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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....
षष्टम अध्याय........{419)
विश्व संस्कृति का मंगलाचरण है।
जहाँ तक अभिधानराजेन्द्रकोष में प्रस्तुत गुणस्थान सम्बन्धी विवेचना का प्रश्न है, अभिधानराजेन्द्रकोष के तृतीय विभाग में पृष्ठ संख्या ६१३ से लेकर ६१७ तक वृहद् आकार के १५ पृष्ठों में इस विषय का विवेचन उपलब्ध होता है । अभिधानराजेन्द्रकोष के चतुर्थ भाग में जीवस्थान सम्बन्धी विवेचन उपलब्ध होता है । इसमें गुणस्थानों की परिभाषा, गुणस्थानों के स्वरूप के साथ-साथ गुणस्थानों में जीवस्थान, जीवस्थानों में गुणस्थान, गुणस्थानों में बन्ध, बन्धहेतु, गुणस्थानों में उदय, उदीरणा, गुणस्थानों में भाव, गुणस्थानों में मार्गणास्थान, मार्गणास्थानों में गुणस्थान तथा गुणस्थानों में उपयोग - ऐसे तेरह विषयों को लेकर गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन उपलब्ध होता है । इस समस्त चर्चा में आचार्यश्री ने जहाँ एक ओर समयावांग जैसे मूल आगम और उसकी टीका को आधार बनाया है, वहीं इस समग्र विवेचना में पंचसंग्रह, कर्मग्रन्थ और उनकी संस्कृत टीकाओं को भी आधार बनाकर विषयों का प्रस्तुतिकरण किया है । वैसे अभिधानराजेन्द्रकोष में प्रस्तुत गुणस्थान सम्बन्धी यह सब विवेचन हम पंचसंग्रह और कर्मग्रन्थों के प्रसंग में कर चुके हैं । अतः यहाँ हमारा विषय निर्देश करके ही संतोष करेंगे, क्योंकि पुनः प्रस्तुतिकरण में पिष्ट-पेषण और ग्रन्थ विस्तार का भय समाहित है । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि जहाँ अभिधान राजेन्द्रकोष में गुणठाण शब्द के विवेचन में यह समस्त चर्चा आती है, किन्तु इसके अतिरिक्त भी गुणस्थान से सम्बन्धित विभिन्न शब्दों जैसे जीवस्थान, मार्गणास्थान, बन्ध, उदय, उदीरणा, सत्ता आदि की यथास्थान जो चर्चाएं है, उनमें भी गुणस्थान सम्बन्धी निर्देश उपलब्ध हैं।
जीवस्थान और गुणस्थान के पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर प्राचीनकाल से ही चर्चा होती रही है । षट्खण्डागम, समवायांग, जीवसमास आदि ग्रन्थों में तो जीवस्थान या जीवसमास के नाम से ही गुणस्थानों की चर्चा है । यद्यपि परवर्ती काल में जीवस्थान और गुणस्थान को अलग-अलग करके उनके पारस्परिक सम्बन्ध को लेकर विस्तृत विवेचन हुआ है । तत्त्वार्थसूत्र श्वेताम्बर-दिगम्बर टीकाओं तथा कर्मग्रन्थों में जीवस्थान और गुणस्थान के पारस्परिक सम्बन्ध को समझाया गया है । आचार्य श्री राजेन्द्रसूरिजी के अभिधानराजेन्द्रकोष में चतुर्थ कर्मग्रन्थ षड्शीति के आधार पर जीवस्थानों की चर्चा का मुख्य आधार इन्द्रिय विचारणा ही रही है । पांच इन्द्रियों के आधार पर जीवों के मुख्य रूप से पांच प्रकार होते हैं । उसमें एकेन्द्रिय जीवों के सूक्ष्म और बादर - ऐसे भी दो भेद होते है । पंचेन्द्रिय जीवों के असंज्ञी और संज्ञी - ऐसे दो भेद माने गए हैं । इस प्रकार कुल सात भेद माने गए है । इसमें प्रत्येक का पर्याप्त और अपर्याप्त - ऐसे दो-दो भेद मानकर जीवस्थान के निम्न चौदह भेद किए गए हैं - (१) सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त (२) सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त (३) बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त (४) बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त (५) द्वीन्द्रिय अपर्याप्त (६) द्वीन्द्रिय पर्याप्त (७) त्रीन्द्रिय अपर्याप्त (८) त्रीन्द्रिय पर्याप्त (E) चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त (१०) चतुरिन्द्रिय पर्याप्त (११) असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त (१२) असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त (१३) संज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्त (१४) संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त। उपर्युक्त चौदह जीवस्थानों में चतुर्थ कर्मग्रन्थ की तीसरी गाथा में यह स्पष्ट किया गया है कि अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, अपर्याप्त द्वीन्द्रिय, अपर्याप्त त्रीन्द्रिय, अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय तथा अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय -इन पांच जीवस्थानों में प्रथम और द्वितीय - ये दो गुणस्थान सम्भव होते हैं । अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय में मिथ्यादृष्टि, सास्वादन और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान ये तीन गुणस्थान सम्भव होते हैं । संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव में चौदह ही गुणस्थान सम्भव होते हैं । शेष सात अर्थात् पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, पर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, पर्याप्त द्वीन्द्रिय, पर्याप्त त्रीन्द्रिय, पर्याप्त चतुरिन्द्रिय, पर्याप्त अंसज्ञी पंचेन्द्रिय इन सात जीवस्थानों में मात्र मिथ्यात्व गुणस्थान होता है । यहाँ इस प्रश्न की विस्तृत विचारणा अपेक्षित है कि इन चौदह जीवस्थानों के सन्दर्भ में किस जीवस्थान में कौन-सा गुणस्थान होगा? इसका निर्णय किस आधार पर किया गया है। गुणस्थानों की विकास यात्रा तो विवेक शक्ति या संज्ञित्व की उपलब्धि पर ही प्राप्त होती है । संज्ञित्व की प्राप्ति केवल पंचेन्द्रिय
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