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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
पंचम अध्याय........{304} अन्य समस्त प्रदेशोदय अजघन्य है। वह उससे दूसरे समय में होने से सादि होता है, किन्तु वेदक सम्यक्त्व से गिरते भी अजघन्य प्रदेशोदय होने से सादि होता है, किन्तु जिन्होंने उस स्थिति को प्राप्त नहीं किया है, उनको अनादि, अभव्य को अनन्त और भव्य को सान्त होता है।
देशविरति गुणश्रेणी में रहते हुए कोई गुणित कर्माश आत्मा सर्वविरति प्राप्त करने के निमित्त से गुणश्रेणी करे और दोनों गुणश्रेणी का शिरोभाग प्राप्त हो, उस समय वहाँ से गिरकर कोई मिथ्यात्व में जाए, तो उसे उन दोनों गुणश्रेणी के शीर्ष भाग का अनुभव करते हुए मिथ्यात्व का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। वह एक समय का होने से सादि-सान्त है। उसके अतिरिक्त अन्य समस्त प्रदेशोदय अनुत्कृष्ट है, दूसरे समय मे होने से वह सादि अथवा वेदक सम्यक्त्व से गिरते समय अनुत्कृष्ट प्रदेशोदय शुरू होने से सादि, उस स्थिति को जिन्होने प्राप्त नहीं किया है उन्हे अनादि, अभव्य को ध्रुव और भव्य को अधुव है । शेष सभी अध्रुवोदयी एक सौ दस प्रकृतियों के जघन्य अजघन्य, उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट ये समस्त विकल्प सादि और सान्त - ऐसे दो प्रकार के होते हैं, क्योंकि वे सभी प्रकृतियाँ अधुवोदयी हैं। विभिन्न गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों का उदय एवं उदयविच्छेद :
गुणस्थानों के विवेचन में यह पक्ष भी विशेष रूप से विचारणीय है कि किस गुणस्थान में कितनी कर्मप्रकृतियों का उदय रहता है व कितनी कर्मप्रकृतियों का उदय-विच्छेद होता है । जब कर्मप्रकृतियों के उदय की चर्चा करते हैं, तो आगम में उदय दो प्रकार का बताया गया है - विपाकोदय और प्रदेशोदय । जब कोई कर्मप्रकृति उदय में आकर अपने फल के विपाक का अनुभव कराती है, तो यह विपाकोदय कहलाती है, किन्तु जो कर्मप्रकृतियाँ अपने उदय के समय अपने फल के विपाक की अनुभूति न करवाकर उदय में आकर निर्जरित हो जाती है, तो ऐसा उदय प्रदेशोदय कहलाता है। जैसे किसी व्यक्ति को बेहोश करके जब उसका ऑपरेशन आदि किया जाता है, तो उस समय शारीरिक पीड़ा की घटना तो घटित होती है, किन्तु व्यक्ति को उसका अनुभव नहीं होता है। इस प्रकार अपना विपाक या फल दिए बिना मात्र उदय में आकर जो कर्मप्रकृतियाँ निर्जरित हो जाती है, उनका प्रदेशोदय कहलाता है। जैन कर्म-सिद्धान्त की यह मान्यता है कि सभी कर्मों का विपाकोदय हो, यह आवश्यक नहीं है। अनेक कर्म ऐसे भी होते हैं, जो मात्र प्रदेशोदय करके निर्जरित हो जाते हैं।
जैन कर्म-सिद्धान्त के अनुसार जिन-जिन कर्मप्रकृतियों का बन्ध हुआ है, उनका उदय या उदीरणा आवश्यक है, किन्तु सभी कर्मप्रकृतियों के उदय या उदीरणा में विपाकोदय आवश्यक नहीं है, प्रदेशोदय होकर भी क्षय हो सकती है। पंचसंग्रह के पंचम द्वार की गाथा क्रमांक- ११०, १११, ११३, ११४ आदि में इस विषय की चर्चा हुई है कि किस गुणस्थान में कौन सी कर्मप्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है, वस्तुतः प्रदेशोदय का तात्पर्य इतना है कि कर्म के विपाक का अनुभव किए बिना (चेतना के स्तर पर) उसे उदय में लाकर समाप्त कर देना। पंचसंग्रह के द्वितीय द्वार की एक सौ दसवीं गाथा में कहा गया है कि सामान्यतया गुणश्रेणी के शीर्ष पर स्थित सभी कर्मप्रकृतियों का गुणित कर्माश आत्मा सर्वाधिक प्रदेशोदय करती है । इसके विपरीत क्षपित कर्माश आत्मा जघन्य प्रदेशोदय करता है। आगे कहा गया है कि सम्यक्त्व मोहनीय, तीनों वेद, संज्वलनकषाय आदि जिन कर्मप्रकृतियों का क्षीणमोह गुणस्थान में उदय-विच्छेद होता है, उन सभी कर्मप्रकृतियों का तथा सयोगीकेवली और अयोगीकेवली गुणस्थान में जिन कर्मप्रकृतियों का उदय-विच्छेद होता है, उन सभी कर्मप्रकृतियों का तथा लधुक्षपणा द्वारा क्षय की जानेवाली सभी कर्मप्रकृतियों का अपने उदय के अन्तिम समय में उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। इसीप्रकार जिन साधकों को अवधिज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है, उनकी अवधिद्विक की कर्मप्रकृतियों का भी उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। इसी प्रकार क्षीणमोह गुणस्थान में जिन कर्मप्रकृतियों का उदय-विच्छेद होता है, उन चौदह कर्मप्रकृतियों अर्थात् ज्ञानावरण पंचक, दर्शनावरण चतुष्क और अन्तराय पंचक का क्षपक आत्मा को क्षीणमोह गुणस्थान के चरम समय में उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है।
पंचसंग्रह के पाँचवे द्वार की एक सौ दसवीं गाथा में कौन-सी आत्मा उत्कष्ट प्रदेशोदय करती है और कौन-सी आत्मा जघन्य प्रदेशोदय करती है, इसका विवेचन किया गया है। सामान्यतया समस्त कर्मप्रकृतियों का गुणश्रेणी के शीर्षभाग में रहते हुए
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