SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{123} गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का काल सामान्यतः जो कहा गया है, उसी के समरूप जानना चाहिए। स्त्रीवेदी सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का काल भी सामान्य के अनुरूप है । स्त्रीवेदियों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा स्त्रीवेद में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा स्त्रीवेद में अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का उत्कृष्ट काल कुछ कम (तीन अन्तर्मुहूर्त कम) पचपन पल्योपम परिमाण है । संयतासंयत गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक स्त्रीवेद में इन गुणस्थानों का काल सामान्यतः जैसा बताया गया है, उसी के अनुरूप जानना चाहिए । पुरुषवेद में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा पुरुषवेद में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा पुरुषवेद में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का उत्कृष्ट काल सागरोपमशतपृथक्त्व है। सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में पुरुषवेदी जीवों का काल सामान्य कथन के अनुसार है । नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में होते हैं । एक जीव की अपेक्षा नपुंसकवेद में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती नपुंसकवेदी जीवों का उत्कृष्ट काल अनन्तकालात्मक असंख्यात पुद्गलपरावर्तन परिमाण है। नपुंसकवेदी सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों का काल सामान्य कथन के अनुरूप है । नपुंसकवेदी सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों का काल सामान्य कथन के समरूप है । नपुंसकवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में पाए जाते हैं। एक जीव की अपेक्षा नपुंसकवेद में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। एक जीव की अपेक्षा नपुंसकवेद में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान का उत्कृष्ट काल कुछ कम (छः अन्तर्मुहूर्त कम) तेंतीस सागरोपम है। संयतासंयत से लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक नपुंसकवेद में इन गुणस्थानों का काल सामान्य से जैसा कहा गया है, उसी के समरूप है । अपगतवेदी जीवों में अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के अवेद भाग से लेकर अयोगीकेवली गुणस्थान तक का काल सामान्य कथन के समरूप है। कषायमार्गणा में क्रोधकषायवाले, मानकषायवाले, मायाकषायवाले और लोभकषायवाले जीवों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक के गुणस्थानों का काल मनोयोगियों के समान है। क्रोध, मान और माया - इन तीनों कषायों की अपेक्षा आठवें और नवें गुणस्थानवर्ती उपशमक जीवों में सभी जीवों की अपेक्षा, इन गुणस्थानों का जघन्य काल एक समय वों की अपेक्षा, इन गणस्थानों का उत्कष्ट काल अन्तर्महर्त है । एक जीव की अपेक्षा इन जीवों में इन गणस्थानों का जघन्य काल एक समय है, जो मरण की अपेक्षा है । एक जीव की अपेक्षा इनका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि कषायों का उदय अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक ही रहता है, इसके पश्चात् नियम से नष्ट होता है। क्षपकों में क्रोध, मान और मायाकषायवाले अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण-इन दो गुणस्थानवर्ती क्षपक तथा लोभकषायवाले अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसंपराय-इन तीन गुणस्थानवर्ती क्षपक, सभी जीवों की अपेक्षा, जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक होते है। सभी जीवों की अपेक्षा, इन क्षपक जीवों में इन गुणस्थानों का उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूर्त है । एक जीव की अपेक्षा भी इन क्षपक जीवों में इन गुणस्थानों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूर्त हैं। अकषायी अर्थात् कषाय रहित अन्तिम चार गुणस्थानवी जीवों में इन गुणस्थानों का काल सामान्य कथन के अनुसार है। ज्ञानमार्गणा में मति-अज्ञानवाले और श्रुत-अज्ञानवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का काल सामान्य कथन के समरूप है। मति-अज्ञानवाले और श्रुत-अज्ञानवाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का काल सामान्य के समान है। विभंगज्ञानियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव, सभी जीवों की अपेक्षा, तीनों कालों में होते हैं। एक जीव की अपेक्षा विभंगज्ञानवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेंतीस सागरोपम है । विभंगज्ञानवाले सास्वादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीवों में इस गुणस्थान का काल सामान्य के अनुसार है । आभिनिबोधिकज्ञानवाले, श्रुतज्ञानवाले और अवधिज्ञानवाले जीवों में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy