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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{321} गुणस्थानों को अवतरित किया गया है और फिर उस अवस्था में किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध सम्भव होता है, इसका निर्देश किया गया है । वस्तुतः यह ग्रन्थ मार्गणास्थानों में गुणस्थानों का किस प्रकार अन्तर्भाव होता है, अर्थात् किस मार्गणा में कितने गुणस्थान होते हैं, इसकी विस्तृत चर्चा करता है । इसप्रकार तृतीय कर्मबन्ध का सम्बन्ध मार्गणाओं और गुणस्थानों के सहसम्बन्ध को लेकर है । कौन-सी मार्गणा में और कौन-से गुणस्थान में रहा हुआ जीव, किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध कर सकता है, इसकी विस्तृत चर्चा इसमें उल्लेखित है । इसका बन्धस्वामित्व नाम भी यही सूचित करता है कि किन कर्मप्रकृतियों के बन्ध की योग्यता किस मार्गणा में और किस गुणस्थान में रहे हुए जीव को होती है, अर्थात् उनके बन्ध का स्वामी कौन जीव है।' नव्य चतुर्थ कर्मग्रन्थ का नाम षडशीति है । इसका यह नामकरण इसकी गाथा संख्या के आधार पर हुआ है । इसमें ८६ गाथाएँ है । इसका अन्य नाम सूक्ष्मार्थविचार भी है । इसमें मूलतः जीवस्थान, मार्गणास्थान और गुणस्थानों की चर्चा है । इसमें सर्वप्रथम गुणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या, बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता-इन आठ द्वारों की अपेक्षा से जीवस्थानों की चर्चा है। इसी क्रम में आगे जीवस्थान, गुणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या और अल्प बहुत्व - इन छः द्वारों के आधार पर मार्गणास्थानों की चर्चा की गई है और अन्त में गुणस्थान सम्बन्धी विचारणा में जीवस्थान, गुणस्थान, योग, उपयोग, लेश्या, बन्धहेतु, बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता और अल्प-बहुत्व-इन दस विषयों को लेकर चर्चा की गई है । इस प्रकार हम देखते हैं कि षडशीति में जीवस्थानों और मार्गणास्थानों में जहाँ गुणस्थानों को घटित किया गया है, वहीं गुणस्थानों में जीवस्थानों को घटित किया गया है । इस प्रकार गुणस्थान सिद्धान्त की दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । षडशीति में जीवस्थान और मार्गणास्थानों में गुणस्थानों का और गुणस्थानों में जीवस्थानों और मार्गणाओं का जो अन्तर्भाव किया गया है, वह बहुत कुछ रूप में पूज्यपाद देवनन्दी की सवार्थसिद्धि टीका के समरूप ही है । इसकी तीसरी गाथा में चौदह जीवस्थानों में, किस जीवस्थान में कौन-कौन से गुणस्थान सम्भव होते हैं, इसकी चर्चा है । इसके पश्चात् इसकी गाथा संख्या-१६ से लेकर-२३ तक में बासठ मार्गणाओं में, किस मार्गणा में कितने गुणस्थान सम्भव होते है, इसकी चर्चा है । गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा में सर्वप्रथम गाथा क्रमांक ४५ में यह बताया गया है कि किस गुणस्थान में कितने जीवस्थान होते है, इसका विवेचन है । इसके पश्चात् योग, उपयोग, लेश्या, बन्धहेतु, बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा और अल्प-बहुत्व की दृष्टि से चौदह गुणस्थानों की चर्चा हुई है । इसप्रकार षडशीति नामक चतुर्थ कर्मग्रन्थ में गुणस्थान सन्बन्धी विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है । इस पर हम आगे विस्तार से चर्चा करेंगे। नवीन पंचम कर्मग्रन्थ का नाम शतक है, क्योंकि इसमें १०० गाथाएँ है । गुणस्थान सिद्धान्त की दृष्टि से यह पंचम कर्मग्रन्थ विशेष महत्वपूर्ण नहीं माना जाता है, क्योंकि इसमें गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा अल्प रूप में ही देखी जाती है । इस कर्मग्रन्थ की विषयवस्तु भी प्रथम कर्मग्रन्थ वर्णित कर्मप्रकृतियों से सम्बन्धित है। विशेषता यह है कि इसमें इन बातों पर विस्तार से चर्चा की गई है कि कौन-सी कर्मप्रकृतियाँ ध्रुवबन्धवाली हैं और कौन-सी कर्मप्रकृतियाँ अध्रुवबन्धवाली हैं, किन कर्मप्रकृतियों का धुवोदय रहता है और किन कर्मप्रकृतियों का अध्रुवोदय रहता है । इसी क्रम में आगे धुवसत्तावाली और अधुवसत्तावाली कर्मप्रकृतियों की चर्चा है । इसी क्रम में आगे देशघाती, सर्वघाती, अघाती कर्मप्रकृतियों का वर्गीकरण प्रस्तुत किया गया है। पुनः इन कर्मप्रकृतियों में कौन-सी कर्मप्रकृतियाँ पुण्य की है और कौन-सी कर्मप्रकृतियाँ पाप की है, कौन-सी कर्मप्रकृतियाँ क्षेत्रविपाकी, कौन-सी कर्मप्रकृतियाँ जीवविपाकी, कौन-सी कर्मप्रकृतियाँ भवविपाकी और कौन-सी कर्मप्रकृतियाँ पुद्गलविपाकी हैं, इसका इस ग्रन्थ में सविस्तार विवेचन है । पुनः कर्मप्रकृतियों के प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध-इन चार प्रकार के बन्ध की भी विस्तृत विवेचना इस पंचम कर्मग्रन्थ में मिलती है । जहाँ तक गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा का प्रश्न है, इसकी गाथा क्रमांक १०-११-१२ में किस गुणस्थान में किन कर्मप्रकृतियों की ध्रुवसत्ता होती है, इसकी चर्चा है । इसीप्रकार इसकी गाथा क्रमांक-४ से लेकर-८ तक किन गुणस्थान में किन कर्मप्रकृतियों की धुवसत्ता अथवा धुवोदय अथवा अधुवोदय आदि होते हैं, इसकी चर्चा है। इसीप्रकार इस कर्मग्रन्थ में गुणस्थान की आधारभूत गुणश्रेणियों की भी चर्चा पाई जाती है । गुणश्रेणियों की इस चर्चा में विशेषरूप से उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी की चर्चा भी इस कर्मग्रन्थ के अन्तिम भाग में की गई है । उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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