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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ पंचम अध्याय .......(305} अधिकांश गुणितकर्मांश आत्मा को सामान्यतः उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है और क्षपितकर्मांश आत्मा को प्रायः समस्त कर्मप्रकृतियों का जघन्य प्रदेशोदय होता है । विभिन्न गुणस्थानों में उत्कृष्ट प्रदेशोदय के स्वामी : पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ ग्यारहवीं गाथा में कर्मप्रकृतियों के भिन्न-भिन्न उत्कृष्ट प्रदेशोदय के स्वामी कौन हैं, इस बात का विवेचन किया गया है। सम्यक्त्वमोह, तीन वेद और संज्वलन चतुष्क- इन आठ प्रकृतियों को लघुक्षपणा से क्षय करने के लिए उद्यमवंत हुई गुणितकर्यांश आत्मा को उस उस प्रकृति के उदय के चरम समय में उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। 1 क्षीणमोह गुणस्थान में जिन प्रकृतियों का उदय-विच्छेद होता है, वे ज्ञानावरण पंचक, अन्तराय पंचक और दर्शनावरण चतुष्क- इन चौदह प्रकृतियों को लधुक्षपणा से खपाने के लिए उद्यमवंत हुई क्षपक आत्मा को गुणश्रेणी के शीर्ष भाग में रहते हुए क्षीणमोह गुणस्थान के चरम समय में उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। अवधिज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरण का उत्कृष्ट प्रदेशोदय जिसे अवधिज्ञान और अवधिदर्शन उत्पन्न नहीं हुआ है, उसे होता है, क्योंकि अवधिज्ञान को उत्पन्न करने हेतु अधिक कर्मपुद्गलों का तथा स्वभाव से क्षय होता है, जिससे अवधिज्ञानी को उत्कृष्ट प्रदेशोदय नहीं होता है, किन्तु अवधिलब्धि रहित आत्मा को उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है । सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती आत्मा को गुणितकर्यांश सयोगीकेवली गुणस्थान के चरम समय में जिन-जिन प्रकृतियों का उदय-विच्छेद होता है, वे औदारिक सप्तक, तैजसकार्मण सप्तक, संस्थानषट्क, प्रथम संघयण, वर्णादिवीश, पराघातनामकर्म, उपघातनामकर्म, अगुरुलघुनामकर्म, विहायोगतिद्विक, प्रत्येकनामकर्म, स्थिरनामकर्म, अस्थिरनामकर्म, शुभनामकर्म, अशुभनामकर्म और निर्माणनामकर्म इन बावन प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। सुस्वरनामकर्म और दुःस्वरनामकर्म का निरोध के समय में और उच्छ्वासनामकर्म का उच्छ्वास के निरोधकाल में उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। स्वर और उच्छ्वास का रोध करने में जिस समय में अन्तिम उदय होता है, उस समय में उत्कृष्ट प्रदेशोदय सम्भव है । अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती आत्मा को जिन कर्मप्रकृतियों का उदय-विच्छेद होता है, वे दो में से एक वेदनीय, मनुष्यगति, मनुष्यायु, पंचेन्द्रियगति, त्रसनामकर्म, बादरनामकर्म, पर्याप्तनामकर्म, सुभगनामकर्म, आदेयनामकर्म, यशः कीर्तिनामकर्म, तीर्थंकरनामकर्म और उच्च गोत्र - इन बारह प्रकृतियों का गुणितकर्यांश अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती आत्मा को चरम समय में उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ तेरहवीं गाथा में तिर्यंचगति में रहे हुए मिथ्यादृष्टि जीव को उत्कृष्ट प्रदेशोदय बताया है । उस मिथ्यादृष्टि जीव को तिर्यंचगति प्रायोग्य जातिचतुष्क, स्थावरनामकर्म, सूक्ष्मनामकर्म, साधारण नामकर्म, मिथ्यात्व मोहनीय, अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क, मिश्रमोहनीय और स्त्यानगृद्धित्रिक, अपर्याप्तनामकर्म-इन सत्रह प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय दूसरी और तीसरी गुणश्रेणी के शीर्ष भाग का योग जिस समय में होता है तब होता है । कोई आत्मा देशविरति की गुणश्रेणी और सर्वविरति की गुणश्रेणी प्राप्त करके सम्यक्त्वादि गुण से गिरकर मिथ्यात्व में जाए और वहाँ से अप्रशस्त मरण को प्राप्त कर तिर्यंच में उत्पन्न हो, तो ऐसे गुणितकर्मांश तिर्यंच को, जिस समय में दोनों गुणश्रेणी के शीर्ष भाग का योग हो, उस समय में तिर्यंचगति पूर्वोक्त सात प्रकृतियों का और अपर्याप्तनामकर्म का उदय होने पर उसका उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। मिथ्यात्व मोहनीय और अनन्तानुबन्धी चतुष्क के उदय के संयोग में तो मृत्यु प्राप्त करे तथा उस समय में यदि दूसरी और तीसरी गुणश्रेणी के शिरोभाग का योग है, कषाय गणितकर्मांश आत्मा ऐसे समय में मिथ्यात्व को प्राप्त करे, तो मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषाय का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। गुणश्रेणी के शिरोभाग में रहते हुए कोई आत्मा मिश्र गुणस्थान प्राप्त करे तो मिश्रमोहनीय का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। मिथ्यात्व गुणस्थान प्राप्त करे या न करे, तो भी गुणितकर्मांश आत्मा को दूसरी एवं तीसरी गुणश्रेणी करते हुए स्त्यानगृद्धित्रिक का उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है, क्योंकि स्त्यानगृद्धित्रिक का तो प्रमत्तसंयत तक ही उदय होता है। स्त्यानगृद्धि में से किसी भी निद्रा का उदय हो, तो उसे भी उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है। मिध्यात्व में जाए तो वहाँ भी उत्कृष्ट प्रदेशोदय होता है । पंचसंग्रह के पंचम द्वार की एक सौ सत्रहवीं गाथा में कहा गया है कि तृतीय गुणश्रेणी से पतित दर्शनमोह के क्षपक को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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