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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...
अष्टम अध्याय........{450} गुण सत्वगुण से शासित होता है । यह विचार की दृष्टि से रज समन्वित सत्व गुण प्रधान और आचार की दृष्टि से रज समन्वित तमोगुण प्रधान अवस्था है।
(५) देशविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में विचार की दृष्टि से तो सत्वगुण प्रधान होता है, साथ ही आचार की दृष्टि से भी सत्व का विकास प्रारम्भ हो जाता है । यद्यपि रज और तम पर उसका प्राधान्य स्थापित नहीं हो पाता है । यह तमोगुण समन्वित सत्वोन्मुखी रजोगुण की अवस्था है।
(६) प्रमत्तसंयत गुणस्थान में यद्यपि आचार पक्ष और विचार पक्ष- दोनों में सत्वगुण प्रधान होता है, फिर भी तम और रज उसकी प्रधानता को स्वीकार नहीं करते हुए अपनी शक्ति बढ़ाने की और आचार पक्ष की दृष्टि से सत्व पर अपना प्रभुत्व जमाने की कोशिश करते रहते हैं।
(७) अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में सत्वगुण, तमोगुण का या तो पूर्णतया उन्मूलन कर देता है, अथवा उस पर पूरा अधिकार जमा लेता है, लेकिन अभी रजोगुण पर उसका पूरा अधिकार नहीं हो पाता है।
(८) अपूर्वकरण गुणस्थान में सत्वगुण रजोगुण पर पूरी तरह नियंत्रण करने का प्रयास करता है ।
(E) अनिवृत्तिकरण नामक नवें गुणस्थान में सत्वगुण, रजोगुण को काफी अशक्त बनाकर उस पर पूरा अधिकार जमा लेता है, फिर भी रजोगुण अभी पूर्णतया निःशेष नहीं होता है । रजोगुण के रूप में कषाय एवं तृष्णा का बहुत कुछ भाग नष्ट हो जाता है, फिर भी रागात्मकता सूक्ष्म लोभ के छद्मवेश में अवशेष रहती हैं।
मसंपराय नामक गुणस्थान में साधक छद्मवेशी रजस् को, जो सत्व का छद्म स्वरूप धारण किए हुए था, पकड़कर उस पर अपना आधिपत्य स्थापित करता है।
(११) उपशान्तमोह गुणस्थान में सत्व का तमस्, रजस् पर पूर्ण अधिकार तो होता है, लेकिन यदि सत्व पूर्ण अवस्थाओं में उनका पूर्णतया उन्मूलन नहीं करके मात्र उनका दमन करते हुए विकास की इस अवस्था को प्राप्त करता है, तो वे दमित तमस् और रजस् अवसर पाकर पुनः उस पर हावी हो जाते हैं।
(१२) क्षीणमोह गुणस्थान विकास की वह कक्षा है, जिसमें साधक पूर्व अवस्थाओं के तमस् तथा रजस् का पूर्णतया उन्मूलन कर देता है । यह विशुद्ध सत्व गुण की अवस्था है । यहाँ आकर सत्व का रजस् और तमस् से चलने वाला संघर्ष समाप्त हो जाता है । साधक को अब सत्वरूपी उस साधन की भी कोई आवश्यकता नहीं रहती है, अतः वह ठीक उसी प्रकार सत्वगुण का भी परित्याग कर देता है जैसे काँटे के द्वारा काँटा निकाल लेने पर उस काँटा निकालने वाले काँटे का भी परित्याग कर दिया जाता है। यहाँ नैतिक पूर्णता प्राप्त हो जाने से विकास एवं तपन के कारणभूत तीनों गुणों का साधनरुपी स्थान समाप्त हो जाता है।
(१३) सयोगीकेवली गुणस्थान आत्मतत्व की दृष्टि से त्रिगुणातीत अवस्था है । यद्यपि शरीर के रूप में इन तीनों का अस्तित्व बना रहता है, तथापि इस अवस्था में त्रिगुणात्मक शरीर में रहते हुए भी आत्मा उससे प्रभावित नहीं होती । वस्तुतः अब यह त्रिगुण भी साधन के रूप में संघर्ष की दशा में रहकर विभाव से स्वभाव बन जाते हैं । वह साधना में परिणत हो जाती है । साधन स्वभाव बन जाता है। डॉ. राधाकृष्णन् के शब्दों में, "तव सत्व उन्नयन के द्वारा चेतना का प्रकाश या ज्योति बन जाता है, रजस् तप बन जाता है और तमस् प्रशान्तता या शान्ति बन जाता है" ।४६१
(१४) गीता की दृष्टि से तुलना करने पर अयोगीकेवली गुणस्थान त्रिगुणातीत और देहातीत अवस्था माना जा सकता है। जब गीता का जीवन्मुक्त साधक योग प्रक्रिया के द्वारा अपने शरीर का परित्याग करता है, तो वही अवस्था जैन परम्परा अयोगीकेवली गुणस्थान कही जाती है। इस प्रकार तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि गीता की त्रिगुणात्मक प्रकृति धारणा जैन परम्परा की कर्मप्रकृति एवं उस पर आधारित गुणस्थान सिद्धान्त से निकट है ।
| बौद्धदर्शन और गुणस्थान की अवधारणा पं. सुखलालजी ने बौद्धदर्शन के साथ गुणस्थान सिद्धान्त की तुलना करते हुए कुछ भूमियों का निर्देश मात्र किया था, किन्तु डॉ सागरमल जैन ने इस तुलनात्मक अध्ययन को अपने शोधग्रन्थ जैन बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक ४६१ भगवद्गीता : डॉ. राधाकृष्णन् ७/१६, ७/१८
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