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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय.......{302} उदीरणा भी नहीं होती है। योग की निरोध क्रिया होने पर उच्छवास नामकर्मादि की प्रकृतियों और पुद्गल का सम्बन्ध छूट जाता है, अतः कर्मदलिकों की उदीरणा भी नहीं होती है। त्रसनामकर्म, बादरनामकर्म, पर्याप्तनामकर्म, सुभगनामकर्म, आदेयनामकर्म, यशःकीर्तिनामकर्म, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, तीर्थंकरनामकर्म और उच्च गोत्र - इन दस प्रकृतियों की उदीरणा तेरहवें गुणस्थान के चरम समय तक होती है और उदय अयोगीकेवली गुणस्थान के चरम समय तक रहता है, किन्तु योग के अभाव के कारण उदीरणा नहीं होती है। विभिन्न गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों की उदीरणा के विकल्प : पंचसंग्रह के पंचमद्वार की आठवीं गाथा में यह बताया है कि जिन इकतालीस कर्मप्रकृतियों का उदय होने पर भी उदीरणा विकल्प से होती हैं, वे निम्न हैं- ज्ञानावरण पांच, दर्शनावरणीय चतुष्क, अन्तराय पांच सातावेदनीय, असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, सम्यक्त्वमोहनीय, संज्वलन लोभ, त्रसनामकर्म, बादरनामकर्म, पर्याप्तनामकर्म, सुभगनामकर्म, आदेयनामकर्म एवं यशःकीर्तिनामकर्म, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, तीर्थंकरनाम, उच्चगोत्र, चार आयुष्य तथा मिथ्यात्व मोहनीय और पुरुषवेद - इन इकतालीस प्रकृतियों का उदय होने पर भी उदीरणा भजनीय है, अर्थात् कुछ समय अकेला उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती है । पाँचों निद्राओं का शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने के पश्चात् से लेकर जब तक इन्द्रिय पर्याप्ति पूर्ण न हो, तब तक मात्र उदय ही होता है, उदीरणा नहीं होती हैं । शेष समय में उदय और उदीरणा समकाल में होती है । चारो र्म का अपने-अपने भव की चरम आवलिका शेष रहे, तब तक मात्र उदय होता है, उदीरणा नहीं होती है । ज्ञानावरण पंचक, दर्शनावरण चतुष्क, अन्तराय पंचक के क्षय होने में जब एक आवलिका शेष रहे तब बारहवें गुणस्थान की चरम आवलिका में मात्र उदय होता है, उदीरणा नहीं होती है। क्षपकश्रेणी में सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में संज्वलन लोभ की एक आवलिका शेष रहे, तब उदीरणा नहीं होती है, मात्र उदय होता है । क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करते समय चरम आवलिका शेष रहे, तब सम्यक्त्व मोहनीय की उदीरणा नहीं होती है, मात्र उदय होता है । उपशम सम्यक्त्व प्राप्त करते समय अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रथम स्थिति की एक आवलिका शेष रहे, तब मिथ्यात्वमोहनीय का मात्र उदय होता है, उदीरणा नहीं होती है । त्रसनामकर्म, बादरनामकर्म, पर्याप्तनामकर्म, सुभगनामकर्म, आदेयनामकर्म, यशःकीर्तिनामकर्म, मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, तीर्थकरनाम और उच्चगोत्र-इन दस प्रकृतियों की अयोगीकेवली गुणस्थान में उदय होते हुए भी योग के अभाव के कारण, उदीरणा नहीं होती है। सातावेदनीय-असातावेदनीय की अप्रमत्तसंयत एवं आगे के गुणस्थानों में तथाविध अध्यवसाय के अभाव में उदीरणा नहीं होती है, मात्र उदय होता है। स्त्रीवेद के उदय में क्षपकश्रेणी आरंभ करनेवाले को स्त्रीवेद की, नपुंसकवेद के उदय से आरंभ करनेवाले को नपुंसक वेद की और पुरुषवेद के उदय से श्रेणी आरंभ करनेवाले को पुरुषवेद की अपनी-अपनी प्रथम स्थिति की एक आवलिका शेष रहे, तब उदीरणा नहीं होती है, मात्र उदय होता है । इसीलिए उपर्युक्त इकतालीस प्रकृतियों का उदय होने पर भी उदीरणा भजनीय होती है । शेष इक्यासी कर्मप्रकृतियों का उदय होने पर उदीरणा भजनीय नहीं होती है, अर्थात् शेष इक्यासी कर्मप्रकृतियों का जब तक उदय होता है, तब तक उदीरणा भी होती है, परंतु उदय के अभाव में उदीरणा नहीं होती है। कुछ स्थितियों में उदय और उदीरणा साथ होती है और कुछ स्थितियों में साथ नहीं होती है। बन्ध के तीन प्रकार : - पंचसंग्रह के पाँचवें द्वार की नवी गाथा में बन्ध के प्रकार बताए गए हैं। बन्ध तीन प्रकार के होते हैं - अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त । साम्परायिक कर्म का बन्ध अभव्य जीवों में अनादि-अनन्त है । भूतकाल में सदा बन्ध होने से अनादि और भविष्यकाल में कभी भी बन्ध का नाश नहीं होगा, सदा कर्म बन्ध होगा, इसीलिए अनन्त । भव्य जीवों में अनादि-सान्त । भूतकाल में सदा बन्ध होने से अनादि और भविष्यकाल में मोक्ष जाते समय बन्ध का विच्छेद होगा, इसीलिए सान्त । उपशान्तमोह गुणस्थान से पतित जीवों को सादि-सान्त। उपशान्तमोह गुणस्थान में बन्ध का अभाव होने से और वहाँ से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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