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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... अष्टम अध्याय........{451) अध्ययन में अधिक व्यापक बनाया है। जैन और बौद्ध साधना पद्धतियों में निर्वाण एवं मुक्ति के स्वरूप को लेकर मत-वैभिन्य भले ही हो, फिर भी दोनों का आदर्श है निर्वाण की उपलब्धि । साधक जितना अधिक निर्वाण की भूमिका के समीप होता है, उतना ही अधिक आध्यात्मिक विकास की सीमा का स्पर्श करता है । जैन परम्परा में आध्यात्मिक विकास की इन भूमियों की मान्यता को लेकर उसके अपने ही सम्प्रदायों में मत-वैभिन्य है । श्रावकयान अथवा हीनयान सम्प्रदाय जिसका लक्ष्य वैयक्तिक निर्वाण अथवा अर्हद् पद की प्राप्ति है, आध्यात्मिक विकास की चार भूमियाँ मानता है, जबकि महायान सम्प्रदाय, जिसका चरम लक्ष्य बुद्धत्व की प्राप्ति के द्वारा लोक-मंगल की साधना है, आध्यात्मिक की दस भूमियाँ मानता है। (अ) हीनयान में आध्यात्मिक विकास की चार भूमियाँ और गुणस्थान -बौद्धधर्म में भी जैनदर्शन के अनुसार संसारी प्राणियों को दो भागों में विभाजित किया है-(१) पृथन्जन या मिथ्यादृष्टि तथा (२) आर्य या सम्यग्दृष्टि। मिथ्यादृष्टि अथवा पृथन्जन अवस्था का काल प्राणी के अविकास का काल है। विकासकाल तब प्रारम्भ होता है, जब साधक सम्यग्दृष्टि को अपनाकर निर्वाण मार्ग पर प्रयाण शुरू कर देता है, फिर भी सभी पृथन्जन या मिथ्यादृष्टि प्राणी समान नहीं होते, उनमें तरतमता होती है। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं, जिनका दृष्टिकोण मिथ्या होने पर भी आचरण कुछ सम्यक् प्रकार का होता है, इसीलिए पृथन्जन भूमि को दो भागों में बाँटा गया है-(१) प्रथम अंध पृथन्जन भूमि-यह अज्ञान एवं मिथ्यादृष्टित्व की तीव्रता की अवस्था है एवं (२) कल्याण पृथन्जन भूमि । मज्झिम निकाय में इस भूमि का निर्देश है, जिसे धर्मानुसारी या श्रद्धानुसारी भूमि भी कहा गया है । इस भूमि में साधक निर्वाण मार्ग की ओर अभिमुख तो होता है, लेकिन उसे प्राप्त नहीं करता । इसकी तुलना जैनधर्म में साधक की मार्गानुसारी अवस्था से की जा सकती है। आचार्य जयन्तसेनसूरिजी ने अपने आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएँ एवं पूर्णता नामक ग्रन्थ में गुणस्थान की बौद्धदर्शन से तुलना करते हुए कहा है कि जैन शास्त्रों में जैसे कर्मबन्ध के कारण कर्मप्रकृतियों का वर्णन है, वैसे ही बौद्धदर्शन में दस संयोजनाएँ बताई गई हैं ४६२ (१) सक्काय (२) दिट्ठिविचिकिच्छा (३) सीलव्वत पराभास (४) कामराग (५) परीध, (६) रूपराग (७) अरूपता (८) मान (६) उदधच्च और (१०) अविज्जा । प्रथम की पांच औद्भागीय और शेष पांच उड्ढभागीय कही जाती है। इनमें से प्रथम तीन संयोजनाओं के क्षय होने पर स्रोतापत्र अवस्था प्राप्त होती है। पांच औद्भागीय संयोजनाओं के नष्ट होने पर अनागामी अवस्था एवं दसों संयोजनाओं के नाश होने पर अर्हतावस्था (अरिहंत, सयोगीकेवली) अवस्था प्राप्त होती है। यह वर्णन जैन शास्त्रगत कर्मप्रकृतियों के क्षयक्रम से मिलता-जुलता है। ____ हीनयान सम्प्रदाय के अनुसार सम्यग्दृष्टि सम्पन्न निर्वाणमार्ग पर आरूढ़ साधक को अपने लक्ष्य अर्हत् अवस्था करने के पूर्व इन चार भूमियों को पार करना होता है। सर्वप्रथम उन्होंने बौद्धधर्म के हीनयान सम्प्रदाय में आध्यात्मिक विकास की जो चार भूमियाँ हैं, उनकी गुणस्थान सिद्धान्त से तुलना की है । हीनयान सम्प्रदाय में आध्यात्मिक विकास की चार अवस्थाएं मानी गई है । स्रोतापनभूमि, सकृदागामीभूमि, अनागामीभूमि, अर्हद्भमि । इसमें स्रोतापनभूमि जैन गुणस्थान सिद्धान्त की तुलना करते हुए डॉ. सागरमल जैन बताते हैं कि जैन विचारधारा के अनुसार क्षायिक सम्यक्त्व से युक्त चतुर्थ सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर सातवें अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक की जो अवस्थाएँ हैं, उनकी तुलना स्रोतापन्न अवस्था से की जा सकती है, क्योंकि जैन विचारधारा के अनुसार भी इन अवस्थाओं में साधक दर्शन (दृष्टिकोण) विशुद्धि एवं चारित्र (आचार) विशुद्धि से युक्त होता है । सातवें गुणस्थान तक वासनाओं का प्रकटन तो समाप्त हो जाता है, लेकिन उनके बीज (राग, द्वेष एवं मोह) सूक्ष्म रूप में बने रहते हैं, अर्थात् कषायों के तीनों चौक समाप्त होकर मात्र संज्वलन चौक शेष रहता है। जैन परम्परा की इस बात को बौद्ध परम्परा यह कहकर प्रकट करती है। अवस्था में कामधातु (वासनाएँ) तो समाप्त हो जाती है, लेकिन रूपधातु (आस्रव अर्थात् राग-द्वेष एवं मोह) शेष रहती है । इसी क्रम में सकृदागामी भूमि की गुणस्थान सिद्धान्त से तुलना करते हुए वे लिखते हैं कि सकृदागामी भूमि की तुलना जैनदर्शन के आठवें गुणस्थान से की जा सकती है । दोनों दृष्टिकोणों के अनुसार साधक इस अवस्था में बन्धन के मूल कारण राग-द्वेष-मोह का प्रहाण करता है और विकास की अग्रिम अवस्था, जिसे जैनधर्म क्षीणमोह गुणस्थान और बौद्ध विचार अनागामी भूमि कहता है, में प्रविष्ट हो जाता है । जैनधर्म के अनुसार जो साधक इन गुणस्थानों की साधनावस्था में ही आयु पूर्ण कर लेता है, वह अधिक से अधिक तीसरा जन्म निर्वाण प्राप्त कर लेता है, जबकि बौद्धधर्म के अनुसार सकृदागामी भूमि के साधनाकाल में मृत्यु ४६२ मराठी में भाषान्तरित दीधनिकाय पृ. १७५ की टिप्पणी। Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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