________________
प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{303} पतित होने पर फिर से बन्ध होने से सादि । तात्पर्य यह है कि उपशान्तमोह गुणस्थान में साम्परायिक कर्म का बन्ध नहीं होता है। वहाँ से पतित, दसवें आदि गुणस्थान को प्राप्त होते हैं, तब कर्म बांधते हैं, इसीलिए सादि । भविष्य में ज्यादा से ज्यादा, कुछ कम न्यून अर्धपुद्गल परावर्तकाल में मोक्ष में जाने से बन्ध का क्षय होगा, इसीलिए सान्त। उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशबन्ध :
पंचसंग्रह के पंचमद्वार की गाथा क्रमांक-६१ की टीका में उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध और जघन्य प्रदेशबन्ध की चर्चा करते हुए यह बताया है कि मनोलब्धि सम्पन्न अर्थात् संज्ञी जीवों को ही उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होता है। इसके विपरीत असंज्ञी अर्थात् मनोलब्धि से हीन जीव उनकी अपेक्षा जघन्य प्रदेशबन्ध करते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि प्रदेशबन्ध की स्थिति में भी मनोलब्धि का महत्वपूर्ण स्थान है, किन्तु यह विवेचन सापेक्षित रूप से ही समझना चाहिए, क्योंकि मनोलब्धि से युक्त होने पर ही अप्रमत्तसंयत आदि ऊपर के गुणस्थानों में भी जघन्य प्रदेशबन्ध होता है। किस कर्मप्रकृति का जघन्य प्रदेशबन्ध होगा और किस कर्मप्रकृति का उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध होगा, यह तथ्य भी उन प्रकृतियों के स्वरूप पर निर्भर होता है। कुछ कर्मप्रकृतियाँ ऐसी भी होती हैं, जिनका उत्कृष्ट बन्ध असंज्ञी दशा में भी हो सकता है। कुछ कर्मप्रकृतियाँ ऐसी भी हो सकती हैं, जिनका उत्कृष्ट प्रदेशबन्ध संज्ञी दशा में भी होता है।
पंचसंग्रह के पंचमद्वार की गाथा क्रमांक - १०४ में कहा गया है कि ज्ञानावरणीय पाँच, अन्तराय पाँच, दर्शनावरणीय चार, तीन वेद, संज्वलन लोभ और सम्यक्त्व मोहनीय-इन उन्नीस प्रकृतियों का अपने-अपने अन्तकाल में उदीरणा क्षय होने के पश्चात् सत्ता में जब एक आवलिका मात्र स्थिति शेष रहे, तब उस आवलिका के चरम समय में जघन्य रस का उदय होता है । ध्रुवोदयी प्रकृतियों का अजघन्य प्रदेशोदय :
पंचसंग्रह के पंचमद्वार की गाथा क्रमांक-१०६ में कहा है कि धुवोदयी प्रकृतियों का अजघन्य प्रदेशोदय चार प्रकार से होता है- १. सादि २. अनादि ३. ध्रुव और ४. अधुव । उनका अनुत्कृष्ट प्रदेशोदय तीन प्रकार से होता है- १. अनादि २. धुव और ३. अधुव। मिथ्यात्व का अजघन्य और अनुत्कृष्ट प्रदेशोदय चार प्रकार का होता है - १. सादि २. अनादि ३. ध्रुव और ४. अध्रुव।
उत्कृष्ट संक्लेश में रहते हुए उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध करते समय क्षपित कर्माश कोई देव उत्कृष्ट प्रदेश की उद्वर्तना करे और बन्ध के अन्त समय में काल करके एकेन्द्रिय में उत्पन्न हो, तो एकेन्द्रिय में उत्पत्ति के प्रथम समय में सैंतालीस धुवोदयी प्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदय होता है, परंतु देवताओं में अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण का बन्धावलिका के चरम समय में जघन्य प्रदेशोदय ही समझना चाहिए। वह जघन्य प्रदेशोदय एक समय का होने से सादि-सान्त है। उस जघन्य प्रदेशोदय के अतिरिक्त समस्त प्रदेशोदय अजघन्य होता है। वह जघन्य प्रदेशोदय एकेन्द्रिय में उत्पत्ति के दूसरे समय में होने से सादि होता है। क्षपित काश होकर, जो देवगति में से एकेन्द्रिय में नहीं गए हैं, उन जीवों को अनादि, अजघन्य अभव्य को अनन्त अजघन्य और भव्य को सान्त अजघन्य प्रदेशोदय होता है ।
सैंतालीस कर्मप्रकृतियों का अनुत्कृष्ट प्रदेशोदय अनादि, धुव और अधुव-ऐसे तीन प्रकार से होता है। गुणश्रेणी के शीर्ष भाग में रहे हुए गुणित काश आत्मा को उन-उन प्रकृतियों के उदय के अन्त में उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है, किन्तु वह एक समय का होने से सादि-सान्त होता है, इसके अतिरिक्त अन्य समस्त प्रदेशोदय अनुत्कृष्ट है। वह सदा होते रहने से अनादि, अभव्य को धुव और भव्य को अधुव है ।
__ मिथ्यात्व का अजघन्य और अनुत्कृष्ट प्रदेशोदय सादि, अनादि, धुव और अधुव ऐसे चार प्रकार का है। प्रथम सम्यक्त्व प्राप्त करते समय जिसने अन्तकरण किया है। ऐसा क्षपितकाश कोई आत्मा उपशम सम्यक्त्व से गिरकर मिथ्यात्व में जाए और उस अन्तकरण का कुछ अधिक आवलिका शेष रहे, उस अन्तिम आवलिका में जो गोपुच्छाकार दलिक रचना होती है, उसका अन्तिम समय में जघन्य प्रदेशोदय होता है। वह प्रदेशोदय एक समय का होने से सादि और सान्त है। उस प्रदेशोदय के अतिरिक्त
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org