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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
षष्टम अध्याय........{418} जाता है । अतः उन ग्रन्थों का निर्देश करना भी यहाँ हमें आवश्यक प्रतीत होता है । इन ग्रन्थों में मुख्य रूप से अभिधानराजेन्द्रकोष, जैनेन्द्रसिद्धान्तकोष, पंडित सुखलालजी कृत कर्मग्रन्थों की भूमिका, आचार्य देवेन्द्रमुनि कृत कर्मविज्ञान महत्वपूर्ण है। हम इसी क्रम से उनके सन्दर्भ में यहाँ विचार प्रस्तुत करेंगे। इनमें अभिधान राजेन्द्रकोष और जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष ये दोनों कोष ग्रन्थ है। अतः सर्वप्रथम इन दोनों का उल्लेख करने के पश्चात् हमने पं. सुखलालजी कृत कर्मग्रन्थों की भूमिकाओं में पं. सुखलालजी ने गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी जो चर्चा की है, उसका उल्लेख किया है । उसके पश्चात् आचार्य देवेन्द्रमुनिजी द्वारा कर्मविज्ञान में जो गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन उपलब्ध होता है, उसका उल्लेख किया है।
राजेन्द्रसूरिजी कृत अभिधानराजेन्द्रकोष और गुणस्थान सिद्धान्त k जैन विश्वकोषों में अभिधानराजेन्द्रकोष' और जैनेन्द्रसिद्धान्त कोष विषय प्रतिपादन की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। जहाँ अभिधानराजेन्द्रकोष श्वेताम्बर साहित्य को आधार बनाकर जैनधर्म-दर्शन सम्बन्धी विषयों का प्रतिपादन करता है, वहीं जैनेन्द्रसिद्धान्तकोष दिगम्बर साहित्य को आधार बनाकर जैनधर्म-दर्शन सम्बन्धी विभिन्न विषयों को प्रस्तुत करता है । दोनों ग्रन्थों में एक महत्वपूर्ण अन्तर यह है कि जहाँ अभिधानराजेन्द्रकोष विषयों का प्रतिपादन मूल ग्रन्थों के आधार पर केवल प्राकृत और संस्कृत में प्रस्तुत करता है, वहीं जैनेन्द्रसिद्धान्तकोष प्राकृत और संस्कृत के साथ-साथ हिन्दी में भी विषयों का प्रस्तुतिकरण करता है । जहाँ तक गुणस्थान सम्बन्धी विवेचनाओं का प्रश्न है, जैनेन्द्रसिद्धान्तकोष की अपेक्षा अभिधानराजेन्द्रकोष में यह चर्चा अधिक विस्तार के साथ उपलब्ध होती है। ___अभिधान राजेन्द्रकोष के निर्माता आचार्य श्री राजेन्द्रसूरिजी महाराज साहब हैं । जैनाचार्यों की परम्परा में इस युग के विशिष्ट विद्वान आचार्य माने जा सकते हैं । आपका जन्म राजस्थान भूमि के भरतपुर नगर में पारख गोत्रीय कुल में विक्रम संवत् १८८३ पौष शुक्ल सप्तमी गुरुवार तदनुसार दिसम्बर ३ सन् १६२७ को हुआ था । आपने विक्रम संवत् १६०३ वैशाख शुक्ल पंचमी शुक्रवार को उदयपुर (मेवाड़) में दीक्षा ली और आपका नाम मुनि श्री रत्नविजयजी रखा गया । आपको बृहद् दीक्षा विक्रम संवत् १६०६ वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन उदयपुर (मेवाड़) में दी गई । आचार्य श्रीप्रमोदसूरिजी ने विक्रम संवत् १६२७ वैशाख शुक्ल पंचमी बुधवार को आपको आहोर (मारवाड़) में आचार्य पद से विभूषित किया गया । आपने प्रथम यतिदीक्षा को स्वीकार किया, किन्तु यति परम्परा के शिथिलाचार को देखकर आपने शुद्ध संयम मार्ग को स्वीकार करने हेतु विक्रम संवत् १६२५ को जावरा में क्रियोद्धार कर मुनि दीक्षा को स्वीकार किया। आपका जैनधर्म-दर्शन और साहित्य का ज्ञान विपुल था । आपने संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी, गुजराती, मारवाड़ी भाषा का तथा न्याय, व्याकरण, दर्शन, साहित्य, काव्य तथा जैनागमों का गम्भीरता से अध्ययन किया और आपने अपने साठ साल के संयम काल में संस्कृत प्राकृत आदि भाषा में अनेक ग्रन्थों की रचना की । अभिधानराजेन्द्रकोष जैसे महाकोष से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि आपश्री ने आगम आगमिक व्याख्याओं के साथ-साथ जैन आचार्यों के द्वारा प्रणीत समस्त श्वेताम्बर साहित्य का गम्भीरता से आलोडन और विलोडन किया था । अभिधानराजेन्द्रकोष महाकोष का सात खण्डों में तथा लगभग १०००० पृष्ठ संख्या में निर्माण किया । आपका स्वर्गवास अस्सी वर्ष की आयु में हुआ, फिर भी आपने ७६ वर्ष की अवस्था तक ग्रन्थ रचना का कार्य नहीं छोड़ा और अभिधानराजेन्द्रकोष के कार्य को पूर्ण किया । विशालतम अभिधानराजेन्द्रकोष को आपश्री ने लगभग चौदह वर्ष में पूर्ण किया । इस अभिधानराजेन्द्रकोष का निर्माण कर विक्रम संवत् १६६३ को राजगढ़ (मालवा) में आपश्री स्वर्गस्थ हुए । आचार्य श्री राजेन्द्रसूरिजी का समग्र जीवन और उनका जीवंत प्रतिनिधि अभिधानराजेन्द्रकोष
४०३ अभिधानराजेन्द्रकोष : रचयिता श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरिजी म., प्रकाशन : अभिधान राजेन्द्रकोष प्रकाशन संस्था, अमदाबाद
द्वितीय संस्करण : वी.नि.सं. २५१३, ई.सन्. १९८६, राजेन्द्र संवत् ७८
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