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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....... पंचम अध्याय.... .{323} संघयण (३६) ऋषभनाराच संघयण (४०) नाराच संघयण (४१) अर्द्धनाराच संघयण (४२) कीलिका संघयण (४३) सेवार्त संघयण (४४) समचतुरस्र संस्थान (४५) न्यग्रोधपरिमंडल संस्थान (४६) सादि संस्थान (४७) वामन संस्थान (४८) कुब्ज संस्थान (४६) हुंडक संस्थान (५०) कृष्णवर्ण (५१) नीलवर्ण (५२) लोहितवर्ण (५३) हरिद्रवर्ण (५४) शुक्लवर्ण (५५) सुरभिगन्ध ( ५६ ) दुरभिगन्ध (५७) तिक्तरस (५८) कटुकरस (५६) कषायरस (६०) अम्लरस (६१) मधुररस (६२) कर्कशस्पर्श (६३) मृदुस्पर्श (६४) लघुस्पर्श (६५) गुरुस्पर्श (६६) शीतस्पर्श (६७) ऊष्णस्पर्श (६८) स्निग्धस्पर्श (६६) रूक्षस्पर्श (७०) नरकानुपूर्वी (७१) तिर्यंचानुपूर्वी (७२) मनुष्यानुपूर्वी (७३) देवानुपूर्वी (७४) शुभविहायोगति (७५) अशुभविहायोगति (७६) पराघात नामकर्म (७७) उच्छ्वास नामकर्म (७८) आतप नामकर्म (७६) उद्योत नामकर्म (८०) अगुरुलघु नामकर्म (८१) तीर्थंकर नामकर्म (८२) निर्माण नामकर्म (८३) उपघात नामकर्म (८४) त्रसनामकर्म (८५) बादर नामकर्म (८६) पर्याप्त नामकर्म (८७) प्रत्येक नामकर्म (८८) स्थिर नामकर्म (८६) शुभ नामकर्म (६०) सौभाग्य नामकर्म (६१) सुस्वर नामकर्म (६२) आदेय नामकर्म (६३) यश नामकर्म (६४) स्थावर नामकर्म (६५) सूक्ष्म नामकर्म (६६) अपर्याप्त नामकर्म (६७) साधारण नामकर्म (६८) अस्थिर नामकर्म (६६) अशुभ नामकर्म (१००) दौर्भाग्य नामकर्म (१०१) दु:स्वर नामकर्म (१०२) अनादेय नामकर्म (१०३) अपयश नामकर्म । (७) गोत्र कर्म की दो कर्मप्रकृतियाँ - (१) उच्चगोत्र ( २ ) नीचगोत्र । (८) अन्तराय कर्म की पांच कर्मप्रकृतियाँ - ( १ ) दानान्तराय (२) लाभान्तराय (३) भोगान्तराय (४) उपभोगान्तराय और (५) वीर्यान्तराय । इन १५८ उत्तर कर्मप्रकृतियों में से बन्ध योग्य १२० कर्मप्रकृतियाँ मानी गई हैं, उदय एवं उदीरणा योग्य कर्मप्रकृतियों की संख्या १२२ है, क्योंकि मिथ्यात्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय और सम्यक्त्व मोहनीय इन तीन रूपों में होता है। मिश्र मोहनीय और सम्यक्त्व मोहनीय इन दो प्रकृतियों का बन्ध नही होता है, किन्तु उदय रहता है, इस कारण से उदय एवं उदीरणा के योग्य १२२ कर्मप्रकृतियाँ मानी गई हैं । जहाँ तक सत्ता योग्य कर्मप्रकृतियों का प्रश्न है, उनकी संख्या १४८ या १५८ मानी जाती है । इसप्रकार बन्ध योग्य कर्मप्रकृतियों की अपेक्षा इनकी संख्या ३८ अधिक है । वहीं उदय एवं उदीरणा योग्य प्रकृतियों की अपेक्षा इनकी संख्या ३६ अधिक है । ये ३६ कर्मप्रकृतियाँ मूलतः नामकर्म से सम्बन्धित है । नामकर्म की प्रकृतियों की गणना मुख्यतया चार प्रकार से की जाती है । एक वर्गीकरण के अनुसार नामकर्म की ४२ प्रकृतियाँ मानी गई । इनका वर्गीकरण इसप्रकार है- १४ पिंड प्रकृतियाँ, ८ प्रत्येक प्रकृतियाँ, १० त्रसदशक और १० स्थावरदशक की प्रकृतियाँ (१४+८+१०+ १० = ४२) बयालीस है। जब नामकर्म की संख्या ६७ माने, तो उनका वर्गीकरण इसप्रकार है - गति चार, जाति पांच, शरीर पांच, उपांग तीन, संघयण छः, संस्थान छः, वर्ण, गंध, रस और स्पर्श की चार, आनुपूर्वी चार, विहायोगति दो (४ + ५ + ५ + ३ + ६ + ६ + ४ + ४ + २ = ३६) ये ३६ पिंड प्रकृतियाँ, ८ प्रत्येक प्रकृतियाँ, १० त्रसदशक और १० स्थावरदशक प्रकृतियाँ (३६ + ८ + १० + १० = = ६७) सड़सठ होती है । पुनः जब नामकर्म प्रकृतियों की संख्या ६३ मानी जाती है, तो उसमें पांच बन्धन, पांच संघातन, वर्णादि चार के स्थान पर बीस भेद करने पर (६७ +५+५+ १६ = ६३) कर्मप्रकृतियाँ होती है । इसमें भी बन्धन के पांच भेद के स्थान पर पन्द्रह भेद करने पर नामकर्म की १०३ कर्मप्रकृतियाँ हो जाती है । इस प्रकार सत्ता की अपेक्षा से ज्ञानावरणीय-५, दर्शनावरणीय-६, वेदनीय-२, मोहनीय-२८, आयु- ४, नाम- १०३, गोत्र - २ और अन्तराय - ५, इसप्रकार कुल १५८ प्रकृतियाँ सत्ता योग्य होती है । इस प्रकार प्रथम कर्मग्रन्थ में बन्ध योग्य, उदय एवं उदीरणा तथा सत्ता योग्य कर्मप्रकृतियों की चर्चा है । इसके साथ ही उसमें कर्मों के विपाक के स्वरूप की भी चर्चा है, किन्तु यहाँ हमारा सम्बन्ध केवल गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन की अपेक्षा से कर्मप्रकृतियों का उल्लेख ही आवश्यक प्रतीत होता है । वह भी इसीलिए कि अगले कर्मग्रन्थों में गुणस्थान सम्बन्धी जो चर्चा हमें उपलब्ध होती है, वह इन्हीं कर्मप्रकृतियों के बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा, बन्ध-विच्छेद, क्षय या उपशम से सम्बन्धित है । इसीलिए कर्मविपाक नामक प्रथम कर्मग्रन्थ की चर्चा को मात्र कर्मप्रकृतियों के उल्लेख के साथ विराम देते है । 'कर्मस्तव नामक द्वितीय कर्मग्रन्थ और गुणस्थान सिद्धान्त : द्वितीय कर्मग्रन्थ का नाम कर्मस्तव है । इस कर्मग्रन्थ में विभिन्न गुणस्थानों में किन-किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध तथा बन्ध विच्छेद होता है, किन-किन कर्मप्रकृतियों का उदय एवं उदय विच्छेद होता है, किन-किन कर्मप्रकृतियों की उदीरणा एवं उदीरणा विच्छेद होता है तथा किन कर्मप्रकृतियों की सत्ता तथा क्षय होता है, इन आठ विषयों का विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है । वैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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