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________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... तृतीय अध्याय........{153} है । यहाँ पांच संस्थान, पांच संघयण तथा विहायोगति आदि उपर्युक्त सात युगलों के विकल्प से बत्तीस सौ (पांच गुणित पांच गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो बराबर ३२००) भंग होते हैं । द्वितीय उनतीस प्रकृतिवाले बन्धस्थान के स्वामी पंचेन्द्रिय जाति और पर्याप्त नामकर्म से युक्त मनुष्यगति बांधनेवाले सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानवी जीव हैं। मनुष्यगति सम्बन्धी एक अन्य उनतीस प्रकृतिवाला बन्धस्थान, पूर्व के उनतीस प्रकृतिवाले बन्धस्थान के समान है। विशेष यह है कि यहाँ छहों संस्थान तथा छहों संघयण का ग्रहण करना। यहाँ छः संस्थान, छः संघयण और विहायोगति आदि सात युगल प्रकृतियों के विकल्प से चार हजार छः सौ आठ (छः गुणित छः गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो गुणित दो बराबर ४६०८) भंग होते हैं। तृतीय उनतीस प्रकृति वाले बन्धस्थान के स्वामी पंचेन्द्रिय जाति और पर्याप्त नामकर्म से संयुक्त मनुष्यगति को बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवी जीव होते हैं। मनुष्यगति सम्बन्धी तीन बन्धस्थानों में पच्चीस प्रकृतिवाला तीसरा बन्धस्थान है-मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, औदारिक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, हुंडक संस्थान, औदारिक शरीरांगोपांग, असंप्राप्तासृपाटिका संघयण, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुअलघु, उपघात, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशः कीर्ति और निर्माण नामकर्म-इन पच्चीस प्रकृतियों का एक ही भाव में अवस्थान होता है । पच्चीस प्रकृति वाले बन्धस्थान के स्वामी पंचेन्द्रिय जाति और अपर्याप्त नामकर्म से संयुक्त मनुष्यगति को बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवर्ती जीव होते हैं । देवगति नामकर्म के पांच बन्धस्थान है। इकतीस, तीस, उनतीस, अठाईस और एक प्रकृतिवाला बन्धस्थान। नामकर्म के देवगति सम्बन्धी पांच बन्धस्थानों में इकतीस प्रकृतिवाला बन्धस्थान है-देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय शरीर, आहारक शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियशरीरांगोपांग, आहारकशरीरांगोपांग, वर्ण, गंघ, रस, स्पर्श, देवगतिप्रयोग्यानुपूर्वी, अगुरुअलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, निर्माण और तीर्थंकर-इन इकतीस प्रकृतियों का एक ही भाव में अवस्थान है । इकतीस प्रकृतिवाले बन्धस्थान के स्वामी पंचेन्द्रिय जाति, पर्याप्त, आहारक शरीर और तीर्थंकर नामकर्म से युक्त देवगति को बांधने वाले अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीव होते हैं। देवगति सम्बन्धी तीस प्रकृति वाला दूसरा बन्धस्थान इकतीस प्रकृति वाले बन्धस्थान के समान ही है । विशेष अन्तर इतना है कि तीर्थंकर प्रकृति को छोड़कर शेष तीस प्रकृतिवाले बन्धस्थान हैं। इन तीस प्रकृतियों का एक ही भाव में अवस्थान है । तीस प्रकृति वाले बन्धस्थान के स्वामी पंचेन्द्रिय जाति, पर्याप्त और आहारक शरीर से संयुक्त देवगति को बांधने वाले अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीव होते हैं। देवगति सम्बन्धी उनतीस प्रकृति वाला बन्धस्थान भी इकतीस प्रकृति वाले बन्धस्थान के समान ही है । विशेष यह है कि आहारक शरीर और आहारक अंगोपांग को छोड़कर शेष पूर्ववत् जानना चाहिए। इन प्रथम उनतीस प्रकृतियों का एक ही भाव में अवस्थान होता है । इस उनतीस प्रकृति वाले बन्धस्थान के स्वामी पंचेन्द्रिय जाति, पर्याप्त और तीर्थंकर प्रकृति से संयुक्त देवगति को बांधनेवाले प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरण गुणस्थानवी जीव होते हैं। देवगति सम्बन्धी एक अन्य उनतीस प्रकृति वाला बन्ध स्थान है-देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियशरीरांगोपांग, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरुअलघु, उपघात, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर और अस्थिर-इन दोनो में से कोई एक, शुभ और अशुभ-दोनों में से कोई एक, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति और अयशः कीर्ति-इन दोनों में से कोई एक, निर्माण और तीर्थंकर नामकर्म-इन उनतीस प्रकृतियों का एक ही भाव में अवस्थान होता है । यहाँ स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ और यशःकीर्ति-अपयशःकीर्ति-इन सप्रतिपक्ष प्रकृतियों के विकल्प से आठ (दो गुणित दो गुणित दो बराबर ८) भंग होते हैं। इस उनतीस प्रकृति वाले बन्धस्थान के स्वामी पंचेन्द्रिय जाति, पर्याप्त और तीर्थकर प्रकृति से युक्त देवगति को बांधनेवाले असंयतसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थानवी जीव होते हैं । देवगति, पंचेन्द्रिय जाति, वैक्रिय शरीर, तैजस शरीर, कार्मण शरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वैक्रियशरीरांगोपांग, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अगुरु Jain Education Interational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001733
Book TitlePrakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarshankalashreeji
PublisherRajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
Publication Year2007
Total Pages566
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Soul, & Spiritual
File Size20 MB
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