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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
षष्टम अध्याय........{416) गम्भीर विवेचना उपलब्ध है । विषय वैविध्य और विषयों की व्यापकताओं को देखते हुए डॉ. सागरमल जैन ने इस ग्रन्थ के हिन्दी अनुवाद की भूमिका में इसे जैनविद्या का लघु विश्वकोष ही माना है । सौभाग्य यह है कि व्यापक दृष्टि से विविध विषयों को विवेचित करने के लिए निर्मित इस ग्रन्थ में गुणस्थान सिद्धान्त का विवेचन भी उपलब्ध है । इस ग्रन्थ के ८५ वें परिषह नामक द्वार में गाथा क्रमांक ६६० में परिषहों में गुणस्थानों का अवतरण करते हुए बताया गया है कि अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान तक बाईस परिषह ही सम्भव होते हैं। सूक्ष्मसंपराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह इन तीन गुणस्थानों में चौदह परिषह सम्भव होते हैं। सयोगीकेवली और अयोगीकेवली - इन दो गुणस्थानों में ग्यारह परिषह सम्भव होते हैं । प्रवचन सारोद्धार में परिषहों में गुणस्थानों का सम अवतार तत्त्वार्थ सूत्र की श्वेताम्बर टीकाओं के समरूप ही है । अतः इस सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन आवश्यक नहीं है।
पुनः प्रवचनसारोद्धार के नवें उपशमश्रेणी नामक द्वार में (गाथा क्रमांक ७०० से ७०८) उपशमश्रेणी से आरोहण करते हुए किस गुणस्थान में किन-किन कर्मप्रकृतियों का उपशमन करते हुए साधक उपशान्तमोह गुणस्थान को प्राप्त करता है, इसकी विवेचना है । सर्वप्रथम इसमें बताया गया है कि उपशमश्रेणी करनेवाला साधक अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क, दर्शनत्रिक, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, हास्यषट्क, पुरुषवेद का उपशमन करता है और फिर अप्रत्याख्यानीय क्रोध, प्रत्याख्यानीय क्रोध और उसके बाद संज्वलन क्रोध का उपशमन करता है । इसके पश्चात् क्रम से तीनों मान और तीनों माया तथा तीनों लोभ का उपशमन करता है। इसमें भी संज्वलन लोभ की कृष्टि करके उसके संख्यात और असंख्यात खंडों को क्रमपूर्वक ही उपशमित करता है । उस समय वह दसवें सूक्ष्मसंपराय नामक गुणस्थान में होता है । उसके पश्चात् संज्वलन लोभ का पूरी तरह उपशमन करके ग्यारहवें उपशान्तमोह नामक गुणस्थान को प्राप्त करता है । इस प्रकार यहाँ उपशमश्रेणी का साधक किस प्रकार अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से लेकर उपशान्तमोह गुणस्थान तक अपनी आध्यात्मिक विकास यात्रा को सम्पन्न करता है, इसकी चर्चा है । प्रवचन सारोद्धार में परिषहों और उपशमश्रेणी के सन्दर्भ में जो गुणस्थानों का अवतरण किया गया है, वह मात्र प्रासंगिक है । गुणस्थानों का स्पष्ट विवरण प्रवचन सारोद्धार में २२४ वें गुणस्थान द्वार में ही मिलता है । यद्यपि यहाँ भी मूल गाथा में तो केवल गुणस्थानों का नाम ही उल्लेखित है, विस्तृत विवरण नहीं है, किन्तु प्रवचन सारोद्धार के टीकाकार सिद्धसेनसूरि तथा गुजराती अनुवादक एवं व्याख्याकार अमितयशविजयजी ने इस प्रसंग में विस्तार से गुणस्थानों के स्वरूप का विवेचन किया है। ___इस प्रकार प्रवचनसारोद्धार के ८५ वें, ६०वें तथा २२४ वें द्वारों में गुणस्थान सिद्धान्त का उल्लेख उपलब्ध होता है । जो विवरण हमें प्राप्त होता है, वह श्वेताम्बर परम्परा की तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं, पंचसंग्रह एवं षट्कर्मग्रन्थों की अपेक्षा अल्प ही है । जो कुछ विस्तृत विवेचन सिद्धसेनसूरि की टीका में है, वह भी अन्यत्र उपलब्ध विवेचनों से कोई नवीन तथ्य प्रस्तुत नहीं करता है, इसीलिए हम इस चर्चा को यहीं विराम देना उचित समझते हैं।
त्र नरेन्द्रसेन का सिद्धान्तसार और गुणस्थान :
दिगम्बर परम्परा में आचार्य नरेन्द्रसेन विरचित सिद्धान्तसार एक प्रमुख ग्रन्थ है । आचार्य नरेन्द्रसेन लाट्वागड़ संघ के थे । ग्रन्थ के अन्त में उन्होंने अपनी गुरु परम्परा का विस्तार से उल्लेख किया है तथा अपने गुरु का नाम गुणसेनसूरि बताया है। ग्रन्थ प्रशस्ति से इनके काल के सम्बन्ध में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं होती है । उन्होंने इस सिद्धान्तसार ग्रन्थ के अन्त में निर्जरा तत्व के विवेचन के अन्तर्गत चार ध्यानों का विवेचन किया है । इस ग्रन्थ के ग्यारहवें परिच्छेद के इकतालीसवें श्लोक में यह बताया गया है कि आर्तध्यान मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक, ऐसे छः गुणस्थानों में सम्भव होता है। ४०१ सिद्धान्तसार संग्रह : नरेन्द्रसेनाचार्य, सम्पादक : डॉ. आदिनाथ उपाध्याय, डॉ. हीरालाल,
प्रकाशनः श्री गुलाबचन्द दोशी, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, सोलापुर, वी.नि.सं. २४८३, वि.सं. २०१३, ई.सन् १६५७
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