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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा... पंचम अध्याय........{301) उदय भी पाँच गुणस्थान तक ही होता है । साधु जब वैक्रिय या आहारक शरीर करे, तब उद्योत का उदय होता है, परंतु वह मनुष्यगति का सहचारी नहीं है, जिससे अल्पकाल उदय होने से उसकी विवक्षा नहीं की है । नीचगोत्र का उदय भी तिर्यंच आश्रयी पाँच गुणस्थान तक ही है । इसीलिए इन आठों प्रकृतियों की उदीरणा भी पाँच गुणस्थान तक ही होती है । स्त्यानद्धित्रिक और आहारकद्विक-ये पाँच कर्मप्रकृतियों की उदीरणा प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती है। स्त्यानर्द्धि स्थूल प्रमाद रूप होने से अप्रमत्तादि गुणस्थानों में उनका उदय नहीं होता है, प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होता है, अतः इनकी उदीरणा भी वहीं तक होती है। आहारकद्विक का उदय प्रमत्तसंयत गुणस्थान में आहारक शरीर करनेवाले चौदहपूर्वधर को होता है। जो आहारक शरीर रहते हुए उद्योतनामकर्म के अतिरिक्त उनतीस कर्मप्रकृतियों और उद्योतनामकर्म सहित तीस कर्मप्रकृतियों के उदय स्थिति में अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में जाते हैं, और वहाँ आहारकद्विक का उदय सम्भव होता है, परंतु अल्पकालिक होने से उसकी विवक्षा नहीं की है, इसीलिए प्रमत्तसंयत गुणस्थान में ही उनका उदय माना है, इसीलिए पाँच प्रकतियों की उदीरणा प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती है। सातावेदनीय, असातावेदनीय और मनुष्यायु का उदय अप्रमत्तसंयत गुणस्थान से चौदहवें अयोगीकेवली गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त उदय होता है, परन्तु उसकी उदीरणा नहीं होती है। इसके कारण का पूर्व में निर्देश कर दिया गया सम्यक्त्व मोहनीय, अर्धनाराच, कीलिका और सेवार्त्त संघयण की उदीरणा अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती है, क्योंकि सातवें गुणस्थान से आगे चारित्र मोहनीय के उपशमक या क्षपक जीव ही होते हैं। उन्हें क्षायिक या औपशमिक सम्यक्त्व ही होता है, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व नहीं होता है। सम्यक्त्व मोहनीय का उदय क्षायोपशमिक सम्यक्त्वी को चौथे से सातवें गुणस्थान तक होता है, इसीलिए उसकी उदीरणा भी चौथे से सातवें गुणस्थान तक ही होती है । अन्तिम तीन संघयण से कोई भी जीव श्रेणी प्रारम्भ नहीं कर सकता, इसीलिए इनका उदय भी सातवें गुणस्थान तक ही होता है और उदीरणा भी सात गुणस्थान तक ही होती है। हास्यषट्क की उदीरणा अपूर्वकरण गुणस्थान तक होती है। चूंकि आगे के गुणस्थान में अत्यन्त विशुद्ध परिणाम होने से इनका उदय नहीं होता है, इसीलिए उदीरणा भी आठ गुणस्थान तक होती है। __वेदत्रिक, संज्वलनक्रोध, मान और माया-इन छः कर्मप्रकृतियों की उदीरणा अनिवृत्तिबादरसंपराय गुणस्थान तक होती है। इसी गुणस्थान में उसका क्षय या उपशम हो जाने से आगे के गुणस्थान में उनकी उदीरणा नहीं होती है । ___ संज्वलन लोभ की उदीरणा सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान तक होती है । उपशमश्रेणी में चरम समय तक और क्षपकश्रेणी में चरम आवलिका छोड़कर शेष समय में होती है । ऋषभनाराच और नाराच संघयण की उदीरणा उपशान्तमोह गुणस्थान तक होती है। इन दो संघयणवाले जीव उपशमश्रेणी प्रारम्भ कर ग्यारहवें गुणस्थान तक ही जा सकते हैं । दर्शनावरण चतुष्क, ज्ञानावरणीय पांच और अन्तराय पांच - इन चौदह प्रकृतियों की उदय और उदीरणा क्षीणमोह गुणस्थान तक होती है। मात्र चरम आवलिका में उदीरणा नहीं होती है। कर्मस्तव के प्रणेता आचार्य देवेन्द्रसूरि ने तो क्षीणमोह गुणस्थान के द्विचरम समय तक निद्रा और प्रचला का उदय माना है। निद्रा और प्रचला का क्षीणमोह गुणस्थान के द्विचरम समय में उदय विच्छेद होता है, इसीलिए कर्मग्रन्थकार के मत से क्षीणमोह गुणस्थान के द्विचरम समय पर्यन्त निद्राद्विक का उदय जानना चाहिए। उदीरणा, चरम आवलिका शेष रहे, तब तक होती है। पंचसंग्रहकार के मत से उपशान्तमोह गुणस्थान के चरम समय तक ही इनका उदय और उदीरणा होती है। औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, संस्थानषट्क, वज्रऋषभनाराच संघयण, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, विहायोगतिद्विक, पराघातनामकर्म, उपघातनामकर्म, अगुरुलघुनामकर्म, उच्छ्वासनामकर्म, प्रत्येकनामकर्म, स्थिरनामकर्म, अस्थिरनामकर्म, शुभनामकर्म, अशुभनामकर्म, सुस्वरनामकर्म, दुःस्वरनामकर्म और निर्माणनामकर्म-इन उनतीस कर्मप्रकृतियों का उदय एवं उदीरणा सयोगीकेवली गुणस्थान के चरम समय तक होती है। अयोगीकेवली गुणस्थान में इनका उदय नहीं होने से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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