SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ तृतीय अध्याय ........{152} स्थिर अस्थिर, शुभ-अशुभ और यशः कीर्ति अयशः कीर्ति इन विरूद्ध प्रकृतियों के विकल्प से बत्तीस (दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो बराबर ३२) भंग होते हैं । प्रथम पच्चीस प्रकृतिवाले बन्धस्थान के स्वामी एकेन्द्रिय जाति के पर्याप्त तथा बादर और सूक्ष्म-इन दोनों में से किसी एक से युक्त तिर्यंचगति को बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव होते हैं। यह बन्धस्थान सासादन आदि गुणस्थानों में नहीं पाया जाता है, क्योंकि ऊपर के गुणस्थानवर्ती जीवों को एकेन्द्रिय जाति, बादर और सूक्ष्म-इन नामकर्म की प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है । द्वितीय बन्धस्थान पच्चीस प्रकृतिवाला भी है - तिर्यंचगति, द्वीन्द्रिय जाति, त्रीन्द्रिय जाति, चतुरिन्द्रिय जाति और पंचेन्द्रिय जाति- इन चार जातियों में से कोई एक, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुंडक संस्थान, औदारिक शरीरांगोपांग, असंप्राप्तासृपाटिका संघयण, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, तिर्यंचगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशः कीर्ति और निर्माण नामकर्म- इन द्वितीय बन्धस्थान की इन पच्चीस प्रकृतियों का भी एक ही भाव में अवस्थान होता है । द्वीन्द्रियादि चार जातिप्रकृतियों के विकल्प से चार (४) भंग होते हैं । द्वितीय पच्चीस प्रकृतिवाले बन्धस्थान के स्वामी त्रस और अपर्याप्त नामकर्म से संयुक्त तिर्यंचगति को बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव होते हैं। नामकर्म के तिर्यंचगति संबन्धी पांच बन्धस्थानों में तेईस प्रकृतिवाला बन्धस्थान है । तिर्यंचगति, एकेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुंडक संस्थान, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, तिर्यंचगति प्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुअलघु, उपघात, स्थावर, बादर और सूक्ष्म इन दोनों में से कोई एक, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीर और साधारण शरीर इन दोनों में से कोई एक, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशः कीर्ति और निर्माण नामकर्म-इन तेईस प्रकृतियों का एक ही भाव में अवस्थान होता है । यहाँ बादर-सूक्ष्म और प्रत्येक साधारण इन दो युगलों के विकल्प से ( दो गुणित दो बराबर ४) चार भंग होते हैं । तेईस प्रकृतिवाले बन्धस्थान के स्वामी एकेन्द्रिय जाति - अपर्याप्त तथा बादर और सूक्ष्म-इन दोनों में से एक से संयुक्त तिर्यंचगति बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव होते हैं । मनुष्यगति नामकर्म के तीन बन्धस्थान हैं- तीस, उनतीस और पच्चीस प्रकृतिवाले । नामकर्म के मनुष्यगति सम्बन्धी तीन बन्धस्थानों में से तीस प्रकृतिवाला निम्न बन्धस्थान है - मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, औदारिकशरीरांगोपांग, वज्रऋषभनाराचसंघयण, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुअलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर और अस्थिर- इन दोनों में से कोई एक, शुभ और अशुभ- इन दोनों में से कोई एक, सुभग, सुस्वर, आदेय यशःकीर्ति और अयशः कीर्ति- इन दोनों में से कोई एक, निर्माण और तीर्थंकर नामकर्म- इन तीस प्रकृतियों का अवस्थान एक ही भाव में होता है । यहाँ स्थिर अस्थिर, शुभ-अशुभ और यशः कीर्ति और अयशः कीर्ति- इन सप्रतिपक्ष प्रकृतियों के विकल्प से आठ (दो गुणित दो गुणित दो बराबर ८) भंग होते हैं। तीस प्रकृतिवाले बन्धस्थान के स्वामी पंचेन्द्रिय जाति और तीर्थंकर नामकर्म से युक्त मनुष्यगति को बांधनेवाले असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव होते हैं । मनुष्यगति सम्बन्धी जो दूसरा उनतीस प्रकृतिवाला बन्धस्थान है, वह तीस प्रकृतिवाले बन्धस्थान के समान है । विशेष यह है कि तीर्थकर नामकर्म को छोड़ देना चाहिए। इन उनतीस प्रकृतियों का एक ही भाव में अवस्थान होता है । उनतीस प्रकृतिवाले बन्धस्थान के स्वामी पंचेन्द्रिय जाति और पर्याप्त नामकर्म से संयुक्त मनुष्यगति को बांधनेवाले सम्यग्मिथ्यादृष्ट और असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव होते हैं। मनुष्यगति सम्बन्धी उनतीस प्रकृति वाला ही एक अन्य बन्धस्थान भी है - मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुंडक संस्थान को छोड़कर शेष पांच संस्थानों में से कोई एक, औदारिकशरीरांगोपांग, असंप्राप्तासृपाटिका संघयण को छोड़कर शेष पांच संस्थानों में से कोई एक वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुअलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, दोनों विहायोगति में से कोई एक, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर और अस्थिर इन दोनों में से कोई एक, शुभ और अशुभ दोनों में से कोई एक, सुभग और दुर्भग-इन दोनों में से कोई एक, सुस्वर और दुःस्वर- इन दोनों में से कोई एक, आदेय और अनादेय इन दोनों में से कोई एक, यशः कीर्ति और अयशः कीर्ति- इन दोनों में से कोई एक तथा निर्माण नामकर्म, इन उनतीस प्रकृतियों का भी एक ही भाव में अवस्थान होता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy