्रकार यहाँ गति एवं जाति की अपेक्षा से सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि-इन तीन अवस्थाओं का विचार हुआ है। प्रज्ञापना के इस प्रतिपादन में गुणस्थानों का विचार हुआ है। प्रज्ञापना के इस प्रतिपादन से गुणस्थानों की अवधारणा को नहीं जोड़ा जा सकता है। यद्यपि यह Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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