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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय ........{300}
गुणस्थान में रहे हुए जीव मृत्यु को प्राप्त कर सकते हैं, इस अपेक्षा से यह कहा गया है। क्षपकश्रेणी में चौदहवें गुणस्थान में आयुकर्म की चरम आवलिका शेष रहती है, परंतु उसकी उदीरणा छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक रहती है। इन अवस्थाओं के अतिरिक्त अधिक आयुष्य कर्म सत्ता में हो, तो भी उसकी उदीरणा नहीं होती है, क्योंकि प्रमत्तसंयत गुणस्थान से आगे गुणस्थानों में आयुष्यकर्म की उदीरणा करने योग्य परिणाम एवं पुरुषार्थ नहीं होता है ।
विभिन्न गुणस्थानों में उत्तर कर्मप्रकृतियों की उदीरणा :
पंचसंग्रह की पंचम द्वार की सातवीं गाथा में बताया है कि सातावेदनीय, असातावेदनीय और मनुष्यायु की उदीरणा प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती है। इन तीन कर्मप्रकृतियों के अतिरिक्त सयोगीकेवली गुणस्थान में जिन कर्मप्रकृतियों का उद होता है, उनकी उदीरणा होती है । उदीरणा का सामान्य नियम यह है कि जिन कर्मप्रकृतियों का, जिस गुणस्थान में उदय होता है, उन कर्मप्रकृतियों की उदीरणा चरम आवलिका छोड़कर उनके उदय पर्यन्त होती है।
साता-असातावेदनीय और मनुष्यायु की उदीरणा प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक होती है, क्योंकि इन तीनों प्रकृतियों की उदीरणा में प्रमत्त दशा के परिणाम हेतु हैं, वे परिणाम छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान तक ही हैं, इसीलिए वहाँ तक ही उदीरणा होती है। आगे प्रमत्तादि गुणस्थानों में नहीं होती हैं। साता - असाता वेदनीय और मनुष्य आयुष्य के अतिरिक्त जिन कर्मप्रकृतियों का अयोगीकेवली गुणस्थान में उदय है, उनकी उदीरणा सयोगीकेवली गुणस्थान तक होती है। उपर्युक्त तीन प्रकृतियों के अतिरिक्त शेष त्रसनामकर्म, बादरनामकर्म, पर्याप्तनामकर्म, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, तीर्थंकरनामकर्म, सौभाग्य आदेयनामकर्म, यशःकीर्तिनामकर्म और उच्चगोत्र- इन दस प्रकृतियों का अयोगीकेवली गुणस्थान में उदय होता है, परंतु उनकी उदीरणा सयोगीकैवली गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त ही होती है। अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती आत्मा योग के अभाव के कारण किसी भी कर्मप्रकृति की उदीरणा नहीं करती है। पूर्वोक्त तेरह प्रकृतियों के बिना, शेष कर्म प्रकृतियों की उदीरणा उन कर्मप्रकृतियों का जिस गुणस्थान तक उदय होता है, उस गुणस्थान तक होती है। मात्र उनकी चरम आवलिका शेष रहने पर उदीरणा नहीं होती है ।
मिथ्यात्वमोहनीय तथा आतपनामकर्म, सूक्ष्मनामकर्म, साधारणनामकर्म और अपर्याप्तनामकर्म-इन पाँच कर्मप्रकृतियों की उदीरणा मिथ्यादृष्टि गुणस्थान तक होती है, क्योंकि मिथ्यात्वमोहनीय का उदय पहले गुणस्थान तक ही होता है । आतपादि उपर्युक्त कर्मप्रकृतियों के उदयवाले जीवों को पहला ही गुणस्थान होता है।
अनन्तानुबन्धी चतुष्क, जातिचतुष्क, स्थावर इन नौ प्रकृतियों की उदीरणा सास्वादन गुणस्थान पर्यन्त होती है, क्योंकि अनन्तानुबन्धी का उदय दूसरे गुणस्थान तक ही हैं और एकेन्द्रियादि कर्म प्रकृतियों के उदयवाले जीवों में करण - अपर्याप्त अवस्था में दूसरा गुणस्थान होता है। करण अपर्याप्त अवस्था के बिना पहला गुणस्थान होता है ।
मिश्रमोहनीय कर्म का उदय तीसरे गुणस्थान तक होने से उसकी उदीरणा भी तीसरे गुणस्थान तक होती है । अप्रत्याख्यानीय चतुष्क, देवायु, नरकायु, तिर्यंचानुपूर्वी, मनुष्यानुपूर्वी, देवद्विक, नरकद्विक, वैक्रियद्विक, दुर्भगनामकर्म, अनादेयनामकर्म और अपयशकीर्तिनामकर्म- इन सत्रह प्रकृतियों की उदीरणा अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होती है। अप्रत्याख्यान चौथे गुणस्थान तक ही होता है। देवत्रिक, नरकत्रिक और वैक्रियद्विक का उदय देवता और नारकी को पहले चार गुणस्थानों तक ही होता है, इसीलिए इनकी उदीरणा भी प्रथम के चार गुणस्थान तक होती है । तिर्यंचानुपूर्वी और मनुष्यानुपूर्वी का उदय भी तीसरे गुणस्थान को छोड़कर प्रथम, दूसरे और चौथे गुणस्थान तक होता है, अतः इनकी उदीरणा भी इसी
का उदय
तक है । दौर्भाग्यनामकर्म, अनादेयनामकर्म और अपयशकीर्तिनामकर्म का उदय देशविरति आदि ऊपर के गुणस्थानों में ही होता है, इसीलिए उपर्युक्त सत्रह प्रकृतियों की उदीरणा चौथे गुणस्थान तक होती है ।
प्रत्याख्यानीयचतुष्क, तिर्यंचगति, तिर्यंचायु, उद्योतनामकर्म और नीचगोत्र इन आठ प्रकृतियों की उदीरणा देशविरति गुणस्थान तक होती है, क्योंकि प्रत्याख्यानीय का उदय पाँचवें गुणस्थान तक होता है, तिर्यंचों को पाँच गुणस्थान होने से तिर्यंचगति और तिर्यंचायु का उदय भी पाँचवें गुणस्थानों तक ही होता है। उद्योतनामकर्म तिर्यंचगति का सहचारी होने से उसका
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