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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... अष्टम अध्याय........{449) (१) तत्वरूपा - गुण, कर्म, आकाश, दिशा, मन आदि छत्तीस तत्वों को अपने से पृथक् जानना तत्वरूपा नामक प्रथम अवस्था है। (२) तत्वदर्शन - गुण, कर्मादि छत्तीस तत्वों को अचेतन (जड़) समझना, तत्वदर्शन नामक द्वितीय अवस्था है । (३) तत्वशुद्धि-इन ३६ तत्वों से अपनी आत्मा को पृथक करना, उसे तत्वशुद्धि कहा गया है। (४) आत्मरूपा - अणु के भाव आणव अर्थात् शरीर के आत्म तत्व को मुक्त करना आत्मरूपा अवस्था है। ) आत्मदर्शन - अहंता और ममता का नाश आत्मदर्शन है। (६) आत्मशुद्धि - पाश के कारण कर्म होते हैं, इसका ज्ञान करना, यह आत्मशुद्धि की अवस्था है। (७) शिवरूप - शिव मोक्षदायी है, ऐसी दृढ़ आस्था को शिवरूप दशा कहा गया है । 1) शिवदर्शन - सर्वत्र शिव का दर्शन करना, यही शिवदर्शन नामक अवस्था है। (E) शिवयोग - शिव-शक्ति से तादात्म्य प्राप्त करना, शिवयोग नामक भूमिका है। (१०) शिवभोग - स्वयं शिवरूप होकर मुक्तावस्था में अतिन्द्रिय ब्रह्मनन्द का उपभोग करना शिवभोग नामक अन्तिम दसवीं भूमिका है। जैनशास्त्र के अनुसार इन्हें हम चौथे गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक घटित कर सकते हैं, क्योंकि ये सब तत्वरूप हैं। गीता का त्रिगुण सिद्धान्त और गुणस्थान भारतीय हिन्दूधर्म-दर्शन के विपुल साहित्य में गीता का एक महत्वपूर्ण स्थान है । परम्परागत विश्वास तो यह है कि कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में कृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था। यद्यपि इस परम्परागत मान्यता के सम्बन्ध में विद्वानों में मतैक्य नहीं है, फिर भी इतना तो निश्चित है कि गीता हिन्दू परम्परा का एक सारभूत ग्रन्थ है । गीता को उपनिषदों का सार कहा गया है । गीता का दार्शनिक चिंतन मुख्यतः सांख्यदर्शन से प्रभावित है । सांख्यदर्शन में पुरुष को बन्धन में डालनेवाला तत्व प्रकृति को माना गया है और यह प्रकृति त्रिगुणात्मक है । गीता में इन त्रिगुणों की कमी और अधिकता के आधार पर ही व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का निर्देश उपलब्ध होता है । डॉ. सागरमल जैन ने अपने शोधप्रबन्ध 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' में उल्लेखित इन त्रिगुणों के पारस्परिक सम्बन्धों तथा इनकी प्रमुखता और गौणता को लेकर चौदह गुणस्थानों की अवधारणा का तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत किया है । यहाँ हम उस कृति को आधार बनाकर गीता और जैनदर्शन में वर्णित आध्यात्मिक विकास की अवस्थाओं का तुलनात्मक विवरण प्रस्तुत करेंगे। जैन आचार-दर्शन के चौदह गुणस्थानों की गीता के दृष्टिकोण से तुलना करने के लिए सर्वप्रथम हमें यह निश्चय करना होगा कि गीता में वर्णित तीनों गुणों का स्वरूप क्या है और वे जैन विचारणा के अनुसार किन-किन अवधारणा से मेल खाते हैं। गीता के अनुसार तमोगुण के लक्षण अज्ञान, जाड्यता, निष्क्रियता, प्रमाद, आलस्य, निद्रा और मोह हैं । रागात्मकता, तृष्णा, लोभ, क्रियाशीलता, अशान्ति और ईर्ष्या रजोगुण के लक्षण हैं । सत्वगुण ज्ञान के प्रकाश, निर्माल्यता सुखों का उत्पादक है । इन तीनों गुणों की प्रकृतियों के बारे में विचार करने पर ज्ञात होता है कि जैनदर्शन में बन्धन के पांच कारणों - (१) अज्ञान (मिथ्यात्व), (२) प्रमाद, (३) अविरति, (४) कषाय और (५) योग से इनकी तुलना की जा सकती है । तमोगुण को मिथ्यात्व और प्रमाद, रजोगुण को अविरति एवं कषाय सहित योग को तथा सत्वगुण को विशुद्ध ज्ञानोपयोग, दर्शनोपयोग, चारित्रोपयोग के तुल्य माना जा सकता है । इन तुल्य आधारों के द्वारा तुलना करने पर गुणस्थान की धारणा का गीता के अनुसार निम्नलिखित स्वरूप होगा - (१) मिथ्यात्व गुणस्थान - मिथ्यात्व गुणस्थान में तमोगुण प्रधान होता है और रजोगुण तमोन्मुखी प्रवृत्तियों में संलग्न होता है । सत्वगुण इस अवस्था में पूर्णतया तमोगुण और रजोगुण के अधीन होता है । यह रज समन्वित तमोगुण-प्रधान अवस्था है। (२) सास्वादन गुणस्थान की अवस्था में भी तमोगुण प्रधान होता है । रजोगुण तमोन्मुखी होता है, फिर भी किंचित् रूप में सत्वगुण का प्रकाश रहता है । यह सत्व, रज समन्वित तमोगुण प्रधान अवस्था है। (३) मिश्र गुणस्थान में रजोगुण प्रधान होता है । सत्व और तम दोनों ही रजोगुण के अधीन होते है । यह सत्व-तम समन्वित रजोगुण प्रधान अवस्था है । (४) सम्यक्त्व गुणस्थान में व्यक्ति के विचार पक्ष में सत्व गुण का प्राधान्य होता है । विचार की दृष्टि से तमस् और रजस् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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