________________
प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
I
पंचम अध्याय.......{319} इसका नाम सप्ततिका है । इस ग्रन्थ के कठिन विषय को सरल बनाने के लिए इस पर रचित भाष्य में से कुछ गाथाएं प्रक्षिप्त की गई हैं, जिससे वर्तमान में ६१ गाथाएं दृष्टिगत होती है । इस ग्रन्थ पर अभयदेवसूरि ने १६१ गाथावाला भाष्य बनाया है । चूर्णि के कर्ता अज्ञात है । चन्द्रर्षि महत्तर कृत प्राकृत वृत्ति है और मलयगिरिजी कृत संस्कृत टीका है तथा मेरूतुंगाचार्य की विक्रम संवत् १४४६ में रचित भाष्यवृत्ति है । श्री गुणरत्नसूरिजी की विक्रम की १५ वीं सदी में रचित अवचूरि भी है । जहाँ तक सप्ततिका के विषय का प्रश्न है, इसमें अष्ट मूल प्रकृतियों और उनकी उत्तर प्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता आदि की चर्चा के साथ-साथ गुणस्थानों की भी चर्चा उपलब्ध होती है। इसमें यह स्पष्ट रूप से बताया गया है कि किस गुणस्थान में किन कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है । सप्ततिका प्राचीन और नवीन दोनों कर्मग्रन्थों में समान है । अतः इससे गुणस्थान सम्बन्धी जो विवेचना उपलब्ध होती है, वह नवीन कर्मग्रन्थों के प्रसंग में की है । देवेन्द्रसूरि ने पांच ही कर्मग्रन्थ लिखे थे । सप्ततिका तो दोनों में समान ही है !
1
प्राचीन कर्मग्रन्थों में तीसरा स्थान कर्मस्तव का है । कर्मस्तव के कर्ता का नाम अनुपलब्ध है । इसमें ५७ गाथाएं है । इस पर अज्ञात लेखकों के दो भाष्य, दो संस्कृत टीकाएं तथा तेरहवीं शताब्दी की वृत्ति और टिप्पण उपलब्ध होते हैं । टीकाओं के कर्ता क्रमशः गोविन्दाचार्य और उदयप्रभसूरिजी है । इस द्वितीय कर्मग्रन्थ का 'बन्धोदय सद् युक्त स्तव' - ऐसा दूसरा नाम भी है । प्रयत्न करने पर भी हमें यह कृति उपलब्ध नहीं हो सकी । विषय वस्तु की दृष्टि से यह माना जाता है कि नवीन कर्मस्तव और प्राचीन कर्मस्तव की विषय वस्तु समान है । अतः यह मानकर कि इसमें गुणस्थान सम्बन्धी जो विवरण है वह नवीन कर्मस्तव के समान ही होगा । यहाँ हम इस सम्बन्ध में विशेष चर्चा नहीं कर रहे हैं । इसकी गुणस्थान सम्बन्धी विषय वस्तु को नवीन देवेन्द्रसूरिकृत कर्मस्तव में देखा जा सकता है ।
कालक्रम की दृष्टि से प्राचीन कर्मग्रन्थों में चतुर्थ स्थान बन्धस्वामित्व का है । इसके कर्ता भी अज्ञात है । इस ग्रन्थ पर एक संस्कृत टीका है । इस टीका के कर्ता बृहद्गच्छीय श्री मानदेवसूरिजी के शिष्य हरिभद्रसूरि है, जो याकिनीमहत्तरासुनू हरिभद्र से भिन्न है । इस टीका की रचना विक्रम संवत् ११७२ में अर्थात् विक्रम की बारहवीं शताब्दी में हुई है । यह ग्रन्थ भी हमें उपलब्ध नहीं हो सका है, अतः इस सम्बन्ध में विशेष कुछ कह पाना सम्भव नही है ।
प्राचीन कर्मग्रन्थों में कालक्रम की दृष्टि से पांचवाँ स्थान कर्मविपाक है। इसमें १६८ गाथाएं हैं । इसके रचनाकार गर्गर्षि है । इनका काल नवीं दसवीं शताब्दी है । उदित कर्मों के फल का वर्णन होने से इस ग्रन्थ का नाम कर्मविपाक है । कर्मविपाक पर बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में लिखी हुई परमानंदसूरिजी कृत टीका और उदयप्रभसूरिजी कृत टिप्पण है ।
जहाँ तक प्राचीन कर्मविपाक नामक कर्मग्रन्थ की विषय वस्तु का प्रश्न है, यह मुख्यतया कर्मप्रकृतियों के विपाक की ही चर्चा करता है । यह कृति भी हमें उपलब्ध नहीं हो सकी है। नवीन कर्मग्रन्थों में कर्मविपाक का स्थान प्रथम है । उसमें भी गुणस्थान सम्बन्धी कोई चर्चा उपलब्ध नहीं होती है । अतः कृति की अनुपलब्धता और नवीन कर्मविपाक नामक ग्रन्थ से उसकी समरूपता
ध्यान में रखकर यह माना जा सकता है कि इसमें गुणस्थान सम्बन्धी चर्चा का अभाव ही होगा । यहाँ यह अवश्य ज्ञातव्य है कि नवीन कर्मविपाक नामक कर्मग्रन्थ में मात्र ६१ गाथाएं हैं, वहीं इसमें १६८ गाथाएं है । अतः यह तो मानना ही होगा कि नवीन कर्मविपाक नामक कर्मग्रन्थ की अपेक्षा प्राचीन कर्मविपाक नामक कर्मग्रन्थ में कर्मप्रकृतियों की चर्चा अधिक विस्तार से होगी ।
प्राचीन षट् कर्मग्रन्थों में षडशीति छठा कर्मग्रन्थ है । इसके कर्ता जिनेश्वरसूरि के शिष्य जिनवल्लभगणि है । जिनका काल विक्रम की बारहवीं शताब्दी है । इसमें ८६ गाथाएं हैं । इसकी संख्या के आधार पर इसका नाम षडशीति रखा गया है । इस पर अज्ञातकृत दो संक्षिप्त भाष्य, जिनमें अनुक्रम से २३ और ३८ गाथाएं है तथा तीन संस्कृत टीकाएं हैं - एक बृहद्गच्छीय हरिभद्रसूरि कृत, दूसरी मलयगिरिजी कृत तथा तीसरी यशोभद्रसूरि कृत; ये टीकाएं विक्रम की बारहवीं शताब्दी में लिखी गई हैं। जिनवल्लभगणि का स्वर्गवास विक्रम संवत् ११६७ में हुआ ।
प्राचीन कर्मग्रन्थों में षडशीति छठा कर्मग्रन्थ माना गया है, जबकि नवीन कर्मग्रन्थों में षडशीति का चतुर्थ स्थान है । यह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org