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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... द्वितीय अध्याय........{46} कारण यह भी हो सकता है कि दशवैकालिकसूत्र, मूलसूत्र के अन्तर्गत आता है, अतः उससे सम्बन्धित पिण्डनियुक्ति को भी मूलसूत्र के अन्तर्गत परिगणित किया गया है। इसीप्रकार ओघनियुक्ति, आवश्यकसूत्र की नियुक्ति है, इसीलिए कुछ आचार्य इसे भी मूलसूत्रों के अन्तर्गत मानते हैं। यहाँ हमारा प्रयोजन तो आगम साहित्य के अन्तर्गत गुणस्थान सिद्धान्त की खोज करना ही है, इसीलिए नियुक्तियों के सम्बन्ध में विशेष गहराई में न जाकर हम केवल यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि इन दोनों नियुक्तियों में कहीं गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा है। इन नियुक्तियों में पिण्डनियुक्ति की विषयवस्तु मूलतः मुनि की भिक्षाचर्या से सम्बन्धित है। जैसा कि हमने स्पष्ट किया है कि पिण्डनियुक्ति का मुख्य सम्बन्ध भिक्षाचर्या से है, इसमें पिण्ड शब्द की व्याख्या करने के पश्चात् भिक्षा के उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजना सम्बन्धी दोषों की विस्तृत चर्चा की गई है। अन्त में भिक्षा के परिमाण और आहार ग्रहण करने के कारणों की चर्चा है। इसमें आहार ग्रहण करने के छः कारण बताए गए हैं। वैसे इन छ: कारणों की चर्चा अन्यत्र भी मिलती है। ये छः कारण हैं - (१) क्षुधानिवारण (२) प्राणरक्षा (३) ईर्यासमिति का पालन (४) संयम का पालन (५) ध्यान और स्वाध्याय आदि करने हेतु तथा (६) अन्य साधुओं की सेवा (वैयावच्च) के लिए मुनि आहार कर सकता है। इसीप्रकार छः कारणों से आहार का निषेध किया गया है। वे छः कारण इस प्रकार हैं - (१) आतंक (२) उपसर्ग (३) ब्रह्मचर्य का पालन (४) प्राणीदया (५) तप तथा (६) समाधिमरण। इस प्रकार हम देखते हैं कि यह सम्पूर्ण ग्रन्थ मुख्यतः भिक्षाचर्या से ही सम्बन्धित है। इसमें भी कहीं भी गुणस्थान सिद्धान्त का विवेचन उपलब्ध नहीं हुआ है। अतः यह स्वाभाविक है कि इस नियुक्ति में गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा उपलब्ध न हो। पिण्डनियुक्ति की गाथाओं का अवलोकन करने पर हमें कहीं भी गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कोई संकेत नहीं मिले हैं । मुनि आचार से सम्बन्धित होने के कारण इस नियुक्ति में संयत, विरत आदि पद तो मिल जाते हैं, किन्तु उनका सम्बन्ध गुणस्थान सिद्धान्त से नहीं है। ____ ओघनियुक्ति को भी कुछ आचार्यों ने मूलसूत्रों के रूप में स्वीकार किया है। ओघनियुक्ति को आवश्यकनियुक्ति की पूरक माना है। आवश्यक नियुक्ति पर वर्तमान में विशेषावश्यकभाष्य उपलब्ध होता है, किन्तु विशेषावश्यकभाष्य की मूलगाथाओं में भी गुणस्थान सिद्धान्त की कोई चर्चा उपलब्ध नहीं होती है। ओघनियुक्ति, आवश्यकनियुक्ति की पूरक है। इसमें मंगल और उपसंहार गाथाओं के अतिरिक्त सात द्वार पाए जाते हैं - (१) प्रतिलेखनाद्वार (२) पिण्डद्वार (३) उपधिपरिमाणद्वार (४) अनायतनवर्जनद्वार (५) प्रतिसेवनाद्वार (६) आलोचनाद्वार और (७) विशुद्धिद्वार । प्रतिलेखनाद्वार में, प्रतिलेखना कितने प्रकार की है, किन परिस्थितियों में, किस प्रकार से, प्रतिलेखना करना आदि की विस्तृत चर्चा की है। दूसरे पिण्डद्वार में भिक्षा सम्बन्धी विधि और तत्सम्बन्धी उत्सर्ग-अपवाद मार्ग की चर्चा की है। उपधिपरिमाण नामक तृतीय द्वार में मुनि की आवश्यक उपधि कितनी है, उसमें भी जिनकल्पी, स्थविरकल्पी आदि मुनियों की अपेक्षा से उनकी संख्या और परिमाण की बात की है। चतुर्थ अनायतनवर्जनद्वार में साधु का किस प्रकार से आचार-व्यवहार करने और मुनियों के अयोग्य क्रियाओं का त्याग करके मुनि के योग्य गुणों को धारण करने के सम्बन्ध में विवेचन किया गया है। पंचम प्रतिसेवनाद्वार में मुख्यरूप से मुनि जीवन के नियमों में हुई विराधना या स्खलना की चर्चा है। षष्ठ आलोचनाद्वार में उन स्खलनाओं, विराधनाओं या व्रतभंग की आलोचना किस प्रकार करना इसका निर्देश किया गया है। अन्तिम सप्तम विशुद्धिद्वार में आलोचना द्वारा आत्म-विशुद्धि की प्रक्रिया बताई गई है। ओघनियुक्ति की विषयवस्तु के उपर्युक्त स्पष्टीकरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि उसमें गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विवेचन का अभाव है। यद्यपि ओघनियुक्ति का सातवाँ विशुद्धिद्वार ऐसा था, जहाँ गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन प्रस्तुत किया जा सकता था, किन्तु यह द्वार अत्यन्त संक्षिप्त है। इसमें मात्र १३ गाथाएँ हैं। उनमें कहीं भी गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विवेचन नहीं है। ओधनियुक्ति के इन सप्तद्वारों में प्रतिलेखनाद्वार और पिंडद्वार ही अति विस्तृत है। इनमें लगभग ५००-५०० गाथाएँ है। उपधिद्वार मध्यम आकार का है। उसमें लगभग १०० गाथाएँ हैं। शेष सभी द्वार अत्यन्त संक्षिप्त है और उनमें कहीं भी गुणस्थान सम्बन्धी कोई विवेचन नहीं है। । Jain Education Intemational mtemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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