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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{40} ३. जीवाजीवाभिगमसूत्र और गुणस्थान : उपांग-साहित्य में तीसरा क्रम जीवाजीवाभिगमसूत्र का आता है। जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ जीव और अजीव द्रव्यों का विवेचन प्रस्तुत करता है। सर्वप्रथम जीवों और उनके विविध भेदों की विस्तार से चर्चा की गई है। इसी चर्चा के प्रसंग में विभिन्न नरकों, ज्योतिष्क विमानों तथा देवलोक का वर्णन आता है। तिर्यग्लोक के प्रसंग में जंबूद्वीप का विस्तृत विवरण दिया गया है। इसी क्रम में विभिन्न प्रकार के कल्पवृक्षों की भी चर्चा है। जंबूद्वीप के पश्चात् लवणसमुद्र, धातकीखंड आदि की भी चर्चा हुई है। अन्त में संसारी जीवों के प्रकारों की चर्चा के साथ-साथ उनके अल्प-बहुत्व की चर्चा है। इस समग्र चर्चा में भी सामान्यतया गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कोई चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। जहाँ आहारक और अनाहारक के अल्प-बहुत्व की चर्चा हुई है, वहाँ छद्मस्थ, केवली, सयोगीभवस्थकेवली, अयोगीभवस्थकेवली आदि का भी उल्लेख आया है, किन्तु ये सभी उल्लेख मूलतः आहारक और अनाहारक जीवों के विभिन्न भेदों तथा उनके अल्प-बहुत्व से सम्बन्धित है। इसप्रकार इस ग्रन्थ के समग्र विवेचन में भी हमें कहीं भी गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा परिलक्षित नहीं होती है। इसमें जीवों के प्रकारों की चर्चा करते हुए दो से लेकर दशविध भेदों का निरूपण किया गया है। इसके साथ ही यह ग्रन्थ समाप्त हो जाता है। जीवों के चौदह भेदों, चौदह मार्गणाओं और चौदह गुणस्थानों की कोई चर्चा इसमें उपलब्ध नहीं होती है। ४. प्रज्ञापनासूत्र" और गुणस्थान : उपांग-साहित्य में प्रज्ञापना को चतुर्थ उपांग माना गया है। यद्यपि अपने क्रम के आधार पर इसे समवायांग का उपांग माना जाता है, किन्तु यदि हम इसकी विषयवस्तु को देखें तो इसका सम्बन्ध भगवतीसूत्र से रहा हुआ है। इसमें भगवतीसूत्र के अधिकांश विषयों को क्रमबद्ध रूप से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। इस ग्रन्थ के ३६ पद हैं। प्रथम प्रज्ञापनापद में जीव और अजीव द्रव्यों के भेद-प्रभेदों का विस्तार से उल्लेख हुआ है। इसके अन्य पदों में भाषापद, शरीरपद, कषायपद, लेश्यापद, कर्मप्रकृतिपद, कर्मबन्धकपद, कर्मवेदकपद, समुद्घातपद आदि महत्वपूर्ण माने गए हैं। इसकी विषयवस्तु व्यापक है और यह उपांगों में सबसे बड़ा उपांग है। प्रस्तुत प्रसंग में हमारा उद्देश्य तो प्रज्ञापनासूत्र में गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा की चर्चा करना है, अतः हम अग्रिम पंक्तियों में इसी दृष्टि से प्रज्ञापनासूत्र की विषयवस्तु का विश्लेषण करेंगे। प्रज्ञापनासूत्र में प्रथम जीव प्रज्ञापना में आसालिया नामक जीवों का उल्लेख करते हुए यह कहा गया है कि वे असंज्ञी और मिथ्यादृष्टि होते हैं। इसीप्रकार संमूर्छिम मनुष्यों की विभक्ति करते हुए कहा गया है कि वे मिथ्यादृष्टि होते हैं। ___ प्रज्ञापनासूत्र में प्रथम जीवप्रज्ञापनापद में आर्यों की चर्चा करते हुए सर्वप्रथम उनके दो भेद बताए गए हैं- सराग दर्शन आर्य और वीतराग दर्शन आर्य। वीतराग दर्शन आर्य के दो भेद बताए हैं - उपशान्तकषाय वीतराग दर्शन आर्य और क्षीणकषाय वीतराग दर्शन आर्य। उपशान्तकषाय वीतराग दर्शन आर्य के दो भेद बताए गए हैं - प्रथम समय उपशान्तकषाय वीतराग दर्शन आर्य और अप्रथम समय उपशान्तकषाय वीतराग दर्शन आर्य, अर्थात् चरम समय उपशान्तकषाय वीतराग दर्शन आर्य और अचरम समय उपशान्तकषाय वीतराग दर्शन आर्य। क्षीणकषाय वीतराग दर्शन आर्य के भी दो भेद किए गए हैं-छद्मस्थ क्षीणकषाय वीतराग दर्शन आर्य और केवली क्षीणकषाय वीतराग दर्शन आर्य। पुनः इन दोनों के भी स्वयंसंबुद्ध और बुद्धबोधित अर्थात् प्रथम समय और अप्रथम समय अर्थात् चरम समय और अचरम समय आदि के अनेक भेद किए गए हैं। केवली क्षीणकषाय वीतराग दर्शन आर्य के दो भेद किए गए हैं -सयोगी केवली क्षीणकषाय वीतराग दर्शन आर्य और अयोगी केवली क्षीणकषाय वीतराग दर्शन आर्य। इनके भी पुनः प्रथम समय और अप्रथम समय तथा चरम समय और अचरम समय आदि के आधार पर अनेक भेद किए हैं। इसी क्रम में चारित्र आर्यों की चर्चा करते हुए सराग चारित्र आर्य और वीतराग चारित्र आर्य भेद किए गए हैं। पुनः सराग चारित्र आर्यों के ६३ जीवाजीवाभिगमसूत्र भाग -१-२, सं. राजेन्द्रमुनिजी, श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राज.) सं. २०४८. ६४ उवंगसुत्ताणि, भाग-४ पण्णावणा, वाचनाप्रमुख आचार्य तुलसी; जैन विश्वभारती लाडनूं, सं. २०४५. Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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