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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
षष्टम अध्याय........{417} इसी क्रम में आगे ग्यारहवें परिच्छेद के छयालीसवें श्लोक में रौद्रध्यान के स्वामी की चर्चा करते हुए यह कहा गया है कि रौद्रध्यान प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर पंचम संयतासंयत गुणस्थान तक सम्भव होता है। ग्यारहवें परिच्छेद के अट्ठावनवें श्लोक में धर्म ध्यान के स्वामी की चर्चा करते हुए यह बताया गया है कि अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीव को होता है। अन्त में शुक्लध्यान के स्वामी की चर्चा करते हुए ग्यारहवें परिच्छेद के इकसठ से तिरसठ तक के श्लोक में यह कहा गया है कि शुक्लध्यान के चारों भेदों में प्रथम दो भेद श्रुतकेवली मुनियों को होते हैं, गुणस्थान की अपेक्षा से अपूर्वकरण गुणस्थान से लेकर उपशान्तकषाय गुणस्थान तक प्रथम पृथक्त्ववितर्क नामक शुक्लध्यान होता है । क्षीणकषाय गुणस्थान में एकत्ववितर्कअविचार नामक शुक्लध्यान का द्वितीय चरण होता है । पुनः शुक्लध्यान के अन्तिम दो चरण क्रमशः सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती जीव को होते हैं । इसके अतिरिक्त सिद्धान्तसार ग्रन्थ में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कोई विवेचन हमें उपलब्ध नहीं होता है।
विनयविजयकृत लोक प्रकाश में गुणस्थान सम्बन्धी विवेचना
आगमसाहित्य और कर्मसाहित्य से भिन्न जिन कृतियों में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी उल्लेख प्राप्त होता है, उनमें महोपाध्याय विनयविजय गणि कृत लोकप्रकाश:०२ एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । इन ग्रन्थ के कर्ता महोपाध्याय विनयविजयजी उपाध्याय यशोविजयजी के गुरु भ्राता एवं सह अध्येता रहे हैं । इनका काल ईसा की सत्रहवीं शताब्दी माना जा सकता है । यद्यपि लोकप्रकाश का मुख्य प्रतिपाद्य तो लोक के स्वरूप का विचार करना है, किन्तु इसके तृतीय सर्ग में चौदह गुणस्थानों का विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है । इस ग्रन्थ के तृतीय सर्ग के ३० ३ द्वार के श्लोक क्रमांक ११३१ से १३०३ तक लगभग १७२ श्लोकों में चौदह गुणस्थानों के स्वरूप का विवेचन है । यद्यपि मूल ग्रन्थ संस्कृतभाषा में रचित है, किन्तु कुछ स्थानों पर कर्मग्रन्थों की प्राकृत गाथाओं को भी उद्धृत कर दिया गया है । प्रस्तुत कृति में उन्होंने न केवल देवेन्द्रसूरिकृत कर्मग्रन्थों का उपयोग किया है, अपितु इसके अतिरिक्त महाभाष्य, भाष्यवृत्ति, कर्मग्रन्थ लघुवृत्ति, कर्मग्रन्थ अवचूरि आदि से भी अवतरण लिए हैं । श्लोक क्रमांक १२६६ के पश्चात् भगवतीसूत्र और उसकी वृत्ति का भी उल्लेख किया गया है । गुणस्थान सम्बन्धी इस विवेचन में उन्होंने मुख्य रूप से गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय आदि की भी चर्चा की है । गुणस्थान सम्बन्धी इस चर्चा में प्रस्तुत कृति की विशेषता मात्र यही है कि प्रस्तुत कृति में श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित सास्वादन शब्द के स्थान पर सासादन शब्द का प्रयोग भी उचित माना है । श्लोक क्रमांक ११४१ से ११४४ में कहा गया है कि जो आसादन से युक्त है, उसे सासादन कहते हैं । यहाँ आसादन को अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय का वाचक माना है । अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय आत्मा के स्वरूप का घातक होने से इसे सासादन कहा जाता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि महोपाध्याय विनयविजयजी ने दिगम्बर परम्परा में प्रचलित द्वितीय गुणस्थान के सासादन शब्द को प्रमुखता दी है । इसके अतिरिक्त उन्होंने उपशमश्रेणी से किस गुणस्थानवी जीव आध्यात्मिक विकास की यात्रा करता है, इस सम्बन्धी मतभेद का भी उल्लेख किया है । यहाँ उन्होंने कर्मग्रंथ की अवचूरि का उद्धरण देते हुए यह बताया है कि सामान्य मान्यता यह है कि अप्रमत्त यति अर्थात् सातवें गुणस्थानवर्ती मुनि ही उपशमश्रेणी से आध्यात्मिक विकास करता है, किन्तु कुछ आचार्यों की मान्यता यह है कि उपशमश्रेणी से यात्रा अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक का कोई भी जीव कर सकता है। इस ग्रन्थ में गुणस्थान सम्बन्धी शेष विवेचन तो कर्मग्रन्थों पर ही आधारित है, इसीलिए पुनरावृत्ति और विस्तार भय को दृष्टिगत रखते हुए हम इसे यहाँ विराम देते हैं।
इनके अतिरिक्त आधुनिक युग में भी कुछ ऐसे ग्रन्थ है; जिनमें हमें गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन विस्तार से उपलब्ध हो
४०२ लोकप्रकाश भाग-१, द्रव्यलोक : विनयविजयगणि, सम्पादक : वज्रसेन विजयजी,
प्रकाशक : कोठारी भेरूलाल कनैयालाल रीलीजीयस ट्रस्ट, मुंबई-६
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