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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... षष्टम अध्याय........{420} जीवों में ही सम्भव है । अतः जिन जीवस्थानों में संज्ञित्व का अभाव है, वहाँ पर्याप्त दशा में तो निश्चय से ही मिथ्यात्व गुणस्थान होता है; किन्तु अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, अपर्याप्त द्वीन्द्रिय, अपर्याप्त त्रीन्द्रिय, अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय और अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय - इन पांच जीवस्थानों में जो मिथ्यात्व और सास्वादन - ये दो गुणस्थान मानने का मुख्य कारण यह है कि जीव को एक औदारिक और वैक्रिय शरीर को छोड़कर दूसरे औदारिक और वैक्रिय शरीर को ग्रहण करने के मध्य जो समय लगता है, उसी अवस्था में अपर्याप्त दशा रहती है । यह सम्भव है कि कोई जीव सास्वादन की अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त करके अन्य योनि में जन्म लेता है। यह भी सम्भव है कि संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव मरकर बादर एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक की किसी भी जीव जाति में उत्पन्न हो सकते हैं । वे जीव जब तक पर्याप्ति पूर्ण नहीं करते हैं, तब तक वे मिथ्यात्व का ग्रहण भी नहीं करते हैं । अतः इस अपेक्षा से यह माना जाता है कि अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय, अपर्याप्त द्वीन्द्रिय, अपर्याप्त त्रीन्द्रिय, अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय, अपर्याप्त असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में अपर्याप्त दशा में प्रथम दो गुणस्थान सम्भव माने गए है। संज्ञी पंचेन्द्रिय जाति में जन्म लेनेवाला यदि पूर्व भव में सम्यक्त्व का धारक रहा हो, तो वह अपनी अपर्याप्त अवस्था में ही सम्यक्त्व का भी धारक माना जाता है । अतः अपर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय में मिथ्यात्व, सास्वादन और अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान -ये तीन गुणस्थान सम्भव माने जाते हैं। यह जीव जब तक पर्याप्ति पूर्ण नहीं कर पाता है, तब तक अपनी आध्यात्मिक विकास यात्रा को आगे नहीं बढ़ा पाता है । इसीलिए उसमें इन तीन गुणस्थानों से आगे के गुणस्थान नहीं पाए जाते हैं । यहाँ यह विचार हो सकता है कि अविरतसम्यग्दृष्टि चौथे गुणस्थान के अतिरिक्त मिश्र गुणस्थान भी तो है । अपर्याप्त जीवों में उसकी सत्ता क्यों नहीं मानी गई, इसका कारण यह है कि मिश्र गुणस्थान में कभी मृत्यु सम्भव नहीं होती है । अतः पर्याप्ति पूर्ण करने के बाद ही मिश्र गुणस्थान की संभावना हो सकती है । मिश्र गुणस्थान केवल उन्हीं जीवों को सम्भव होता है जो या तो पूर्व में सम्यक्त्व का वमन कर चुके हैं और पुनः सम्यक्त्व की और अग्रसर हो रहे हैं अथवा जो सम्यक्त्व को प्राप्त कर उससे च्युत हो रहे हैं । सम्यक्त्व को प्राप्त वह जीव, जिसने सम्यक्त्व का वमन किया है, किन्तु अभी मिथ्यात्व को ग्रहण नहीं किया है, सूक्ष्म एकेन्द्रिय में उत्पन्न नहीं होता है। केवल मिथ्यादृष्टि जीव ही सक्ष्म एकेन्द्रिय में उत्पन्न हो सकते हैं । सास्वादन गुणस्थान से युक्त जीव भी सूक्ष्म एकेन्द्रिय में उत्पन्न नहीं होते हैं । अतः सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवों में अपर्याप्त दशा में भी सास्वादन गुणस्थान की सम्भावना नहीं है । सास्वादन को लेकर कोई भी जीव सूक्ष्म एकेन्द्रिय में उत्पन्न नहीं होता है, इसी कारण वहीं उसका अभाव कहा गया हैं। विभिन्न जीवस्थानों में विभिन्न कर्मप्रकृतियों के बन्ध-सत्ता-उदय, उदीरणा आदि का जो विचार होता है, उसी आधार पर उनमें गुणस्थानों की सत्ता भी सम्भव मानी जा सकती है। परमपूज्य राजेन्द्रसूरिजी ने अभिधान राजेन्द्रकोष में गुणस्थानों की चर्चा के प्रसंग में द्वितीय कर्मग्रन्थ की छठी गाथा की टीका में सप्ततिका नामक ग्रन्थ की मलयगिरि म.सा. की टीका का सन्दर्भ देते हुए पंचसंग्रह के सप्ततिका नामक तृतीय खण्ड की ३८वीं गाथा में यह कहा है कि मिथ्यादृष्टि आत्मा में मोहनीयकर्म की कितनी प्रकृति की सत्ता होती है । वहाँ कहा गया है कि अनादि मिथ्यादृष्टि जीव में मिथ्यात्व मोहनीय की २६ प्रकति का एक सत्तास्थान होता है। अनादि मिथ्यादष्टि आत्मा ने कभी भी सम्म किया है, अतः वह मिथ्यात्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय और सम्यक्त्व मोहनीय - ऐसे तीन विभाजन करने में समर्थ नहीं होता है । अतः उसमे मिथ्यात्व मोहनीय की बन्ध योग २६ प्रकृतियों की एक साथ सत्ता होती है । जो आत्मा कभी सम्यक्त्व का स्पर्श कर मिथ्यात्व में आ गई है, उसमें मिथ्यात्व मोहनीय की २७ अथवा २६ प्रकृतियों की सत्ता होती है । सम्यक्त्व मोहनीय के अभाव से २७ तथा सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्र मोहनीय के अभाव से २६ की सत्ता हो सकती है। जिस मिथ्यादृष्टि आत्मा ने एक बार अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना की है, किन्तु अभी मिथ्यात्व का क्षय नहीं किया है, उसमें मिथ्यात्व मोहनीय की चौबीस कर्मप्रकृतियाँ सत्ता में हो सकती हैं । उसमें अप्रत्याख्यानीय चतुष्क, प्रत्याख्यानीय चतुष्क, संज्वलन चतुष्क - ये बारह कषाय, नौ नोकषाय और मिथ्यात्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय तथा सम्यक्त्व मोहनीय-ऐसी २४ प्रकृतियाँ सत्ता में रहती है । यहाँ यह ज्ञातव्य Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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