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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
द्वितीय अध्याय........{45} संयमी जीवन के महत्त्व को स्पष्ट किया गया है। यह ग्रन्थ अत्यन्त संक्षिप्त है। इसमें कहीं भी गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा उपलब्ध नहीं है। १०. पुष्पिकासूत्र और गुणस्थान :
पुष्पिकासूत्र का उपांग साहित्य में दसवाँ स्थान है। इसके दस अध्ययन हैं और उनमें चन्द्र, सूर्य, शुक्र, बहुपुत्रिकादेवी, पूर्णभद्र, माणीभद्र, दत्तशिव, बल और अनादृष्टि की कथाएँ हैं। ये सभी ज्योतिष्क देव माने गए हैं। इन्होंने भगवान महावीर के समवसरण में उपस्थित होकर विविध प्रकार के नाटक आदि दिखाए थे। इनकी इस ऋद्धि को देखकर गौतमस्वामी ने भगवान महावीर से प्रश्न किया था कि इन्हें यह ऋद्धि कैसे प्राप्त हुई? इसके उत्तर में भगवान महावीर ने उनके पूर्वभव की कथा सुनाई और यह बताया कि इन्होंने पूर्वभव में दीक्षा ग्रहण की थी, किन्तु संयम की विराधना करने के कारण ये ज्योतिष्क देवों में उत्पन्न हुए
और वहाँ से च्यवकर महाविदेहक्षेत्र में जन्म लेकर पुनः संयम को धारणकर मोक्ष को प्राप्त करेंगे। इस ग्रंथ में गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित कोई भी चर्चा उपलब्ध नहीं है। ११. पुष्पचूलिकासूत्र और गुणस्थान :
पुष्पचूलिकासूत्र का स्थान उपांग साहित्य में ग्यारहवाँ है। इस उपांग में श्री, ही, धृति, कीर्ति, बुद्धि, लक्ष्मी, इला, सुरा आदि दस देवियों के पूर्वभव की कथा है। इनके सम्बन्ध में भी यही बताया गया है कि इन्होंने अपने पूर्वभव में दीक्षा ग्रहण की थी, फिर संयम की विराधना करने से देवियों के रूप में उत्पन्न हुई। ये भी पुनः महाविदेहक्षेत्र में जन्म धारणकर, संयम ग्रहणकर, मोक्ष को प्राप्त करेंगी। इस उपांग साहित्य में भी हमें गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कोई संकेत उपलब्ध नहीं होता है । १२. वृह्निदशा और गुणस्थान :
वृष्णिदशासूत्र का स्थान उपांग साहित्य में बारहवाँ है। इस उपांगसूत्र में द्वारिका नगरी में भगवान अरिष्टनेमी के पदार्पण और श्रीकृष्ण वासुदेव के सपरिवार उनके दर्शनार्थ जाने का वर्णन है। इसी प्रसंग में उनके भ्राता बलदेव के पुत्र निषध के अरिष्टनेमी के पास दीक्षा लेने का उल्लेख है। इसमें वृष्णिवंश के निषध आदि बारह राजकुमारों की दशा है। ये सभी भगवान अरिष्टनेमी के पास संयम ग्रहण करते हैं और विशुद्ध संयम का पालन करते हुए सर्वार्थसिद्धि विमान में देवरूप में उत्पन्न होते हैं। वहाँ से च्यवकर महाविदेहक्षेत्र में जन्म लेकर, पुनः दीक्षा लेकर संयम की साधनाकर, मोक्ष को प्राप्त करेंगे। यह उपांगसूत्र भी कथात्मक है। इसमें भी गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कोई चर्चा उपलब्ध नहीं है।
| मूलसूत्र आगम विभाग १. पिण्डनियुक्ति तथा ओघनियुक्ति और गुणस्थान :
श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में पिण्डनियुक्ति को भी मूलसूत्रों के अन्तर्गत परिगणित किया गया है, जबकि कुछ आचार्य इसके स्थान पर ओघनियुक्ति को मूलसूत्र के अन्तर्गत मानते हैं। यद्यपि ये नियुक्तियाँ आगमग्रन्थों की व्याख्या के रूप में ही हैं, फिर भी मुनि आचार से इनका निकट सम्बन्ध होने के कारण इन्हें मूलसूत्र में परिगणित किया गया है। हमारी दृष्टि में इसका एक
१०० वही, पुफियाओ. १०१ वही, पुप्फचूलियाओ. १०२ वही, वण्हिदसाओ. १०३ पिण्डनिर्यक्ति तथा ओघनियुक्ति, मुनि श्री दीपरत्नसागर, आगमदीप प्रकाशन, अहमदाबाद, सं. २०५३.
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