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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... अष्टम अध्याय........{452} को प्राप्त साधक एक बार ही पुनः संसार में जन्म ग्रहण करता है। दोनों विचारधाराओं का इस सन्दर्भ में मतैक्य है कि जो साधक इस साधना को पूर्ण कर लेता है, वह अनागामी या क्षीणमोह गुणस्थान कर भूमिका को प्राप्त कर उसी जन्म में अर्हत्व एवं निर्वाण की प्राप्ति कर लेता है। इसी प्रकार अनागामी भूमि की गुणस्थान सिद्धान्त से तुलना करते हुए उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि अनागामी भूमि क्षीणमोह गुणस्थान के तुल्य है । इस सम्बन्ध में वे लिखते हैं कि साधनात्मक दिशा में आगे बढ़ने वाले साधक का कार्य इस अवस्था में यह होता है कि वह शेष पांच उड्ढभागीय संयोजन - (१) रूप-राग, (२) अरूप-राग (३) मान (४) औद्धत्य और (५) अविद्या के नाश का प्रयास करे । जब साधक इन पांचों संयोजनों का भी नाश कर देता है, तब वह विकास की अग्रिम भूमिका अर्हतावस्था को प्राप्त करता है। जो साधक इस अग्रिम भूमि को प्राप्त करने के पूर्व ही साधनाकाल में मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं, वे ब्रह्मलोक में जन्म लेकर वहाँ शेष पांच संयोजनों के नष्ट हो जाने पर निर्वाण प्राप्त करते हैं । उन्हें पुनः इस लोक में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं रहती । अनागामी भूमि की तुलना जैनों के क्षीणमोह गुणस्थान से की जा सकती है । लेकिन यह तुलना अनागामी भूमि के उस अन्तिम चरण में ही समुचित होती है, जब अनागामी भूमि का साधक दसों संयोजनों के नष्ट हो जाने पर आगे की अर्हत् भूमि में प्रस्थान करने की तैयारी में होता है । साधारण रूप में आठवें से बारहवें गुणस्थान तक की अवस्थाएँ इस भूमि के अर्न्तगत आती हैं । इसी प्रकार अन्तिम अहेद् भूमि की तुलना उन्होंने सयोगीकवली गुणस्थान इस सम्बन्ध में वे तुलना करते हुए लिखते है कि अर्हद् भूमि में जब साधक उपर्युक्त दसों संयोजनों या बन्धनों को तोड़ देता है, तब वह अर्हतावस्था को प्राप्त कर लेता है । सम्पूर्ण संयोजनों के समाप्त हो जाने के कारण वह कृतकार्य हो जाता है, अर्थात् उसे कुछ करणीय नहीं रहता, यद्यपि वह संघ की सेवा के लिए क्रियाएँ करता है। समस्त बन्धनों या संयोजनों के नष्ट हो जाने के कारण उसके समस्त क्लेशों या दुःखों का प्रहाण हो जाता है । वस्तुतः यह जीवन्मुक्ति की अवस्था है । जैन विचारणा में इस अर्हतावस्था की तुलना सयोगीकेवली गुणस्थान से की जा सकती है। दोनों विचारधाराएँ इस भूमि के सम्बन्ध में काफी निकट हैं। न महायान सम्प्रदाय की आध्यात्मिक विकास की भूमियाँ और गुणस्थानk महायान सम्प्रदाय में दशभूमिशास्त्र के अनुसार आध्यात्मिक विकास की निम्नलिखित दस भूमियाँ (अवस्थाएँ) मानी गई हैं(१) प्रमुदिता (२) विमला (३) प्रभाकरी (४) अर्चिष्मती (५) सुदुर्जया (६) अभिमुक्ति (७) दूरंगमा (८) अचला (६) साधुमणि और (१०) धर्ममेधा। ___ हीनयान से महायान की ओर संक्रमण-काल में लिखे गए महावस्तु नामक ग्रन्थ में (१) दुरारोह (२) बद्धमान (३) पुष्पमण्डिता (४) रुचिरा (५) चित्त विस्तार (६) रूपमति (७) दुर्जया (८) जन्मनिदेश (६) यौवराज और (१०) अभिषेक नामक जिन दस भूमियों का विवेचन है, वे महायान की पूर्वोक्त दस भूमियों से भिन्न हैं। यद्यपि महायान का दस भूमियों का सिद्धान्त इसी मूलभूत धारणा के आधार पर विकसित हुआ है, तथापि महायान ग्रन्थों में कहीं दस से अधिक भूमियों का विवेचन मिलता है। असंग के महायान सूत्रालंकार में प्रथम भूमि को अधिमुक्तिचर्याभूमि कहा गया है और अन्तिम बुद्धभूमि या धर्ममेघा का भूमियों की संख्या में परिगणन नहीं किया है । इसी प्रकार लंकावतारसूत्र में धर्ममेघा और तथागत भूमियों को अलग-अलग माना है । (१) अधिमुक्तिचर्याभूमि- यों तो अन्य ग्रन्थों में प्रमुदिता को प्रथम भूमि माना गया है, लेकिन असंग प्रथम अधिमुक्तिचर्याभूमि का विवेचन करते हैं । इसके पश्चात् प्रमुदिता भूमि का अधिमुक्तिचर्याभूमि में साधक को पुद्गल नैरात्म्य और धर्मनैरात्म्य का अभिसमय (यर्थाथ ज्ञान) होता है। यह दृष्टि-विशुद्धि की अवस्था है । इस भूमि की तुलना जैनदर्शन में चतुर्थ अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से की जा सकती है । बोधिसत्व इस भूमि में दान-पारमिता का अभ्यास करता है ।। (२) प्रमुदिता - इसमें अधिशील शिक्षा होती है । यह शीलविशुद्धि के प्रयास की अवस्था है । इस भूमि में बोधिसत्व लोकमंगल की साधना करता है । इसे बोधि प्रस्थानचित्त की अवस्था कहा जा सकता है । बोधिप्रणिधीचित्त मार्गज्ञान है, लेकिन बोधि प्रस्थानचित्त मार्ग में गमन करने की प्रक्रिया है । जैन परम्परा में इस भूमि की तुलना पंचम विरताविरत एवं षष्ठ सर्वविरतसम्यग्दृष्टि नामक गुणस्थान से की जा सकती है । इस भूमि का लक्षण है कर्मों की अविप्रणाश व्यवस्था अर्थात् ज्ञान के प्रत्येक कर्म का भोग अनिवार्य है, कर्म अपना फल दिए बिना नष्ट नहीं होता । बोधिसत्व इस भूमि में शील पारमिता का अभ्यास करता है । सूक्ष्म से सूक्ष्म अपराध भी नहीं करता है । अन्त में पूर्णशील विशुद्ध हो जाता है। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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