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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{322} की चर्चा भी गुणस्थान की अवधारणा से सम्बन्धित है, क्योंकि गुणस्थान सम्बन्धी विकास यात्रा इन दोनों श्रेणियों के माध्यम से ही होती है । इस कर्मग्रन्थ में गुणस्थान सम्बन्धी जो महत्वपूर्ण सूचना उपलब्ध होती है, वह यह कि किस गुणस्थान का परित्याग करके कालान्तर में उसकी पुनः प्राप्ति में जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल कितना होता है । यह चर्चा पंचम कर्मग्रन्थ की गाथा क्रमांक-८४ में की गई है।
देवेन्द्रसूरि कृत नवीन कर्मग्रन्थ पांच ही हैं । छठे कर्मग्रन्थ के रूप में चन्द्रर्षिमहत्तर कृत सप्ततिका को यथावत् स्वीकार किया गया है । सप्ततिका के सन्दर्भ में विशेष चर्चा हमने प्राचीन षट् कर्मग्रन्थों के सन्दर्भ में की है । अतः यहाँ उसकी चर्चा करना आवश्यक नहीं है। कर्मविपाक नामक प्रथम कर्मग्रन्थ में वर्णित कर्मप्रकृतियाँ :
जैन कर्म साहित्य गुणस्थान सिद्धान्त की विवेचना की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है । गुणस्थानों की अवधारणा का आधार वस्तुतः कर्मप्रकृतियों के बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा, उपशम एवं क्षय से है । अतः गुणस्थान सिद्धान्त को समझने के लिए कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय आदि को समझना बहुत आवश्यक है । कर्मप्रकृतियों की सम्यक् समझ के बिना गुणस्थान सिद्धान्त को नहीं समझा जा सकता । विभिन्न गुणस्थानों के सम्यक् स्वरूप को समझने के लिए यह जानना आवश्यक है कि उनमें कौन-कौन सी कर्मप्रकृतियों का बन्ध या बन्ध विच्छेद सम्भव होता है, कौन-कौन सी कर्मप्रकृतियों की सत्ता रहती है, किन कर्मप्रकृतियों का उदय एवं उदीरणा होती है और किनका क्षय एवं उपशम होता है । अतः कर्मप्रकृतियों के स्वरूप पश्चात् ही हम गुणस्थानों के स्वरूप को सम्यक् प्रकार से समझ सकेंगे । यही कारण रहा होगा कि कर्म साहित्य में नवीन एवं प्राचीन कर्मग्रन्थों में सर्वप्रथम कर्मप्रकृतियों की चर्चा की गई है । कर्मविपाक नामक प्रथम कर्मग्रन्थ में मूल आठ कर्मों की, १५८ कर्मप्रकृतियों का उल्लेख हुआ है। इन १५८ कर्मप्रकृतियों में बन्ध योग्य १२० कर्मप्रकृतियाँ हैं, उदय तथा उदीरणा योग्य १२२ कर्मप्रकृतियाँ तथा सत्ता योग्य १४८ या १५८ कर्मप्रकृतियाँ हैं।
ये १५८ कर्मप्रकृतियाँ निम्न हैं -
(१) ज्ञानावरणीय कर्म की पांच कर्मप्रकृतियाँ -(१) मतिज्ञानावरणीय (२) श्रुतज्ञानावरणीय (३) अवधिज्ञानावरणीय (४) मनःपर्यवज्ञानावरणीय (५) केवलज्ञानावरणीय ।
(२) दर्शनावरणीय कर्म की नौ कर्मप्रकृतियाँ -(१) चक्षुदर्शनावरणीय (२) अचक्षुदर्शनावरणीय (३) अवधिदर्शनावरणीय (४) केवलदर्शनावरणीय (५) निद्रा (६) निद्रा-निद्रा (७) प्रचला (८) प्रचला-प्रचला (E) स्त्यानर्द्धि ।
(३) वेदनीय कर्म की दो कर्मप्रकृतियाँ - (१) शातावेदनीय (२) अशातावेदनीय
(४) मोहनीय कर्म की अट्ठाईस कर्मप्रकृतियाँ - (१) मिथ्यात्वमोहनीय (२) मिश्रमोहनीय (३) सम्यक्त्व मोहनीय (४) अनन्तानुबन्धी क्रोध (५) अनन्तानुबन्धी मान (६) अनन्तानुबन्धी माया (७) अनन्तानुबन्धी लोभ (८) अप्रत्याख्यानीय क्रोध (E) अप्रत्याख्यानीय मान (१०) अप्रत्याख्यानीय माया (११) अप्रत्याख्यानीय लोभ (१२) प्रत्याख्यानीय क्रोध (१३) प्रत्याख्यानीय मान (१४) प्रत्याख्यानीय माया (१५) प्रत्याख्यानीय लोभ (१६) संज्वलन क्रोध (१७) संज्वलन मान (१८) संज्वलन माया (१६) संज्वलन लोभ (२०) हास्य मोहनीय (२१) रति मोहनीय (२२) अरति मोहनीय (२३) शोक मोहनीय (२४) भय मोहनीय (२५) जुगुप्सा मोहनीय (२६) पुरुषवेद (२७) स्त्रीवेद और (२८) नपुंसकवेद ।।
(५) आयुष्यकर्म की चार कर्मप्रकृतियाँ - (१) नरकायु (२) तिर्यंचायु (३) मनुष्यायु (४) देवायु ।
(६) नामकर्म की १०३ कर्मप्रकृतियाँ - (१) नरकगति नामकर्म (२) तिर्यंचगति नामकर्म (३) मनुष्यगति नामकर्म (४) देवगति नामकर्म (५) एकेन्द्रियजाति (६) द्वीन्द्रियजाति (७) त्रीन्द्रियजाति (८) चतुरिन्द्रियजाति (६) पंचेन्द्रियजाति (१०) औदारिक शरीर (११) वैक्रिय शरीर (१२) आहारक शरीर (१३) तैजस शरीर (१४) कार्मण शरीर (१५) औदारिक अंगोपांग (१६) वैक्रिय अंगोपांग (१७) आहारक अंगोपांग (१८) औदारिक औदारिक बन्धन (१६) औदारिक तैजस बन्धन (२०) औदारिक कार्मण बन्धन (२१) वैक्रिय वैक्रिय बन्धन (२२) वैक्रिय तैजस बन्धन (२३) वैक्रिय कार्मण बन्धन (२४) आहारक आहारक बन्धन (२५) आहारक तैजस बन्धन (२६) आहारक कार्मण बन्धन (२७) औदारिक तैजस कार्मण बन्धन (२८) वैक्रिय तैजस कार्मण बन्धन (२८) आहारक तैजस कार्मण बन्धन (३०) तैजस तैजस बन्धन (३१) तैजस कार्मण बन्धन (३२) कार्मण कार्मण बन्धन (३३) औदारिक संघातन (३४) वैक्रिय संघातन (३५) आहारक संघातन (३६) तैजस संघातन (३७) कार्मण संघातन (३८) वज्रऋषभनाराच
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