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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{44} ७. चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र और गुणस्थान : आगम साहित्य में चन्द्रप्रज्ञप्ति की गणना भी उपांग साहित्य के अन्तर्गत ही की जाती है। इसके नाम से यह स्पष्ट है कि यह ग्रन्थ चन्द्र की गति आदि के सम्बन्ध में चर्चा करता है और इसप्रकार यह ग्रन्थ भी ज्योतिषविद्या से सम्बन्धित है। यद्यपि उपांग साहित्य में सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति को अलग-अलग ग्रन्थ माना गया है, किन्तु संक्षिप्त पाठभेद के अतिरिक्त इन दोनों ग्रन्थों की विषयवस्तु समान ही है। हमने पूर्व में ही यह बता दिया है कि सूर्यप्रज्ञप्ति में सूर्य के अतिरिक्त चन्द्र, ग्रह, नक्षत्रों आदि की गतियों का भी विचार है। दोनों ही ग्रन्थों का मूलपाठ समान होने के कारण हम यह कह सकते हैं कि चन्द्रप्रज्ञप्ति न केवल चन्द्र की गति का अपितु अन्य ग्रह, नक्षत्रों की गति का भी विवरण प्रस्तुत करता है। यह ग्रन्थ भी ज्योतिषविद्या से सम्बन्धित होने के कारण गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा नहीं करता है। ___ उपांगसूत्रों में जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति के पश्चात् सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, निरियावलिका, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा-ये सात उपांगों का क्रम आता है। इनमें सूर्यप्रज्ञप्ति और चन्द्रप्रज्ञप्ति का सम्बन्ध मुख्यरूप से ज्योतिष से और शेष पाँच उपांगों का सम्बन्ध कथाओं से सम्बन्धित है। इन ग्रन्थों का सामान्य अवलोकन करने पर हमें गुणस्थान सम्बन्धी कोई भी विवरण उपलब्ध नहीं होता है। इसप्रकार सम्पूर्ण उपांग साहित्य में गुणस्थानों से सम्बन्धित कुछ नामों के उल्लेख के अतिरिक्त अन्य कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती है। सम्पूर्ण उपांग साहित्य में न तो गुणस्थान शब्द का प्रयोग मिलता है और न ही गुणस्थान सम्बन्धी विशेष विवरण उपलब्ध होता है। केवल यत्र-तत्र अपूर्वकरण आदि कुछ नाम अवश्य मिलते हैं, किन्तु उन्हें गुणस्थान सिद्धान्त की विवेचना से सम्बन्धित मानना समुचित प्रतीत नहीं होता है। ८. निरियावलिकासूत्र और गुणस्थान :उपांग साहित्य में आठवें उपांग के रूप में निरियावलिका का उल्लेख है। इसे नंदीसूत्र में कालिक आगमों के वर्ग में रखा गया है। निरियावलिका नाम से ही यह स्पष्ट है कि इस उपांगसूत्र में राजा श्रेणिक के उन दस राजकुमारों का वर्णन है, जो युद्ध करते हुए मृत्यु को प्राप्त हुए और नरक में उत्पन्न हुए। यद्यपि इन दस राजकुमारों के वर्णन के अतिरिक्त राजगृही नगर और राजा श्रेणिक तथा उसके पुत्र कोणिक का भी विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है। साथ ही यह उपांग, हार और हाथी को लेकर कोणिक और उसके अन्य दस भाईयों के मध्य हुए युद्ध का भी वर्णन करता है। जिस प्रकार हिन्दू परम्परा में भाईयों के बीच हुए महाभारत नामक युद्ध का उल्लेख मिलता है, उसी प्रकार जैन परम्परा में कोणिक और उसके अन्य भाईयों के मध्य हुए युद्ध का विवरण मिलता है, जिसमें एक करोड़ अस्सी लाख लोगों को मारे जाने का उल्लेख है। कथावस्तु चाहे कुछ भी हो किन्तु इसमें हिन्दू परम्परा की उस अवधारणा का, जो युद्ध में मारा जाता है वह स्वर्ग को प्राप्त होता है, खण्डन करते हुए यह बताया गया है कि यदि वैराग्यभाव को प्राप्त न हो, तो युद्ध में मरनेवाला व्यक्ति नरक को ही प्राप्त होता है। इस निरियावलिका उपांगसूत्र में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी अवधारणा का अभाव है। ९. कल्पावतंसिकासूत्र और गुणस्थान : कल्पावतंसिकासूत्र का स्थान उपांग साहित्य में नवाँ है। इसके नाम से स्पष्ट होता है कि इसमें कल्प अर्थात देवलोकों में उत्पन्न होनेवाली जीवात्माओं के चरित्र का वर्णन है। इसमें राजा श्रेणिक के पौत्र और कालकुमार के पद्म आदि दस पुत्रों की कथाएँ हैं, जिन्होंने भगवान महावीर के पास दीक्षा ग्रहण की थी और संयमी जीवन का पालन करते हुए ये सब देवलोक में उत्पन्न हुए हैं। वहाँ से ये च्यवकर महाविदेहक्षेत्र में जन्म लेंगे और वहाँ से मुक्ति प्राप्त करेंगे। इसप्रकार इस उपांगसूत्र में वैराग्य और ६७ वही, चंदपन्नती. ६८ वही, निरियावलिका. १६ वही, कप्पवडिंसयाओ. Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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