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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...
पंचम अध्याय........{318} उदय सम्बन्धी संवेध की चर्चा है। सर्वप्रथम ज्ञानावरणीय कर्म के बन्ध, सत्ता और उदय सम्बन्धी स्थान का विचार किया गया है। इसके पश्चात् आयुष्य कर्म के बन्ध, सत्ता और उदय स्थानों का उल्लेख है। इसके पश्चात् दर्शनावरणीय कर्म के बन्ध, सत्ता और उदय स्थानों का विचार किया गया है। दर्शनावरणीय के पश्चात् गोत्रकर्म के बन्ध, सत्ता और उदय स्थानों का उल्लेख है। उसके पश्चात् वेदनीयकर्म के बन्ध, सत्ता और उदय स्थानों का विचार किया गया है। इसके पश्चात् मोहनीयकर्म तथा अन्त में नामकर्म के बन्ध, सत्ता और उदय सम्बन्धी स्थानों के संवेध का विवेचन किया गया है। इस समस्त चर्चा में गुणस्थान सम्बन्धी विचार को लक्ष्य में रखा गया है और उसी अपेक्षा से यह चर्चा हुई है। इस विवेचन में बन्धस्थान, सत्तास्थान और उदयस्थानों का जो उल्लेख है, उसका तात्पर्य यही है कि किसी भी कर्म की जितनी कर्मप्रकृतियाँ एक साथ बन्ध, सत्ता और उदय में रहती हैं; उसको एक बन्धस्थान, एक सत्तास्थान और एक उदयस्थान कहते हैं। जैसे- दर्शनावरणीय कर्म की नौ प्रकृतियों में से एक साथ नौ, छ: और चार का बन्ध, उदय या सत्ता रहती है, अतः उसके तीन बन्धस्थान, तीन उदयस्थान और तीन सत्तास्थान होते हैं- ऐसा सभी कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय आदि स्थान को भी समझना चाहिए। स्थानों की अपेक्षा से यह चर्चा पंचसंग्रह के सप्ततिका नामक तृतीय खण्ड में विशेष रूप से मिलती है। विस्तार भय से सम्पूर्ण चर्चा प्रस्तुत नहीं कर पा रहे है। यहाँ केवल इस तृतीय खण्ड के वैशिष्ट्य का ही संकेत किया है।
त्र प्राचीन कर्मग्रन्थ और गुणस्थान
जहाँ तक श्वेताम्बर कर्मसाहित्य का प्रश्न है, कर्मप्रकृति और पंचसंग्रह के पश्चात् प्राचीन षट् कर्मग्रन्थों का उल्लेख उपलब्ध होता है । इन प्राचीन षट्कर्मग्रन्थों में कालक्रम की दृष्टि से शतक और सप्ततिका प्राचीन है । शतक अथवा बन्धशतक शिवशर्मसूरि की ही कृति मानी जाती है । इस कर्मग्रन्थ में १०० गाथाएं हैं । इस कर्मग्रन्थ पर तीन भाष्य, एक चूर्णि और तीन टीकाएं उपलब्ध होती हैं । भाष्यों में दो भाष्य तो अत्यन्त संक्षिप्त, मात्र २४-२४ गाथाओं के है । इनके कर्ता अज्ञात हैं। तृतीय भाष्य चकेरश्वरजी का है जो १४-१३ गाथाओं में लिखा गया है । चूर्णि के कर्ता अज्ञान है । तीन टीकाओं कर्ता मलधार श्री हेमचन्द्राचार्यजी है, दूसरी टीका के कर्ता श्री उदयप्रभसूरिजी है और तीसरी टीका के कर्ता श्री गुणरत्नसूरिजी है । ये तीन टीकाएं अनुक्रम से विक्रम की बारहवीं, तेरहवीं और पन्द्रहवीं सदी में लिखी गई हैं । इस ग्रन्थ में गुणस्थान सम्बन्धी निम्न उल्लेख मिलते हैं -
शतक नामक इस प्राचीन कर्मग्रन्थ की नवीं गाथा में संयम मार्गणा के सम्बन्ध में यह बताया गया है कि चौदह गुणस्थानों में असंयत में पांच गुणस्थान, संयत में नौ गुणस्थान, सम्भव होते हैं । देशविरत भी आंशिक रूप से असंयत ही होता है । इसकी गणना असंयत में ही की गई है । दसवीं गाथा में गतिमार्गणा के प्रसंग में यह कहा गया है कि देव और नारकों में चार गुणस्थान तिर्यंचों में पांच गुणस्थान, मनुष्यों में चौदह गुणस्थान सम्भव है । उदीरणा सम्बन्धी चर्चा में यह बताया गया है कि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर प्रमत्तंसयत गुणस्थान तक उदय और उदीरणा में समरूपता होती है। आगे के गुणस्थानों में उदय और उदीरणा में अन्तर होता है । अयोगीकेवली में कोई उदीरणा नहीं होती है । यहाँ गाथा क्रमांक २६ से लेकर ३३ तक किस गुणस्थानवर्ती जीव किन कर्मों की उदीरणा करता है, उसका भी उल्लेख है । इसके पश्चात् गाथा क्रमांक ४३ से लेकर ४६ तक बन्ध सम्बन्धी चर्चा उपलब्ध होती है । किस गुणस्थानवी जीव कितनी कर्मप्रकृतियों का बन्ध करता है, यह बताया गया है।
इस सम्बन्ध में आगे नवीन कर्मग्रन्थों के सन्दर्भ के विस्तार में चर्चा की गई है । यहाँ हम केवल संकेत मात्र दे रहे हैं । इसी क्रम में इसकी ५६ वीं गाथा में आयुष्य बन्ध की चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि अविरतसम्यग्दृष्टि, प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत आदि कितनी स्थिति के आयुष्य का बन्ध करते हैं । शतक नामक इस मूल ग्रन्थ में हमें गुणस्थान सम्बन्धी अधिक चर्चा उपलब्ध नहीं होती है, किन्तु इसकी टीका में मलधार गच्छीय हेमचन्द्राचार्यजी ने विस्तार से गुणस्थानों की चर्चा की है।
कालक्रम की दृष्टि से प्राचीन कर्मग्रन्थों में दूसरा स्थान सप्ततिका का है । इस ग्रन्थ के कर्ता के सन्दर्भ में विद्वान है। कोई इसे शिवशर्मसूरि की रचना मानते हैं, तो कोई चन्द्रर्षि महत्तर की रचना मानते हैं । इस ग्रन्थ में ७० गाथाएं हैं, जिससे
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